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रविवार, 2 अप्रैल 2017

पौष्टिक हरे चारे के लिए आदर्श फसल है लोबिया

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
          लोबिया या बरबटी (विगना साइनेनसिस) लेग्यूमिनोसी कुल की दलहनी फसल है जिसकी खेती मुख्यतः सब्जी, दाल और चारे के लिए की जाती है। खरीफ में इसे ज्वार, बाजरा या मक्का फसल के साथ अंतः फसल के रूप में उगाया जाता है।  यह   सिंचित क्षेत्रों में  गर्मी मे बोई जाने वाली चारे की महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। असिंचित स्थानों मे इसे वर्षा ऋतु मे बोया जाता है। फसल चक्र में लोबिया का महत्वपूर्ण स्थान है क्योकि इससे कम अवधि में उच्चकोटि का हरा चारा प्राप्त होता है, साथ ही दलहनी फसल होने के कारण यह भूमि की उर्वरता भी बढ़ाती हे। इसके हरे चारे को अच्छे गुणो वाली हे एवं साइलेज के रूप मे संरक्षित किया जा सकता हे। लोबिया के चारे मे 14-20 प्रतिशत प्रोटीन, 8-12 प्रतिशत पाच्य प्रोटीन एवं 60-65 प्रतिशत कुल पचनीय पोषक तत्व पाये जाते हैं। इसे जुआर, बाजरा और मक्का के साथ मिलाकर मवेशियो को खिलाना फायदेमंद पाया गया है । लोबिया से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने के लिए आधुनिक शस्य विधियाँ इस ब्लॉग में प्रस्तुत है
जलवायु एवं भूमि
          लोबिया ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में उगाई जाने वाली फसल है। इसकी जलवायु सम्बन्धी आवश्यकताएँ मक्का और ज्वार जैसी हैं। मक्का की अपेक्षा सूखा और गर्मी सहन करने की क्षमता लोबिया में अधिक है। इसके बीज 14 से 15 से नीचे तापक्रम पर अंकुरित नहीं हो पाते हैं। पाले एवं कम तापक्रम का वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उचित जलनिकास वाली दोमट, चिकनी दोमट और काली मिट्टी मे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है परन्तु बलुई दोमट या दोमट मिट्टी काफी उपयुक्त पायी जाती है।
खेत की तैयारी
          लोबिया के लिए खेत की बहुत तैयारी नहीं करनी चाहिए है। खेत की दो या तीन जुताई करना पर्याप्त होती है। इसके लिए भूमि की ऊपरी सतह तैयार करनी चाहिए।
उन्नत किस्में
          चारे वाली लोबिया की उपयुक्त प्रमुख किस्मों की विशेषताएँ निम्नानुसार हैं -
1. रसियन जाइन्ट: यह फैलने वाली किस्म है। तना लम्बा एवं पत्तियाँ बड़ी होती हैं। शुद्ध फसल के लिए उपयुक्त है। औसतन 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चार प्राप्त होता है।
2. यू.पी.सी. 5286: यह सिंचित और असिंचित अवस्थाओ में खरीफ एव जायद ऋतुओ मे उगाने के लिए आदर्श किस्म है। इसकी फसल अवधि 140-150 दिन है, फलियाँ चटकती नहीं हैं। इसकी कटाई 50 प्रतिशत पुष्पावस्था में करने पर औसतन 350-380 क्विंटल/हे. हरा चारा देती है।
3. यू.पी.सी.5287: यह किस्म बोने के लगभग 55-65 दिन बाद फूल तथा फलियाॅं बननेकी अवस्था में पहुंच जाती है। हरे चारे की औसत उपज 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
4. सी.26: पीला मोजैक निरोधक किस्म ग्रीष्म ऋतु के लिए उपयुक्त है। हरे चारे की औसत उपज 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है
5. ई.सी. 4216: यह मध्यम समय मे पकने वाली किस्म है। उपज 350 क्विं/हे. हरा चारा।
6. यू.पी.सी. 9020: यह अगेती (60-65) किस्म है। हरे चारे की उपज 400 क्विं/हे.।
7. एच.एफ.सी. 42-1: यह किस्म मिश्रित फसल के रूप में उगाने के लिए अधिक उपयुक्त है। शुद्ध फसल से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा मिलता है।
8. बुन्देल लोबिया - 1: कीट एवं रोग प्रतिरोधी  इस किस्म  से हरे चारे की उपज 250-320 क्विं/हे. प्राप्त हो सकती है ।
9. बुन्देल लोबिया - 2: यह लीफ मोजैक वाइरस प्रतिरोधी किस्म है। औसतन 220-350 क्विं/हे. हरा चारा देती है।
          इनके अलावा इगफ्री एस-450 व इगफ्र एस-457 (बीज के लिए भी उपयुक्त) तथा चारे के लिए इगफ्री ए-978, सिरसा-10, जवाहर लोबिया-1, जवाहर लोबिया-2 किस्में भी लगाई जा सकती है।
बीज एवं बोआई
          सामान्य रूप से असिंचित क्षेत्रों में इसे वर्षा के प्रारंभ में बोया जाता हैं और सिचिंत क्षेत्रो में इसे मार्च से जून के बीच मे बोया जा सकता है। बोआई से पहले बीज को 2.5 ग्राम थीरम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए आमतौर पर इसकी बोनी छिटकवां विधि से की जाती है। परन्तु कतारो में र्बोआ करना अधिक लाभप्रद रहती है। इसके लिए कतारों से कतारो की दूरी 30 से 40 सेन्टीमीटर तथा पौध से पौध की दूरी 8 से 10 सेंटीमीटर रखना चाहिए साधारणतः लोबिया की शुद्ध फसल के लिए बीज दर 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं मिश्रित फसल के लिए 10-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोया जाता है। छिटकवां विधि से बोने पर बीज अधिक लगता है।
उर्वरक प्रबंधन 
          लोबिया की अच्छी फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 20-30 किलोग्राम नत्रजन तथा 40 से 60 किलोग्राम स्फुर की आवश्यकता पड़ती है। इन दोनों उर्वरकों को मिलाकर बुआई के समय या उससे दो दिन पहले खेत मे डालना चाहिए।
सिंचाई एवं जल निकास
          मार्च से अप्रैल के बीच बुवाई करने पर 8 से 10 दिन के अंतर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिचाई बुवाई के 10 दिन बाद की जानी चाहिए खरीफ फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अधिक बरसात होने पर खेत में जल निकास की आवश्यकता पड़ती है।
निंदाई-गुड़ाई 
          खरपतवारों को निकालने के लिए फसल में अंकुरण के 15 दिनो के अंदर एक बार निंदाई-गुड़ाई करना पर्याप्त होता हे। इसके पश्चात् लोबिया की अच्छी बढ़वार व फैलाव के कारण खरपतवार नियंत्रित रहते हैं।
कटाई एवं उपज

