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गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

मुनाफे का सौदा है अरहर-तुअर की खेती

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

          भारत में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में अरहर (कैजेनस कजान) का चने के बाद दूसरा स्थान है। खरीफ दलहनी फसलों में अरहर का विशेष स्थान है। दलहनों में यह एक विलक्षण गुण संपन्न फसल है क्योंकि अन्य दालों की अपेक्षा राहर दाल का इस्तेमाल लगभग हर घर में रोजाना किया जाता है।  मांस की तुलना में इसमें प्रोटीन भी अधिक मात्रा में  (21-26 प्रतिशत) पाई जाती है।  प्रोटीन के अतरिक्त इसके दानों में वसा, कार्बोहाड्रेट आदि पौष्टिक तत्व पाये जाते हैं।  यही नहीं इसमें  लोहा तथा आयोडीन के अलावा लायसीन, टाइरोसीन, सिसटिन व आरजिनिन नामक अमीनो अम्ल भी पाये जाते हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य की दृष्टि से अरहर सबसे लाभदायक दाल मानी जाती है। इसकी हरी फलियाँ सब्जी के लिए, भूसी एंव चुनी पशुओं के लिए सर्वोत्तम रातब तथा हरी पत्तियाँ चारे के लिए इस्तेमाल की जाती है।  अरहर के तने (लकड़ी)  टोकरी, छप्पर बनाने और ईधन के रूप में भी  प्रयोग किये जाते है।लाख के कीट पालन में भी अरहर की फसल का उपयोग किया जाता है। अरहर एक गहरी जड़ वाली फसल होने के कारण यह अधोभूमि को तोड़कर वायु संचार के मध्यम से मिट्टी की भौतिक दशा  सुधारती है और जमींन की गहराई से नमीं अवशोषित करती है जिससे असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए अरहर एक आदर्श फसल है।   दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों से भूमि में वायुमंडलीय नत्रजन संस्थापित होने के साथ साथ सूखी पत्तियाँ झड़ने से भूमि में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ती है, जिससे  भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
अरहर फसल के अन्तर्गत क्षेत्रफल और उत्पादन के मामले में विश्व में भारत अग्रणी राष्ट्र है  परंतु अरहर की औसत उपज  (650  किग्रा. प्रति हे.) की दॄष्टि से हम अन्य  अरहर उत्पादक देशों से काफी पीछे है।  दलहनी फसलों विशेषकर अरहर के लगभग स्थिर उत्पादन तथा लगातार तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के कारण दालों की प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपलब्धता 60.7 ग्राम (1951)  वर्तमान में 41.9 ग्राम रह गई है।  दालों की मांग व् आपूर्ति में भारी अंतर को कम करने हेतु भारत सरकार प्रति वर्ष बड़ी मात्रा में दालों का विदेशों से आयात करती है।  दलहनों के घटते उत्पादन और दिनोदिन बढ़ती मंहगाई की वजह से दालें आम आदमी की थाली से बाहर होती जा रही है जिसके कारण देश में कुपोषण की समस्या भी गहराती जा रही है। दलहनी फसलो के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ाने के साथ ही हमें प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कार्य करना होगा तभी देश दलहन उत्पादन के मामले में आत्म निर्भर हो सकता है।  
          अरहर की शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों की खेती करने से सिंचित क्षेत्रों में दो फसलें लेना संभव है। अरहर के बाद गेहूँआलूमसूरचना आदि की खेती की जा सकती है। अरहर के पौधे आरम्भ में धीरे-धीरे बढ़ते हैंअतः अरहर की पंक्तियों के बीच में प्रारम्भिक 2-3 माह तक खाली पडे़ स्थान पर अन्य फसलें सह -फसल के रूप में ली जा सकती हैं। अरहर टाइप -21 की दो पंक्तियों के बीच में शीघ्र पकने वाली उर्द की एक पंक्ति लगानी चाहिए। मूँगफलीतिलअण्ड़ी तथा मक्का की खेती भी अरहर की सह-फसल के रूप में की जाती है। सोयाबीन की चार कतारों के बाद अरहर की दो कतारें बोने से असिंचित क्षेत्रों में दो फसलें ली जा सकती हैं। धान के खेतों की मेड़ों पर अरहर की अच्छी पैदावार होती है। इस लेख में हम लोकप्रिय दलहन अरहर की उत्पादकता बढ़ाने हेतु आधुनिक उत्पादन तकनीक पर विमर्श प्रस्तुत कर रहे है। 

 खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

          अरहर की फसल शुष्क तथा आद्र  व गर्म जलवायु, दोनों ही परिस्थितियों में उगाई जाती है। वानस्पतिक वृद्धि के समय वायुमंडल में पर्याप्त नमी आवश्यक है। फसल की प्रारंभिक अवस्था में पौधों  की अच्छी बढ़वार के लिए गर्म-नम जलवायु तथा पौधों पर फूल पौधों पर फूल आने से लेकर फल्ली और दाने बनते समय तक शुष्क मौसम और तेज धूप की आवश्यकता होती हैं। अरहर की खेती उन सभी क्षेत्रों में की जा सकती है जहाँ खरीफ में 20-30 डिग्री सेग्रे. तापक्रम तथा रबी में 17-22  डिग्री सेग्रे. तापमान उचित  रहता है। फसल पकने के समय उच्च तापमान आवश्यक है। अरहर की खेती 75-100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसके पौधे सूखा सहन कर सकते हैं किन्तु जल भराव व पाला बिल्कुल सहन नहीं कर सकते हैं।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

          समुचित जल निकास वाली हल्की से लेकर भारी सभी प्रकार की मिट्टियाँ जिनमें चूने का अभाव न हो, अरहर की खेती के लिये उपयुक्त है। गंगा-यमुना की मैदानी जलोढ़ मिट्टि तथा मध्यप्रदेश व विर्दभ की कपास वाली भारी काली मिट्टि में अरहर  अच्छी प्रकार से उगाई जाती है। भूमि का पीएच मान उदासीन अच्छा रहता है। इन फसल की खेती उच्चहन एंव भर्री भूमियों के अलावा धान खेतों की मेड़ों में भी जाती है।
          अरहर की जडे़ भूमि में गहराई तक जाती हैं। अतः इसके लिए 15 से. मी. तक एक गहरी जुताई आवश्यक है। खेत की पहली जुताई मिट्टि पलटने वाले हल करके मानसून प्रांरभ होते ही देशी हल ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की जुताई देशी हल से करनी चाहिए। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करना आवश्यक है। खेत की अन्तिम जुताई के समय क्लोरपायरीपास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करने से दीमक आदि कीटों का प्रकोप नहीं होता है। बोआई से पहले जल निकास हेतु खेत में नालियाँ बना लेनी चाहिए।

उन्नत किस्म के बीज का प्रयोग 

         अरहर की किस्मों को दो वर्गों में बांटा गया है।  देर से पकने वाली किस्में अरहर वर्ग में आती है जिनके पौधे ऊंचे बढ़ने वाले होते है। इनमे दिसम्बर से फरवरी तक फूल आते है।  शीघ्र पकने वाली किस्में तुअर वर्ग में आती है जिनके पौधे छोटे होते है।  इनमे सितम्बर से नवंबर तक फूल आते है।   भूमि का प्रकार, बोआई का समय तथा साधनों की उपलब्धता को ध्यान में रखकर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज, प्रतिष्ठित संस्थानों से खरीदना चाहिए तथा अंकुरण परीक्षण कर बोआई करनी चाहिए। भारत के विभिन्न राज्यों के लिए उपयुक्त  अरहर की उन्नत किस्मों की सिफारिश निम्नानुसार की गई है-
  • उत्तरप्रदेश एंव उत्तरांचल : प्रभात, उपास-120, पंत ए-3, मानक, आईसीपीएल-87, एएल-15, आईसीपीएल-84032, पारस, पूसा अगेती, टी -21, मुक्ता, पूसा-74, पूसा-84, पूसा-85, टी-7, टी-17, एनपी (डब्लूआर)-15, पूसा -33 व पूसा-55
  • बिहार एंव झारखंड: प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-87, एएल-151, टी-21, मुक्ता, पूसा-74, पूसा-84, बीआर-183, पूसा अगेती , टी-7, टी-17, आईसीपीएच-8, जेए-3
  • मध्य प्रदेश  : प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-87119, एएल-151, पूसा-74, पूसा-33, टी-21, सागर, मानक, पूसा अगेती, टी-7,टी-17, आईसीपीएच -8, जेए -3
  • छत्तीसगढ़: टाइप-21, प्रभात, उपास-120, प्रगति, आशा, सी-11, नम्बर-148, बीडीएन.-2, बीएसएमआर-736, लक्ष्मी, के एम -7, बहार, राजीव लोचन
  • राजस्थान : प्रभात, उपास-120, टी-21, शारदा, पारस, पूसा अगेती, टी-17, पूसा-33, पूसा-55
  • हरियाणा: प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-84031, एएल-15, एच-73-20, एच-73-14, पूसा-74, मानक, पारस, टी-7, टी-17, पूसा-33, पूसा-74
अरहर की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्मों के नाम        अवधि (दिनों में)     उपज(क्विंटल/हे.)             प्रमुख विशेषताएँ
               
