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रविवार, 9 अप्रैल 2017

समझदारी से करें खरीफ फसलों में खरपतवार प्रबंधन

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

प्रकृति ने मानव जाति को पौधे और वनस्पतियों का अमूल्य खजाना दिया है जिनके वगैर  हम पृथ्वी पर जीवित नहीं रह सकते है परन्तु  यह भी सत्य है की सभी पौधों को अबाध गति से उगने और बढ़ने नहीं दिया जा सकता।  विश्व में तीन लाख से अधिक पौधों की प्रजातियाँ पाई जाती है, जिनमे से केवल तीन हज़ार जातियां आर्थिक रूप से फायदेमंद पाई गई है।  जब आर्थिक महत्त्व की प्रजातियाँ अर्थात फसलें खेतों में उगाई जाती है, तो उनके साथ बहुत से अवांक्षित पौधे भी स्वतः उग जाते है जो फसल उत्पादन और उत्पाद की गुणवत्ता को भारी क्षति पहुंचाते है ।  इन्ही अवांक्षनिय पौधों को हम खरपतवार यानि दुष्ट पौधे कहते है।  हमारे किसान भाई  उपलब्ध सीमित संसाधनों द्वारा बढती जनसँख्या का भरण पोषण करने हेतु हाड़ तोड़ मेहनत करके खाद्यान उत्पादन बढाने निरंतर प्रयासरत है परन्तु उनके द्वारा उगाई जाने वाली फसलों के साथ अवांक्षित पौधे भी उग आते है जो फसल के साथ स्थान, नमीं, पोषक तत्व, प्रकाश आदि के लिए प्रतियोगिता करने लग जाते है जिससे उनका उत्पादन काफी कम हो जाता है।  एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में विभिन्न व्यधिओं  से प्रति वर्ष लगभग 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपये की हानी होती है जिसमे से 51,800 करोड़ रुपये की हाँनि खरपतवार प्रकोप से होती है।  ऐसे में हमें फसलों में  खरपतवार नियंत्रण के लिए समझदारी से कार्य करना होगा तभी खेती में लगने वाले धन और श्रम का सही प्रतिफल प्राप्त हो सकेगा।  इस आलेख के माध्यम से खरपतवारों से खरीफ फसलों को होने वाली संभावित  हाँनिया और उनके नियंत्रण के समसामयिक उपाय पर चर्चा प्रस्तुत कर रहे है। 

धान के प्रमुख खरपतवार : सावा (इकाइनोक्लोआ कोलोना), कोदों (एल्युसिन इंडिका), कनकौआ (कोमेलिना बेंघालेंसिस), जंगली जूट (कार्कोरस एक्यूटेंगूलस), मोथा (साईंप्रस), जंगली धान आदि 
मक्का, ज्वार, बाजरा : दूबघास (साइनोडॉन डेक्टिलोन), गुम्मा (ल्यूकस अस्पेरा), मकोय (सोलोनम नाइग्रम),कन्कौआ, जंगली जूट, सफ़ेद मुर्ग, सावा, मोथा आदि। 
खरीफ की दलहनी एवं तिलहनी फसलें: मह्कुआ (एजिरेटम कोनीज्वाइडस), हजार दाना (फाइलेंथस निरुरी), दुद्धी (यूफोरबिया हिरटा), कन्कौआ, सफ़ेद मुर्ग, सवां, मोथा आदि।     

खरपतवारों से होने वाली हानियाँ

खरपतवारो के प्रकोप से फसल वृद्धि और उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।  समय रहते इन पर काबू नहीं पाया गया तो ये फसलो की पैदावार में 10-85 % तक कमीं कर सकते है,  लेकिन कभी-कभी यह कमी शत-प्रतिशत तक हो जाती है  दरअसल खरपतवार फसल के साथ स्थान, हवा, प्रकाश, पानी और भूमि में डाले गए पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करते है। चूँकि फसलों की अपेक्षा खरपतवार शीघ्र बढ़ने  वाले पादप होते है जिसके कारण वे भूमि से नमीं और पोषक तत्वों का शीघ्रता से अवशोषण कर लेने से फसल को आवश्यक जल और पोषक तत्वों की कमीं हो जाती है जिसके फलस्वरूप फसलों की वृद्धि और विकास अवरुद्ध होने से उपज में कमीं हो जाती है।  खरपतवार  फसल के ऊपर छाया भी करते है जिसके कारण फसल को पर्याप्त प्रकाश और हवा नहीं मिलने से उनमे प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया ठीक से संपन्न नहीं हो पाती है जिसका उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है  खरपतवारों द्वारा विभिन्न फसलों की उपज में होने वाली हाँनि सारिणी-1  में दर्शाई गई है। 

