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बुधवार, 3 जुलाई 2019

ऐसे लें खरीफ सोयाबीन की बम्पर पैदावार


ऐसे लें खरीफ में सोयाबीन की बम्पर पैदावार
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
सोयाबीन एक दलहनी फसल है परन्तु इसमें तेल की प्रचुरता के कारण यह विश्व की सबसे  महत्वपूर्ण तिलहनी नकद फसल के रूप में स्थापित हो गई है. इसके दानों में लगभग 40 प्रतिशत प्रोटीन एवं 20 प्रतिशत तेल पाया जाता है। इसके प्रोटीन में मानव शरीर के लिए आवश्यक सभी प्रकार के अमीनो अम्ल उपलब्ध है। इसके अलावा इसमें प्रचुर मात्रा में लवण एवं विटामिन होने के कारण यह भारतीय भोजन में समावेश किये उपयुक्त है। भारत की ग्रामीण जनता और गरीब वर्ग में व्याप्त कुपोषण की समस्या से निजात दिलाने में यह फसल अपना अमूल्य योगदान दे सकती है। सोयाबीन ने देश में खाध्य तेल की आवश्यकता की पूर्ति के साथ हर वर्ष सोया खली के निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा अर्जित कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है।  सोयाबीन से दूध, दही एवं पनीर बनाया जाने लगा है।  सब्जी के रूप में इसकी हरी फलियां और सोयाबड़ी लोकप्रिय है. इसके तेल में संतृप्त वसा अम्ल कम होने के कारण ह्रदय रोगियों के लिए लाभदायक है।  तेल निकालने के बाद शेष खली में भी पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन एवं खनिज लवण विद्यमान होने के कारण इसका इस्तेमाल पशुओं को खिलाने एवं खेत में खाद के रूप में किया जाता है।  
सोयाबीन की विभिन्न किस्में 85 से 90 दिन में तैयार हो जाती है। इसलिए यह विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित फसल प्रणाली में आसानी से सम्मलित हो जाती है। दलहनी फसल होने के कारण सोयाबीन लगभग 60-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से वायुमंडल की नत्रजन को भूमि में स्थिर करती है और फसल कटाई के बाद यह फसल लगभग 35-40 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर रबी मौसम में लगाई जाने वाली फसलों के लिए छोड़ जाती है. इस प्रकार से इसकी खेती उर्वरकों पर निर्भरता में कमीं लाती है। इसके अलावा अंतरवर्तीय फसल प्रणाली के लिए भी यह एक आदर्श फसल है क्योंकि यह सह-फसल के साथ वृद्धि कारकों के लिए कम प्रतिस्पर्धा करती है। अतः सोयाबीन को इक्कीसवीं सदी की चमत्कारिक फसल के रूप में जाना जाता है। 
विश्व पटल पर क्षेत्रफल की दृष्टि से सोयाबीन की खेती में भारत का चौथा स्थान है। पहले स्थान पर अमेरिका, द्वितीय स्थान पर ब्राजील और तीसरे स्थान पर अर्जेंटीना आते हैं। भारत का विश्‍व में सोयाबीन उत्‍पादन में पांचवां स्‍थान है लेकिन प्रति हेक्‍टेयर उत्‍पादन में हम अभी विश्‍व में बहुत पीछे हैं। अभी भारत में लगभग 11.32 मिलियन हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती प्रचलित है जिससे 1219 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 13.79  मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ । छत्तीसगढ़ में सोयाबीन की औसत उपज मात्र 697 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर है।   प्रति हेक्‍टेयर कम उत्‍पाकता  के कारण बहुत से हैं। इनमें से कुछ प्राकृतिक कारण है लेकिन निम्न उत्‍पादकता  के लिए हमारी गलत कृषि क्रियाएं ज्‍यादा जिम्‍मेदार हैं। आज हम आपको बताने जा रहे हैं सोयाबीन का बम्‍पर उत्‍पादन लेने के लिए की जाने वाले कुछ महत्‍वपूर्ण कामप्रति हेक्टेयर उत्पादन के आधार पर अमेरिका प्रथम स्थान पर है और भारत आठवें स्थान पर है।
भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी  
उपयुक्‍त भूमि में फसलों की खेती करने पर ही भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है । सोयाबीन के लिए अच्छे जल निकास वाली चिकनी भारी और दोमट मिटटी सर्वश्रेष्ठ होती है. अम्लीय, क्षारीय व रेतीली भूमि में सोयाबीन की सफल खेती नहीं होती है । बम्‍पर उत्‍पादन के लिए भूमि में उचित जल निकास का प्रावधान होना आवश्यक है।  ग्रीष्म ऋतु में खेत की गहरी जुताई करना चाहिए।  खेत में दो बार कल्टीवेटर से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर भुरभुरा एवं एकसार कर लेना चाहिए. अंतिम जुताई के समय भूमि में सड़ी हुए गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिला देना चाहिए।
सही  किस्‍म का चुनाव
गलत किस्‍मों के चुनाव के कारण सोयाबीन का उत्पादन कम प्राप्त होता है क्योंकि सोयाबीन की प्रत्‍येक किस्‍म हर जगह  के लिए उपयुक्त नहीं होती है ।  अतः ऐसी किस्‍म का चुनाव  करें जो आपके क्षेत्र के लिए उपयुक्त एवं संस्‍तुतित की गई है।
जे.एस. 93-05: बैगनी फूलों वाली यह किस्म 90-95 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसका दाना मध्यम मोटा होता है तथा उपज क्षमता 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर है।
जे. एस. 95-60 : यह  अगेती (80-85 दिन) किस्म है जिसकी पैदावार 18-20 क्विंटल/हैक्टेयर है. इसके फूल सफ़ेद तथा बीज हल्के पीले रंग के भूरी नाभिका वाले होते है।  इसकी  फलियां चटकती नहीं है. यह गर्डल बीटल, सेमी लूपर एवं तम्बाकू इल्ली के प्रति मध्यम प्रतिरोधी होने के साथ-साथ  पीत विषाणु रोग, तना गलन एवं पत्ती धब्बा रोगों के प्रति भी मध्यम प्रतिरोधी पाई गई है। 
जे.एस. 97-52: यह किस्म 100-105 दिन में पककर  20-25 क्विंटल/हैक्टेयर उपज देती है इसमें सफेद फूल एवं दाना  पीला जिसकी नाभि काली होती है।  अधिक नमी वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है. यह प्रमुख रोगों जैसे पीला मोजेक, जड़ सडन तथा प्रमुख कीटों जैसे ताना छेदक एवं पत्ती भक्षक के लिए प्रतिरोधी/सहनशील है।  इसके बीजों में लम्बे समय तक भण्डारण के बाद भी वांछनीय अंकुरण क्षमता है।
जे.एस. 20-29: मध्यम अवधि (90-95 दिन) में पककर यह किस्म 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर पैदावार देती है इसमें  बैंगनी फूल बनते है और दाना  पीला होता है. यह किस्म पीला विषाणुरोग, चारकोल राट,बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी पाई गई है।
जे.एस. 20-34 : यह किस्म शीघ्र (87-88 दिन) तैयार होकर   22-25 क्विंटल/हैक्टेयर उपज देती है बैंगनी फूल वाली इस किस्म का दाना  पीला होता है।  यह किस्म चारकोल राट,बेक्टेरिययल पश्चूल,पत्ती धब्बा एवं कीट प्रतिरोधी है।  कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
जे.एस.-80-21: यह किस्म 105-110 दिन में पककर 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके फूल बैगनी तथा दाना पीला होता है.
एन.आर.सी-7: यह किस्म 90-99 दिन में तैयार होकर  25-35 क्विंटल/हैक्टेयर उपज देती है।  फलियां चटकती नहीं है।  इसमें बैंगनी रंग के फूल आते है।  यह  गर्डलबीडल और तना-मक्खी के लिए सहनशील है।
एन.आर.सी-12 : मध्यम अवधि (96-99 दिन) में तैयार होने वाली यह किस्म 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर उपज देती है।  इसके फूल बैंगनी होते है।  यह किस्म गर्डलबीटल और तना-मक्खीके लिए सहनशील  एवं पीला मोजैक प्रतिरोधी है।
एन.आर.सी-86 : मध्यम समय (90-95 दिन) में तैयार होने वाली यह किस्म 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर पैदावार देती है।  इसके फूल सफ़ेद तथा बीजों की नाभि भूरी होती है।  यह किस्म गर्डल बीटल और तना-मक्खी के लिये प्रतिरोधी तथा  चारकोल रॉट एवं फली झुलसा रोग के लिये मध्यम प्रतिरोधी पाई गई है।