प्रगति                           116-125                      11-19              फैलने वाली, 100 दाने 8.6 ग्रा.
आई.सी.पी.एल.-151       120-125                      08-09              दाने गोल बड़े, धूसर सफ़ेद रंग
आई.सी.पी.एल.-87         125-125                      08-09              दाने  हल्के लाल रंग, माध्यम गोल
उपास- 120                   130-135                     16-20              100 दानों का भार 7.5 ग्राम।
टाइप - 21                     160-170                     16-20              बीज छोटा, हल्का कत्थई रंग।
नम्बर - 148                  160-170                     10-12              100 दानों का भार 10 ग्राम।
सी - 11                        180-200                     15-20              उठका निरोधक ।
जवाहर अरहर - 4           180-200                     16-18              उठका व फली बेधक निरोधक।
जे. के. एम. - 7               173-180                     18-20              उठका निरोधक, 100 दाने 3 ग्रा.।
आशा                            160-170                     16-18              उठका व बाँझपन निरोधक।
प्रभात                           135-150                     12-15              उठका रोग शहनशील, सघन पौध।
पूसा-33                        145-155                     18-20              अर्द्ध फैलाव, 100 दाने 7.2 ग्राम।
जाग्रति                          140-150                     18-20              अर्द्ध फैलाव, 100 दाने 10.2 ग्रा.।
आईसीपीएच-8               125-130                      20-24              संकर, 100 दाने 7.7 ग्रा.।
एकेपीएच - 4101           130-140                      20-24              संकर, 100 दाने 8.7 ग्रा.।
आईसीपीएल-87119       170-180                      25-30              स्टैरिलिटी मौजेक निरोधक।
बहार                            200-250                     18-20               बन्ध्यता रोग निरोधक।
राजीव लोचन                 180-190                     18-20               उकठा व बाँझपन निरोधक।

आवश्यक है समय पर बुआई 


अरहर की बुआई वर्षारम्भ होने के साथ ही जून के अन्तिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह में करना सर्वोत्तम है। सिंचित क्षेत्रों में 15 जून से 5 जुलाई तक बो देना चाहिए। देरी से बोआई करने से उपज में भारी कमी होने की सम्भावना रहती है क्योंकि पकने के समय तापमान कम होने के कारण फल्लियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है। भारी मानसून की दशा में कभी-कभार जून-जुलाई में अरहर की बोआई संभव नहीं हो पाती। इन परिस्थितियों में सिंचाई सुविधा होने पर अरहर की बोआई सिंतबर माह में की जाती है। इस समय बोने के लिए  अरहर की पूसा-33, टी-21, आशा, सी-11 आदि किस्में उपयुक्त पाई गई है। गन्ना, सरसों, आलू अथवा गेहूँ फसल के बाद भी अरहर की बुआई  फरवरी से अप्रैल(बसंत) तक की जाती है। प्रयोगों द्वारा पता चलता है कि जून-जुलाई में बोई गई अरहर की अपेक्षा बसंत में बोई  गई फसल से 25 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है।

बीज दर एवं बीजोपचार

          अच्छी उपज के लिए सदैव उत्तम गुणवत्ता वाला प्रमाणित बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। सामान्य तौर पर 12-15 किलो बीज (शुद्ध फसल) तथा 5-6 कि.ग्रा. बीज (मिश्रित फसल) प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोना चाहिऐ। बुआई के पूर्व बीज को कवकनाशी दवा बाविस्टीन या थायरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए। इसके पश्चात् बीज को  अरहर के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना भी आवश्यक है । एक पैकेट कल्चर  10 किग्रा. बीज के लिए पर्याप्त होता है। इस कल्चर को बीज में मिलाने के लिए आधा लीटर पानी को गरम करके इसमें 50 ग्राम गुड़ घोल लेते है। पूर्णतः ठंडा हो जाने के पश्चात् इस घोल में 250 ग्राम के राइजोबियम कल्चर का पूरा पैकेट मिला देते हैं। इस मिश्रण को 10 कि.ग्रा. बीज के ऊपर छिड़ककर हल्के हाथ से मिलाया जाता है जिससे बीज के ऊपर एक हल्की परत बन जाय। इस बीज को छाया में 2-3 घन्टे सुखाने के बाद प्रायः सांय को बोआई करनी चाहिए। जिस खेत में अरहर पहली बार ली जा रही है वहाँ कल्चर से उपचारित कर बीज बोना आवश्यक रहता है ।