सारणी-1 : खरीफ फसलों में फसल-खरपतवार प्रतिस्पर्धा का क्रांतिक समय एवं खरपतवारों द्वारा उपज में कमीं
फसलें
खरपतवार प्रतिस्पर्धा का क्रांतिक समय (बुआई के बाद दिन )
उपज में कमीं (%)
खाद्यान्न फसलें


धान (सीढ़ी बुआई)
15-45
47-86
धान (रोपाई)
20-40
15-38
मक्का
30-45
40-60
ज्वार 
30-45
06-40
बाजरा
30-45
15-56
दलहनी फसलें


अरहर
15-60
20-40
मूंग
15-30
30-50
उड़द
15-30
30-50
लोबिया
15-30
30-50
तिलहनी फसलें


सोयाबीन
15-45
40-60
मूंगफली
40-60
40-50
सूरजमुखी
30-45
33-50
अरण्डी
30-60
30-50
अन्य फसलें


गन्ना
15-60
20-30
कपास
15-60
40-50
स्त्रोत : खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर  द्वारा प्रकाशित पॉकेट बुलेटिन न. 1/09 के अनुसार

 खरपतवार फसलों के लिए भूमि में उपलब्ध  पोषक तत्वों  का एक बड़ा हिस्सा शोषित कर लेते हैं जिससे फसल की बढ़वार और विकास के लिए  आवश्यक पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं, फलस्वरूप पौधे का  विकास, पुष्पन और दाना निर्माण अवरुद्ध हो जाता है एवं उत्पादन स्तर गिर जाता है. विभिन्न फसलों में खरपतवारों द्वारा पोषक तत्वों का शोषण का विवरण  सारणी-2  में दिया गया है।


सारणी 2: विभिन्न फसलों में खरपतवारों द्वारा पोषक तत्वों का अवशोषण

फसलें
नाइट्रोजन (किग्रा./हे.)
फॉस्फोरस (किग्रा./हे.)
पोटाश (किग्रा./हे.)
धान
20-37
5-14
17-48
मक्का
23-59
6-10
16-32
ज्वार
36-46
11-18
31-47
मूंग
80-132
17-20
80-130
अरहर
28.0
24.0
14.0
मूंगफली
15-29
5-9
21-24
सोयाबीन
26-55
3-11
43-102
गन्ना
35-162
24-44
135-242

स्त्रोत-खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर  द्वारा प्रकाशित पॉकेट बुलेटिन न. 1/09 

इसके अलावा खरपतवार बहुत से कीट और रोगों को आश्रय प्रदान करते है जिसके कारण फसलो में कीट-रोग का अधिक आक्रमण होता है।  खरपतवारों की उपस्थिति से फसल उत्पाद की गुणवत्ता ख़राब होती है  जिससे उत्पाद के मूल्य में भी गिरावट आ जाती है।  मनुष्य और जानवरों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है।  नदी और तालाबों में प्रदूषण फैलाते है और सिचाई तथा जल निकास में भी बाधा पहुचाते है। 

खरपतवारों की रोकथाम के उपाय

सफल फसलोत्पादन के लिए आवश्यक है की खरपतवारों की रोकथाम सही समय पर करना चाहिए जिसके लिए निम्न तरीके अपनाए जा सकते है। 
  1. निवारण विधि : इस विधि में वे सभी शस्य क्रियाए शामिल है जिनके माध्यम से खेतों में खरपतवारों के प्रवेश को रोका जा सकें जैसे उन्नत किस्मों  के प्रमाणित बीजों का प्रयोग, अच्छी प्रकार से सड़ी गोबर खाद और कम्पोस्ट खाद का प्रयोग, ग्रीष्मकालीन जुताई, खेती की तैयारी, सिचाई नालियों की साफ़-सफाई आदि। 
  2. यांत्रिक विधि : खरपतवारों पर नियंत्रण पाने की यह सरल और प्रभावकारी विधि है।  फसल की प्रारंभिक अवस्था में यानि खरपतवार प्रतिस्पर्धा के क्रांतिक समय (सारिणी-1) में फसलों को खरपतवार प्रकोप से मुक्त रखना जरूरी है . सामान्यतः दो निराई-गुड़ाई, पहली बुआई के 20-25 और दूसरी 45 दिन बाद करने से खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण हो जाता है। 
  3. रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण: खेती में लागत कम करने के लिए रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण एक कारगर उपाय है क्योंकि इसमें समय, श्रम और पैसा कम लगता है।  खरीफ फसलों में खरपतवार नियंत्रण के लिए कारगर नींदानाशकों का विविरण सारणी-3 में प्रस्तुत है।

