डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी
कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी
देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर
(छत्तीसगढ़)
हमारे देश में प्रचलित औषधीय
पादपों की कुल अवास्श्य्कता का केवल 25 प्रतिशत का उत्पादन किया जाता है एवं शेष
वनस्पतियों को वनों,
बागानों, खेतों, बंजर
भूमियों, सड़क एवं रेल पथों के किनारे से एकत्रित किया जाता
है।  खरपतवार के रूप में उगने वाली इन वनस्पतियों को
वैद्य विशारद और आयुर्वेद दवाइयों के निर्माता अनेक वर्षो से एकत्रित करवाते आ रहे
है।  इनके विविध औषधीय गुणों से अनभिज्ञ किसानों और
ग्रामीण भाइयों को इन बहुमूल्य पौधों  को एकत्रित करने
के एवज में थोड़ी से मजदूरी से ही संतोष करना पड़ता है।   बहुत सी बहुपयोगी
वनस्पतियाँ बिना बोये फसल के साथ स्वमेव उग आती है, उन्हें
हम खरपतवार समझ कर या तो उखाड़ फेंकते है या फिर 
शाकनाशी दवाओं का छिडकाव कर नष्ट कर देते है।  जनसँख्या
दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान,
जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी
उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।  आज
आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों
और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि  अपनी
परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों
को विलुप्त होने से बचाया जा सकें। विभिन्न रोगों के निदान में
वनस्पतियों/जड़ी-बूटियों के उत्पादों के बढ़ते उपयोग और बाजार में इन पौधों की बढती
मांग को देखते हुए अब आवश्यक हो गया है की हमारे किसान भाई और ग्रामीण क्षेत्रों
के बेरोजगार नौजवान प्रकृति प्रदत्त औषधीय वनस्पतियों को पहचाने और रोग निवारण में
उनकी उपादेयता के बारे में समझें।  खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक
रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों को पहचान कर उनके  शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर
किसान भाई और ग्रामीण जन अच्छा मुनाफा अर्जित कर सकते है।  हमारें ग्राम, खेत खलिहान और आस-पास उगने वाली  वनस्पतियों की पहचान एवं उनके औषधीय उपयोग पर पिछले  ब्लॉग का शेष भाग अग्र  प्रस्तुत  है।  
इस पौधे को
कट करंज,
लता करंज,  कंटकी, करंज,
कुवेरक्षी, विटप करंज आदि अनेक  नामों से जाना जाता हैं। 
यह  झाड़ीदार लता हैं जो अन्य वृक्षों से लिपटकर  25 से
30 फीट की ऊंचाई तक  चढ़ जाती  है।  इसकी
शाखा, पुष्पदंड एवं पत्रदंड पर सूक्ष्म एवं कठोर
कॉंटे होते हैं। लता करन्ज पर बारिश के महीनों में हल्के पीले रंग के पुष्प शाखाओं
के अग्र भाग पर मंजरियों में लगते  हैं।  इसके  पेड़ में शर्दियों में करंज की भांति परन्तु छोटी फलियां
लगती है जिनकी बाहरी सतह पर तीव्र काँटे होते हैं. प्रत्येक फली में 1 से 2 बीज बनते है जो गोल अंडाकार होते है  निकलते हैं, जो स्लेटी,
भूरे रंग के चिकने और चमकीले होते है  इस पेड़ के पूरे तने पर मुड़े हुए बहुत अधिक संख्या