बोआई की विधि

          अरहर की मिश्रित फसल ज्वार, बाजरा के साथ लेने पर बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है। यह दोषपूर्ण विधि है। जहाँ तक संभव हो अरहर की बोआई कतार विधि से करनी चाहिए। इसके लिए शीघ्र पकने वाली जातियों को 50 सेमी. कतार से कतार एंव 20 सेमी.  पौध से पौध की दूरी पर बोना चाहिऐ। असिंचित या बारानी अवस्था में लम्बी अवधि वाली फैलने वाली किस्मों के लिए दो कतारों के मध्य दूरी 90 सेमी. तथा पौधों के बीच 30 सेमी. की दूरी रखना चाहिए। बुआई हल के पीछे पँक्तियों में या सीडड्रिल से करते हैं। बतर में खेत होने पर ट्रेक्टर  अथवा बैल जोड़ी द्वारा माँदा-कूँड़ बनाकर बीज की बुवाई माँदा पर करें तथा जल की निकासी कूँड़ द्वारा करें। अरहर के बीज कतारों में 4 से 6 सेमी. गहराई पर बोना चाहिये।

खाद एंव उर्वरक

          उर्वरकों की उचित मात्रा का निर्धारण मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना लाभदायक होता है। अरहर से  अधिकतम उपज लेने हेतु अरहर को भी संतुलित मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है। गोबर की खाद या कम्पोस्ट 5-8 टन प्रति हे. की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए । फल्लीदार फसल होने के कारण इसे नत्रजन की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती है। परंतु प्रारम्भिक अवस्था में थोड़ा नत्रजन देना आवश्यक है। अरहर की भरपूर पैदावार लेने के लिए साधारणतः प्रतिहे. 20-30 किलो ग्राम नत्रजन, 40-60 किलो ग्राम स्फुर एंव 20-30 किलो ग्राम पोटाॅश प्रति हेक्टेयर  देना चाहिए। इनकी सम्पूर्ण मात्रा बोने  के समय कूँड़ों में डालना चाहिये। उर्वरक बीज के संपर्क में नहीं आना चाहिए। अतः उर्वरकों को बीज की कतार से 5 सेमी. दूर तथा बीज की सतह से 5 से.मी. की गहराई पर देना लाभप्रद रहता है। जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में जिंक सल्फेट 20 किग्रा. प्रति हे. बुवाई से पूर्व खेत में देना लाभदायक पाया गया है। उर्वरकों को छिड़कवाँ पद्धति से नहीं देना चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण

          खरीफ की फसल में खरपतवारों की बढ़वार लगभग तीन सप्ताह में काफी हो जाती है जिससे अरहर की वानस्पतिक वृद्धि बुरी तरह से प्रभावित होती है। अरहर की 20-60 दिन की अवस्था बहुत क्रान्तिक है जब फसल को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए। अरहर के उत्पादन में 20-40 प्रतिशत तक कमी खरपतवारों द्वारा होती है। अरहर में दो बार निंदाई-गुड़ाई 25-30 दिन पर व 45-60 दिन की अवस्था पर करना चाहिए। प्रारंभिक खरपतवार नियंत्रण के लिये रासायनिक नींदानाशक जैसे - फ्लूक्लोरिन(बासालिन) 0.75-1.0 किलो सक्रिय तत्व प्रति हे. को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बोआई से पहले मिट्टि में छिडक कर मिट्टि में अच्छी तरह मिला देना चाहिए अथवा पेन्डीमिथेलिन(स्टाम्प) 0.75-1.0 किलो सक्रिय तत्व प्रति हे. या एलाक्लोर (लासो) 1.0-1.5 किलो सक्रिय तत्व प्रति हे. का घोल बनाकर अंकुरण पूर्व छिड़काव करें।  स्प्रेयर नहीं होने पर दवा को रेत में मिलाकर (70-80 किलो रेत प्रति हे.) खेत में सीधा और आड़ा समान रूप से बिखेरना चाहिऐ।