सारिणी-3 खरीफ फसलों में रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण  
फसल का नाम 
खरपतवारनाशी का रासायनिक नाम
खरपतवारनाशी
का व्यवसायिक नाम
मात्रा (ग्राम/हे.)
व्यापारिक मात्र (ग्राम/हे.)
प्रयोग का समय
धान
ब्युटाक्लोर
मैचिटी,वीडकिल, धानुक्लोर
1000-1500
2000-3000
20-25 किग्रा. (5% दानेदार)
बोने के बाद अंकुरण से पूर्व

पेंडीमेथलीन
स्टॉम्प, पेंडी गोल्ड, धानुटॉप
1000-1250
3000-4500
तदैव

एनिलोफ़ॉस
एरोजिन,एनिलोगार्ड
300-400
1200
तदैव

प्रेटीलाक्लोर
सोफिट,रिफिट
750-1000
1500
तदैव

2,4-डी
2,4-डी, एग्रोडान-48, वीडमार, टेफासाइड
750-1000
2000-3000
20-25 किग्रा. (4 % दानेदार)
रोपाई के 20-25 दिन बाद

क्लोरीम्यूराँन + मेटसल्फ्युरान 
आलमिक्स
4
20 (कंपनी मिश्रण)
रोपाई के 20-25 दिन बाद

फिनाक्साप्राप ईथाइल
व्हिपसुपर
70
700-750
रोपाई के 25-30 दिन बाद

पाइराजो सल्फ्युराँन
साथी
25
200
रोपाई के 15 दिन बाद
मक्का, ज्वार,
बाजरा
एट्राजीन
एट्राटाफ, धानुजीन
1000
2000
बुआई के तुरंत बाद

2,4-डी
2,4-डी, एग्रोडान-48, वीडमार, टेफासाइड
750

बुआई के 20-25 दिन बाद
सोयाबीन
एलाक्लोर
लासो
1500-2000
3000-4000
बुआई के 3 दिन के अंदर 

क्लोरीम्यूरोंन
क्लोबेन
8-12
40-60
बुआई के 15-20 दिन बाद

फिनाक्साप्रोप
व्हिप सुपर
80-100
800-1000
बुआई से 20-25  दिन बाद

इमेजेथापायर
परस्यूट
100
1000
बुआई के 15-20 दिन बाद

मेटलाक्लोर
डुअल
1000-1500
2000-3000
बुआई के 3  दिन के अंदर

पेंडीमेथिलिन
स्टॉम्प, पेंडीगोल्ड
1000-1250
3330-4160
बुआई के पहले या बुआई के 3  दिन के अंदर

क्युजालोफॉप इथाईल
टर्गासुपर 
40-50
800-1000
बुआई के 15-20 दिन बाद
अरहर, मूंग,
उड़द
पेंडीमेथिलिन
स्टॉम्प, पेंडीगोल्ड
1000
3330
बुआई के तुरंत बाद

एलाक्लोर
लासो
1500-2000
3000-4000
तदैव

फ्लूक्लोरेलिन
बासलिन
1000-1500
2000-3000
बुआई के पूर्व भूमि में छिड़क कर अच्छी तरह मिला दें। 

इमेजेथापायर
परस्यूट
100
 .. 
बोने के 20 दिन पश्चात
मूंगफली,सोयाबीन,
तिल, रामतिल, सूर्यमुखी
पेंडीमेथिलिन
स्टॉम्प, पेंडीगोल्ड
1000
3330
बुआई के तुरंत बाद
फ्लूक्लोरेलिन
बासलिन
1000-1500
2000-3000
बुआई के पूर्व भूमि में छिड़क कर अच्छी तरह मिला दें। 
इमेजेथापायर
परस्यूट
100

बोने के 20-25  दिन पश्चात
कपास
डायुरान
एग्रोमेक्स,
कारमेक्स
750-1000
900-1150
बुआई के पूर्व भूमि में छिड़क कर अच्छी तरह मिला दें। 

फसल के अनुसार उपरोक्त खरपतवारनाशी की आवश्यक मात्रा को 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से छिडकाव करें।  छिडकाव हेतु नैपशैक स्प्रेयर के साथ फ़्लैट फैन नोज़ल का प्रयोग करें। किसान भाइयों को अधिकम उपज और गुणवत्ता युक्त उत्पाद लेने के लिए खरपतवार नियंत्रण के लिए उपरोक्तानुसार उपाय अपनाने चाहिए। किसी भी फसल में खरपतवार नाशी प्रयोग करते समय खेत में नमीं होना चाहिए। फसल-खरपतवार पर्तिस्पर्धा के समय हर हाल में खेत खरपतवार मुक्त होना चाहिए तभी बांक्षित फसलोत्पादन और आमदनी प्राप्त हो सकती है। खरपतवारनाशी दवाऐ स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक (जहर) होती है अतः इनका प्रयोग  सावधानी पूर्वक करें तथा इनके पॉकेट पर अंकित सभी  निर्देशों का पालन करें। 

