खरपतवारों को बनाएं स्वास्थ्य और संमृद्धि का आधार
डॉ.गजेंद्र
सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय
एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे
मन्त्र न बने और संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जिसमे कोई
औषधीय गुण न हो। सृष्टि की प्रत्येक वनस्पति में औषधीय
गुण विद्यमान होते है, जो किसी न किसी रोग में, किसी न किसी रूप में और किसी न किसी स्थिति में प्रयुक्त होती है।
बस जरुरत है इन्हें पहचानने की और इनके सरक्षण सवर्धन की।
हमारे देश में जलवायु, मौसम और भूमि के अनुसार
अलग-अलग प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ पाई जाती है। वर्मान में हमारे देश में 500 से अधिक पादप प्रजातियों का औषध रूप में
प्रयोग किया जा रहा है। इनमे से बहुत सी बहुपयोगी
वनस्पतियाँ बिना बोये फसल के साथ स्वमेव उग आती है, उन्हें
हम खरपतवार समझ कर या तो उखाड़ फेंकते है या फिर
शाकनाशी दवाओं का छिडकाव कर नष्ट कर देते है। जनसँख्या
दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान,
जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी
उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है। आज
आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों
और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी परम्परागत घरेलू
चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने
से बचा सकें। यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और
उनके प्रयोग से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि
उन्हें पहचान कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा
सकें। ग्रामीण क्षेत्रों, खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन
वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर
आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर किसान भाई/बेरोजगार युवा मुनाफा अर्जित कर सकते है। फसलों के
साथ उगी इन वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से
नियंत्रण किया जाना चाहिए। शाकनाशियों के माध्यम से
इन्हें नियंत्रित करने में ये उपयोगी वनस्पतियाँ विलुप्त हो सकती है। इन वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने कुछ औषधीय उपयोग बताये है
परन्तु बगैर चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लिए आप किसी भी रोग
निवारण के लिए इनका प्रयोग न करें। भारत के विभिन्न
प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों
का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
1.सोरेलिया
कोरय्लीफ़ोलिया (बकूची), कुल-
इस पौधे को अंग्रेजी में बाबची सीड्स तथा हिंदी में
बकूची, बाबची कहते है जो पड़ती भूमियों, सडक एवं रेल पथ के किनारों पर एक वर्षीय
एवं बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता
है। इसकी पत्तियां गोल हल्की हरी होती है तथा डंठल में दोनों सतहों पर काले रंग की