सिंचाई एवं जल निकास 

          अरहर वर्षा ऋतु की फसल है इसलिये सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। परन्तु देर से पकने वाली जातियों जैसे-सी-11, आशा आदि में नमी के अभाव में एक सिंचाई करने से पैदावार बढ़ जाती है। अरहर की फसल को पूरे जीवन काल में  लगभग  30-40  सेमी. जल की आवश्यकता होती है  । अरहर की फसल में शाखा बनने (बोआई से 30 दिन बाद), पुष्पावस्थ (70 दिन बाद) तथा फल्ली बनते समय (110 दिन बाद) खेत में नमी की कमी नहीं होना चाहिए। देर से पकने वाली किस्मों की पाले से सुरक्षा हेतु दिसम्बर या जनवरी माह में सिंचाई करना लाभप्रद पाया गया है। अधिक वर्षा होने की स्थिति में खेतों से जल निकासी का उत्तम प्रबंध रखें।

समय पर फसल कटाई - गहाई

          अरहर की फसल किस्मों के अनुसार 4 से 8 माह तक तैयार हो जाती है। जून में बोई गई अगेती किस्में नवम्बर-दिसम्बर तथा देर से पकने वाली किस्में मार्च-अप्रैल में काटी जाती हैं। अरहर की कई किस्मों में फल्लियाँ एक साथ नहीं पकती है।  ऐसी स्थिति में फलिओं की तुड़ाई अलग अलग समय में भी की जा सकती है।  वैसे  लगभग 75 प्रतिशत फल्लियाँ पक जाने पर कटाई कर लेनी चाहिए। अधिक सूखने पर फलिओं से  दाने झड़ने लगते हैं। पौधों को गडासे से भूमि की सतह से काट लिया  जाता है। कटाई कर फसल  के बण्डल बना लिये जाते हैं और उन्हें खलियान में लाकर सुखाया जाता है। सूखने के पश्चात् डंडो से पीटकर या जमीन पर पटकर फल्लियाँ डंठल से अलग कर लेते हैं। पुलमैन थ्रेशर से भी अरहर की गहाई की जाती है। सफाई के बाद दानों को एक सप्ताह तक धूप  में सुखाना आवश्यक है जिससे उनमें नमी की मात्रा घटकर 8-10 प्रतिशत रह जाये।

उपज एंव भण्डारण   


          सिंचित क्षेत्रों में अरहर की शुद्ध फसल से औसत 20-25 क्विंटल /हे. दाना, लगभग इतना ही भूसा तथा 50-60 क्विंटल /हे. सूखा डठंल प्राप्त होता है। इसकी मिश्रित असिंचित फसल से औसत उपज 2-8 क्विंटल /हे. प्राप्त हो जाती है। भण्डारण के लिए दाने में 8-10 प्रतिशत नमी होना चाहिए। सामान्यतौर पर अरहर के दानों  से लगभग 70 प्रतिशत तक दाल प्राप्त की जाती है।

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बुधवार, 5 अप्रैल 2017

खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा के लिए जरूरी है रागी की खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

रागी (इल्यूसाइन कोरकाना) जिसे आमतौर पर मंडुआ भी कहते है, भारत में उगाए जाने वाले लघु धान्यों में सबसे महत्वपूर्ण एंव जीविका प्रदान करने वाला खाद्यान्न है।   रागी का दाना काफी पौष्टिक होता है जिसका आटा व दलिया बनाया जाता है। आटे से रोटी, पारिज, हलवा व पुडिंग तैयार किया जाता है। मधुमेह रोग के लिए यह विशेष रूप से लाभप्रद है। मधुमेह पीड़ित व्यत्कियों के लिए चावल के स्थान पर मंडुवा का सेवन उत्तम बताया गया है। इसके दाने में लगभग 7.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.3 प्रतिशत वसा, 72 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 2.7 प्रतिशत खनिज, 2.7 प्रतिशत राख तथा 0.33 प्रतिशत कैल्शियम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फाॅस्फोरस, विटामिन- ए व बी भी पाया जाता है। रागी के प्रसंस्करण से आटा तैयार किया गया है जो कि मधुमेह पीड़ित व्यक्तियों के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है। रागी के अंकुरित बीजों  से माल्ट भी बनाते हैं जो कि शिशु आहार तैयार करने में काम आता है। इसके दानों से उत्तम गुणों वाली शराब  भी तैयार की जाती है।
भारत में रागी की खेती 15.84 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की गई जिससे 22.20 लाख हजार टन उत्पादन लिया गया। रागी की राष्ट्रीय औसत उपज 1421 किग्रा. प्रति हेक्टेयर है। जलवायु परिवर्तन के कारण घटते खाद्यान्न उत्पादन और कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटने के लिए देश में रागी की खेती के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार और प्रति इकाई अधिकतम उपज लेने की महती आवश्यकता है । मंडुआ की खेती से सर्वाधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत उन्नत तकनीक का प्रयोग हितकारी साबित हो सकता है 