पी.के.-472 : यह किस्म 110-115 दिन में पककर 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती है. इसके पौधे मध्यम ऊंचाई के सीधे, फूल सफ़ेद रंग तथा दाने मोटे पीले रंग के होते है।  यह किस्म पीला मोजेक, पर्ण धब्बा एवं बैक्टीरियल रोगों के लिए प्रतिरोधी होने के अलावा कई प्रकार के कीट प्रतिरोधी है।  इसमें फल्लियाँ चटकने की समस्या नहीं है।   
समय पर बुवाई
बुवाई के समय पर सोयाबीन की उपज निर्भर करती है, परन्तु बुवाई से पहले यह सुनिश्चित कर लेवें  कि भूमि में पर्याप्त नमीं है। असिंचित क्षेत्रों में  मानसून आगमन के पश्चात सोयाबीन की बुवाई करना चाहिए। बम्पर उत्पादन के लिए जून के दुसरे पखवाड़े से जुलाई के प्रथम पखवाड़े तक  सोयाबीन की बुवाई संपन्न कर लेना चाहिए।  देर से बुवाई करने पर पैदावार में गिरावट होती है।
उत्तम बीज एवं बीज दर
सोयाबीन का बीज आनुवांशिक रूप से शुद्ध हो एवं उनकी अंकुरण क्षमता 70 प्रतिशत से अधिक होना चाहिए। बुवाई के पूर्व बीज की अंकुरण क्षमता अवश्य ज्ञात करें । अंकुरण परिक्षण हेतु 1 गुणा 1 मीटर की क्यारी में सिंचाई कर चयनित किस्म के 100 बीज गिनकर बुवाई करे तथा अंकुरण के उपरान्त स्वस्थ पौधों को गिनें। यदि 100 में से 70 से अधिक पौधे अंकुरित हो तो बीज उत्तम गुणवत्ता का है।    बुवाई हेतु दानों के आकार के अनुसार बीज की मात्रा का निर्धारण करें । छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 60-70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें । बड़े दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 80-90 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से बुवाई करें ।
बीज उपचार आवश्‍यक
बम्पर उत्‍पादन के लिए बुवाई से पूर्व सोयाबीन के बीज का फफूंदनाशक दवाओं से उपचार जरूर करें। बीज उपचार न केवल कई रोगों को आने से रोकता है बल्कि यह बेहतर अंकुरण और बीज जमाव में भी सहायक होता है। चयनित बीज को थीरम एवं  कार्बोंडाजिम को 2:1 अनुपात में मिलाकर 3 ग्राम  प्रति किलो बीज अथवा ट्राईकोडर्मा (जैविक फफूंदनाशक) 5 ग्राम प्रति किलो बीज की  दर से  उपचारित करें।  इसके लिए बीजों को घड़े अथवा ड्रम में डालकर फफूंदनाशकों को अच्छी प्रकार से मिलाये ताकि बीजों पर दवा की एक परत बन जाये. इसके पश्चात  उक्त बीजों को जीवाणु कल्चर से उपचारित करना भी जरुरी है।  इसके लिए एक लीटर गर्म पानी में 250 ग्राम गुड का घोल बनाएं एवं ठंडा करने के उपरान्त इसमें 500 ग्राम राइजोबियम कल्चर तथा 500 ग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाये।  अब कल्चरयुक्त घोल को बीजों में हल्के हाथ से मिलाने के पश्चात बीजों को छाया में सुखाने के तुरंत बाद तैयार खेत में बुवाई करें ।  इस उपचार से नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस तत्वों की उपलब्धतता बढती है। ध्यान रखें कल्चर और कवकनाशियों को एक साथ मिलाकर कभी भी उपयोग में न लेवें। पीले मोजैक से प्रभावित क्षेत्रों में प्रत्येक वर्ष थायमिथाक्स 70 डव्ल्यु एस (3 ग्राम प्रति कि.ग्रा.बीज) से बीज उपचार कर बुवाई करें। 
बुवाई का तरीका
किसी भी फसल की अच्छी उपज के लिए खेत में वांक्षित पौध संख्या होना आवश्यक होता है।  पौध संख्या का निर्धारण फसल या उसकी किस्म के पौधे के फैलाव के आधार पर किया जाता है। बुवाई  सीड ड्रिल या हल के पीछे नाई बांधकर पंक्तियों में करें।  सोयाबीन की कम फैलने वाली किस्में के लिये कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा अधिक फैलने वाली किस्मों के लिए 45 से.मी. की दूरी रखें ।  बीज बोने की गहराई 2.5 से 3 से.मी. रखें।  अच्छी उपज के लिए खेत में पौध संख्या 4-4.5 लाख प्रति हेक्टेयर कायम करना आवश्यक है । मानसून की देरी के कारण देर से बुवाई की स्थिति में शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों का इस्तेमाल करें।  बीज दर बढाकर बुवाई करें  तथा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखें। 
अधिक उपज के लिए मेंढ़ -नाली पद्धति से बुवाई
मेढ़़-नाली (रिज़ एवं फरो) पद्धति से सोयाबीन की बुवाई करने से वर्षा की अनिश्चितता से होने वाली हानि की संभावना को कम किया जा सकता है। मेढऩाली पद्धति में बीजाई मेढ़ो पर की जाती है तथा दो मेढ़ों के मध्य लगभग 15 से.मी. गहरी नाली बनाते हुए मिट्टी को फसल की कतारों की तरफ कर दिया जाता है। साधारण सीडड्रिल में एक छोटी सी लोहे की पट्टी लगाकर बुबाई का कार्य किया जा सकता है अथवा साधारण सीडड्रिल द्वारा समतल बुवाई करने के पश्चात कतारों के बीच देशी हल चलाकर नाली का निर्माण किया जा सकता है। बुवाई पश्चात् एवं अंकुरण के बाद नाली को अंत मे मिट्टी द्वारा बॉंध दिया जाता है जिससे वर्षा के पानी का भूमि में अधिक से अधिक संरक्षण हो। बीज की बुवाई  मेढ़ पर करने से अतिवृष्टि या तेज हवा के समय पौधों के गिरने की संभावना कम हो जाती है तथा अतिरिक्त पानी का निकास हो जाता है। यदि फसल अवधि में लम्बे अंतराल तक  वर्षा न होने की स्थिति में नमी की कमी नही हो पाती है  क्योंकि खेत की नालियो में नमी की उपलब्धता लम्बे समय तक कायम रहती है।
खाद एवं उर्वरक प्रयोग
सोयाबीन के विपुल उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मृदा परिक्षण के आधार पर करें ताकि फसल को संतुलित पोषण मिल सकें।  सामान्यतौर पर गोबर खाद या कम्पोस्ट 10-12 टन प्रति हेक्टेयर खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसके अलावा  बुवाई के समय  20 किलो नत्रजन (44 किलो यूरिया), 60-80  किलो फॉस्फोरस (375-400 किलो सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट) एवं 40-50  किलो पोटाश (67-83 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) अथवा 130 किलो डी ए पी, 67-33 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश एवं 150-200 किलो जिप्सम  प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।  सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा में जिप्सम का उपयोग आवश्यक रहता है । संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे।  कल्चर उपचारित सोयाबीन बीजों को डी.ए.पी. उर्वरक के साथ मिलाकर कभी न बोयें, इससे बीजों का अंकुरण प्रभावित होता है।  बीज उर्वरक के संपर्क में आकर खराब हो जाता है और उगता नहीं है। इससे खेत में पौधे कम रह जाते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई के लिए बीज-उर्वरक ड्रिल मशीन का प्रयोग करें जिसमें उर्वरक और बीज अलग-अलग डालकर बुआई की जाती है ।
समय पर जरुरी है खरपतवारों की रोकथाम
खरीफ की फसल होने के कारण सोयाबीन में खरपतवारों का व्यापक प्रकोप होता है।  अनियंत्रित खरपतवार फसल के साथ पोषक तत्व, प्रकाश, नमीं आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते है जिससे पौधों में शाखाएं एवं फलियाँ कम बनने के कारण  उपज में 25-85 प्रतिशत की गिरावट आ  सकती है।  खरपतवारों के प्रभाव का क्रांतिक समय बुवाई के 15-35 दिन तक  है इस समय फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने से अधिक उपज प्राप्त होती है। खरपतवारों से निजात पाने के लिए सोयाबीन की फसल में 15-20 तथा 30-40 दिनों की अवस्था पर हाँथ या कृषि यंत्रों से निराई गुड़ाई अवश्य करें।  इससे खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ मृदा में वायु-संचार बढ़ने तथा नमीं सरंक्षित होने से सोयाबीन की अच्छी वृद्धि एवं उपज में इजाफा होता है।   लागातार वर्षा होने तथा समय पर मजदूर न मिलने के कारण कम समय में अधिक क्षेत्र में हाथों से खरपतवार नियंत्रण कठिन हो जाता है तथा इसमें पैसा भी अधिक खर्च होता है।  ऐसी स्थिति में खरपतवारों का रासायनिक विधि से नियंत्रण कारगर एवं लाभदायक साबित होता है।  बुवाई के पूर्व खरपतवार नियंत्रण हेतु फ्ल्युक्लोरालिन 45 ईसी  (बासालिन) 2.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकने से खरपतवार कम उगते है।  बाद में उगने वाले खरपतवारों के  प्रभावी नींदा नियंत्रण हेतु अवश्यकता एवं समय के अनुकूल खरपतवार नाशी दवाओं का चयन कर उपयोग करें।