ग्रंथियां पाई जाती है जिनमे सुगन्धित तैलीय पदार्थ पाया जाता है। पत्तियों के
कक्ष से शीत ऋतु में पीताभ-बैगनी रंग के फूल गुच्छों में (मंजरियों) आते है। ग्रीष्म ऋतु में फली लगती है जिनमें काले रंग के बीज होते है। इसके बीज में सुगंध होती है। बाकुची
मधुर,कड़वी,रुचिकारी, दस्तावर, ह्रदय के लिए लाभदायक होने के साथ साथ रक्तपित्त,
श्वांस, प्रमेश, ज्वर तथा कृमि नाशक मानी जाती है। इसके फल पित्त्वर्धक, चिर्पिरे, कफ,वात,
स्वांस, खांसी तथा त्वचा रोग में लाभदायक माने जाते है। इसकी पत्तियों का अर्क
डायरिया एवं जड़ की दातून दांत-मसूड़ों के लिए लाभदायक होती है। इसके बीजों का काढ़ा
मूत्रवर्धक, कृमिहारी एवं मृदुरेचक होने के साथ साथ ल्यूकोडर्मा, लैप्रोसी तथा
अन्य चर्म रोगों में फायदेमंद पाया गया है। चर्म रोग एवं कुष्ठ की शिकायत होने पर
बीजों को पीसकर प्रलेप लगाने से आराम मिलता है। इसके तेल में जीवाणुनाशक गुण होते
है।
2.पोर्टुलाका ओलेरासिया
(बड़ी लूनिया), कुल-
इसे कॉमन पर्सलेन तथा हिंदी
में कुल्फा, बड़ी लुनिया कहते है जो वर्षा एवं ग्रीष्म ऋतु में बीज एवं टनेस से
उगने वाला बहु वर्षीय खरपतवार है। इसका पौधा मांसल होता है एवं भूमि के सहारे तेजी
से फैलता है। इसकी दूसरी प्रजाति ( पी.क्वाड्रीफ़ोलिया) (छोटा नुनिया) होती है। दोनों ही प्रजातियाँ
फसलों के साथ, बंजर भूमि एवं सड़क किनारे उगती है। इनकी पत्तियों में खट्टापन होता
है। इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों की भाजी खाई जाती है। नोनिया की मांसल
शाखाएं लालाभ बैगनी होती है जिन पर पर्ण
वृंत रहित मांसल पत्तियां निकलती है। इसमें पुष्प वृंत विहीन पीले रंग के फूल
पत्तियों के अक्ष से एकल रूप में निकलते है और टहनी के अग्र भाग पर गुच्छे के रूप
में लगते है। कुलफा का पौधा विटामिन सी से भरपूर एवं आरोग्यकारी माना जाता है।
इसकी पत्तियां पौष्टिक, मूत्र वर्धक एवं दाह नाशक होती है। यकृत विकार, मूत्र
रोग, स्कर्वी रोग एवं फेफड़ों आदि के रोगों में यह बहुत लाभकारी होता है।
जले-कटे भाग एवं त्वचा रोग में इसका प्रलेप लगाने से आराम मिलता है। इसके तने के
अर्क से घमोरियों में लाभ होता है। इसके बीज पौष्टिक,मूत्र वर्धक एवं शांतिप्रदायक
होते है, जो दर्द भरी पेचिस एवं आंवयुक्त अतिसार में बहुत लाभदायक माने जाते है।
3.पुएरारिया टुबेरोस (बिलाई कन्द), कुल फाबेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में जायंट पोटैटो, इंडियन कुंड़जू तथा हिंदी में बिलाईकन्द, सिरल,भुई कोहड़ा, बिदारीकन्द एवं
भू-कुष्मांडा कहते है जो नमीं वाले क्षेत्रों में बहुवर्षीय आरोही (लता) खरपतवार
के रूप में उगता है। यह भूमिगत प्रकंदों से प्रसारित होती है। इसका तना मोटा और पत्तियां पलास की पत्तियों
जैसी तीन पत्तों के समूह में लगती है। इसमें नीले गुलाबी रंग की पुष्पकलियाँ
गुच्छों में लगती है। इसकी फलियाँ अन्डाभ,
चिकनी एवं रोयेंदार होती है जिसमे काले-भूरे रंग के छोटे रोयेंदार बीज होते है। इस लता की
प्रकन्दीय जड़ों में औषधीय गुण पाए जाते है। इसके प्रकन्द बलवर्धक, क्षुदावर्धक,
