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बुधवार, 5 अप्रैल 2017

खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा के लिए जरूरी है रागी की खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

रागी (इल्यूसाइन कोरकाना) जिसे आमतौर पर मंडुआ भी कहते है, भारत में उगाए जाने वाले लघु धान्यों में सबसे महत्वपूर्ण एंव जीविका प्रदान करने वाला खाद्यान्न है।   रागी का दाना काफी पौष्टिक होता है जिसका आटा व दलिया बनाया जाता है। आटे से रोटी, पारिज, हलवा व पुडिंग तैयार किया जाता है। मधुमेह रोग के लिए यह विशेष रूप से लाभप्रद है। मधुमेह पीड़ित व्यत्कियों के लिए चावल के स्थान पर मंडुवा का सेवन उत्तम बताया गया है। इसके दाने में लगभग 7.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.3 प्रतिशत वसा, 72 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 2.7 प्रतिशत खनिज, 2.7 प्रतिशत राख तथा 0.33 प्रतिशत कैल्शियम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फाॅस्फोरस, विटामिन- ए व बी भी पाया जाता है। रागी के प्रसंस्करण से आटा तैयार किया गया है जो कि मधुमेह पीड़ित व्यक्तियों के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है। रागी के अंकुरित बीजों  से माल्ट भी बनाते हैं जो कि शिशु आहार तैयार करने में काम आता है। इसके दानों से उत्तम गुणों वाली शराब  भी तैयार की जाती है।
भारत में रागी की खेती 15.84 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की गई जिससे 22.20 लाख हजार टन उत्पादन लिया गया। रागी की राष्ट्रीय औसत उपज 1421 किग्रा. प्रति हेक्टेयर है। जलवायु परिवर्तन के कारण घटते खाद्यान्न उत्पादन और कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटने के लिए देश में रागी की खेती के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार और प्रति इकाई अधिकतम उपज लेने की महती आवश्यकता है । मंडुआ की खेती से सर्वाधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत उन्नत तकनीक का प्रयोग हितकारी साबित हो सकता है 

उपयुक्त जलवायु

          रागी शुष्क एंव नम जलवायु के लिए उपयुक्त फसल है। इसे 50 से 75 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले स्थानों में भली प्रकार उगाया जा सकता है। सिंचाई की सुविधा होने पर इसे उष्ण मौसम में भी उगाया जा सकता है। इसके बीज अंकुरण के लिए 24  तापमान उपयुक्त रहता है। फूल आने की अवस्था पर 11-12 घंटे की प्रकाश अवधि रहती है।

भूमि का चयन और खेत की तैयारी

          अच्छे जल निकास वाली दोमट से हल्की दोमट भूमि रागी की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। मृदा में नमी धारण करने की क्षमता होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ एंव म. प्र. में यह फसल भारी, हल्की रेतीली, उतार-चढ़ाव वाली भूमि में उगाई जाती है। अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं होती है, पहाड़ी पथरीले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है।
          रागी की अच्छी फसल हेतु महीन एंव समतल भूमि चाहिए। अतः वर्षा प्रारंभ होने के पश्चात् ही एक जुताई मिट्टि पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद दो बार हल और बखर से अच्छी तरह जुताई कर पाटा चलाना चाहिये।

उन्नत किस्मों का प्रयोग 

          उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि स्थानीय किस्मों की तुलना में इनसे लगभग 25-30 प्रतिशत अधिक पैदावार ली जा सकती है। रागी की उन्नत किस्मों में ईसी-4840, पीआर-202, वीएल-101, वीएल-149, वीएल-204, पीइएस-176, एचआर-374, निर्मल, विक्रम  आदि देश के विभिन्न राज्यों में उगाई जा रही है . मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त रागी की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
  • जे. एन. आर. 852: यह किस्म लगभग 110 दिन में पककर तैयार हो जाती है। प्रत्येक बालियों में 8-10 अंगुलियाँ होती हैं। इसकी औसत पैदावार 15 से 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
  • जे. एन. आर. 981-2: यह किस्म  लगभग 100 दिन में पककर तैयार होती है। इसकी औसत उपज क्षमता  20 क्विंटल/हेक्टेयर  है.
  • जे. एन. आर. 1008:  यह किस्म 100 से 105 दिन में पक कर 20-22 क्विंटल/हेक्टेयर तक उपज देती  है। दानों का रंग गुलाबी होता है।
  • व्ही. एल. 149: यह किस्म 98-102 दिन में तैयार होकर औसतन 20-25 क्विंटल/हेक्टेयर प्राप्त उपज देती है। यह ब्लास्ट रोग प्रतरोधी किस्म है।
  • एचआर 374: यह  किस्म अवधि 100 दिन में तैयार होकर  20-21 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है।
  • पी आर - 202: यह किस्म 110 दिन में तैयार होकर 19-20 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है।