में कांटे होते हैं इस पौधे की पत्तियां, फूल, फल, जड़, छाल सहित पौधे के सभी
अंग औषधीय गुणों से युक्त है यह कफ बात शामक, शोथहर, ज्वरध्न, गर्भाशयोत्तेजक, वेदना
स्थापन, अनुमोलन, यकृत प्लीहोदर नाशक,
श्वासहर,कुष्ठध्न विषम ज्वर निवारण हेतु
कुनैन का प्रतिनिधि द्रव्य समझा जाता है। इस पौधे के विभिन्न भागों का उपयोग
विभिन्न प्रकार की बीमारियों जैसे – अंडकोषवृद्धी, अंडकोष या  शरीर के किसी भी भाग
में पानी भर जाना, आधे सिर का दर्द, गंजापन,
मिर्गी, आँखो के रोग, दांतों
के रोग, खांसी, यकृत रोग, पेट के कीड़े, बवासीर,
मधुमेह, वमन (उल्टी),  सुजाक रोग,  पथरी, भगन्दर, चर्म रोग,
कुष्ठ रोग, घाव, चेचक
रोग, पायरिया आदि रोगों के इलाज के लिए इसका उपयोग वर्षो से होता रहा है ।
2.चिनोपोडियम एल्बम (बथुआ),
कुल-चिनोपोडिएसी 
![]()  | 
| बथुआ पौधे फोटो कृषि फार्म अंबिकापुर | 
3.सायनोडॉन डेक्टलोन (दूब  घास), कुल-
इसे अंग्रेजी में बरमूडा ग्रास
और हिंदी में दूब घास, दूर्वा कहते है जो वर्ष पर्यंत पनपने वाला खरपतवार है। 
भूमिगत भूस्तारी से पनपने वाली यह घास 
फसलों के साथ एवं पड़ती भूमियों में बहुतायत में उगती है।  इसके तने की
प्रत्येक गाँठ से जड़े निकलती है।  दूब घास की सफ़ेद पत्तियों वाली प्रजाति औषधि के
रूप में अधिक उपयोगी होती है।  पेचिस, बवासीर में रक्तस्त्राव, गर्मी और दौरा पड़ने
पर इसके पौधे का काढ़ा लाभकारी होता है।  शरीर में घाव, खरोंच, बवासीर तथा नाक से
खून आने पर इसका रस या प्रलेप लाभकारी होता है।  मूत्राशय में जलन, मूत्र नाली में
पथरी होने पर इसका काढ़ा फायदेमंद पाया गया है।  आँख आने पर एवं मोतियाबिंद में इसका
अर्क लाभदायक होता है। 
4.कोलिअस एम्बायनिकस (पत्थरचूर), कुल- इस पौधे को इंडियन बोरिज़ तथा हिंदी में पथरचूर एवं पाषाण भेदी कहते है. यह बरसात में उगने वाला बहुवर्षीय पौधा है जो सडक और रेल पथ के किनारे एवं कंकरीली-पथरीली भूमियों में ज्यादा उगता है। इसका तना एवं शाखाएं पीली हरी एवं रोमिल होती है। इसकी पत्तियां मांसल, मुलायम एवं ह्र्दयाकार होती है। इसकी शाखाओं से फरबरी-मार्च में लम्बी पुष्प मंजरी निकलती है जिनमें हल्के नीले या बैगनी रंग के छोटे-छोटे फूल खिलते है। इसकी पत्तियों में कैल्शियम आक्जेलेट एवं ग्लूकोसाइड सुगन्धित तैलीय पदार्थ पाया जाता है। इसका पौधा खाने में खट्टा और स्वाद में हल्का नमकीन और स्वादिष्ट होता है। इसके पत्तों में भी जड़ का विकास हो जाता है। इसके पौधों को गमलों में भी लगाया जा सकता है। इसके पौधे में बहुत से औषधीय गुण विद्यमान होते है। आयुर्वेद में पत्थर चटा को प्रोस्टेट ग्रंथि और किडनी स्टोन से जुडी समस्याओं के लिए रामवाण औषधि माना गया है। इसे आंतरिक और बाहरी रूप से प्रयोग में लाया जाता है. सिर दर्द, खून बहने, घाव होने पर, फोड़े-फुंसी होने पर एवं जलने पर पत्तियों को मसलकर लगाने से आराम मिलता है। बच्चो में कफ, ब्रोंकाईटिस, पेट दर्द तथा मूत्र विकार होने पर इसका सुगन्धित अर्क शहद के साथ देने से लाभ होता है। पेट में अल्सर होने पर इसके पत्ते लाभदायक माने जाते है। रक्तचाप कम करने में इसकी कन्दीय जड़ें उपयोगी होती है।
