मेंढ़-नाली पद्धति से अरहर की बुवाई : अधिक उपज
और भरपूर कमाई
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय
एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
भारत की बहुसंख्यक शाकाहारी
आबादी के लिए प्रोटीन के प्रमुख स्त्रोत के रूप में अरहर (तुअर) सबसे लोकप्रिय दाल
है. हमारे भोजन में अरहर दाल के बिना दाल-रोटी या दाल-भात का जायका अधुरा रहता है.
दरअसल,अरहर की दाल में 20-21 % प्रोटीन पाई जाती है जिसका पाच्यमूल्य अन्य प्रोटीन
से बेहतर होता है। इसमें खनिज, कार्बोहाइड्रेट,
लोहा, कैल्शियम आदि पर्याप्त मात्रा में पाया
जाता है। यह सुगमता से पचने वाली दाल है। देश में बढती जनसँख्या की आवश्यकता के अनुरूप दालों का
उत्पादन न होने तथा दालों के दाम अधिक होने के कारण प्रति व्यक्ति इनकी उपलब्धता
घटती जा रही है जिसके कारण बहुसंख्यक आबादी कुपोषण की शिकार होती जा रही है। आम
आदमी की थाली में दालों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए हमें प्रति इकाई दलहन उत्पादन
बढ़ाना होगा।
अरहर की खेती क्यों
खरीफ दलहनों में अरहर सबसे
महत्वपूर्ण फसल है। इसका उपयोग अन्य दलहनी फसलों की तुलना में दाल के रूप में
सर्वाधिक किया जाता है। अरहर की दीर्धकालीन किस्में मृदा में लगभग 200 किग्रा तक
वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता में इजाफा करती
है। यह एक गहरी जड़ वाली फसल होने के कारण वर्षा आश्रित क्षेत्रों में इसकी खेती
लाभकारी सिद्ध हो रही है। इसके अतिरिक्त इसकी हरी फलियां सब्जी के लिये,
खली चूरी पशुओं के लिए रातव, हरी पत्ती चारा
के लिये तथा तना ईंधन, झोपड़ी और टोकरी बनाने के काम लाया
जाता है। इसके पौधों पर लाख के कीट का पालन करके लाख उत्पादन करके अतिरिक्त लाभ
कमाया जा सकता है। सीमित लागत में अधिक लाभ देने वाली फसल है. केंद्र सरकार ने
वर्ष 2018-19 के लिए अरहर का समर्थन मूल्य बढाकर 5675 रूपये प्रति क्विंटल कर दिया
है, अतः इसका बाजार मूल्य आकर्षक हो गया है।
हमारे देश में अरहर की खेती
मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में की जाती है। जलवायु परिवर्तन के कारण में अतिवृष्टि या
अल्प वर्षा जैसी परिस्थितियां निर्मित होने के कारण अरहर का उत्पादन नहीं बढ़ पा रहा
है. बहुधा किसान भाई अरहर की खेती गैर उपजाऊ ऊंची-नीची भूमियों में परम्परागत
पद्धति से करते है जिसके कारण उन्हें
उत्पादन कम मिलता है। अरहर की उन्नत
किस्मों का इस्तेमाल करते हुए यदि किसान भाई मेंढ़-नाली (रिज़ एण्ड फरो) पद्धति से
खेती करते है तो निश्चित उन्हें 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो सकती
है।
भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी
सामान्यतौर पर अरहर की खेती
उचित जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। बलुई-दोमट व दोमट
मिटटी अरहर की खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। जल निकासी की व्यवस्था होने पर मध्यम काली मिट्टियों में भी अरहर की खेती की जा सकती है। ग्रीष्मकाल में मिटटी पलटने
वाले हल से गहरी जुताई कर छोड़ देना चाहिए। इसके बाद बुवाई से पूर्व मिटटी पलटने
वाले हल से जुताई करने के बाद 1-2 जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करने के
उपरान्त पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।
बुवाई का समय
अरहर की उत्तम एवं स्वस्थ फसल
के लिए समय से बुवाई करना आवश्यक है. भारत के मध्य क्षेत्र के राज्यों में अरहर की
बुवाई जुलाई के प्रथम पखवाड़े में संपन्न कर लेना चाहिए. रोपित पद्धति से खेती करने
के लिए पौधशाला (पोलीबैग) में अरहर की
बुवाई 15 मई से 30 मई तक कर लेना चाहिए. पर्याप्त वर्षा होने पर खेत में रोपाई
