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रविवार, 9 सितंबर 2018

अल्प अवधि में अधिकतम मुनाफे वाली फसल तोरिया की वैज्ञानिक खेती

 
डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

कृषि प्रधान भारत में तिलहनी फसलों की कम उत्पादकता तथा खाद्य तेलों की बढ़ती खपत के कारण हमें प्रति वर्ष बड़ी तायदाद  में विदेशों से खाद्य तेल आयात करना पड़ता है जिसमें करोड़ों रूपये की विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है । खाद्य तेलों की घरेलू  आपूर्ति के लिए तोरिया जैसी अल्प  समय में तैयार होने वाली तिलहनी फसलों को प्रोत्साहित करना जरूरी है। तोरिया रबी मौसम में उगाई जाने वाली एवं शीघ्र तैयार (80-90 दिन) होने वाली महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। तोरिया के दानों  में 44 प्रतिशत तेल अंश होता है, जबकि राई-सरसों में केवल 40 प्रतिशत ही तेल अंश होता है। अल्प अवधि में उच्च उपज क्षमता की सामर्थ्य होने के कारण तोरिया न केवल भारत के  मैदानी क्षेत्रों में वल्कि देश के अनेक राज्यों के  पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में खरीफ एवं रबी मौसम के मध्य  कैच क्रॉप के रूप में उगाई जाने वाली यह फसल किसानों के बीच अत्यंत  लोकप्रिय होती जा रही है। अगस्त माह  के आखिर में चारे वाली ज्वार, बाजरा तथा  कोदों, मूंग, उर्द  फसलों एवं वर्षाकालीन सब्जियों के बाद खाली होने वाले खेतों में उपलब्ध नमीं का सदुपयोग करने हेतु किसान भाई तोरिया फसल उगाकर अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं। पहले तोरिया को प्रमुखतया  वर्षा निर्भर असिंचित क्षेत्रों में उगाया जाता था लेकिन अब इसे सीमित सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में भी लाभकारी फसल के रूप में उगाया जाने लगा है। किसान कम समय में पकने वाली तोरिया की उन्नत किस्मों को उगाने के बाद सिंचित क्षेत्रों में  गेहूं, चना आदि  फसल भी ले सकते हैं। वर्तमान में तोरिया फसल से भारत के किसान औसतन 10-11 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज ही ले पा रहे है जो की विश्व औसत उपज 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की आधी है। उपयुक्त किस्मों का इस्तेमाल न करना, अपर्याप्त पौध संख्या, कम तथा असंतुलित उर्वरक प्रयोग, कीट,रोग एवं खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान न देने के कारण भारत में तोरिया की औसत उपज अत्यंत कम  है । अग्र प्रस्तुत उन्नत सस्य तकनीक एवं पौध सरंक्षण का समन्वित प्रबंधन करके किसान भाई तोरिया फसल की उपज और आमदनी में 2-3 गुना बढ़ोत्तरी कर सकते है ।
तोरिया की लहलहाती फसल-फोटो साभार-गूगल
  

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

तोरिया के लिए समतल और उत्तम  जल निकास वाली बलुई दोमट से  दोमट मिट्टी अति उत्तम रहती है। अच्छी उपज के लिए खेत की मिटटी का पी एच मान 6.5-7.0 होना चाहिए। अंतिम वर्षा के बाद खरपतवार नष्ट करने एवं नमीं सरंक्षण के वास्ते मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करने के तुरंत बाद पाटा लगायें। इसके बाद  कल्टीवेटर से दो बार आड़ी जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा एवं खेत को समतल कर लेना चाहिए। ढलानू खेतों में जुताई ढलान के विपरीत दिशा में करना चाहिए। बुवाई के लिए खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।

उन्नत किस्मों के बीज का इस्तेमाल 

तोरिया की उन्नत किस्मों को अपनाते हुए उचित सस्य प्रबंधन से  उपज में 15-20% इजाफा हो सकता है । क्षेत्र विशेष की जलवायु, भूमि का प्रकार, सिंचाई आदि की उपलब्धता आदि कारको के आधार पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए। किस्मों की उत्पादन क्षमता, बीज में तेल की मात्रा, कीट-रोग के प्रति सहनशीलता, परिपक्वता अवधि आदि गुण विभिन्न सस्य जलावायुविक परिस्थितियों एवं सस्य प्रबंधन के अनुरूप भिन्न हो सकते है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए तोरिया की उपयुक्त उन्नत किस्मों की विशेषताएं अग्र प्रस्तुत है:
सारणी-तोरिया की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं
उन्नत किस्में
पकने की अवधि (दिन)
उपज (किग्रा/हे.)
दानों में तेल (%)
भवानी
75-80
1000-1200
43
टाइप-9
90-95
1200-1500
40
जवाहर तोरिया-1
85-90
1500-1800
43
पन्त तोरिया-303
90-95
1500-1800
44
राज विजय तोरिया-3
90-100
1350-1432
42
बस्तर तोरिया-1
90-95
800-1000
42

उचित समय पर करे बुवाई

विभिन्न क्षेत्रों में मानसून समाप्ति की तिथि, फसल चक्र एवं वातावरण के तापमान के अनुसार बुआई का समय भिन्न हो साकता है। अच्छे अंकुरण के लिए बुआई के समय दिन का अधिकतम तापमान औसतन 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होना चाहिए। उचित समय पर बुआई करने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होने के साथ साथ कीट-रोग से भी फसल की सुरक्षा होती है। सामान्य तौर पर तोरिया की बुवाई का उपयुक्त समय 15 से 30 सितंबर तक रहता है। मानसून और मौसम परिवर्तन के कारण तोरिया की बुवाई 10 अक्टूबर तक की जा सकती है। विलंब से बुआई करने पर उपज और दानों में तेल की मात्रा में भारी कमीं हो सकती है।