सारिणी: सोयाबीन की कड़ी फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण
खरपतवारनाशक का तकनीकी नाम
व्यापारिक नाम
प्रयुक्त सक्रिय तत्व/ हे.
प्रयुक्त मात्रा/ हे.
प्रयोग का समय
प्रति टंकी (15 ली.) की मात्रा
नियंत्रित होने वाले खरपतवार
इमाजाथाईपर तरल 10 ईसी
परस्यूट
75 ग्राम
750-1000 मि.ली.
बुवाई पश्चात 10-20 दिन बाद
32 मि.ली.
संकरी एवं चौड़ी पत्ती 
क्युजालोफोप इथाइल तरल 5 ईसी  
टर्गासुपर
50 ग्राम
1 लीटर
बुवाई पश्चात 12-20 दिन बाद
42 मि.ली.
संकरी पत्ती
क्लोरीम्यूराँन इथाइल पाउडर 25% डव्ल्यु पी 
क्लोबेन/ क्युरीन
9.37 ग्राम
37.5 ग्राम
बुवाई के 2 दिनों में
1.56 ग्राम
चौड़ी पत्ती
प्रोपाक्युजाफॉप तरल 10 % ईसी 
एजिल
50 ग्राम
500 मि.ली.
बुवाई पश्चात 12-20 दिन बाद
21 मि.ली.
संकरी पत्ती (सावां आदि)
क्लोरीम्यूराँन इथाइल + फेनोक्साप्रॉप-पी-ईथाइल पाउडर 25 % व्ल्यु पी + तरल 5 % ईसी
क्लोबेन क्युरीन + टर्गासुपर 
6 ग्राम + 37.5 ग्राम
24 ग्राम + 750 मि.ली.
बुवाई पश्चात 12-20 दिन बाद
1 ग्राम + 32 मि.ली.
संकरी एवं चौड़ी पत्ती
          खरपतवारनाशकों का छिडकाव करते समय या 2-3 घंटे बाद वर्षा होने पर दवा की काफी मात्रा पत्तियों से छिटक कर नीचे गिर जाती है जिससे खरपतवारों का नियंत्रण नहीं हो पाता है।  खरीफ मौसम में खरपतवारनाशक के साथ चिपकाने/फ़ैलाने वाला पदार्थ सर्फेक्टेंट 0.5 % अर्थात 500 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाकर छिडकाव करने से खरपतवारनाशक, खरपतवारों की समूर्ण पत्तियों पर फैलकर चिपक जाते है जिससे वर्षा होने पर दवाई का नुकसान नहीं होता है।  स्प्रेयर की टंकी में पहले खरपतवारनाशक मिलाये तथा बाद में सर्फेक्टेंट को डाल कर छिडकाव करें।  प्रभावी नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशक का उचित समय पर सही मात्रा में प्रयोग करें तथा फ्लेटफैन/फ्लड जेट नोज़ल लगाकर दवा का छिडकाव करें।  ध्यान रखें वायु के विपरीत दिशा में छिडकाव न करें ताकि रसायन शरीर पर न गिरे। 
अतिरिक्त लाभ के लिए अंतरवर्ती फसलें
सोयाबीन के साथ अंतरवर्ती फसलों को लेने से अधिक मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।  अंतरवर्ती फसल के रूप में सोयाबीन + मक्का (4 कतार: 2 कतार), सोयाबीन+ अरहर  (4 :2 कतार) अथवा     सोयाबीन+ ज्वार (4:2 कतार) ली जा सकती है। असिंचितक्षेत्रों में जहाँ रबी की फसल लेना संभव नहीं हो वहां सोयाबीन + अरहर की खेती करना चाहिए।  
कीट प्रबंधन
फुदका/तेला (जैसिड):  सोयाबीन की फसल में छोटे-छोटे फुदका कीट पत्तियों का रस चूसते है जिससे पत्तियां सूख जाती है. ये कीट विषाणु रोग को फ़ैलाने में भी सहायक होते है।  इन कीटों का प्रकोप फसल उगने के 20 दिन से फलियाँ आने तक अधिक होता है इस कीट के नियंत्रण हेतु डायमिथोयेट 30 ईसी या फार्मोथिआन 400-600 मिली दवा प्रति हेक्टेयर की दर से 400-600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें. आवश्यकतानुसार 20 दिन बाद छिडकाव पुनः दोहराए
गर्डल बीटल: यह सोयाबीन का सबसे खतरनाक कीट है यह लाल काले रंग का कड़े पंख वाला कीट है।  वयस्क मादा तने अथवा टहनियों पर दो छल्ले बनाती है, जिसके बीच मे पीले रंग के अण्डे देती है। अण्डे से निकली गिडार अन्दर अन्दर खाती है। पौधा सूख जाता है।  इस कीट की रोकथाम हेतु 35-40 दिन की फसल पर ट्राईजोफास 0.8 ली./हे. या इथोफेनप्राक्स 1 लीटर  प्रति हेक्टेयर  या थायोक्लोप्रीड 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर  की दर से 400-600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए. फसल पर 20 दिन बाद पुनः छिडकाव करना चाहिए
तना व पत्ती छेदक: यह एक प्रकार की छोटी मक्खी है  जिसकी लटें मुलायम शाखाओं के बीच का गूदा खाती है जिससे शाखाएं मुरझा जाती है. इसके नियंत्रण हेतु फैन्थयांन या क्युनालफ़ॉस 500-700 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से 500-700 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें. आवश्यकतानुसार 20 दिन बाद पुनः छिडकाव करें
बालों वाली लट: फसल में फली बनते समय काली, लाल व भूरे रंग के बालों वाली लट पत्तियों को खाकर छलनी कर देती है. इस कीट की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.5 लीटर का 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टर 2 से 3 बार आवश्यकतानुसार छिड़काव करें।
हरी अर्ध कुण्डलक (ग्रीन सेमीलूपर): इस कीट की इल्लिय पत्तों को खाकर छलनी कर देती है. सूडियॉ शीघ्र पकने वाली प्रजातियों में फूल निकलते समय उसकी कलियों को खा जाती हैं। प्रथम फूल को समाप्त पर दुबारा पुष्प बनते हैं। जिनमें फलियॉ बनने पर उनमें दाने नहीं बनते।  इस कीट के नियंत्रण हेतु ट्राईजोफ़ॉस 40 ईसी का 800 मिली दवा प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 25 तथा 45 दिन बाद छिडकाव करें
सोयाबीन का फली छेदक कीट : इनकी सूंड़ी फलियों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैं।इस कीट की रोकथाम के लिये  क्लोरपाययरीफास (20 ई.सी.) 1.5 लीटर प्रति हेक्टर या क्यूनालफास (25 ई.सी.) 1.5 लीटर प्रति हेक्टर  की दर से छिड़काव करना चाहिए।
रोग प्रबंधन
पत्ती धब्बा रोग : बुवाई के 30-40 दिन बाद पत्तियों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे धब्बे फफूंद के प्रकोप से आजाते है।  इस रोग के नियंत्रण के लिए 1.25 किलो मैंकोजेब प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकें ।
जीवाणु रोग: यह रोग फसल की 40 दिन की अवस्था में पनपता है।  रोगग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली होकर गिर जाती है इसकी रोकथाम हेतु 2 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन 20 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।  एक हेक्टेयर के लिए 50 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन की आवश्यकता होती है
जड़ व तना सडन रोग  :  इस रोग के प्रकोप से सोयाबीन के 15-20 दिन के  छोटे पौधे  सूख कर मार जाते है।  रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देवें।  फसल चक्र अपनाये।  रोग के रासायनिक नियंत्रण हेत बुवाई पूर्व बीज को  थायरम कार्बोक्सीन 2:1 में 3 ग्राम या ट्रायकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम /किलो बीज के मान से उपचारित करें ।
पीला चित्रवर्ण  (विषाणु) रोग: इस रोग के कारण पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां सिकुड़ जाती है. रोकथाम हेतु प्रारंभ में लक्षण दिखते ही रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देवेयह रोग कीटों द्वारा फैलता है. रोग रोधी किस्में लगाये. कीटों की रोकथाम हेतु डायमिथोयेट 30 ईसी 1 लीटर या मिथाइलडिमेटान (25 ई.सी.) 1 लीटर प्रति हेक्टर दवा को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें आवश्यकता होने पर 15 दिन बाद पुनः छिडकाव करें
माइकोप्लाज्मा : इस रोग से ग्रसित पौधे छोटे रह जाते है और उनमें कलियाँ अधिक तथा फलियाँ कम बनती है.यह रोग भी कीड़ों द्वारा फैलता है कीट नियंत्रण हेतु मिथाइल डेमेटान 500 मिली दवा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकें

कटाई व गहाई

फसल की कटाई उपयुक्त समय पर कर लेना चाहिए अन्यथा फलियों के चटकने से उपज में भारी गिरावट आने की संभावना रहती है।   सोयाबीन की फसल परिपक्व होने पर इसकी पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगती है और फलियों का रंग हरे से भूरा होने लगता है।  किस्मों के अनुरूप इसकी 90-120 दिन में फसल पककर तैयार हो जाती है । कटाई के समय बीजों में उपयुक्त नमी की मात्रा 14-16 प्रतिशत है । फसल को 2-3 दिन तक धूप में सुखाकर बैलों की सहायता से अथवा थ्रेशर से धीमी गति (300-400 आर.पी.एम.) पर गहाई करनी चाहिए । गहाई के बाद बीज को 3 से 4 दिन तक धूप में अच्छी प्रकार (दानों में 9-10  % नमीं) सुखा कर  नमीं रहित कमरों में भण्डारण करना चाहिए ।
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

सोमवार, 1 जुलाई 2019

मेंढ़-नाली पद्धति से अरहर की बुवाई : अधिक उपज और भरपूर कमाई


मेंढ़-नाली पद्धति से अरहर की बुवाई : अधिक उपज और भरपूर कमाई
 
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

भारत की बहुसंख्यक शाकाहारी आबादी के लिए प्रोटीन के प्रमुख स्त्रोत के रूप में अरहर (तुअर) सबसे लोकप्रिय दाल है. हमारे भोजन में अरहर दाल के बिना दाल-रोटी या दाल-भात का जायका अधुरा रहता है. दरअसल,अरहर की दाल में 20-21 % प्रोटीन पाई जाती है जिसका पाच्यमूल्य अन्य प्रोटीन से बेहतर होता है।  इसमें खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम आदि पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। यह सुगमता से पचने वाली दाल है।  देश में  बढती जनसँख्या की आवश्यकता के अनुरूप दालों का उत्पादन न होने तथा दालों के दाम अधिक होने के कारण प्रति व्यक्ति इनकी उपलब्धता घटती जा रही है जिसके कारण बहुसंख्यक आबादी कुपोषण की शिकार होती जा रही है।  आम आदमी की थाली में दालों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए हमें प्रति इकाई दलहन उत्पादन बढ़ाना होगा।  
अरहर की खेती क्यों
खरीफ दलहनों में अरहर सबसे महत्वपूर्ण फसल है।  इसका उपयोग अन्य दलहनी फसलों की तुलना में दाल के रूप में सर्वाधिक किया जाता है। अरहर की दीर्धकालीन किस्में मृदा में लगभग 200 किग्रा तक वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता में इजाफा करती है।  यह एक गहरी जड़ वाली फसल होने के कारण वर्षा आश्रित क्षेत्रों में इसकी खेती लाभकारी सिद्ध हो रही है।  इसके अतिरिक्त इसकी हरी फलियां सब्जी के लिये, खली चूरी पशुओं के लिए रातव, हरी पत्ती चारा के लिये तथा तना ईंधन, झोपड़ी और टोकरी बनाने के काम लाया जाता है। इसके पौधों पर लाख के कीट का पालन करके लाख उत्पादन करके अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है। सीमित लागत में अधिक लाभ देने वाली फसल है. केंद्र सरकार ने वर्ष 2018-19 के लिए अरहर का समर्थन मूल्य बढाकर 5675 रूपये प्रति क्विंटल कर दिया है, अतः इसका बाजार मूल्य आकर्षक हो गया है। 
हमारे देश में अरहर की खेती मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में की जाती है।  जलवायु परिवर्तन के कारण में अतिवृष्टि या अल्प वर्षा जैसी परिस्थितियां निर्मित होने के कारण अरहर का उत्पादन नहीं बढ़ पा रहा है. बहुधा किसान भाई अरहर की खेती गैर उपजाऊ ऊंची-नीची भूमियों में परम्परागत पद्धति  से करते है जिसके कारण उन्हें उत्पादन कम मिलता है।   अरहर की उन्नत किस्मों का इस्तेमाल करते हुए यदि किसान भाई मेंढ़-नाली (रिज़ एण्ड फरो) पद्धति से खेती करते है तो निश्चित उन्हें 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो सकती है।   

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी
सामान्यतौर पर अरहर की खेती उचित जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है।  बलुई-दोमट व दोमट मिटटी अरहर की खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। जल निकासी की व्यवस्था होने पर मध्यम काली मिट्टियों में भी अरहर की खेती की जा सकती है।  ग्रीष्मकाल में मिटटी पलटने वाले हल से गहरी जुताई कर छोड़ देना चाहिए।  इसके बाद बुवाई से पूर्व मिटटी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद 1-2 जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करने के उपरान्त पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।
बुवाई का समय
अरहर की उत्तम एवं स्वस्थ फसल के लिए समय से बुवाई करना आवश्यक है. भारत के मध्य क्षेत्र के राज्यों में अरहर की बुवाई जुलाई के प्रथम पखवाड़े में संपन्न कर लेना चाहिए. रोपित पद्धति से खेती करने के लिए पौधशाला (पोलीबैग) में  अरहर की बुवाई 15 मई से 30 मई तक कर लेना चाहिए. पर्याप्त वर्षा होने पर खेत में रोपाई करना चाहिए।
किस्मों का चयन
बहुफसली उत्पादन पद्धति में एवं असिंचित भूमि में शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों की बुवाई करना चाहिए. शीघ्र पकने वाली किस्मों में पूसा-८५५, पूसा अगेती, पन्त अरहर-२९१, जाग्रति (आईसीपीएल-151), दुर्गा आईसीपीएल-84031), राजीव लोचन आदि,मध्यम समय में पकने वाली किस्मों में आईसीपीएल-87119 (आशा), जवाहर-4,बी एस आर-853,जेकेएम्-189, टीजेटी-501, आईपीए-203  तथा देर से पकने वाली किस्मों में बहार, डीए-11, छत्तीसगढ़ अरहर-1  के अलावा संकर प्रजातियों में  पी पी एच-4,  आईसीपीएच-2671, आईसीपीएच-2047 में से किसी एक किस्म का चुनाव करना चाहिए।

