डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी ), कृषि महाविद्यालय,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषकनगर,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
मसूर फसल का आर्थिक महत्व
दलहनी वर्ग में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल है । प्रचलित दालों में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथ-साथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते है यानि सेहत के लिए फायदेमंद है । मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्रा. रेशा, 68 मिग्रा. कैल्शियम, 7 मिग्रा. लोहा, 0.21 मिग्रा राइबोफ्लोविन, 0.51 मिग्रा. थाइमिन तथा 4.8 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है अर्थात मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज लवण और विटामिन्स से यह परिपूर्ण दाल है । रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है क्योकि यह अत्यंत पाचक है। दाल के अलावा मसूर का उपयोग विविध नमकीन और मिठाईयाँ बनाने में भी किया जाता है। इसका हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में गाँठे पाई जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भूमि में करते है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है । अतः फसल चक्र में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्वों की भी कुछ प्रतिपूर्ति करती है ।इसके अलावा भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है।मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परस्थितिओं वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।
मसूर मध्य एवं उत्तर भारत के बारानी (वर्षा आश्रित ) क्षेत्रों में आसानी से उगाई जा सकती है। मध्य प्रदेश में लगभग 0.53 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में मसूर की खेती प्रचलित है जिससे 505 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत उपज के मान से अमूमन 0.27 मिलियन टन उत्पादन लिया जा रहा है । छत्तीसगढ़ में मसूर करीब 23.24 हजार हेक्टेयर में उगाई जा रही है। इसकी औसत उपज 414 किग्रा. प्रति हैक्टर है जो कि राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। मसूर की उपज कम होने के प्रमुख कारण है-
1 . चयन की गई किस्मों का क्षेत्र विशेष के अनुकूल ना होना
2. उन्नत किस्मों का गुडवत्तायुक्त बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध ना होना
3. मसूर की फसल में उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग करना
4. समयानुसार सिचाई , खरपतवार, कीट रोग नियंत्रण पर ध्यान ना देना
बाजार में मसूर की बढ़ती मांग को देखते हुए इसकी औसत पैदावार बढ़ाना नितांत आवश्यक है। प्रति इकाई मसूर की उपज बढ़ाने के लिए निम्न वैज्ञानिक तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।
फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
मसूर शरद ऋतु की फसल है जिसकी खेती रबी में की जाती है। पौधों की वृद्धि के लिए ठण्डी जलवायु परन्तु फसल पकने के समय उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। मसूर की फसल वृद्धि के लिए 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त रहता है। जहाँ 80 - 100 सेमी. तक वार्षिक वर्षा होती है, मसूर की खेती बिना सिंचाई के भी बारानी परिस्थिति (वर्षा नमी सरंक्षित) में की जाती है। अधिक वर्षा, अधिक गर्मी तथा पाला-कोहरा प्रभावित क्षेत्रों में मसूर की खेती नहीं की जाती हैं। गर्म आद्र स्थानों में इसकी उपज अच्छी नहीं आती है।
मसूर मध्य एवं उत्तर भारत के बारानी (वर्षा आश्रित ) क्षेत्रों में आसानी से उगाई जा सकती है। मध्य प्रदेश में लगभग 0.53 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में मसूर की खेती प्रचलित है जिससे 505 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत उपज के मान से अमूमन 0.27 मिलियन टन उत्पादन लिया जा रहा है । छत्तीसगढ़ में मसूर करीब 23.24 हजार हेक्टेयर में उगाई जा रही है। इसकी औसत उपज 414 किग्रा. प्रति हैक्टर है जो कि राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। मसूर की उपज कम होने के प्रमुख कारण है-