सही बीज दर एवं  बुआई पूर्व करें बीज शोधन

अच्छी उपज के लिए साफ़, स्वस्थ एवं रोगमुक्त बीज का इस्तेमाल करें। बीज दर बुआई के समय, किस्म एवं भूमि में नमीं की मात्रा पर निर्भर करते है।  सामान्य तौर  पर 4 किग्रा बीज प्रति  हेक्टर पर्याप्त होता है। बुआई के पहले  बीज को कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम और  मैंकोजेब1.5 ग्राम मिलाकर  प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर लेवें. सफेद गेरूई एवं तुलासिता रोग की सम्भावना वाले क्षेत्रों में बीज को 4  ग्राम मैटालिक्स (एप्रन एस डी-35) प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर लेना अच्छा रहता है । प्रारंभिक अवस्था में चितकबरा कीट और पेंटेड बग की रोकथाम हेतु इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू पी 7 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करने के उपरांत ही बुआई करना चाहिए। असिंचित एवं सिंचित दोनों ही क्षेत्रों में स्फुर घोलक जीवाणु (पी एस बी) खाद एज़ोटोबेक्टर (10-15 ग्राम प्रत्येक जीवाणु खाद प्रति किलो बीज की दर) से बीजोपचार करना फायदेमंद रहता है इससे नत्रजन एवं फॉस्फोरस तत्वों की उपलब्धतता बढती है तथा उपज में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है ।

बुवाई करें कतार विधि से  

आमतौर पर किसान तोरिया की बुआई परंपरागत छिटकवां विधि से करते है जिससे उन्हें बहुत कम उपज मिलती है। कतार विधि से बुआई करने से प्रति इकाई इष्टतम पौध संख्या स्थापित होने के साथ साथ खेत में निराई-गुड़ाई में आसानी तथा उपज में दो गुना इजाफा होता है।  तोरिया की बुवाई देशी हल के पीछे नाई/पोरा लगाकर अथवा यांत्रिक सीड ड्रिल से  कतारों में करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में पंक्ति से पंक्ति के बीच 30 सेमी एवं असिंचित क्षेत्रों में 45 सेमी  की दूरी  रखना चाहिए । केरा विधि के अंतर्गत हल के पीछे  बुवाई  करने पर बीज ढंकने के लिए हल्का पाटा लगा देना चाहिए । पोरा विधि से बुआई करने के बाद खेत में पाटा न चलायें अन्यथा बीज अधिक गहराई में पहुँचने से अंकुरण कम हो सकता है। ध्यान रखें कि  बीज भूमि  में 3-4 सेमी से अधिक गहराई में नहीं जाना चाहिए। सीड ड्रिल का उपयोग करते समय ध्यान रखे की बीज उर्वरकों के संपर्क में न आये, अन्यथा  बीज अंकुरण प्रभावित हो सकता है। अतः उर्वरकों को  बीज से 4-5 सेमी नीचे डालना चाहिए।

फसल को दें संतुलित पोषण

उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण की संस्तुति के आधार पर किया जाना सर्वोत्तम है। सामान्य उर्वरा भूमियों एवं असिंचित अवस्था में 1-1.5 टन गोबर की खाद के साथ-साथ  50 किग्रा नत्रजन, 30 किग्रा  फास्फोरस तथा 20 किग्रा पोटाश  प्रति  हेक्टेयर  की दर से अन्तिम जुताई के समय प्रयोग करना चाहिए।  सिंचित क्षेत्रों में 1.5-2 टन गोबर की खाद के अलावा  60-80  किग्रा० नत्रजन, 40  किग्रा० फास्फोरस एवं 30 किग्रा पोटाश  प्रति हेक्टर की दर से  देना चाहिए।  भारत के अनेकों सरसों उत्पादक क्षेत्रों की मृदाओं में गंधक (सल्फर) तत्व की कमी देखी गई है, जिसके कारण फसलोत्पादन में दिनों दिन कमी होती जा रही है तथा बीज में तेल की मात्रा में भी कमीं हो रही है। इसके लिए असिंचित क्षेत्रों में 20 किग्रा एवं सिंचित क्षेत्रों में 340 किग्रा गंधक तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक है। गंधक की  पूर्ति अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट आदि उर्वरकों के माध्यम से की जा सकती है गंधक तोरिया में तेल की मात्रा व गुणवत्ता को बढ़ाने के साथ साथ पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होती है।  फॉस्फोरस तत्व की पूर्ति यदि  सिंगिल सुपर फास्फेट  के माध्यम से की जाए तो फसल को  12 प्रतिशत गन्धक भी उपलब्धत हो जाती है। सिंगिल सुपर फास्फेट के न मिलने पर गंधक की पूर्ति हेतु बुआई के समय  200 किग्रा जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय  प्रयोग करें। फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा अन्तिम जुताई के समय नाई या पोर  द्वारा बीज से 4-5 सेमी नीचे प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई (बुवाई के 25 से 30 दिन बाद) टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।

खेत में  हो पौधों की इष्टतम संख्या

तोरिया की अधिकतम उपज के लिए खेत में पौधों की इष्टतम संख्या स्थापित होना आवश्यक होता है । इससे पौधों को संतुलित पोषण, पर्याप्त हवा, पानी एवं प्रकाश सुगमता से उपलब्ध होते रहते है जिसके परिणामस्वरूप  पौधों की वृद्धि एवं विकास समान गति से होता है। अतः खेत में पौधों की उचित संख्या स्थापित करने के लिए बुवाई के 15-20  दिन पश्चात घने पौधों की छंटाई (पौध विरलीकरण) अवश्य करें। अधिकतम  उत्पादन के लिए  सिंचित अवस्था में प्रति वर्ग मीटर 33 पौधे एवं बारानी (असिंचित) अवस्था में 15 पौधे स्थापित होना आवश्यक पाया गया है। अतः सिंचित अवस्था में पौधों के बीच  आपसी दूरी 10-15 सेमी एवं असिंचित अवस्था में 15-20 सेमी कायम करना चाहिए। अतिरिक्त घने पौधों को उखाड़कर भाजी के रूप में बाजार में विक्रय करें अथवा पशुओं को खिलाया जा सकता है।

निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण

तोरिया की फसल को अनियंत्रित खरपतवारों से भारी क्षति होती है । खरपतवार पोषक तत्व, नमी, प्रकाश आदि के लिए फसल के साथ प्रतिस्पर्धा कर उपज में 30-60% तक कमी तो करते ही है साथ ही उपज की गुणवत्ता भी खराब कर देते है। अतः  खेत में नमीं सरंक्षण एवं  खरपतवार नियंत्रण हेतु  बुआई के 20-25 दिन बाद  एक निराई-गुड़ाई  करना चाहिए।  खुरपी से निराई-गुड़ाई का कार्य श्रमसाध्य एवं खर्चीला होता है। अतः  पहली सिंचाई के बाद हस्त चालित दो चक्के वाली हेंड हो से  निराई-गुड़ाई का कार्य आसानी से कम खर्चे में  किया जा सकता है। खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण पाने के लिए रासायनिकों का इस्तेमाल किफायती साबित हो रहा है। इसके लिए  फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 लीटर प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त पहले मिट्टी में मिलाना चाहिए अथवा  पैन्डीमेथालीन 30 ई. सी. का 3.3 लीटर प्रति हे की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोल कर बुआई के  तुरंत बाद तथा जमाव से पहले छिड़काव करना चाहिए।
                तोरिया के खेत में एक प्रकार के जड़ परिजीवी खरपतवार ओरोबैंकी का प्रकोप कहीं कहीं  देखने को मिल रहा है।  सफ़ेद,पीले रंग के झाड़ू के गुच्छे के समान दिखाई देने वाला यह परपोषी खरपतवार फसल की 40-50 दिन की अवस्था पर उगता  है. इसके नियंत्रण के लिए फसल चक्र में परिवर्तन करें. गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें. तोरिया की बुआई के 30  दिन बाद ग्लाइफोसेट 65 मिली मात्रा एवं बुआई के 50-55 दिन बाद 125 मिली प्रति हेक्टेयर मात्रा को 400 लीटर पानी में घोलकर सीधे कतारों में  छिड़काव करने से ओरोबैंकी खरपतवार का नियंत्रण हो जाता है। ध्यान रखे कि ग्लाइफोसेट दवा छिडकाव से पहले एवं बाद में भूमि में नमीं होना जरुरी है ।

अधिक उपज के लिए करें सिचाई प्रबंधन

आमतौर पर तोरिया की खेती वर्षा आश्रित क्षेत्रों में असिंचित परिस्थितयों में की जाती है। सिंचाई की सुविधा होने पर फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई देने से उपज में 20-50% तक वृद्धि संभावित है।तोरिया फूल निकलने  तथा दाना भरने की अवस्थाओं पर जल की कमी के प्रति विशेष संवेदनशील है। अतः अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए  बुआई के 20-25 दिन (फूल प्रारंभ होने पर) तथा दूसरी सिंचाई बुआई के 50-55 दिन ( फलियों में दाना भरने की अवस्था) में करना आवश्यक है। पानी की सुविधा होने पर फसल में फूल निकलते समय (बुवाई के 25-30 दिन बाद)  सिंचाई  करना चाहिए । तोरिया की फसल जल भराव को सहन नहीं कर सकती है, अतः  खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था अवश्य करें ।

निहायत जरुरी है फसल सरंक्षण

तोरिया में प्रमुख रूप से माहूँ, आरा मक्खी, चित्रित बग, बालदार सूंडी, पत्ती सुरंगक  आदि कीट तथा पत्ती धब्बा  सफ़ेद गेरुई एवं तुलासिता आदि रोगों का प्रकोप होता है।  तोरिया में समन्वित कीट-रोग प्रबंधन के निम्न उपाय करना चाहिए.
  1. कीट-रोग प्रतिरोगी किस्मों के बीज का प्रयोग करें तथा बुआई पूर्व बीज उपचार अवश्य करें।
  2. खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी गुताई करें तथा उचित फसल चक्र अपनाये।
  3. अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा, सफेद गेरूई एवं तुलासिता रोगों की रोकथाम हेतु मैकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा या जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा अथवा कापर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू.पी. की 3.0 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से  600-700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
  4. आरा मक्खी एवं बालदार सूँड़ी के नियंत्रण के लिए डाई क्लोरोवास 76 प्रतिशत ई.सी. की 500 मिली मात्रा अथवा क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.25 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
  5. माहूँ, चित्रित बग, एवं पत्ती सुरंगक कीट के नियंत्रण हेतु डाईमेथेएट 30 प्रतिशत ई.सी. या मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

फसल की समय से कटाई-मड़ाई

                 तोरिया की फसल  सामान्यतौर पर 80-100 दिन में पक कर  तैयार हो जाती है। कटाई का समय  फसल की बुआई का समय, किस्म, मौसम एवं फसल प्रबंधन पर निर्भर करता है उपयुक्त समय पर कटाई करने पर फलियों से बीजों के बिखरने, हरे एवं सिकुड़े बीजों की समस्या कम हो जाती है ।तोरिया फसल की कटाई उस समय करना चाहिए जब 75 प्रतिशत फलियां पीले-सुनहरे रंग की हो जाती है  तथा बीज में नमीं की मात्रा 30-35% रह जाता है। फसल की कटाई सुबह करने से बीज का बिखराव कम होता है। काटी गई फसल को 5-6 दिन धूप  में  अच्छी प्रकार सुखाकर (बीज में 12-20 % नमीं का स्तर)  गहाई  (मड़ाई) करना चाहिए।  फसल की गहाई थ्रेशर अथवा मल्टी क्रॉप थ्रेशर से की जा सकती है ।

