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बुधवार, 18 सितंबर 2013

रबी की प्रमुख तिलहन-सरसों एवं राई की खेती से भरपूर मुनाफा

                                                       सरसों एवं राई-एक बहुपयोगी फसल

 

डॉ. जी.एस. तोमर, प्राध्यापक 

सस्य विज्ञान विभाग, कृषि महाविद्यालय, रायपुर

             शीत ऋतू की तिलहनी फसलों मे राई - सरसों का एक प्रमुख स्थान है।  सरसों के हरे पौधे से लेकर सूखे तने, शाखायें और बीज आदि सभी भाग उपयोग में आते है। सरसों की कोमल पत्तियाँ तथा कोमल शाखायें सब्जी के रूप में (सरसों का साग) प्रयोग की जाती है।सरसों  का साग और  मक्के दी  रोटी उत्तर भारत में चाव से खाई जाती है । सरसों राई के बीज में 37 - 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है। राई - सरसों के तेल में पाये जाने वाले असंतृप्त वसा अम्ल  लिनोलिक एवं लिनालेनिक अम्ल अत्यावश्यक वसा अम्ल है।  राई - सरसों का तेल खाने, सब्जी पकाने, शरीर तथा सिर मे लगाने के अलावा वनस्पति घी बनाने में भी लाया जाता है। अचार  बनाने, सब्जियाँ बनाने व दाल में तड़का लगानें मे सरसों के तेल का प्रयोग बखूबी से किया जाता है। सरसो और तोरिया के तेल का उपयोग साबुन, रबर तथा प्लास्टिक आदि के निर्माण में किया जाता है । इस्पात उद्योग में इस्पात प्लेटों में शीघ्र शीतलन और चमड़े को मुलायम करने में भी तेल का प्रयोग किया जाता ह। सरसों की खली के लगभग 25 - 30 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 5 प्रतिशत नाईट्रोजन, 1.8 - 2.0 प्रतिशत फाॅस्फोरस तथा 1 - 1.2 प्रतिशत पोटेशियम पाया जाता है। इसका प्रयोग पशुओ को खिलाने तथा खाद के रूप मे किया जाता है। सरसों - राई को भूमि संरक्षक फसल  के रूप में भी उगाया जाता है। सरसों के हरे पौधे, सूखी पत्तियों को जानवरो को चारे के रूप मे खिलाया जाता है।

     भारत में उगाई जाने वाली तिलहनी फसलों मे सरसों - राई का मूँगफली के बाद दूसरा स्थान है जो कि कुल तिलहन उत्पादन का 22.9 प्रतिशत  है तथा तिलहनी फसलो  के कुल क्षेत्रफल का 24.7 प्रतिशत क्षेत्रफल राई - सरसों के अन्तर्गत आता है। भारत मे राई - सरसों वर्ग के अन्तर्गत तोरिया, भूरी सरसों, तारामिरा, करन राई तथा काली सरसों का उत्पादन किया जाता है परन्तु राई - सरसों वर्ग की फसलों के कुल क्षेत्रफल का 85 से 90 प्रतिशत हिस्सा भूरी सरसों (राई या लाहा) के अन्तर्गत आता है, जिसका अधिकांश क्षेत्रफल राजस्थान, उ. प्र., पंजाब, हरियाणा, म. प्र., बिहार, पं. बंगाल, गुजरात तथा असम में है। राई-सरस¨ं के अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल वाल्¨ प्रथम तीन राज्य¨ं में राजस्थान,उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जबकि उत्पादन में राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं हरियाना अग्रणीय राज्य है ।  इन फसल¨ं की अ©सत उपज में पहल्¨ स्थान पर हरियाना (1738 किग्रा. प्रति हैक्टर), दूसरे पर राजस्थान(1234 किग्रा.) एवं तीसरे स्थान पर गुजरात (1136 किग्रा.) कायम रहे । मध्य प्रदेश में सरसों - राई की खेती 0.71 मिलियन हेक्टेयर मे की गई जिससे 074 मिलियन टन उत्पादन दर्ज किया गया तथा औसत उपज 1034 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रही है।  छत्तीसगढ़ में राई-सरसो  की खेती 160.03 हजार हैक्टर में की गई जिससे 525 किग्रा. अ©सत उपज प्राप्त हुई (वर्ष 2009-10)। प्रदेश के प्रमुख राई-सरसो  उगाने वाल्¨ जिलो  में सरगुजा, जगदलपुर, कोरिया, जशपुर, कांकेर, जांजगीर, धमतरी एवं दंतेबाड़ा जिले  आते है ।   सरसों की खेती प्रदेश में अगेती फसल के रूप में की जाती है। आदिवासी अंचल में सरसों की फसल बाड़ी में मक्का फसल लेने के बाद की जाती है। सिंचित दशा में धान के बाद भी सरसों की फसल ली जा रही है। जाडे की अवधि कम होने तथा सिंचाई के पर्याप्त साधन न होने के कारण प्रदेश मे सरसों की औसत उपज  कम ही आती है। इन फसलों की खेती शुद्ध एवं मिश्रित फसल के रूप मे होती है।   

उपयुक्त जलवायु

    राई तथा सरसों रबी मौसम  की फसल है जिसे शुष्क एवं ठण्डी जलवायु  तथा चटक धूप की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 30 से 40 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र में सफलतापूर्वक की जा सकती है। बीज अंकुरण  बुआई के समय वातावरण का तापमान  तथा फसल बढ़वार के लिए  तापक्रम आदर्श माना गया है। वातावरण का तापक्रम से कम या 35 -40 डि सेग़्रे से अधिक होने पर फसल वृद्धि रूक जाती है। बीज में तेल की अधिकतम मात्रा के लिए 10-15 डि सेग़्रे तापक्रम उपयुक्त रहता है। पौधों में फूल आने और बीज पड़ने के समय बादल और कोहरे  से भरा मौसम हानिकारक होता है क्योंकि ऐसे मौसम में कीट और रोगों का प्रकोप की अधिक सम्भावना होती है। पौध वृद्धि व विकास के लिए कम से कम 10 घंटे की धूप आवश्यक है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