1 . चयन की गई किस्मों का क्षेत्र विशेष के अनुकूल ना होना
2. उन्नत किस्मों का गुडवत्तायुक्त बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध ना होना
3. मसूर की फसल में उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग करना
4. समयानुसार सिचाई , खरपतवार, कीट रोग नियंत्रण पर ध्यान ना देना
बाजार में मसूर की बढ़ती मांग को देखते हुए इसकी औसत पैदावार बढ़ाना नितांत आवश्यक है। प्रति इकाई मसूर की उपज बढ़ाने के लिए निम्न वैज्ञानिक तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।
फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
मसूर शरद ऋतु की फसल है जिसकी खेती रबी में की जाती है। पौधों की वृद्धि के लिए ठण्डी जलवायु परन्तु फसल पकने के समय उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। मसूर की फसल वृद्धि के लिए 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त रहता है। जहाँ 80 - 100 सेमी. तक वार्षिक वर्षा होती है, मसूर की खेती बिना सिंचाई के भी बारानी परिस्थिति (वर्षा नमी सरंक्षित) में की जाती है। अधिक वर्षा, अधिक गर्मी तथा पाला-कोहरा प्रभावित क्षेत्रों में मसूर की खेती नहीं की जाती हैं। गर्म आद्र स्थानों में इसकी उपज अच्छी नहीं आती है।
कैसी हो भूमि
मसूर की खेती के लिए हलकी दोमट तथा दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है। उत्तरी भारत में मैदानो की अलूवियल मिट्टी, मध्य प्रदेश में कपास की काली मिट्टी तथा दक्षिण भारत की लाल लेटेराइट मिट्टी में मसूर की खेती अच्छी प्रकार से की जा रही है । छत्तीसगढ़ की डोरसा तथा कन्हार भूमि में मसूर की खेती की जाती है। अच्छी फसल के लिए मिट्टी का पी. एच. मान 5.8 - 7.5 के बीच होना चाहिये।
खेत की तैयारी
खरीफ फसल काटने के बाद 2 - 3 आड़ी - खड़ी जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से की जाती है जिससे मिट्टी भुरभुरी एवं नरम हो जाए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी बारीक और समतल कर लेते है। भारी मटियार मिट्टी में हलकी दोमट की अपेक्षा अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है ।
खेत की तैयारी
खरीफ फसल काटने के बाद 2 - 3 आड़ी - खड़ी जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से की जाती है जिससे मिट्टी भुरभुरी एवं नरम हो जाए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी बारीक और समतल कर लेते है। भारी मटियार मिट्टी में हलकी दोमट की अपेक्षा अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है ।
उन्नत किस्मों का चयन
देशी किस्मो की अपेक्षा उन्नत किस्मो के प्रमाणित बीज का उपयोग करने से अन्य फसलों की तरह मसूर से भी अधिकतम उपज (20 से 25 प्रतिशत अधिक) ली जा सकती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लिए मसूर की नवीनतम अनुमोदित किस्में निम्नानुसार है-
उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र : एलएल-147, पन्त एल-406, पन्त एल-639, सपना (एलएच 84-8), एल-4076(शिवालिक), पन्त एल-4, प्रिया (डीपीएल-15), पन्त लेंटिल-5, पूसा वैभव, डीपीएल-62
उत्तर पूर्व मैदानी क्षेत्र : डब्लूबीएल-58, पन्त एल-406, डीपीएल-63, पन्त एल-639, मलिका (के-75), केेलएस-218, एचयूएल-67
मध्य क्षेत्र : जेएलएस-1, सीहोर 74-3, मलिका (के-75), एल-4076, जवाहर लेंटिल-3, नूरी, पन्त एल-639,आई पी एल -81
उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र : एलएल-147, पन्त एल-406, पन्त एल-639, सपना (एलएच 84-8), एल-4076(शिवालिक), पन्त एल-4, प्रिया (डीपीएल-15), पन्त लेंटिल-5, पूसा वैभव, डीपीएल-62
उत्तर पूर्व मैदानी क्षेत्र : डब्लूबीएल-58, पन्त एल-406, डीपीएल-63, पन्त एल-639, मलिका (के-75), केेलएस-218, एचयूएल-67
मध्य क्षेत्र : जेएलएस-1, सीहोर 74-3, मलिका (के-75), एल-4076, जवाहर लेंटिल-3, नूरी, पन्त एल-639,आई पी एल -81
मसूर की प्रमुख उन्नत किस्मो की विशेषताएं
नरेन्द्र मसूर-1 (एनएफएल-92): यह किस्म 120 से 130 दिन में तैयार होकर 15-20 क्विंटल उपज देती है । रस्ट रोग प्रतिरोधी तथा उकठा रोग सहनशील किस्म है ।