उपज एवं आमदनी 

किसी भी फसल से उपज और आमदनी मृदा एवं जलवायु एवं फसल प्रबंधन पर निर्भर करती है। उन्नत किस्म के बीज का प्रयोग,समय से बुआई, संतुलित उर्वरकों के प्रयोग और पौध सरंक्षण के उपाय अपनाये जाए तो सिंचित परिस्थिति में 1200-1500  किग्रा तथा असिंचित परिस्थिति में 700-800 किग्रा प्रति हेक्टेयर  तक उपज प्राप्त की जा सकती है। उपज को न्यूनतम समर्थन पर बेचने पर असिंचित अवस्था में 48000-60000 रूपये प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित अवस्था में 28000-32000 रुपये की कुल आमदनी हो सकती है तोरिया की खेती में लगभग 7000-8000 रुपये प्रति हेक्टेयर का अधिकतम खर्चा आ सकता है इस प्रकार तोरिआ की वैज्ञानिक खेती से मात्र तीन माह में 40-52 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध मुनाफा यानि लागत से 5-6 गुना लाभ अर्जित किया जा सकता है   यदि तोरिया उपज को भंडारित करना है, तो उसे एक सप्ताह तक धूप  में अच्छी प्रकार से सुखाएं तथा जब दानों में नमीं का स्तर 8% रह जाएँ तब उपज को जूट के बोरो आदि में भर कर नमीं रहित स्थान पर भंडारित करना चाहिए

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शनिवार, 25 अगस्त 2018

आश्चर्यजनक विदेशी फल-‘ड्रेगन फ्रूट’: स्वास्थ्य रक्षा और धन वर्षा

                                            डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर(सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)


 ड्रेगन फल (हायलोसिरस अनडेटस) कैक्टस प्रजाति का उष्णकटिबंधीय फल है जिसे अद्वितीय पौष्टिक गुण  और स्वाद के कारण सुपर फ़ूड की उपाधि प्राप्त है।  आकर्षक रूप- रंग, लाजबाव स्वाद, पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्द्धक गुणों के कारण मध्य अमेरिका में जन्मे  ड्रेगन फ्रूट ने भारतीय बाजार में  धमाकेदार प्रवेश किया है।  इस अनोखे फल की बढती मांग एवं लोकप्रियता के कारण भारतीय किसानों को भी  इस विदेशी फल की खेती फायदे का सौदा साबित हो रही है।   मध्य अमेरिका से चलकर  इज़रायल, वियतनाम, ताइवान,  निकारागुआ,ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, थाईलेंड का लम्बा सफ़र करते हुए अब यह फल  धीरे धीरे भारत के खेतों में  भी दस्तक दे रहा है।  भारत के अनेक राज्यों के किसान इस विदेशी फल की  खेती कर अच्छा खासा  मुनाफा कमा रहे है।  छत्तीसगढ़ में इस फल की खेती 8-9 वर्ष से की जा रही है और वर्तमान में  छत्तीसगढ़ के किसानों द्वारा उच्च गुणवत्ता के ड्रेगन फलों को पैदा किया जा रहा है. इसके फलों की घरेलू खपत के साथ साथ देश के अन्य  राज्यों  में भी ऊंची कीमत (200-400 रूपये प्रति किलो) पर बेचा जा रहा है और विदेशों में निर्यात भी किया जा रहा है।   

                                                    ड्रेगन फ्रूट एक परिचय

ड्रेगन फ्रूट-के पौधे (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट कैक्टस (नागफनी) कुल का  लम्बे दिन वाला पौधा है।  रात्रि में खिलने वाले इसके फूल बहुत ही आकर्षक और सुन्दर होते हैजिसके कारण यह फल 'नोबल वूमेन' और  'क्वीन ऑफ़ द नाईट' के नाम से प्रसिद्ध है।  इसे स्ट्राबेरी पियर, पिताया आदि नामों से भी जाना जाता है।  इसका फल दिखने बहुत ही अजीब सा होता है और इसका बाहरी हिस्सा काफी उबड़ खाबड़ होता है परन्तु इसके अन्दर का भाग (गूदा) काफी मुलायम और बहुत स्वादिष्ट  होता है।  अभी ड्रेगन फ्रूट  की मुख्यतः तीन प्रजातियों  की पहचानी हुई है जिनमे सफेद गूदा और गुलाबी लाल छिलका (हायलोसिरस अनडेटस), लाल गूदा और गुलाबी लाल छिलका (हायलोसिरस कोस्टारीसेंसिस) तथा  सफेद गूदा और पीला छिलका (हायलोसिरस मेगालनथस) ड्रैगन फ्रूट की सभी प्रजातियों के गूदे के साथ अनगिनत काले रंग के बीज गुथे होते हैं, जिसे गूदे के साथ ही खाया जाता है। ड्रैगन फ्रूट का स्वाद हल्का मीठा होता है। आमतौर पर लाल गूदे वाले फल को अधिक पसंद किया जाता है।
बहुपयोगी है ड्रेगन फ्रूट
ड्रेगन फ्रूट का गूदा सफ़ेद और लाल रंग का स्वाद में हल्का मीठा होता है जिसमें असंख्य  छोटे-छोटे काले रंग के बीज पाए जाते है। इसके ताजे फलों को काटकर, इसका गूदा (बीज सहित) चाव से खाया जाता  हैं। इसके फल का स्वाद हल्का मीठा तथा कुछ-कुछ कीवी और नाशपाती से मिलता जुलता  है।  इसके फल से जैम, जेली,आइस क्रीम, कैंडी, चॉक्लेट,पेस्ट्रीज,योगर्ट, शीतल पेय पदार्थ आदि तैयार किये  जाते है।  इसके गूदे को पिज़्ज़ा में भी मिलाया जाता है।  मलेशिया में ड्रेगन फल की मदिरा  (वाइन) लोकप्रिय  हैं। इसके  पुष्प कलियों और फलों से जायकेदार सूप और सलाद तैयार कर तीन और पंच सितारा होटलों में गर्व से परोसा  जाता है।  इसके फूल का इस्तेमाल चाय बनाने में फ्लेवर के लिए किया जाता है।  इसके मांसल तने के गूदे का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री बनाने में  किया जाता है। ड्रैगन फ्रूट को सजावटी पौधे के तौर पर भी घरों में लगाया जाता है।