          सामान्यतः चारे के लिए लोबियो की कटाई बोने के 60-70 दिन बाद एव बीज के लिए बुवाई के 90-100 दिन बाद करते हैं। लोबिया की ग्रीष्मकालीन फसल की कटाई दो बार की जा सकती है जबकि वर्षाकालीन फसल की केवल एक ही कटाई की जाती है। रशियन जाइन्ट किस्म में पहली कटाई बुआई के 50 दिन बाद और दूसरी कटाई पहली कटाई के 40 दिन बाद करते हैं। पहली कटाई भूमि की सतह से 10-15 सेमी. ऊपर से करनी चाहिए जिससे अगली कटाई के लिए बढ़वार शीघ्र व अच्छी हो सके। फूल बननेकी अवस्था मे कुल पाचनशील तत्व अधिक मात्रा में पाये जाते हैं अतः कटाई फुल आते समय की जानी चाहिए। दाने वाली फसल को फलियों के पूर्ण रूप से पक जाने पर ही काटना चाहिए। हरे चारे की उपज गर्मी की ऋतु में 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा वर्षा ऋतु में बोई गई फसल मे 250 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है। सामान्य दशा में 8-10 क्विंटल प्रत हेक्टेयर औसत बीज उत्पादन मिल जाता है।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

पशुपालन के लिए वर्ष भर हरा चारा देने वाली उत्कृष्ट फसल नेपियर घास

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,रायपुर (छत्तीसगढ़)

