अब छत्तीसगढ़ के
खेतों में लहलहाएगी सफ़ेद सोने की फसल
डॉ.
गजेन्द्र सिंह तोमर
इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज
मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर
विश्व में निरंतर बढती खपत एवं विविध उपयोग
के कारण कपास की फसल को सफ़ेद सोने के नाम से जाना
जाता है। प्राकृतिक रेशा प्रदान करने वाली कपास भारत की सबसे महत्वपूर्ण रेशेवाली नगदी
फसल है जिसका देश की औद्योगिक व कृषि अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान है। कपास की खेती से वस्त्र उद्धोग
को बुनियादी कच्चा माल प्राप्त होता है साथ ही इसके बिनौलों की खली और तेल का भी
व्यापक स्तर पर उपयोग किया जाता है। कपास के बिनौलों की खली पशुओं के लिए पौष्टिक आहार है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा कपास उत्पादक और
दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है। भारत में लगभग
6
मिलियन किसानों की आजीविका कपास की खेती से चल रही और 40 से 50 लाख लोग इसके व्यापार और प्रसंस्करण के क्षेत्र में संलग्न है। विश्व के कुल कपास क्षेत्रफल और उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी क्रमशः
25 एवं 18 प्रतिशत के आस पास है। कपास फसल
को विश्व मानचित्र में सम्मानजनक स्थान दिलाने में देश के किसानों, कृषि
वैज्ञानिकों के साथ साथ भारत सरकार द्वारा संचालित कपास प्रोद्योगिकी मिशन का
महत्वपूर्ण योगदान है। देश के प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों में महाराष्ट्र,गुजरात,
आन्ध्र प्रदेश,मध्य प्रदेश, हरियाणा,पंजाब, राजस्थान एवं तमिलनाडु का उल्लेखनीय स्थान है। इनके अलावा ओडिशा,
त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी कपास की खेती प्रचलित है। वर्तमान
में देश में कपास की औसत उपज 278 किग्रा.प्रति हेक्टेयर है जो विश्व औसत 770 किलो
प्रति हेक्टेयर की तुलना में काफी कम है। कपास की औसत उपज एवं उत्पादन बढाने के लिए इसकी खेती में
आवश्यक उपादान किसानों को समय पर उपलब्ध कराने हेतु सरकारी सहायता और उन्नत तकनिकी
से खेती करने उन्हें शिक्षित प्रिशिक्षित करने की दरकार है.
राजनंदगांव में बंगाल नागपुर
कॉटन मिल के नाम से 1892 में सूत मिल की
स्थापना होने के फलस्वरूप राजनंदगांव, दुर्ग,बेमेतरा,कबीरधाम आदि जिलों में कपास
की खेती बड़े पैमाने में की जाती थी परन्तु मजदूर आन्दोलन और घाटे के कारण वर्ष
2002 में इस मिल को पुर्णतः बंद कर दिया गया। इस मिल में 5 हजार से अधिक लोगो को
प्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला करता था और हजारों किसान कपास की खेती से अपना
गुजारा किया करते थे। इस एतिहासिक मिल को पुनः प्रारंभ करने की आवश्यकता है जिससे
राज्य के नौजवानों और किसानों को रोजगार और आय के नए अवसर मुहैया हो सकते है।
छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे नागपुर
में कपास का बेहतर बाजार होने के साथ साथ दुर्ग-अहिवारा में कपास की बढती मांग के कारण दुर्ग, बेमेतरा, राजनादगांव के किसानों में
कपास की खेती के प्रति पुनः नई आश जगी है। इन क्षेत्रों के कुछ किसान सोयाबीन और
धान की जगह कपास की खेती में अधिक रूचि
दिखा रहे है। राज्य के बेमेतरा जिले में वर्ष 2016 में 50 हेक्टेयर में कपास की खेती प्रारंभ की गई जो बढ़कर वर्तमान में 300 हेक्टेयर में की जा रही है. राज्य के
कांकेर जिले में भी कपास की खेती का श्रीगणेश हो गया है। दरअसल कपास की खेती
में पानी की खपत धान की अपेक्षा 3-4 गुना कम होती है। कपास की खेती में श्रम और
लागत कम लगने के साथ साथ बेहतर बाजार भाव
प्राप्त होता है।
छत्तीसगढ़ राज्य में कपास
उत्पादन की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए केंद्र और प्रदेश सरकार को चाहिए की वह राजनंदगांव
की बंगाल नागपुर कॉटन (बी.एन.सी) मिल पुनः प्रारंभ
करने के साथ साथ राज्य के अन्य स्थानों में सूत कारखानों (कॉटन मिल्स) की स्थापना