पौष्टिकता और स्वास्थ्य के लिए अद्भुत फल

ड्रेगन फ्रूट-लाल  छिलका सफ़ेद गूदा (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट स्वादिष्ट होने के साथ साथ अमूमन सभी प्रकार के पोषक तत्वों से भरपूर होते है। यह विटामिन सी और आयरन का मुख्य स्त्रोत भी है। देश विदेश में प्रकाशित शोध पत्रों के अनुसार  ड्रेगन फल के 100 ग्राम गूदे (लुगदी) में जल: 87 ग्राम, प्रोटीन: 1.1 ग्रा., फैट: 0.4  ग्राम, कार्बोहाईड्रेट: 11 ग्राम, क्रूड फाइबर: 3 ग्राम, कैल्शियम: 8.5 मिग्रा.,फॉस्फोरस: 22.5  मिग्रा.,आयरन: 1.9  मिग्रा., विटामिन बी-1 (थायमिन): 0.04 मिग्रा., विटामिन बी-2(राइबोफ्लेविन):0.05 मिग्रा., विटामिन बी-3 (नियासिन): 0.16 मिग्रा. एवं विटामिन सी (एस्कोर्बिक एसिड): 20.5 मिग्रा. के अलावा बहुत से एंटी ओक्सिदेंट्स  जाते है।  इसके गूदे की ब्रिक्स वैल्यू 11-19 तथा पी एच मान 4.7-5.1 होता है।  इतने सारे पौष्टिक तत्वों से भरपूर होने के कारण  ड्रेगन फल को 'स्वर्ग का फल' कहा जाता है.  
ड्रेगन फ्रूट-पीला   छिलका सफ़ेद गूदा (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट स्वाद में उम्दा होने के साथ साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में उच्च कोटि का फाइबर उपस्थित होने के कारण मधुमेह एवं ह्रदय रोगियों के लिए उपयोगी फल है।  इसके नियमित सेवन से ब्लड शुगर संतुलित रहती है, रक्तचाप नियंत्रित रहता है, आंखों की रोशनी बढती है  और पाचन तंत्र भी ठीक रहता है।  इसमें अनेक प्रकार के एंटी ऑक्‍सीडेंट्स   एवं प्रचुर मात्रा में विटामिन सी पाई जाती है,जो मिलकर शरीर में रक्त परिसंचरण बनाये रखते है तथा  शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने में मदद करते है । इसे खाने से  शरीर में कोलेजन का उत्पादन होता है जो दांतों को स्वस्थ और त्वचा को सुंदर व स्वस्थ बनाता है। इसमें कैलोरी कम होती है।  अतः अधिक चर्बी वाले लोग भी इसका सेवन करके मोटापा कम कर सकते हैं। इसके बीजों में पॉली अनसेचुरेटेड फेट ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फेटी एसिड पाए जाते हैं। इसलिए इसे आसानी से चबाकर खाया जा सकता है। इसमें मौजूद कैल्शियम दांतों और हड्डियों को मजबूती प्रदान करता  है। प्रचुर मात्रा में आयरन विद्यमान होने के कारण, इसके सेवन से शरीर में खून की मात्रा बढती है और मांसपेशियाँ स्वस्थ और मजबूत रहती है।  वैज्ञानिक शोध के अनुसार, ड्रैगन फ्रूट में पॉलीफीनॉल और फ्लावोनोइड पाया जाता है जो कई प्रकार के कैंसर की कोशिका को बनने और बढ़ने से रोकने में कारगर है। 
प्रतिकूल प्रभाव: ड्रैगन फ्रूट खाने से  शरीर और स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल  प्रभाव नहीं पड़ता है, परन्तु  कुछ लोगों को ड्रैगन फ्रूट खाने से एलर्जी की शिकायत हो सकती है।

क्यों लाभकारी है ड्रेगन फ्रूट की खेती  

वैज्ञानिक तरीके से ड्रेगन फल की खेती करने से भारत के लघु और सीमान्त किसानों एवं उधमियों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है।  पौष्टिक गुणों से भरपूर तथा  स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होने के कारण देश विदेश में इस फल की भरी मांग को देखते हुए ड्रेगन फ्रूट की खेती लम्बे समय तक मुनाफा दे सकती है.  हमारे देश में अभी इस अद्भुत फल की खेती  महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक,आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, राजस्थान सहित छत्तीसगढ़ के कुछ किसानों द्वारा की जा रही है।  इसकी खेती में एक बार निवेश करने पर 4-5 वर्ष तक खासा मुनाफा लिया जा सकता है।  अंतरवर्ती फसल अथवा कृषि वानिकी के साथ सह फसल के रूप में इसकी खेती से कई गुना मुनाफा कमाया जा सकता है।  ड्रेगन फल यानि पिताया के पौधों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नानुसार है:
  •  स्वादिष्ट, पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक बहुपयोगी फल है ।
  •  एक बार लगाने से 20  वर्ष तक लगातार उत्पादन और सुनिश्चित आमदनी। 
  •  भारत की उष्ण और उपोष्ण  कटिबंधीय जलवायु के लिए उपयुक्त।
  •  भारत की उचित जल निकासयुक्त सभी प्रकार की मिट्टियो में खेती संभव।
  • गमलों/प्लास्टिक के पात्रों और घर की छत पर भी ड्रेगन फ्रूट आसानी से पैदा किये जा सकते है। 
  • कृषि वानिकी के साथ अंतर्वर्ती फसल के रूप में और पेड़ों की छाया में भी खेती की जा सकती है।  
  •  सूखा प्रतिरोधी एवं पानी की न्यूनतम आवश्यकता।
  •  फसल रखरखाव की न्यूनतम आवश्यकता होती है।
  •  फसल कीट-रोग प्रतिरोधी अतः पौध सरंक्षण पर न्यूनतम खर्च। 
  • फलों को 7-8 दिन तक छाया-हवादार स्थानों पर सुरक्षित रखा जा सकता है।
  •  दो से तीन  वर्ष में निवेश वापसी और लाभप्रदतासुनिश्चित। 
  •  आसान प्रवर्धन/प्रसारण और  पुनर्विक्रय के लिए कटिगों का उपयोग किया जा सकता है
  •  फलों की स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भारी मांग रहती है.
  • फलों के मूल्य संवर्धित उत्पादों की  प्रीमियम दरों पर विक्रय सुनिश्चित।