गन्ने की भांति दिखने वाली नेपियर घास (पेनीसेटम परप्यूरियम) पोएसी (ग्रेमिनी) कुल की सदस्य है। अधिक ऊंची होने के कारण इसे हाथी घास भी कहते है। पशुओ को वर्ष भर हरा चारा देने वाली अत्यधिक उत्पादन क्षमता वाली संकर नेपियर बाजरा बहुवर्षीय घास है। इस घास में बाजरे के आदर्श गुण जैसे रसीलापन, घनी पत्तियाँ, शीघ्र बढ़वार, उच्च प्रोटीन व शर्करा प्रतिशत के अलावा तेज  बढ़वार जैसे गुण नैपियर में विद्यमान रहते हैं। नेपियर घास का चारा स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। इसके चारे में औसतन 15-20 प्रतिशत शुष्क पदार्थ तथा 8 से 10 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इसके चारे की पाचनशीलता 50-70 प्रतिशत होती है। संकर  नेपियर घास, सामान्य नेपियर घास (हाथी घास) से अधिक पौष्टिक एवं उत्पादक होती है। दुधारू पशुओं को लगातार यह घास खिलने से दुग्ध उत्पादन में वृद्धि के साथ साथ उनमे रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है।  इस घास को एक बार लगाने के बाद 4-5 वर्ष तक लगातार हरा चारा प्रदान करती है।  इस घास को सभी प्रकार की भूमिओं और खेत की मेड़ों पर सुगमता से लगाया जा सकता है। 
जलवायु एवं भूमि
          गर्म तथा आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्र अर्थात् जहाँ तापमान ऊँचा (25 डिग्री सेल्सियस से अधिक), वर्षा अधिक और वायुमण्डल में आर्द्रता की मात्रा अधिक हो, खेती के लिए उपयुक्त रहते हैं। इसकी बढ़वार के लिए मार्च से सितम्बर की अवधि बहुत अनुकूल रहती है। इसकी खेती के लिए 150 सेमी. 200 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सर्वोत्तम है। अत्यन्त शीतल मौसम होने पर (20 डिग्री सेल्सियस से नीचे) इसकी वृद्धि बिल्कुल बन्द हो जाती है पाले से नेपियर को बहुत हानि पहुँचती  है। फसल कम तापक्रम में सर्दियों में 2-3 माह तक सुषुप्तावस्था में रहती है। गन्ने की तरह उत्तरी भारत की जलवायु बीज बनने के लिए उपयुक्त नहीं है। जनवरी-फररी में फूल आते हैं पर बीज नहीं बनते। इसलिए नैपियर का प्रशारण वानस्पतिक विधि से किया जाता है। 
          यह घास उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमि पर उगाई जा सकती हैं। परन्तु दोमट या बलुई-दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है।  धान के खेतों की मेड़ पर नेपियर स्थापित करने से पशुओं को हरा चारा उपलब्ध कराया जा सकता है। शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई की सुविधा है इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
          इसकी बुआई के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करके बखर द्वारा मिट्टी को महीन एवं भुरभुरा बना लेना चाहिए। घास लगाने से पहले खेत को समतल किया जाना चाहिए एवं खरपतवार नहींहोने चाहिए।
उन्नत किस्में
          नेपियरकी देशी किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों से अधिक उपज एवं गुणवत्तयुक्त चारा प्राप्त होता है। इसकी उन्नत किस्मों मे पूसा जायन्ट, एन-बी-21, शक्ति, संकर 12 आई.जी.एफ.आर.आई.-3 6,7 आदि प्रदेश के लिए उपयुक्त है संकर किस्मो का बीज बाँझ होता है। इनके एक झुँड में 40-50 तक कल्ले बनते हैं। नेपियर की प्रमुख संकर किस्मों की विशेषताएॅं यहंाॅं प्रस्तुत की जा राही हैं -
1. पूसा जायन्ट: इस किस्म का विकास पेनीसेटम परप्यूरियम तथा पेनीसेटम टाइफोइडियम (अफ्रीकन बाजरा) के संकरण द्वारा किया गया। यह किस्म नेपियर घास की अपेक्षा उत्तम गुणों वाला दो गुना अधिक चारा देती है साधारण नेपियर घास की तुलना में इसमें 25 प्रतिशत अधिक प्रोटीन और 12 प्रतिशत अधिक शर्करा पायी जाती है। और वृद्धि की सभी अवस्थाओं में इस किस्म का तना अधिक रसीला, मुलायम तथा कम रेशेदार होता है चारा अधिक मुलायम तथा पत्तीदार होता है। 
2. एन.बी.-21(नेपियर संकर बाजरा): यह भी संकर किस्म है जिसके पौधे लम्बे, शीघ्र बढ़ने वाले तथा अधिक कल्ले युक्त होते हैं तने पतले तथा रोये रहित होते है। पत्तियाँ लम्बी, पतली तथा चिकनी होती है। प्रथम कटाई बोने के लगभग 50 दिन बाद की जा सकती है। इसके बाद मुख्य वृद्धि मौसम मे 35-40 दिन के अन्तराल पर कटाईयाँ करते हैं। सर्दी मे पौध वृद्धि धीमी हो जाती है एक वर्ष में गभग 160 से 200 टन प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है।