                  सभी प्रकार के सरसों के लिए दोमट जलोढ़ भूमि  सर्वोत्तम है। वैसे त¨ उत्तम जल निकास  एवं भू-प्रबन्ध के साथ सरसों एवं राई सभी प्रकार की जमीन में उगाई जा सकती है। परन्तु बुलई दोमट और दुमट मिट्टी अधिक उपयुक्त हैं।  उदासीन से हल्की क्षारीय भूमि (पीएच मान 7-8) इन फसल¨ं की ख्¨ती के लिए अच्छी मानी जाती है।
    शुद्ध फसल के लिये प्रायः एक जुताई मिट्टी पलट हल से करनी चाहिए तथा 3 - 4 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को महीन, भुरभुरी तथा समतल कर लेते हैं। इससे जमीन में आर्द्रता अधिक लम्बे समय तक के लिये संचित रहती है, जो कि सरसों व राई के उत्तम अंकुरण एवं पौध बढ़वार के लिये आवश्यक है। मिश्रित रूप में बोई जाने वाली सरसों  के खेत की तैयारी प्रधान फसल की आवश्यकतानुसार ही की जाती है।
उन्नत किस्में
    प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि अकेले उन्नत किस्मों के प्रयोग से पुरानी प्रचलित किस्मों की अपेक्षा 20-25 प्रतिशत अधिक उपज ली जा सकती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त उन्नत किस्मो में  छत्तीसगढ़ सरसों, वरदान, रोहिनी, एनडीटी-8501, कृष्ना, जवाहर-1(जेएमडब्लूआर 93-39), माया, स्वर्ना, ज्योति, वशुंधरा, जवाहर मस्टर्ड, झुमका ।  भूरी सरसों में पूसा कल्यानी
राई-सरसों की प्रमुख उन्त किस्मो  की विशेषताएं
किस्म        अवधि (दिन)    उपज (क्विं/हे.)        प्रमुख विशेषताएँ
टायप-151    120 - 125            14 - 15            46% तेल, सिंचित क्षेत्र हेतु, पीली सरसों
क्रांति            125 - 135            25 - 28            सिंचित क्षेत्र हेतु, तेल 40 %।
वरदान          120 - 125           13 - 18            40 % तेल, देर बोने हेतु उपयुक्त।
वैभव             120 - 125           13 - 18            तेल की मात्रा 38 प्रतिशत
कृष्णा            125 - 130           25 - 30            सिंचित क्षेत्र हेतु, 40 प्रतिशत तेल।
आरएलएम-514  150 - 155     15 - 20            40%तेल, शुष्क दशा के लिए उपयुक्त।
आरएलएम-198    152 - 166    17 - 18            38% तेल, सिंचित दशा के लिए।
वरूणा (टी-59)        125 - 130    20 - 25            42% तेल, दाना बड़ा।
पूसा बोल्ड              130 - 140    18 - 26            सिंचित क्षेत्र हेतु, 40% तेल, दाना बड़ा   
वसुन्धरा                130 - 135    20 - 21            तेल 38 - 40 प्रतिशत
जेएम-1                 120 - 128    20 - 21            काला कत्थई बीज, सिंचित दशा हेतु।
जेएम-2                 135 - 138    15 - 20            बीज गोल कत्थई काला, तेल 40%   

    उपर्युक्त किस्मों की खेती दोनों राज्य म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ में की जा सकती है। जेएम -1, जेएम - 2 व जेटी-1 किस्में जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित की गई है।
छत्तीसगढ़ सरसों: इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म 99 - 115 दिन में पक कर तैयार होती है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ की सिंचित व अर्द्ध सिंचित परिस्थितियों के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने कत्थई रंग व मध्यम आकर के होते हैं। उपज क्षमता औसतन 11.80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसमें सफेद किट्ट (रस्ट), चूर्णिल आसिता  आल्टरनेरिया झुलसा रोग तथा एफिड कीट का प्रकोप कम होता है।

बोआई उचित समय पर

       राई - सरसों की शुद्ध फसल खरीफ में खेत पड़ती  छोड़ने के बाद या खरीफ में ज्वार, बाजरा लेने के पश्चात् बोई जाती है। सरसों मुख्यतः गेहूँ, जौ, चना, मसूर व शरदकालीन गन्ना के साथ मिलाकर बोयी जाती है। आलू व सरसों की सह फसली खेती 3:1 अनुपात में की जाती है । शरदकालीन गन्ने  की दो पंक्तियों के मध्य एक पंक्ति सरसो की बोई जा सकती है। गेहूँ और  सरसों (9: 1), चना और  सरसों (3: 1), तथा तोरिया और मसूर (1: 1) की अन्तः फसली खेती भी लाभप्रद पाई गई है।
         समय पर बुआई करना खेती में सफलता की प्रथम सीढ़ी है। सरसों की बुआई का समय मुख्यतः तापक्रम पर निर्भर करता है। बुआई के समय वातावरण का तापमान 26 - 30 डि.से. होना आवश्यक है। सरसों और राई की बुआई अक्टूबर के प्रथम पखवारे में करना चाहिए। अधिक तापमान होने की दशा में बुआई में देरी कर देनी चाहिए। तोरिया की बोनी सितम्बर के दूसरे पखवारे में करना चाहिए। तोरिया की बुआई देरी से करने पर फसल पर एफिड कीट का प्रकोप अधिक होता है।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार 

    अच्छी उपज लेने के लिए यह आवश्यक है कि प्रति हेक्टेयर खेत में उचित पौध संख्या स्थापित हो। सरसों की शुद्ध फसल हेतु 5 - 6 किलो प्रति हेक्टेयर तथा मिश्रित फसल उगाने के लिए 1.5-2 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। तोरिया की बीज दर 4 किग्रा. प्रति हे. रखना चाहिए। बोने के पूर्व सरसों के बीज को फफूंदीनाशक रसायन जैसे कार्बेन्डिजिम (वाविस्टिन) 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज या थीरम (2.5 ग्राम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से) उचारित करना चाहिए जिससे फसल को मृदा जनित रोगों से बचाया जा सके।

बोआई की विधियाँ

    सरसों फसल की बुवाई पंक्तियों में 45 सेमी. और पौधों में 15 - 20 सेमी. के अन्तर से करना चाहिये। तोरिया की बुआई पंक्तियों में 30 सेमी. और पौधों में 10 - 15 सेमी. के अन्तर पर करना उचित रहता है। बुआई के समय यह ध्यान रखना चाहिये कि बीज उर्वरक के सम्पर्क में न आये अन्यथा अंकुरण प्रभावित होगा। अतः बीज 3 - 4 सेमी. गहरा तथा उर्वरक को 7 - 8 सेमी. गहराई पर देना चाहिए। अच्छे अंकुरण एवं उचित पौध संख्या के लिए बुआई से पूर्व बीजों को पानी में भिगोकर बोया जाना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की सही खुराक 

    सरसों भारी मात्रा में और शीघ्रता से भूमि से पोषक तत्व ग्रहण  करती है। अतः खाद और उर्वरकों के माध्यम से फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति आवश्यक है। बुआई के 15 - 20 दिन पूर्व 10 - 15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद  खेत मे मिलाने से प©ध वृद्धि और उपज में बढ़ोत्तरी  होती है। राई व सरसों की सिंचित फसल में 100 - 120 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. स्फुर व 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। असिंचित अवस्था में 40 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. स्फुर व 20 किग्रा. पोटाश प्रति हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए। पोषक तत्वो की वास्तविक मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण  के आधार पर किया जाता है। मृदा परीक्षण नहीं किया गया है तो तोरिया की सिंचित फसल के लिए 90 किग्रा. नत्रजन 30 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाॅश प्रति हे. तथा असिंचित दशाओं में इसकी आधी मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय  कूड़ो में बीज के नीचे देना चाहिए। शेष नत्रजन पहली सिंचाई के बाद देना चाहिए। भूमि मे जिंक की कमी होने पर 5 - 10 किग्रा. जिंक (जिंक सल्फेट के माध्यम से) बुआई के समय देना लाभप्रद पाया गया है। नत्रजन को अमोनियम सल्फेट तथा फास्फोरस सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में देने से फसल को आवश्यक सल्फर तत्व भी मिल जाता है जिससे उपज और बीज के तेल की मात्रा बढ़ती है।