करने कारगर कदम उठाये जिससे राज्य के बेरोजगार नौजवानों को रोजगार तथा किसानों को
कपास की खेती से भरपूर लाभ प्राप्त हो सकें । आधुनिक फसल उत्पादन तकनीक एवं फसल
सुरक्षा के कारगर उपाय अपनाकर कपास की
बेहतर उपज और लाभ अर्जित किया जा सकता है ।
जलवायु की आवश्यकता
कपास
बीज के उत्तम अंकुरण हेतु न्यूनतम 15 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान तथा फसल बढ़वार के समय 21 से
27 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। वैसे कपास की फसल 43 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान सहन कर सकती है
परन्तु 21 डिग्री सेन्टीग्रेट से कम तापमान फसल वृद्धि के लिए हानिकारक होता है।
उपयुक्त पुष्पन एवं फलन हेतु दिन में 27
से 32 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान तथा रात्रि
में ठंडक का होना आवश्यक है। गूलरों के विकास हेतु पाला रहित ठंडी रातें एवं चमकीली धूप आवश्यक
है। छत्तीसगढ़ की जलवायु कपास की सफल खेती के लिए आदर्श है।
भूमि का चुनाव
कपास की खेती के लिए बलुई, क्षारीय,कंकड़युक्त व जलभराव वाली भूमियां अनुपयुक्त
हैं। उचित जल निकास एंड पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट, काली मिटटी के
अलावा काली-पीली मिश्रित मिट्टियों में
कपास की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। छत्तीसगढ़ की डोरसा और कन्हार मिट्टियों में कपास की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। कपास की फसल जलभराव के प्रति अत्यंत संवेदनशील
है।
उन्नत प्रजातियाँ
कपास की उत्तम गुणवत्ता वाली अधिक उपज लेने के लिए किसान भाइयों को कपास की उन्नत/संकर प्रजातियों के बीज की बुवाई करना चाहिए। भारत में बी टी कॉटन के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार तेजी से हो रहा है। छत्तीसगढ़ की मिटटी एवं जलवायु में संकर एवं बी टी कॉटन की खेती आसानी से की जा सकती है। प्रदेश की भूमि एवं जलवायु के लिए सारणी में बताई गई उन्नत/संकर/बी टी कॉटन की प्रजातियों के बीज का इस्तेमाल कर सकते है।
प्रजाति/किस्म
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अवधि (दिन)
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उपज (क्विंटल/हे.)
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अन्य विशेषताएं
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जवाहर ताप्ती (उन्नत किस्म)
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145-150
|
18-20
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रस चुसक कीट प्रतिरोधी
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जे.के.-5 (उन्नत किस्म)
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150-160
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15-18
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मजबूत रेशा, उत्तम गुणवत्ता
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जे.के.एच.-3 (संकर)
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130-135
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20-22
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उत्तम गुणवत्ता
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एच-8 (संकर)
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130-135
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25-30
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उत्तम गुणवत्ता
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डब्लूएचएच-09 (बीटी)
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135-140
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30-35
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बारीक़ रेशा
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आर.सी.एच.-2 (बी.टी.)