शांति प्रदायक, विरेचक एवं दस्तावर होते है। यह पित्त, रक्त और वायु को शांत करने
वाली उत्तम औषधि है। इसकी जड़ (प्रकन्द) का प्रतिदिन सेवन करने से शरीर शक्तिशाली
बनता है। इसकी पत्तियों एवं जड़ का प्रयोग टी.बी. रोग के उपचार में प्रयुक्त की
जाती है। गर्भिणी माताओं के लिए इसकी जड़ का चूर्ण बहुत लाभदायक होता है। इसकी सूखी
जड़ों का पाउडर लिवर की समस्याओं एवं कमजोरी
के निदान में इसके पौधे से निकलने वाला दूध (रेजिन) दाद-खाज एवं अन्य चर्म
रोगों में लाभदायक समझा जाता है। इसके कंदों को च्यवनप्राश में एक घटक के रूप में
मिलाया जाता है। इसके पौधों को पशुओं को चारे के
रूप में खिलाया जाता है।
4.सिडा कोरडिफ़ोलिया (बला), कुल-
बला पौधा फोटो साभार गूगल |
इस वनस्पति को कन्ट्री मैलो
तथा हिंदी में बरयार, खरैटी, बाला कहते है जो बंजर एवं पड़ती भूमियों एवं बनों में
बीज से उगने वाला मालवेसी कुल का बहुवर्षीय झाड़ीनुमा खरपतवार है। इसके पुरे पौधे
पर छोटे-छोटे मुलायम रोयें पाए जाते है। इसकी पत्तियां ह्र्दयाकार तथा किनारे
दांतेदार होती है। छोटे पुष्पवृंत युक्त पीले रंग के पुष्प एकल या गुच्छो में लगते
है। इसके बीज चिकने काले रंग के होते है। इसका पूरा पौधा औषधीय गुणों वाला होता
है। पत्तियां श्लेष्मक होती है। खुनी बवासीर एवं बुखार में इसका काढ़ा फायदेमंद
होता है। फोड़ा होने पर इनका प्रलेप बाँधने से आराम मिलता है। इसके पौधे का काढ़ा
गठिया वात, सुजाक एवं ज्वर संबंधी रोगों में लाभकारी होता है। टहनियों को दूध के
साथ पकाकर खाने से बवासीर में लाभ मिलता है। इसकी जड़ शीतल प्रकृति, मूत्र वर्धक,
ह्रदय एवं तंत्रिका बल्य एवं पुनर्नवीकारक होती है। मूत्र विकार एवं तंत्रिका,
रक्त प्रदर, खूनी बवासीर, पित्त विकार, बुखार, नसों में रक्त स्त्राव एवं मुखिय
लकवा होने पर जड़ का पतला गर्म पानी लाभकारी होता है। सिर दर्द के साथ कानों में
शोर एवं गर्दन सख्त होने पर जड़ का अर्क हींग के साथ प्रयोग करने से आराम मिलता है।
जड़ की छाल का चूर्ण दूध एवं चीनी के साथ लेने से बार-बार पेशाब, पुरानी पेचिस,
तंत्रिका विकार एवं महिलाओं में श्वेत प्रदर में लाभकारी होता है। इसका काढ़ा
गर्भवती माताओं में तनाव, बदन दर्द एवं गर्भपात रोकने में कारगर होता है। फोड़ा एवं
खरोंच में जड़ का ताजा अर्क लगाने से घाव शीघ्र भरता है। इसका बीज पौरुष शक्ति
वर्धक होता है।
5.सोलेनम सरात्तेंस (भटकटैया), कुल-
इस पौधे को अंग्रेजी में येलो
बेरी नाईट शेड सोलेनम तथा हिंदी में छोटी भटकटैया, रिगनी, कटेरी कहते है . यह वर्षा एवं शीत ऋतु का एक वर्षीय खरपतवार है
जो बंजर भूमि, सड़क किनारे तथा खरीफ फसलों के खेत में बीज से पनपता है। इसकी अन्य
प्रजाति बड़ी कंटेरी (सोलेनम इनकेनम) के फल छोटे गोल अंडाकार होते है जो बैगन के
समान दिखते है। भटकटैया की पुराणी टहनियों तथा पत्तों के डंठल पर पीले रंग के
मजबूत कांटे पाए जाते है। इसमें बैगन के फूल जैसे बैगनी/नीले रंग के फूल एकल या गुच्छे में निकलते है। फल
