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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

छत्तीसगढ़ शासन की अभिनव पहल:सुराजी गाँव योजना


छत्तीसगढ़  के चार चिन्हारी-नरवा-गरुवा-घुरुवा-बारी, ऐला बचाना है संगवारी

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान), 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं  अनुसन्धान केंद्र,अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)


             भारतीय जन-जीवन की गति, प्रगति और विकास की धुरी देश के प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करती है। कृषि और पशुपालन हमारी ग्रामीण संस्कृति का अटूट हिस्सा है। पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों में हवा,पानी, मिटटी, खनिज, ईंधन, पौधे और जानवर शामिल हैजीवन की निरंतरता प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और सरंक्षण पर निर्भर करती है। ये संसाधन प्रतिदिन हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं- क्षिति, जल, पावक, गगन, पवन मिल पर्यावरण सजाते, सफल सृष्टि के संचालन को, ये संतुलित बनाते । पर्वत, नदी, तालाब, शस्य श्यामला भूमि और सुवासित वायु हमारे जीवन को स्वच्छ और सुखद बनाते हैं, परन्तु  भौतिक सुख-सुविधाओं की अंधी दौड़ में आज मनुष्य ने सुन्दर प्रकृति को विकृत कर दिया है।  प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से ही हम कृषि और ग्रामीण विकास को प्रोत्साहित कर सतत विकास की परिकल्पना कर सकते है। कृषि में उर्वरकों एवं कीट-रोग नाशकों का निरंतर बढ़ता उपयोग न केवल हमारे खाध्य पदार्थों और इसकी श्रंखला को लगातार जहरीला बनाता जा रहा है बल्कि भूमि की उर्वरा शक्ति में गिरावट एवं पर्यावरण विनाश के लिए भी घातक प्रतीत हो रहा है।  गाँव को सुदृढ, स्वावलंबी एवं संपन्न बनाना है तो प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित दोहन रोकते हुए उनके समुचित सरंक्षण, सवर्धन एवं सदुपयोग को बढ़ावा देकर टिकाऊ कृषि को देश की अर्थनीत का आधार बनाना होगा, तभी देश में हरियाली और खुशहाली का वातावरण कायम हो सकता है । इसी अवधारणा को साकार करने छत्तीसगढ़ की नई सरकार के लोकप्रिय मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने ‘गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ के संकल्प के साथ प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यमान संसाधनों के समुचित सरंक्षण एवं सदुपयोग के वास्ते ‘सुराजी गाँव योजना’ का शुभारम्भ करते हुए ‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी-नरवा-गरुवा-घुरवा-बाड़ी, ऐला बचाना है संगवारी’ का नारा दिया है। वास्तव में ये चार चिन्हारी ही हमारी कृषि संस्कृति एवं अर्थव्यवस्था की निशानी भी है इस अभिनव योजना के माध्यम से प्रदेश के जलस्त्रोतों  यथा नदी-नाला, तालाबों का सरंक्षण एवं सवर्धन, पशुधन प्रबंधन एवं उन्नयन हेतु गौठानों का निर्माण एवं चरागाहों का विकास तथा जैविक खाद एवं बायोगैस इकाइयों की स्थापना करने का कार्य जनभागीदारी के माध्यम से किया जायेगा जिससे प्रदेश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा मिलेगा, किसानों की आमदनी में इजाफा होगा तथा  ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होगा । 
गाँव घर परिदृश्य फोटो साभार गूगल