सिंचाईसे बड़े पैदावार 

    सरसो  में सिंचाई देने से उपज मे वृद्धि होती है। अच्छे अंकुरण के लिए भूमि मे 10 - 12 प्रतिशत नमी होना आवश्यक रहता है। कम नमी होने पर एक हल्की सिंचाई देकर बुआई करना लाभप्रद रहता है। सरसों फसल में 2 - 3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। इस फसल को औसतन 40 सेमी. जल की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 25 - 30 दिन बाद (4 - 6 पत्ती अवस्था) और दूसरी सिंचाई फूल आते समय (बुआई के 70 - 75 दिन बाद) करनी चाहिए। प्रथम सिंचाई देर से करने पर पौधों में शाखायें, फूल व कलियां अधिक बनती है। सरसों में पुष्पागम  और शिम्बी  लगने का समय सिंचाई की दृष्टि से क्रांतिक होता है। इन अवस्थाओं पर भूमि में नमी की कमी होने से दानें अस्वस्थ तथा उपज और दाने में तेल की मात्रा में कमी होती है।

खेत खरपतवार मुक्त रहे 

                राई एवं सरसों में खरपतवारों के कारण 20 - 30 प्रतिशत तक उपज मे कमी आ सकती है। फसल में बथुआ, चटरी - मटरी, सैंजी, सत्यानाशी, मौथा, हिरनखुरी आदि खरपतवारों का प्रकोप होता है। पौधों की संख्या इष्टतम होने से प्रत्येक पौधों का विकास अच्छा होता है, शाखायें अधिक निकलती है जिससे पौधों पर फलियाँ अधिक बनती है क्योंकि पौधो को उचित प्रकाश, जल और पोषक तत्व समान रूप से उपलब्ध होते है। बुआई के 15 - 20 दिन बाद एक निंदाई - गुड़ाई करें तथा पौधों - से - पौंधें की दूरी छँटाई करके 15 - 20 सेमी. कर देना चाहिए। पंक्ति में घने पौधो को उखाड़कर पौध  से पौध  की उचित दूरी रखने को  विरलन कहते है ।  जब फसल में पहली फूल की शाखा निकल आये तब ऊपरी हिस्सा तोड़ देने मे शाखाये, फूल व फलियाँ अधिक बनती है जिससे उपज मे वृद्धि होती है। पौधों के इस कोमल भाग को सब्जी के रूप में बाजार में बेचा जा सकता है या पशुओं को खिलाने के लिए प्रयोग मे लाना चाहिए। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन (स्टाम्प) 0.5 - 1.5 किग्रा. या आइसोप्रोट्यूरान 1 - 1.3 किग्रा. प्रति हे. को 800 - 100 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण से पहले छिड़काव करना चाहिए। यदि सरसों को चने क साथ लगाया गया है तब खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरालिन (बेसालिन) 0.75 - 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को बुआई के पूर्व खेत मे छिड़कना चाहिए।

कटाई एवं गहाई पर भी ध्यान 

    तोरिया की फसल 90 - 100 दिन तथा राई की फसल 120 - 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पकने पर पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बीजों का प्राकृतिक रंग आ जाता है। अपरिपक्व अवस्था में कटाई करने पर उपज में  कमीं आ जाती है और तेल की मात्रा भी घट जाती है। फलियों के अधिक पक जाने पर वे चटख जाती हैं और बीज झड़ने  लगते है। फल्लियों एवं पत्तियो के पील पड़ने के साथ ही फसल की कटाई हँसिये से या फिर पौधों को हाथ से उखाड़ लेना चाहिये। कटाई उपरान्त फसल को 2 - 3 सप्ताह तक खलिहाँन में सुखाया जाता है, फिर डंडो से पीटकर या बैलो  की दाय चलाकर या ट्रेक्टर से मड़ाई की जाती है। आज कल मड़ाई के लिए थ्रेसर का भी प्रयोग किया जाता है। मड़ाई के बाद बीजों को भूसे से अलग करने के लिए पंखे का प्रयोग करते है या हवा में ओसाई करते है।

उपज हो भरपूर 

    सरसों एवं तोरिया की मिश्रित फसल से 3 - 5 क्विंटल  तथा शुद्ध असिंचित फसल से 10 - 12  क्विंटल  तथा सिंचिंत  फसल से 12 - 15  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। उन्नत सस्य  तकनीक अपनाकर असिंचित राई से 15 - 20 क्विंटल तथा सिंचित राई से 20 - 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है। भूसा भी लगभग 15 - 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।बीज को अच्छी तरह धूप में  सूखाना चाहिए। सरसों के दानों में भण्डारण के समय नमी की मात्रा 7 - 10 प्रतिशत होना चाहिए। सरसों - राई के बीज में 38 - 40 प्रतिशत , तोरिया में 42 - 44 प्रतिशत तथा भूरी व पीली सरसो में 43 - 48 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

सब्जियों के सम्राट आलू की वैज्ञानिक खेती


डाँ.जी.एस.तोमर
कृषि महाविद्यालय, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (

सब्जी ही नहीं संतुलित आहार है आलू

            अमीरों  का महल हो  या गरीब की झोपड़ी, ढाबा हो या फिर पंच सितारा  होटल सभी जगह  भोजन की थालियो में आलू का जयका अवश्य रहता है । तमाम गुणों  से परिपूर्ण सब्जियों के  सम्राट के रूप में प्रतिस्थापित आलू एक सब्जी ही नहीं वरन सम्पूर्ण आहार है । भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा जहाँ पर आलू ना दिखे  । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी,  चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं।   प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के  अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है।
                भारत में आलू की खेती 1810.8 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 28580.2 हजार टन उत्पादन प्राप्त ह¨ता है । हमारे देश में आलू की औसत उपज 158   क्विंटल प्रति हेक्टर  के आस-पास है, जो  कि विश्व ओसत उपज (178  क्विंटल प्रति हैक्टर) से कम है । छत्तीसगढ़ में 32.1 हजार हेक्टेयर से 358.5 हजार टन आलू पैदा किया जा रहा है परन्तु  ओसत उपज (111.7 क्विंटल  प्रति हैक्टर) के  मामले में हम देश के  अन्य राज्यो  से फिस्सड्डी बने हुए है । जबकि केरल, गुजरात तथा पंजाब के  किसान तकरीबन 250 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज  ले रहे है।  छत्तीसगढ के सरगुजा जिले  के मैनपाट एवं सामरी पाट (पहाड़ी क्षेत्र ) में आलू की खेती वर्षा ऋतु में की जाती है जबकि  जशपुर , कोरिया, सरगुजा, रायपुर, बिलासपुर, बस्तर एवं रायगढ़ में आलू की खे ती प्रायः रबी ऋतू में की जाती है । छत्तीसगढ़ में आलू की खेती  की व्यापक संभावनाओ को देखते हुए राज्य सरकार के सहयोग से  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अंबिकापुर के मैनपाट में आलू अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की है जिसके तहत आलू फसल पर गहन शोध कर उन्नत सस्य विधिया विकसित की जाएँगी  जिसके फलस्वरूप  आलू फसल के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार तथा  उत्पादकता बढ़ने के सुनहरे आसार है ।