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130-135
|
30-35
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सिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त
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बन्नी बी टी
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130-135
|
30-35
|
बारीक़ रेशा
|
कपास की उपरोक्त
प्रजातियों/किस्मों के अलावा निजी संस्थानों की अनेक किस्में/प्रजातियां खेती के
लिए इस्तेमाल की जा रही है जैसे महिको कंपनी की एमआरसी-6025 (बोलगार्ड), एमआरसी 7341, एमआरसी
7377 (बीटी-2) आदि, कोहिनूर कंपनी की केएससीएच-207, 2012, कृषि
धन कंपनी की केडीसीएचएच-9810, केडीसीएचएच-9810, केडीसीएचएच-507, केडीसीएचएच-541 आदि, गंगा-कावेरी कंपनी की जीके-239,
228, अजीत कंपनी की अजीत-115 तथा सुपर सीड कंपनी की सुपर-5, 544, 931, 965, 971 आदि के बीजों की बुआई कर सकते
है।
खेत की तैयारी
कपास की बुवाई से पूर्व खेत में हल्की सिंचाई (पलेवा)की आवश्यकता होती
है। मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई (20-25 सेमी.) करनी
चाहिए। कल्टीवेटर या देशी हल से तीन-चार जुताइयां करके पाटा फेर कर खेत समतल कर
लेना चाहिए। उत्तम अंकुरण के लिए भूमि का भुरभुरा होना आवश्यक हैं।
बुवाई का उपयुक्त समय
कपास की अधिकतम उपज और बेहतर गुणवत्ता के लिए समय पर बुवाई संपन्न करना आवश्यक है। कपास की बुवाई का समय अलग-अलग
क्षेत्रों में भिन्न होता है। उत्तर एवं मध्य भारत के सिंचित क्षेत्रों में कपास की अगेती बुआई गेंहू फसल की कटाई
उपरान्त (अप्रैल-मई) की जाती है। छत्तीसगढ़ की सिंचित परिस्थितयों में देशी कपास की बुआई अप्रैल के प्रथम व दूसरे पखवाड़े एवं अमेरिकन/बीटी कपास की बुआई मध्य अप्रैल से मई के प्रथम सप्ताह तक संपन्न कर
लेना चाहिए। असिंचित अवस्था में कपास की बुवाई मानसून आगमन के पश्चात जून-जुलाई में
संपन्न करना चाहिए।
बुवाई हेतु बीज की मात्रा
बेहतर उपज के लिए उन्नत किस्म/संकर अथवा बी.टी. कपास के बीज विश्वशनीय प्रतिष्ठान से लेकर बुवाई हेतु इस्तेमाल करना चाहिए। सामान्यतः उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन)
तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिए उपयुक्त होता हैं।
बुवाई की विधि
उन्नत किस्मों की बुवाई कतार
विधि से (कतार से कतार 45-60 एवं पौध से पौध 45-60 से.मी. पर) से करना चाहिए. संकर
एवं बीटी जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमशः 90
से 120 से.मी. एवं 60 से 90 से.मी. रखी जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों में संकर कपास की बुवाई संस्तुत
दूरी पर डिबलिंग विधि द्वारा करना चाहिए । इससे बीज निर्धारित दूरी पर बोये जा
सकते है, उचित पौध संख्या स्थापित होती है और बीज की मात्रा भी कम लगती है। कपास की बुवाई मेंड़-नाली पद्धति से करने से विकास एवं फसल उत्पादन ज्यादा होता है। कपास
की बुवाई पूरब से पश्चिम दिशा में करने से सभी पौधों को सूर्य का प्रकाश पर्याप्त
मात्रा में लाबी अवधि तक प्राप्त होता रहता है जिससे पौध विकास अच्छा होता है तथा उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी होती है।
खाद एवं उर्वरक
कपास एक लम्बी अवधि की फसल होने के कारण पौध बढ़वार एवं भरपूर उत्पादन के लिए इसे संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। खाद एवं उर्वरकों की मात्रा
का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर करना लाभकारी होता है । मृदा परीक्षण के अभाव
में गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट 7 से 10 टन/हे. खेत की अंतिम जुताई के समय देना चाहिए।
खाद के अलावा नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश धारी उर्वरकों का प्रयोग अग्र सारणी में
बताये अनुसार करना चाहिए.
