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सोमवार, 4 जून 2018

लवणीय एवं क्षारीय भूमियों के पुनरूत्थान एवं फसलोत्पादन हेतु उन्नत सस्य विधियाँ


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (ससिविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

                हमारे देश भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से लगभग 143 मिलियन हेक्टेयर पर खेती की जाती है जबकि लगभग 117 मिलियन हेक्टेयर परती एवं बंजर भूमि है। भूमि लवणता एवं क्षारीयता देश की एक प्रमुख समस्या है। आंकड़े बताते हैं कि देश की लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता  एवं क्षारीयता से प्रभावित है जो कि देश की कुल भूमि के 13% क्षेत्रफल का प्रतिनिधित्व करती है। लगभग 40% लवणीय एवं क्षारीय भूमि का विस्तार उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा तथा पंजाब राज्यों में है जो कि हरित क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। इन मृदाओं की ऊपरी सतह पर भूरे/सफ़ेद  लवणों की परत फैली रहती है। जल निकास का उचित प्रबन्ध न होने से वर्षा ऋतु में इन भूमियों में पानी भर जाता है। परिणामस्वरूप अवांछित खरपतवारों, घासों व हानिकारक झाड़ियों के फैलाव को बढ़ावा मिलता है.  सूखने पर इन भूमियो की सतह बहुत कठोर हो जाती है  जिसके कारण  पौधों की जड़ो का विकास व् वृद्धि नहीं हो पाती है। इस तरह की भूमियाँ छोटे किसानों के पास है जो आर्थिक रूप से पिछड़े है . लवणीय एवं क्षारीय भूमियां देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी क्षति है क्योंकि इससे मृदा की उत्पादकता प्रभावित होती है परिणामस्वरूप लवणीय एवं क्षारीय भूमियां बंजर या बेकार भूमि  में तब्दील हो जाती है। बढ़ती आबादी को देखते हुए लवणीय एवं क्षारीय भूमियों का पुनरूत्थान करते हुए उनमे उन्नत फसलोत्पादन तकनीक अपनाना समय की आवश्यकता है। इस प्रकार लवणीय व् क्षारीय भूमि सुधार कार्यक्रम से भारत के  छोटे एवं मझोले किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। 

1.लवणीय भूमि

लवणीय भूमि वह भूमि होती है जिसमें घुलनशील लवणों (सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम व  पो टेशियम के क्लोराइड एवं सल्फेट आयन) की मात्रा ज्यादा होती है जो फसलों की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करती है। लवणीय भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज प्रति से.मी. से अधिक, विनिमय योग्य सोडियम की मात्रा 15 प्रतिशत से कम तथा पी.एच. मान 8.5 से कम होता है। यदि इन मृदाओं में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाए तो अधिकांश घुलनशील लवण पानी के साथ बह जाते हैं। इन भूमियों का भू-जल स्तर यदि सीमित गहराई से ऊपर न आए तो ये भूमियां फिर से  सामान्य बन जाती हैं। इन भूमियों में पानी का अवशोषण बहुत ही धीरे-धीरे होता है। बीजों का जमाव भी देरी से होता है। पौधों की बढ़वार और जड़ो का विकास भी अवरुद्ध हो जाता हैण् अंततः पौधे लवणों की अधिकता के कारण सूख जाते है। 

2.क्षारीय भूमि

क्षारीय भूमियों को ऊसर भूमि भी कहा जाता है। इन भूमियों में सोड़ियम कार्बोनेट व बाइकार्बोनेट लवणों की अधिक मात्रा पायी जाती है। भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज से कम, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक व पी.एच. मान 8.5 से अधिक होता है, जो फसलों के लिए हानिकारक साबित होता है .  इन भूमियों की ऊपरी सतह पर राख व काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इन भूमियों में 40-50 से.मी. की गहराई पर सोडियम युक्त कठोर परतें पायी जाती हैं। क्षारीय भूमियों की भौतिक दशा  बहुत ही खराब होती है। इस प्रकार की भूमियों में सोडियम लवणों की अधिकता व जलभराव होने से  बोयी गई फसलों  की वृद्धि सामान्य रूप से नहीं हो पाती है। भूमि की भौतिक व रासायनिक दशा खराब होने के कारण हमी की  उपजाऊ व उर्वराशक्ति का हृास हो जाता है। इस तरह की भूमि का निर्माण प्रायः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क व अपर्याप्त जल निकास वाले क्षेत्रो  में होता है।