गोल, अंडाकार होते है जो कच्ची अवस्था में हरे तथा पकने पर पीले रंग के हो जाते है जिन पर हरी-सफ़ेद
धारियां लम्बवत होती है। कटेरी का
सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है। इसका पौधा मूत्र वर्धक,ज्वर नाशक,
कफ निवारक, दमाहारी, दर्द नाशक तथा कृमि
नाशक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके पौधे का प्रलेप एवं काढ़ा गठिया वात,
जलोदर, सुजाक एवं कंठ सूजन में लाभकारी होता है। जड़ का चूर्ण या काढ़ा दमा, कफ,
बुखार, हिचकी आदि रोगों के लिए उपयुक्त दवा है। ज्वर तथा पेट में पथरी होने पर जड़ों
का काढ़ा पीने से आराम मिलता है। बच्चों में बुखार एवं कफ होने पर फलों का चूर्ण
शहद के साथ देने से फायदा होता है। पुष्प कलियों एवं पुष्प का अर्क कान दर्द,
नकसीर तथा आँखों में पानी आने पर उपयोगी होता है। फलों का काढ़ा गले में सूजन,
ब्रोंकाइटिस, कान दर्द, छाती आदि के दर्द में लाभदायक रहता है। बीजों का चूर्ण
श्वांस रोग,यकृत वृद्धि,हिचकी आदि में लाभदायक माना जाता है। पूरा पौधा सुखाकर
उसकी राख शहद के साथ चाटने से दमा एवं सीने का दर्द में राहत मिलती है।
6.सोलेनम
नाइग्रम (मकोई),
कुल- सोलेनेसी
मकोई फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग |
इसे अंग्रेजी में ब्लैक नाइट
शेड तथा हिंदी में मकोई एवं काकमाची के नाम से जाना जाता है। यह वर्षा ऋतु का एक
वर्षीय खरपतवार है जो सम्पूर्ण भारत में खरीफ फसलों के साथ-साथ बंजर नम भूमियों,
बाग़-बगीचों एवं सड़क किनारे बीज से उगता
है। इसका पौधा तथा टहनियां काफी नाजुक होती है। इसका पुष्पक्रम सीधा तथा
पार्श्वशाखाओं एवं पत्तियों के अक्ष से निकलकर नीचे की ओर छत्रक की भांति लटकता
है। इसके ऊपरी छोर पर छोटे-सफ़ेद फूल गुच्छों में लम्बे पुष्प वृंत पर लगते है।
इसके फल गोल मटर के दानों के आकार के हल्के हरे तथा बाद में गहरे हरे-काले दिखते
है जो पकने पर काले रंग के रसीले हो जाते है। फल स्वाद ने हल्के मीठे होते है। इसका पौधा टॉनिक,
मूत्रवर्धक, कफनाशक,कब्जनाशक एवं दर्द नाशक के रूप में उपयोगी होता है। पीलिया,
बुखार,यकृत विकार, बवासीर, पेचिस, खांसी
आदि में पौधों का काढ़ा लाभकारी
होता है। चर्म रोग, अल्सर एवं सोरिआसिस में नए प्ररोहों का शत लगाना लाभकारी होता
है। मकोई के फल एवं बीज बलवर्धक, क्षुदा वर्धक,मूत्र वर्धक, ज्वर नाशक एवं दस्तावर
होते है। इन्हें खाने से भूख बढती है एवं
प्यास कम लगती है। फलों का अर्क बुखार,अस्थमा,चर्म रोग एवं मूत्र विकारों
में लाभकारी है। कच्चे फलों को मसलकर लगाने से दाद खाज खुजली में आराम मिलता है।
7.ट्राइबुलस
टेरेस्ट्रिस (गोखुरू),
कुल- जाइगोफिलेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में
पंक्चर वाइन, लेण्ड केलट्रॉप्स, संस्कृत में गोक्षुर तथा हिंदी में गोखरू कहते है जो वर्ष पर्यंत
पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है। यह उपजाऊ भूमियों, खेत की मेंड़ो, शुष्क एवं बंजर