करना चाहिए।
किस्मों का चयन
बहुफसली उत्पादन पद्धति में
एवं असिंचित भूमि में शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों की बुवाई करना चाहिए. शीघ्र पकने
वाली किस्मों में पूसा-८५५, पूसा अगेती, पन्त अरहर-२९१, जाग्रति (आईसीपीएल-151),
दुर्गा आईसीपीएल-84031), राजीव लोचन आदि,मध्यम समय में पकने वाली किस्मों में आईसीपीएल-87119
(आशा), जवाहर-4,बी एस आर-853,जेकेएम्-189, टीजेटी-501, आईपीए-203 तथा देर से पकने वाली किस्मों में बहार, डीए-11,
छत्तीसगढ़ अरहर-1 के अलावा संकर प्रजातियों
में पी पी एच-4, आईसीपीएच-2671, आईसीपीएच-2047 में से किसी एक किस्म का चुनाव करना चाहिए।
बीज दर एवं बीज उपचार
गड्ढा-नाली पद्धति में अरहर का
केवल 1.5 किग्रा. बीज प्रति एकड़ लगता है. बुवाई से पूर्व चयनित बीज को उपचारित
करने से फफूंदी से उत्पन्न होने वाले मृदाजनित रोगों से सुरक्षा होती है। बीज
उपचार जैवकारक जैसे ट्राईकोडर्मा 5-10 ग्राम/किग्रा + वैटावेक्स 2 ग्रा/किग्रा
अथवा वैविस्टीन/थेरम 2-3 ग्राम/किग्रा बीज से करना चाहिए। बीज उपचार के पश्चात
अधिक उत्पादन के लिए 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर प्रति 10 किग्रा बीज की दर से
उपचारित कर छाया में सुखाने के बाद बुवाई करना चाहिए. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं
उपज के लिए बीज को 1 ग्राम अमोनियम मोलिब्डेट प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित
करें। ध्यान रखे बीजोपचार हमेशा
फफुन्द्नाशक, कीटनाशक एवं राइजोबियम कल्चर के क्रम से करें।
ऐसे लगायें अरहर
अरहर की बुवाई हमेशा मेंड़ों पर
पंक्तियों में करना चाहिए। पंक्तियों उत्तर-दक्षिण दिशा में रखने से पौधों को
सूर्य का प्रकाश अधिकतम मिलता है जिससे उत्पादन अच्छा होता है। मेंढ़ बनाने के लिए
ट्रेक्टर चालित रिज़र का उपयोग किया जा सकता है। मेंढ़ से मेंढ़ की दूरी 3-4 फीट रखना चाहिए. बुवाई खुरपी या डिबलर की सहायता
से की जा सकती है। पौधोए से पौधे के बीच 2 फुट की दूरी रखी जाती है। ध्यान रहे कि
बीज 2-3 सेमी की गहराई पर रहे। इस विधि से 3 श्रमिक एक दिन में एक एकड़ की बुवाई कर
सकते है। इस पद्धति से बुवाई करने पर अतिवृष्टि होने पर भी फसल की लगातार बढ़वार
होती रहती है। वहीँ कम वर्षा होने पर नाली में थोडा-बहुत पानी भरा रहने से पौधों की जड़ों को अधिक दिन तक नमीं मिलती रहती है। इस प्रकार से अतिवृष्टि एवं
कम वर्षा दोनों परिस्थितियों में यह विधि लाभदायक रहती है।
पोलिबेग विधि से भी अरहर उत्पादन
पालीबेग अथवा दौना (पेड़ के पत्तो से बनाये हुए पात्र) में अरहर की
पौध तैयार कर अरहर का बेहतर उत्पादन लिया जा सकता है। पालीबैग में उपचारित बीज की बुवाई 15-20 मई तक कर देना चाहिए तथा मुख्य खेत में रोपाई वर्षा
होने के बाद करना चाहिए। इस विधि में पालीबेग (पोलीथिन) में अरहर के दो-दो दाने डालकर अरहर की पौध तैयार की जाती है। इसके बाद
लगभग 25-30 दिन के पौधों को अच्छी वर्षा
होने के पश्चात खेत में रोपा जाता है। दौना में तैयार पौध को दौना सहित रोपा जाता है। इससे पौधे मरने की आशंका नहीं रहती है। रोपाई के लिए कतार से कतार की दूरी 150 सेमी
(5 फुट) तथा पौध से पौध की दूरी 90 सेमी (3
फुट) रखी जाती है. इस प्रकार से एक हेक्टेयर में 7407 पौधे लगाये जाते है। इस विधि से सिर्फ पांच किलो बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। पौध रोपण के 25-30 दिन बाद शाखाओं की कलियों को तोड़ देने से अधिक
शाखाएं बनती है। इस विधि का प्रयोग करने से अरहर की फसल दिसम्बर माह में तैयार हो
जाती है जिससे रबी फसलों की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
उर्वरक एवं खाद का प्रयोग