भूमि की लवणीयता  व क्षारीयता का पौधों पर प्रभाव

  भूमि की लवणीयता एवं क्षारीयता का पौधों पर हानिकारक प्रभाव निम्नानुसार पड़ता है
1.   मृदा विलियन में विलेय लवणों का सांद्रण अधिक होने के कारण विलियन का परासरण दबाव पौधों की जड़ों की कोशिकाओं में मिलने वाले विलियन के परासरण दाब की अपेक्षा अधिक होता है जिसके परिणामस्वरूप पौधों की कोशिकाओं से जल जीव द्रव्य कुंचन के बाहर निकलकर अधिक सांद्रण मृदा विलियन में प्रवेश करने लगता है. अंततः पौधों से जल निकल जाने से वे मुरझाकर सूख जाते है। 
2.   मृदा विलियन में यदि लवणों का सांद्रण 0.5 % है तो पौधों द्वारा जल का शोषण कम हो जाता है. यदि लवण  सांद्रण बढ़कर 30 % हो जाता है तो जल अवशोषण पूरी तरह से अवरुद्ध हो जाता है।  ऐसी स्थिति में मृदा में उपस्थित पोषक तत्व पौधों को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाते है जिससे पौधे दैहिक शुष्कता से प्रभावित हो जाते है।   