प्रजाति/किस्म
|
पोषक तत्व(किग्रा/हेक्टेयर )
|
उर्वरक की मात्रा
(किग्रा/हेक्टेयर )
|
||||
नत्रजन
|
फॉस्फोरस
|
पोटाश
|
यूरिया
|
सिंगल सुपर फोस्फेट
|
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश
|
|
देशी कपास
|
80
|
40
|
25
|
174
|
250
|
42
|
उन्नत/संकर/
बी टी कपास
|
150
|
80
|
40
|
325
|
500
|
66
|
जिंक की कमीं वाली मृदाओं में बुवाई के समय जिंक सल्फेट 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नत्रजन आधी
मात्रा बुआई के समय एवं बाकी को दो भाग
में बांटकर डोंडी (गूलर) बनते समय तथा फूल आते समय बराबर मात्रा में देना चाहिए। फास्फोरस
एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय कतार में देना चाहिए। इस बात का
ध्यान रखें कि नत्रजन पौधे के बगल (पौधे के तने से चार 10-12 सेमी दूर) देना
चाहिए। यदि फूलों व गूलरों का झरण अधिक हो व लगातार आसमान में बदली छाई रहने के
कारण धूप पौधों को न मिले तो 2 प्रतिशत डी.ए.पी. घोल का
छिड़काव करना लाभप्रद है।
सिंचाई व जल निकास
कपास की उपज पर सिंचाई एवं
जल निकास का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। मौसम एवं जलवायु के अनुसार कपास की फसल
को 700-1200 मिमी जल की आवश्यकता होती है। प्रारंभिक अवस्था में फसल को कम जल की
आवश्यकता होती है तथा पुष्पन एवं फलन अवस्था में जल मांग अधिक होती है। पहली
सिंचाई बुवाई के 30-35
दिन बाद करनी चाहिए। यदि वर्षा न हो तो 2-3 सप्ताह
के अंतर से सिंचाई की आवश्यकता होती है। फसल में फूल व गूलर बनते समय पानी की कमीं होने
से फल-फूल झड़ने लगते है। अतः फूल और गूलर विकास के समय फसल में सिचाई करना नितांत
आवश्यक है। गूलरों के खुलते ही अंतिम सिंचाई करें. इसके बाद सिंचाई नहीं करना है। सिंचाई
करते समय सावधानी रखनी चाहिए कि पानी हल्का लगाया जावे और पौधों के पास न रूके।
फसल में निराई-गुड़ाई करते समय खड़ी फसल की कतारों में डोलियाँ बना लेना चाहिए। डोलियों
में सिंचाई देने से क्यारियों में पानी खुला छोड़ने की तुलना में 25-30 प्रतिशत पानी की बचत होती है। एकान्तर (कतार छोड़ ) पद्धति अपना कर सिंचाई जल
की बचत करे। कपास की अधिक एवं गुणवत्ता वाली उपज लेने के लिए बूँद-बूँद सिंचाई
(ड्रिप) पद्धति लाभकारी होती है। इससे 70 % सिंचाई जल की बचत होती है। टपक सिंचाई के माध्यम से पौधों को आवश्यक घुलनशील उर्वरक एवं कीटनाशकों की आपूर्ति भी की जा सकती है। इस
विधि से फसल वृद्धि एवं उत्पादन अच्छा होता है।
फसल बढ़वार के समय वर्षा ऋतु
में खेत में उचित जल निकासी की व्यवस्था करें। खेत में जल भराव से वायु संचार रूक
जाता है और पौधे पीले पड़कर मर जाते है। अतः खेत में जल निकास हेतु एक मुख्य नाली
का भी होना आवश्यक है।
देशी एवं उन्नत किस्मों में पौधों की छटाई (प्रूनिंग)
अत्यधिक व असामयिक वर्षा के
कारण सामान्यतः कपास की उन्नत किस्मों के पौधों की ऊंचाई 1.5 मीटर से अधिक हो जाती है,
जिससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः 1.5 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली मुख्य तने की ऊपर वाली सभी शाखाओं की छटाई
सिकेटियर (कैंची) से कर देनी चाहिए। इस छटाई से कीटनाशक रसायनों के छिड़काव में
आसानी होती है । संकर एवं बी टी कपास में छटाई की आवश्यकता नहीं होती है।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
कपास की अच्छी उपज लेने हेतु
पूरी तरह खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक है। इसके लिए दो-तीन बार फसल बढ़वार के समय
गुड़ाई ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर या बैल चालित त्रिफाली कल्टीवेटर या कोल्पा चलाकर