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।


शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

टिकाऊ खेती के लिए आवश्यक है फसल चक्र परिवर्तन


डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

भारतीय अर्थव्यस्था में कृषि का विशेष महत्त्व है। आज भी सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १९% भाग कृषि एवं कृषि सम्बंधित व्यवसाय से आता है तथा कृषि आज भी 60 % जनसँख्या को रोजगार प्रदान कर रही है। बढ़ती जनसँख्या के कारण कृषि जोत का आकार  दिनों दिन काम होता जा रहा है। भारत में लगभग 65 % क्षेत्र में  कृषि वर्षा पर निर्भर करती है। मानसून की अनियमितता और वर्षा जल में हो रही कमीं के कारण यहाँ के किसान उन्नत तकनीक के लिए महंगे आदान इस्तेमाल करने का जोखिम नहीं उठाते है जिसके फलस्वरूप उन्हें काफी कम उत्पादन प्राप्त हो पाता है। इस क्षेत्र के किसान वर्षा काल में सिर्फ एक फसल ज्वार, बाजरा, मक्का या धान वर्षों से उगाते आ रहे है जो मौसम की प्रतिकूलता के कारण वांक्षित उत्पादन नहीं दे पाती है।  एक ही फसल की बार बार बुआई करने से भूमि में पोषक तत्वों की कमीं तथा कीट, रोग और खरपतवारों का प्रकोप बढ़ जाता है। अतः  भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखते हुए खाद्यान्न उत्पादन को टिकाऊ बनाने के लिए किसानों को उपलब्ध संसाधनों का कुशल प्रयोग करते हुए फसलों को हेर-फेर कर बोना होगा। फसल चक्र का मुख्य उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखना तथा इसके अलावा फसल संरक्षण, भूमि के भौतिक गुणों को अच्छा बनाये रखना होता है । प्राचीन समय में फसल चक्र में हरी खाद की फसल उगाना तथा खेत को परती छोड़ना आज आवश्यक नहीं रह गया है क्योंकि आधुनिक समय में हमारी जनसंख्या जिस तरह से बढ़ रही है उसके लिए यह आवश्यक है कि सघन खेती वाले कार्यक्रमों के लिए सघन फसल चक्र बनाये जायें ताकि अधिक उत्पादन हो सके। किसी निश्चित  क्षेत्रफल पर निश्चित अवधि में दो या दो से   अधिक फसलों को इस प्रकार हेर-फेर कर बोना कि भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहे, फसल चक्र   कहलाता है। साधारणतया शस्य-जलवायुविक परिस्थितिओ के अनुसार फसल चक्र निम्नलिखित तरह के होते हैं-

  • ऐसे फसल चक्र जिनके पूर्व  या बाद में खेत को  परती छोड़ा जाता  है जैसे- परती-सरसों, परती-गेंहू,  गेहॅू-परती आदि। 
  • ऐसे  फसल चक्र जिनमें मुख्य फसल से पूर्व या बाद में हरी, खाद वाली फसल उगाई जाती है, उदाहरणार्थ हरी खाद-धान, हरी खाद-गेहॅू, गेहॅू-हरी खाद, धान-हरी खाद 
  • ऐसे फसल चक्र जिसमें बिना दाल वाली फसल से पूर्व अथवा बाद में दाल वाली फसल उगाई   जाती है उदाहरणार्थ - धान-मसूर, गेहॅू-मूॅग,ज्वार-चना।
  • भूमि की उर्वरा शक्ति की परवाह न करके अनाज के बाद अनाज वाली फसल लेना जैसे- धान-धान, धान-गेंहू, मक्का-गेहूॅ आदि। 
  • भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये दलहनी  के बाद पुनः  दलहन फसल  लेना जैसे - सोयाबीन-चना, मॅूग-चना, सोयाबीन-मटर आदि। 
  • ऐसे फसल चक्र जिनमें सघनता से कई तरह की फसलों को लिया जाना है जैसे -  मॅूग-मक्का-लोबिआ, लोबिआ-सरसों-गेहॅू, गेंहू-गन्ना आदि।  
उपरोक्त फसल चक्रों में से कृषक सुविधानुसार कोई सा भी फसल चक्र की योजना बना सकते  है।