बीज दर एवं बीज उपचार

गड्ढा-नाली पद्धति में अरहर का केवल 1.5 किग्रा. बीज प्रति एकड़ लगता है. बुवाई से पूर्व चयनित बीज को उपचारित करने से फफूंदी से उत्पन्न होने वाले मृदाजनित रोगों से सुरक्षा होती है।  बीज उपचार जैवकारक जैसे ट्राईकोडर्मा 5-10 ग्राम/किग्रा + वैटावेक्स 2 ग्रा/किग्रा अथवा वैविस्टीन/थेरम 2-3 ग्राम/किग्रा बीज से करना चाहिए।  बीज उपचार के पश्चात अधिक उत्पादन के लिए 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर प्रति 10 किग्रा बीज की दर से उपचारित कर छाया में सुखाने के बाद बुवाई करना चाहिए. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं उपज के लिए बीज को 1 ग्राम अमोनियम मोलिब्डेट प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करें।   ध्यान रखे बीजोपचार हमेशा फफुन्द्नाशक, कीटनाशक एवं राइजोबियम कल्चर के क्रम से करें।

ऐसे लगायें अरहर

अरहर की बुवाई हमेशा मेंड़ों पर पंक्तियों में करना चाहिए।  पंक्तियों उत्तर-दक्षिण दिशा में रखने से पौधों को सूर्य का प्रकाश अधिकतम मिलता है जिससे उत्पादन अच्छा होता है।  मेंढ़ बनाने के लिए ट्रेक्टर चालित रिज़र का उपयोग किया जा सकता है।  मेंढ़ से मेंढ़ की दूरी 3-4  फीट रखना चाहिए. बुवाई खुरपी या डिबलर की सहायता से की जा सकती है।  पौधोए से पौधे के बीच 2 फुट की दूरी रखी जाती है।  ध्यान रहे कि बीज 2-3 सेमी की गहराई पर रहे।  इस विधि से 3 श्रमिक एक दिन में एक एकड़ की बुवाई कर सकते है।  इस पद्धति से बुवाई करने पर अतिवृष्टि होने पर भी फसल की लगातार बढ़वार होती रहती है।  वहीँ कम वर्षा होने पर नाली में थोडा-बहुत पानी भरा  रहने से पौधों की जड़ों को अधिक दिन तक  नमीं मिलती रहती है।  इस प्रकार से अतिवृष्टि एवं कम वर्षा दोनों परिस्थितियों में यह विधि लाभदायक रहती है।

पोलिबेग विधि से भी अरहर उत्पादन

पालीबेग अथवा दौना (पेड़ के पत्तो से बनाये हुए पात्र) में अरहर की पौध तैयार कर अरहर का बेहतर उत्पादन लिया जा सकता है।   पालीबैग में उपचारित बीज की बुवाई 15-20 मई  तक कर देना चाहिए तथा मुख्य खेत में रोपाई वर्षा होने के बाद करना चाहिए। इस विधि में पालीबेग (पोलीथिन) में अरहर के दो-दो दाने  डालकर अरहर की पौध तैयार की जाती है।  इसके बाद लगभग 25-30 दिन के पौधों को  अच्छी वर्षा होने के पश्चात खेत में रोपा जाता है। दौना में तैयार पौध को दौना सहित रोपा जाता है।  इससे पौधे मरने की आशंका नहीं रहती है।  रोपाई के लिए कतार से कतार की दूरी 150 सेमी (5 फुट) तथा पौध से पौध की दूरी  90 सेमी (3 फुट) रखी जाती है. इस प्रकार से एक हेक्टेयर में 7407  पौधे लगाये जाते है।  इस विधि से सिर्फ पांच  किलो बीज प्रति हेक्टेयर  की आवश्यकता होती है।  पौध रोपण के 25-30  दिन बाद शाखाओं की कलियों को तोड़ देने से अधिक शाखाएं बनती है।  इस विधि का प्रयोग करने से अरहर की फसल दिसम्बर माह में तैयार हो जाती है जिससे रबी फसलों की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।  

उर्वरक एवं खाद का प्रयोग

उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. हल्की वर्षा के पश्चात 2-3  ट्रोली सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर  की दर से खेत में मिला देना चाहिए।  गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट में पी एस बी कल्चर (4 किग्रा.), राइजोबियम कल्चर (2 किग्रा) एवं  ट्रायकोडर्मा विरडी (2 किग्रा।) को अच्छी प्रकार से मिलाकर खेत में डालने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।  समस्त उर्वरक खेत की अंतिम जुताई के समय बीज की सतह के नीचे बगल में देना सर्वोत्तम रहता है।  सामान्यतौर पर बुवाई के समय 20-25 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फॉस्फोरस एवं 20-25 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिए।  नाइट्रोजन का प्रयोग बुवाई के समय तथा सुपर फोस्फेट एवं पोटाश का प्रयोग मेंढ़ बनाने से पूर्व करना चाहिए।  काली एवं दोमट मृदाओं में 20 किग्रा गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है।  बलुई मृदाओं में उगाई जाने वाली अरहर की फसल में 3 किग्रा जिंक प्रति हेक्टेयर की दर से आधार उर्वरक के रूप में प्रयोग करना चाहिए।  हल्की सरंचना वाली मृदाओं में अरहर की फसल में बुवाई के 60,90 एवं 120 दिन बाद 0.5 % फेरस सल्फेट के घोल का पर्णीय छिडकाव करने से लाभ होता है।

आवश्यक है जल प्रबंध

मानसून के शीघ्र बिदा हो जाने के स्थिति में अरहर की  फसल में सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।  फसल में शाखाएं बनते समय (बुवाई से 30 दिन बाद), पुष्पावस्था (बुवाई से 70 दिन बाद) एवं फली बनते समय (बुवाई से 110 दिन बाद) आवश्यकतानुसार सिंचाई करना चाहिए. फसल में फलियाँ बनते समय एक नाली छोड़कर एक नाली (एकांतर विधि) में सिंचाई करना चाहिए।  अधिक वर्षा होने की स्थिति में खेत से जलनिकासी का प्रबंध करना भी आवश्यक होता है।  मेंड़ों पर बुवाई करने से अधिक जलभराव की स्थिति में भी अरहर की जड़ों के लिए पर्याप्त वायु संचार होता रहता है। 

समय पर खरपतवार नियंत्रण


अरहर की दो कतारों के बीच अधिक फासला होने के कारण खरपतवार प्रकोप अधिक होता है।  बुवाई से प्रथम 60 दिन में खेत में खरपतवार की मौजूदगी अधिक नुकसानदायक होती है।  बुवाई के 20-25  दिन में प्रथम तथा बुवाई के 45-50 दिन बाद फूल आने के पूर्व दूसरी निकाई गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ मिटटी में वायु संचार होता रहता है।  रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु खेत की अंतिम जुताई के समय फ्लूक्लोरालिन 50 % (बासालिन) की 1 किग्रा सक्रिय तत्व मात्रा को 800-1000 लीटर पानी में घोकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकना चाहिए अथवा एलाक्लोर (लासो) 50 % ई सी 2-2.5 किग्रा (सक्रिय तत्व) मात्रा को बीज अंकुरण से पूर्व छिडकने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।  सभी प्रकार के खरपतवार नियंत्रण हेतु इमेजाथायपर 10 % 750  मिली प्रति हेक्टेयर  का उपयोग करें।  शाकनाशी का प्रयोग करते समय खेत में उचित नमीं होना आवश्यक है। 