पूसा - 1: यह किस्म जल्दी पकने (100 - 110 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानो का वजन 2.0 ग्राम है। यह जाति सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
पन्त एल-406:यह किस्म लगभग 150 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 30-32क्विंटल प्रति हैक्टर है ।रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म उत्तर, पूर्व एवं पस्चिम के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
टाइप - 36: यह किस्म 130 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 20 से 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानो का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म केवल सतपुड़ा क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के लिए उपयुक्त है।
बी. 77: यह किस्म 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसत उपज 18 - 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है। इसके 100 दानों का वजन 2.5 ग्राम है। यह किस्म सतपुड़ा क्षेत्र (सिवनी, मण्डला एवं बैतुल) के लिए उपयुक्त है।
एल. 9-12: यह किस्म देर से पकने (135 - 140 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म ग्वालियर, मुरैना तथा भिंड क्षेत्र के लिये उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-1: यह बड़े दानो वाली जाति है तथा 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है । औसतन उपज 20 - 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह किस्म सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिले तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-2: यह किस्म 100 दिन मे पककर तैयार होती है एवं औसतन उपज 20 - 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दानला बहुत बड़ा है। 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह म. प्र. के सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिलों तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
नूरी (आईपीएल-81): यह अर्द्ध फैलने वाली तथा शीघ्र पकने (110 - 120 दिन) वाली किस्म है। इसकी औसत उपज 12 - 15क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 2.7 ग्राम है। यह किस्म छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र तथा सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. - 3: यह 100 - 110 दिनों में पककर तैयार होने वाली किस्म है जो 12 - 15क्विंटल औसत उत्पादन देती है। यह बड़े दानो वाली (2.7 ग्रा/100 बीज) एवं उकठा निरोधी जाति है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
मलिका (के -75): यह 120 - 125 दिनों मे पकने वाली उकठा निरोधी किस्म है। बीज गुलाबी रंग के बड़े आकार (100 बीजों का भार 2.6 ग्राम) के होते है। औसतन 12 - 15क्विंटल /हे. तक पैदावार देती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
सीहोर 74-3: मध्य क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 120-125 दिन में तैयार ह¨कर 10-15क्विंटल उपज देती है । इसका दाना बड़ा ह¨ता है तथा 100 दानों का भार 2.8 ग्राम होता है ।
सपनाः यह किस्म 135-140 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 21क्विंटल उपज देती है । उत्तर पश्चिम क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है । दाने बड़े होते है । रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
पन्त एल-234: यह किस्म 130-150 दिन में तैयार होती है तथा औसतन उपज क्षमता 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर है । उकठा व रस्ट रोग प्रतिरोधी पाई गई है ।
बीआर-25: यह किस्म 125-130 दिन में पकती है जिसकी उपज क्षमता 15-20क्विंटल प्रति हैक्टर ह¨ती है । बिहार व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
पन्त एल-639: भारत के सभी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 130-140 दिन में पककर तैयार ह¨ती है । इसकी उपज क्षमता 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है । रस्ट व उकठा रोग प्रतिरोधी किस्म है जिसके दाने कम झड़ते है ।
