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रविवार, 22 मार्च 2020

कोरोना महामारी से डरो ना-जल सरंक्षण करो-ना


कोरोना जैसी महामारी को भगाना है तो जल सरंक्षण अपनाना है 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़  

दुनिया भर में कोरोना वायरस ने कोहराम मचा रखा है।  आम हो या ख़ास, हर कोई कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने की जुगत में लगा है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वायरस यानि कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है।  समूची मानवता के लिए खतरे की घंटी बजा रहे कोरोना वायरस की महामारी से बचने के लिए  विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ)  ने लोगों को बार-बार हाथ धोने की सलाह दी है।  हमारे डॉक्टर भी कोरोना  वायरस से बचने के थोड़ी थोड़ी देर बाद साबुन से हाथ धोने की सलाह दे रहे है, जिससे इस महामारी से निपटने के लिए देश विदेश  में पानी की खपत में कई गुना इजाफा हो गया है । एक बार हाथ धोने पर लगभग 1.5-2 लीटर पानी खर्च होता है और दिन में बार-बार हाथ धोने के लिए प्रति व्यक्ति 15-20 लीटर पानी  की आवश्यकता होगी । इसका मतलब है, पांच सदस्य वाले परिवार को केवल हाथ धोने के लिए 100 लीटर पानी  लगेगा । जब लोगों के पास पीने के लिए  साफ पानी नहीं होगा, तो उनके पास हाथ धोने के लिए और  बीमारी को फैलने से रोकने के लिए स्वस्छ पानी कहाँ से लायेंगे । विश्व स्वास्थ्य संघठन के अनुसार, एक व्यक्ति को अपनी बुनियादी जरूरतें जैसे पीने, खाना पकाने और स्वच्छता को पूरा करने के लिए प्रत्येक दिन 7.5 से 17  लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन, कोविड-19 से निपटने में जल की आवश्यकता बढती जा रही है । एक रिपोर्ट के अनुसार, तीन अरब लोगों के पास बुनियादी रूप से हाथ धोने के लिए जल की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है। क्लाईमेट ट्रेंड की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के 17 देश अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं। इनमें पहले 12 मध्य-पूर्व तथा अफ्रीका के हैं तथा 13वां स्थान भारत का है। कोविड-19  के संक्रमण का मामला चीन, इटली, स्पेन, अमेरिका और यूरोप के बाद अब जल की कमी वाले देशों भारत आदि में भी पैर पसार चूका है।   आज हम सबको सबक लेने की जरुरत है कि कोरोना जैसी  महामारी से बचने के लिए पानी कितना कारगर साबित हो रहा है लेकिन दुनिया में तीन अरब लोगों के पास बार-बार हाथ धोने के लिए पानी की उपलब्धता नहीं है। हमारे देश के 60 करोड़ लोग गंभीर पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। एक आंकलन के अनुसार वर्ष 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध जल वितरण से दोगुनी हो जाएगी। देश के  नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दूषित जल हर साल 1.75 लाख लोगों की जान ले रहा है। किसी भी महामारी के दौरान लोगों को शुद्ध जल न मिलना उन्हें आसानी से काल के गाल में धकेल देता है। 
जल की महिमा
मनुष्य सहित पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जंतु एवं वनस्पतियों का जीवन जल पर निर्भर है. जल जीवन के लिए अमृत है. जल की महिमा का बखान और जल से प्रार्थना करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि " इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि, यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम्”. हे जल देवता ! मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे तुम दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो, मेरे किसी कृत्य से किसी को पीड़ा हुई हो अथवा मैंने किसी को गालियाँ दी हों, अथवा असत्य भाषण किया हो, तो वह सब भी दूर बहा दो. जल पर ही मनुष्य का जीवन, प्रकृति और जीव-जंतु निर्भर हैं। जल धरती पर सबसे महत्व पूर्ण पदार्थ है। पेड़-पौधों, जानवरों, मनुष्य के पास जीवित रहने के लिए जल का होना अति आवश्यक है। अगर जल न हो तो धरती पर जीवन संभव नहीं है। आज पानी का मूल्य बदल गया है और जल एक महत्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु बन चूका है।  एक आदमी खाने के बिना कई दिनों तक जिन्दा रह सकता है परन्तु जल के बिना वह ज्यादा दिन तक जिन्दा नहीं रह सकता है. जल के बिना पेड़-पौधे और जीव जंतुओं का जीवन भी खतरे में पड़ जाता है। 