5.कास्सिया ऑक्सीदेन्तालिस (कसौंदी),
कुल- सिसलपिनेसी
इसे अंग्रेजी में  कॉफ़ी सेना तथा हिंदी में कसौंदी व कासमर्द  कहते है। वर्षा ऋतु में खाली पड़ी जमीनों, सड़क
किनारे तथा जंगलों में उगने वाला वार्षिक खरपतवार है।  इसके पौधे 3-4 फीट ऊँचे
झाड़ीनुमा होते है जिनमे चक्रमर्द(चिरोटा) से कम दुर्गन्ध  होती है।  इसमें पीले फूल तथा फलियाँ 10-15 सेमी
लम्बी लगती है।  इसके भुने बीजों  के पाउडर
को कॉफ़ी की तरह प्रयोग करते है।  इसके सम्पूर्ण 
पौधे एवं बीज  में औषधीय गुण पाए
जाते है।  इसकी पत्तियों का अर्क अथवा काढ़ा पीलिया, बलगम युक्त खांसी, हिचकी,
श्वांस रोग आदि में लाभप्रद होती है।  यह ज्वरनाशक एवं मूत्रवर्धक होता है।  बिच्छू
दंश तथा अन्य विषैले कीड़ों के काटने पर इसकी ताज़ी जड़, नई कोपलें एवं फलियों का लेप
डंक वाले स्थान पर लगाने से आराम मिलता है।  पूरे पौधे के काढ़े से कुल्ला करने पर
मसूड़ों का दर्द और खून आना बंद हो जाता है।  त्वचा रोगों के निदान में इसकी
पत्तियों एवं जड़ का काढ़ा फायदेमंद होता है।  पत्तियों का प्रलेप लगाने से चर्म
रोगों में लाभ होता है।  ऐसा माना जाता है कि इसकी जड़ घर में रखने से सर्प आने का
भय नहीं रहता है। 
6.केसिया टोरा (चकवड़),
कुल-फाबेसी 
![]()  | 
| चकवड़ पौधा फोटो साभार गूगल | 
7.कालोट्रोपिस प्रोसेरा (आक), कुल-एस्कीपिडेसी 
इस
पौधे को अंग्रेजी में स्वालो वार्ट तथा हिंदी में अकौआ, मदार एवं आक के नाम से
जाना जाता है।  इसके पौधे समस्त भारत में सड़क एवं रेल पथ के किनारे, बाग़-बगीचों, नालियों
के आस-पास एवं खेतों की मेंड़ों पर उगता है। ये पेड़ दो प्रकार का सफेद एवं बैगनी रंग
के फूल वाले होते है।  सफ़ेद आक के फूल
शिवजी को अर्पित किये जाते है।  सफेद फूल वाले आक का औषधीय
महत्त्व अधिक होता है।  इसके पुष्प सुगन्धित एवं सफ़ेद रंग के होते है।  फल गोल अंडाकार
तथा बीज काले रंग के होते है जो रुईदार आवरण से ढंके रहते है।  इस पौधे के सभी
भागों को तोड़ने पर दूध जैसा सफ़ेद क्षीर निकलता है।  दंत पीड़ा, मिरगी, कर्णशूल, श्वास रोग,
खांसी, अपच, पीलिया,
मूत्र रोग, बांझपन, लकवा,
गांठ एवं वात, दाद-खाज, पांव
में छाले और अन्य तमाम रोगों में मदार का प्रयोग किया जाता है।पैर में मोच, संधि सोथ  आदि में आक के दूध में नमक मिलाकर लगाने से सूजन
कम होती है। इसके दूध को हल्दी तथा तिल  के
तेल के साथ गर्म करके मालिश करने से त्वचा रोग, दाद एवं  छाजन में लाभ होता है।  पैर में कांटा लगने पर  आक के दूध
लगाने से कांटा बाहर आ जाता है। मदार के दूध को लगाने से बाल
झड़ना बंद हो जाते है।  आक  के दूध में हल्दी पीसकर रात में
सोते समय चेहरे पर कुछ दिनों तक लगाने से कील मुहासे समाप्त हो जाते है।  मदार की
जड़ो का लेप लगाने से फोड़े-फुंसी ठीक हो जाते है। 
8.सेन्टेला एसियाटिका (मण्डूकपर्णी),
कुल- एपियेसी
![]()  | 
| मंडूकपर्णी फोटो साभार गूगल | 
10.सिलोसिया अर्जेन्सिया (मुर्गकेश), कुल-
![]()  | 
