डॉ.ग़जेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
अन्तराष्ट्रीय किन्वा वर्ष 2 0 1 3 के उपलक्ष्य में
अनियंत्रित जनसंख्या, बढ़ते शहरीकरण, ओद्योगिकीकरण, पर्यावरण प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व की जैव विविधता में अपूर्णनीय क्षति हुई है । विश्व में पाई जाने वाली आर्थिक महत्व की 80,000 पौध प्रजातियो मे से 30,000 प्रजातियाँ खाने योग्य है जिसमें से अभी तक 7000 प्रजातियाँ ही मनुष्य द्वरा उगाई गई है । इनमें से मात्र 158 पौध प्रजातियाँ ही मानव समाज के लिए खाद्यान्न के रूप में प्रयोग में लाई जा रही है । वर्तमान में तीस फसलों से विश्व में 90 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादित होता है । विश्व के 75 प्रतिशत खाद्यान्न का मुख्य स्त्रोत 10 फसलें ही है, जिनमें से चावल, गेहूँ व मक्का की भागीदारी लगभग 60 प्रतिशत है । भारत में तो अधिकांश जनता की खाद्यान्न की जरूरते महज चावल व गेंहू से पूरी होती है । जाहिर है कि मात्र कुछ फसलो पर विश्व की खाद्यान्न आपूर्ति टिकी हुई है, जो कि भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है । हमारे पूर्वज विभिन्न ऋतुओ के हिसाब से अपने भोजन में विविध खाद्यान्नो का इस्तेमाल करते थे जिससे वे सदैव स्वस्थ व कार्य पर मुस्तैद रहते थे । वैसी विविधता तो अब कहानियो में ही रह गई है । आज कुछ खास फसलो पर निर्भरता को कम करते हुए अशिंचित क्षेत्रों की पर्यावरण व पोषण हितैषी फसलो के महत्व को पुनः स्थापित करने की महती आवश्यकता है । तभी हम आसन्न जलवायु परिवर्तन, जनसंख्या विस्फोट और कुपोषण जैसी महामारी से निजात पाने में सफल हो सकते है । आज हमारी कृषि में लागत बढ़ रही है और आगत सीमित होती जा रही है, जिससे खेती-किसानी से ग्रामीण युवाओ का मोह भंग होना भविष्य के लिए गंभीर खतरा है । धान-गेहूँ फसल पद्धति पर आधारित हमारी खेती पर खतरे के बादल मंडराने लगे है । गिरते भूजल, बढते तापक्रम, घटती जमीनो की उर्वराशक्ति आदि ऐसे कारक है जिनकी अनदेखी करना बहुत भारी पड़ सकता है । पुरातन काल में बहुत सी ऐसी फसलें उगाई जाती थी जिनसे कम पानी और सीमित सस्य प्रबंधन में भी बेहतर उत्पादन प्राप्त कर लिया जाता था । खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए अल्प-प्रयुक्त प्राचीन फसलों को विश्वस्तर पर संभावित वैकल्पिक खाद्यान्न फसलो के रूप में देखा जा रहा हैे । वास्तव में विलुप्त होती जा रही ये फसलें विपरीत परिस्थितियो एवं समस्याग्रस्त भूमियो पर भी अच्छी पैदावार देकर हमारी भोजन व पोषण की आवश्यकता की पूर्ति करती है ।यदि इन फसलो की खेती को यथोचित प्रोत्साहन दिया जाय तो यह छोटे व मझोले किसानो के लिए वरदान साबित होगी । ऐसी ही एक अदभुत फसल जिसे किन्वा के नाम से जाना जाता है । संयुक्त राष्ट्र संघ-कृषि एवं खाद्य संगठन ने वर्ष 2013 को अन्तराष्ट्रीय किन्वा वर्ष घोषित किया है जिससे इस जीवनदायनी फसल के महत्व से जन साधारण परिचित हो सकें । आइए इस अद्भुत फसल के चमत्कारिक गुणों से आपको परिचित करवाते है:
क्विनवा क्या है ?