सुराजी गाँव योजना

परिचय एवं अभिकल्पना

        हमारा देश चूँकि गाँव एवं कृषि प्रधान है और यंहा की दो तिहाई आबादी गावों में बस्ती है, इसलिए गावों को केन्द्रित करके बनाई गई योजनाओं द्वारा ही देश आर्थिक प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है। घर-घर कुटीर उद्योग पनपें, ग्रामोद्योग, कृषि उद्यम हमारी अर्थशक्ति का आधार बनेंगे तो ही गाँव स्वावलंबी एवं आकर्षक बनेंगे। हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लिखा है कि ‘जरा सी बुद्धि रखने वाला भारतीय न तो कृषि की अवहेलना कर सकता है और न किसान को विस्मृत कर सकता है’। किसी अन्य की तुलना में ‘भारतीय किसान ही भारत है’ और उसी के विकास तथा उन्नति पर भारत की प्रगति निर्भर है। गाँव स्वावलंबी बनें, यह संग्राम हर गाँव, हर खेत, हर घर में लड़ा जाना समय की मांग है। इसी सद्भावना को आगे बढ़ाते हुए नवोदित छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया श्री भुपेश बघेल ने गढ़बो नवा छत्तीसगढ़  के संकल्प के साथ सुराजी गाँव अवधारणा को फलीभूत करने “छत्तीसगढ़  के चार चिन्हारी:नरवा-गरवा-घुरुवा अउ बारी-इसे बचाना है संगवारी” अर्थात वे प्रदेश में नदी नालों के पानी को सहेजने, पशुओं को उत्पादक बनाने और घुरवा (खाद) प्रबंधन के माध्यम से जैविक खेती को बढ़ावा देकर खेती-बाड़ी को एक नया आयाम देना चाहते है ।

       
वर्षा जल सरंक्षण-तालाब फोटो साभार गूगल 
किसी भी राष्ट्र के विकास में प्राकृतिक संसाधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत जल, जमीन, जंगल व जीवों के जीवन को गतिमान करते है। विकास का पहिया घूमने के साथ ही जनसँख्या वृद्धि का दौर प्रारंभ हुआ। निरंतर बढती आबादी के भरण पोषण के लिए सघन खेती के माध्यम से अधिकाधिक उत्पादन पर जोर दिया गया और अधिक उत्पादन की लालसा के फेर में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध तरीके से दोहन किया जाने लगा जिसके परिणामस्वरूप हमारे नैसर्गिक संसाधनों की गुणवत्ता और मात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके चलते भूमि की उपजाऊ शक्ति में कमीं, जल की उपलब्धतता और गुणवत्ता में गिरावट, कृषि योग्य जमीन एवं उस जमीन पर मौजूद पेड़-पौधे व जीव-जंतुओं के घटने से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया है। हमारा देश दुनिया की 17 फीसदी आबादी को समेटे हुए है, लेकिन पानी उपलब्ध है सिर्फ 4 फीसदी ।
  इस चार फीसदी पानी ने बीते 5000 सालों से हमारी सभ्यता और संस्कृति का पोषण किया है। हमारे खेतों को सिंचाई एवं हरे-भरे जंगल दिए है । हमारा समूचा जीवन चक्र ही जल चक्र से रचा बसा है, फिर  भी हम इसे कुदरत की नेमत मानने की वजय खैरात समझते रहे। हम भूल गए कि धरती के 70 फीसदी हिस्से पर पानी होने के बाद भी उसका सिर्फ एक फीसदी हिस्सा ही इंसानी हक में है । नतीजतन स्थिति यह है कि हमारे जलस्त्रोत दूषित-प्रदूषित होते जा रहे है, वे सूखते जा रहे है।  