उपयुक्त जलवायु

          रागी शुष्क एंव नम जलवायु के लिए उपयुक्त फसल है। इसे 50 से 75 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले स्थानों में भली प्रकार उगाया जा सकता है। सिंचाई की सुविधा होने पर इसे उष्ण मौसम में भी उगाया जा सकता है। इसके बीज अंकुरण के लिए 24  तापमान उपयुक्त रहता है। फूल आने की अवस्था पर 11-12 घंटे की प्रकाश अवधि रहती है।

भूमि का चयन और खेत की तैयारी

          अच्छे जल निकास वाली दोमट से हल्की दोमट भूमि रागी की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। मृदा में नमी धारण करने की क्षमता होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ एंव म. प्र. में यह फसल भारी, हल्की रेतीली, उतार-चढ़ाव वाली भूमि में उगाई जाती है। अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं होती है, पहाड़ी पथरीले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है।
          रागी की अच्छी फसल हेतु महीन एंव समतल भूमि चाहिए। अतः वर्षा प्रारंभ होने के पश्चात् ही एक जुताई मिट्टि पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद दो बार हल और बखर से अच्छी तरह जुताई कर पाटा चलाना चाहिये।

उन्नत किस्मों का प्रयोग 

          उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि स्थानीय किस्मों की तुलना में इनसे लगभग 25-30 प्रतिशत अधिक पैदावार ली जा सकती है। रागी की उन्नत किस्मों में ईसी-4840, पीआर-202, वीएल-101, वीएल-149, वीएल-204, पीइएस-176, एचआर-374, निर्मल, विक्रम  आदि देश के विभिन्न राज्यों में उगाई जा रही है . मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त रागी की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
  • जे. एन. आर. 852: यह किस्म लगभग 110 दिन में पककर तैयार हो जाती है। प्रत्येक बालियों में 8-10 अंगुलियाँ होती हैं। इसकी औसत पैदावार 15 से 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
  • जे. एन. आर. 981-2: यह किस्म  लगभग 100 दिन में पककर तैयार होती है। इसकी औसत उपज क्षमता  20 क्विंटल/हेक्टेयर  है.
  • जे. एन. आर. 1008:  यह किस्म 100 से 105 दिन में पक कर 20-22 क्विंटल/हेक्टेयर तक उपज देती  है। दानों का रंग गुलाबी होता है।
  • व्ही. एल. 149: यह किस्म 98-102 दिन में तैयार होकर औसतन 20-25 क्विंटल/हेक्टेयर प्राप्त उपज देती है। यह ब्लास्ट रोग प्रतरोधी किस्म है।
  • एचआर 374: यह  किस्म अवधि 100 दिन में तैयार होकर  20-21 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है।
  • पी आर - 202: यह किस्म 110 दिन में तैयार होकर 19-20 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है।

बोआई का समय

          रागी को जून से लेकर अगस्त तक कभी भी बोया जा सकता है। रागी की बुआई मानसून के आगमन के तुरन्त बाद जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक करना उपयुक्त होता है। समय पर बोआई करने से उपज भी अधिक मिलती है एंव रोग तथा कीट का प्रकेाप भी कम होता है। दक्षिणी भारत के सिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती वर्ष भर की जाती है। बोआई 25 जुलाई के बाद करने पर मक्खी-कीट से काफी हानि होती है।