                                                कैसे करे ड्रेगन फ्रूट की खेती 

               भारत की मिटटी एवं जलवायु ड्रेगन फल की खेती के लिए अनुकूल पाई गई है।  इसकी खेती में प्रारंभिक लागत अधिक आती है, परन्तु वैज्ञानिक ढंग से इसकी खेती और पौध प्रबंधन किया जाये तो दूसरे-तीसरे वर्ष से किसानों को अच्छा खासा मुनाफा प्राप्त हो सकता है। भारत और अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित विभिन्न  शोध पत्र,आलेख तथा अनुभव के आधार पर भारतीय परिस्थियों में ड्रेगन फल की उत्पादन प्रोद्योगिकी अग्र प्रस्तुत है:

उपयुक्त जलवायु एवं मिट्टियाँ

ड्रैगन फल उष्णकटिबंधीय जलवायु के लिए अनुकूल पौधा है जिसकी खेती समुद्र तल से 1700 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है।  इसके पौधे मौसम परिवर्तन और तापमान के उतर चढ़ाव को आसानी से सहन कर लेते है इसकी खेती  500-1500  मि.मी. वार्षिक  वर्षा  वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है परन्तु लगातार वर्षा इसकी फसल के लिए नुकसानदायक होती है।  पौधों की बढ़वार और विकास के लिए  20  से 35  डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। परन्तु इसके पौधे 40 डिग्री सेल्सियस तक का  तापमान भी सहन कर लेते है।  अधिक ठण्ड में पौधों की वृद्धि और विकास अवरुद्ध हो जाता है.  फलों के विकास एवं पकाव के समय गर्म एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है।  आद्र जलवायु में फलों की गुणवत्ता ख़राब हो जाती है।
            ड्रेगन फ्रूट की खेती उचित जल निकास वाली अमूमन भारत की सभी प्रकार की मिट्टियों में सुगमता से की जा सकती है।  खेतों में जल भराव  इस फसल के लिए हानिकारक होता है।  बेहतर उपज के लिए पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ युक्त  दोमुट बलुई  मिट्टी सर्वोत्तम रहती है।  हल्की अम्लीय भूमि में भी ड्रेगन फ्रूट सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। खेत की मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 7 तक उपयुक्त माना जाता है।

कैसे होता है ड्रेगन फ्रूट के पौधों का प्रसारण

ड्रेगन फ्रूट-पौध तैयार करना (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट  का प्रसारण/प्रवर्धन बीज  और वानस्पतिक विधि द्वारा किया जा सकता है।  बीज द्वारा पौधे देर से तैयार होते है तथा बीजू पौधे धीमी गति से बढ़ते है और उत्पादन भी 3-4 वर्ष में प्राप्त होता है।  अतः व्यवसायिक खेती के लिए वानस्पतिक प्रवर्धन (टनों/टहनियों की कलम)  ही सबसे सरल और उत्तम विधि है।  इस विधि से लगाये गए पौधों में दुसरे वर्ष से फलन प्रारंभ हो जाता है।  वर्ष भर कभी भी कटिंग/पौध  तैयार की जा सकती है, परन्तु पौधों से फल तोड़ने पश्चात ही  सुबह के समय कलम काटना उचित रहता है।  रोपण हेतु 15-60 सेमी की कलमे (शाखाएं/टहनियां) अच्छी मानी जाती है।  लम्बी कलमों की वानस्पतिक वृद्धि तेजी से होती है।  कलमों को तेज धार  वाले चाकू से तिरछा काटना चाहिए।  इसके पश्चात कलमों को फफूंद नाशक दावा से उपचारित करने के बाद  5-7 दिन तक सूखे-ठन्डे स्थान पर रखना चाहिए।  इन कलमों को सीधे मुख्य खेत में रोपा जा सकता है परन्तु नर्सरी अथवा पोलिबेग में इनकी पौध तैयार करना उचित रहता है।
ऐसे करें पौधशाला की तैयारी : मानसून आगमन से 2-3 माह पूर्व मुख्य खेत के पास पौधशाला तैयार कर कलम रोपण का कार्य संपन्न कर लेना चाहिए।  कलमों से त्वरित जड़ों के प्रस्फुटन हेतु जड़ों के कटे हुए शिरों को पानी से गीला करने के पश्चात उन्हें  पादप हार्मोन जैसे आईबीए 10 ग्राम प्रति लीटर जल में 10 सेकंड तक डुबोना चाहिए।  इस हार्मोन के स्थान पर बाजार में उपलब्ध कोई भी रूटेक्स का इस्तेमाल किया जा सकता है। सामान्यरूप से कलमों में जड़ विकसित होने में 40-50 दिन का समय लगता है परन्तु पादप हार्मोन (रूटेक्स) के उपचार से 10-15 दिन में जड़े प्रस्फुटित  होने लगती है और पौधों का तेजी से विकास होता है।  पादप वृद्धि  इसके बाद कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार पौधशाला में लगाना चाहिए।  एक 10 x 10 मीटर की पौधशाला में 1100 पौधे तैयार किये जा सकते है। आवश्यकतानुसार पौधशाला का आकर बढ़ाया या कम किया जा सकता है।   पौधशाला में नियमित रूप से झारे से हलकी सिंचाई करते रहे।  पौधशाला में जल भराव नहीं होना चाहिए।
ड्रेगन फ्रूट के पौधों को पोल पर चढ़ाना (साभार-गूगल)