पशुधन संवर्धन फोटो साभार गूगल 
छत्तीसगढ़ प्रदेश की 80  फीसदी जनसँख्या  ग्रामीण अंचल में निवास करती है, जिसकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत कृषि एवं कृषि आधारित लघु उद्यम है। छत्तीसगढ़ राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 13790 हजार  हेक्टेयर है, जो की देश के कुल क्षेत्रफल का 4.15 प्रतिशत है।  सम्पूर्ण फसली क्षेत्र 6566 हजार हेक्टेयर तथा  वन  क्षेत्र 6336 हजार  हेक्टेयर है। प्रदेश में कृषक परिवार की  संख्या 3490 हजार के आस पास है जिसमें 55 % सीमांत, 22 % लघु  तथा 24 % दीर्ध कृषक श्रेणी में आते है।  प्रदेश के कुल कृषक परिवार में से 32 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति एवं 12 प्रतिशत अनुसूचित जाति वर्ग के  कृषक हैं। राज्य में  औसतन 1200-1600  मि.मी. वार्षिक वर्षा होती  है, जिसका अधिकांश भाग बहकर नदी-नालों के माध्यम से समुद्र में मिल जाता है । प्रदेश में निरा सिंचित क्षेत्र लगभग 33 प्रतिशत है । फसल सघनता 134 प्रतिशत है। धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है, परन्तु इसकी उत्पादकता (21600 किग्रा/हेक्टेयर) राष्ट्रिय औसत से भी कम है । हरित क्रांति से पूर्व हमारी कृषि परंपरागत तरीकों पर आधारित थी। इस प्रणाली में प्राकृतिक जल स्त्रोत,खेती-बागवानी एवं पशुपालन एक दूसरे के पूरक  थे, जिसके अंतर्गत एक प्रणाली का अवशेष अन्य प्रणाली के पोषक के रूप में उपयोग होता था। तात्पर्य यह है कि खेती बागवानी शहरों, गांवों, खलिहानों में सड़ने वाले अवशेष को जैविक खाद के रूप में परिवर्तित कर फसलोत्पादन के रूप में इस्तेमाल होता था तथा खेतों एवं बागवानी से प्राप्त उत्पादन प्राणी मात्र के उदर पोषण के साथ उद्योगों के उपयोग में आता था। यह थी हमारी संपूर्ण सुराजी ग्राम व्यवस्था जिसकी कड़ियाँ बिखरने से ग्रामीण अर्थव्यस्था बिगडती जा रही है । छत्तीसगढ़ में  पशुधन का बाहुल्य (1.44 करोड़ ) है, परन्तु अधिक संख्या व कम उत्पादन तथा अधिक उत्पादन लागत की वजह से इन पशुओं को आबरा छोड़ दिया जाता है ये पशु फसलों को चरकर किसानों को काफी क्षति तो पहुंचाने के साथ-साथ सड़कों पर दुर्घटना का कारण भी बनते है और गाँव-शहर में जन स्वास्थ्य सेवाओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते है   जनसँख्या दबाव, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण आदि के कारण प्राकृतिक  संसाधनों का अतिशय दोहन होने से नालों में, तालाबों में पानी सूख गया, सघन कृषि से जमीन बंजर होती जा रही है, चारागाहों एवं समुचित चारे के अभाव में पशुपालन अनार्थिक होने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है।  अतः हमें प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का संतुलित दोहन करते हुए टिकाऊ विकास की दिशा में कार्य करना होगा । प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ इनके निरंतर सरंक्षण एवं संवर्धन  हेतु आवश्यक उपाय भी करते रहनाचाहिए। महात्मा गांधी ने कहा था, “धरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है, परंतु किसी की तृष्णा को शांत नहीं कर सकती है” । ऐसी स्थिति में भविष्य में जल, जंगल और जमीन विरासत को सहेज कर रखना अति आवश्यक है । ग्रामीण क्षेत्रों में गांवों और किसानों की समृद्धि के लिए  द्विफसली क्षेत्र विस्तार नितांत आवश्यक है। इसके लिए प्रदेश के लुप्त हो रहे  जल स्त्रोतों यथा नदी-नालों, तालाब आदि को सदानीरा बनाकर भूजल स्तर को ऊंचा लाने एवं वर्षा जल सरंक्षण का प्रयास करने की महती आवश्यकता है। इसके अलावा  पशुधन सम्पदा का व्यवस्थापन एवं उनका सुनियोजित प्रबंधन करने की नीति पर कार्य करना भी जरुरी है।
           
