डॉ गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (ससिविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
हमारे देश भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर
है जिसमें से लगभग 143 मिलियन हेक्टेयर पर खेती की जाती है जबकि लगभग 117 मिलियन हेक्टेयर
परती एवं बंजर भूमि है। भूमि
लवणता एवं क्षारीयता देश की एक प्रमुख समस्या है। आंकड़े बताते हैं कि देश की लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता एवं क्षारीयता से प्रभावित है जो कि देश की कुल
भूमि के 13% क्षेत्रफल का प्रतिनिधित्व करती है। लगभग 40%
लवणीय एवं क्षारीय भूमि का विस्तार उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा तथा पंजाब राज्यों में है जो
कि हरित क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। इन मृदाओं की ऊपरी सतह पर भूरे/सफ़ेद लवणों
की परत फैली रहती है। जल निकास का उचित प्रबन्ध न होने से वर्षा ऋतु में इन भूमियों
में पानी भर जाता है। परिणामस्वरूप अवांछित खरपतवारों,
घासों व हानिकारक झाड़ियों के फैलाव को बढ़ावा मिलता है. सूखने पर इन भूमियो की सतह बहुत कठोर हो जाती है
जिसके कारण पौधों की जड़ो का विकास व् वृद्धि नहीं हो पाती है। इस तरह की भूमियाँ छोटे किसानों के पास है जो आर्थिक रूप से पिछड़े है . लवणीय एवं क्षारीय भूमियां देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी
क्षति है क्योंकि इससे मृदा की उत्पादकता प्रभावित होती है परिणामस्वरूप लवणीय एवं
क्षारीय भूमियां बंजर या बेकार भूमि में
तब्दील हो जाती है। बढ़ती आबादी को देखते हुए लवणीय एवं क्षारीय भूमियों का
पुनरूत्थान करते हुए उनमे उन्नत फसलोत्पादन तकनीक अपनाना समय की आवश्यकता है। इस
प्रकार लवणीय व् क्षारीय भूमि सुधार कार्यक्रम से भारत के छोटे एवं मझोले किसानों की आर्थिक स्थिति में
सुधार लाया जा सकता है।
1.लवणीय भूमि
लवणीय भूमि वह भूमि होती है जिसमें घुलनशील लवणों (सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम व पो टेशियम के क्लोराइड एवं
सल्फेट आयन) की मात्रा ज्यादा होती
है जो फसलों की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करती है। लवणीय भूमि
की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज प्रति से.मी. से अधिक,
विनिमय योग्य सोडियम की मात्रा 15 प्रतिशत से कम तथा पी.एच.
मान 8.5 से कम होता है। यदि इन मृदाओं में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाए
तो अधिकांश घुलनशील लवण पानी के साथ बह जाते हैं। इन भूमियों का भू-जल स्तर यदि सीमित
गहराई से ऊपर न आए तो ये भूमियां फिर से सामान्य
बन जाती हैं। इन भूमियों में पानी का अवशोषण बहुत ही धीरे-धीरे होता है। बीजों का जमाव
भी देरी से होता है। पौधों की बढ़वार और जड़ो का विकास भी अवरुद्ध हो जाता हैण् अंततः
पौधे लवणों की अधिकता के कारण सूख जाते है।
2.क्षारीय भूमि
क्षारीय भूमियों को ऊसर भूमि भी कहा जाता है। इन भूमियों में
सोड़ियम कार्बोनेट व बाइकार्बोनेट लवणों की अधिक मात्रा पायी जाती है। भूमि की विद्युत
चालकता 4 मिलीम्होज से कम, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक व पी.एच. मान 8.5 से
अधिक होता है, जो फसलों के लिए हानिकारक साबित होता है . इन भूमियों की ऊपरी सतह पर राख व काले रंग के धब्बे
दिखाई पड़ते हैं। इन भूमियों में 40-50 से.मी. की गहराई पर सोडियम युक्त कठोर परतें
पायी जाती हैं। क्षारीय भूमियों की भौतिक दशा बहुत ही खराब होती है। इस प्रकार की भूमियों में
सोडियम लवणों की अधिकता व जलभराव होने से बोयी
गई फसलों की वृद्धि सामान्य रूप से नहीं हो
पाती है। भूमि की भौतिक व रासायनिक दशा खराब होने के कारण हमी की उपजाऊ व उर्वराशक्ति का हृास हो जाता है। इस तरह
की भूमि का निर्माण प्रायः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क व अपर्याप्त जल निकास वाले क्षेत्रो में होता है।
भूमि की लवणीयता व क्षारीयता का पौधों पर प्रभाव
भूमि की लवणीयता एवं क्षारीयता का पौधों पर
हानिकारक प्रभाव निम्नानुसार पड़ता है
1.