| मुर्गकेश फोटो कृषि फार्म अंबिकापुर | 
11.क्लाइटोरिया टरनेटिया (अपराजिता), कुल-
फैबेसी
इसे अंग्रेजी में बटर
फ्लाई  पी तथा हिंदी में अपराजिता, विष्णु
कांता जो कि बाग़-बगीचों एवं खेत की मेंड़ों पर अन्य पौधों के सहारे बढने वाली लता
है।  इसकी दो प्रजातियाँ  श्वेत एवं नीले
पुष्पों वाली होती है।  इसकी फलियाँ मटर की फली जैसी परन्तु पतली  एवं चपटी होती है जिनमे काले चपटे बीज होते है। 
सिर दर्द, सूजन एवं कर्ण शूल  में पत्तियों
के प्रलेप से लाभ होता है.तपेदिक बुखार होने पर पत्तियों का अर्क अदरक के साथ लेने
से लाभ मिलता है।  सर्पदंश में पौधे का लेप लगाने से विष प्रभाव कम हो जाता
है। श्वास नली शोथ, कंठमाला, चेहरे पर झुर्रियां तथा सुजाक होने पर जड़ का लेप लगाने
से आराम मिलता है।  बच्चों में शर्दी, खांसी तथा कब्ज होने पर बीजों का शूर्ण शहद
के साथ देना लाभप्रद होता है। 
12.क्लीओम विस्कोसा (पीला हुल-हुल),
कुल- कैपारेसी
![]()  | 
| पीला हुल-हुल फोटो रायपुर | 
13.कान्वाल्वुलस अर्वेन्सिस (हिरनखुरी), कुल- 
इसे विंड वीड तथा हिंदी में
हिरनखुरी कहते है. यह वर्ष भर बढ़ने वाली लता है जो शीत ऋतु की फसलों एवं अन्य
पौधों से लिपटकर अथवा भूमि में रेंगकर बढती है।  इसकी पत्तियां हिरन के खुर जैसी
दिखती है।  पत्तियों के अक्ष में लम्बे एवं पतले पुष्पवृंत युक्त कीप के अकार के
गुलाबी पुष्प लगते है।  इसकी फली में छोटे-छोटे काले-भूरे रंग के अनेक बीज बनते है। 
इसकी जड़ का चूर्ण या काढ़ा विरेचक एवं वातानुलोमक होने पर लाभप्रद होता है।  जलोदर
एवं मलबंधता होने पर जड़ का उपयोग किया जाता है।  खुश्क त्वचा पर पत्तियों का प्रलेप
लगाने से लाभ होता है। 
14.कामेलाइना बेनघालेन्सिस (कैना),
कुल- कामेलाइनेसी 
इसे डे फ्लावर तथा हिंदी में
कैना एवं कनकौआ कहते है।  यह वनस्पति वर्षा
ऋतु की फसलों के साथ, जल भराव एवं नम भूमियों में खरपतवार के रूप में उगती
है।    इसका तना मुलायम एवं मांसल होता है.
इसका तना टूटकर जमीन में गिरने से नई जड़े निकल आती है।  इसके तने एवं पत्तियों के
रस में चिपचिपाहट होती है।  तने के अग्र भाग पर पत्तियों के अक्ष से बैगनी-सफ़ेद
पुष्प लगते है. इसका पौधा कटु, शीतल प्रकृति, दाहनाशक एवं कुष्ठनाशक होता है। 
घमौरी, घाव एवं  फोड़ा-फुंसी होने पर
पत्तियों का अर्क लगाने से लाभ होता है। बुखार एवं जलन होने पर जड़ का काढ़ा हितकारी
होता है।  सर्प दंश में जड़ का प्रलेप लाभकारी पाया गया है। 
15.कॉरकोरस एक्युटेंगुलस (पटुआ), कुल- 
इसे ज्यूज मैली वीड तथा हिंदी
में पटुआ व चेंच भाजी कहते है।  यह वर्षा ऋतु में बीज से उगने वाला एक वर्षीय
खरपतवार है।   यह फसलों के साथ, सड़क किनारे
एवं बंजर भूमियों पर उगता है. इसकी पत्तियों को मसलने एवं पानी से धोने पर
लिसलिसाहट उत्पन्न होती है।  इसकी पत्तियां हल्की हरी, खुरदुरी एवं शिरों पर
दांतेदार होती है।  मोटे पुष्पवृंत पर पीले 
रंग के छोटे-छोटे पुष्प गुच्छे में आते है।  इसकी मुलायम पत्तियों का साग
बनाया जाता है।  इसकी पत्तियां पौष्टिक,क्षुदावर्धक,ज्वर एवं  कृमिनाशक होती है. पेचिस, यकृतविकार एवं सुजाक