केंचुआ खाद (स्मार्टघुरवा) निर्माण फोटो साभार गूगल
ग्रामीण कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के सुद्रणीकरण हेतु ग्राम परिदृश्य में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन यथा नरवा (नदी-नाला),गरुवा (पशुधन), घुरुवा (जैविक खाद, बायोकम्पोस्ट) एवं बाड़ी (घर की बाड़ी में साग-सब्जी एवं फल) के समन्वित विकास से कृषि उत्पादन एवं किसानों की आमदनी  बढ़ाने का छत्तीसगढ़ शासन का यह महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जिसे जन भागीदारी के माध्यम से संचालित किया जाना है । भूमिहीन मजदूरों एवं लघु सीमांत कृषकों को रोजगार देने के साथ-साथ नरवा, गरुवा, घुरुवा, वाड़ी के संरक्षण के लिए विभिन्न विभागों की योजनाओं का मनरेगा से अभिसरण करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध किया जायेगा। इसके लिए मनरेगा योजना में मुख्यमंत्री ने राज्य बजट-2019-20 में 1 हजार 542 करोड़ का प्रावधान रखा गया है ।   कृषि नवाचार के इस कार्यक्रम के माध्यम से छत्तीसगढ़ के प्रमुख जल स्त्रोतों जैसे नदी-नालों एवं तालाबों के पुर्नजीवन, गांव में  सुनियोजित पशुपालन, नस्ल सुधार, चारागाह विकास, गोबर गैस सयंत्रों की स्थापना  तथा जैविक खाद उत्पादन जैसी तमाम गतिविधियों के माध्यम से प्रदेश के किसानों और ग्रामीणों को खुशहाल बनाया जा सकता है। इस योजना के मूर्तिरूप लेने से कृषि लागत में कमी लायी जा सकती है। प्रदेश के पशुधन के व्यवस्थापन से फसलों की चराई पर अंकुश लगाते हुए द्विफसलीय रकबा भी बढ़ाया जा सकता है।भूमिहीन मजदूरों एवं लघु सीमांत कृषकों को रोजगार देने के साथ-साथ नरवा, गरुवा, घुरुवा, बाड़ी के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विभिन्न विभागों की योजनाओं का मनरेगा से अभिसरण करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध किया जायेगा। सुराजी गाँव योजना को प्रदेश के विभिन्न विभागों  द्वारा कृषि एवं ग्राम विकास के उद्देश्य से संचालित विविध योजनाओं को नदी-नाला संवर्धन, गौठान निर्माण, चारागाह विकास, जैविक खाद उत्पादन तथा  सब्जी एवं फलों की बाड़ी से जोड़ने का कार्य समन्वित तरीके से किया जायेगा । छत्तीसगढ़ शासन की बहुआयामी सुराजी गाँव योजना नरवा-गरुवा-घुरुवा-बाड़ी प्रदेश की चार चिन्हारी की अवधारणा को सार्थक बनाने की शुरुआत दुर्ग जिले के विकासखण्ड पाटन के ग्राम पंचायत असोगा, तेलीगुण्डरा व भनसुली से की गई है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की उपस्थिति एवं अगुवाई में इन ग्राम पंचायतों में आयोजित विशेष ग्राम सभा में पंचायत प्रतिनिधियों ने गौठान एवं चारागाह के लिए भूमि आरक्षित करने का अनुमोदन किया है । निश्चित रूप से इस योजना के सफल क्रियान्वयन से ग्रामीणों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से रोजगार मिलेगा, किसानों का जीवन स्तर सुधरेगा जो सुराजी गाँव योजना को साकार करने महत्वपूर्ण कदम साबित होगा
गाँव सुराजी ग्राम विकास करने के दौरान हम गाँव के सौंधे पण की महक को न भूले हमारा फसल से, माती से, नदी से, कुओं और तालाबों से रिश्ता कायम बना रहे । इसमें कोई शक नहीं है कि  सुराजी गाँव की संकल्पना सम्पूर्ण ग्रामीण विकास की दिशा में एक उत्प्रेरक का कार्य करेगी
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रविवार, 13 जनवरी 2019