फसल चक्र हेतु फसलों का चुनाव  

किसी भी फसल चक्र को बनाने से पूर्व उसमें सम्मिलित की जाने वाली फसलों को चुनते समय निम्नलिखित प्रभावी कारकों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए-
जलवायु- इसमें  स्थान विशेष में वार्षिक  वर्षा की मात्रा और वितरण, न्यूनतम और अधिकतम  तापक्रम, प्रकाश की अवधि कारकों के अनुसार फसलों का चयन। 
मृदा का प्रकार -  इसमें मृदा में नमीं,  मृद गठन, मृदा पी. एच. के आधार पर फसलें लगाईं जाती है।शस्य प्रबन्धन- खाद व उर्वरकों की उपलब्धता,  सिंचाई जल की उपलब्धता, पौध सरंक्षण  रसायनों उपलब्धता को ध्यान के रख कर फसलें उगाई जाती है। 
आर्थिक कारक - उत्पाद की घरेलू आवश्यकता या बाजार में मांग, न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि 

फसल चक्र के सिद्वान्त 

फसल चक्र परिवर्तन अथवा फसल विविधीकरण समय की मांग है तथा किसान को जोखिम कम करने एवं टिकाऊ फसल उत्पादन के लिए यह आवश्यक है। फसल चक्र की योजना मौसम  और जलवायु  तथा भूमि की स्थिति और प्रकार के आधार पर बनाई जानी चाहिए।   कोई भी फसल चक्र बनात समय निम्न बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिये -
  • गहरी जड़ों वाली फसलों के साथ उथली जड़ों वाली  उगानी चाहिये जिससे विभिन्न फसलें अलग अलग सतह से नमीं और पोषक तत्वों को ग्रहण कर सकें। 
  • अधिक खाद चाहने वाली फसलों के साथ कम खाद चाहने वाली फसलें बोना चाहिए ताकि  अधिक खाद चाहने वाली फसलों को दिया जाने वाल खाद यदि फसल न ग्रहण कर पाये तो  उसके बाद बोई जाने वाली कम खाद चाहने वाली फसल उसे ग्रहण कर सके तथा वह बेकार    न जाये।
  • अधिक पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम पानी चाहने वाली फसलें बोना चार्हिए जैसे धान के बाद चना, मसूर, अलसी आदि जिससे भूमि की भौतिक और रासायनिक दशा अच्छी बनी रहेगी 
  • दलहनी फसलों के बाद अदलहनी (अनाज वाली) फसलें उगाना चाहिये। दलहनी फसलें अपनी जड़ों में स्थिति   नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले बैक्टीरिया पाये जाते हैं जिससे वायुमण्डल की नत्रजन भूमि में   स्थिर हो जाती हे जिसे अगली बिना दाल वाली फसल आसानी से उपयोग कर सकें।
  • एक ही कुल की फसलों की लगातार बुआई करने से फसलों पर कीट-रोग और खरपतवारों का आक्रमण अधिक होता है साथ ही पोषक तत्वों की सामान मांग होने के कारण भूमि में तत्व विशेष की कमीं हो सकती है। 
  • मृदा क्षरण को प्रोत्साहित करने वाली फसलों (जुआर, बाजरा, मक्का आदि) के बाद मृदा क्षरण को रोकने वाली फसलें (चना, मूंग, मोठ आदि) की बुआई करनी चाहिए। 
  • फसल चक्र बनाते समय उन सभी फसलों का समावेश करना चाहिए जिससे किसान के पास उपलब्ध सभी संसाधन जैसे श्रम, बीज, सिचाई, खाद, पूँजी आदि का पूर्ण एवं समुचित उपयोग हो सकें। 
  • फसल चक्र में इस तरह की फसलों को समायोजित करना चाहिए जिनसे  अधिकाधिक आर्थिक लाभ      हो सके। इसके लिये आवश्यक है कि स्थानीय आवश्यकताओं तथा स्थानीय बाजार  की मांग के अनुसार फसल चक्र बनाया जाये।
फसल चक्र के लाभ 
फसल चक्र के उपरोक्त सिद्धांतों का अनुशरण करते हुए फसल चक्र अपनाने से अग्र लिखित लाभ प्राप्त किये जा सकते है। 
  1. फसल चक्र अपनाने से मृदा उर्वरता तथा मृदा नमी का सन्तुलित रूप से उपयोग होेता है तथा इन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता हैं। उदाहरणार्थ यदि एक फसल मृदा से अधिक मात्रा में पोषक तत्व ग्रहण करती है तो अगली दलहनी फसल मृदा में पोषक तत्व का स्थिरीकरण करती है इस प्रकार सन्तुलन बना रहता है।
  2. विभिन्न दलहनी, उथली,गहरी, जड़ों वाली फसलों का समावेश फसल चक्र में होने के कारण  मृदा के गुणों (भौतिक, रासायनिक, जैविक) पर अच्छा ही असर होता है।
  3. फसल चक्र में विभिन्न तरह की फसलों के समायोजन के कारण खरपतवारों, कीटों तथा बीमारियों पर अचछा नियंत्रण रखा जा सकता है। एक ही फसल बार-बार उगने से इनका   आक्रमण बढ़ता है।
  4. मृदा की उर्वरा शक्ति, मृदा, नमी, वायु, संचार इत्यादि जब अच्छे बने रहते हैं तो फसलोत्पादन स्वतः ही बढ़ जाता है और उपज अपेक्षाकृत अधिक प्राप्त होती है।
  5. कीट तथा बीमारियों से बचाव के कारण फसल उपज की गुणता बढ़ जाती है।
  6. अच्छे गुण वाली अधिक फसल उपज होने के कारण अधिक आर्थिक लाभ होता है।
  7. फसल चक्र अपनाकर खेती करने से सिंचाई के साधनों, फार्म, यन्त्रों, मजदूरों, की उपलब्धता    तथा उपलब्ध अन्य साधनों हम भली-भाॅति उपयोग में ला सकते हैं और उनकी दक्षता  बढ़ा सकते हैं तथा इस प्रकार उनकी आयु भी बढ़ जाती है। 