आलू की खेती के  लिए उपयुक्त जलवायु

                 आलू की उत्तम फसल के  लिए ठंडी जलवायु  की आवश्यकता होती है। मैदानी क्षेत्रो  में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए इष्टतम तापक्रम 15- 25 डि से  के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. वानस्पतिक संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू  विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है । कन्द बनने के लिए आदर्श तापमान  अक्टूबर से मार्च तक,  लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बदली भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशायें हैं।

भूमि का चयन और  खेत की तैयारी

                   आलू की फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियो  में उगाई जाती है परन्तु इसके लिये उपजाऊ, रन्ध्रमय, भुरभुरी, जीवांशयुक्त और  चौरस भूमि जिसमें जल निकासी अच्छी हो , सर्वोत्तम मानी जाती है। मध्यम श्रेणी से लेकर हल्की दोमट भूमि भी आलू की खेती के लिए अच्छी रहती है। जल भराव वाली मिट्टीयों में आकंद विकृत और अविकसित रह जाते हैं एवं पैदावार कम होती है। इसकी खेती के लिए भूमी का पीएच मान 5.2 से 6.5 उवयुक्त रहता है। आलू बोई जाने वाली मृदाओ  में पर्याप्त नमीं होनी चाहिये जिससे अँखुए सुगमता से उग सकें ।
                 भूमिगत  फसल होने के कारण खेत की गहरी जुताई  आवश्यक है। खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल  से करें। उसके उपरांत 3-4 जुताई देशी हल से या ट्रेक्टर से अगर जुताई करना है तो डिस्क हैरो से करें। आलू जमीन के अंदर आने वाली फसल होने के कारण खेत को भुरभुरा (पोला) करना आवश्यक  रहता है। काली मिट्टी में बखर का प्रयोग किया जाता है । कूँड़े हल या रिजर से बनाई जाती है प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य चलायें । आखिरी जुताई के पहले 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में फैला कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए।

उन्नत किस्में

               आलू की बेहतर उपज के  लिए अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मो  के  स्वस्थ बीज का चयन करना आवश्यक है ।छतीसगढ़ के लिए सब्जी हेतु कुफरी अश¨का कुफरी पुखराज, कुफरी पुष्कर, कुफरी जवाहर, कुफरी ख्याति तथा प्रसंसकरण हेतु कुफरी चिप्स¨ना-1, कु.चिप्स¨ना-2, कु. चिप्स¨ना-3, कुफरी स¨ना आदि किस्मो  की सिफारिस की गई है । 
छत्तीसगढ़ के  लिए उपयुक्त आलू की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएंकिस्म का नाम        अवधि (दिन)      उपज (क्विंटल ./हे.)    प्रमुख विशेषताएँ
कुफरी अशोका        70 - 90                      200 - 250          सफेद व बड़े कंद।
कुफरी जवाहर        75 - 90                       220 - 280          कंन्द मध्यम, ग¨ल, सफेद, गूदा पीला।
कुफरी पुखराज        75 - 100                    350 - 370           सफेद, मध्यम, अण्डाकार, गूदा पीला।   
कुफरी पुष्कर            100 - 120                 240 - 260           कन्द मध्यम, अण्डाकार ।
कुफरी ख्याति            75 - 90                    280 - 340           कन्द अण्डाकार, चपटे, गूदा सफेद ।
कुफरी चिप्स¨ना-2     90 - 110                    170 - 230         मध्यम ग¨ल कन्द, प्रसंस्करण हेतु ।
कुफरी चिप्स¨ना-3     90 - 100                     200 - 220          सफेद, मध्यम ग¨ल चपटे, प्रसंस्करण हेतु कुफरी सूर्या                90 - 100                    230 - 275          मध्यम बड़े कन्द, चिप्स व फ्रैंच फ्रॉय हेतु

बुआई सही समय पर

         आलू की फसल शीघ्र तैयार ह¨ जाती है । कुछ किस्में तो  90 दिन में ही तैयार हो  जाती है । अतः फसल विविधिकरण के लिए यह एक आदर्श  नकदी फसल है । मक्का-आलू-गेहूँ, मक्का-आलू-मक्का, भिन्डी-आलू-प्याज, लो बिया-आलू-भिन्डी आदि फसल प्रणाली  को विभिन्न राज्यो में अपनाया जा रहा है ।
    आलू की बुआई का समय उसकी किस्म तथा जलवायु पर निर्भर करता है। वर्ष भर में आलू की तीन फसलें ली जा सकती है। आलू की अगेती फसल (सितम्बर के तीसरे सप्ताह से अक्टूबर प्रथम सप्ताह तक), मुख्य फसल (अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक) तथा बसंतकालीन फसल (25 दिसम्बर से 10 जनवरी तक ) ली जा सकती है। जल्दी तैयार हो ने वाले  आलू  जब सितम्बर-अक्टूबर में बोये जाते है तब  आलू बिना काटे ही बोये जाने चाहिए  क्योकि काटकर बोने से ये गर्मी के कारण सड़ जाते है जिससे फसल उपज को भारी हांनि होती है ।  अल्पकालिक आलू सितम्बर में ब¨कर नवम्बर में काटा जा सकता है । साठा तथा अन्य उन्नत आलू इस श्रेणी में आते है ।

बीज का चुनाव सावधानी से

    आलू की खेती में बीज का  बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि आलू उत्पादन में कुल लागत का 40 से 50 प्रतिशत खर्च बीज पर आता हैं। अतः आलू का बीज ही उत्पादन का मूल आधार है। शुद्ध किस्म का शक्तिशाली, उपजाऊँ, कीट-रोग मुक्त, कटा, हरा या सड़ा न हो।  स्वस्थ्य और सुडोल बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। आलू के बीज की मात्रा आलू की किस्म, आकार, बोने की दूरी और भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है। अगेती फसल में पूरा आलू बोते हैं, टुकड़े नहीं काटे जाते, क्योंकि उस समय भूमि में नमी अधिक होती है और कटे टुकड़ों के सड़ने  की सम्भावना रहती है। बड़े आलू को टुकड़ों में काट लेते हैं। एक टुकड़ें में कम-से-कम 2-3 आँखें रहनी चाहिये। कटे हुए टुकड़े देर से बोई जाने वाली फसल में प्रयोग करते हैं क्योंकि उस समय इनके सड़ने की सम्भावना नहीं रहती है। इसके अलावा काटने से आलुओं की सृषुप्तावस्था  समाप्त हो जाती है और अंकुरण शीघ्र होने लगता है।