विश्व जल दिवस की सार्थकता

विश्व जल दिवस-2020  फोटो साभार गूगल 
सयुंक्त राष्ट्र के आवाहन पर 1993 से प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है इस दिवस का उद्देश्य विश्व के सभी विकसित देशों में स्वस्छ, सुरक्षित जल की उपलब्धतता सुनिश्चित करवाना है और जनमानस में जल सरंक्षण के महत्त्व पर ध्यान केन्द्रित करना है। दुर्भाग्य से कोरोना वायरस-19 की महामारी के संक्रमण से भयभीत विश्व समुदाय की आँखों से इस वर्ष का  "विश्व जल दिवस' ओझल सा हो गया। यह एक ऐतिहासिक त्रासदी है जिससे पूरी दुनिया एकजुटता से लड़ रही है।   इस वर्ष विश्व जल दिवस-2020 की थीम है 'जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभावयानी लोगों को यह जागरूक करना है कि, जलवायु परिवर्तन का किस तरह से जल संसाधनों पर प्रभाव पड़ रहा है।आज हम जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को महसूस भी कर सकते हैं।भारत में वर्तमान में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 2,000 घनमीटर है लेकिन यदि परिस्थितियाँ इसी प्रकार रहीं तो अगले 20-25 वर्षों में जल की यह उपलब्धता घटकर 1,500 घनमीटर रह जायेगी जल की उपलब्धता का 1,680 घनमीटर से कम रह जाने का अर्थ है पीने के पानी से लेकर अन्य दैनिक उपयोग तक के लिए जल की कमी हो जाना। सिंचाई के लिए पानी की कमीं से खाध्य संकट भी उत्पन्न हो जायेगा । जलवायु परिवर्तन के साथ अनावृष्टि (सूखा और अकाल), जंगलों में आग, जल की गुणवत्ता में गिरावट तो कही अतिवृष्टि के कारण बाढ़ की बिभिषिका का सामना करना पड़ रहा है इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से  आम लोगों के स्वास्थ्य और उनकी उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। पानी के वर्तमान जल स्तर में  20 प्रतिशत गिरावट के लिये जलवायु परिवर्तन प्रमुख कारण है। विश्व मौसम संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अनुसार ग्रीन हाऊस गैसों के बढ़ते उत्सर्जनों के कारण इस सदी में धरती के ताप में 1.4 डिग्री सेंटीग्रेड से 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड ताप की वृद्धि अवश्यंभावी है। जलवायु परिवर्तन के कारण आहिस्ता-आहिस्ता ग्लेशियरों द्वारा जल की आपूर्ति में भी कमी आती जा रही है। जिसके फलस्वरूप नदियों में जल स्तर प्राय कम होता चला जा रहा है। जलवायु में तीव्र बदलाव से सूखा, बाढ़, तूफान आदि कि भयावर स्थिति पैदा हो गई है और आईपीसीसी 2007 कि रिपोर्ट के अनुसार औसत वैश्विक समुद्र जल स्तर में लगभग 18 सेमी से 140 सेमी कि वृद्धि संभावित है जिससे तटीय शहरों के डूबने की आशंका है. जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर कुप्रभाव के अलावा फसल उत्पादन, मानव स्वास्थ्य और आजीविका पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं अल्प वर्षा तो कही अति वृष्टि और ओला से फसलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है खाद्यानों, तिलहन, रेशा, मीठाकारकों,फल-फूल, सब्जियों और औषधीय वनस्पतियों के उत्पादन में जल संसाधनों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। भारत में कुल उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलकर कम होते जा रहे हैं अतः सिंचाई हेतु सतही जल का विस्तार करना कठिन है। ऐसी परिस्थिति में, विशाल कृषि क्षेत्र में सिंचाई के लिए भूजल दोहन ही एक मात्र विकल्प बच जाता है जिसके फलस्वरूप देश के अधिकतर हिस्सों में भूजल स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है। वर्षा की अनियमितता और अनिश्चितता, जलवायु परिवर्तन की समस्या को और प्रज्ज्वलित कर रही है। चीन और अमेरिका की तुलना में भारतीय किसान एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं, जहाँ प्रति इकाई फसल उत्पादकता बहुत कम है । भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है। अतः जल की अनावश्यक बर्बादी पर अंकुश नहीं लगाया गया और जल सरंक्षण हेतु जरुरी कदम नहीं उठाये गए तो आगामी समय में सिंचाई की लिए और अन्य प्रयोजनों के लिए  आवश्यक जल का संकट निश्चित है। दरअसल प्रकृति से खिलवाड़ करने के फलस्वरूप उपजे जलवायु परिवर्तन के कारण कोरोना वायरस जैसी महामारी फैल रही है।  