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

उत्तम बीज ही आधुनिक कृषि का मूल मंत्र


डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

कृषि में फसलोत्पादन को  प्रभावित  करने वाले कारको में जलवायु सम्बंधी कारको के ऊपर प्रकृति का नियंत्रण है हम उनको न ही  बदल सकते है और न ही उन पर किसी प्रकार का नियंत्रण रख सकते है  । लेकिन अन्य कारक जैसे बीज आदि तो  किसान के नियंत्रण में होता  है । उत्तम किस्म का सही बीज इस्तेमाल करना उनका अधिकार ही नहीं एक दायित्व भी बनता है।  कृषि में बीजों का महत्व वैदिक काल से ही ज्ञात है। ऋग्वेद में “सुबीजम सुक्षेत्रे जायते सम्पद्यते” का उल्लेख मिलता है जिसका तात्पर्य है उत्तम बीज को उर्वर भूमि में बोने से अधिक उपज की प्राप्ति होती है।  मानव सभ्यता का जैसे जैसे विकास हुआ मनुष्य  फसल उत्पाद का कुछ अंश बीज के रूप में सुरक्षित रखने लगा ताकि उत्तम पैदावार प्राप्त की जा सके. आज के आधुनिक कृषि  युग में बीज अनुसंधान केंद्र और किसान को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी है . सर्वोत्तम उत्पादन हेतु उत्तम बीजों का इस्तेमाल एक आवश्यक पहलू है।  अनुसंधान केन्द्रों से विकसित नित नई किस्मों का वास्तविक लाभ किसानों को तभी प्राप्त हो सकता है जब उन्हें उत्तम बीजों के बारे में समुचित जानकारी होगी।  कृषि में प्रयुक्त तमाम आदानों यथा बीज, खाद-उर्वरक, पौध रक्षक रसायनों, सिचाई जल और बुआई से लेकर विधायन  खर्च में सबसे प्रमुख आदान उत्तम श्रेणी का बीज ही है।  क्योंकि यदि बीज उच्च कोटि का नहीं है तो किसान द्वारा अन्य मदों पर किया गया निवेश व्यर्थ जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप किसान को भारी मानसिक और आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ती है।  इसलिए किसान भाइयों को हमेशा उत्तम श्रेणी के बीज ही बुआई के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। उन्नत किस्मों का चयन करते समय अपने क्षेत्र विशेष के लिए अनुमोदित किस्मों का चयन करना चाहिए वर्ना उत्तम बीज होने के बावजूद भी उस किस्म की उत्पादन क्षमता का लाभ नहीं प्राप्त होगा।  अच्छे  फसलोत्पादन के लिए बीज एक महत्वपुर्ण कारक है । अच्छी उपज लेेने के लिए यह आवश्यक है की हर वर्ष अच्छा बीज बोया जाना चाहिए । यदि संम्भव हो तो हर वर्ष नया प्रमाणित बीज खरीदकर ही बोना चाहिए । खराब बीज बोने के बाद उर्वरक ,सिचाई इत्यादी कोई भी कारक ऐसा नही है जो बीज की कमी को सुधार सके। हां संकर किस्म का बीज किसान को प्रति वर्ष बदल कर ही बोना है। फसल  बोने के लिए सही बीज चुनते समय किसान भाइयों को बीजों के प्रकार और उनके उत्पादन और विक्रय से सम्बंधित सामान्य जानकारी  ध्यान में  रखना चाहिए। 

बीजो के प्रकार

प्रजनक बीज (ब्रीडर सीड)

