डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
गाजर के पौधे के सामान दिखने वाली वनस्पति गाजर घास एक उष्णकटिबंधीय अमेरीकी मूल का शाकीय पौधा है जो
आज देश के समस्त क्षेत्रों में मानव, पशु, पर्यावरण और जैव विविधितता हेतु एक गंभीर समस्या बनता
जा रहा है। चूंकि पौधे की पत्तियाँ गाजर
की पत्तियों के समान होती हैं इसलिए इसे गाजर घास के नाम से जाना जाता है। भारत में इस पौधे का आगमन अमेरिका तथा मेक्सिको से आयातित गेहुँ की विभिन्न प्रजातियों के साथ हुआ था। सर्वप्रथम इस पौधे को 1956 में पुणे, महाराष्ट्र के सूखे खेतों में देखा गया था। आज इस विदेशी मूल के पौधे ने
देश के सभी राज्यों में अपना अधिकार जमा लिया है। गाजर घास को देश के
विभिन्न कभागों के छायादार सिंचित
क्षेत्रों, शहरी क्षेत्रों, जल स्त्रोतों, रेल की पटरिओं और सडकों के किनारे,
आवासीय परिसरों और नए निर्माण स्थलों में सहजता से देखा जा सकता है। वस्तुतः
जैविक महामारी के रूप में भारत ही नहीं वरन विश्व भर में तांडव मचाने वाली विदेशी मूल की यह वनस्पति देश में कांग्रेस
घास, चांदनी घास,पंधारी फुले,चटक चांदनी आदि नामों से कुख्यात है। गाजर घास का वैज्ञानिक नाम पार्थिनियम हिस्टेरिफोरस है और यह पौधा
पुष्पीय पौधों के एस्टेरेसी कुल का सदस्य
है। पौधे की औसत ऊँचाई 0.5-1 मीटर तक होती है। गाजर घास एक वर्षीय पौधा है जो वर्ष में कभी भी और कही भी उग जाता है तथा एक माह की आयु में ही पुष्पन की क्रिया
प्रारंभ कर 6-8 माह तक फलता फूलता रहता है। इसके पौधे एक बार में 15000 से 25,000 सूक्ष्म बीज पैदा करते है जिनका प्रशारण वायु द्वारा दूर-दूर तक होता है। खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय जबलपुर द्वारा किये गए आंकलन के अनुसार भारत में गाजर घास लगभग 350 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फ़ैल चुकी है जिसका समय रहते उन्मूलन नहीं किया गया तो गाजर घास देश के लिए नाशूर बन सकती है।
गाजर घास के दुष्प्रभाव
गाजर घास के दुष्प्रभाव
यह खरपतवार न केवल फसलों के उत्पादन
को प्रभावित करता है वल्कि मनुष्य एवं
पालतू पशुओं के स्वास्थ्य लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। खेतों में फैलकर गाजर घास शीघ्र बढ़कर फसलों
और फलोद्यान के पौधों के साथ स्थान, प्रकाश, नमीं और पोषक तत्वों के साथ
प्रतिस्पर्धा कर उनकी उपज और उत्पाद की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। इसकी वजह से फसल उपज में 30-50 % से अधिक हाँनि हो सकती है। रासायनिक
दृष्टि से गाजर घास की पत्तियों और फूलों में सबसे अधिक मात्रा में ‘पार्थेनिन’
(सर्वाधिक 0.33 %) तथा ‘कोरोनोपिलिन’ नामक रसायन पाये जाते है। इन योगिकों में
एलर्जी पैदा करने वाले गुणों की पुष्टि हो चुकी है। इस घास में विद्यमान रसायन
आसपास की फसलों एवं वनस्पतियो की वृद्धि को रोक देते है। इसके अलावा मानव
स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल एवं हानिकारक प्रभाव पड़ता है. शारीर से छू जाने पर त्वचा पर खुजली और तीव्र जलन के
पश्चात एलर्जी हो जाती है। इसके फूलों के पराग से मनुष्यों में श्वास सम्बन्धी बिमारियाँ
जैसे दमा, ब्रान्काइटिस आदि पैदा होती
हैं। खेत में गाजर घास की निंदाई-गुड़ाई करने में किसानों को स्वास्थ्यजन्य समस्याओं
का सामना करना पड़ता है। पशुओं में भी इस
पौधे से त्वचा संबंधित बिमारियाँ होती हैं। गाजर घास मृदा में उपस्थित नाइट्रोजन
स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओं के विकास एवं विस्तार पर विपरीत प्रभाव