कितना बीज
पूसा - 1: यह किस्म जल्दी पकने (100 - 110 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानो का वजन 2.0 ग्राम है। यह जाति सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
पन्त एल-406:यह किस्म लगभग 150 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 30-32क्विंटल प्रति हैक्टर है ।रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म उत्तर, पूर्व एवं पस्चिम के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
टाइप - 36: यह किस्म 130 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 20 से 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानो का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म केवल सतपुड़ा क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के लिए उपयुक्त है।
बी. 77: यह किस्म 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसत उपज 18 - 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है। इसके 100 दानों का वजन 2.5 ग्राम है। यह किस्म सतपुड़ा क्षेत्र (सिवनी, मण्डला एवं बैतुल) के लिए उपयुक्त है।
एल. 9-12: यह किस्म देर से पकने (135 - 140 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म ग्वालियर, मुरैना तथा भिंड क्षेत्र के लिये उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-1: यह बड़े दानो वाली जाति है तथा 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है । औसतन उपज 20 - 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह किस्म सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिले तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-2: यह किस्म 100 दिन मे पककर तैयार होती है एवं औसतन उपज 20 - 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दानला बहुत बड़ा है। 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह म. प्र. के सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिलों तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
नूरी (आईपीएल-81): यह अर्द्ध फैलने वाली तथा शीघ्र पकने (110 - 120 दिन) वाली किस्म है। इसकी औसत उपज 12 - 15क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 2.7 ग्राम है। यह किस्म छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र तथा सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. - 3: यह 100 - 110 दिनों में पककर तैयार होने वाली किस्म है जो 12 - 15क्विंटल औसत उत्पादन देती है। यह बड़े दानो वाली (2.7 ग्रा/100 बीज) एवं उकठा निरोधी जाति है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
मलिका (के -75): यह 120 - 125 दिनों मे पकने वाली उकठा निरोधी किस्म है। बीज गुलाबी रंग के बड़े आकार (100 बीजों का भार 2.6 ग्राम) के होते है। औसतन 12 - 15क्विंटल /हे. तक पैदावार देती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
सीहोर 74-3: मध्य क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 120-125 दिन में तैयार ह¨कर 10-15क्विंटल उपज देती है । इसका दाना बड़ा ह¨ता है तथा 100 दानों का भार 2.8 ग्राम होता है ।
सपनाः यह किस्म 135-140 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 21क्विंटल उपज देती है । उत्तर पश्चिम क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है । दाने बड़े होते है । रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
पन्त एल-234: यह किस्म 130-150 दिन में तैयार होती है तथा औसतन उपज क्षमता 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर है । उकठा व रस्ट रोग प्रतिरोधी पाई गई है ।
बीआर-25: यह किस्म 125-130 दिन में पकती है जिसकी उपज क्षमता 15-20क्विंटल प्रति हैक्टर ह¨ती है । बिहार व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
पन्त एल-639: भारत के सभी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 130-140 दिन में पककर तैयार ह¨ती है । इसकी उपज क्षमता 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है । रस्ट व उकठा रोग प्रतिरोधी किस्म है जिसके दाने कम झड़ते है ।