में इसकी पत्तियों का काढ़ा लाभदायक होता है। बच्चों में बुखार,
डायरिया,शर्दी-जुकाम चर्म विकार होने पर 
इसकी सूखी पत्तियों का काढ़ा देना लाभप्रद होता है।  इसकी सूखी जड़ एवं अर्ध
पकी फलियों का काढ़ा अतिसार एवं बुखार में हितकारी है. सूजन एवं फोड़ा-फुंसी में
कच्ची फलियों का प्रलेप लाभकारी रहता है।  इसके बीज उदर रोग, अपच एवं न्युमोनिया
में काफी फायदेमंद पाए गए है. पत्तियों को पानी में भिंगोने से लसदार पदार्थ बनता
है जिसके सेवन से पेचिस एवं  आंत्रकृमि में लाभ
होता है। 
16.कोक्युलस हिरसुटस (जलजमनी), कुल- मेनिन्सपरमेसी 
इसे अंग्रेजी में ब्रूम क्रीपर तथा
हिंदी में फरीद बूटी एवं पातालगरुड़ी के नाम से जाना जाता है। यह वनस्पति एक
बहुवर्षीय लता है जो  खेत खलिहानों,
खेतों की बाड़, छायादार स्थानों और घरों के
आस-पास वर्षा ऋतु आगमन के पूर्व स्वतः उगती है। इसकी जड जमीन में गहरी जाती है।
इसकी लतायें पेडों पर चढ कर पेड़ों की चोटी पर घना कवर बना लेती हैं। इसके फूल एक
लिंगीय, छोटे व हरे रंग के होते हैं, जो जुलाई-अगस्त में
खिलते हैं। इसका फल पकने के बाद काले-बैंगनी रंग का रसीला व एक बीज वाला होता है।
इसकी पत्तियों को कुचल कर पानी में मिलाने से पानी जम जाता है अर्थात पानी एक जैली
की तरह हो जाता है और इसी वजह से इसे जलजमनी के नाम से जाना जाता है।  यह वनस्पति खून को साफ़
करने वाली एवं शक्ति वर्धक है।  ऐसी मान्यता है कि इस मिश्रण को यदि मिश्री के
दानों के साथ प्रतिदिन लिया जाए तो पौरुषत्व प्राप्त होता है।इन  इसकी चार पत्तियों को सुबह शाम प्रति दिन चबाने से  मधुमेह नियंत्रित हो जाता है । रतौंधी रोग के
उपचार में उबली पत्तियों का सेवन करने से लाभ होता है।  पत्तियों और जड़ को कुचलकार
पुराने फोड़ों फुंसियों पर लगाने से आराम मिल जाता है। दाद- खाज और खुजली होने पर
भी इसकी पत्तियों को कुचलकर रोग ग्रस्त अंगों पर लगाना से फायदा होता है। श्वेत
प्रदर या रक्त प्रदर में इसकी पत्तियों का रस पानी में मिला कर उसमें थोड़ी मिश्री
व काली मिर्च डालकर सेवन करने से लाभ होता है । नाक से ख़ून गिरता हो या जलन होती
हो तो इसकी पत्तियों का रस या सूखा पाउडर एक-एक चम्म्च पानी के साथ लेने से लाभ
मिलता है। फोड़े व फुंसियों, दाद, खाज और खुजली जोड़ों के
दर्द में  इसकी पत्तियों या जड़ को कूचकर
लगाने से लाभ होता है।
17.सायप्रस रोटन्ड्स (मोथा), कुल-
इसे परपल नटसेज या नट ग्रास
तथा हिंदी में मौथा कहते है. यह वर्ष भर उगने वाला विश्व का सबसे खतरनाक खरपतवार
है. इसकी पत्तियां चिकनी, चमकीली तथा सीढ़ी धारवाली होती है।  इसके तने के आधार के
नीचे गोलाकार या अंडाकार भूमिगत सुगन्धित प्रकन्द पाए जाते है।   इसके प्रकन्दों का औषधि के रूप में इस्तेमाल
किया जाता है जो कि तीक्ष्ण, सुगन्धित, मूत्रवर्धक, उदर दर्दहरी, कृमि नाशक, पेट
साफ़ करने तथा घाव ठीक करने में लाभकारी होते है।  भूख की कमीं, अपच, अतिसार, एवं
ज्वर होने पर इसका काढ़ा दूध के साथ लेने पर लाभकारी होता है. इसकी जड़ का चूर्ण या