दक्षिण अमेरिका की एन्डीज पहाड़ियो पर आदिकाल से यह एक वर्षीय पौधा उगाया जा रहा है । क्विनआ एक स्पेनिश शब्द है। यह बथुआ कुल (Chenopodiaceae) का सदस्य है जिसका वानस्पतिक नाम चिनोपोडियम किन्वा (Chenopodium Quinoa) है। इसका बीज अनाज जैसे चावल, गेंहू आदि की भाँती प्रयोग में लाया जाता है। चूकि यह घास कुल (Graminae) का सदस्य नहीं है इसलिए इसे कूट अनाज (Pseudocereal) की श्रेणी में रखा गया है जिसमे वक व्हीट, चौलाई आदि को भी रखा गया है। खाद्यान्नो से अधिक पौष्टिक और खाद्यान्नो जैसा उपयोग, इसलिए इसे महाअनाज कहा जाना चाहिए। । बथुआ, पालक व चुकंदर इसके सगे सम्बन्धी पौधे है । बथुआ प्राचीन काल से ही हमारे देश में खाद्यान्न एवं हरे पत्तेदार सब्जी के रूप में प्रयोग होता था । बथुआ की चार प्रजातियो की खेती की जाती है । ये प्रजातियाँ है-चीनोपोडियम एल्बम, चीनोपोडियम क्विनआ, चीनोपोडियम नुट्टेलिएई और चीनोपोडियम पेल्लिडिकली है । इनमें प्रथम प्रजाति भारतीय उपमहादीप में लो कप्रिय है। आजकल आधुनिकता की दौड़ में हमने इसे समस्यामूलक पौधा- खरपतवार मानकर इसे जडमूल से नष्ट करने में लगे है। गेंहू, चना, सरसों के खेतो में स्वतः उग आता है और यदा कदा कुछ समझदार इसे भाजी या भोज्य पदार्थ के रूप में इस्तेमाल कर लेते है। वास्तव में पोषण व स्वास्थ्य में हरी पत्तेदार सब्जिओ में बथुआ का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। बथुए की अन्य तीन प्रजातियो की खेती मध्य व दक्षिणी अमरीका की एन्डीज पहाड़ियो -मेक्सिको , पेरू, चायल, इक्वाडोर और बोल्वीया में अधिक प्रचलित है । तमाम खूबियो के कारण अब क्विनआ एन्डीज की पहाड़ो से निकलकर उत्तरी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, चीन, जापान और भारत में भी सुपर बाजारों में उपस्थिति दर्ज करा चुकी है और अमीर लोगो की पहली पसंद बनती जा रही है। अब इन देशो में इसकी खेती को विस्तारित करने प्रयोग हो रहे है । पुरानी इन्कास सभ्यता में यह पवित्र अनाज कहा जाता था तथा वहा के लोग इसे मातृ-दाना (Mother-grain) मानते थे जिसके खाने से लंबा व स्वस्थ जीवन मिलता था। वहां के सम्राट सबसे पहले प्रति वर्ष इसके दाने सोने के फावड़े से बोया करते थे ।
भारत में उगाये गये इसके पौधे 1.5 मीटर की ऊचे, शाखायुक्त रंग विरंगे चोड़े पत्ते वाले होते है । बीज विविध रंग यथा सफेद, गुलाबी, हल्के कत्थई आदि रंग के होते है । इसकी जड़े काफी गहराई तक जाती है जिससे असिंचित-बारानी अवस्थाओ में इसे सफलतापूर्वक उगाया जाता है ।
संपूर्ण प्रोटीन में धनी क्विनवा को भविष्य का बेहतर अनाज (सुपर ग्रेन) माना जा रहा है । विश्व में इसकी खेती पेरू, बोल्वीया और इक्वाडोर देशो में नकदी फसल के रूप में प्रचलित है । खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार संसार में इसे 86,303 हैक्टर में उगाया जा रहा है जिससे 71,419 मेट्रिक टन पैदावार हो रही है । अब इसके क्षेत्रफल में तेजी से बढ़त हो रही है ।