प्रजनक बीज केन्द्रकीय बीज की संतति होती है जिसके उत्पादन का नियंत्रण पादप प्रजनक की देख रेख में किया जाता है।  इस प्रकार के बीज वर्धन के दौरान प्रजनक द्वारा बीजो की आनुवंशिक शुद्धता का पूरा ध्यान रखा जाता है।  यह बीज बहुत कम मात्रा में तैयार किया जाता है। प्रजनक बीज ही आगामी पीढियो यानि आधार बीज और प्रमाणित बीज के वर्धन का मुख्य स्त्रोत होता है।  इस श्रेणी का बीज आनुवंशिकता के आधार पर 100 % शुद्ध और सबसे मंहगा होता है। इसकी गुणवत्ता की पुष्टि विशेष तौर पर गठित “प्रजनक बीज मोनिटरिंग टीम” द्वारा की जाती है। इसका उत्पादन सिर्फ प्रजनक बीज उत्पादन इकाई के तहत कृषि शोध संस्थानों द्वारा ही किया जा सकता है। 

आधार बीज (फाउंडेशन सीड)

        प्रजनक बीज से जो बीज उत्पादित  किया  जाता है  उसे आधार बीज कहते है। इसका उत्पादन बीज प्रमाणीकरण संस्था  की देख रेख में किया जाता है जिसकी आनुवंशिक शुद्धता अधिकतर फसलों के लिए 98 % होती है।  आधार बीज उत्पादन की मुख्य जिम्मेदारी राष्ट्रिय बीज निगम और राज्य के बीज निगमों की होती है।  इस श्रेणी के बीज का उत्पादन निगम के बीज उत्पादन अधिकारी/विशेषज्ञ के कड़े निरिक्षण में सरकारी प्रक्षेत्रों , कृषि विश्वविद्यालयों के प्रयोग प्रेक्षेत्रों , अनुभवी व  निपुण बीज उत्पादकों  तथा कुछ प्रसिद्ध गैर सरकारी बीज कंपनियों द्वारा किया जाता है .आधार बीज प्रमाणित बीज की जन्मदात्री होती है और इसके थैले पर बीज प्रमाणीकरण सन्स्थ द्वारा जारी सफ़ेद रंग का टैग लगा होता है। 

प्रमाणित बीज (सर्टिफाइड सीड)

        फसल उत्पादन हेतु चुने  जाने वाले उन्नत किस्मो के उन बीजो को  प्रमाणित  बीज कहा जाता है जो आधार बीज से उत्पादित किये जाते है। इस श्रेणी के  बीज का उत्पादन व विक्रय राष्ट्रिय बीज निगम, राज्य बीज निगम, सरकारी कृषि संस्थाओ, शोध केन्द्रों, तथा गैर सरकारी बीज संस्थाओं द्वारा प्रमाणीकरण संस्था की  देख-रेख में किया  जाता है ताकि उसमे आनुवांशिक शुद्धता और बीज  गुणता के लक्षण विद्यमान रहे। यह बीज प्रजनक और आधार बीज से सस्ता होता है . इस श्रेणी के बीज के थैले पर नीज उत्पादको का हरे रंग का और प्रमाणीकरण संस्था का नीले रंग का टैग लगा होता है।  ध्यान रहे बीज प्रमाणीकरण की वैद्यता अवधि 9 माह होती है। 

सच्चा बीज (ट्रुथफुली लेबल्ड सीड)