भूमियों में सतह पर फैलकर बढ़ने वाला पौधा है। यह एक धूसर रंग का रोयेंदार शाक
है। इसकी शाखाएं लम्बी जिनमे चने के समान
पत्ते निकलते है। पत्तियों के डंठल के विपरीत कोण पर पीले रंग के पुष्प एकल रूप
में लगते है। इसका फल मटर के दाने के
बराबर पंचकोणीय अनेक बीजों से युक्त होते है
जिन पर कठोर पैने कांटे पाए जाते है। इसके कांटेदार फल पशुओं और
इंसानों के पैरों में गड जाते है। गोखरू छोटा और बड़ा दो प्रकार का होता है, परन्तु
गुणों में दोनों एक समान होते है।गोखरू
का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों वाला माना जाता है। यह मधुर, शांतिप्रदायक, बलवर्धक,
वात-पित्त शामक मूत्राशय का शोधन करने वाला, पथरी गलाने वाला, वेदना नाशक, उदर के
समस्त रोगों को दूर करने वाला, प्रमेश, श्वास, खांसी, बवासीर, गर्भाशय को शुद्ध
करने वाला एवं ह्रदय रोग में गुणकारी होता है। पुराने सुजाक, मूत्र रोग,पौरुष
दुर्बलता एवं मूत्राशय में पथरी होने पर इसका चूर्ण या घोल पानी के साथ लेने से
लाभ होता है। पत्तियों के अर्क से घाव व फोड़े धोने से लाभ होता है। इसके फूल एवं
फल शीतल, मूत्रल होते है जिनका अर्क पौरुष कमजोरी, स्वप्न दोष, नपुंसकता तथा
मूत्राशय विकारों में लाभदायक होता है। इसके फलों का प्रलेप ग्रंथिवात, सुजाक तथा
वृक्क विकारों में लाभकारी माना जाता है।
8.ट्राइएन्थिमा
पार्टुलेकेस्ट्रम (बिषखपरा),
कुल- एजोएसी
इसे अंग्रेजी में हॉर्स
पर्सलेन तथा हिंदी में बिषखपरा,
सबुनी के नाम से जाना जाता है जो की वर्षा
ऋतु का एकवर्षीय खरपतवार है। यह खरीफ फसलों
एवं गन्ने के खेतों, सड़क एवं रेल पथ किनारे, लॉन, बाग़-बगीचों एवं बंजर भूमियों में
जमीन के सहारे बढ़ता है। इसकी शाखाएं एवं पत्तियां मांसल होती है। इसकी दो प्रजातिया लाल रंग जिसमे तना एवं
पत्तियों के शिरा एवं पुष्प लाल तथा दूसरी हरी जिसमे तना हरा एवं पुष्प सफेद रंग
के होते है। पुष्प अत्यंत छोटे पत्तियों के अक्ष में समायें रहते है। इसके फल छोटे
होते है जिनमे काले रंग के अनेक बीज पाए जाते है।
इसके पौधों में अगस्त से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता है। इस पौधे के सम्पूर्ण भाग में औषधीय गुण पाए जाते है।
इसका पौधा मूत्र वर्धक एवं सूजनहारी होता है। किडनी एवं लिवर की सूजन, ड्राप्सी,
अस्थमा आदि रोगों में इसकी पत्तियों का काढ़ा उपयोगी होता है। इसकी जड़ों का चूर्ण
अथवा काढ़ा मूत्र रोग, ड्रोपसी, मासिक धर्म नियंत्रित करने एवं टेस्टीज की सूजन कम
करने में कारगर है. इसके पौधे का काढ़ा देने से जहरीली शराब का असर कम हो जाता है।
9.स्फीरैन्थस
इंडिकस (गोरखमुंडी),
कुल-एस्टरेसी
इस वनस्पति को अंग्रेजी में
ईस्ट इंडियन ग्लोब थिसल तथा हिंदी में
मुंडी, गोरख मुंडी और श्रावणी के नाम सी
जाना जाता है। यह एकवर्षीय खरपतवार के रूप में खरीफ फसलों एवं नम भूमियों में उगता
है। इसका पौधा रोयेंदार और गंधयुक्त होता है। इसमें पुष्पन एवं फलन जनवरी से मार्च
तक होता रहता है। इसके सम्पूर्ण पौधे में
औषधीय गुण पाए जाते है। इसका पौधा कटुतिक्त, बलवर्धक,उष्ण,मूत्रजनक, वात एवं रक्त