लवणीय व क्षारीय भूमियों का पुनरुत्थान एवं फसलोत्पादन

लवणीय व क्षारीय भूमियों की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बनाये रखने हेतु कुछ समय तक उन्नत कृषि-क्रियाओं को अपनाना अति आवश्यक है। तभी हम इन समस्याग्रस्त भूमियों को सुधारकर फसलोत्पादन हेतु उपयोगी बना सकते हैं। किसान भाई निम्नलिखित भूमि प्रबन्धन एवं कृषण क्रियाओं  को अपनाकर लवणीय एवं क्षारीय भूमियों से अधिकाधिक फसलोत्पादन ले सकते हैं।
Ø भूमि सुधार के लिए सर्वप्रथम खेत को अच्छी तरह समतल करके मेड़बन्दी करनी चाहिए। इसके लिए लेजर लैंड लेवलर का प्रयोग किया जा सकता है। जून-जुलाई में खेत की 10 से.मी. की गहराई तक जुताई करके 10-15 दिनों तक खेत में पानी भरकर धान की रोपाई कर देनी चाहिए। ध्यान रखें कि धान की पौध लगभग 30-35 दिन पुरानी हो जिससे पौध आसानी से स्थापित हो सके। एक स्थान पर 3-4 पौधों की रोपाई करे । धान की कटाई के  बाद गेंहूं की फसल बोनी चाहिए।
Ø खेतों की जुताई अलग-अलग गहराई पर करनीचाहिए। इसके लिए आधुनिक कृषि यन्त्रों जैसे डिस्क प्लोऊ, सब सायलर या चीजल हल का प्रयोग 2-3 वर्षों में एक बार अवश्य करें। जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और पानी के आवागमन में आसानी रहती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि भी ठीक तरह से हो जाती है। 
Ø मृदा में लवण अधिक होने पर फसल बुआई से पूर्व खेत में पानी भर देवें तथा उसके बाद से ऊपरी तथा निचली सतही विधि द्वारा जल निकास कर देवें जिससे घुलनशील लवण पौधों की जड़ों से दूर हो जायेंगे। 
Ø उपयुक्त फसल चक्र अपनाना चाहिए। अधिक गहरी जड़ों वाली फसलों के बाद कम गहरी जड़ों वाली फसलों को उगाना चाहिए। फसल चक्र में खाद्यान्न फसलों के साथ दलहनी फसलों को  उगाना चाहिए। परन्तु ध्यान रहे  कि प्रारम्भिक  3-4 वर्षों तक दलहनी फसल न उगाएं। उचित फसल चक्र अपनाने से भूमि की जलधारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता को भी बढाया जा सकता है। 
Ø ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाए रखने हेतु गोबर की खाद, कम्पोस्ट, मुर्गी  खाद, हरी खाद, फसल अवशेषों इत्यादि का समय-समय  पर इस्तेमाल  करते रहना चाहिए। जहां पर शीरा या प्रेसमड उपलब्ध हो, उसका प्रयोग करें। कुछ  अम्लीय प्रकृति के  उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट व अमोनियम नाइट्रेट आदि का अधिक प्रयोग करना चाहिए ।
Ø जिन क्षेत्रों का पानी लवणीय व क्षारीय स्वभाव का हो, वहाँ पर सिंचाई की ड्रिप अथवा फव्वारा पद्धति का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई हमेशा  हल्की व थोड़े अन्तराल पर करनी चाहिए क्योंकि भूमि की ऊपरी सतह लवणता के कारण जल्दी सूख जाती है। ऐसी भूमियों में फसलो  के अन्तर्गत अन्धाधुन्ध सिंचाई  नहीं करें। 