आज 22 मार्च 2020 विश्व जल दिवस के अवसर पर हम सबको  मिलकर जल की बर्बादी रोकने और  जल को सहेजने का  संकल्प लेना  होगा तथा यह भी सुनिश्चित करना होगा की देश में  उपलब्ध सभी  जल स्त्रोतों के पुनर्भरण  और  कुशल जल प्रबंधन के लिए उसी गंभीरता से यथोचित कदम उठाएंगे  जितना हम अभी कोरोना वायरस संक्रमण फैलने के खिलाफ देश को सुरक्षित करने के लिए उठा रहे है। 

जल का नहीं सही जल प्रबंधन का अकाल
प्रकृति द्वारा हमें पर्याप्त मात्रा में जल निःशुल्क प्राप्त होता है परन्तु जल के उपव्यय और भूगर्भीय जल के अतिदोहन तथा जल के कुप्रबंधन कारण दिन प्रति दिन  जल संकट गहराता जा रहा है।  पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग जल से घिरा हुआ है, 29 फीसदी भाग पर स्थल है। इस 29 प्रतिशत क्षेत्र पर ही इंसान और दूसरे प्राणी रहते हैं। पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल लगभग 01 अरब 36 करोड़ 60 लाख घन किमी. है, परंतु उसमें से 96.5 प्रतिशत पानी समुद्र में पाया जाता है, लेकिन खारा होने के कारण इस पानी को पीने के लिए और सिंचाई में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। शेष 3.5 प्रतिशत पानी ही हमारे लिए उपयोगी है जिसका हम उपयोग कर सकते हैं, इसलिए हमें इस उपलब्ध जल को बचाना चाहिए। इसकी एक बूंद बूंद बहुत कीमती है, इसे व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए। मौजूदा जल संसाधनों में से सर्वाधिक हिस्सा कृषि क्षेत्र में उपयोग किया जाता है. सिंचाई में जल दुरूपयोग रोकना आवश्यक है।  देश के किसानों की अधिक पानी अधिक उपज की धारणा को बदलना होगा क्योंकि फसलोत्पादन में सिंचाई का योगदान 15-20 प्रतिशत होता है. फसल के लिए भरपूर पानी का तात्पर्य मिट्टी में पर्याप्त नमीं बनाये रखना होता है परन्तु वर्तमान में नहरी क्षेत्र के किसान सिंचाई का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे है।  भूगर्भीय जल की आखिरी बूँद को खीचने की कवायद बदस्तूर जारी है. इस प्रवृति को तत्काल रोका जाना चाहिए. उपलब्ध जल के किफायती उपयोग के लिए सिंचाई की बूँद-बूँद पद्धति और फव्वारा तकनीक, नाली-मेंड़ विधि से सिंचाई, एकांतर कतार विधि से सिंचाई तरकीबों से जल की बचत कर अधिक क्षेत्र में सिंचाई कर अधिक उत्पादन लिया जा सकता है।  फसलों में जीवन रक्षक या पूरक सिंचाई देकर दोगुना उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  सतत जल आपूर्ति के लिए भूमिगत जल का पुनर्भरण किया जाना आवश्यक है।  प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल का सरंक्षण किया जाना बेहद जरुरी है।  किसानों को गाँव का पानी गाँव में तथा खेत का पानी खेत में सरंक्षित करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।  ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ें तालाबों का निर्माण और उनके रखरखाव हेतु जरुरी कदम उठाए जाने चाहिए तक वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण किया जा सकें. इसके अलावा अत्यधिक जल दोहन रोकने के लिए कड़े कानून बनाकर उनका पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए।  शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। देश की नदियों को परस्पर जोड़ने की कवायद को सफल बनाना होगा जिससे हमारी नदियों में वर्ष भर जल का प्रबाह कायम हो सकें। उपलब्ध जल का कुशल उपयोग तथा वर्षा जल सरंक्षण तकनीकों को अपनाने से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न जल संकट की समस्या का कुछ हद तक निराकरण कर मानवता की रक्षा की जा सकती है। 
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

बहुमंजिला कृषि से कम क्षेत्रफल में भरपूर उत्पादन एवं आमदनी

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)