उर्वरकों का प्रयोग
मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. हल्की वर्षा के पश्चात 2-3 ट्रोली सड़ी हुई गोबर
की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देना चाहिए। गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट
में पी एस बी कल्चर (4 किग्रा.), राइजोबियम कल्चर (2 किग्रा) एवं ट्रायकोडर्मा विरडी (2
किग्रा।) को अच्छी प्रकार से मिलाकर खेत में डालने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
समस्त उर्वरक खेत की अंतिम जुताई के समय बीज की सतह के नीचे बगल
में देना सर्वोत्तम रहता है। सामान्यतौर पर बुवाई के समय 20-25 किग्रा नाइट्रोजन,
40-50 किग्रा फॉस्फोरस एवं 20-25 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर कतारों में बीज के
नीचे दिया जाना चाहिए। नाइट्रोजन का प्रयोग बुवाई के समय तथा सुपर फोस्फेट एवं
पोटाश का प्रयोग मेंढ़ बनाने से पूर्व करना चाहिए। काली एवं दोमट मृदाओं में 20
किग्रा गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती
है। बलुई मृदाओं में उगाई जाने वाली अरहर की फसल में 3 किग्रा जिंक प्रति
हेक्टेयर की दर से आधार उर्वरक के रूप में प्रयोग करना चाहिए। हल्की सरंचना वाली
मृदाओं में अरहर की फसल में बुवाई के 60,90 एवं 120 दिन बाद 0.5 % फेरस सल्फेट के
घोल का पर्णीय छिडकाव करने से लाभ होता है।
आवश्यक है जल प्रबंध
मानसून के शीघ्र बिदा हो जाने
के स्थिति में अरहर की फसल में सिंचाई की
आवश्यकता पड़ती है। फसल में शाखाएं बनते समय (बुवाई से 30 दिन बाद), पुष्पावस्था
(बुवाई से 70 दिन बाद) एवं फली बनते समय (बुवाई से 110 दिन बाद) आवश्यकतानुसार
सिंचाई करना चाहिए. फसल में फलियाँ बनते समय एक नाली छोड़कर एक नाली (एकांतर विधि)
में सिंचाई करना चाहिए। अधिक वर्षा होने की स्थिति में खेत से जलनिकासी का प्रबंध
करना भी आवश्यक होता है। मेंड़ों पर बुवाई करने से अधिक जलभराव की स्थिति में भी
अरहर की जड़ों के लिए पर्याप्त वायु संचार होता रहता है।
समय पर खरपतवार नियंत्रण
अरहर की दो कतारों के बीच अधिक
फासला होने के कारण खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। बुवाई से प्रथम 60 दिन में खेत
में खरपतवार की मौजूदगी अधिक नुकसानदायक होती है। बुवाई के 20-25 दिन में प्रथम तथा बुवाई के 45-50 दिन बाद फूल
आने के पूर्व दूसरी निकाई गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ मिटटी में
वायु संचार होता रहता है। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु खेत की अंतिम जुताई
के समय फ्लूक्लोरालिन 50 % (बासालिन) की 1 किग्रा सक्रिय तत्व मात्रा को 800-1000
लीटर पानी में घोकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकना चाहिए अथवा एलाक्लोर (लासो) 50
% ई सी 2-2.5 किग्रा (सक्रिय तत्व) मात्रा को बीज अंकुरण से पूर्व छिडकने से
खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। सभी प्रकार के खरपतवार नियंत्रण हेतु
इमेजाथायपर 10 % 750 मिली प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें। शाकनाशी का प्रयोग करते समय खेत
में उचित नमीं होना आवश्यक है।
पौधों की खुटाई (प्रूनिंग)
चने की भाति अरहर के पौधों की
खुटाई करने से पौधों में पर्याप्त संख्या में शाखाएं निकलती है जिससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
जब पौधों की ऊंचाई 40-45 सेमी की हो जाये उस समय प्रत्येक शाखा की अग्र्कलिका
(शाखा का ऊपरी भाग) की हाथ से तुड़ाई करें। शाखाओं की तुड़ाई नीचे की शाखाओं से ऊपर
की शाखाओं की ओर से करने पर शाखा से निकलने वाला हानिकारक रस हाँथ में नहीं लगता
है। शाखाओं से निकलने वाले रस (द्रव) से हाथों में फुंसियाँ होने की संभावना रहती