           कभी कभी विशेष परिस्थितिओं में सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा उत्पादित बीज , बीज प्रमाणीकरण के मानकों को पूरा नहीं करते है . उन परिस्थितिओं में बीज की शुद्धता की सत्य प्रमाणिकता के लिए बीज उत्प्दादक संस्थाएं अपना लेबल लगाकर बीज बेचते है जिस पर उस बीज द्वारा प्राप्त मानकों जैसे शुद्धता, अंकुरण, जीवन क्षमता, % का उल्लेख रहता है।  प्रायः आजकल इसी बात का फायदा उठाकर गैर सरकारी बीज उत्पादक एवं विक्रय संसथान बीज प्रमाणीकरण की जटिल प्रक्रियाओं से बचते हुए ‘ट्रुथफुली लेबल्ड सीड यानि टी.एल.सीड’ धडल्ले से बाजार में बेच कर मोटा मुनाफा कमा रहे है।  कई बार ऐसा भी होता है की जब प्रमाणित बीज की वैद्यता अवधि  समाप्त हो जाती है और बीज बाजार में विक्रय के उपरान्त शेष बाख जाता है तो विक्रेता फिर से बीज मानकों का परिक्षण कराके प्राप्त मानकों को दर्शाते हुए टी.एल.सीड के रूप में बाजार में बेच देते है जिसका खामियाजा किसान को उठाना पड़ता है। 
यहाँ किसान को यह जानना जरुरी है कि  में टी.एल. बीज की गुणता का पूरा दायित्व विक्रेता का होता है।  लेबल पर दी  गई सभी जानकारी  सत्य होनी चाहिए तथा बीज की शुद्धता और जमाव लेबल बीज के लिए निर्धारित न्यूनतम मानकों से किसी भी दशा में कम नहीं होना चाहिए।  यह बीज शुद्धता और उत्पादकता में प्रमाणित बीज के लगभग बराबर और सभी श्रेणियों  से सस्ता होना चाहिए। बीज विक्रेता से बीज खरीदते समय पावती अवश्य ही ले लेना चाहिए ताकि वक़्त जरुरत पर काम आ सकें। 
अच्छे बीज में अग्र लखित विशेषताएं होना चाहिए:
  • बीज की अनुवाशिक तथा प्रजातीय, जिनमें बीज किस्म के अनुरूप आकार प्रकार ,रंग रूप  तथा भार के सभी लक्षण  हो  ।
  • बीजो की  भौतिक शुद्धता अर्थात बीज ढ़ेर में खरपतवार  के बीजो तथा अन्य फसलो के बीजो का मिश्रण नहीं  होन चाहिए । इसके अलावा  बीज परिपक्व हो  और टुटे फुटे न हो
  • बीज स्वस्थ एवं निरोग हो । रोगी बीज का अंकुरण प्रतिशत गिर जाता हैं। तथा इनकी रोग प्रतिरोधी सामर्थ कम होने से अनेक पौधे अंकुरण के बाद भी मर जाते है।
  • बीज  उच्च अंकुरण क्षमता  वाला हो जो खेत में पौधै की संख्या तथा   उपज से संम्बन्ध रखती है।
  • बीज  में आर्द्रता निर्धारित मात्रा 10-15 % से अधिक हेाती है तो भन्डारण के दौरान बीज के अंकुरण पर प्रतिकुल प्रभाव पडता है।
  • बीज में ओज न रहने  पर पौधैा कि बढवार धीमी गति से होती है जिसके कारण उपज पर प्रतिकुल प्रभाव पडता है। बीज ओज से  तात्पर्य बीज की  उस आकृति और क्रियात्मक स्वास्थ्ता  से है जिसमे तीव्रता से एक समान अंकूरण और पौधे   विकसित होते है।
         बीज को बोने से पूर्व किसान भाइयों  को बीज की अंकुरण क्षमता का ज्ञान होना भी  जरूरी होता है । क्योंकि अंकुरण प्रतिशतता ज्ञात होने पर ही बीज की सही मात्रा का निर्धारण किया जाता है । अतः बीज  बोने से पूर्व उनका  अंकुरण परीक्षण कर लेना चाहिए अथवा किसी प्रमाणित एजेंसी से बीज खरीदना चाहिए जिससे उसकी अंकुरण क्षमता ज्ञात हो सके। कई बार अच्छी अंकुरण क्षमता दर्शाने  वाला बीज भी खेत में कम अंकुरित होता है। ऐसा बीज की ख़राब गुणवत्ता या फिर अंकुरण के लिए आवश्यक दशाओं के प्रतिकूल होने के कारण भी हो सकता है। बीज की अंकुरण क्षमता इस सूत्र की मदद से निकली जा सकती है। 
बीज का अंकुरण प्रतिशत =अंकुरित बीजों की संख्या ×100/नमूने की बीजों की संख्या

बीज खरीदते समय ध्यान देने योग्य बातें 

  • हमेशा उच्च गुणवत्ता युक्त प्रमाणित क़िस्म का बीज विश्वसनीय संसथान से  ही ख़रीदें
  • हमेशा उपयुक्त टैग युक्त बैग का बीज खरिदे तथा कटे-फटे टैग  वाले या खुले हुए बैग न खरीदें।
  • प्रमाणीकरण की वैधता अवधि समाप्ति के उपरांत बीजों को न खरीदें और बीज विक्रय संस्था से पक्की रसीद अवश्य ले लेना चाहिए।   
  • फसल अथवा सब्जिओं की उसी किस्म का बीज ही खरीदें जो आपके क्षेत्र के लिए संस्तुत/अनुकूल हो। 
  • अधिक क्षेत्रफल में फसल लगाने के लिए प्रमाणित बीज तथा कम क्षेत्र के लिए आधार बीज खरीदें। 
  • संकर प्रजाति के बीजों को प्रत्येक वर्ष बदलना ना भूलें। 
अतः किसान भाइयों को चाहिए कि वे आकर्षण वाली बीज पेकिंग और दुकानदारों के लोक लुभावने वादों पर ना जाकर क्षेत्र के लिए संस्तुत  किस्मों के उच्च गुणवत्ता युक्त बीज का ही इस्तेमाल करें तभी उन्हें  खेती  में श्रम और पूँजी निवेश का भरपूर लाभ प्राप्त हो सकता है ।

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