भारत में विश्व की 3 प्रतिशत भूमि एवं 4 प्रतिशत जल राशी किन्तु पूरे विश्व की 17 प्रतिशत आबादी है अर्थात हमारे देश में भूमि एवं जल संसाधन कम परन्तु जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है। देश में कृषि योग्य भूमि 14.3 करोड़ हेक्टेयर से अधिक बढ़ने की कोई संभावना नहीं है। ऐसे में  बढती आबादी,घटते संसाधन को देखते हुए जनसँख्या का भरण पोषण एक चुनौती है।  भारत में खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल सीमित है और दिन प्रतिदिन शहरीकरण, उध्योगिकीकरण, मकान बनते जाने के कारण कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है।  तेजी से बढती जनसँख्या की खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रति इकाई क्षेत्रफल में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने हेतु दो विकल्प मौजूद है।  पहला प्रतिवर्ष कृषि योग्य भूमि में दो या दो से अधिक फसलों को उगाया जाये परन्तु ऐसा करने के लिए सिंचाई का साधन होना अति आवश्यक है।  अभी भी भारत में सिर्फ 35-40 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है और इसलियें भारत में फसल सघनता 137 प्रतिशत है अर्थात एक फसली क्षेत्रफल अधिक है। अब दूसरा विकल्प बचता है कि एक साथ एक ही क्षेत्रफल पर कई फसलें  उगाकर बढ़ती हुई जनसंख्या के भोजन एवं खान-पान की अन्य वस्तुओं की पूर्ति की जा सकें। दूसरे विकल्प को सफल बनाने के लिए बहुपयोगी वृक्ष एवं खाद्यान्न और सब्जी फसलों में से चुनकर उन्हें इस  प्रकार से उगाया जाता है जिससे विभिन्न फसलों की उपज विभिन्न ऊंचाइयों से प्राप्त की जा सकती है।  इस प्रकार की बहुउद्देशीय खेती को बहुमंजिला अथवा बहुस्तरीय कृषि कहा जाता है। हमारे देश में 80 प्रतिशत से अधिक किसान सीमान्त एवं लघु कृषकों की श्रेणी में आते है।  ऐसे  किसान बहुस्तरीय खेती अपनाकर अपने सीमित क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन एवं आमदनी अर्जित कर  आत्मनिर्भर बन सकते है।

नारियल एवं पपीते के साथ बहुस्तरीय खेती फोटो साभार गूगल
क्या है बहुमंजिला कृषि 


बहुमंजिला खेती का मुख्य उद्देश्य  प्रति इकाई क्षेत्रफल एवं  समय पर विविध प्रकार की फसलों को इस प्रकार से उगाना है जिससे खेती के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों यथा प्रकाश, जल, भूमि,जल तथा पोषक तत्वों का कुशल उपयोग हो और सीमित क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। इसमें बहुपयोगी वृक्षों के साथ खाद्यान्न अथवा सब्जी वाली फसलों को उगाया जाता है।  एक वर्षीय फसलों में बहुफसली खेती की अच्छी संभावनाएं है परन्तु बहुवर्षीय पौधों के साथ मिश्रित खेती एक नई शुरुवात है।   वर्तमान में इस प्रकार की खेती दक्षिण भारतीय राज्यों यथा केरल, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र के कुछ भागों तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अधिक प्रचलित है।  लंबी अवधि तक वर्षा होने वाले इन क्षेत्रों की प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में पौधे बहुमंजिला तरीके से व्यवस्थित होते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार अलग अलग ऊॅंचाई तक जाते हैं। इन पौधों के बीच जैव अजैव संबंधों और उर्जा के आदान प्रदान से सभी के सह-अस्तित्व के लिये आवश्यक प्राकृतिक संतुलन बनाने में मदद मिलती है। दक्षिण भारत के अलावा उत्तर  एवं मध्य भारत में भी बहुस्तरीय खेती सफलता पूर्वक की जाने लगी है। प्राकृतिक संसाधनों के सरंक्षण, टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन और प्रति इकाई किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए बहुस्तरीय कृषि को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है। 
बहुमंजिल कृषि के सिद्धांत
बहुमंजिला या बहु-स्तरीय खेती की सफलता इसके अंतर्गत उगाई जाने वाली फसलों का चुनाव एवं उनकी अग्र-प्रस्तुत विशेषताओं पर निर्भर करती है। 
1.   फसलों का चुनाव इस प्रकार से करना चाहिए कि उनमें प्रकाश,पोषक तत्व और जल के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा कम से कम हो ताकि वह एक दूसरे को प्रभावित किये बिना स्वतंत्र रूप से वृद्धि कर सकें। 
2. पौधों का चयन इस प्रकार करें कि घरेलू स्तर की आवश्यकताओं यथा अनाजदालतिलहनफल एवं सब्जियों आदि की पूर्ति हो सकें। 