अंकुरण एवं रोग से सुरक्षा हेतु  बीज उपचार

    शीतगृह  से तुरन्त निकाले गये आलू को बोने से अंकुरण देर से एवं एकसार नहीं होता है। अतः बीज वाले आलू को शीत गृह से बुआई के 10-15 दिन पहलले निकाल कर ठंडी एवं छायादार जगह पर फैला देना चाहिए जिससे आलू में अंकुर फूट जाते हैं एवं फसल अंकुरण अच्छा तथा एक समान होगा। आलू के टुकड़ों या साबुत आलू को बुआई से पहले 0.25 प्रतिशत अगलाल 3 ग्राम या डायथ्¨न एम-45 दवा 2-2.5 ग्राम या बाविस्टीन 1-1.5 ग्राम को  पानी में घोलकर 10-20 मिनिट  डुबोने के बाद बोना चाहिए। इससे कन्दों को स्कर्फ व  सड़न रोग से बचाया जा सकता है। अगेती बुआई में यदि कटे हुए कन्द बोना है तो टुकड़ों को 0.20 प्रतिशत मेन्कोजेब के घोल में 10 मिनट तक डुबोकर बीज को उपचारित कर बोना चाहिए।
    कन्दो की सुषुप्ता अवस्था  तोड़ने के लिए कन्दों को 1 प्रतिशत थायोयूरिया (1 किग्रा. थायोयूरिया 100 लीटर पानी के साथ) और 1 पीपीएम जिबे्रलिक अम्ल (1 मिग्रा. जिब्रेलिक अम्ल 1 लीटर पानी के साथ) के घोल में प्रति 10 क्विंटल  कन्दों के हिसाब से 1 घंटा तक उपचारित करना चाहिए। इसके बाद 3 प्रतिशत इथीलीन क्लोरोहाइड्रीन घोल से उपचारित कर कन्दों को तीन दिन के लिए बन्द कमरे में रखना चाहिए।

बीज का आकार एवं लगाने की दूरी

    आलू के स्वस्थ बीज 25 ग्राम से 125 ग्राम वजन के होना चाहिए । इनकी मोटाई 25 से 65 मिमी. हो  सकती है ।इससे कम या अधिक आकार या भार का बीज आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद नहीं है क्योंकि अधिक बड़े टुकड़े बोने से अधिक व्यय होता है तथा कम आकार या भार के टुकड़े बोने से उपज में कमी आती है। कन्द वजन के अनुसार र¨पण दूरी एवं बीज दर निम्नानुसार रखी जानी चाहिए ।
बीज कंद का भार (ग्रा.)    कतार से कतार दूरी (सेमी.)    बीज से बीज दूरी (सेमी.    बीज दर (क्विंटल  प्रति हे.)
    25-30                                 60                                     10-20                                19-23
    30-50                                 60                                       20                                    25-41
    50-60                                 60                                       30                                    27-33
    60-100                              60                                       40                                     25-42
     उर्वरा भूमि में छोटे बीजो को पास-पास बोना अच्छा रहता है । कमजोर भूमि में मोटा बीज बोने में अधिक अन्तर रखाना लाभकारी होता है ।आलू बोने की गहराई बीज के आकार, भूमि की किस्म और जलवायु पर निर्भर करती है। बलुई भूमि में गहराई 10-15 सेमी. और दोमट भूमि में 8-10 सेमी. गहराई पर बोनी करनी चाहिए। कम गहराई पर बोने से आलू सूख जाते हैं और अधिक गहराई पर नमी की अधिकता से बीज सड़ सकता है।

बोआई की विधियाँ

    आलू की बोआई की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं जो कि भूमि की किस्म, नमी की मात्रा, यंत्रों की उपलब्धता, क्षेत्रफल आदि कारकों पर निर्भर करती है। आलू लगाते समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई करना उचित नहीं रहता हैं। आलू बोने की निम्न विधियाँ हैं-
1. समतल भूमि में आलू बोना: हल्की दोमट मृदाओं के लिए यह सर्वोत्तम विधि है। रस्सी की सहायता से अभीष्ट  दूरी पर कतारे बनाकर देशी हल या कल्टीवेटर या प्लान्टर से कूँड़ बना ली जाती है। इन्हीं कूँडों में अभीष्ट दूरी पर आलू बो दिये जाते हैं। बोने के पश्चात् आलुओं को पाटा चलाकर मिट्टी से ढँक दिया जाता है।
2. समतल भूमि में आलू बोकर मिट्टी चढ़ानाः इस विधि में खेत में 60 सेमी. की दूरी पर कतार बना ली जाती है। इन कतारों में 15-25 सेमी. की दूरी पर आलू के बीज रख दिये जाते हैं। इसके बाद फावड़े से बीजों पर दोनों ओर से मिट्टी चढ़ा दी जाती है। हल्की भूमि में बनी हुई कतारों पर 5 सेमी. गहरी कूँड़ें बनाकर आलू के बीज बो दिये जाते हैं और पुनः मिट्टी चढ़ा दी जाती है।
3. मेंड़ों पर आलू की बुआई:  इस विधि में मेंड बानने वाले यंत्रों की सहायता से अभीष्ट दूरी पर मेंड़ें बना ली जाती हैं मेंड़ों की ऊँचाई प्रारम्भ में 15 सेमी. रखी जाती है। तत्पश्चात् 15-25 सेमी. की दूरी पर 8-10 सेमी. की गहराई पर आलू के बीजों को खुरपी की सहायता से मेंड़ों पर गाड़ देते हैं। अधिक नम व भारी भूमि के लिए यह विधि उपयुक्त रहती है क्योंकि मेंड़ों पर बोने से नमी कम हो जाती है।
4. पोटैटो प्लाण्टर से बुआईः पोटैटो प्लांटर से मेंड व कूँड़ बनाते चलते हैं। पहली मेंड पर आलू बो दिये जाते हैं। जब प्लांटर पहली कूँड़ के पास से दूसरी कूँड़ में गुजरता है तो पहली मेंड पर बोये हुए कन्दों को हल्की मिट्टी से ढँकता हुआ चला जाता है और अगली मेंड और कूँड तैयार हो जाते हैं।
5. दोहरा कूँड़ विधि: इस विधि में आलू की दो पंक्तियाँ एकान्तर विधि से बोई जाती हैं। दो पंक्तियों के मध्य 75 सेमी. की दूरी रखते हैं। यदि बुआई मेंड़ियों पर करनी है, तब इनकी चैड़ाई 75 सेमी. रखते हैं और आलू की दो पंक्तियाँ इसी मेंड़ी पर बनाकर बोआई करते हैं। इस विधि से अंकुरण और आलू का विकास अच्छा होता है। यह विधि पंजाब में प्रचलित है ।