क्विनवा के उपयोग
किंवा को चावल की भांति उबाल कर खाया जा सकता है । दानो से आटा व दलिया बनाया जाता है । स्वादिष्ट नाश्ता, शूप, पूरी, खीर, लड्डू आदि विविध मीठे और नमकीन व्यंजन बनाये जा सकते है । गेहूँ व मक्का के आटे के साथ क्विनवा का आटा मिलाकर ब्रेड, विस्किट, पास्ता आदि बनाये जाते है । पेरू और बोल्वीया में किन्वा फ्लेक्स व भुने दानो का व्यवसायिक उत्पादन किया जाता है । ग्लूटिन मुक्त यह इतना पौष्टिक खाद्यान्न है कि आन्तरिक्ष अभियान के दौरान आदर्श खाद्य के रूप में इसे इस्तेमाल किया जा सकता है । भारत में गेहूँ के आटे की पौष्टिकता बढ़ाने में इसके दानो का उपयोग किया जा सकता है जिससे कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती है ।
पौष्टिकता का खजाना है क्विनवा
प्रकृति की अनुपम देन क्विनवा एक असाधारण परम अन्न है जिसके सेवन से शरीर को आवश्यक कार्बोहाइड्रेट,प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज और रेशा संतुलित मात्रा में प्राप्त हो जाते है । इस अदभुत दाने की पोषक महत्ता अग्र प्रस्तुत है ।
1.प्रोटीन से भरा दाना : वानस्पतिक प्रोटीन का सबसे बेहतर स्त्रोत क्विनवा अनाज है जिसमें शरीर के लिए महत्वपूर्ण सभी दसों आवश्यक अमीनो अम्ल संतुलित अनुपात में पाये जाते है, जो कि अन्य अनाज में नही पाए जाते है । इसलिए यह शाकाहारियो में लोकप्रिय खाद्य पदार्थ बन रहा है । क्विनवा के 100 ग्राम दानो में 14-18 ग्राम उच्च गुणवत्तायुक्त प्रोटीन (44-77 प्रतिशत एल्ब्यूमिन व ग्लोब्यूलिन) पाई जाती है । गेहूँ व चावल में प्रोटीन की मात्रा क्रमशः 14 व 7.5 प्रतिशत के आसपास होती है । अधिकतर अनाजो में लाइसीन प्रोटीन की कमी होती है, जबकि किंवा के दानो में पर्याप्त मात्रा में लाइसीन पाया जाता है ।
2.रेशे (तन्तुओ ) में धनीः इसमें पर्याप्त मात्रा में घुलनशील व अघुलनशील रेशे (Fiber) पाए जाने के कारण यह खून के कोलेस्ट्राल, खून की शर्करा व रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायक होता है । अन्य अनाजो की तुलना में इसमें तन्तुओ की मात्रा लगभग दो गुना अधिक होती है । इस कारण इसका सेवन करनेे से पेट सबंन्धी विकार यथा कब्ज तथा बवासीर जैसी समस्याओ से निजात मिलती है जो कि प्रायः भोजन में तन्तुओ की कमी से होती है । इसमें लगभग 4.1 प्रतिशत रेशा पाया जाता है जबकि गेहूँ में 2.7 प्रतिशत और चावल में मात्र 0.4 प्रतिशत तन्तु होते है ।
3.लोहे की उच्च मात्राः हमारे शरीर के लिए लोहा (iron) अत्यावश्यक तत्व है । शरीर में हीमोग्लोबिन के निर्माण और शरीर में आक्सीजन प्रवाह में लोह तत्व सहायक होता है । शरीर के तापमान को नियंत्रित करने, दिमाग को क्रियाशील बनाने तथा शरीर में इन्जाइम की क्रिया को भी बढ़ानें में मदद करता है ।