3.   सबसे ऊंचे स्तर के वृक्ष ऐसे होने चाहिए जिनसे कम से कम छाया हो जिससे उनके नीचे उगाई जाने वाली फसलों को पर्याप्त मात्रा में प्रकाश और हवा मिल सके। 
4.   ऊपर से नीचे वाली मंजिल में उगाये जाने वाले पौधों में कम प्रकाश में भी प्रकाश संश्लेषण करने की क्षमता होना चाहिए।  दूसरी मंजिल के पौधों की पत्तियां अधिक चौड़ी, बड़ी एवं पतली होना चाहिए।   
5.   सबसे नीचे वाली मंजिल की फसलें सीमित प्रकाश में अपना भोजन बनाने अर्थात प्रकाश संश्लेषण करने में सक्षम होना चाहिए अर्थात इस प्रकार की फसलें छाया चाहने वाली हो। इन फसलों की पत्तियां हरी,चौड़ी, बड़ी एवं पतली होना चाहिए। 
बहु-मंजिला  कृषि के लिए प्रादर्श 
लतायुक्त सब्जियों के साथ बहुस्तरीय कृषि फोटो साभार गूगल 
बहुस्तरीय कृषि के तहत ऊपरी मंजिल के लिए नारियल, सुपारीखजूर, यूकेलिप्टस, पोपलर, सहजन, पामआयल ट्री, काजू, बेर, चीकू  आदि उपयुक्त पाई गई है।इन पौधों की पत्तियां छोटी, बिरली और कटी होना चाहिए।  इसके अलावा इन वृक्षों में तेज प्रकाश को सहन करने एवं प्रकाश संश्लेषण करने की क्षमता होती है।  दूसरी मंजिल के लिए कॉफी,टेपियोका, पान,केला, पपीता आदि उपयुक्त फसलें हो सकती है।  निचली मंजिल पर हल्दी, अदरक,सफ़ेद मूंसली, जिमिकांदा, अरवी.लोबिया,लिली,गेंदा फूल आदि की खेती की जा सकती है।  इस प्रकार से विविध फसलों की प्रकाश, जल, पोषक तत्वों आदि की आवश्यकता भिन्न-भिन्न होने से वे एक दुसरे से प्रतिस्पर्धात्मक सहयोग करती है. पौधों को उनकी लम्बाई के बढ़ते क्रम में पूर्व से पश्चिम की ओर लगायें ताकि सभी को पर्याप्त धूप मिल सके।
बहुमंजिला  खेती सफल प्रादर्श 
श्रीफल अर्थात नारियल को फर्स्ट फ्लोर फसल कहा जाता है।  नारियल का पेड़ लगभग 70-80 साल तक उत्पादन देता रहता है. खेत में 6 x 6 मीटर की दूरी पर पोधे लगाये जाते है।  दो कतारों के बीच खली जगह (ग्राउंड फ्लोर) में सब्जी फसलें यथा आलू, फूल गोभी,टमाटर,प्याज व अन्य भाजियां लगाई जा सकती है।  इससे साल भर आमदनी प्राप्त की जा सकती है।  गर्मी के दिनों में कच्चे नारियल/पानी वाले नारियल 25-30 रूपये प्रति नग बिकते है।  बरसात में इनकी कीमत कुछ कम हो जाती है. एक पेड़ में साल में 350-400 नारियल फल प्राप्त हो जाते है।  इसके पत्तों से झाड़ू और नारियल खोल से कोकोपिट व अन्य उपयोगी सामग्री बनाई जाती है। 
धान उत्पादक राज्यों विशेषकर छत्तीगढ़ में धान की मेड़ें काफी चौड़ी होती है जिनपर बहुस्तरीय कृषि कर किसानों की आमदनी में काफी इजाफा किया जा सकता है।  कृषि विज्ञान केन्द्र अम्बिकापुर में खेतों की मेड़ों की बेकार पड़ी भूमि पर लौकीभिंडीसेममटरफूल गोभीपत्ता गोभीस्ट्राबेरी आदि फसलों की बहुस्तरीय खेती पर सफल प्रयोग किया गया है । इस तकनीक में धान खेत की मेडों पर एक साथ दो-तीन  फसलों की खेती की गई। इसके लिए मेड़ पर पांच फीट बांस का मचान बनाकर उस पर लौकी/सेम  की बेलों को चढ़ाया  गया और मंडप के नीचे मटरफूल गोभीपत्ता गोभीफ्रेन्चबीनस्ट्राबेरी आदि फसलों की  खेती कर बेहतर उत्पादन और आमदनी प्राप्त हुई । इस प्रणली के अंतर्गत  मेडों पर भिंडीगवारफल्लीगेंदारजनीगंधा लगाकर आकर्षक मुनाफा अर्जित किया गया है। इस प्रकार की बहु-स्तरीय कृषि क्षेत्र एवं प्रदेश के छोटे-मझोले किसानों में लोकप्रिय होती जा रही है। 
लघु एवं सीमान्त किसान अपने खेत में बांस,बल्ली की सहायता से एक मंडप तैयार कर कम लागत में बहुस्तरीय खेती को अपना सकते है।  मंडप के ऊपर 20-25 से.मी. पर रस्सियाँ बुनकर उस पर घास-फूस की परत बिछा दी जाती है अथवा टटिया बनाकर ऊपर रख देते है। ऐसा करने से बेल वाली फसलों को बढ़ने व् फलने-फूलने के लिए सहारा तथा  भरपूर प्रकाश उपलब्ध हो जाता है और नीचे वाली फसलों की तेज धूप-गर्मी से सुरक्षा भी हो जाती है।  इस मंडप के नीचे फरवरी-मार्च महीने में जमीन के नीचे अदरक, हल्दी, अरवी आदि फसलें लगाते हैं. इन फसलों की जड़ें 20-25 सेमी की गहराई पर स्थित होती है. अरवी, हल्दी आदि 60-70 दिन में अंकुरित होकर ऊपर बढ़ती है। इस दरम्यान कोई भी साग भाजी जैसे-मेंथीपालक, धनियां,चौलाई आदि (इनकी जड़ें 5-10 सेमी की गहराई तक ) की बुवाई कर 30-35 दिन में उपज ली जा सकती है ।  