पर्याप्त और  संतुलित  पोषण

    आलू की अच्छी उपज के लिए खाद एवं उर्वरकों की प्रचुर मात्रा प्रदान करना आवश्यक है। फसल को पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से करना लाभप्रद रहता है। गोबर की खाद 5-10 टन प्रति हैक्टर के प्रयोग से उपज में 15-20 प्रतिशत की बढ¨त्तरी देखी गई है । इसी प्रकार से 50 क्विंटल  प्रति हैक्टर मुर्गी की खाद से भी उपज में 25-30 प्रतिशत का इजाफा संभावित है । इन खादों को बोने के 15-20 दिन पूर्व खेत  जोतकर अच्छी प्रकार से मिलाना चाहिए। इससे भूमि की भौतिक, रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार होता है जो कन्द की वृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सहायक होता है। इसके अलावा मृदा परीक्षण  के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक रहता है। आलू की वानस्पतिक वृद्धि के लिए नत्रजन अति आवश्यक है। कंदों की वृद्धि एवं विकास में नत्रजन के साथ-साथ फास्फोरस तथा पोटाश की भी आवश्यकता होती है। इनके प्रयोग से कंदों का आकार बढ़ता है, कंदों का निर्माण होता है तथा सूखा सहन करने की शक्ति और रोग रोधिता बढ़ती है। आलू की अगेती फसल के लिये 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. स्फुर एवं 100 किग्रा., पोटाश की आवश्यकता होती है। शीतकालीन या मुख्य फसल में 120 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा., स्फुर एवं 125 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करनी चाहिये। बसन्त कालीन या पछेती फसल के लिए 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. स्फुर एवं 100 किग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है। आलू की बुआई करते समय 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग करने से कन्द की उपज बढ़ती है।
    स्फुर एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा एवं नत्रजन की 75 प्रतिशत मात्रा आलू के कंदों को लगाते समय दो मेंड़ों के बीच की नालियों में देना चाहिए, ताकि मिट्टी चढ़ाते समय उर्वरक मिट्टी में मिल जाये और उर्वरक एवं मिट्टी का मिश्रण मेंड़ों पर जमा हो जाये। नत्रजन की शेष 25 प्रतिशत मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुआई के 35-40 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय दी जानी चाहिये। नाइट्रोजन की तरह पोटाश को भी दो बराबर भागों में बाँटकर दिया जा सकता है जिससे आलू के कंद की गुणवत्ता एवं भंडारण क्षमता में वृद्धि देखी गयी हैं।

फसल वढ़वार और  कंद विकास के  लिए करें सिंचाई

    आलू उथली जड़ वाली  फसल है अतः इसे बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। सिंचाई की संख्या एवं अंतर भूमि की किस्म और मौसम पर निर्भर करता है। औसतन आलू की फसल की जल माँग 60-65 सेमी. होती है। बुआई के 3-5 दिन बाद पहली सिंचाई हल्की करनी चाहिए। अधिक उपज के लिए यह आवश्यक है कि मृदा सदैव नम रहे। जलवायु और मृदा की किस्म के अनुसार आलू में 5-10 सिंचाइयाँ देने की आवश्यकता पड़ती है। भारी मृदाओं में कम और हल्की मृदाओं में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। नाली का केवल आधा भाग ही पानी से भरना अच्छा होता हैं। सिंचाई सदैव 50 प्रतिशत उपलब्ध मृदा जल पर कर देनी चाहिए। सिंचाई की सीमित व्यवस्था होने पर सिंचाई के कूड़ों की लंबाई कम कर देनी चाहिए। मृदा में नमी की हानि रोकने के लिए नालियों में पलवार  बिछा देनी चाहिए। आलू की फसल में देहांकुर बनते समय, मिट्टी चढ़ाने के बाद और कंदों की वृद्धि के समय सिंचाई करना आवश्यक रहता है। सिंचाई की इन क्रांतिक अवस्थाओं के समय खेत में नमी की कमी से उपज में बहुत गिरावट हो जाती है।
    आलू की सिंचाई करते समय नालियों में पानी का बहाव तेज नहीं होना चाहिए। इससे मेड़ियाँ कट जाती है जिससे कंद खुल जाते हैं। सूर्य के प्रकाश से ये कन्द हरे हो जाते हैं। खेत में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। जल भराव की स्थिति में कन्द सड़ जाते हैं। आलू की खुदाई के पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये।

खेत रखे खरपतवार मुक्त

    आलू की फसल के साथ उगे खरपतवार को नष्ट करने हेतु आलू की फसल में एक बार ही निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है, जिसे बुआई के 25-30 दिन बाद कर देना चाहिये। गुड़ाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि भूमि के भीतर के तने  बाहर न आ जायँ नहीं तो  वे सूर्य की रोशनी  से हरे हो जाते है । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण आर्थिक रूप से लाभप्रद रहता है। इसके लिए मैट्रीब्यूजिन (सेंकर) 1 किग्रा. या आक्सीफ्लोरफैन (गोल) प्रति हेक्टेयर, 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व छिड़कना चाहिए। खड़ी फसल में एलाक्लोर 2 किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

 पौधों पर मिट्टी चढ़ाएं

       आलू की भरपूर और गुणवत्ता युक्त उपज लेने के लिए पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक रहता है। इससे कन्दों का विकास अच्छा होता है। मिट्टी न चढ़ाने से पौधों का आलू बनाने वाला भाग भूमि की ऊपरी सतह पर आकर हरे कन्द पैदा करने लगता है। खुले आलू के कन्दों में, सूर्य का प्रकाश या धूप पड़ने पर एन्थोसायनीन और क्लोरोफिल के संश्लेषण से, सोलेनिन  नामक एल्केलाइड बनने लगता है। इससे आलू हरे रंग के होने लगते हैं, जो कि स्वाद में कसैले  और स्वास्थ के लिए हांनिकारक होते है। इस प्रकार के आलुओं की गुणवत्ता खराब हो जाती है। अतः जब आलू के पौधे 10-15 सेमी. ऊँचे हो जाएँ, तब उन पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य (बोआई के 25-30 दिन) पहली सिंचाई के बाद करना चाहिए। यदि आलू की बुआई मशीन (प्लांटर) से की गई है, तब मिट्टी चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती है।

खुदाई एवं उपज

    आलू की खुदाई उसकी किस्म और उगाये जाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है। आलू की फसल उस समय पूरी तरह तैयार ह¨ जाती है, जब पौधे  सूख जाँय, पत्ते  पीले  पड़ जाँय और  खोदने पर आलू के छिलके न उतरें । यदि आलू के कंदो को खुदाई पश्चात् सीधे बाजार मे बिक्री हेतु भेजना हो तो क्यूरिंग की आवश्यकता नहीं होती है। संग्रहण से पूर्व आलुओं को हवादार व ठंडे स्थानों पर रखा जाता है जहाँ प्रकाश न आता हो। खुदाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि आकन्द  पर किसी भी प्रकार का आघात न ह¨, नहीं त¨ उनके जल्द सड़ने का भय रहता है । उपलब्धता के अनुसार, आलू के कंदो की खुदाई यांत्रिक रूप से करने के लिए पोटेटो डिगर या मूँगफली हारवेस्टर का उपयोग किया जा सकता है। खुदाई के बाद आलुओ  का ढेर बनाकर बोरी आदि से लगभग 3 दिन तक ढंक देना चाहिए जिससे उन पर धूप न लगे । ऐसा करने से कंदों  पर लगी मिट्टी भी अलग ह¨ जाती है ।

अब लें भरपूर उपज

    आलू की उपज, भूमि के प्रकार, खाद एवं उर्वरक, किस्म व फसल की देखभाल आदि कारकों पर निर्भर करती है। सामान्य रूप से आलू से 250 से 500 क्ंिवटल प्रति हैक्टर तक उपज ली जा सकती है । आलू की अगेती किस्मों से औसतन 250 से 320 क्ंिवटल एवं पिछेती किस्मों से 300 से 600 क्ंिवटल उपज प्राप्त की जा सकती है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