करनी चाहिए। पहली निराई-गुड़ाई फसल अंकुरण के 15-20 दिन के अन्दर करना चाहिए । इसके
बाद 30-35 दिन बाद निराई-गुड़ाई करें । निराई गुड़ाई से खरपतवार नियंत्रित होने के
अलावा मिटटी में वायु संचार अच्छा होता है और नमीं सरंक्षण में सहायता मिलती है। कपास फसल को बुवाई से लेकर 70 दिन खरपतवार मुक्त
रखना आवश्यक है अन्यथा खरपतवार खेत से नमीं, पोषक तत्व, प्रकाश एवं स्थान के लिए
फसल के साथ प्रतिस्पर्धा कर उत्पादन कम कर देते है। अनियंत्रित खरपतवार वृद्धि से
कपास की उपज में 50 से 85 प्रतिशत की कमीं संभावित है। फसल बुवाई पूर्व या बुवाई
के 2-3
दिन के अन्दर पेंडीमेथलीन या फ्ल्यूक्लोरालिन 1 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने के साथ साथ
कतारों के मध्य हैरो चलाने से खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते है। फसल अंकुरण के
10 दिन बाद खेत से घने पौधो का विरलन कर इष्टतम पौध संख्या स्थापित कर लेना चाहिए।
पौधों के समुचित विकास एवं अधिकतम उपज के लिए एक स्थान पर एक स्वस्थ पौधा स्थापित
कर लेवे तथा कमजोर पौधों को उखाड़ देना चाहिए।
अधिक उपज लिए हार्मोन्स का छिडकाव
कपास की खड़ी फसल में
नेप्थलीन एसिटिक एसिड (एन.ए.ए.) का दो बार छिडकाव करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती
है। पहला छिडकाव 125 सी सी प्रति हेक्टेयर की दर से फूल आते समय एवं दूसरा छिडकाव
70 सी.सी. के हिसाब से प्रथम छिडकाव के 20 दिन बाद करना चाहिए. इससे फूलों का सदना
एवं गूलरों का झड़ना रुकता है और गूलर अधिक मात्रा में बनते है। यदि कपास की उन्नत
किस्मों में बढ़वार अधिक होने के संभावना होने पर 32 मि.ली. सायकोसिल (50%) को
600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति
हेक्टेयर की दर से गूलर बनते समय छिडकाव करना चाहिए। कीटनाशकों के साथ भी इसे
मिलाकर छिडकाव किया जा सकता है।
अतिरिक्त लाभ के लिए सहफसली
खेती
कपास एक लम्बी अवधि वाली फसल
है और प्रारंभिक अवस्था में इसके पौधों में बढ़वार धीमी गति से होती है। इसके अलावा कपास की पंक्तियों के मध्य खाली स्थान भी अधिक होता है।
अतः कपास की फसल के साथ सह फसली खेती करके अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है। कपास की दो पंक्तियों
के मध्य मूंग, उड़द, मूंगफली, सोयाबीन आदि फसलों की बुवाई कर अतिरिक्त मुनाफा
अर्जित किया जा सकता है। सहफसली खेती से कपास में खरपतवार, कीट रोग का प्रकोप भी
कम होता है। कपास के साथ दलहनी फसलों की सह फसली खेती भूमि की उर्वरा शक्ति में
इजाफा करने और नमीं सरंक्षण में सहायक होती है।
कीट-रोग से फसल
सुरक्षा
विश्वशनीय प्रतिष्ठान से
उन्नत प्रजाति के उपचारित बीजों को ही बुवाई हेतु इस्तेमाल करें। कपास फसल में कीट
रोगों का प्रकोप अधिक होता है। बी.टी. कपास में कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कपास
फसल में लगने वाले कीड़ों की रोकथाम के उपाय निम्नानुसार करन चाहिए।
हरा फुदका (जैसिड) व सफेद मक्खी:
अमेरिकन कपास में इन कीटों का प्रकोप अधिक
होता है। इन रस चूषक कीटों का नियंत्रण आर्थिक क्षति स्तर ज्ञात करने के बाद ही
करना चाहिए। नेपसेक स्प्रेयर हेतु 300 लीटर व शक्ति
चालित मशीनों हेतु 125 ली घोल प्रति हेक्टेर पर्याप्त है।
हरा मच्छर (जैसिड) एवं सफेद मक्खी: इन कीटों के नियंत्रण हेतु 750 मि.ली. 25 ईसी.(मिथाइल आक्सीडिमेटान) या 750 मि.ली. 25 ई.सी. फारमोथियान या 625 मि.ली. डाइमेथिएट 30 ई.सी. आवश्यक पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टर छिडकाव करे।