          नेपियर की अन्य किस्मों में इंडियन ग्रासलैड एण्ड फोडर रिसर्च इंस्टीट्यूट, झांसी (उ.प्र.) द्वारा विकसित इगफ्री-6 (हरे चारे की उपज 120-130 टन/हे.) इगफ्री-3 (हरे चारे की उपज 110-120 टन/हे.), इगफ्री-7(हरे चारे की उपज 130-160 टन/हे.) तथा यसवन्त (हरे चारे की उपज 130-140 टन/हे.) है जो कि अन्तर्वर्तीय खेती के लिए उपयुक्त है। इनके अलावा इन.बी.37, को.-1 , को.-2, को.-3 किस्में भी अधिक उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। 
बोआई/रोपाई  का समय
          इस घास की बोआई वर्षाधीन क्षेत्रों में मानसून आने पर जून-जुलाई मे तथा सिंचित क्षेत्रो में फरवरी के द्वितीय सप्ताह से लेकर अगस्त तक की जा सकती है। फरवरी-मार्च (बसन्त ऋतु) का समय बोआई के लिए सबसे उत्तम है। मैदानी क्षेत्रों मे नेपियर की बोआई अधिक ठन्डे दिनों को छोड़कर वर्ष भर की जा सकती है।
बीज एवं बोआई
          नेपियर घास का प्रसारण वानस्पतिक विधि द्वारा होता है। इसके लिए भूमिगत तने जड़ो के टुकड़े या तनो के टुकड़ो का उपयेाग किया जाता है।  बोआई से पूर्व तना या राइजोम को छोटे-छोटे टुकड़ों मेंकाटा जाता है। जिससे कि प्रत्येक टुकड़े मे कम-से-कम 2 स्वस्थ कलियाँ अवश्य उपस्थित हों। बोआई 7-8 सेमी. की गहराई पर करते हैं। एक हेक्टेयर  रोपाई हेतु 40,000-45,000 टुकड़ों की आवश्यकता होती है। 
नेपियर को निम्न विधियों द्वारा तैयार खेत में लगाया जाता हैं।
1. कूड़ों में बोआई: जब खेत में पर्याप्त नमी रहती है, उस समय हल द्वारा 60-90 सेमी.की दूरी पर कूड़ बना कर उसमे 50-60 सेमी. के अन्तर पर टुकड़े बिछा दिये जाते हैं। इसके पश्चात् पाटा चलाकर टुकड़ो की आवश्यकता होती है। 
2. टुकड़ों को 45 अंश के कोण का गाड़ना: तैयार खेत मे रस्सी द्वारा कतारें आर-पार बना ली जाती है। पंक्तियों से पंक्तियो की दूरी 90-100 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 60 सेमी. तक रखी जाती है। इनके कटान बिन्दुओं पर 45 अंश के कोण पर टुकड़े इस प्रकार गाड़े जाते हैं कि टुकड़े की एक कली भूमि के अन्दर रहती है जो जड़ उत्पन्न करती है तथा दूसरी कली भूमि के ऊपर रहती है जो हवाई शाखाएँ उत्पन्न करती है। टुकड़े लगाने के पश्चात् जड़ के पास की मिट्टी को अच्छी तरह दबाने के तुरन्त पश्चात् सिंचाई कर देते हैं। बाद में कूड़ों पर मिट्टी चढ़ाकर मेंड़ बना दी जाती है।
खाद एव उर्वरक
          उर्वरक घास अधिक उपज देने वाली घास है, इसलिए प्रचुर मात्रा में खाद देने की आवश्यकता होती है। नेपियर के लिए 8 से 10 टन गोबर की खाद बुआई के 2 से 3 सप्ताह पहले खेत में डालकर मिट्टी में मिला देनी चाहिए। रोपाई के समय 40-50 किलो नत्रजन तथा 60-80 किलो स्फुर तथा 20-30 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। बाद में 40 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर हर कटाई के बाद डालने से फसल की पुर्नवृद्धि तेज होती है और उत्पादन भी अच्छा मिलता है। प्रयोगा से ज्ञात हुआ है कि संकर नेपियर के साथ दलहनी चारा फसल उगाने पर 15 किग्रा.नत्रजन/कटाई/हे. देने से सर्वाधिक उपज प्राप्त होती है।
सिंचाई एवं जल निकास
          नेपियर लगाने के तत्काल बाद खेत मे पानी लगाना आवश्यक रहता है। गर्मियों में मार्च से जून तक फसल की सिंचाई 8-10 दिन के अंतर पर करनी चाहिए। सर्दी के मौसम में फसल को 15 से 20 दिन के अंतर पर पानी देना चाएिह। इसके अतिरिक्त प्रत्येक कटाई बाद पानी देना आवश्यक है। पानी भरे खेतो मे पौधे मर जाते हैं। अतएव खेत मे जल निकास का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।
निराई-गुड़ाई
          नेपियर घास रोपने के 15 दिन बाद अन्धी गुड़ाई करनी चाहिये। प्रत्येक कटाई के बाद दो कतारों के बीच देशी हल या कल्टीवेटर द्वारा गुड़ाई करने से भूमि की जलधारण क्षमता में वृद्धि होने के साथ साथ खरपतवार की समस्या नही रहती है इससे पुरानी जड़ों की छँटाई भी हो जाती है जिससे नई जड़ों का विकास एवं प्रसार होता है। अतः फसल बढ़वार अच्छी होती है।
फसल पद्धति
          वर्ष पर्यन्त हरा चारा प्राप्त करने के लिए नेपियर के साथ सहफसली या अन्तर्वर्ती खेती लाभदायक रहती है। अतः मिश्रित खेती में नेपियर घास की दो कतारों के मध्य खरीफ में लोबिया या ग्वार तथा रबी में बरसीम या लूर्सन उगाया जाता है। इससे उपज व उसकी गुणवत्ता और पाचनशीलता में सुधार होता है। नेपियर घास मे आक्सेलिक अम्ल रहता है जो कि पशुओं के लिए हानिकारक पाया गया है परंतु नेपियर चारे के साथ दलहर चारो को मिलाकर खिलाने से इस दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। संकर नेपियर + बरसीम-लोबिया फसल चक्र से एक वर्ष में 200 टन हरा चारा तथा 52 टन सूखा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
कटाई एवं उपज