कितना बीज
अधिक उपज के लिए खेत में पर्याप्त पौध संख्या होना आवश्यक है। इसके लिए प्रमाणित किस्म का स्वस्थ बीज संस्तुत मात्रा में प्रयोग करना अनिवार्य है। बीज की मात्रा जलवायु, बुआई की विधि, बीज की अंकुरण क्षमता तथा किस्म पर निर्भर करती है । समय पर मसूर की बुआई हेतु उन्नत किस्मों का 30 - 35 कि. ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। विलम्ब से बुआई करने पर 40 किलो ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिए। मिश्रित फसल में प्रायः बीज दर आधी-आधी रखी जाती है ।
बिजाई से पहले करें बीजोपचार
बिजाई से पहले करें बीजोपचार
स्वस्थ बीजों को बुवाई के पूर्व थाइरम या बाविस्टिन 3 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित करें। इसके उपरान्त बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर तथा स्फुर घोलक जीवाणु (पीएसबी) कल्चर प्रत्येक को 5 ग्राम (कुल 10 ग्राम) प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर छायादार स्थान में सुखाकर बोआई सुबह या शाम को करना चाहिए।
जरुरी है समय पर बोआई
मसूर की बुआई रबी में अक्टूबर से दिसम्बर तक होती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर का समय उपयुक्त है। ज्यादा विलम्ब से बोआई करने पर कीट व्याधि का प्रकोप अधिक होता है। देर से बोने पर यदि भूमि में नमी कम हो तो हल्की सिंचाई करने के पश्चात् बीज बोना चाहिए।
बोआई वैज्ञानिक तरीके से
अच्छी उपज के लिए केरा या पोरा विधि से कतार बोनी करना ही उत्तम पाया गया है। हल के पीछे कूँड़ में बीज डालने के बाद खेत में पाटा चलाया जाता है। इस क्रिया से खेत समतल होने के अलावा बीज भी ढंक जाते है । पोरा विधि में देशी हल के पीछे पोरा (चोंगा) लगाकर बोनी कतार में की जाती है । इसके लिए सीड ड्रिल का भी प्रयोग किया जाने लगा है । पोरा अथवा सीड ड्रिल से बीज उचित गहराई और समान दूरी पर गिरते है । अगेती फसल की बोआई पंक्तियोेेें मे 30 से. मी. की दूरी पर करना चाहिए। पछेती फसल की बोआई हेतु पंक्तियो की दूरी 20 - 25 से. मी. रखते है। मसूर का बीज अपेक्षाकृता छोटा होने के कारण इसकी उथली (3-4 सेमी.) बुआई श्रेयष्कर होती है । आजकल शुन्य जुताई तकनीक से भी (जीरो टिल सीड ड्रिल से ) मसूर की बुआई की जा रही है जिसमे खर्च कम आता है तथा समय की वचत भी होती है।
जरुरी है समय पर बोआई
मसूर की बुआई रबी में अक्टूबर से दिसम्बर तक होती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर का समय उपयुक्त है। ज्यादा विलम्ब से बोआई करने पर कीट व्याधि का प्रकोप अधिक होता है। देर से बोने पर यदि भूमि में नमी कम हो तो हल्की सिंचाई करने के पश्चात् बीज बोना चाहिए।
बोआई वैज्ञानिक तरीके से
अच्छी उपज के लिए केरा या पोरा विधि से कतार बोनी करना ही उत्तम पाया गया है। हल के पीछे कूँड़ में बीज डालने के बाद खेत में पाटा चलाया जाता है। इस क्रिया से खेत समतल होने के अलावा बीज भी ढंक जाते है । पोरा विधि में देशी हल के पीछे पोरा (चोंगा) लगाकर बोनी कतार में की जाती है । इसके लिए सीड ड्रिल का भी प्रयोग किया जाने लगा है । पोरा अथवा सीड ड्रिल से बीज उचित गहराई और समान दूरी पर गिरते है । अगेती फसल की बोआई पंक्तियोेेें मे 30 से. मी. की दूरी पर करना चाहिए। पछेती फसल की बोआई हेतु पंक्तियो की दूरी 20 - 25 से. मी. रखते है। मसूर का बीज अपेक्षाकृता छोटा होने के कारण इसकी उथली (3-4 सेमी.) बुआई श्रेयष्कर होती है । आजकल शुन्य जुताई तकनीक से भी (जीरो टिल सीड ड्रिल से ) मसूर की बुआई की जा रही है जिसमे खर्च कम आता है तथा समय की वचत भी होती है।
फसल को मिले संतलुत पोषण