हरा मच्छर (जैसिड) एवं सफेद मक्खी: इन कीटों के नियंत्रण हेतु 750 मि.ली. 25 ईसी.(मिथाइल आक्सीडिमेटान) या 750 मि.ली. 25 ई.सी. फारमोथियान या 625 मि.ली. डाइमेथिएट 30 ई.सी. आवश्यक पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टर छिडकाव करे।
गूलर वेधक: कपास
में गूलर वेधक कीटों द्वारा व्यापक क्षति होती
है। इनके प्रकोप से 80
प्रतिशत तक फसल का नुकसान होता है। आर्थिक क्षति स्तर ज्ञात करने के
बाद ही छिड़काव उपयोगी है। यदि 5 प्रतिशत से अधिक क्षति हो
तो कीटनाशकों का तुरन्त छिड़काव किया जाये। क्यूनालफास 25% ईसी
2.00 लीटर या क्लोरपाइरीफास 20% ईसी 2.50
लीटर या साइपरमेथरिन 10 % ईसी 500
मि.ली. या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 200 मि.ली. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।
ध्यान रखें कि रस चूषक कीटों
के नियंत्रण हेतु संस्तुत रसायनों का प्रयोग गूलर वेधक कीटों के नियंत्रण में न
करें।गूलर बेधक कीटों के प्रभावशाली नियंत्रण हेतु 10 दिन के
अन्तर पर संस्तुत कीटनाशक रसायन का प्रयोग करें। देशी कपास में दो छिड़काव फूल व
गूलर वाली अवस्थाओं में करना उपयोगी हैं। एक ही कीटनाशक रसायन का छिड़काव पुनः न
दोहराया जावे। छिड़काव के 24 घण्टे के अन्दर वर्षा हो जावे तो
छिड़काव दुबारा करना चाहिए।
कपास की चुनाई
बाजार में अच्छे दाम प्राप्त
करने के लिए साफ़ एवं सूखा कपास चुनना चाहिए। देशी/उन्नत जातियों की चुनाई प्रायः
नवम्बर से जनवरी-फरवरी तक,
संकर जातियों की अक्टूबर-नवम्बर से दिसम्बर-जनवरी तक तथा बी.टी.
किस्मों की चुनाई अक्टूबर से दिसम्बर तक की जाती है। कीट ग्रसित कपास की चुनाई अलग–अलग करनी चाहिए। अमेरिकन एवं बी टी कपास की चुनाई 15-20 दिन व
देशी कपास की 8-10 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार करनी
चाहिए। इस बात का ध्यान देना आवश्यक है कि ओस समाप्त होने के पश्चात् ही कपास की चुनाई की जाये। अविकसित अथवा अधखिले
गूलरों की चुनाई अलग से करें। पूर्ण खिले हुए स्वस्थ गूलरों की चुनाई पहले करना चाहिए ।
उपज, मुनाफा एवं भण्डारण
आधुनिक सस्य तकनीकि अपनाने एवं भरपूर सिंचाई की सुविधा होने पर उन्नत किस्मों से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, संकर किस्मों से 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथी बी.टी. कपास से 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक औसत उपज प्राप्त होती है। सामान्यतौरकपास की खेती में 25-30 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है। यदि कपास की उपज 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है तो बाजार में 50 रूपये प्रति किग्रा. की दर से इसे बेचने से 70 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध मुनाफा हो सकता है।
उत्तम किस्म के कपास का भण्डारण अर्ध खिली हुई व कीटों से प्रभावित कपास से अलग करना चाहिए । चुनाई के साथ सूखी पत्तियां, डन्ठल, धुल-मिटटी नहीं आने देना चाहिए। इससे कपास की गुणवत्ता घटती है और बाजार में कीमत नहीं मिलती है । भण्डारण से पूर्व कपास को भलीभांति सुखा लेना चाहिए। उपज को सूखे भण्डार गृह में रखना चाहिए ।
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उत्तम किस्म के कपास का भण्डारण अर्ध खिली हुई व कीटों से प्रभावित कपास से अलग करना चाहिए । चुनाई के साथ सूखी पत्तियां, डन्ठल, धुल-मिटटी नहीं आने देना चाहिए। इससे कपास की गुणवत्ता घटती है और बाजार में कीमत नहीं मिलती है । भण्डारण से पूर्व कपास को भलीभांति सुखा लेना चाहिए। उपज को सूखे भण्डार गृह में रखना चाहिए ।
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