विकारों में उपयोगी माना जाता है।
10.टिफ्रोसिया
परपुरिया (सरपोंखा),
कुल- फैबेसी
वाइल्ड इन्डिगो यह बहुवर्षीय पौधा है जो जंगल किनारे, सड़क एवं
रेल पथ के किनारे तथा उपजाऊ भूमियों में उगता है। इसमें अगस्त से दिसंबर तक पुष्पन
एवं फलन होता है। इसके पुष्प लाल या बैगनी रंग के होती है जो मंजरियों में निकलते
है। इसकी फली लम्बी चपटी रोमयुक्त होती है जिसमें चोंच जैसी नोक होती है। इसकी
जड़ों एवं फलियों में औषधीय गुण पाए जाते है। यह कफ, वात नाशक, रक्तशोधक एवं मूत्रल
होती है। इसकी जड़ों का काढ़ा डायरिया, अस्थमा एवं मूत्र विकारों के उपचार में
फायदेमंद रहता है। दन्त रोग में इसकी जड़ को कूटकर दांत के नीचे रखने से लाभ होता
है। फलियों का काढ़ा उल्टी रोकने में कारगर है। जड़ों का तजा रस अपेंडिक्स के उपचार
में उपयोगी माना जाता है।
11.ट्रिडेक्स
प्रोकम्बेंस (फुलनी), कुल-
कोट बटन, मेक्सिकन डेज़ी तथा
हिंदी में फुलनी के नाम से जाना जाता है। यह उपजाऊ भूमियों, बंजर भूमियों, नहर
एवं नदीं किनारों, बाग़ बगीचों में वर्षा ऋतु में पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है।
इसके पौधों में वर्ष भर पुष्पन एवं फलन होता रहता है। इसके तने एवं शाखाओं पर
रोयें पाए जाते है। इसमें लम्बे पर्ण वृंत पर गेंदे जैसा परन्तु छोटा पीला पुष्प
लगता है। इसकी पत्तियों में औषधीय गुण पाए जाते है। पत्तियां दस्त एवं डायरिया
उपचार में लाभदायक होती है। पत्तियों के रस का प्रयोग घाव,अल्सर एवं कटने पर किया जाता है। पत्तियां का उपयोग
ब्रोन्कियल कैटर, पेचिश, और दस्त से किया जाता (बवासीर की सूजन कम करने और
खून रोकने के लिये इसकी पत्तियों का अच्छा सा लेप बनाकर लगाया जाता है। पत्ती के
रस में कीटनाशक और परजीवी गुण होते हैं। जलाने से निर्मित धुआं मच्छरों को पीछे
हटाने के लिए उपयोग किया जाता है।
12.वर्नोनिया
सिनेरा (सहदेवी),
कुल-कम्पोजिटी
इस पौधे को अंग्रेजी में ऐश
कलर्ड फ्लीबेन तथा हिंदी में सहदेवी एवं सदोदी कहते है। यह वनस्पति सम्पूर्ण भारत
में शुष्क एवं नम स्थानों में खरपतवार के रूप में पनपती है। सहदेवी के पौधे के
प्रत्येक भाग में औषधीय गुण पाए जाते है। तंत्र विद्या में भी इस पौधे का इस्तेमाल
किया जाता है। यह उष्ण, कटु,कफ वात दोष नाशक,मधुमेह, बुखार, सिर दर्द, दांत दर्द
एवं मसूड़ों की सूजन के उपचार में इसका प्रयोग किया जाता है। पत्ती और तनों की
लुगदी लगाने से घाव एवं सूजन में लाभ होता है. इसकी जड़ एवं पत्तियों का काढ़ा सेवन
करने से रक्त शुद्ध होता है और चर्म रोग में लाभ मिलता है। दस्त रोकने एवं पेट के कीड़ों के उपचार में जड़
का काढ़ा उपयोगी है।
13.विथानिया
सोम्नीफेरा (अश्वगंधा), कुल-
इस पौधे को अंग्रेजी में
इंडियन जिनसेंग एवं विंटर चेरी, संस्कृत में अश्वकंदिका एवं हिंदी में अश्वगंधा के
नाम से जानते है। भारत के सम्पूर्ण गर्म प्रदेशों में यह पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है।