इसके बाद पत्तेदार सब्जियों की कटाई पश्चात इनके स्थान पर शकरकंद की बुवाई (बेल कलमों)  की जा सकती है।  इसके बाद शकरकंद की खुदाई के उपरान्त खेत में बांस-बल्ली की सहायता से मंडप बनाकर बेल बाली सब्जियां यथा कुंदरू, लौकी, तोरई, करेला आदि की बुवाई कर इनकी बेलों को मंडप पर चढ़ाकर उत्पादन लिया जा सकता है । इन फसलों की पत्तियां पतली और कटानयुक्त होती हैं जिससे नीचे की फसलों को पर्याप्त प्रकाश एवं हवा प्राप्त होती रहती है। इसके साथ ही  बीच-बीच में पपीता भी लगाया जा सकता हैं। इस प्रकार एक ही खेत से 4-5 प्रकार की फसलें आसानी से ली जा सकती है। 
बहुमंजिला कृषि में आम (दशहरी, आम्रपाली आदि) के साथ अमरुद और लोबिआ; आम के साथ बाजरा और ग्वारफली; अरहर के साथ तिल और मूंगफली; मक्का के साथ मूंग और मूंगफली; सहजन के साथ लालभाजी, भिंडी और अरवी; पपीता के साथ पालक और प्याज या लहसुन; गन्ना के साथ आलू और सरसों युकलिप्टस के साथ पपीता और चारे के लिए बरसीम, चारे के लिए हाथी घास के साथ लोबिआ और रबी में बरसीम  आदि को आसानी से अपनाया जा सकता है।    
बहुमंजिला खेती से लाभ
1.   बहुमंजिला खेती में प्रति  इकाई भूमि में विविध प्रकार की फसलों को एक साथ उगाकर कृषि आदानों (पानी एवं पोषक तत्व) का कुशल उपयोग करते हुए आकर्षक लाभ अर्जित किया जा सकता है। 
2.   कृषि पारिस्थितकी तंत्र में समय के साथ उत्पादन में गिरावट आती है, वहीँ बहुस्तरीय कृषि में समय के साथ उत्पादन की मात्र और विविधता बढती है। 
3.   इस प्रणाली के अनुशरण से वर्ष भर कुछ न कुछ आमदनी प्राप्त होती रहती है जिससे परिवार की खाद्यान्न,सब्जी, मसाले,फल आदि की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है.
4.   बहुमंजिला खेती भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रखने, जैव विविधितता एवं पर्यावरण सरंक्षण में सहायक होती है। 
5. बहुमंजिला खेती से वर्ष पर्यन्त रोजगार के अवसर प्राप्त होने के अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण फसल उत्पादन प्रभावित होने की संभावना कम रहती है। 
6. फसलोत्पादन में कीट-रोग और खरपतवार प्रकोप कम होता है जिससे इनकी रोकथाम में लगने वाले रासायनिकों पर खर्चा बच जाता है।    
भारत में तेजी से बढती जनसंख्या के कारण भूमि का बिखंडन होता जा रहा है जिससे कृषि जोत का आकार  सिकुड़कर अव्यावहारिक होता जा रहा  हैं. सीमित कृषि भूमि में  परंपरागत कृषि अलाभकारी हो रही है। ऐसे में लघु और सीमान्त किसानों के लिए बहुस्तरीय कृषि प्रणाली वरदान साबित हो सकती है। सामान्य कृषि की तुलना में बहु-स्तरीय कृषि में लागत 4  गुना कम और लाभ 8  गुना अधिक प्राप्त किया जा सकता है।  इसके अलावा परिवार की भोजन, सब्जी,फल आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।  इससे परिवार को खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा के साथ-साथ सुनिश्चित आमदनी भी प्राप्त होती रहती है।
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

चमत्कारिक वृक्ष सहजन: रोजगार एवं आर्थिक समृद्धि का साधन

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

            भारत दुनिया की तेजी से बढती अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है।  आज हम खाद्यान्न उत्पादन में सक्षम है और दुनिया में सबसे अधिक दूध उत्पादक, दूसरे सबसे अधिक सब्जी, फल एवं मछली उत्पादक देशों में शुमार है,  परन्तु देश की बहुसंख्यक आबादी गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की शिकार है।  संयुक्त राष्ट्र के भोजन व कृषि संगठन की एक रिपोर्ट दुनिया में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति-2019’ के मुताबिक़, दुनियाभर में सबसे ज्यादा 14.5 प्रतिशत यानी 19.44 करोड़ कुपोषित भारत में हैं।  संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक पोषण रिपोर्ट-2018 के मुताबिक़ देश में हर दिन 3000 बच्चों की कुपोषण से जुड़ी बीमारियों के चलते मौत हो जाती है। देश में खाद्यान्न सुरक्षा के साथ-साथ बढती आबादी को पोषण सुरक्षा प्रदान करना भी आवश्यक है।  