Ø लवणीयता व क्षारीयता सहन करने वाली फसलों को उगाना चाहिए।  इसके  साथ-साथ फसलों की लवणीय व क्षारीयरोधक किस्मों का चयन करना चाहिए। कुछ फसलें लवणों को अल्पमात्रा में भी सहन नहीं कर पाती हैं जबकि कुछ मध्यम वर्ग की सहनशीलता दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फसलें बहुत ही सहनशील होती हैं जो अधिक लवणीय भूमियों में भी उग सकती हैं।
   अधिक लवण सहनशील फसलें :धान, बरसीम, गन्ना,रिजका, मैंथी,जौ,शलजम,चुकंदर,कपास, ढैंचा,फलों में खजूर और फालसा।
  मध्यम लवण सहनशील फसले : गेंहू, जई,मक्का, बाजरा,अरहर, गोभी, टमाटर,आलू, मटर,प्याज, लौकी,करेला और खीरा. फलों में अनार, अंजीर,अमरुद, आम, केला आदि। 
  न्यून लवण सहनशील फसलें : मूंग, उड़द, चना,सनई,मूली, गुआर आदि। फलों में सेव,नाशपाती,बेर, नीबू आदि। 
Ø फसलों की बुवाई करते समय बीज दर सामान्य से थोड़ी ज्यादा रखें क्योंकि लवणीय एवं क्षारीय भूमि में सामान्यतः बीजों का कम जमाव व पौधें की शुरूआती बढ़वार कम होती हैण् बुआईध्रोपाई करते समय पंक्तिओं एवं पौधों की दूरी को सामान्य से थोडा कम कर लेना चाहिए। 
Ø जहाँ तक हो सके फसलों की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए। मेड़ें पूरब से पश्चिम दिशा की ओर बनानी चाहिए। पौधों की बुवाई/रोपाई उत्तर दिशा में मेड़ के मध्य मे ं करें यदि मेड़ बनाना सम्भव न हो तो बुवाई छोटी-छोटी समतल क्यारी बनाकर करें। क्यारियों का एक किनारा सिंचाई नाली से जुड़ा हो तथा दूसरा किनारा जल निकास नाली से जुड़ा होना चाहिए। जिससे आवश्यकता से अधिक पानी खेत से जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाला जा सके। मेड़ों पर बुवाई करने से पौधों की जड़े कम से कम हानिकारक लवणों के सम्पर्क मे आती हैं।
Ø फसलों में नाइट्रोजन  की मात्रा को सामान्य मृदा से 20 प्रतिशत अधिक देना चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर देनी चाहिए। इसके अलावा 25 कि.ग्रा.जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा को दो बराबर भागों में खड़ी फसल में पौधों मे  फूल आने से पूर्व  देना चाहिए। 
Øलवणीय मृदाओं  में  हमेशा फसल  उगाते रहना चाहिए और खेत को कभी खाली नहीं रखना चाहिए तथा फसल चक्र में ऐसी फसलों को सम्मलित करना चाहिए जो लवण सहिष्णु हो जैसे धान -जौ, ढैंचा (हरी खाद), ढैंचा-गेंहू, कपास-रिजका,आलू,मक्का आदि। 
Ø क्षारीय भूमि में जिप्सम प्रयोग के बाद हरी खाद के रूप में ढैंचा की फसल उगाना अच्छा रहता है। चीनी मिल से प्राप्त शीरा को क्षेत में बुआई से 5-6 सप्ताह पूर्व मिलाकर सिंचाई कर डंडे से क्षारीय भूमि में सुधार होता है। चीनी मिल के प्रेसमड  लगभग 12. 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालने पर क्षारीय भूमि में सुधार होता है। इसे बुआई से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई के साथ प्रयोग करना लाभकारी होता है। 
Ø क्षारीय भूमियो के सुधार हेतु धान का भूषा 12-15 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग भी लाभदायक होता है। ऐसी भूमियों में मध्यम सहनशील फसलें जैसे जौ,गेंहू,बरसीम, गन्ना,कपास आदि उगानी चाहिए। 