बोआई का समय

          रागी को जून से लेकर अगस्त तक कभी भी बोया जा सकता है। रागी की बुआई मानसून के आगमन के तुरन्त बाद जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक करना उपयुक्त होता है। समय पर बोआई करने से उपज भी अधिक मिलती है एंव रोग तथा कीट का प्रकेाप भी कम होता है। दक्षिणी भारत के सिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती वर्ष भर की जाती है। बोआई 25 जुलाई के बाद करने पर मक्खी-कीट से काफी हानि होती है।

बीज एंव बोआई

          उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करें। प्रति हेक्टेयर 8-10 किग्रा. तथा छिड़का बोआई के लिए 12-15 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त हेता है। बोने से पहले बीज को 3 गा्रम थायरम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित अवश्य करें। पंक्तियों में बोने के लिए बीज या तो देशी हल द्वारा कूंड़ में या फिर सीड ड्रिल द्वारा बोया जाता है। पंक्तियों की दूरी 22.5 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 7.5 सेमी. रखनी चाहिए। ढलान युक्त खेतों में ढाल के विपरीत बोआई करने में नमी संरक्षित होती है और मृदा कटाव भी कम होगा। बीज की बोआई 3 सेमी. से ज्यादा गहरा नहीं   होना चाहिए। जहाँ पौधे न जमे हो वहाँ अधिक घने स्थान से पौधे उखाड़कर बोआई के 15 से 25 दिन के अंदर लगायें अथवा रोपाई करें। यह कार्य रिमझिम गिरते पानी में करना चाहिए ताकि पौधों की जड़ों का जमाव अच्छी तरह से हो सके।
          रागी फसल रोपाई करके भी उगाई जा सकती है। रोपाई के लिए बीज पौध शाला में मई के अंत तक बो देना चाहिए। रोपाई हेतु नर्सरी उगाने में 4 किग्रा. बीज/हे. की आवश्यकता पड़ती है। जब पौध 25-30 दिन की हो जाये तो वर्षा के तुरंत बाद रोपाई कर देना चाहिए। रोपाई में कतार की दूरी 25 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखनी चाहिए।

खाद तथा उर्वरक

          आमतौर पर किसान रागी फसल में खाद-उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करते है  परन्तु इसकी  अच्छी उपज लेने के लिए 40 किलो नत्रजन तथा 30-40 किलो स्फुर तथा 20-30 किग्रा. पोटाॅश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। सभी उर्वरकों को अच्छी तरह मिलाकार बोते समय ही बीज से 4-5 सेमी. की दूरी पर बनें कूड़ों में डालना चाहिए दावा खेत मे छिटककर मिला देना चाहिए। नत्रजन का आधा भाग बोआई के समय व शेष भाग प्रथम निंदाई के ठीक बाद अर्थात बोआई के 25 से 30 दिन के पश्चात् कूड़ों में देना चाहिए। जैविक खाद यथा गोबर की खाद या कम्पोस्ट 5-7 टन प्रति हेक्टेयर खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टि में मिलाना चाहिए। इनका प्रयोग करने पर उर्वरक की मात्रा कम कर देनी चाहिए।

सिंचाई एंव जल निकास

          खरीफ में बोई जाने वाली फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। ग्रीष्म या रबी में बोई जाने वाली फसल में 2-3 सिंचाई देने उपज में बढोत्तरी होती है। रागी की फसल जल मग्न अवस्था में नहीं उग सकती। इसके लिए अच्छे जल निकास का होना आवश्यक है। अतः बोने से पूर्व खेत को समतल करके सुविधानुसार नालियाँ बना देना  चाहिए जिससे वर्षा का अतिरिक्त पानी खेत से बाहर निकल जाए।