बीज एंव बोआई

          उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करें। प्रति हेक्टेयर 8-10 किग्रा. तथा छिड़का बोआई के लिए 12-15 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त हेता है। बोने से पहले बीज को 3 गा्रम थायरम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित अवश्य करें। पंक्तियों में बोने के लिए बीज या तो देशी हल द्वारा कूंड़ में या फिर सीड ड्रिल द्वारा बोया जाता है। पंक्तियों की दूरी 22.5 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 7.5 सेमी. रखनी चाहिए। ढलान युक्त खेतों में ढाल के विपरीत बोआई करने में नमी संरक्षित होती है और मृदा कटाव भी कम होगा। बीज की बोआई 3 सेमी. से ज्यादा गहरा नहीं   होना चाहिए। जहाँ पौधे न जमे हो वहाँ अधिक घने स्थान से पौधे उखाड़कर बोआई के 15 से 25 दिन के अंदर लगायें अथवा रोपाई करें। यह कार्य रिमझिम गिरते पानी में करना चाहिए ताकि पौधों की जड़ों का जमाव अच्छी तरह से हो सके।
          रागी फसल रोपाई करके भी उगाई जा सकती है। रोपाई के लिए बीज पौध शाला में मई के अंत तक बो देना चाहिए। रोपाई हेतु नर्सरी उगाने में 4 किग्रा. बीज/हे. की आवश्यकता पड़ती है। जब पौध 25-30 दिन की हो जाये तो वर्षा के तुरंत बाद रोपाई कर देना चाहिए। रोपाई में कतार की दूरी 25 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखनी चाहिए।

खाद तथा उर्वरक

          आमतौर पर किसान रागी फसल में खाद-उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करते है  परन्तु इसकी  अच्छी उपज लेने के लिए 40 किलो नत्रजन तथा 30-40 किलो स्फुर तथा 20-30 किग्रा. पोटाॅश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। सभी उर्वरकों को अच्छी तरह मिलाकार बोते समय ही बीज से 4-5 सेमी. की दूरी पर बनें कूड़ों में डालना चाहिए दावा खेत मे छिटककर मिला देना चाहिए। नत्रजन का आधा भाग बोआई के समय व शेष भाग प्रथम निंदाई के ठीक बाद अर्थात बोआई के 25 से 30 दिन के पश्चात् कूड़ों में देना चाहिए। जैविक खाद यथा गोबर की खाद या कम्पोस्ट 5-7 टन प्रति हेक्टेयर खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टि में मिलाना चाहिए। इनका प्रयोग करने पर उर्वरक की मात्रा कम कर देनी चाहिए।

सिंचाई एंव जल निकास

          खरीफ में बोई जाने वाली फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। ग्रीष्म या रबी में बोई जाने वाली फसल में 2-3 सिंचाई देने उपज में बढोत्तरी होती है। रागी की फसल जल मग्न अवस्था में नहीं उग सकती। इसके लिए अच्छे जल निकास का होना आवश्यक है। अतः बोने से पूर्व खेत को समतल करके सुविधानुसार नालियाँ बना देना  चाहिए जिससे वर्षा का अतिरिक्त पानी खेत से बाहर निकल जाए।

खरपतवार नियंत्रण

          फसल बोने के 20-25 दिन के बाद एक बार निंदाई-गुड़ाई करना चाहिए। दूसरी निंदाई 40 से 45 दिन में अवश्य पूरी कर लेनी चाहिए। कतारों  में फसल बोने पर निंदाई-गुड़ाई का कार्य हल या हैरो द्वारा किया जा सकता है। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए बोआई पश्चात् या अंकुरण पूर्व आइसोप्रोट्यूरान नामक रसायन 500 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए। इसके अलावा बोआई के 40-45 दिनों बाद 2,4-डी सेडियम लवण 400 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से सँकरे व चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।

कटाई -मड़ाई और उपज 


          रागी की जून-जुलाई में बोई गई फसल दिसम्बर के अन्त (90-110 दिन) तक पककर तैयार हो जाती है। हँसिये से फसल की कटाई कर ली जाती है व बालियों को तने से अलग कर धूप में अच्छी तरह से सुखा लिया जाता है। सूखी बालियों को पीट कर अथवा बैलों की दाॅय चलाकर दाने अलग कर लिये जाते हैं। रागी की उत्तम फसल से प्रति हेक्टेयर 15-20 क्विंटल  दाना तथा 25-30 क्विंटल  सूखा चारा प्राप्त होता है। जब दाने अच्छी तरह सूख जायें और उनमें नमी 10-12 प्रतिशत से अधिक न हो तो उन्हें बोरियों में भर कर सूखे भंडार गृह में रखना चाहिए।

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