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शनिवार, 2 जून 2018

छत्तीसगढ़ की विभिन्न भू-परिस्थितियों के अनुसार धान की उन्नत किस्में

प्रस्तुति डॉ गजेंद्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषि महाविद्यालय, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

                 हमारे देश की खाद्यान्न फसलों में धान का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन काल से लेकर ५० के दशक तक  धान की देशी किस्मों खेती प्रचलन में थी जिससे बहुत कम  उत्पादन होता था. भारत में आई हरित क्रांति के फलस्वरूप धान की अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का उपयोग होने लगा जिससे देश में धान उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई. हरित क्रांति के ५ दशक बाद भी भारत के अनेक धान उत्पादक राज्यों में धान  की औसत उपज निराशाजनक स्तर पर बनी हुई है। आप भी ६०-७० प्रतिशत किसान धान की देशी किस्मों का उपयोग कर रहे  है जिनसे उन्हें बहुत कम उपज प्राप्त हो रही है. वास्तव में धान उत्पादन और उपज में तभी बढ़ोत्तरी होगी जब किसानों को उनकी भूमि एवं जलवायु के अनुसार नई-नई उन्नत किस्मों के बीज पर्याप्त मात्रा में और सही समय पर सुलभ हो। उन्नत किस्मों के बीज समय पर उपलब्ध न होने के कारण किसान स्वयं की फसल का बीज उपयोग करने विवश रहते है जिससे उन्हें बांक्षित उत्पादन नहीं मिल पाता है। यह सर्विदित है कि उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज प्रयोग करने से फसलोत्पादन में २० % से अधिक इजाफा होता है।  इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर द्वारा छत्तीसगढ़ प्रदेश की विभिन्न भू-जलवायविक परिस्थितिओं के अनुसार  धान की विभिन्न किस्में विकसित/अनुसंशित की है. अपने क्षेत्र की  जलवायु के अनुसार प्रदेश के किसानों को इनके उन्नत बीज का इस्तेमाल करना चाहिए।   धान की १० वर्ष या इससे अधिक समय से प्रचलित/लोकप्रिय किस्मे की प्रमुख विशेषताएं अग्र प्रस्तुत है. 