अर्क शहद के साथ लेने पर हैजा, बुखार, उदर रोग एवं आंत्र विकारों में लाभ होता है। 
18.दतूरा अल्बा (धतूरा),
कुल-सोलेनेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में ग्रीन
थार्न एपिल, संस्कृत में कनक, शिव शेखरं तथा हिंदी में धतूरा के नाम से जाना जाता
है।  भगवान शिव को अतिप्रिय धतूरा छोटा झाड़ीनुमा शाकीय खरपतवार है, जो वर्षा ऋतु में
पड़ती भूमियों, कूड़ा करकट के ढेरों पर, नालियों, सड़कों एवं रेल पथ के किनारे उगता है।   धतूरा की अनेक किस्मे होती है जिनमे से हरा
धतूरा (डी.मेंटेल), धूसर धतूरा (डी.
इनाँक्सिया)  एवं काला धतूरा (डी. स्ट्रेमोनियम)
प्रमुख है।  काला धतूरा सर्वत्र पाया जाता है।  इसका तना खुरदुरा, सीधा एवं शाखाये
रोमिल होती है।  पत्तियां त्रिकोणीय अंडाकार होती है. पुष्प एकल बड़े, सफ़ेद जो कीप
के आकार के पत्ती के अक्ष से निकलते है।  इसका  फल अंडाकार हरा होता है जो   ऊपर से 
छोटे-छोटे हरे कांटो से ढका होता है।   धतूरे की हरी-सूखी पत्तियों, पुष्पकलियों एवं
बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  यह अत्यधिक नशीला एवं विषैला पौधा है, अतः इसके
इस्तेमाल में विशेष सावधानी बरतनी आवश्यक है।  इसकी तजि हरी पत्तियों का गर्म
प्रलेप दर्द भरी चोट, जोड़ों की सूजन, बवासीर, खाज, हाथ-पैरों की बिवाई के
उपचार  में काफी असरकारक है।  पत्तियों का
अर्क बालों में लगाने से जुएं मर जाते है।  पत्तियों एवं फूलों को जलाकर उत्पन्न
धुआं या सूखी पत्तियों की सिगरेट बनाकर पीने से अस्थमा, ब्रोंकटाइटिस एवं
कुकरखांसी में शीघ्र आराम मिलता है. पागल कुत्ता के काटने पर पत्तियों का अर्क गुड
के साथ लेने और काटे हुए स्थान पर बीजों का महीन प्रलेप लगाने से विष का असर कम हो
जाता है।  फलों का रस फोड़े-फुंसी एवं घाव के दाग मिटाने तथा बालों की रूसी खत्म
करने में लाभकारी है।  छाती में दर्द भारी सूजन में इसका अर्क हल्दी के साथ लगाने से
आराम मिलता है।  धतूरा के बीज  मदकारी होने
के कारण केवल इनके वाह्य प्रयोग की संस्तुति है।  शरीर में अत्यधिक ऐंठन, बवासीर,
व्रण, सडन,सूजन आदि में बीजों का प्रलेप लगाना फायदेमंद होता है। 
19.इकाइनाप्स
इकाइनेटस (कंटकटारा), कुल- एस्टरेसी 
इस पौधे को अंग्रेजी में कैमल्स
थिसिल/इंडियन ग्लोब थिसिल  तथा हिंदी में
कंटकटारा, उतकंटा कहते है, जो वर्षा एवं शीत ऋतु की फसलों का खरपतवार है।  शुष्क
भूमियों में यह पौधा अधिक पनपता है।  इसके 
सम्पूर्ण पौधे में कांटे होते है।  इसके डंठल रहित पत्ते सत्यानाशी जैसे
दिखते है।  इसकी पत्तियों पर श्वेत रोये तथा किनारों पर नुकीले कांटे होते है। इसकी टहनियों के अग्र हिस्से में काँटों के
अक्ष से पीले सफ़ेद गोल गेंद नुमा फूल  निकलते है जिन पर पैने कांटे होते है।  फल
कांटेदार धतूरे के फल जैसे होते है।  इसके पौधों में नवम्बर से जनवरी तक पुष्पन एवं
फलन होता है। इस पौधे के सभी भाग औषधीय महत्त्व के होते है।  इसकी  पत्तियां स्वाद में