मृदा विलियन में विलेय लवणों का सांद्रण अधिक होने के कारण विलियन का परासरण
दबाव पौधों की जड़ों की कोशिकाओं में मिलने वाले विलियन के परासरण दाब की अपेक्षा
अधिक होता है जिसके परिणामस्वरूप पौधों की कोशिकाओं से जल जीव द्रव्य कुंचन के
बाहर निकलकर अधिक सांद्रण मृदा विलियन में प्रवेश करने लगता है. अंततः पौधों से जल
निकल जाने से वे मुरझाकर सूख जाते है।
2.
मृदा विलियन में यदि लवणों का सांद्रण 0.5 % है तो पौधों द्वारा जल का शोषण कम
हो जाता है. यदि लवण सांद्रण बढ़कर 30 % हो
जाता है तो जल अवशोषण पूरी तरह से अवरुद्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति में मृदा में
उपस्थित पोषक तत्व पौधों को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाते है जिससे
पौधे दैहिक शुष्कता से प्रभावित हो जाते है।
लवणीय व क्षारीय भूमियों का पुनरुत्थान एवं फसलोत्पादन
लवणीय व क्षारीय भूमियों की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बनाये
रखने हेतु कुछ समय तक उन्नत कृषि-क्रियाओं को अपनाना अति आवश्यक है। तभी हम इन समस्याग्रस्त
भूमियों को सुधारकर फसलोत्पादन हेतु उपयोगी बना सकते हैं। किसान भाई निम्नलिखित भूमि प्रबन्धन
एवं कृषण क्रियाओं को अपनाकर लवणीय एवं क्षारीय
भूमियों से अधिकाधिक फसलोत्पादन ले सकते हैं।
Ø भूमि सुधार के लिए सर्वप्रथम खेत को अच्छी तरह समतल करके मेड़बन्दी
करनी चाहिए। इसके लिए लेजर लैंड लेवलर का प्रयोग किया जा सकता है। जून-जुलाई में खेत
की 10 से.मी. की गहराई तक जुताई करके 10-15 दिनों तक खेत में पानी भरकर धान की रोपाई
कर देनी चाहिए। ध्यान रखें कि धान की पौध लगभग 30-35 दिन पुरानी हो जिससे पौध आसानी
से स्थापित हो सके। एक स्थान पर 3-4 पौधों की रोपाई करे । धान की कटाई के बाद गेंहूं की फसल बोनी चाहिए।
Ø खेतों की जुताई अलग-अलग गहराई पर करनीचाहिए। इसके लिए आधुनिक
कृषि यन्त्रों जैसे डिस्क प्लोऊ, सब सायलर या चीजल हल का प्रयोग 2-3 वर्षों में एक बार अवश्य
करें। जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और पानी के आवागमन में आसानी रहती है। साथ
ही पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि भी ठीक तरह से हो जाती है।
Ø मृदा में लवण अधिक होने पर फसल बुआई से पूर्व खेत में पानी भर देवें तथा उसके बाद से ऊपरी तथा निचली सतही विधि द्वारा जल निकास कर देवें जिससे घुलनशील लवण पौधों की जड़ों से दूर हो जायेंगे।
Ø उपयुक्त फसल चक्र अपनाना चाहिए। अधिक गहरी जड़ों वाली फसलों के
बाद कम गहरी जड़ों वाली फसलों को उगाना चाहिए। फसल चक्र में खाद्यान्न फसलों के साथ
दलहनी फसलों को उगाना चाहिए। परन्तु ध्यान
रहे कि प्रारम्भिक 3-4 वर्षों तक दलहनी फसल न उगाएं। उचित फसल चक्र
अपनाने से भूमि की जलधारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता को भी बढाया जा सकता
है।
Ø ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाए रखने हेतु गोबर की खाद,
कम्पोस्ट, मुर्गी खाद,
हरी खाद, फसल अवशेषों इत्यादि का समय-समय पर इस्तेमाल करते रहना चाहिए। जहां पर
शीरा या प्रेसमड उपलब्ध हो, उसका प्रयोग करें। कुछ अम्लीय प्रकृति के उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट,
सिंगल सुपर फास्फेट व अमोनियम नाइट्रेट आदि का अधिक प्रयोग करना
चाहिए ।
Ø जिन क्षेत्रों का पानी लवणीय व क्षारीय स्वभाव का हो,
वहाँ पर सिंचाई की ड्रिप अथवा फव्वारा पद्धति का प्रयोग करना
चाहिए। सिंचाई हमेशा हल्की व थोड़े अन्तराल