देश की बहुसंख्यक शाकाहारी आबादी की थाली में प्रोटीन और विटामिन से परिपूर्ण भोजन का अभाव  है। भूमिहीन,सीमान्त और लघु किसानों के लिए खेती अलाभकारी व्यवसाय बनता जा रहा है. ऐसे में देश में व्याप्त कुपोषण की समस्या को दूर करने एवं किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कृषि में विवधीकरण लाते हुए सीमित भूमि एवं न्यनतम लागत में अधिकतम उत्पादन एवं आमदनी प्राप्त करने की कृषि तकनीकों का अनुशरण करना पड़ेगा। किसानों की आमदनी बढ़ाने एवं कुपोषण की समस्या से निजात पाने में खेत की मेंड़ों पर फलदार एवं सब्जी के लिए उपयोगी वृक्षों का रोपण अथवा खेती संग उद्यानिकी-वानिकी  प्रणाली कारगर सिद्ध हो रही है।  इसके लिए सहजन एक आदर्श वृक्ष है।  सहजन को मुनगा, मोरिंगा, ड्रमस्टिक के नाम से भी  जाना जाता है। सीमित लागत और कम समय में सहजन की वैज्ञानिक तरीके से खेती करने पर 14-15 लाख रूपये प्रति हेक्टेयर से अधिक का  आर्थिक लाभ अर्जित किया  जा सकता है। देश को कुपोषण की समस्या  से निजात दिलाने,  कृषि  को घाटे से उबारने और किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए भारत में बहुपयोगी वृक्षों विशेषकर सहजन की खेती को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।  
सहजन के फलदार वृक्ष फोटो साभार गूगल 
सहजन की खेती के फायदे
  1. सहजन एक बहुपयोगी एवं बहुउद्देशीय वृक्ष है जिसकी जड़, तना, छाल, गोंद, पत्तियां, फूल, फल और बीज  किसी न किसी रूप में मानव के लिए उपयोगी होते है। 
  2. सहजना की खेती सभी प्रकार की भूमियों एवं जलवायु में सहजता से की जा सकती है।  इसके वृक्षों से वर्ष में दो बार उत्पादन लिया जा सकता है। 
  3. सहजन की खेती वर्षाधीन और सिंचित क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।  इसके पौधों में सूखा सहने की क्षमता तथा कीट-रोग प्रतिरोधी होते है। 
  4. सहजन की पत्तियों, फूल एवं फलियों में मनुष्य के लिए आवश्यक पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाने के कारण, यह कुपोषण को समाप्त करने में अहम् भूमिका निभा सकता है। पौष्टिक एवं स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होने के कारण सहजन की फलियाँ और पत्तियों की मांग बढती जा रही है। 
  5. सहजन के  तने से ईधन और कागज बनाने के लिए पल्प व टहनियों से रेशा प्राप्त किया जा सकता है, जो रस्सियां एवं अन्य सामग्री बनाने के काम आता है।  सहजन के टनों की कटाई छटाई करने के उपरान्त  उच्च गुणवत्ता वाला  गोंद  प्राप्त होता है, जिसका उपयोग रंगाई-छपाई उद्योगों  तथा औषधि निर्माण में किया जाता है ।
  6. सहजन की पत्तियों को काटकर हरी अवस्था में अथवा  छांया में सुखाकर, पीसकर चूर्ण तैयार कर बाजार में बेच कर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जा सकता है। 
  7. सेंजना के बीजों को पीसकर पाउडर बनाकर पानी में डालने से पानी साफ हो जाता है । बीजों का पाउडर जल शुद्धिकरण के अलावा शहद  एवं चीनी का शुद्धिकरण करने में  उपयोग किया जाता है । इसके बीजों में 36-40  प्रतिशत खाने योग्य तेल पाया जाता है जो गुणवत्ता में जैतून के तेल के समतुल्य माना जाता है । इसका तेल सौन्दर्य प्रसाधनों तथा मशीनों में  चिकनाहट पैदा करने के लिए किया जाता है। 
  8. सहजन की पत्तियां एवं मुलायम टहनियां पशुओं के लिए पौष्टिक आहार के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है. गर्मीं के समय पशुओं के लिए गुणवत्तायुक्त हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। 
  9. सहजन के वृक्षों से छाया कम होती है। अतः मिश्रित और अंतरवर्ती खेती के लिए यह बहुपयोगी वृक्ष है।  सहजन के साथ कम छाया चाहने वाली फसलें यथा हल्दी, अदरक, बेलदार सब्जियां आदि  सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।
  10. सहजन एक पर परागित फसल है।  वृक्षों में पुष्पन के समय मधुरस के लिए मधुमक्खियां भारी तायदाद में भ्रमण करती है. अतः सहजन की खेती के साथ साथ मधुमक्खी पालन का व्यवसाय आसानी  किया जा सकता है। सहजन का शहद उत्तम गुणवत्ता वाला होता है।  
                                        बहुपयोगी वृक्ष  सहजन की खेती ऐसे करें 
उपयुक्त जलवायु 