खरपतवार नियंत्रण

          फसल बोने के 20-25 दिन के बाद एक बार निंदाई-गुड़ाई करना चाहिए। दूसरी निंदाई 40 से 45 दिन में अवश्य पूरी कर लेनी चाहिए। कतारों  में फसल बोने पर निंदाई-गुड़ाई का कार्य हल या हैरो द्वारा किया जा सकता है। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए बोआई पश्चात् या अंकुरण पूर्व आइसोप्रोट्यूरान नामक रसायन 500 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए। इसके अलावा बोआई के 40-45 दिनों बाद 2,4-डी सेडियम लवण 400 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से सँकरे व चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।

कटाई -मड़ाई और उपज 


          रागी की जून-जुलाई में बोई गई फसल दिसम्बर के अन्त (90-110 दिन) तक पककर तैयार हो जाती है। हँसिये से फसल की कटाई कर ली जाती है व बालियों को तने से अलग कर धूप में अच्छी तरह से सुखा लिया जाता है। सूखी बालियों को पीट कर अथवा बैलों की दाॅय चलाकर दाने अलग कर लिये जाते हैं। रागी की उत्तम फसल से प्रति हेक्टेयर 15-20 क्विंटल  दाना तथा 25-30 क्विंटल  सूखा चारा प्राप्त होता है। जब दाने अच्छी तरह सूख जायें और उनमें नमी 10-12 प्रतिशत से अधिक न हो तो उन्हें बोरियों में भर कर सूखे भंडार गृह में रखना चाहिए।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

शुष्क क्षेत्रों की लोकप्रिय फसल बाजरा की उन्नत खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

          मोटे अनाज वाली फसलों में बाजरा (पेन्नीसेटम टाइफोइड्स) का महत्वपूर्ण स्थान है। बाजरा कम लागत तथा शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली ज्वार से भी लोकप्रिय फसल है जिसे दाने व चारे के लिए उगाया जाता है। बाजरे के दाने में 12.4 प्रतिशत नमी, 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.05 प्रतिशत कैल्शियम, 0.35 प्रतिशत फास्फोरस तथा 8.8 प्रतिशत लोहा पाया जाता हैै। इस प्रकार बाजरे का दाना ज्वार की अपेक्षा अधिक पौष्टिक होता है।बाजरे को खाने के काम में  लाने से पूर्व इसके दाने को कूटकर भूसी अलग कर लिया जाता है। दानों को पीसकर आटा तैयार करते हैं और माल्टेड आटा के रूप में प्रयोग करते हैं। उत्तरी भारत में जाड़े के दिनों में बाजरा रोटी (चपाती) चाव से खाई जाती है। कुछ स्थानों पर बाजरे के दानों को चावल की तरह पकाया और खाया जाता है। बाजरे की हरी बालियाँ भूनकर खाई जाती हैं। दाने को भूनकर लाई बनाते हैं। बाजरा दुधारू पशुओं को दलिया एंव मुर्गियों को दाने के रूप में खिलाया जाता है। बाजरे का हरा चारा पशुओं के लिए उत्तम रहता है। क्योंकि इसमें एल्यूमिनायड्स अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं। बाजरा के पौधे ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता रखते है। देश  के अधिक वर्षा वाले राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में बजारे की खेती की जाती है। भारत में बजारे की खेती गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडू , आन्ध्र प्रदेश, पंजाब और मध्यप्रदेश राज्यों  में प्रमुखता से की जाती है। भारत में 9.57 मिलियन हेक्टेयर में बाजरे की खेती की गई जिससे 10.42 क्विंटल /हे. औसत मान से 9.97 मिलियन टन उत्पादन लिया गया। बाजरे की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए अग्र प्रस्तुत शस्य तकनीक व्यवहार में लाना चाहिए। 

उपयुक्त जलवायु

          बाजरा उष्ण जलवायु की फसल है। यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। इसमें ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता होती है। उत्तर भारत में खरीफ के मौसम में ही बाजरे की खेती होती है। दक्षिणी राज्यों तथा पंजाब में सिंचित फसल को गर्मी के मौसम में भी उगाया जाता है। बाजरे की फसल की वृद्धि के लिए उपयुक्त तापक्रम 20-30 डिग्री सेग्रे  के मध्य होना चाहिए। बोआई से लेकर कटाई तक फसल को उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 40 सेमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में की सकती है। फसल में फूल आते समय स्वच्छ आकाश और तेज धूप उत्तम रहती है। फूल आते समय वर्षा होने पर बाली में दाने अच्छी प्रकार नहीं भरते हैं तथा समय वर्षा होने पर बालियों में कंडुआ रोग लगने की संभावना रहती है। बाजरे की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं जबकि दिन की लम्बाई अपेक्षाकृत कम होती है परंतु कुछ किस्मों में दिन के छोटे या बड़े होने का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।