गन्ने का विकल्प- चुकंदर से चीनी

                                        शक्कर कारखानों के लिए वरदान हो सकती है चुकंदर की खेती 

 

डॉ.ग़जेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

    

               शर्करा देने वाली फसलों में गन्ने के बाद चुकन्दर का स्थान आता है। विश्व के कुल चीनी उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत भाग चुकन्दर द्वारा तैयार किया जाता है।  गर्मी के दिनों में जब चीनी मिलें  बन्द होने लगती हैं, उस समय चुकन्दर से चीनी निर्माण किया जा सकता है। गन्ने की फसल 10-12 माह में तैयार होती है जबकि चुकन्दर की फसल से 5-6 माह में ही चीनी प्राप्त की जा सकती है । इस प्रकार फसल विविधिकरण   में चुकन्दर की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।  इसकी जड़ों में 15 -16 प्रतिशत तक शर्करा पायी जाती है जिससे औसतन 10-12 प्रतिशत चीनी प्राप्त हो जाती है। चुकन्दर से 10 -15 टन प्रति हेक्टयेर हरी पत्तियाँ प्राप्त होती है जिनका प्रयोग गर्मियों में पशुओं के खिलाने में किया जा सकता है। इसकी पत्तियों में 10 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन तथा 60 प्रतिशत सम्पूर्ण पाचक तत्व पाये जाते हैं। इसकी जड़ों से चीनी निकालने के बाद बचे हुए गूदे  में 5 प्रतिशत पाचक प्रोटीन तथा 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है जिससे ताजा साइलेज बनाकर या सुखाकर पशुओं को खिलाया जा सकता है। एक टन चुकन्दर से 50 किग्रा. सूखा गूदा तथा 300 किग्रा. गीला गूदा प्राप्त होता है। चुकन्दर के शीरे से ग्लिसरीन, लैक्टिक अम्ल, एसीटोन, ब्यूटाइल एल्कोहल, एन्टीबायोटिक आदि तैयार किया जाता है। एक टन चुकन्दर से 45 किग्रा. शीरा प्राप्त होता है। इसका उपयोग विशेष प्रकार के किण्वन तथा औषधि निर्माण में किया जाता है। चुकन्दर की पत्तियों में नत्रजन अधिक होता है। अतः इसे हरी खाद के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। भारत में चुकन्दर की खेती 1974 से प्रारम्भ हुई। 

खेती के लिए कैसी हो जलवायु

                  चुकन्दर के लिए शुष्क और ठण्डे  मौसम की आवश्यकता होती है। चुकन्दर के लिए 30 - 60 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते हैं। उन सभी क्षेत्रों में यह फसल ली जा सकती है जहाँ अक्टूबर से मई तक 12 से  . 45 डिग्री से. तापमान रहता है। अंकुरण के लिए मृदा का तापक्रम 15 डिग्री से. होना आवश्यक है। पौधों की उचित बढ़वार तथा शर्करा निर्माण के लिए औसतन 20-22  डिग्री से. तापमान होना अच्छा रहता है। उच्च तापमान (30  डिग्री से. से ऊपर) पर शर्करा की मात्रा में कमी होने लगती है। शुष्क मौसम, चमकीले दिन व ठंडी रातें फसल बढ़वार के लिए सर्वोत्तम रहती हैं। चुकन्दर का पौधा दीर्घ प्रकाशपेक्षी  होता है। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी-पठारी क्षेत्रो में चुकंदर की अच्छी फसल ली जा सकती है। मैदानी क्षेत्रो में भी अगेती फसल बेहतर हो सकती है।  यह द्विवर्षीय फसल है। पहली वर्ष में जड़ों का विकास होता है तथा दूसरे वर्ष बीज तैयार होते हैं।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

    उचित जल निकास वाली उपजाऊ दोमट मृदाएँ  चुकन्दर ख्¨ती के लिए अच्छी रहती हैं। भारी चिकनी मृदाओं  में भी चुकन्दर की खेती की जा सकती है, परन्तु खुदाई के समय जड़ों की मिट्टी की सफाई करने में कठिनाई होती है। चुकन्दर की खेती लवणीय मृदाओं में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है परन्तु  अम्लीय मृदायें इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त रहती है।
    चुकन्दर के पौधे में मूसला जड़ें  निकलती है। अतः जड़ों के पूर्ण विकास के लिए खेत की तैयारी अच्छी प्रकार से करनी चाहिए। खरीफ की फसल की कटाई के उपरान्त एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2 - 4 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते है। प्रत्येक जुताई के बाद भूमि को भुरभुरा व समतल कर लेना आवश्यक है।

उन्नत किस्में

चुकन्दर की विदेशी किस्में: मेरीबो मेरोकपोली व मेरीबो मेगनापोल बहुगुणित प्रकार की किस्में है। रोमांस कावा - 06 एक द्विगुणीय  किस्म है। यूएस.75, यूएसएच.-9, ट्राईबेल, कावेमेगापोली आदि अन्य उन्नत किस्में है।
भारतीय किस्में: पन्त एस. 1, पन्त कम्पोजिट - 1, पन्त कम्पोजिट - 3, पन्त कम्पोजिट - 6 आई. आई. एस. आर. कम्पोजिट - 1 आदि। लवणीय क्षेत्रों के लिए पन्त एस - 1 तथा आई. आई. एस. आर. कम्पोजिट - 1 उपयुक्त पाई गई है।

बोआई का समय

    सामान्यतया चुकन्दर की बोआई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक की जाती है। देर से बोआई करने पर उपज में भारी कमी आ जाती है।

बीज एवं बोआई

    खरीफ की प्रमुख फसलें जैसे-मक्का, ज्वार, बाजरा, धान, सोयाबीन आदि के बाद चुकन्दर की खेती की जा सकती है। गेहूँ के साथ अप्रैल में इस फसल की कटाई हो जाती है। रोग प्रकोप से बचने के लिए चुकन्दर को 2 - 3 वर्ष के फसल चक्र में एक बार ही बोना चाहिए। चुकन्दर को मिश्रित फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। शरदकालीन गन्ने में दो पंक्तियों के बीच एक पंक्ति चुकन्दर की उगा सकते है। इस प्रकार एक ही खेत में एक समय में शर्करा वाली दो फसलें उगाकर प्रति इकाई शर्करा का उत्पादन बढ़ाया जा सकता हैै।
    बीज की मात्रा बोआई के समय, मृदा में नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है। एक अंकुर वाली किस्मों के लिए 5 - 6 किग्रा. तथा बहु अंकुर वाली किस्मों के लिए 8 - 10 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। बुआई से पूर्व बीजों को 0.25 प्रतिशत एगलाल या एरेटान के घोल में रात भर भिगों देना चाहिए जिससे बीज अंकुरण अच्छा होता है और फफुँद जनित भी नहीं लगते है।