          सामान्य तौर पर नेपियर घास प्रथम कटाई के लिए रोपाई  के लगभग 50-60 दिन पश्चात् तैयार हो जाती है तथा इसके बाद 35-45 दिन के अन्तराल से अन्य कटाईयाॅं करना चाहिए। पौधे लगभग जमीन से 8-10 सेंटीमीटर की ऊँचाई से इसे चारे के लिए काटना चाहिए। एक बार उगाई गई फसल 3-4 वर्ष तक अच्छा चारा दे सकती है इस घास को 1-1.5 मीटर ऊँचाई पर ही काट लेना चाहिए। अधिक बढ़ने पर कटाई करने से पौधे सख्त हो जाते हैं और चारा अधिक रेशेदार हो जाता है, जिससे पशु उसे कम खाते हैं। सामान्य अवस्थाओं में नेपियर घास से प्रतिवर्ष 6-8 कटाईयाॅं मिल जाती है। जिससे लगभग 150 से 200 टन हरा चारा (संकर किस्मों से) प्राप्त किया जा सकता है।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

फसल विविधिकरण और आमदनी बढ़ाने पौदीना एक आदर्श फसल

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

           पौदीना (मेंथा आरवेन्सिस) लैबिएटी कुल का सुगन्धित पौध समूह है जिसमें मेंथा की अनेक प्रजातियां आती हैं। इनमें से जापानी पोदीनी (मेंथा आरवेन्सिस), पिपरमिन्ट (मेंथा पिपरिटा), बर्गामाट पोदीना (मेंथा सिट्रेटा) और स्पियर मिन्ट (मेंथा स्पिकाटा) प्रजातियाँ प्रमुख हैं। मेंथा के तेल में काफी मात्रा में  (60-90 प्रतिशत) तक मेंथाल होने के कारण इसका महत्व सुगन्ध तेल उद्योग में बढ़ गया है। विश्व में मेंथा तेल की खुशबू एवं घटकों के उपयोग की दृष्टि से भारत का  तीसरा स्थान है। अनेक औषधियों, सुगंधिकारकों (पान मसाला, कन्फैकनरी आदि में) तथा इत्र उद्योग में इसका उपयोग आवश्यक रूप से किया जाता है। विगत कुछ सालों से इसके तेल की बाजार में अच्छी माँग है। मेंथा की विभिन्न प्रजातियों के आसवनन से प्राप्त सुगन्धित तेल का उपयोग विभिन्न उद्योगों जैसे-पान मसाला, सर्दी खासी की दवाइयों, कन्फैक्शनरी, सुवास एवं फार्मास्युटिकल्स आदि में बड़े पैमाने पर होता है। मेंथा तेल से उच्च मूल्य का मेन्था फ्लेक्स तथा मेंथा क्रिस्टल बनाए जाते हैं। भारत में मेंथा का सर्वाधिक उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। यद्यपि मेंथा की खेती में सिंचाई और अन्य लागतें अधिक लगती है।  इसके वावजूद भी  व्यावसायिक क्षेत्रों और खाद्य उद्योग में मेंथा तेल के बढ़ते प्रयोग के कारण देश में मेंथा की खेती में सुनहरे अवसर है। सिंचित क्षेत्रों के किसानों को  अपनी खेती-किसानी  में विविधिता लाने और प्रति इकाई ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए  पौदीना यानि  मेंथा की खेती  अत्यंत  लाभदायक होती जा रही है और यही वजह है  कि देश के अन्य राज्यों जैसे - पंजाब, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि  में मेंथा की खेती करने किसानों में उत्साह देखने को मिल रहा हैं।अग्र प्रस्तुत शस्य तकनीक  को व्यवहार में लाते हुए  मेंथा की खेती अधिकतम उत्पादन और आमदनी अर्जित की जा सकती है।  

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

      मेंथा की खेती उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु जहाँ पर अपेक्षाकृत हल्के जाड़े एवं ग्रीष्म ऋतु गर्म हो, आसानी से की जा सकती है। अत्यधिक ठंडे स्थान  मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त नहीं रहते हैं क्योंकि कम तापमान पर मेंथा के पौधों की पत्तियों में तेल एवं मेन्थाल का संश्लेषण तथा पौध वृद्धि कम होती है। मेंथा  की खेती औसत तापमन 20 से 40 डिग्री. से. तापमान तापमान तथा 95-105 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों  में सरलता से की जा सकती है।


भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी 

            उचित जल निकास एवं पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट से चिकनी दोमट मिट्टी जिनका पी.एच. 6.5 से 7.5 तक हो, मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। हल्की ढीली मिट्टी जो जल्दी सूख जाती है तथा भारी मिट्टी (जड़ों का समुचित विकास नहीं हो पाता है) इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती। यह फसल खेत में जल भराव सहन नहीं करती है। सर्वप्रथम मिट्टी पलटने वो हल से गहरी जुताई करनी चाहिए जिससे मिट्टी ढीली हो जाए। इसके बाद देशी हल या कल्टीवेटर से आडी-तिरक्षी (क्रास) जुताई करें जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए। अंतिम जुताई के समय खेत में 5ः क्लोरपायरीफास 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देने से फस में दीमक व अन्य कीटों का प्रकोप नहीं होता है। खेत को पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्मों का इस्तेमाल 