 असिंचित उच्च भूमि (अप-लैण्ड) हेतु अनुसंषित  धान  की प्रमुख किस्में और उनके गुणधर्म 

10 वर्ष तक की उम्र वाली किस्में

असिंचित- उच्च भूमि                    
1.सम्लेश्वरी : फसल अवधि  105-112 दिन, उपज क्षमता -30-40 क्विंटल/हेक्टर . यह शीघ तैयार होने वाली किस्म है जिसका पौधा  अर्ध बौना एवं दाना मध्यम पतला, गंगई निरोधक एवं झुलसा रोग हेतु सहनशील, ग्रीष्मकालीन खेती  एवं  सीधे बुवाई हेतु उपयुक्त. सूखा सहनशील किस्म है.
2.इंदिरा बारानी धन-1 : 111-115 एवं उपज क्षमता         30-40  मध्यम पतला दाना, बारानी खेती में उथली निचली भूमि हेतु उपयुक्त, सूखा के प्रति मध्यम सहनशील, तनाछेदक, ब्लाइट हेतु सहनशील
3 .सहभागी धान: फसल अवधि एवं 110-112 दिन एवं उपज क्षमता-30-40 लीफ ब्लास्ट के लिये रोगरोधिता

10 वर्ष से अधिक उम्र वाली किस्में

असिंचित- उच्च भूमि        
1.कलिंगा-3: फसल अवधि 80-90 दिन एवं उपज क्षमता-    25-30 क्विंटल/हेक्टर       अति हरूना, मध्यम ऊँचा
2.आदित्य: फसल अवधि 85-95दिन एवं उपज क्षमता 25-30 क्विंटल/हेक्टर है     अति शीघ्र तैयार होने वाली किस्म है जिसके पौधे अर्ध बौने  होते है।  यह ब्लास्ट प्रतिरोधी किस्म है
3. अन्नदा: फसल अवधि 100-110 दिन एवं उपज क्षमता -30-35 क्विंटल/हेक्टर . शीघ्र तैयार होने वाली, अर्ध बौनी तथा सूखा रोधी  किस्म है जिसका दाना मोटाहोता है। 
4. दन्तेश्वरी :100-105 दिन एवं उपज क्षमता         30-35 क्विंटल/हेक्टर,      हरुना, अर्ध बौना, लम्बा पतला दाना, गंगई निरोधक, ग्रीष्मकालीन खेती हेतु उपयुक्त
5. पूर्णिमा: फसल अवधि 100-105 एवं उपज क्षमता   30-35 क्विंटल/हेक्टर . हरुना, अर्ध बौना, लम्बा पतला दाना, सूखा सहनशील

असिंचित मध्यम से भारी भूमि (मिड-लैण्ड) हेतु अनुषंसित किस्में और उनके गुण

10 वर्ष तक की उम्र वाली किस्में

असिंचित- निचली भूमि
1.इंदिरा बारानी धान-1: फसल अवधि 111-115  35-45 क्विंटल/हेक्टर,  मध्यम पतला दाना, बारानी खेती में उथली
मध्य भूमि हेतु उपयुक्त, सूखा के प्रति मध्यम सहनशील, तनाछेदक, ब्लाइट हेतु सहनशील
2.सम्लेश्वरी : फसल अवधि 105-112  35-45 क्विंटल/हेक्टर,      हरुना, अर्ध बौना, मध्यम पतला दाना, गंगई निरोधक एवं झुलसा रोग एवं सूखा हेतु सहनशील, ग्रीष्मकालीन खेती सीधे बुवाई हेतु उपयुक्त 
3. आई.आर.- 64: फसल अवधि 115-120 दिन एवं 40-45 क्विंटल/हेक्टर,  बौना, लम्बा पतला दाना, सूखा निरोधक
4. चन्द्रहासिनी: फसल अवधि 120-125 दिन एवं   40-45 क्विंटल/हेक्टर,      अर्ध बौनी, लम्बा पतला दाना, गंगई निरोधक एवं भूरा माहो सहनशील, निर्यात हेतु उपयुक्त
5. इंदिरा एरोबिक-1: फसल अवधि 115-120 दिन तथा उपज क्षमता 45-50 क्विंटल/हेक्टर, एरोबिक अवस्था हेतु अनुशंसित (आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई), नेक ब्लास्ट तथा पर्ण सड़न हेतु प्रतिरोधी
६.कर्मा मासुरी:   फसल अवधि 125-130 दिन एवं 45-50 क्विंटल/हेक्टर  अर्ध बौनी, मध्यम पतला दाना, खाने में उपयुक्त, गंगई निरोधक एवं झुलसा रोग सहनशील
७.आईजीकेव्ही आर.-1(इंदिरा राजेश्वरी):  फसल अवधि 120-125  एवं 45-50 क्विंटल/हेक्टर, अर्ध बौनी, लम्बा-मोटा दाना, पोहा एवं मुरमुरा के लिये उपयुक्त, लीफ ब्लास्ट, गंगई, भूरा धब्बा हेतु मध्यम निरोधकता
८.आईजीकेव्ही आर.-2 (दुर्गेश्वरी):  फसल अवधि 130-135 एवं        45-50 क्विंटल/हेक्टर,      लम्बा-पतला दाना, झुलसा रोग हेतु निरोधकता, शीथ ब्लाइट एवं शीथ राॅट हेतु मध्यम निरोधकता, खाने में उपयुक्त
९.आईजीकेव्हीआर. 1244 (महेश्वरी):  फसल अवधि 130-135 दिन एवं  45-50 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,         लम्बा-पतला दाना, शीथ ब्लाइट एवं गंगई हेतु निरोधकता,भूरा माहो एवं तनाछेदक हेतु सहनशीलता खाने में उपयुक्त