पौध रोपने का तरीका

ड्रेगन फ्रूट के पौधों की वृद्धि और विकास के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है।  अतः खुले क्षेत्र में रोपाई करना चाहिए. खेत की भली भांति सफाई एवं जुताई कर लेना चाहिए।  खेत में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था करना आवश्यक है।  इसके लिए खेत में जल निकास नालियां बना लेना चाहिए।  ड्रेगन फ्रूट के पौधे आरोही बेल प्रकृति की होते है। अतः इनके चढने-बढ़ने के लिए  3 x 3 मीटर (कतार से कतार एवं पोल से पोल) की दूरी पर सीमेंट कंक्रीट के पोल (100-150  मिमी व्यास के 2 मीटर लम्बे) लगाये जाते  है।  प्रत्येक पोल के ऊपर 2.5 फीट व्यास की रिंग (अथवा कंक्रीट का चौकोर ढांचा) लगाई जाती है, जिसमें चारों ओर एक-एक छेद होना चाहिए।  बेलों को सहारा देने अथवा चढाने के लिए लोहे या स्टील के तार का उपयोग कदाचित न करे क्योंकि तारों से पौधे कट जाते है।  वर्षा आगमन से पूर्व मुख्य खेत में 3 x 3 मीटर (कतार से कतार x  पोल से पोल) की दूरी पर 60  सेमी. गहरा एवं 60   सेमी. चौड़ा गड्डा खोदकर छोड़ देना चाहिए।  ध्यान रहे बेल को सहारा देने वाले खम्बे (पोल) इसी गड्ढे के बीचों-बीच गाड़कर चारो तरफ से कंक्रीट बिछाकर पक्का कर देना चाहिए।  वर्षा प्रारंभ  होने के बाद जून- जुलाई में प्रत्येक पोल (खम्बे) के चारों  तरफ 4  पौधे रोपना चाहिए।  मिटटी,बालू + गोबर खाद का  1:1 :2 के अनुपात में मिश्रण बनाकर उसमे 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट मिलकर गड्ढो में भरते हुए पौध रोपण का कार्य सम्पन्न करें।  गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट की मात्रा  8-10 किग्रा. प्रति  गड्ढा रखना चाहिए।  खेत में 3  x 3 मीटर की दूरी पर गड्ढे करने से एक एकड़ ज़मीन में 449  पोल स्थापित होंगे तथा  प्रति पोल 4 पौधे लगाने से प्रति एकड़ 1796  पौधे लगाना चाहिए।   सामान्य तौर पर ड्रेगन फल के पौधे जून-जुलाई  अथवा फरवरी मार्च में रोपे जाने चाहिए।  अधिक वर्षा या अधिक सर्दी वाले क्षेत्रों में इसे सितम्बर अथवा  फरबरी-मार्च  में लगाया जा सकता है।

आवश्यक है पौधों का रख-रखाव  

ड्रेगन फ्रूट के पौधे तेजी से बढ़कर शीघ्र ही पोल के ऊपर पहुँच जाते है, ऐसे में कुछ बेलें जमीन पर गिरकर ख़राब हो सकती है।  अतः बेलों को मुलायम रस्सी से बांधते रहना चाहिए।  जब बेल ऊपर की ओर चढ़ने लगे  तो बाहरी मुख्य शाखाओं को छोड़कर  पार्श्व शाखाओं को काटते रहना चाहिए। बेल के पोल के ऊपर पहुँचने के बाद सभी शाखाओं को स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना चाहिए।  मुख्य तने के ऊपरी शिरे को तोड़ देने से पार्श्व शाखाओं की संख्या बढती है।  अच्छी प्रकार से बढ़वार होने पर प्रथम वर्ष में एक पौधे से 25-30 शाखाएं बनती है जो चौथे वर्ष तक बढ़कर 110-125 तक हो सकती है।   कमजोर/कटी-फटी और रोग ग्रसित शाखाओं को निकालते रहना चाहिए।  इसके अलावा तृतीयक शाखाओं को भी काट कर उनकी पौध तैयार की जा सकती है।

पौधों को दे संतुलित खुराक

ड्रेगन फल से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए पर्याप्त और संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक देना नितांत आवश्यक है।   पौध रोपण के समय प्रति पोल  10 से 15 किलो गोबर की खाद या कम्पोस्ट देना चाहिए।  जैविक खाद् की मात्रा प्रति दो वर्ष में बढ़ाते रहना चाहिए।  पौधों के  समुचित विकास और उत्तम फलन  के लिए समय समय पर रासायनिक खाद् भी देना चाहिये रोपण के समय जैविक खाद के साथ  म्यूरेट ऑफ़ पोटाश + सिंगल सुपर फास्फेट +यूरिया को क्रमशः 30:70:50  ग्राम प्रति पौधा देना चाहिए. फूल आने से पहले और फल आने के समय प्रति पौधा  40  ग्राम यूरिया 40  ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 80  ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश देना चाहिए।  तीसरे वर्ष से 300:500:600 ग्राम क्रमशः यूरिया: सिंगल सुपर फॉस्फेट और म्यूरेट ऑफ़ पोटाश  प्रति पौधा प्रति वर्ष देना चाहिए। इन उर्वरकों को चार  किस्तों में देना लाभकारी होता है। प्रथम क़िस्त  फलों की तुड़ाई पश्चात (सम्पूर्ण जैविक खाद +  40 % नत्रजन एवं 30-30 % फॉस्फोरस और पोटाश), दूसरी क़िस्त दो माह बाद (30 % नत्रजन+ 20 % फॉस्फोरस और 15 % पोटाश), तीसरी खुराक पुष्पन अवस्था से पूर्व (10%:40 %: 40 %) और शेष उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा फल विकसित होने की अवस्था में देना लाभकारी रहता है।