1. एम.ए.एस.1: यह शीघ्र तैयार होने वाी तथा मेन्थाल की अधिक मात्रा युक्त किस्म है जिससे 200 क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक उपज तथा 125 किग्रा. प्रति हेक्टेयर एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। इसके तेल में 82 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
2. कालका: इस किस्म के तेल में 81 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है। औसतन 250 क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक उपज जिससे 150 किग्रा. एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। यह किस्म लीफ स्पाट व रस्ट रोग प्रतिरोधी है।
3. शिवालिक: यह चीन का पौधा है। देर से तैयार होने वाली इस किस्म से 300क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक उपज और 180 किग्रा. एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। तेल में 75 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
4. गोमती: यह भी देर से तैयार होने वाली किस्म है जिससे 400 क्विण्टल/हेक्टेयर उपज और 140 किग्रा. एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। इसके तेल में 75 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
5. हिमालय: यह मेंथाल पोदीने की नवीन किस्म है। इसके पौधे लम्बे, तने हरे तथा पत्तियाँ हल्की हरे रंग की मोटी और मुलायम होती हैं। इसकी फसल की दो कटाइयों में प्रति हेक्टेयर 350 - 450 क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक (हर्ब) प्राप्त होता है जिससे 200-250 किग्रा. तेल प्राप्त होता है। अन्य किस्मों की अपेक्षा इसमें 28-35 प्रतिशत अधिक तेल उत्पादन की क्षमता होती है। इसके तेल में 78 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
6. कोसी: शीघ्र तैयार होने वाली इस किस्म से औसतन 450-500 क्विण्टल/हेक्टेयर  हर्ब तथा 260-300 किग्रा. तेल प्राप्त होता है। इसके तेल में 80-85 प्रतिशत मेंथाल होता है।
7. हाईब्रिड: यह तेज बढ़ने वाला पौधा है। इससे 262 क्विण्टल/हेक्टेयर  पत्तों की उपज तथा 468 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तेल प्राप्त होता है जिसमें 81.5 प्रतिशत मेंथाल होता है।

बुआई-रोपाई का समय

            मेंथा की बुआई का सवोत्तम समय जनवरी-फरवरी का होता है। रबी फसल की कटाई के बाद भी मेंथा का रोपण किया जा सकता है। जल्दी बुआई करने पर तापमान कम होने से भूस्तारियों का अंकुरण नहीं हो पाता है और अधिक  देर में बोई गई फसल की वृद्धि रूक जाती है, क्योंकि  इसके पौधे दीर्घ-प्रकाशपेक्षी होने के कारण बुआई तथा फूल आने के बीच का समय कम हो जाता है।  किसी कारणवश देरी से बुआई (मार्च-अप्रैल) करने हेतु मेंथा की रोपणी तैयार कर बुआई करना श्रेयस्कर होता है।

बीज की तयारी और रोपाई 

            मेंथा में कायिक प्रवर्धन भूस्तारियों द्वारा होता है। भूस्तारी सर्दी के दिनों में उपलब्ध  रहते हैं। सही किस्म के चुनाव के बाद अच्छी गुणवत्ता वाली पौध सामग्री का ही प्रयोग प्रसारण हेतु करना चाहिए। भूमिगत भूस्तारी स्वस्थ पौधों से चुनना चाहिए जो गेरूई रोग से पूर्णतः मुक्त हो। स्वस्थ एवं रोग रहित भूस्तारी प्रायः सफेद रंग के और अधिक रसीले होते है। भूस्तरी को छोटे-छोटे टुकड़ों में 8-10 सेमी. नाप के काट लेना चाहिए। बुआई से पूर्व भूस्तरी को 0.1 प्रतिशत कवकनाशी घोल में 5-10 मनिट तक डुबो लेना चाहिए जिससे फफूँदी रोग से फसल की रक्षा हो सकें। मेंथा फसल का रोपण  सीधे सकर्स एवं पौध द्वारा की जाती है।
1. सीधे सकर्स से बोआई: जहाँ मेंथा की खेती पहली बार की जा रही है, वहाँ यह विधि उपयोगी रहती है। इसके लिए मेंथा के सर्कस (एक प्रकार का तना) उन स्थानों से प्राप्त करें जहाँ पहले से इसकी खेती होती हो। इसके बाद इस सकर्स को सीधे खेत में 60 - 75 सेमी की दूरी पर लगा दें। जनवरी - फरवरी में लगाईं जाने वाली फसल में पौधों के मध्य की दूरी 75 सेमी. रखें . देर से  बुआई करने पर पौधों के मध्य का फासला कम रखना चाहिए। सकर्स भूमि में 5 - 8 सेमी. की गहराई पर बोनी चाहिए। इस विधि में प्रति हेक्टेयर लगभग 3 - 4 क्विंटल  सकर्स की आवश्यकता पड़ती है। जनवरी - फरवरी में लगाये गये सकर्स का जमाव 2 - 3 सप्ताह में होना शुरू हो जाता है। पहले साल 0.5 हेक्टेयर क्षेत्र में लगाई गई फसल से अगले वर्ष 10 हेक्टेयर क्षेत्र में पौधे रोपे जा सकते है।
2. पौध रोपण विधि: रबी फसल के बाद मेंथा की खेती रोपण विधि से करना चाहिए। इसमें सबसे पहले पौधों की नर्सरी तैयार की जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 1250 वर्गफीट क्षेत्र की नर्सरी पर्याप्त होती है। इसके लिए 250 किग्रा. मेन्था सकर्स को छोटे - छोटे टुकड़ों (प्रत्येक टुकड़े में कम से कम एक आँख हो) में काटाकर पानी से भरी नर्सरी में बिखेर दिया जाता है। इसके बाद नर्सरी में झाडु चलाकर पानी को मटमैला कर दिया जाता है। पानी सूखने पर इसके ऊपर गोबर की सड़ी हुई खाद अथवा पलवार बिछा दी जाती है। लगभग 30 - 40 दिन में पौध तैयार हो जाती हैै। मार्च - अपैल में नर्सरी के इन पौधें का मुख्य खेत में रोपण किया जा सकता है।