10 वर्ष से अधिक उम्र वाली किस्में

असिंचित- मध्य भूमि      
1.आई.आर. 36: फसल अवधि 115-120  दिन एवं उपज क्षमता 40-45 क्विंटल/हेक्टर            बौनी, लम्बा पतला दाना, गंगई, ब्लास्ट, ब्लाइट के प्रतिसहनशील
2.आई.आर. 64: फसल अवधि 115-120  40-45  बौनी, लम्बा पतला दाना, झुलसन एवं झुलसा रोग के प्रति सहनशील
३.क्रान्ति: फसल अवधि 125-130 दिन एवं 45-50 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,           बौनी, मोटा दाना, सूखा सहनशील, पोहा हेतु उपयुक्त, उच्च उपज क्षमता
४.महामाया:      फसल अवधि 125-128 दिन एवं 45-55 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, बौनी, मोटा दाना, पोहा हेतु उपयुक्त, गंगई निरोधक, उच्च उपज क्षमता
५.एम.टी.यू. 1010:        फसल अवधि 112-115  दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,            अर्ध बौना, लम्बा पतला दाना

असिंचित निचली भूमि (लो-लैण्ड) हेतु अनुषंसित किस्में और उनके गुण

10 वर्ष तक की उम्र वाली किस्में

१. चन्द्रहासिनी:      फसल अवधि 120-125  दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,  अर्ध बौनी, लम्बा पतला दाना, गंगई निरोधक एवं भूरा माहो सहनशील, निर्यात हेतु उपयुक्त
२. कर्मा मासुरी:   फसल अवधि 125-130 दिन एवं 45-50 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, अर्ध बौनी, मध्यम पतला दाना, खाने में उपयुक्त, गंगई निरोधक एवं झुलसा रोग हेतु सहनशील
३.आईजीकेव्ही आर.-1    (इंदिरा राजेश्वरी): फसल अवधि 120-125 दिन  एवं 52-57  क्विंटल दाना उपज /हेक्टर , अर्ध बौनी, लम्बा-मोटा दाना, पोहा एवं मुरमुरा के लिये उपयुक्त, लीफ ब्लास्ट, गंगई, भूरा धब्बा हेतु मध्यम निरोधकता वाली किस्म है
४.आईजीकेव्ही   (दुर्गेश्वरी) : फसल अवधि 130-135 दिन एवं         50-55 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,लम्बा-पतला दाना, झुलसा रोग हेतु निरोधकता, शीथ ब्लाइट एवं शीथ राॅट हेतु मध्यम निरोधकता, खाने में उपयुक्त
५.आईजीकेव्हीआर. 1244 (महेश्वरी): फसल अवधि 130-135 दिन एवं 50-55 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, लम्बा-पतला दाना, शीथ ब्लाइट एवं गंगई हेतु निरोधकता, भूरा माहो एवं तनाछेदक हेतु सहनशीलता खाने में उपयुक्त
६. एन.डी.आर. (नरेन्द्र धान)-8002:  फसल अवधि 135-140 दिन एवं 50-55 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर लीफ ब्लास्ट के लिये प्रतिरोधी किस्म है। 
७. जलदूबी : फसल अवधि 135-140 दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,ऊँची, मध्यम पतला दाना, गंगई एवं झुलसा रोग हेतु निरोधक किस्म है
८. स्वर्णा सब-1: फसल अवधि 140-150 दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,        सभी गुण स्वर्णा के समान, स्वर्णा के अलावा पानी से डूबने की स्थिति में भी सहन करने की क्षमता रखती है
९. उन्नत सांबा मासुरी: फसल अवधि 135-140 दिन एवं  40-45  क्विंटल दाना उपज /हेक्टर , अर्ध बौनी, मध्यम-पतला दाना, झुलसन रोग निरोधक किस्म है
१०. इंदिरा सुगंधित धान-1:    फसल अवधि 125-130 दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,मध्यम पतला दाना, सुगंधित गंगई निरोधक, सूखा सहनशील किस्म है। 
११. सम्पदा: फसल अवधि 135-140  दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, अर्धबौना, झुलसा हेतु निरोधक