भूमि का चयन एवं  खेत की तैयारी

          उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में बाजरे की खेती की जा सकती है परंतु बलुई दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है। रेतीली दोमट मिट्टी में बाजरा की खेती गुजरात, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में सफलतापूर्वक की जा रही है। हल्की लाल और कपास अच्छा हो, जिसका पी-एच. मान 7 हो जीवांश की मात्रा अच्छी हो उपयुक्त पाई गई है।
          बाजरा वर्षा आधारित फसल है। ऐसी फसल के लिये ग्रीष्मकालीन जुताई अच्छी पाई गयी है। इससे खरपतवारों पर नियंत्रण करने में मदद मिलती है। वर्षा के शुरू होने पर हल या बखर चलाकर खेत को भुराभुरा बनाकर खरपतवार रहित कर लेना चाहिए। साथ ही साथ अंतिम जुताई के समय 5 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर या कम्पोस्ट की खाद खेत में डालें। खेत को पाटा चलाकर यथासंभव समतल जल निकास की उचित व्यवस्था कर लें।

उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज 

उन्नत एंव उत्तम किस्म का बीज उपयोग करने से उत्पादन दो गुना किया जा सकता है।प्रमाणित बीज को विश्वसनीय स्त्रोत से ही क्रय करें। जहाँ तक संभव हो संकर एंव मुक्त परागण वाली अनुशंसित किस्म ही प्रयोग में लावें । बीज सदैव उपचारित किया हुआ ही प्रयोग करें।
बाजरे की प्रमुख संकर किस्में: इनका बीज प्रतिवर्ष बदलना पड़ता है।
एम. एच. 143: यह संकर किस्म 83 दिन में पकने वाली है। इसकी अधिकतम पैदावार 52 कि./हेक्टेयर तथा चारे की पैदावार 54 क्विंटल /हे. पाई गई है।
एम. एच. 179: यह संकर किस्म 86 दिन में पकने वाली है। इसकी अधिकतम पैदावार 54 किंव/हेक्टेयर तथा चारे की पैदावार 54 क्विंटल /हेक्टेयर पाई गई है।
एम. बी. एच. 151: यह 90 दिन में  तैयार होने वाली किस्म है जिससे अधिकतम 50 क्विंटल /हे. दाना और 83 क्विंटल /हे. सूखा चारा प्राप्त होता है।
जे. बी. एच. 1: यह किस्म 80 से 85 दिनों में पककर तैयार हो जाता है। दाना मध्यम बड़ा तथा बाली शूकी रहित होती है। इस किस्म की  पैदावार 20-26 क्विंटल प्रतिहे. पाई गई है।
पी. एच. बी. 10: फसल अवधि 88-90 दिन, सिंचित व असिंचित दशा के लिए उपयुक्त, उपज क्षमता 30-35 क्विंटल / हे. होती है। इसमें अरगट रोग का प्रकोप कम होता है।
बाजरे की मुक्त परागित एंव संकुल किस्में: इनका बीज प्रतिवर्ष बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
आई सी. एम. व्ही. 221: यह किस्म 75 से 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत पैदावार 15 क्विंटल /हे. तथा चारे की पैदावार 35 क्विंटल./हे. पाई गई है। यह किस्म हरितबाली रोग प्रतिरोधक है।
राज: 171: यह मुक्त परागित किस्म 80 से 85 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। दाने की उपज 20 क्विंटल /हे. तथा चारे की पैदावार 48 क्ंिव./हे. पाई गई है। यह किस्म हरितबाली रोग प्रतिरोधक है।
जे. बी. व्ही. 2: यह किस्म 75 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं इसका दाना मध्यम धूसर रंग का होता है। इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल./हे. पाई गई है। यह किस्म हरित बाल रोग के प्रति निरोधक है।
आई. सी. एम. बी. 84400: फसल अवधि 80-100, दिन औसत उपज 21-22 क्विंटल तथा सूखे चारे की उपज 68 क्विंटल.प्रति हेक्टेयर हैं।
डब्लू. सी. सी. 75: यह संकुल किस्म देशी किस्मों से अच्छी है। यह किस्म 70-80 दिन में तैयार होकर  प्रति हेक्टेयर 18-20 क्विंटल दाना तथा 85-90 क्विंटल कड़वी की उपज देती है।