कड़वी होती है। यह तंत्रिका बल्य, मूत्र वर्धक, कफ नाशक, ज्वर नाशक एवं प्रस्वेदहारी होता है।  कुकर खांसी,मधुमेह,श्वांस, कुष्ठ रोग, अकौता आदि रोगों के उपचार
हेतु इसकी जड़ का अर्क लेना लाभकारी रहता है।  इसकी कांटेदार ताज़ी पत्तियों का अर्क
शहद के साथ लेने से खांसी, स्वांस रोग में आराम मिलता है।  दाद-खाज खुजली एवं
गल्कंठ होने पर इसके ताजे पत्तों को  सरसों
के तेल में पकाकर प्रलेप लगाने से लाभ मिलता है। 
20.इकलिप्टा एल्बा (भृंगराज), कुल-एस्टेरेसी
         इस पौधे को 
अंग्रेजी में फाल्स डेजी तथा  हिंदी में
भृंगराज, भंगरैया, भंगरा कहते है।  यह  बीज से उगने वाला वर्षा एवं शीत ऋतु का
एकवर्षीय खरपतवार है।  इसके पौधे सम्पूर्ण भारत में नम स्थानों, तालाब के किनारे,
बंजर भूमि, उपजाऊ जमीनों में पनपते है।  भृंगराज के  पौधों में एक विशेष प्रकार की गंध होती है। 
इसके सम्पूर्ण पौधे में घने रोयें होते है।  इसकी पत्तियां पर्णवृंत रहित नुकीली
एवं रोयेंदार होती है।  इसकी पत्तियों को मसलने से हरा रस निकलता है जो शीघ्र ही
काला हो जाता है। पत्तियों के अक्ष से छोटे,चक्राकार सफ़ेद रंग के पुष्प निकलते है। 
इसके पौधों में अक्टूबर से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इस पौधे के सभी
भागों का औषधीय रूप में प्रयोग किया जाता है।  भृंगराज  अल्सर, कैंसर, चर्म रोग, पीलिया, यकृत विकार
दांत एवं सिर दर्द में बहुत उपयोगी औषधिमानी जाती है. इसके पौधे का रस बलवर्धक टॉनिक
होता है। यकृत वृद्धि, पुराने चर्म रोग,अतिसार, अपच, पीलिया दृष्टिहीनता,
दृष्टिहीनता, बुखार आदि  रोगों में इसका
काढ़ा लेने से आराम मिलता है।   हंसिया आदि
से कटने पर किसान इसकी पत्तियों के रस को लगाते है। खांसी,  सिर दर्द, बढे हुए रक्त चाप, दांत दर्द में
इसका अर्क शहद के साथ लेने से लाभ होता है। सिर में गंजापन, चर्म रोग, जोड़ों की
सूजन होने पर तिल के तेल के साथ इसका प्रलेप लगाने से फायदा होता है।  बालों को
काला करने, बालों के झड़ने की समस्या को दूर करने में इसका अर्क कारगर होता है। 
इसके शाक से निर्मित तेल का हेयर ड़ाई के रूप में तथा मस्तिष्क को ठंडा रखने में
प्रयोग किया जाता है। 
नोट : मानव शरीर
को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण
क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध
पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी उक्त वनस्पतियों
के सरंक्षण एवं जनजागृति एवं किसान एवं ग्रामीण भाइयों के लिए आमदनी के अतिरिक्त
साधन बनाने 
के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण
हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग
निवारण हेतु हम इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में
उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है। 
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर  की आज्ञा के बिना  इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा।
यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक
प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।