4.कैल्शियम भरपूर: शरीर में स्वस्थ और मजबूत हड्डियो के लिए कैल्शियम निहायत जरूरी पोषक तत्व है । सुंदर और सुडौल दांतो के लिए भी कैल्शियम आवश्यक है । क्विनवा में गेहूँ से लगभग डेढ़ गुना अधिक मात्रा में कैल्शियम पाया जाता रहता है । अतः भोजन में क्विनआ अनाज सम्मलित करने से हमारी हड्डियाँ व दाँत स्वस्थ व मजबूत रह सकते है ।
5.सीमित वसा: इस अदभुत अनाज में वसा की मात्रा बहुत ही कम (100 ग्राम दानो में 4.86 ग्राम) होती है । इसके वसा में असंतृप्त वसा (लिलोलिक व लिओलिनिक अम्ल) उच्च गुणवत्ता वाली मानी गई है । अतः यह न्यून कैलोरी वाला खाद्य है जिसे मौटापा नियंत्रित करने में प्रयोग किया जा सकता है । इसके 100 ग्राम पके दानो से 120 कैलोरी मिलती है जबकि इतने ही गेहूँ आटे से 364 कैलौरी प्राप्त होती है । क्विनवा की 120 कैलौरी में सिर्फ 2 प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 8 प्रतिशत प्रोटीन व लोहा, 11 प्रतिशत रेसा, 16 प्रतिशत मैग्नेशियम तथा 4 प्रतिशत पोटेशियम मिलता है ।
6.विटामिनो का स्त्रोत : क्विनवा के दानो में बहुमूल्य बिटामिन्स-बी समूह-बीटा कैरोटिन व नियासिन(बी-3),राइबो फ्लेविन(बी-2), विटामिन-ई (अल्फा-टोको फिरोल) और कैरोटिन गेहँ व चावल से अधिक मात्रा में पायी जाती है ।
7.ग्लूटिन मुक्त खाद्य : क्विनवा का उपयोग अनाज की भांति किया जाता है। न तो यह अनाज और न ही यह घास है । दरअसल यह पालक व चुकन्दर की भाँती बथुआ परिवार का सदस्य है । इसके दानो में ग्लूटिन (एक प्रकार का प्रोटीन) नहीं हो होता है जो कि गेहँ में प्रमुखता से पाया जाता है । सेलियक रोग से पीडित व्यक्ति को ग्लूटिनयुक्त भोजन नहीं करना चाहिए ।ऐसे लोगो के लिए यह वरदान साबित हो सकता है।
8.निम्न ग्लाइसेमिक इंडेक्सः इसमें जटिल कार्बोज होने के बाबजूद इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स निम्न पाया गया है जिससे डायबेटिक मरीज के लिए लाभदायक खाद्य है ।
9.और भी बहुत कुछः इसके दानो में कैल्शियम और लोहे जैसे महत्वर्पूँ खनिज तो पाये ही जाते है साथ ही पोटेशियम, सो सो सोडियम, कापर, मैग्नीज, जिंक व मैग्नेशियम भी काफी मात्रा में पाये जाते है । कापर रक्त में लाल कणों के निर्माण में यो गदान देता है । मैग्नेशियम रक्त नलिकाओ को आराम देता है जिससे तनाव व शिर दर्द से निजात मिलती है । लोहा लाल रक्त कोशिकाओ के निर्माण में सहायक होता है तो कापर और मैग्नीज तमाम उपापचयी क्रियाओ में मदद करता है । पोटेशियम शरीर में ह्रदय गति व रक्त दबाव को नियंत्रित करता है ।
10.भाजी भी कम नहीं: इसकी पत्तियो को भाजी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । पत्तियो में पर्याप्त मात्रा में राख (3.3 प्रतिशत), रेशा (1.9 प्रतिशत), विटामिन सी व ई पाया जाता है ।
किंनवा के दानो की ऊपरी पर्त पर एक अपोषक तत्व-सपोनिन (कषैला पदार्थ) पाया जाता है । इसलिए प्रसंस्करण (छिलका उतारकर) करने के बाद इसका उपभोग किया जाता है । सपोनिन का उपयोग साबुन, शैम्पू, प्रसाधन सामग्री बनाने तथा दवा उद्योग में उपयोग किया जाता है ।