सकर्स तैयार करने की विधि

            भूस्तारी (सकर्स या रनर्स) के उत्पादन हेतु पौधों या जड़ों की रोपाई का उचित समय 15 अगस्त से लेकर 30 अगस्त होता है। पौध  तैयार करने के लिए ऐसे खेत का चयन करें जहाँ पानी न भरता हो और मेंथ की फसल न ली गई हो। एक वर्ग मीटर क्षेत्र से 2 - 4 किग्रा. सकर्स या रनस तैयार हो सकते है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए सीधी बुआई करने के लिए 100 - 200 वर्गमीटर क्षेत्रफल एवं पौध द्वारा रोपाई करने के लिए 25 - 50 वर्गमीटर जगह की आवयकता पड़ती है। इसके बाद 1 किग्रा. वर्मीकम्पोस्ट या 2 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद डालकर खेत की 2 - 3 बार जुताई करना चाहिए। अन्तिम जुताई के समय प्रति वर्गमहटर के हिसाब से 11 - 15 ग्राम डी. ए. पी. एवं 10 ग्राम म्यूरेट ऑफ़  पोटाश मिलाना चाहिए। इसके बाद पुरानी फसल छोटे - छोटे जड़दार पौधे या सकस की कटिंग को 50 सेमी. की दूरी पर कतार में लगाएँ तथा दो पौधों का एक चैथाई भाग पीला पड़ जाय तब सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। अगस्त में रोपी गई  पौध में यह अवस्था दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में आ जाती है। इसके बाद सकर्स की खुदाई तक खेत में पानी नहीं देना चाहिए। आवश्यकतानुसार निराई - गुड़ाई करते रहना चाहिए। सकर्स की खुदाई से पूर्व ऊपरी पौधों को काटकर अलग कर देना चाहिए। इसके बाद भूमि की ऊपरी सतह (3 - 5 सेमी.) को मिट्टी सहित खोदकर सकर्स अलग कर लेना चाहिए। नये एवं सफेद रंग के सकर्स जो मोड़ने पर टूट जाय एवं जिनमें फाइबर कम हो, रोपण के लिए सर्वोत्तम रहते है।

संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन

            मेंथा का वानस्पतिक भाग (तने और पत्तियां) ही इसकी आर्थिक उपज है।  अतः मेंथा की उत्तम वानस्पतिक बढ़वार के लिए संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों का इस्तेमाल आवश्यक है।   मिट्टी परीक्षण के पश्चात ही पोषक तत्वों की सही मात्रा का आंकलन कर खाद एवं उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए।  खेत में अंतिम जुताई के समय 10 - 15 टन सड़ी गोबर की खाद अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। सामान्यतौर पर 120 - 150 कि. नत्रजन, 60 - 80 कि.ग्रा. स्फुर एवं 40 - 60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर उर्वरकों के रूप में देना चाहिए। फाॅस्फोरस व पोटाश की पूर्ण मात्रा उर्वरकों के रूप में बुआई के समय दी जाती है। नत्रजन की कुल मात्रा का एक तिहाई भाग बुआई के समय एवं शेष दो तिहाई भाग का प्रयोग 2 - 3 बार में खड़ी फसल में किया जाता है। खड़ी फसल में नत्रजन पहल निराई के पहले जब पौधे 15 सेमी. के हो जाए, तब देनी चाहिए। शेष नत्रजन, खड़ी फसल में पत्येक कटाई के बाद देना अच्छा रहता है। मेंथा की पत्तियों पर 2.5 से 3 प्रतिशत यूरिया का घोल टारड्रेसिंग के लिए प्रयोग करना लाभप्रद पाया गया है। नाइट्रोजन तत्व की पूर्ति यूरिया या डी. ए. पी. के द्वारा तथा फॉस्फोरस  व पोटाश की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट और म्यूरेट ऑफ़  पोटाश द्वारा की जाती है। जस्ते की कमी वाली मिट्टियों में 20 किग्रा. जिंक सल्फेट/हेक्टेयर बुआई के समय खेत में डालना चाहिए।

भरपूर सिचाई से ही अधिकतम उपज

            मेंथा अधिक पानी चाहने वाली फसल है अतः  इसकी फसल सूखा सहन नहीं कर पाती है। घनी पत्तियों से युक्त एवं रसीली होने के कारण यह भूमि से अधिक मात्रा में जल एवं पोषक तत्वों का अवशोषण करती है। भूमि की संरचना के आधार पर सभी प्रजातियों को गर्मी में अधिक सिंचाई (10 - 15 दिन के अंतराल) की आवश्यकता पड़ती है। खड़ी फसल मे मृदा की नमी का स्तर 50 प्रतिशत आने पर शीघ्र सिंचाई् करना चाहिए। सामान्यतौर पर ग्रीष्म काल में 12 - 15 तथा शीत ऋतु में 5 - 6 सिंचाइयाँ देना आवश्यक होता है। मेंथा की एक कटाई की औसत जलमाँग 400 मिमी. के आसपास होती है। प्रथम कटाई के बाद ऊतकों के पुनरूद्भवन के लिए पर्याप्त नमी का होना अति आवश्यक है। खेत में नमी की कमी होने पर फसल की वृद्धि प्रभावित होती है। हल्की भूमि में अधिक तथा भारी भूमि में कम सिंचाइयों क आवश्यकता पड़ती है। जलाक्रांत अवस्था का फसल बढ़वार व पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा मूल विगलन रोग होने की संभावना रहती हैैै। अतः खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

            फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है। इन पर नियंत्रण न पाने की दशा में 60 - 70 प्रतिशत उपज में हानि संभावित है। पहली निंदाई पौध लगाने के 5 - 6 सप्ताह बाद करना चाहिए इसके बाद एक - दो निंदाइयों की आवश्यकता पड़ती है। खरपवार नियंत्रण के लिए आॅक्सी फ्लोरफैन (गोल) 0.5 कि.ग्रा/हेक्टेयर अथवा पेंडीमिथिलीन 1 कि.ग्रा./हेक्टेयर का घोल बनाकर बुआई या रोपाई के 2 - 3 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए।

फसल की कटाई

            मेंथा की सही समय पर कटाई नहीं करने से इसकी उपज व गुणवत्ता पर बुरा  प्रभाव पड़ता है। यदि जल्दी कटाई कर ली जाए तो मेंथाल की मात्रा घट जाती हैं और देर से कटाई की जाए तो भी पत्तियों के सूखने पर तेल की मात्रा घट जाती है। पौधों की आयु के साथ - साथ मेंथा में तेल एवं मेंथाल की मात्रा बढ़ती रहती है तथ फूल आते समय यह सर्वाधिक होती है। फूल आने के बाद इनकी मात्रा घटने लगती है। अतः फूल आने की अवस्था कटाई के लिए उपयुक्त रहती है। देर से काटन पर पत्तियां झड़ने लगती है जिससे उत्पादन भी कम हो जाता है। सामान्यतौर पर मेंथा की पहली कटाई बुआई के 100 - 120 दिन बाद तथा दूसरी कटाई पहली कटाई के 60 - 70 दिन बाद करना चाहिए। कटाई के समय आसमान खुला हो तथा चमकती धूप हो। कटाई हँसिया द्वारा भूमि की सतह से 8 - 10 सेमी. की ऊँचाई से करना चाहिए। कटाई के बाद फसल को 2 - 4 घंटे के लिए खेत मे छोड़ देते है। तत्पश्चात् पौधें के छोटे - छोटे गट्ठर बनाकर उन्हे छाया में सुखाया जाता  है। सुखाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि पत्तियाँ गिरने न पाएँ। जब गट्ठर का वजन तिहाई - चैथाई रह जाए, तो सुखाना बन्द कर देना चाहिए। धूप में सुखाने पर तेल की मात्रा घट जाती है।

मेंथा उपज का आसवन

            मेंथा का आसवन हरी तथा सूखी, दोनों ही अवस्थाओं में किया जा सकता है। हरी फसल के आसवन में समय और व्यय अधिक लगता है, क्योंकि हरी फसल के आसवन में सूखी फसल के आसवन से 7 गुनी  अधिक वाष्प लगती है। मेंथा से तेल निकालने के लिए वाष्प आसवन विधि उत्तम रहती है। इसके लिए एक बड़े  बर्तन में पौधें भर दिए जाते है। फिर नीचे से उसमें वाष्प (भाप) गुजारी जाती है। भाप के पौधो के संपर्क में आने पर पौधों में उपस्थित तेल भी वाष्प में बदल जाता है। इस तेलयुक्त भाप को संघनित्र से गुजारते हैं जहाँ पर भाप संघनित होकर पानी में और तेल वाष्प में बदल जाता है। इसे एक पात्र में इकट्ठा कर लेते हैं। हल्का होने के कारण तेल पानी की सतह पर तैरता रहता है। तेल को अलग करके छाल लेते हैं। इस तेल का रंग सुनहरा-पीला होता है। उसका स्वाद कडुवा होता है। त्वचा पर लगाने पर यह शीतलता प्रदान करता है। इस तेल को काँच की रंगीन बोतलों में या गैल्वानाइज्ड साफ ड्रम में अपेक्षाकृत कम तापमान वाले कमरे में सूर्य के प्रकाश से दूर रखते हैं। आजकल जल वाष्प आसवन विधि से भी मेथा से तेल निकाला जाता है। जल वाष्प आसवन विधि सस्ती एवं सरल है।

आर्थिक उपज 


            मेंथा की पत्तियों से 0.6 प्रतिशत तेल प्राप्त होता है। कुल का 85 प्रतिशत भाग पत्तियों में पाया जाता है व तने में इसकी कम मात्रा होती है। सस्य क्रियाओं, मृदा एवं जलवायु में विभिन्नता के कारण पोदीना शाक की उपज भिन्न-भिन्न होती है। इसकी खेती से अनुकूल परिस्थितियों में मेंथा मिन्ट से 200-250 किग्रा. तेल प्रति हेक्टेयर, पिपरमिन्ट से 150 किग्रा. एवं अन्य प्रजातियों से 200-250 किग्रा. तेल प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है।

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