बोआई का समय

          बाजरा मुख्यतः खरीफ की फसल है। बालरे की बोआई जुलाई के प्रथम पखवाड़े तक करना चाहिए। इससे पहले इसकी बोआई करने से फूल आते समय अधिक वर्षा होने के कारण पराग कण बहने से बालियों में पूरी तरह से दाने न पड़ने की संभावना रहती है। वर्षा वाले क्षेत्रों में बोआई में  अधिक देर करना उचित नहीं रहता है क्योकि वर्षा समाप्त हो जाने पर नमी की कमी से उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। ग्रीष्मकालीन (जायद) बाजरे की बोनी, सिंचित दशा में मार्च-अप्रैल में की जाती है।

बीज दर एंव बीजोपचार

          बजारे की मिश्रित फसल के लिए 2-3 किग्रा. प्रति हे. तथा शु़द्ध फसल के लिये 5 से 6 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। अच्छी उपज के लिए प्रति हेक्टेयर 1.8 लाख से 2 लाख तक पौध संख्या वांछित रहती है। फसल में बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु बोआई से पूर्व बीजों को कवकनाशी रसायनों जैसे थायरस (3 ग्रा प्रतिकिलो बीज ) आदि से उपचारित कर चहिए। प्रमाणित अथवा संकर बाजरा का बीज पहले से ही उपचारित रहता है। अतः अलग से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं होती है।

कतारों में करे बुआई 

आम तौर पर मूँग, उडद, तिल, अरहर आदि के साथ बाजरे की बुआई मिश्रण के रूप में छिटकवाँ विधि से की जाती है। परन्तु यह विधि लाभकारी नहीं है। अच्छी उपज की खेती के लिए बाजरे को पंक्तियों में हल के पीछे कूड़ों में बोते हैं या बोने के यन्त्र द्वारा बोआई की जाती है। कतारों के मध्य 40 से 45 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 12-15 सेमी. रखना उचित रहता है। बीज को 2-3 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए अन्यथा वर्षा होने पर पपड़ी बन जाती है और अधिकतम गहराई पर बोये गये बीजों के अंकुरण में बाधा पहुँचती है। जब दाने के लिए बाजरा मिश्रण के रूप में बोते हैं तो पंक्तियों के मध्य 90-120 सेमी. की दूरी रखते हैं और बाजरे की दो पंक्तियों के बीच के स्थान में मिश्रण वाजी फसल (उड़द, मूँग) की 3-4 पंक्तियाँ बोई जाती है।
          अंकुरण के पश्चात् रिक्त स्थानों पर शीघ्र ही नये बीज डाल देना चाहिए या पौधों  की रोपाई की जा सकती है। बोआई से 3-4 सप्ताह बाद अतिरिक्त पौधे निकालकर पंक्ति में पौधे से पौधे की दूरी 12-15 सेमी. स्थापित कर लेनी चाहिए ।
खाद एंव उर्वरक
          बाजरे में खाद एंव उर्वरक की मात्रा मृदा के प्रकार तथा उगाई जाने वाली किस्म पर निर्भर करती है। बाजरे की देशी  किस्मों में 40-50 किग्रा. नत्रजन, 30-40 कि.ग्रा. स्फुर तथा 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 40-60 कि.ग्रा. स्फुर तथा 30-40 किग्रा. पोटाॅश/हेक्टेयर की आश्यकता पड़ती है। असिंचित खेती के लिए उपरोक्त उर्वरकों की आधी मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर एंव पोटाॅश की पूरी मात्रा बोवाई के समय कूड़ में देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा को खड़ी फसल में टाॅप ड्रेसिंग के रूप में दो बार प्रयोग करना चाहिए। पहली टाॅपड्रसिंग थिनिंग (20-25 दिन) के समय तथा दूसरी बालियाँ निकलते समय देना लाभदायक रहता है। असिंचित अवस्था में यूरिया 2-3 प्रतिशत घोल 1000 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से (खड़ी फसल में -5 सप्ताह की फसल) छिड़काव करना लाभदायक रहता है। पौध से उगाई गई बाजरे की फसल में स्फुर और पोटाॅश की पूरी मात्रा और नत्रजन की तीन-चैथाई मात्रा मिलाकर रोपाई के समय कूड़ में डालनी चाहिए शेष नत्रजन रोपाई के 3-4 सप्ताह बाद फसल देनी चाहिए।