डालता है। इसके कारण दलहनी फसलों में जड़ ग्रन्थियों की संख्या घट जाती है। यह पौधा
जहाँ उगता है वहां यह पौधों की अन्य प्रजातियों को विस्थापित कर अपना एकाधिकार
स्थापित कर लेता है जिससे जैव-विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। जाने अनजाने में
गाजर घास के संपर्क में आजाने पर शीघ्र ही स्वच्छ जल से हाथ-मुंह धोना चाहिए। इससे
एलर्जी की शिकायत होने पर चिकित्सक से संपर्क कर उपचार करना आवश्यक है।
गाजर घास का उन्मूलन और प्रबंधन
भारत में तेजी से पाँव पसारती गाजर घास के दुष्प्रभाव से बचने और इसके उन्मूलन
के लिए जन जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। हाल ही के कुछ वर्षो से राष्ट्रिय खरपतवार विज्ञान अनुसंधान
निदेशालय, जबलपुर द्वारा प्रति वर्ष जुलाई में गाजर घास उन्मूलन जन जागरूकता
सप्ताह मनाया जाने लगा है। गाजर घास के घातक प्रभाव से बचने के लिए इसके
पौधों में फूल आने के पहले जड़ समेत उखाड़कर जला देना ही सर्वोत्तम उपाय है.इसके
रासायनिक नियंत्रण हेतु तीन लीटर ग्लाइफोसेट प्रति हेक्टयर की दर से 800 लीटर पानी
में घोलकर छिडकाव करना चाहिए. परन्तु फसलों के साथ उगी गाजर घास के नियंत्रण हेतु
इस रासायनिक का उपयोग नहीं करना है वर्ना फसल भी चौपट हो सकती है। फसल अंकुरण से
पूर्व क्लोरिमुरान तथा मेटसल्फुरान नामक खरपतवारनाशिओं के प्रयोग से इस गाजर घास
पर नियंत्रण पाया जा सकता है। फसल को बचाते हुए केवल गाजर घास को नष्ट करने के लिए मेट्रीब्यूजिन का प्रयोग भी कारगर साबित हुआ है। इसके अलावा गेंदा और चरोटा जैसी प्रतिस्पर्धी वनस्पतियां उगाने से
गाजर घास का प्रकोप कम हो जाता है। गाजर घास के प्राकृतिक शत्रुओं में मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा) नामक कीट के लार्वा और वयस्क इसकी पत्तियों को खाते है जिससे इसके पौधे सूख जाते है।
गाजर घास से बनायें उपयोगी खाद: घातक खरपतवार गाजर घास को हाथ में दस्ताने पहनकर उखाड़कर हरी खाद के रूप में उपयोग कर इसको नियन्त्रित
किया जा सकता है। पौधे में 1.5 से 2 प्रतिशत तक नाइट्रोजन की मात्रा होती है। गाजर
घास को पुष्पित होने से पूर्व ही काटकर कृषि भूमि पर फैलाकर जुताई कर देने से भूमि
की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। खेत में जीवांश पदार्थों की वृद्धि के साथ-साथ
नाइट्रोजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। जीवांश पदार्थों की वृद्धि के कारण
मिट्टी की जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है जिसके परिणामस्वरूप कम वर्षा में भी फसल की पैदावार
अच्छी होती है। जीवांश पदार्थ मृदा की संरचना में भी सुधार करते हैं जिससे जल तथा
वायु द्वारा मृदा अपरदन की संभावनायें क्षीण हो जाती है। वर्मी कम्पोस्ट बनाने के
लिए भी गाजर घास का उपयोग किया जा सकता है। गाजर घास से तैयार खाद रासायनिक
उर्वरकों से बेहतर है। इसके लिए केंचुए की प्रजाति “एमाइन्थस एलेक्जैन्ड्राई” सबसे अधिक उपयुक्त एवं सक्रिय पाई गई है। गाजर घास से कम्पोस्ट खाद भी आसानी से तैयार किया जा सकता है। खेत के समीप गड्डा कर फूलविहीन गाजर घास जड़ सहित उखाड़कर कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है। गाजर घास से जैविक खाद बना कर उपयोग करने से फसलों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होगी साथ ही गाजर घास उन्मूलन में भी सहायता मिलेगी ।
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