पौधों की खुटाई (प्रूनिंग)

चने की भाति अरहर के पौधों की खुटाई करने से पौधों में पर्याप्त संख्या में शाखाएं  निकलती है जिससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।  जब पौधों की ऊंचाई 40-45 सेमी की हो जाये उस समय प्रत्येक शाखा की अग्र्कलिका (शाखा का ऊपरी भाग) की हाथ से तुड़ाई करें।  शाखाओं की तुड़ाई नीचे की शाखाओं से ऊपर की शाखाओं की ओर से करने पर शाखा से निकलने वाला हानिकारक रस हाँथ में नहीं लगता है।  शाखाओं से निकलने वाले रस (द्रव) से हाथों में फुंसियाँ होने की संभावना रहती है।

कीड़ों से फसल की सुरक्षा

लम्बी अवधि की दलहनी फसल होने के कारण अरहर में कीड़ों का प्रकोप अधिक होता है।  गुणवत्ता युक्त अधिक उपज प्राप्त करने के लिए फसल की कीड़ों से सुरक्षा आवश्यक है। अरहर की फसल में शुरुवाती समय में पत्ती मोड़क, रस चूसक एवं पत्ती सुरंगक कीड़ों का प्रकोप हो सकता है।  इनके नियंत्रण हेतु क्लोरोपायरीफ़ॉस अथवा क्विनालफ़ॉस 1200 मि.ली. प्रति हेक्टेयर  अथवा प्रोफेनोफ़ॉस 750 मि.ली. प्रति हेक्टेयर  की दर से छिडकाव करना चाहिए।  फूल की अवस्था में चने की इल्ली और तम्बाकू की इल्ली का प्रकोप हो सकता है।  इनके नियंत्रण के लिए प्रोफेनोफ़ॉस +सायपरमेथ्रिन 1000 मि.ली. प्रति हेक्टेयर  अथवा क्लोरोपायरीफ़ॉस + सायपरमेथ्रिन 750 मि.ली. प्रति हेक्टेयर  का छिडकाव करें।  फसल की फल्ली अवस्था में लगने वाले कीटों (फली बेधक आदि) के नियंत्रण के लिए ईमामेक्टिन 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर  अथवा फ्लूमेंडामाइड 75 मि.ली. प्रति हेक्टेयर  का प्रयोग प्रभावशाली पाया गया है।

अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त लाभ


अंतरवर्ती फसल पद्धति अपनाने से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसाल से अतिरिक्त उपज प्राप्त हो जाती है. अंतरवर्ती फसल के रूप अरहर के साथ मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों के अनुपात में (कतारों के मध्य 30 सेमी की दूरी पर) लगाएं अथवा मूंग या उड़द 1:2 कतारों के अनुपात में (कतारों के मध्य 30 सेमी की दूरी) पर लगाई जा सकती है।  अरहर की दो पंक्तियों के बीच सोयाबीन की दो पंक्तियों की बुवाई कर अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है।  इसके लिए मेंढ़ के दोनों ओर सोयाबीन की बुवाई करने से प्रति एकड़ 4-5 क्विंटल सोयाबीन का उत्पादन प्राप्त हो जाता है। अरहर की उन्नत किस्म जेकेएम्-189 और टीजेटी-501 के साथ सोयाबीन/मूंगफली/मूंग अंतरवर्तीय फसल के रूप में उपयुक्त पाई गई है। 

उत्पादन एवं लाभ  का  आकर्षक गणित

उत्तम फसल प्रबंधन अपनाते हुए मेंढ़ नाली पद्धति से 25-30  क्विंटल तथा रोपित फसल  से 30-32 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक  अरहर का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  अंतरवर्ती फसल सोयाबीन से 10  क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल सकती है।  अरहर की खेती पर सामान्यतौर पर लगभग 25-30  हजार रुपये प्रति हेक्टेयर का खर्च आता है।  अंतरवर्ती फसल सोयाबीन के उत्पादन में लगभग  12-14 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है।मेंढ़-नाली पद्धति में 25 एवं रोपाई विधि में 30 क्विंटल पैदावार मिलती है तो उसे 5675 रुपये प्रति क्विंटल की दर (समर्थन मूल्य) पर बेचने से हमें क्रमशः 141875 तथा 170250 रूपये की आमदनी प्राप्त हो सकती है जिसमें  से उत्पादन लागत 30 हजार रूपये घटा दी  जाये तो क्रमशः 111875  व 140250 रुपये का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है।  इसके अलावा सोयाबीन की अंतरवर्ती फसल लेने से प्राप्त उपज 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर को समर्थन मूल्य 3399 रूपये प्रति क्विंटल की दर से बेचने पर 33990 रूपये प्राप्त हो सकते है जिसमें से उत्पादन लागत 14 हजार रूपये घटाने से 19990 रुपये प्रति हेक्टेयर का लाभ हो सकता है।  इस प्रकार से उपरोक्त अनुसार मेंढ़-नाली पद्धति से अरहर की खेती करने से किसान भाई एक हेक्टेयर से 1.11 लाख से लेकर 1.31 लाख का शुद्ध मुनाफा अर्जित कर सकते है।  इसके अलावा पशुओं के लिए पौष्टिक भूषा एवं जलाऊ लकड़ी भी उपलब्ध हो जाती है।
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सोमवार, 24 जून 2019

जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि को बचाने के उपाय


        जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि को बचाने के उपाय 
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