इसके शाकीय झाड़ीनुमा पौधे बाग़-बगीचों, सड़क एवं रेल पथ किनारे बहुतायत में पाया
जाता है। इसके तने एवं शाखायें हल्के हरे एवं सफेद रोमों से ढके रहते है। इसकी जड़
मोटी एवं मूसलादार होती है। इसकी पत्तियां अंडाकार एवं नुकीली होती है। इसके फूल
गोल पीताभ हरे रंग के पत्तियों के अक्ष से गुच्छों में निकलते है। अश्वगंधा का
सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों में परिपूर्ण होता है। इसकी पत्तियों का काढ़ा पेट के
कीड़े निकलने एवं बुखार से कारगर माने जाते है। खाज-खुजली, फोड़ा, कान दर्द, अल्सर
तथा हथेली एवं तलवों की सूजन में पत्तियों का अर्क लाभदायक है. गांठो एवं फेंफडों
की सूजन तथा क्षय के उपचार में हरी पत्तियों का लेप कारगर माना जाता है. इसके फल
एवं बीज मूत्रवर्धक एवं निद्राकारी होते है। अश्वगंधा की जड़ शक्तिवर्धक,
कामोत्तेजक,मदकारी एवं मूत्रल होती है।
वात विकार, जोड़ो की सूजन एवं दर्द, पक्षाघात, अनियमित रक्तचाप, अपच,सामान्य एवं
पौरुष दुर्बलता, खांसी तथा हिचकी आने पर इसकी जड़ का चूर्ण शहद के साथ लेने से लाभ
होता है। सूजन, ग्रंथिवात,अल्सर आदि के उपचार में जड़ के चूर्ण का प्रलेप लाभप्रद
होता है। गर्भिणी एवं प्रसूता महिलाओं में कमजोरी एवं बदन दर्द आदि में जड़ का
चूर्ण शहद के साथ सेवन करना लाभकारी होता है। अश्वगंधा चूर्ण के नियमित सेवन से
मनुष्य में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है।
14.जेन्थियम
स्ट्रोमेरियम (संखाहुली),
कुल- एस्टरेसी
शंखाहुली फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग |
इसे अंग्रेजी में कॉमन कॉकिलबर,
संस्कृत में सर्पक्षी तथा हिंदी में संखाहुली,बनओकरा, छोटा धतूरा, आदासीसी कहते है। वर्षा ऋतु में खेतों की मेंड़ों, बंजर
भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे यह पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है।
इसका तना खुरदुरा, पत्तियां ह्र्द्याकार, रोमिल तथा किनारे पर दांतेदार होती है। इसके
पुष्प नलिकाकार एवं हल्के बैगनी रंग के होते है। इसमें अंडाकार फली सम्पुटकाये बनती है जो हुकनुमा
काँटों से ढकी होती है। फली (एकीन) के ऊपर दो चोंचनुमा कठोर सहपत्रों का आवरण होता
है। इसकी पत्तियों का कटु पौष्टिक टॉनिक मलेरिया बुखार में लाभदायक होता है। महिलाओं
में श्वेत प्रदर एवं अनियमित मासिक स्त्राव होने पर पत्तियों का काढ़ा फायदेमंद
होता है। फोड़े-फुंसी, दर्द भरी सुजन, घाव आदि में पत्ती एवं जड़ का प्रलेप लाभकारी
होता है। गठिया वात एवं बच्चों में
दुर्बलता होने पर जड़ों का काढ़ा लाभकारी है। इसके फल मूत्रवर्धक, पौष्टिक एवं शीतल
प्रकृति के होते है।
नोट : मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी उक्त वनस्पतियों के सरंक्षण एवं जनजागृति एवं किसान एवं ग्रामीण भाइयों के लिए आमदनी के अतिरिक्त साधन बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु हम इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।
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