10 वर्ष से अधिक उम्र वाली किस्में

अभया:  फसल अवधि 120-125 दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, बौनी, गंगई (बायो टाइप 1 एवं 4 के लिये प्रतिरोधी),ब्लास्ट प्रतिरोधी, लम्बा- बारीक दाना
क्रान्ति:  फसल अवधि 125-130  एवं 45-50 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,       बौनी, पोहा एवं मुरमुरा हेतु उपयुक्त, मोटा दाना, सूखा रोधी
महामाया:          फसल अवधि 125-128  दिन एवं 45-55 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,           उपरोक्त समान एवं गंगई प्रतिरोधी
स्वर्णा: फसल अवधि 140-150  दिन एवं 40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, बौनी, मध्यम-पतला दाना एवं उच्च उपज क्षमता
एम.टी.यू.- 1001: फसल अवधि   130-135 दिन एवं         40-45 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर, मोटा दाना, अर्ध बौना
बम्लेश्वरी:          फसल अवधि 130-135 दिन एवं 45-55 क्विंटल दाना उपज /हेक्टर,झुलसन रोग पर्ण प्रतिरोधिता, भूरा धब्बा हेतु सहनशील

सिंचित भूमि हेतु अनुषंसित किस्में और उनके गुण

10 वर्ष तक की उम्र वाली किस्में

समलेश्वरी: फसल अवधि  105-112 दिन एवं  45-55        अर्ध बौनी, लम्बा मोटा दाना पोहा एवं मुरमुरा हेतु उपयुक्त, जीवाणुजनित झुलसा रोग निरोधक
चन्द्रहासिनी:      फसल अवधि  120-125 दिन एवं 45-50 अर्ध बौनी, लम्बा पतला दाना, गंगई निरोधक एवं भूरा माहो सहनशील, निर्यात हेतु उपयुक्त
कर्मा मासुरी:      फसल अवधि 125-130 दिन एवं 50-55  अर्ध बौनी, मध्यम पतला दाना, खाने में उपयुक्त, गंगई निरोधक एवं झुलसा रोग हेतु सहनशील
आईजीकेव्ही आर.-1(इंदिरा राजेश्वरी): फसल अवधि  120-125 दिन तथा    55-60  अर्ध बौनी, लम्बा-मोटा दाना, पोहा एवं मुरमुरा के लिये  उपयुक्त, लीफ ब्लास्ट, गंगई, भूरा धब्बा हेतु मध्यम निरोधकता
आईजीकेव्ही आर.-2(दुर्गेश्वरी):    फसल अवधि 130-135 दिन एवं 55-60  लम्बा-पतला दाना, झुलसा रोग हेतु निरोधकता, शीथ ब्लाइट एवं शीथ राॅट हेतु मध्यम निरोधकता, खाने में उपयुक्त
आईजीकेव्हीआर. 1244 (महेश्वरी):          फसल अवधि 130-135 दिन एवं 55-60  लम्बा-पतला दाना, शीथ ब्लाइट एवं गंगई हेतु निरोधकता, भूरा माहो एवं तनाछेदक हेतु सहनशीलता खाने में उपयुक्त
इंदिरा सुगंधित धान-1:    फसल अवधि 125-130 दिन एवं 40-45  मध्यम पतला दाना, सुगंधित गंगई निरोधक, सूखा सहनशील
एन.डी.आर. (नरेन्द्र धान)-8002:  फसल अवधि 135-140 दिन एवं 55-60  लीफ ब्लास्ट के लिये प्रतिरोधी
जलदूबी : फसल अवधि  135-140 दिन एवं          40-45  ऊँची, मध्यम पतला दाना, गंगई एवं झुलसा रोग  हेतु निरोधक
स्वर्णा सब-1:     फसल अवधि 140-150 दिन एवं 50-55  सभी गुण स्वर्णा के समान, स्वर्णा के अलावा पानी से डूबने की स्थिति में भी सहन करने की क्षमता
उन्नत सांबा मासुरी: यह किस्म 135-140 दिनमें तैयार होकर  40-45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाना उपज देती है. इसके पौधे अर्ध बौने , मध्यम-पतला दाना, झुलसन रोग निरोधक किस्म है
पी.के.व्ही. एच.एम.टी.:   फसल अवधि 130-135 दिन  तथा            40-45  अर्ध बौना, पतला दाना
            इसके अलावा सम्पदा, सी.आर. सुगंधित धान-907, सी.एन.आर.-2, एन.पी.-124-8 एवं रिचा जाति भी अनुशंसित की गई है।
10 वर्ष से अधिक उम्र वाली किस्में 
१. आई.आर. 36:    फसल अवधि  115-120 दिन तथा            45-50  बौनी, लम्बा पतला दाना, गंगई, ब्लास्ट, ब्लाइट के प्रति सहनशील
२. आई.आर. 64:    फसल अवधि 115-120 दिन  एवं             45-50  बौनी, लम्बा पतला दाना, झुलसन एवं झुलसा रोग के प्रति सहनशील
३. बम्लेश्वरी:          फसल अवधि 130-135 दिन एवं 55-60  जीवाणुजनित झुलसा रोग प्रतिरोधी
४. महामाया:          फसल अवधि 125-128 दिन एवं 45-55  उपरोक्त समान एवं गंगई प्रतिरोधी
५. एम.टी.यू. 1010: फसल अवधि    112-115 दिन एवं         45-50  अर्ध बौना, लम्बा पतला दाना
६. एम.टी.यू. 1001:           फसल अवधि 130-135 दिन एवं 55-60  मोटा दाना, अर्ध बौना
७. स्वर्णा : फसल अवधि 140-150 दिन एवं 50-55  बौनी, मध्यम-पतला दाना एवं उच्च उपज क्षमता

 विशेष परिस्थितियों के लिये धान की उपयुक्त किस्में

1.गंगई प्रभावित क्षेत्र:     सम्लेश्वरी, कर्मा मासुरी, चन्द्रहासिनी, जलदूबी, आई.जी.के.व्ही. आर.-1 (राजेश्वरी), आई.जी.के.व्ही. आर.-2 (दुर्गेश्वरी), आई.जी.के.व्ही. आर.-1244 (महेश्वरी), महामाया, दन्तेश्वरी
2.ब्लास्ट प्रभावित क्षेत्र:आई.आर.-64, चन्द्रहासिनी, कर्मा मासुरी, आई.जी.के.व्ही. आर.-2 (दुर्गेश्वरी), आई.जी.के.व्ही. आर.-1244 (महेश्वरी)
3.जीवाणुजनित झुलसा प्रभावित क्षेत्र:          बम्लेश्वरी
4.करगा प्रभावित क्षेत्र:       आई.जी.के.व्ही. आर.-1 (राजेश्वरी), महामाया, श्यामला
5.जल निकास  की समस्या वाला बहरा क्षेत्र:  स्वर्णा सब-1, जलदूबी, बम्लेश्वरी

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