भारत का सम्पूर्ण क्षेत्रफल लगभग ३२.४४ करोड़ हेक्टेयर है जिसमें से १४.२६ करोड़ हेक्टेयर यानि सम्पूर्ण क्षेत्र के ४७ % हिस्से में में खेती होती है. आज भी देश की ७० फीसदी आबादी गांवों में निवास करती है जिसमें से ८० % की जीविका खेती-किसानी पर आश्रित है. इस प्रकार देश की बहुसंख्यक आबादी की रोजी रोटी  कृषि पर ही निर्भर करती है. अतः  कृषि में जरा सा उतार-चढ़ाव हमारे ताने बाने को बिगाड़ सकता है. आने वाले ३५-४० वर्षों में ४० % हिमालय ग्लेशियर पिघल कर समाप्त हो सकते है. समुद्र का जल स्तर बढ़ने से ७५०० किमी तटीय क्षेत्र व् ५० करोड़ लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है. तटीय शहर एवं द्वीप जलमग्न हो सकते है. जल का स्तर घटेगा एवं पानी का संकट बढेगा.बाढ़ एवं सूखे की प्रवृति बढ़ेगी.भूमि की उर्वरा शक्ति में गिरावट होगी.कृषि की उत्पादकता घटेगी जिसके फलस्वरूप भूख एवं खाद्ध्य असुरक्षा बढ़ेगी. बहुत सी पादप वनस्पतियाँ एवं जंगली जानवर विलुप्त हो सकते है. ऐसा अनुमान है कि सूखे के कारण खरीफ की मुख्य फसलें यथा चावल, दलहन तथा तिलहन में 20 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। देश में खाद्य उत्पादन में 5 प्रतिशत कमी की संभावना है ।जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि के विभिन्न विधाएं  निम्न प्रकार से प्रभावित हो सकती हैं:
1. जलवायु परिवर्तन का फसलों पर प्रभाव: एक अध्ययन अनुसार यदि तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो खाद्य पदार्थों के उत्पादन में 24 से 30 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । भारत में चावल के उत्पादन में तापमान बढ़ने से  2020 तक धान उत्पादन में  6 से 7 प्रतिशत एवं गेहूँ के उत्पादन में 5से 6 प्रतिशतआलु के उत्पादन में तीन प्रतिशत तथा सोयाबीन के उत्पादन में 3 से 4 प्रतिशत की कमी होने का अनुमान है ।  अध्ययनों से ज्ञात हुआ है की यदि तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की बढोत्तरी होती है तो अधिकांश स्थानों पर गेंहूँ की उत्पादकता में कमीं  आयेगी. प्रत्येक 1 सेंटीग्रेट तापमान बदने पर गेंहूँ का उत्पादन ४-५ करोड़ टन कम हो सकता है. तापमान वृद्धि के साथ-साथ धान के उत्पादन में भी गिरावट आने लगेगी.  जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता प्रभावित होगी बल्कि उनकी पोष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । फल एवं सब्जियों वाली फसलों में फूल तो खिलेंगे लेकिन उनसे फल या तो बहुत कम बनेंगे या उनकी पोष्टिकता प्रभावित होगी ।अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटिन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ।
2. जलवायु परिवर्तन का मृदा पर प्रभाव: भारत जैसे कृषि प्रदान देश के लिए मिट्टी की संरचना व उसकी उत्पादकता अहम स्थान रखती है। कृषि के एनी घटकों की भाँती मिट्टी भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होती है. तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता प्रभावित होगी । मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव विविधता घटती जाएगी । बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जहाँ एक और मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वहीं दूसरी ओर सूखे की वजह से बंजरता बढ़ जाएगी । भूमिगत जल के स्तर में गिरावट के कारण भूमि की उर्वरता प्रभावित होगी जिससे फसलों का उत्पादन घटेगा.
3. जलवायु परिवर्तन का कीट व रोगों पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की मात्रा बढ़ेगी । गर्म जलवायु कीट पतंगों की प्रजनन क्षमता की वृद्धि में सहायक है । कीटों में वृद्धि के साथ ही उनके नियंत्रण हेतु अतधिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाएगा जो जानवरो व मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देगा ।
4. जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव जल संसाधनों पर पड़ेगा । पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक २० साल में दुगुनी हो जाती है, जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है. भारत में प्रति व्यक्ति जल का उपयोग मात्र ६१० घन मीटर प्रति वर्ष है जबकि ऑस्ट्रेलिया, अर्जेटीना, अमेरिका और कनाडा में यह १००० घन मीटर प्रतिव्यक्ति प्रति वर्ष से भी अधिक है. जलवायु परिवर्तन के कारण जल आपूर्ति की भंयकर समस्या उत्पन्न होगी तथा सूखे व बाढ़ की बारम्बारता में इजाफा होगा । अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में शुष्क मौसम अधिक लम्बा होगा जिससे फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । वर्षा की अनिश्चितता भी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करेगी तथा जल स्रोतों के अधिक दोहन से जल स्रोतों पर संकट के बादल मंडराने लगेंगे । अधिक तापमान व वर्षा की कमी से सिंचाई हेतु भू-जल संसाधनों का अधिक दोहन किया जाएगा । जिससे धीरे-धीरे भू-जल इतना ज्यादा नीचे चला जाएगा कि उसका दोहन करना आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी सिद्ध होगा जलवायु में होने वाला परिवर्तन हमारी राष्ट्रीय आय को प्रभावित कर रहा है । राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा कम होना चिंता का विषय है ।
5. जलवायु परिवर्तन का पशुओं पर प्रभाव : फसलों एवं पेड़-पौधों के साथ-साथ पशुओं पर भी जलवायु परिवर्तन का असर पड़ेगा. तापमान में बढ़ोत्तरी होने से पशुओं के दुग्ध उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. अनुमान है की तापमान वृद्धि से दुग्ध उत्पादन में सन २०२० तक 1.६ करोड़ टन तथा २०५० तक १५ करोड़ टन की गिरावट आ सकती है. संकर नश्ल की गाय एवं भैंस गर्मी के प्रति कम सहनशील होती है अतः इनकी प्रजनन एवं दुग्ध उत्पादन क्षमता अदिक प्रभावित होगी.   
कृषि पर जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से निपटने के तरीके
        भारतीय कृषि पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के अनेक उपाय हैं जिनको अपनाकर हम कुछ हद तक जलवायु परितर्वन के प्रभावों से अपनी कृषि को बचा सकते हैं। वर्तमान कृषि प्रथाओं से हट कर वैकल्पिक प्रथाओं का उपयोग, बुवाई एवं कटाई के समय / में बदलाव, बीज की विविधता का विस्तार, सिंचाई के वैकल्पिक साधन, वैकल्पिक आजीविका का चुनाव, और फसल बाजारों का विनियमन कुछ प्रावधान हैं जिनका पालन जलवायु परिवर्तनशीलता में बदलते रुझानों को अनुकूलित करने के लिए  किया जा सकता है.प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं –
1.खेतों में कुशल जल प्रबंधन :- तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है । ऐसे में जमीन में नमी का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं सहयोगी कदम हो सकता है । वाटरशैड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं । इस से जहाँ एक ओर हमें सिंचाई की सुविधा मिलेगी वहीं दूसरी ओर भूजल पूनर्भरण में भी मदद मिलेगी । 
2.जैविक एवं समन्वित खेती :- खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मृदा की उत्पादकता घटती है वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से मानव के शरीर में पहूँच जाती है । जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं । रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी हिजाफा होता है । अत: हमें जैविक खेती करने की तकनीको पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए । एकल कृषि की बजाय हमें समग्रित कृषि करनी चाहिए । एकल कृषि में जहाँ जोखिम अधिक होता है वहीं समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है । समग्रित खेती में अनेकों फसलों का उत्पादन किया जाता है जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त् हो जाए तो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है ।
3.नवीन का विकास :- जलवायु परिवर्तन के गम्भीर दूरगामी प्रभावों को ध्यान में रखते हुए ऐसी किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो बदलते मौसम के अनुकूल हों । हमें ऐसी किस्मों का विकास करना होगा जो अधिक तापमानसूखे व बाढ़ की विभिषिकाओं को सहन करने में सक्षम हों । हमें कीट-रोग प्रतिरोधी, लवणता एवं क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी ईजाद करना होगा ।
4.फसली संयोजन में परिवर्तन :- जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बोने के समय में भी परिवर्तन करना पड़ेगा । मिश्रित खेती व इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है । कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परितर्वन के खतरों से निजात पा सकते हैं ।
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमें अपने संसाधनों का न्यायसंगत इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमें अपने पारम्परिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा । अब इस बात की सख्त जरूरत है कि हमें खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख सकें व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकें।

जलवायु परिवर्तन-संकट में जीवन : जिम्मेदार कौन ?

जलवायु परिवर्तन-संकट में जीवन : जिम्मेदार कौन ?
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
पृथ्वी के अलग-अलग स्थानों पर एक निश्चित जलवायु होती है जिसे वहां की वर्षा, धुप, हवा, तापमान, आदि मिलकर निर्धारित करते है.जलवायु में हमेशा कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है, जिससे कभी ठण्ड ज्यादा तो कभी गर्मी ज्यादा पड़ती है और धरती पर रहने वाले जिव-जंतु उससे अपना सामंजस्य बनाते रहते है।  बीते 100-150 वर्षो से जलवायु में तेजी से परिवर्तन देखने को मिल रहा है जिसकी वजह से बहुत से पेड़-पौधे और जिव जंतु इससे अनकूलन नहीं बैठा पा रहे है. इसकी वजह वैज्ञानिकों ने ग्रीन हाउस गैसों में बढोत्तरी बताया है. दरअसल हमारा पर्यावरण अनेक प्रकार की गैसों (78 % नाइट्रोजन, 21 % ऑक्सीजन और 1 % अन्य गैसों) से मिलकर बना है. इसमें 1 % अन्य  गैसों में ग्रीन हाउस गैसे यथा कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, फ्लोरोकार्बन आदि शामिल है. यह ग्रीन हौस पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच के समान कार्य करती है. ये धरती की प्राकृतिक तापमान नियंत्रक है. वर्तमान विश्व में बढ़ते औद्योगिकरण एवं बढ़ते वाहनों की संख्या से ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा हुआ है । बढ़ती ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाओं ने समस्त विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इन्डेक्स 2010 के अनुसार, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों में छठे स्थान पर है, जो कि देश में बाढ़, चक्रवात, और सूखे जैसी प्रकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति से  स्पष्ट हो जाता है। जलवायु परिवर्तन मानसून को प्रभावित करता है और भारतीय कृषि मानसून पर ही निर्भर है। मानसून का समय पर आगमन और पर्याप्तता  कृषि की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका है।  जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून अवधि में कमीं तथा वर्षा जल की मात्रा में निरंतर गिरावट के कारण हमारी कृषि अर्थव्यस्था बेपटरी होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन से कृषि केवल प्रभावित ही नहीं हो रही है वरन वह जलवायु परिवर्तन में योगदान भी दे रही है. मौसम के बदलाव हेतु जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कृषि भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।  कृषि से ही मीथेन एवं नाइट्रस ऑक्साइड गैस का सबसे अधिक उत्सर्जन होता है। 

जलवायु परिवर्तन :  आखिर जिम्मेदार कौन ?