सूखे चारे को पौष्टिक बनायें, पशुधन को उत्पादक बनायें


                   सूखे चारे को पौष्टिक बनायें, पशुधन को उत्पादक बनायें
                                    डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी), 
     इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

पशुपालन एवं डेयरी  उद्योग का हमारे देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है।   विश्व भर की कुल गायों का 20 प्रतिशत तथा भैसों का 57 प्रतिशत हमारे देश की धरोहर तो अवश्य है, परन्तु उनकी उत्पादन क्षमता अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है।  देश  के सीमान्त एवं लघु किसान अपने परिवार की आजीविका के लिए पशुधन पर आश्रित है।  जनसँख्या दबाव, घटती कृषि जोत, सिकुड़ते प्राकृतिक संसाधनों के कारण पशुओं के लिए चारा और पशु चारण क्षेत्रों में निरंतर कमीं के चलते अब पशुपालन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।  वर्तमान में पशुओं का जीवन निर्बाह  अपौष्टिक सूखे चारे से हो पा रहा है, जिससे उनकी उत्पादन क्षमता में निरंतर गिरावट देखने को मिल रही है।   पशुधन को स्वस्थ और सतत उत्पादनशील बनाये रखने के लिए उनके आहार में पौष्टिक चारे का महत्वपूर्ण स्थान है।  हमारे देश में पशुधन को खिलाये जाने वाले सूखे चारे जैसे गेंहू का भूसा,ज्वार, बाजरा एवं मक्का की  कड़वी, धान के पुआल आदि में पौष्टिक तत्व बहुत कम तथा रेशे की  अधिक मात्रा होती है।  इनका रेशा अधिक कड़ा और लिग्नीफाइड होने के कारण कम पचनीय होता है।  इस प्रकार का सूखा चारा खिलाने से पशुधन के शरीर भार में कमीं होने के साथ-साथ उनकी उत्पादन क्षमता में भी कमीं होती है।  उपलब्ध सूखे चारे का उपचार कर बहुत कम खर्चे में इनकी पोषकता एवं गुणवत्ता आसानी से बढ़ाई जा सकती है।  हरे चारे की कमीं अथवा अभाव में उपचारित सूखे चारे को खिलाने से पशुधन को स्वस्थ और उत्पादक बनाये रखा जा सकता है।  सूखे चारे को पौष्टिक बनाने के लिए  यूरिया अथवा यूरिया-शीरा उपचार  विधि  का प्रयोग किया जा सकता है।
1.सूखे चारे का यूरिया से उपचार
एक क्विंटल सूखे चारे जैसे भूसा, पुआल या कड़वी  के लिए चार कि.ग्रा. यूरिया का 50-60 लीटर स्वच्छ  पानी में  भली भांति घोल बनाते है।  चारे को समतल तथा कम ऊंचाई वाले स्थान पर 3-4 मीटर की गोलाई में 30 से.मी. ऊंचाई की तह में फैला कर उस पर यूरिया के घोल का समान रूप से छिड़काव करते हैं।  चारे को पैरों से अच्छी तरह दबा कर उस पर पुनः  सूखे चारे की एक और पर्त बिछा दी जाती है। इस परत पर भी  यूरिया के घोल का समान रूप से छिड़काव करने के उपरान्त पैरों से अच्छी तरह दबाकर उसे एक पोलीथीन की शीट से अच्छी तरह से ढक  दिया जाता है।  यदि पोलीथीन की शीट उपलब्ध न हो तो उपचारित चारे की ढेरी को गुम्बदनुमा बनाते हैं जिसे ऊपर से पुआल आदि से ढक दिया जाता है। उपचारित चारे को 20-22 दिन तक इसी अवस्था में छोड़ देते है।  ऐसा करने से यूरिया से  अमोनिया गैस बनती है जो घटिया चारे को मुलायम एवं   पाच्य बना देती है। इस चारे में प्रोटीन की मात्रा 3.0-3.5 प्रतिशत से बढ़कर 8 से 9 प्रतिशत हो जाती है।  इस चारे को पशु को अकेले या फिर हरे चारे के साथ मिलाकर खिलाया जा सकता है।  इस चारे से पशुधन को संतुलित पोषक तत्व उपलब्ध हो जाते है।
2.सूखे चारे का यूरिया-शीरा द्वारा उपचार  
         इस विधि में 100  किग्रा भूसे  को उपचारित करने के लिए एक कि.ग्रा. यूरिया, 10 किग्रा शीरा और एक  किग्रा खनिज  मिश्रण, 50 ग्राम विटामिन मिश्रण  तथा 15  लीटर स्वच्छ पानी की आवश्यकता होती है । उपचारित करने के लिए 1  किग्रा यूरिया को 7  लीटर पानी मे अच्छी प्रकार से  घाले लिया जाता है तथा शेष  8  लीटर पानी मे शीरा, खनिज एवं विटामिन  मिश्रण को मिलाकर अच्छी प्रकार से घोल  लिया जाता है। इसके बाद दोनों घोलों को अच्छी तरह मिला लेते  है। अब  100 कि.ग्रा. भूसे  की   30  से.मी. मोटी परत  पर उक्त घोल को  हजारे द्वारा छिड़क कर  हाथ से  भूसे में अच्छी तरह मिलाया जाता है। । इससे चारे की पचनीयता एवं पौष्टिकता मे काफी वृद्धि होती है।  इस चारे को तुरंत पशुओं को खिलाया जा सकता है।  उपरोक्त दोनों  विधियां में आवश्यक समाग्री की मात्रा नीचे सारिणी मे दर्शायी गयी है।
सारणी : यूरिया तथा यूरिया-शीरा द्वारा उपचार के लिए आवश्यक सामग्री की मात्रा
आवश्यक सामग्री की मात्रा
यूरिया  द्वारा उपचार
यूरिया-शीरा द्वारा उपचार
धान का पुआल, गेंहू का भूसा/ ज्वार,बाजरा,मक्का की कड़वी
100 कि.ग्रा.
100 कि.ग्रा.
यूरिया
4 कि.ग्रा.
1 कि.ग्रा.
शीरा
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10 कि.ग्रा.
लवण मिश्रण
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1 कि.ग्रा.
स्वच्छ जल
50-60 लीटर
15 लीटर