जरुरत के हिसाब से सिंचाई

          बाजरा खरीफ की फसल है और सूखा सहन करने  की क्षमता रखती है। अवर्षा की स्थिति में बाजरे की उन्नत संकर किस्मों से अच्छी उपज के लिए सिंचाई की उपयुक्त सुविधा होना आवश्यक है। अंकुरण के समय खेत में पर्याप्त नमी रहना आवश्यक है। वर्षा न होने की स्थिति में पलेवा (सिंचाई) देकर बोआई करनी चाहिए। पौधों की बढ़वार फूल आते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक रहता है। सिंचाई की संख्या, मिट्टि का प्रकार, वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है मृदा नमी 50 प्रतिशत उपलब्ध  रहने पर फसल की सिंचाई कर देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल बोने से पूर्व पलेवा करते हैं ताकि अंकुरण के लिए नमी का अभाव न हो। इसके बाद 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाइयाँ फसल तैयार होने तक की जाती हैं।बाजरे की फसल जलभराव की स्थिति को सहन नहीं कर पाती है। फसल के गिरने की आंशका रहती है। अतः बोआई से पूर्व खेत को समतल कर लेना चाहिए और प्रत्येक 40-50 मीटर की दूरी पर जल निकास के लिए गहरी नालियाँ बना लेनी चाहिए।

निंदाई-गुडा़ई एंव खरपतवार नियंत्रण

          प्रारंभिक अवस्था में (बोआई से 3-6 सप्ताह) नींदा नियंत्रण अति आवश्यक है। बाजरे की पंक्तियों के बीच हल्का कल्टीवेटर चलाकर या खुरपी द्वारा 1-2 बार निंदाई करके खरपतवारों को नष्ट करना आवश्यक रहता है। म. प्र. के ग्वालियर व चंबल संभाग में बोआई के 20-30 दिन में बाजरे की खड़ी फसल में अन्र्तकर्षण क्रिया (गुर्र) की जाती है। बाजरे के साथ उगने वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिएि एट्राजीन या प्रोपाक्लोर 0.5 किग्रा./हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर बीज जमाव के पूर्व छिड़काव करना चाहिए। बाजरे की फसल को चिड़ियाँ व तोते बहुत पहुँचाते हैं।अतः इनसे फसल की सुरक्षा करनी चाहिए।

फसल की कटाई एंव गहराई

          सामान्य तौर पर यह फसल अक्टूबर में तैयार हो जाती है। जब बालियाँ अच्छी तरह पक जाती है, दाने कड़े हो जाते हैं और उनमें नमी की मात्रा घटकर 20 प्रतिशत रह जाए तब बालियों को दराँती द्वारा काट लिया जाता है। बालियाँ काट लेने के बाद बाजरे के पौधों को काटकर हरे चारे या सुखाकर कड़वी के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। बालियों को लगभग एक सप्ताह तक खलिहान में  सुखाया जाता है। तत्पश्चात् बैलों की दाॅय चलाकर गहाई की जाती है। दाना-भूसा को अलग करने हेतु ओसाई करते हैं अथवा मड़ाई-यन्त्र द्वारा दाने अलग कर लिये जाते हैं।

उपज एंव भंडारण


          उन्नत विधियों द्वारा संकर बाजरे की खेती करने पर औसतन 30-35 क्विंटल  प्रति हे. तक दाने की उपज मिल सकती  है। वर्षा आश्रित फसल की उपज वर्षा की मात्रा व उसके वितरण पर निर्भर करती है। बाजरे की कड़वी की उपज 80-100 क्विंटल  प्रति हे. तक मिलती है। दानों को अच्छी तरह 3-4 दिनों तक धूम में सुखाया जाता है जब दोनों  में नमी का अंश 13-14 प्रतिशत से कम हो जाये तब उन्हें बोरों में भरकर भंडार गृह में रखना चाहिए।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए करे एलोवेरा की वैज्ञानिक खेती


डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

एलोवेरा को धृतकुमारी और गवारपाठा के नाम से भी जाना जाता है।  एलोवेरा (एलोवेरा बार्बाड़ेंसिस)  एक बहुवर्षीय और विशिष्ट औसधीय महत्त्व का लिलियेसी कुल का पौधा है जिसका उपयोग एलोपेथी, होम्योपेथी, यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतिओं में बखूबी  से किया जाता है।  इसकी पत्तीओं पर क्यूटिकल की मोटी परत होती है तथा किनारों पर कांटे पाये जाते है।  ये मांसल पत्तियां अपने अन्दर पारदर्शक गाढ़ा तरल पदार्थ संचित किये रहती है जिसको एलो जैल कहा जाता है।  इसकी पत्तियों में 94 % पानी तथा अन्य 6 % में 20 प्रकार के अमीनो एसिड, कार्बोहायड्रेट एवं अन्य रासायनिक घटक होते है. एलोवेरा में मुख्य क्रियाशील तत्व  “एलोइन” नामक ग्लूकोसाइड समूह होता है , इसका मुख्य घटक बारबेलोइन है।  एलोइन त्वचा पर एक सुरक्षा परत का निर्माण करता है जो त्वचा को हानिकारक पराबैगनी विकिरण से बचाती है।  इसी गुण के कारण इसका उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री निर्माण में किया जाता है।  इसके अलावा यह त्वचा पर पर्याप्त नमीं बनाए रखता है .इसकी पत्तीओं को काटने पर एक पीले रंग का तरल पदार्थ निकलता है जिसका इस्तेमाल आँख सम्बन्धी बीमारिओ में किया जाता है।  एलो को कच्चा खाने पर कब्ज में राहत मिलती है तथा अम्लता नियंत्रित होती है . बाजार में जीते भी अच्छे किस्म के हैण्डलोशन, बॉडी लोशन, हेयर शैम्पू, सेविंग लोशन, जनरल मोस्चुराइजर, काफ सीरप आदि उपलब्ध है, उन सभी में इसका उपयोग बहुतायत में किया जाता है .एलोवेरा को आजकल स्वास्थ्यवर्द्धक भोज्य पदार्थ के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। एलोवेरा फसल से अधिकतम पैदावार लेने के लिए उन्नत कृषि तकनीक प्रस्तुत है। 

उपयुक्त जलवायु एलोवेरा उष्ण और उपोष्ण जलवायु का पौधा है . आमतौर पर इसे भारत के  सभी शुष्क क्षेत्रों में सुगमता से उगाया जा सकता है। इसकी सफल खेती के लिए 25-35 डिग्री सेंटीग्रेड औसत तापमान होना चाहिए।  शीत ऋतु में कम तापमान हो जाने से इसकी वानस्पतिक वृद्धि रुक जाती है।  इसको पानी की आवश्यकता बहुत कम है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

एलोवेरा को प्रायः सभी प्रकार की भुमिओं में उगाया जा सकता है , परन्तु बलुई व वलुई दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। जल निकासी की उचित सुविधा होने पर चिकनी दोमट मृदा में भी इसे लगाया जा सकता है।  भूमि का पी.एच.मान 6.5-8.5 के मध्य होना चाहिए . वर्षा ऋतु में जलभराव वाली मृदाए इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है।  खेत की तैयारी भूमि के प्रकार पर निर्भर करती है . हल्की मृदाओं में 1-2 जुताईयाँ काफी है जबकि चिकनी दोमट तथा पथरीली जमीनों में 3-4 जुताईयों की आवश्यकता होती है . भुरभुरी मिट्टी में इस फसल की वृद्धि अच्छी होती है। 

रोपाई  का समय

इसकी रोपाई  सिंचित क्षेत्रों मे सर्दी के महीनों को छोडकर वर्ष भर की जा सकती है परंतु अच्छी पैदावार के लिए इसकी रोपाई  जुलाई  अगस्त के महीनों मे करनी चाहिए।

रोपण समंग्री एवं रोपाई

एलोवेरा के पौधों से जड़ो के स्थान के समीप छोटे-छोटे पौधे निकल आते है।  ये पौधे बहुधा अगस्त से नवम्बर तथा फरवरी से अप्रेल के मध्य निकलते है।  एक मातृ पौधा लगभग 8-14 तक छोटे पौधे उत्पन्न कर सकता है . इन पौधों को निकालकर फरवरी-मार्च अथवा अगस्त-सितम्बर मुख्य खेत में लगा देना चाहिए। पौधों को 50 x 40  सेमी. की दूरी पर रोपने के लिए 60 से 65 हज़ार कल्लों (छोटे पौधों) की आवश्यकता होती है।  पौधे मेंड़ अथवा कूंड में लगाना अच्छा रहता है।   पौध लगाने के एक-दो दिन पश्चात खेत में सिचाई करना चाहिए।   