है।
कीड़ों से फसल की सुरक्षा
लम्बी अवधि की दलहनी फसल होने के कारण अरहर में कीड़ों का प्रकोप अधिक होता है। गुणवत्ता युक्त अधिक उपज प्राप्त करने के लिए फसल की कीड़ों से सुरक्षा आवश्यक है। अरहर की फसल में शुरुवाती समय
में पत्ती मोड़क, रस चूसक एवं पत्ती सुरंगक कीड़ों का प्रकोप हो सकता है। इनके
नियंत्रण हेतु क्लोरोपायरीफ़ॉस अथवा क्विनालफ़ॉस 1200 मि.ली. प्रति हेक्टेयर अथवा प्रोफेनोफ़ॉस 750
मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए। फूल की अवस्था में चने की इल्ली और तम्बाकू
की इल्ली का प्रकोप हो सकता है। इनके नियंत्रण के लिए प्रोफेनोफ़ॉस +सायपरमेथ्रिन 1000 मि.ली. प्रति हेक्टेयर अथवा क्लोरोपायरीफ़ॉस +
सायपरमेथ्रिन 750 मि.ली. प्रति हेक्टेयर का छिडकाव करें। फसल की फल्ली अवस्था में लगने वाले
कीटों (फली बेधक आदि) के नियंत्रण के लिए ईमामेक्टिन 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर अथवा
फ्लूमेंडामाइड 75 मि.ली. प्रति हेक्टेयर का प्रयोग प्रभावशाली पाया गया है।
अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त लाभ
अंतरवर्ती फसल पद्धति अपनाने
से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसाल से अतिरिक्त उपज प्राप्त हो
जाती है. अंतरवर्ती फसल के रूप अरहर के साथ मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों के
अनुपात में (कतारों के मध्य 30 सेमी की दूरी पर) लगाएं अथवा
मूंग या उड़द 1:2 कतारों के अनुपात में (कतारों के मध्य 30 सेमी की दूरी) पर लगाई
जा सकती है। अरहर की दो पंक्तियों के बीच सोयाबीन की दो पंक्तियों की बुवाई कर
अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है। इसके लिए मेंढ़ के दोनों ओर सोयाबीन की बुवाई करने
से प्रति एकड़ 4-5 क्विंटल सोयाबीन का उत्पादन प्राप्त हो जाता है। अरहर की उन्नत
किस्म जेकेएम्-189 और टीजेटी-501 के साथ सोयाबीन/मूंगफली/मूंग अंतरवर्तीय
फसल के रूप में उपयुक्त पाई गई है।
उत्पादन एवं लाभ का आकर्षक गणित
उत्तम फसल प्रबंधन अपनाते हुए मेंढ़ नाली पद्धति से 25-30 क्विंटल तथा
रोपित फसल से 30-32 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक अरहर का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। अंतरवर्ती फसल
सोयाबीन से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक
उपज मिल सकती है। अरहर की खेती पर सामान्यतौर पर लगभग 25-30 हजार
रुपये प्रति हेक्टेयर का खर्च आता है। अंतरवर्ती फसल सोयाबीन के उत्पादन में लगभग 12-14 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है।मेंढ़-नाली पद्धति में 25 एवं रोपाई विधि में 30 क्विंटल पैदावार मिलती है तो उसे 5675 रुपये प्रति क्विंटल की दर (समर्थन मूल्य) पर बेचने से हमें क्रमशः 141875 तथा 170250 रूपये की आमदनी प्राप्त हो सकती है जिसमें से उत्पादन लागत 30 हजार रूपये घटा दी जाये तो क्रमशः 111875 व 140250 रुपये का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है। इसके अलावा सोयाबीन की अंतरवर्ती फसल लेने से प्राप्त उपज 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर को समर्थन मूल्य 3399 रूपये प्रति क्विंटल की दर से बेचने पर 33990 रूपये प्राप्त हो सकते है जिसमें से उत्पादन लागत 14 हजार रूपये घटाने से 19990 रुपये प्रति हेक्टेयर का लाभ हो सकता है। इस प्रकार से उपरोक्त अनुसार मेंढ़-नाली पद्धति से अरहर की खेती करने से किसान भाई एक हेक्टेयर से 1.11 लाख से लेकर 1.31 लाख का शुद्ध मुनाफा अर्जित कर सकते है। इसके अलावा पशुओं के लिए पौष्टिक भूषा एवं जलाऊ लकड़ी भी उपलब्ध हो जाती है।
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