बोआई की विधियाँ    

    चुकन्दर की बोआई समतल खेत में या 15 सेमी. ऊँची मेड़ों पर की जाती है। देशी हल से 50 सेमी. की दूरी पर कूँड़ बना लिये जाते है। इनमें 10 - 20 सेमी. के अन्तर पर बीजों की बोआई की जाती है। बोने के बाद कूँड़ों को अच्छी प्रकार हल्की मिट्टी से ढँक देना चाहिए। नमी की कमी होने पर हल्की सिंचाई करनी चाहिए। मेड़ों पर बुआई करने से जड़ों के उचित विकास के कारण अधिक उपज प्राप्त होती है। गन्ने या आलू की खेती की तरह इसके लिए मेड़ बनाई जाती है। मेड़ की ऊपरी सतह समतल व भुरभुरी होने से बीज समान गहराई पर बोया जा सकता है जिससे अकुरण अच्छा होता है। मेड़ की ऊचाई 10 - 12 सेमी. रखनी चाहिए। चुकन्दर का बीज 2 - 3 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए प्रति हेक्टेयर 80,000 से 100,000 पौधे होना आवश्यक है।

सही पोषण का रखे ख्याल

    पोधों की उचित बढवार और जड़ो के विकास के लिए पोषक तत्वों का प्रबंधन निहायत जरूरी होता है। चुकन्दर की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए बुआई से 15 दिन पूर्व 10 - 12 टन गोबर की खाद  खेत में देना चाहिए। इसके अलावा 120 किग्रा. नत्रजन, 60 - 80 किग्रा. स्फुर तथा 40 - 60 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा को दो बराबर भागों में बाँटकर बुआई के 30 दिन बाद और तीन माह बाद देना चाहिए। मृदा में जस्ता, मैंग्नीज व बोरोन की कमी होने पर आवश्यकतानुसार इनकी पूर्ति करना चाहिए। बोरोन की कमी से पौधों का ऊपरी भाग पीला पड़ने लगता है तथा बीच की नई पत्तियाँ मर जाती है। जड़ को काटने पर ऊपरी भाग खोखला निकलता है तथा जड़ों का रंग  कत्थई हो जाता है। इस रोग को हर्ट शेड  कहते है। चुकन्दर में अधिक मात्रा में नत्रजन देने से शर्करा की मात्रा में कमी आती है तथा ऐसी जड़ों से चीनी बनाने में कठिनाई होती है। अधिक नत्रजन से जड़ों में कुछ ऐसे नत्रजन युक्त पदार्थ एकत्रित हो जाते है जो जड़ों से शर्करा निस्सारण  में बाधा डालते है। नत्रजन की कमी होने पर पौधों की बढ़वार रूकती है तथा उपज में भारी गिरावट आती है।

समय पर करें  सिंचाई

    चुकन्दर एक भूमिगत फसल है, अतः कंदों के विकास के लिए खेत में नमी बनाएँ रखनाजरूरी होता है।  सिंचाइयों की संख्या सर्दियों की वर्षा व मौसम पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर पहली दो सिंचाइयाँ बुआई के 15 - 20 दिन के अन्तर पर की जानी चाहिए। इसके बाद फसल की कटाई तक 20 - 25 दिन के अन्तराल पर सिंचाइयाँ करते है। चुकन्दर में पत्तियों के विकास तथा जड़ों के निर्माण  के समय मृदा में नमी  की कमी नहीं होना चाहिए । खेत से जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना भी आवश्यक है। खुदाई के समय भूमि में कम नमी रखने से जड़ों में सुक्रोज की मात्रा बढ़ती है।

खरपतवार नियंत्रण

                  चुकन्दर की फसल को आरम्भ के दो माह तक खरपतवारों से मुक्त  रखना आवश्यक है। बुआई के 30 दिन बाद पहली निकाई - गुड़ाई तथा 55 दिन बाद दूसरी निकाई - गुड़ाई करनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए पाइरेमीन 3 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को 600 - 800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करने से  खरपतवार  नियंत्रण में रहते है। बिटेनाल 2 किग्रा. प्रति हेक्टेयर 600 - 1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 25 - 30 दिन बाद छिड़काव करने से भी खरपतवार नियंत्रित रहते है। चुकन्दर की फसल में अंतिम टाप ड्रेसिंग करने के बाद मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना भी आवश्यक रहता है ।

पौधों की छँटनी आवश्यक

             आमतौर पर चुकन्दर की बहु-अंकुर   किस्म के बीज से एक से अधिक पौधे निकलते है। अतः खेत में पौधे की वांछित संख्या रखने के लिए अंकुरण के लगभग 30 दिन बाद पौधों की छँटाई करना आवश्यक होता है। पौधों की छँटाई इस प्रकार करना चाहिए जिससे कतारों में पौधे-से-पौधे की दूरी 20-25 सेमी. रह जाए और एक स्थान पर केवल एक पौधा  स्थापित हो  जाए।

चुकन्दर की खुदाई और उपज 

             सामान्यतौर  पर चुकन्दर की फसल बुआई के 5 - 6 माह में पककर तैयार हो जाती है। पकने पर पत्तियाँ सूख जाती हैं। फसल की खुदाई के 15 दिन पहले सिंचाई बंद कर देना चाहिए। खुदाई के लिए फसल की दो कतारों  के बीच देशी हल चलाकर मेड़ियों को उखाड़ दिया जाता है और चुकन्दर की जड़ों को निकाल लिया जाता है। खुदाई के बाद चुकन्दर की पत्तियाँ काट दी जाती हैं। ऊपर की पत्तियाँ पशुओं के खिलाने के काम में ला सकते हैं। चुकन्दर  की पत्तियों में आक्जेलिक अम्ल काफी मात्रा में पाया जाता है। जड़ों से चिपकी मिट्टी को पानी से साफ नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे जड़ों में तेजी से विकृति आने लगती है।  खुदाई के बाद जड़ों का संग्रह ठन्डे छाया दार स्थान  पर करना चाहिए ।

              नवीन सस्य तकनीक से चुकन्दर की खेती  करने पर ओसतन  500 - 700 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है। इसकी जड़ों में चीनी की मात्रा 13 - 17 प्रतिशत तक होती हैं । चुकन्दर की जड़ों का रस केवल निर्वात पैन निष्कर्षक  द्वारा निकाला जा सकता है। चुकन्दर की जड़ों से शर्करा डिफ्यूजन विधि  द्वारा निकाली जाती है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

 

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

औषधीय एवं सगन्ध पौधो के उपयोग-रोग भगाये स्वस्थ बनाये

                                                                डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                  प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
                                        इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

              औषधीय एवं सगन्ध पौधो के उपयोग से सम्बंधित महतवपूर्ण जानकारी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। कृपया इनके उपयोग से पहले अपने नजदीकी चिकित्सक से परामर्श अवश्य लें। हमारे आस-पास या जंगलो में यह पौधे प्राकृतिक रूप से उगते है परन्तु हम इनके महत्व को नहीं जानते है। बहुत सी जड़ी बूटिया अब दुर्लभ  या फिर विलुप्ति के कगार पर  है। इन पौधो को पहचानिए और इनके सरंक्षण में अपना योगदान दीजिए। आजकल अनेक औषधीय एवं सगन्ध फसलों की व्यावसायिक खेती कर अधिकतम मुनाफा कमाया जा रहा है। सभी फोटो-चित्र इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) से साभार लिए गए है तथा जनहित में पुनः प्रकाशित किए जा रहे है।