          पृथ्वी गतिशील है और प्राकृतिक रूप से इसकी जलवायु में कुछ न कुछ परिवर्तन आता रहताहै.जलवायु परिवर्तन के दो कारण है एक तो प्राकृतिक और दूसरा मानव जनित कारण महाद्वीपों का अपने स्थान से खिसकना अथवा धरती के निचे स्थित प्लेटों का चलना. उदहारण के लिए हिमालय पर्वत का प्रतिवर्ष 1 मि.मी. बड़ते जाना आदि ऐसी घटनाएं है जो पूरी तरह से प्राकृतिक है।  ज्वालामुखी पर्वत फटने से लाखों टन सल्फर डाइ ऑक्साइड, राख, धुल और एनी गैसे वातावरण में बिखेर देते है, जिससे सूर्य की किरणों का पृथ्वी पर आना अवरुद्ध हो जाता है और उस क्षेत्र की जलवायु प्रभावित होती है।  समुद्र की लहरें भी जलवायु परिवर्तन में सहायक है. वातावरण एवं जमीन की अपेक्षा समुद्र सूर्य की दुगुनी ऊर्जा को अवशोषित करता है, जिससे वाष्पीकरण बढता है और ग्रीन हाउस गैसों में बढोत्तरी होती है।  इस प्रकार से बहुत से प्राकृतिक कारक है जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होते है परन्तु यह सभी सैकड़ों वर्षों में अपना प्रभाव दिखाते है। प्रकृति के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन पर हमारा वश नहीं है परन्तु प्राकृतिक संतुलन बनाने में हम महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते है। 

हम ही प्रभावित और हम ही जलवायु परिवर्तन के जिम्मेदार  

            जलवायु परिवर्तन में  मुख्य भूमिका मानवीय कारकों की ही मानी जाती है क्योंकि प्रकृति जन्य परिवर्तन तो हमेशा से होता आया है. ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोत्तरी हेतु हमारे द्वारा किये जा रहे विकास और विलासितापूर्ण जीवन के लिए जुटाए जा रहे साधन जिम्मेदार है, जैसे-
1.तीव्र उद्योगिकीकरण: अंधाधुंध औद्योगीकरण में व्यापक पैमाने पर फ़ॉसिल फ्यूल (डीजल, पेट्रोल,कोयला) का उपयोग किया जा रहा है  और प्रदूषण फ़ैलाने में आज उद्योग-कल कारखाने सबसे अग्रणी है।  उद्योग संचालन में अत्यधिक कोयले व बिजली की खपत  भी ग्रीन हाउस गैसों को बढावा दे रही है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली कार्बनडाइ ऑक्साइड से शहरों का तापमान बढ़ रहा है। 
2. ऊर्जा खपत: बिजली प्रतिष्ठानों में ताप पैदा करने में, मोटरगाड़ी एवं उद्योगों में प्राकृतिक ईधन, गैस एवं कोयले की सबसे अधिक खपत होती है. इनके जलने से कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस निकलती है जिससे वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है। 
3. वनों का विनाश एवं पेड़ों की कटाई:वनों एवं पेड़ पौधों के कम होने से पर्यावरण में प्रदूषण की मात्रा में इजाफा हो रहा है।  जंगल एवं पेड-पौधे वायु मंडल से कार्बनडाइ ऑक्साइड शोषित कर जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने में सहायक होते है. वनों की अंधाधुंध कटाई से न केवल परिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ा है बल्कि वनोपज पर आश्रित रहने वाले आदिवासी समुदाय के लिए आजीविका का संकट भी उत्पन्न हो गया है। 
4. जनसँख्या वृद्धि: तेजी से बढ़ रही जनसंख्या  भी जलवायु परिवर्तन में अहम भूमिका निभा रही है।  हमारे प्राकृतिक साधन सीमित मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु बढती आबादी की जरुरत के कारण इन ससाधनों का असीमित और अनियमित दोहन किया जाने लगा है।  मिट्टी, पानी, हवा के अनियमित दोहन से प्रदुषण बदने के साथ-साथ इनकी उपलब्धतता और गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 
5.भूमि उपयोग एवं कृषि क्रियाओं में बदलाव: आज अनेक स्थानों पर जंगलों को काटकर फसलों का उत्पादन अथवा खेती योग्य जमीनों को रिहायसी अथवा ओद्योगिक प्रयोजन में बदलने से भी जलवायु परिवर्तन हो रहा है अधिक उत्पादन के वास्ते फसलों में अंधाधुंध तरीके से रासयनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का इस्तेमाल, कृषि अवशेषों को जलाना, अधिक पानी चाहने वाली फसलों की खेती करने से भी जलवायु परिवर्तित हो रहा है 

घातक है विलासिता पूर्ण जीवन 

             सूर्य की पराबैगनी किरणों से धरती की रक्षा करने वाली ओजोन परत में छेद होने की भनक होते ही इसकी सुरक्षा के लिए दुनिया भर के नेताओं ने मोंट्रियल संधि करने का फैसला किया जिसके तहत ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैस क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs) में कटौती की बात कही गई थी।  इस गैस को रेफ्रिजरेटर्स, एयरकंडीशनर के अलावा हेयरस्प्रे,डियोडरेंट आदि में इस्तेमाल किया जाता था।  ज्ञात हो कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के अपघटन से निकलने वाली गैस क्लोरीन ओजोन परत को प्रभावित करती है.बिलासितापूर्ण जीवन शैली के लिए इस्तेमाल की जा रही सुविधाओं और वस्तुओं से हम जाने-अनजाने में हम अपने ही पर्यावरण को नष्ट करने पर आमादा है यद्यपि मोंट्रियल प्रोटोकाल के असर से  इस गैस के उत्सर्जन में कमीं तो आई परन्तु क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की जगह हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) का इस्तेमाल किया जाने लगा. मगर अब दुनिया को हाइड्रोफ्लोरोकार्बन के दुष्प्रभावों की चिंता सताने लगी है क्योंकि इसमें मौजूद फ्लोरीन क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की क्लोरीन से कहीं अधिक खतरनाक है।  हाइड्रोफ्लोरोकार्बन न केवल ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रही है बल्कि ग्लोबल वार्मिंग में भी ज्यादा योगदान दे रही है एक बार उत्सर्जन के बाद यह गैस वातावरण में लगभग 15  वर्ष तक बनी रहती है जबकि कार्बन डाइऑक्साइड पांच सदी तक वातावरण में रहती है, परन्तु ग्लोबल वार्मिंग में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन का योगदान  कार्बन डाइऑक्साइड से हजारों गुना ज्यादा होता है. इसी वजह से रवांडा की राजधानी किगाली में 197  देशों के नेताओं ने हाइड्रोफ्लोरोकार्बन के उत्सर्जन में कटौती का प्रण लिया है, परन्तु अभी भी इस खतरनाक गैस का उत्सर्जन सालाना 7-15  प्रतिशत की दर से बढ़ता जा रहा है।  वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है. ज्ञात हो ग्रीन हाउस गैसों में सबसे खतरनाक हाइड्रोफ्लोरोकार्बन  है, जिसके उत्सर्जन में कमीं नहीं की गई तो इस सदी के अंत तक तापमान में 0.5  डिग्री सेल्सियस का इजाफा हो सकता है. यदि ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा इसी प्रकार से बढती रही तो हमारी धरती भी एक दिन  मंगल और शुक्र गृह की भांति जीवन रहित हो जाएगी।

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