जमीन में कायम रहे नमीं   


यद्यपि ड्रेगन फ्रूट नागफनी कुल का कम पानी चाहने वाला पौधा है, फिर भी वानस्पतिक वृद्धि एवं बेहतर उत्पादन के लिए  भूमि में लगातार नमीं बनाये रखना आवश्यक है।  चूँकि  इसकी रेसेदार जड़ें  भूमि में 15-30  सेमी की गहराई में वितरित रहती है, जिसके कारण मृदा को नम बनाये रखना जरुरी रहता है।  अनावश्यक या अधिक सिंचाई हानिकारक होती है।  लम्बे समय तक सिंचाई न करने पर अथवा शुष्क भूमि में बेलों की बढ़वार प्रभावित होती है तथा फलों का आकार भी छोटा रह जाता है।  पुष्पन  से पूर्व फसल में पानी नहीं देना चाहिए परन्तु पुष्पन प्रारंभ होने से फल विकसित होने तक भूमि में नमीं रहना आवश्यक है।  इस दौरान खेत में नमीं  और फिर  सूखे की स्थिति निर्मित नहीं होना चाहिए अन्यथा फल फटने की शिकायत आ सकती है।  ड्रेगन फ्रूट से अधिकतम उपज प्राप्त करने हेतु ड्रिप सिंचाई प्रणाली सबसे उपयुक्त पाई गई है।  पौधों के चारों तरफ धान के पैरा अथवा प्लाटिक मल्च बिछा देने से मृदा से नमीं का ह्रास कम होता है।  

खरपतवारों से करें फसल की सुरक्षा  

ड्रेगन फ्रूट के पौधों और खम्बों के बीच ज्यादा अंतरण होने के कारण खेत में खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है।  खरपतवारों को निंदाई गुड़ाई करके अथवा नीदानाशक दवाओं के माध्यम से नियंत्रित करना आवश्यक है।  ध्यान रखे बेल वाले खरपतवार पोल पर न चढ़ने पाए अन्यथा ड्रेगन फल  के पौधों को भारी नुकसान हो सकता है।  ड्रेगन फ्रूट के साथ अन्य दलहनी फसलें जैसे मूंग/उर्द अथवा सब्जी वाली फसलों  को अंतरवर्ती फसल के रूप में उगाकर अतिरिक्त लाभ ले सकते है और ऐसा करने से खरपतवार भी नियंत्रित रहते है।  पोल के चारों तरफ प्लास्टिक मल्च अथवा धान का पैर बिछा देने से भी खरपतवार प्रकोप कम होता है साथ ही नमी सरंक्षण भी होता है। ड्रेगन फ्रूट के पौधों में सामान्य तौर पर किसी भी प्रकार के कीट-रोगों का प्रकोप नहीं होता है। अतः पौध सरंक्षण के उपाय अपनाने की आवश्यकता नहीं है।  सिर्फ पौधों को जमीन पर गिरने से बचाना है।
ड्रेगन फ्रूट पौधा- सुन्दर पुष्प (साभार-गूगल)

पुष्पन एवं फलन का समय

ड्रेगन फल के  पौधे एक साल में ही फल देने के लायक हो जाते है।  अनुकूल परिस्थियों में  इसके पौधों में मई-जून महीने में फूल लगते है और अगस्त से दिसम्बर तक फल आते रहते है। यह एक पर परागित फसल है।  इसके फूलों में परागण की क्रिया तितलियों, मधुमक्खियों द्वारा संपन्न होती है।  यह कार्य सुबह के समय हाँथ से भी किया जा सकता है. कुछ पुष्पों को खोलकर उनमे से फलालेन के कपङे में पराग कण एकत्रित कर अन्य पुष्पों पर फैला देने से फलों का विकास अधिक होता है। आमतौर पर 40 से 45 दिनों में पुष्पों से फल तैयार हो जाते  है ।  एक ऋतु में  इसके पौधों में प्रायः 3-4 बार फलन होता है।   कच्चे फलों का रंग गहरा हरा तथा पकने पर फलों का रंग गुलाबी लाल हो जाता है.  फलो का रंग 70  % लाल-गुलाबी या पीला  हो जाने पर तुडाई कर लेना चाहिए।

आकर्षक है उपज और लाभ का गणित

मेहनत के फल-ड्रेगन फ्रूट विक्रय हेतु (फोटो-साभार-गूगल)
शुरूआती दौर में  ड्रेगन फल के एक पौधे पर 10-12  तक फल लगते हैं, बाद में इसकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ जाती है। एक पोल पर 40 से 100 फल तक लग सकते है।  एक फल का औसत भर 200-300 ग्राम संभावित है।  एक एकड़ में अनुमानित 449 पोल स्थापित किये जाते  है।  प्रथम वर्ष  में एक पोल से यदि 40 फल भी  प्राप्त होते है,   तो 200 ग्राम प्रति फल भार के हिसाब से कुल   3592  किग्रा फल प्रति एकड़ प्राप्त हो सकते है।  बाजार भाव कम से कम 125 रूपये प्रति किलो  मान लिया जाये तो  प्रथम वर्ष 4,4900 की आमदनी होती है, जिसमे से तीन लाख की उत्पादन लागत  घटाकर 1  लाख 49  हजार रूपये प्रति एकड़  का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है जो आगे के वर्षो में दो से चार गुना बढ़ जाता है।  फलों की तुड़ाई बाद किसान भाई  पौधों की कटाई छटाई करते समय अतरिक्त शाखाओं/टहनियों से पौध/कलम तैयार कर बेच कर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।  यही नहीं ड्रेगन फ्रूट के साथ दो कतारों के मध्य अंतरवर्ती फसल के रूप में शीघ्र तैयार होने वाली दलहन अथवा सब्जिओं की फसल लेकर बोनस लाभ भी कमाया जा सकता है। इस प्रकार भारतीय जन मानस की स्वास्थ्य रक्षा और देश के लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए ड्रेगन फल की खेती आर्थिक दृष्टि  से वरदान सिद्ध हो सकती है। ध्यान रहे की फलों की संख्या, बजन पुर्णतः मौसम एवं जलवायु तथा सस्य प्रबंधन पर निर्भर करता है।  बाजार में मांग एवं पूर्ति के अनुसार इसकी खेती से लाभांश में उतार चढाव हो सकता है।

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