पर करनी चाहिए क्योंकि भूमि की ऊपरी सतह लवणता के कारण जल्दी सूख जाती है। ऐसी भूमियों
में फसलो के अन्तर्गत अन्धाधुन्ध सिंचाई नहीं करें।
Ø लवणीयता व क्षारीयता सहन करने वाली फसलों को उगाना चाहिए। इसके
साथ-साथ फसलों की लवणीय व क्षारीयरोधक किस्मों
का चयन करना चाहिए। कुछ फसलें लवणों को अल्पमात्रा में भी सहन नहीं कर पाती हैं जबकि
कुछ मध्यम वर्ग की सहनशीलता दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फसलें बहुत ही सहनशील
होती हैं जो अधिक लवणीय भूमियों में भी उग सकती हैं।
अधिक लवण सहनशील फसलें :धान, बरसीम, गन्ना,रिजका, मैंथी,जौ,शलजम,चुकंदर,कपास, ढैंचा,फलों में खजूर और फालसा।
मध्यम लवण सहनशील फसले : गेंहू, जई,मक्का, बाजरा,अरहर, गोभी, टमाटर,आलू, मटर,प्याज, लौकी,करेला और खीरा. फलों में अनार, अंजीर,अमरुद, आम, केला आदि।
न्यून लवण सहनशील फसलें : मूंग, उड़द, चना,सनई,मूली, गुआर आदि। फलों में सेव,नाशपाती,बेर, नीबू आदि।
Ø फसलों की बुवाई करते समय बीज दर सामान्य से थोड़ी ज्यादा रखें
क्योंकि लवणीय एवं क्षारीय भूमि में सामान्यतः बीजों का कम जमाव व पौधें की शुरूआती
बढ़वार कम होती हैण् बुआईध्रोपाई करते समय पंक्तिओं एवं पौधों की दूरी को सामान्य से
थोडा कम कर लेना चाहिए।
Ø जहाँ तक हो सके फसलों की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए। मेड़ें पूरब
से पश्चिम दिशा की ओर बनानी चाहिए। पौधों की बुवाई/रोपाई उत्तर दिशा में मेड़ के मध्य
मे ं करें यदि मेड़ बनाना सम्भव न हो तो बुवाई छोटी-छोटी समतल क्यारी बनाकर करें। क्यारियों
का एक किनारा सिंचाई नाली से जुड़ा हो तथा दूसरा किनारा जल निकास नाली से जुड़ा होना
चाहिए। जिससे आवश्यकता से अधिक पानी खेत से जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाला जा सके।
मेड़ों पर बुवाई करने से पौधों की जड़े कम से कम हानिकारक लवणों के सम्पर्क मे आती हैं।
Ø फसलों में नाइट्रोजन की मात्रा को सामान्य मृदा से 20 प्रतिशत अधिक देना
चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर देनी चाहिए। इसके अलावा
25 कि.ग्रा.जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन
की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करनी चाहिए।
नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा को दो बराबर भागों में खड़ी फसल में पौधों मे फूल आने से पूर्व देना चाहिए।
Øलवणीय मृदाओं में हमेशा फसल उगाते रहना चाहिए और खेत को कभी खाली नहीं रखना चाहिए तथा फसल चक्र में ऐसी फसलों को सम्मलित करना चाहिए जो लवण सहिष्णु हो जैसे धान -जौ, ढैंचा (हरी खाद), ढैंचा-गेंहू, कपास-रिजका,आलू,मक्का आदि।
Ø क्षारीय भूमि में जिप्सम प्रयोग के बाद हरी खाद के रूप में ढैंचा की फसल उगाना अच्छा रहता है। चीनी मिल से प्राप्त शीरा को क्षेत में बुआई से 5-6 सप्ताह पूर्व मिलाकर सिंचाई कर डंडे से क्षारीय भूमि में सुधार होता है। चीनी मिल के प्रेसमड लगभग 12. 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालने पर क्षारीय भूमि में सुधार होता है। इसे बुआई से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई के साथ प्रयोग करना लाभकारी होता है।
Ø क्षारीय भूमियो के सुधार हेतु धान का भूषा 12-15 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग भी लाभदायक होता है। ऐसी भूमियों में मध्यम सहनशील फसलें जैसे जौ,गेंहू,बरसीम, गन्ना,कपास आदि उगानी चाहिए।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।