उपचारित सूखा चारा खिलाने के फायदे
 हरे चारे की कमीं होने पर पशुओं को यूरिया उपचारित सूखा चारा खिलाने से विशेष लाभ होता है, क्योंकि यूरिया उपचारित चारे से पशुओं को 4-5 % प्रोटीन एवं 48-50 % कुल पाचक तत्व मिलते है।  जबकि गैर उपचारित चारे में न के बराबर प्रोटीन एवं 34-40 % पाचक तत्व मिल पाते है। उपचारित चारा नरम व स्वादिष्ट कोने के कारण पशु उसे खूब चाव से खाते हैं तथा चारा बर्बाद नहीं होता है।  पांच या 6 किलों उपचारित भूसा खिलने से दुधारू पशुओं में लगभग 1 किलो दूध की वृद्धि हो सकती है। यूरिया उपचारित चारे को पशु आहार में सम्मिलित करने से दाने में कमी की जा सकती है जिससे दूध के उत्पादन की लागत कम हो सकती है।  बछड़े एवं बच्छियों को यूरिया उपचारित चारा खिलाने से उनके  शरीर भार में तेजी से वृद्धि होती  है तथा वे स्वस्थ रहते है।
यूरिया उपचार में सावधानियाँ
          सूखे चारे के उपचार हेतु यूरिया का घोल साफ पानी में तथा यूरिया की सही मात्रा के साथ बनाना चाहिए। घोल में यूरिया पूरी तरह से घुल जानी चाहिए. युरा उपचारित चारे को 3 सप्ताह से पहले पहुओं को बिल्कुल नहीं खिलाना चाहिए। यूरिया के घोल को सूखे चारे के ऊपर समान रूप से छिड़कना चाहिए।

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