खाद एवं उर्वरक

एलोवेरा की पत्तीओं की अधिकतम उपज लेने की लिए खाद और उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग आवश्यक होता है . पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परिक्षण के आधार पर करना चाहिए।  एलोवेरा को मुख्य पोषक तत्वों के अलावा कुछ सूक्ष्म तत्वों की भी आवश्यकता होती है , क्योंकि सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता से इसमें पाए जाने वाले जैल की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार होता है।  आज कल इसके हर्बल उत्पादों की अधिक मांग है।  इसे देखते हुए इसमें जैविक  खाद का इस्तेमाल करना उचित रहता है . भूमि की तैयारी के समय अंतिम जुताई से 15-20 दिन पूर्व 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद  या फिर 8-10 टन कम्पोस्ट मृदा में मिला देना चाहिए . इसके अलावा 30 किग्रा. फॉस्फोरस और 30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के समय कुडों में देना चाहिए . रोपाई के एक माह के अंतराल पर 20 किग्रा. नत्रज़न्न प्रति हेक्टेयर की दर से दो बार देना चाहिए . सूक्ष्म पोषक तत्वों में मैग्नीशियम सल्फेट 10 किग्रा., जिंक 5 किग्रा और नीला थोथा 2 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के समय अन्य उर्वरको के साथ दिया जा सकता है। 

सिचाई प्रबंधन

एलोवेरा शुष्क जलवायु वाली फसल होने के कारण इसे अधिक जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है।  ग्रीष्मकाल में आवश्यकतानुसार 2-3 सिचाई करने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।  वर्षा ऋतु में खेत में जल निकास का उचित प्रबंध जरुरी होता है। 
घरेलु इस्तेमाल के लिए गमले में लगाये एलोवेरा
जमीन की उपलब्धता ना होने पर आप  ग्वारपाठा को गमलों में भी लगा सकते है।  इससे आपके परिवार को ताज़ी एवं पौष्टिक पातियाँ घर में ही उपलब्ध हो सकती है।  पौध वृद्धि और पत्तीओं के समुचित विकास के लिए धूप आवश्यक होती है।  गमलों में आवश्यकतानुसार झारे से पानी भी देते रहना चाहिए। 
निराई  गुड़ाई 
एलोवेरा के पौधे धीमी गति से बढ़ते है अतः प्रथम वर्ष फसल की खरपतवारों से रक्षा करना आवश्यक है।  रोपाई के एक माह पूर्व एट्राजीन 0.5 किग्रा.सक्रिय तत्व प्रति झेक्टेयर की दर से छिड़कने से खरपतवार प्रकोप कम होता है।  रोपाई के एक मास बाद पहली निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। इसके बाद 1-2 निराई- गुड़ाई प्रति डॉ माह बाद करना चाहिए।  निराई गुड़ाई प्रति वर्ष करनी चाहिए।  रोग ग्रस्त  तथा सूखे पोधों को निकाल देना चाहिए।
फसल की कटाई
एलोवेरा लगाने के समय के अनुसार इसकी पत्तियाँ लगभग 10-15 माह में काटने हेतु तैयार हो जाती है।  कटाई करने के लिए पूर्ण विकसित पत्तियों का ही चुनाव करना चाहिए जिनका रंग हल्का हरा अथवा हल्का पीलापन लिए हुए होता है।   दिसम्बर का महिना कटाई के लिए अच्छा माना जाता है।  एलोवेरा पौधों से हर तीन माह में नीचे से 3-5 पत्तियाँ धारदार हंसिये से मांग के अनुसार काटना  चाहिए तथा बीच की अविकसित पत्तियों को छोड़ देना चाहिए।  एलोवेरा की फसल एक बार  लगाने से 3-4 वर्ष तक इससे उपज  प्राप्त कर सकते हैं। एलोवेरा की फसल तीन साल तक अच्छी उपज देती है। 
फसल की पैदावार 
एलोवेरा की समय से रोपाई और उचित शस्य प्रबन्धन अपनाने पर लगभग  75-80  टन प्रति हेक्टेयर  पत्तियाँ  तथा 15,000  से 20,000 पौधे (कल्ले और सकर्स के रूप में)  प्रथम वर्ष में प्राप्त  हो सकते हैं। यह उपज अगले दुसरे और तीसरे वर्ष में और अधिक मात्रा में प्राप्त हो सकती है।  इसकी उपज मुख्यतः जलवायु, भूमि के प्रकार, उन्नत किस्में और शस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है। इसकी पत्तियों को सीधे बाजार में अथवा इससे जैल निकालकर बेच दिया जाता है। 

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