भारत में खेती की अच्छी संभावना
समस्त प्राकृतिक विविधताओ से ओत-प्रोत भारत की कृषि जलवायु एवं मिट्टियो में सभी प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है । चिनोपोडियम क्विनआ-कूट अनाज की खेती भारत के हिमालयीन क्षेत्र से लेकर उत्तर भारत के मैदानी भागो में सफलता पूर्वक की जा सकती है । आन्ध्र प्रदेश में इस पर प्रयोग प्रारंभ हो गये है । भारत का बड़ा भू-भाग सूखाग्रस्त है तथा इन इलाको में खेती किसानी वर्षा पर निर्भर है । इन क्षेत्रों की अधिकांश जनसंख्या भूख, गरीबी और कुपोषण की शिकार है । सीमित पानी और न्यूनतम खर्च में अधिकतम उत्पादन और आमदनी देने वाली फसल प्राप्त हो जाने पर यहाँ के लोगों का सामाजिक-आर्थिक जीवन समोन्नत हो सकता है । ऐसी ही अद्भुत फसल है-क्वनवा , जिसे कूट अनाज कहा जाता है । अपार संभावनाओ वाली इस फसल पर नेशनल बोटेनीकल रिसर्च इस्टीटयूट, लखनऊ में शोध व किस्म विकास का कार्य प्रारंभ हो गया है ।
सामान्यत: क्विनआ ग्रीष्मऋतु की फसल है । प्रायोगिक तौर पर आन्ध्रप्रदेश अकादमी आफ रूरल डेव्हलपमेंट, हैदराबाद में इसे फरवरी-मार्च में लगाया गया । सीधे प्रकाश तथा तेज गर्मी होने पर भी पौधो की अच्छी बढ़वार तथा फूल-फल विकसित होना शुभ संकेत देता है । देश के अनेक भागो में जून-जुलाई में भी इसकी खेती विस्तारित की जा सकती है । पौध अवस्था से पकने तक लगभग 150 दिन का समय लगता है । बीज अंकुरण के लिए 18-24 डि.से. तापक्रम उपयुक्त समझा जाता है । अच्छी बढ़वार के लिए राते ठण्डी तथा दिन का अधिकतम तापक्रम 35 डि.से. तक उचित माना जाता है । क्विनआ की खेती जलनिकास युक्त विभिन्न प्रकार की मृदाओ में की जा सकती है । यह मृदा क्षारीयता, सूखा, पाला, कीट-रोग सहनशील फसल है । इसका बीज बहुत छोटा (चौलाई जैसे) होने के कारण खेत की ठीक से तैयारी कर मिट्टी को भुरभुरा करना आवश्यक है ।अंतिम जुताई के समय खेत में 5-7 टन प्रति हैक्टर की दर से गोबर की खाद मिला देना चाहिए । बुवाई कतारो में 45-60 सेमी. की दूरी पर करते है तथा अंकुरण के पश्चात पौधो का विरलीकरण कर दो पौधो के मध्य 15-45 सेमी. की दूरी स्थापित कर लेना चाहिए । बीज को 1.5-2 सेमी. की गहराई पर लगाना चाहिए । एक मीटर जगह पर बुवाई करने हेतु 1 ग्राम बीज पर्याप्त होता है । उर्वरको की अधिक आवश्यकता नहीं होती है । सूखा सहन करने की बेहतर क्षमता तथा कम जलमांग के कारण सिंचाई कम लगती है । वर्तमान में यह खाद्यान्न आयात किया जाता है । हैदराबाद के सुपर-बाजारों में 1500 रूपये प्रति किलो की दर से इसे बेचा जा रहा है । भारत सहित अनेक राज्यो में इसकी खेती और बाजार की बेहतर संभावनाएं है । फसल का रकबा बढ़ने से किसानो की आय में इजाफा होने के साथ-साथ देश में खाद्यान्न व पोषण आहार सुरक्षा कायम करने में हम सफल हो सकेंगे ।