दलहनी फसल होने के कारण मसूर को पिछली फसल में दी गई खाद के अवशेषों पर उगाया जाता है परन्तु अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मृदा परीक्षण के पश्चात् संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है। सिंचित अवस्था में 20 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. फॉस्फोरस, 20 किग्रा. पोटाश तथा 20 किग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुवाई करते समय डालना चाहिए। असिंचित दशा में क्रमशः 15:30:10:10 किग्रा. नत्रजन, फाॅस्फोरस,पोटाश व सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय कूड़ में देना लाभप्रद रहता है। फाॅस्फोरस को सिंगल सुपर फाॅस्फेट के रूप में देने से प्रायः आवश्यक सल्फर तत्व की पूर्ति भी हो जाती है। जिंक की कमी वाली भूमियों में जिंक सल्फेट 25 किग्रा./हे. की दर से अन्य उर्वरकों के साथ दिया जा सकता है। उर्वरकों को बोआई के समय कतारों में बीज लगभग 5 सेमी. की दूरी पर तथा बीज की सतह से 3 - 4 सेमी. की गहराई पर देना अच्छा रहता है।
सिंचाई कितनी और कब
मसूर में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। सामान्य तौर पर सिंचाई नहीं की जाती है। फिर भी सिंचित क्षेत्रों में 1 - 2 सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है। पहली सिंचाई शाखा निकलते समय अर्थात् बुवाई के 30 - 35 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते समय बुवाई के 70 - 75 दिन बाद करना चाहिए। ध्यान रखें कि पानी अधिक न होने पावे। यथा संभव स्प्रिकलर से सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बनाकर हल्की सिंचाई करना लाभकारी रहता है। अधिक सिंचाइयाँ मसूर की फसल के लिए लाभकारी नहीं रहती है। खेत में जल निकास का उत्तम प्रबन्ध होना आवश्यक रहता है।
खरपतवार नियंत्रण
मसूर की फसल में खरपतवारों द्वारा अधिक हानि होती है । यदि समय पर खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान नहीं दिया गया तो उपज में 30 से 35 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। अतः मसूर बुआई से 45 - 60 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रहना आवश्यक है। बुवाई के 25 - 30 दिन एक निंदाई-गुड़ाई करने से उपज में वृद्धि होती है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के तुरंत बाद परन्तु अंकुरण से पहले पेन्डीमेथालिन 30 ई.सी. का 1. 5 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से 600 -700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें या फिर फ्लूक्लोरालिन 45 % ई सी 1. 0 किग्रा.सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से 600 -700 लीटर पानी में घोलकर बुआई से पहले खेत में सतही मिट्टी में अच्छी तरह मिलाने के उपरांत मसूर की बोआई करें। इन शाकनाशिओं के प्रयोग से चौड़ी व संकरी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रण में रहते हैं।
फसल पद्धति
मसूर की खेती खरीफ की फसलें (धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, कपास आदि) लेने के बाद की जाती है। मसूर की मिश्रित खेती जैसे सरसों+मसूर, जौ+मसूर का भी प्रचलन है। शरदकालीन गन्ने की दो कतारों के बीच मसूर की दो कतारों (1.2) बोई जाती है। इसमें मसूर को 30 सेमी. की दूरी पर बोया जाता है।
कटाई एवं मड़ाई
मसूर की फसल 110 - 140 दिन में पक जाती है। अतः बोने के समय के अनुसार मसूर की फसल की कटाई प्रायः फरवरी-मार्च में जाती है। जब 70 -80 प्रतिशत फल्लियाँ भूरे रंग की हो जाएं और पौधे पीले पड़ने लगे पक जायें तो फसल की कटाई करना चाहिए। कटाई हँसिये द्वारा सावधानीपूर्वक करना चाहिए जिससे फलियाँ चटकने न पायें। काटने के बाद फसल को एक सप्ताह तक खलिहान में सुखाते हैं। इसके पश्चात् दाॅय चलाकर या थ्रेशर द्वारा दाने अलग कर हवा में साफ कर लिये जाते हैं।
उपज एंव भंडारण
मसूर की उपज बोई गई किस्म, बोने का समय और मिट्टी में नमी की उपलब्धता पर निर्भर करती है। मौसम अनुकूल होने पर तथा उपरोक्त नवीन उत्पादन तकनीक का अनुशरण करने पर मसूर दानों की उपज 20 - 25 क्विंटल तथा भूसे की उपज 30 - 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। भण्डारण करने से पहले दानो को अच्छी तरह सुख लेना चाहिए। दानों में 9 - 11 प्रतिशत नमी रहने तक सुखाने के बाद उचित स्थान पर इनका भण्डारण करना चाहिए।
नोट-कृपया बिना लेखक की अनुमति के लेख को प्रकाशित ना करें। यदि लेख को अन्यंत्र किसी पत्र -पत्रिका में पुनः प्रकाशित करना चाहते है तो लेखक की आज्ञा लें तथा लेखक का नाम भी प्रकाशित करने का कष्ट करें।
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