            सहजन  की खेती शुष्क व गर्म जलवायु में आसानी से की जा सकती है ।  इसके पौधे प्रकाश एवं ताप प्रिय होते है अर्थात पर्याप्त धूप एवं गर्म वातावरण पौधों के विकास के लिए उपयुक्त रहता है । कम तापमान और पाला सहजन पौधों के लिए हानिकारक है।  पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए 25-35  डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है लेकिन इसके पौधे ग्रीष्मकाल में कुछ समय तक  45  डिग्री तापक्रम को सहन कर लेते है। अधिक तापमान पर इसके फूल झड़ने लग जाते हैं। 
भूमि का चुनाव एव खेत की तैयारी 
         सहजन के पौधों की खेती हेतु उचित जलनिकास वाली  गहरी बलुई से बलुई दोमट व लैटेराइट मृदा उपयुक्त होती है। भूमि का पी एच मान 6.5-8.5   उचित रहता है।  इसकी खेती जलभराव एवं ख़राब जल निकासी वाली भूमि में नही करना चाहिए क्योंकि जलभराव की स्थिति में इसके पौधे नष्ट हो जाते है।  सहजन का बगीचा लगाते समय खेत को  अच्छी तरह तैयार करने के लिए मिट्टी पलटने वाले  हल से गहरी  जुताई  करने के बाद हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताई करने के उपरान्त भूमि को समतल कर लेना चाहिए । खेत तैयार होने के उपरान्त निष्चित दूरी पर पौधा लगाना चाहिए।
उन्नत किस्में
         मुनगा की देशी प्रजातियां बहुवर्षीय प्रकृति की होती है जिनमें जिनमें पुष्पन एवं फलन विलम्ब से होता है। इसके अलावा बहुवर्षीय वृक्षों की ऊंचाई भी अधिक होती है जिसके कारण फलियां तोड़ने में कठिनाई होती है।  अब 5-7 माह में अधिक उत्पादन देने वाली उन्नत किस्मों का विकास होने के कारण सहजन की व्यवसायिक खेती होने लगी है। सहजन की बहुवर्षीय प्रजातियों से 8-10 वर्ष तथा वार्षिक किस्मों से 3-4 वर्ष तक आर्थिक रूप से लाभकारी खेती की जा सकती है . सहजन की प्रमुख देशी एवं  उन्नत किस्मों के गुणधर्म अग्र प्रस्तुत है  ।
जाफना मोरिंगा : यह एक बहूवर्षिय अधिक उत्पादन देने वाली किस्म जिसकी फलियों की औसत लम्बाई 60 से 90 से.मी. होती है । फलियाँ मुलायम व ताजा होती तथा फलियों का रंग हरा होता है । प्रति पौधा 350-400 फलियाँ प्रतिवर्ष प्राप्त होती है ।
चैवाकाचेरी मुरिंगा: यह सेंजना की बहुवर्षिय  किस्म है जो वर्ष भर फलियाँ देती है । इसकी फलियों  की लम्बाई 90 से 100 से.मी. होती है । इनकी फलीयाँ अचार बनाने के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है । फलियों में अधिक गूदा होता है जो स्वादिष्ट होता  है ।
येजपानाम मुरिंगा: इस किस्म की फलियों का रंग गहरा हरा होता है । फलियों की लम्बाई 60 से 90 से.मी. तथा मोटी, मुलायम और स्वादिष्ट होती  है । पौधों का आकार अधिक फैलाव वाला होता है ।
पाल मुरंगईः इस किस्म के पौधे 6 महीने की आयु में फलियाँ करने लगते है । इस किस्म की फलियाँ लम्बी व पतली अधिक स्वादिष्ट होती है । प्रति पौधा फलियाँ 350-400 प्रतिवर्ष उत्पादन देती है ।
रोहित-1: सहजन की ये किस्म पौध रोपण के लगभग 5-6 महीने बाद ही पैदावार देना शुरू कर देती है।  इसका पौधा वर्ष में दो बार पैदावार देता है।  इस किस्म के एक पौधे से 40-125 फली  प्राप्त की जा सकती है।  इसका पौधा लगभग 8-10  साल तक पैदावार दे सकता है।  इस किस्म की फलियां हरे रंग की 40-60  से.मी. लंबी,  गुदा स्वादिष्ट, मुलायम और उच्च गुणवत्ता वाला होता है।  इसकी फलियों की लम्बाई एक से सवा फिट के बीच पाई जाती हैं। 
सी.ओ. 1: यह किस्म तमिलनाडू कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर विकसित की गई है । इसके पौधे  बीज व कटिंग द्वारा आसानी से तैयार किये जा सकते है । यह किस्म 6 महीने से फूल, फलियाँ देने लग जाती है । इस  किस्म से  प्रति पौधा 350-400 फलियों का प्रतिवर्ष उत्पादन होता है । फलियाँ मुलायम व स्वादिष्ट होती है ।
पी.के.एम.-1: यह  किस्म तमिलनाडू कृषि विश्वविद्यालय, उद्यान अनुसंधान केन्द्र, पैरीयाकुलम द्वारा विकसित की गयी ही । पौधे की ऊँचाई 4-6 मीटर होती है । इस किस्म में पौध रोपण के 8-9 माह पश्चात फलन प्रारंभ हो जाता है । प्रति पौधा प्रतिवर्ष 200-225 फलियाँ प्राप्त होती है । फलियों की लम्बाई 65-70 से.मी., 6.3 से.मी. मोटी  एवं 150 ग्राम वजन होता है । इस किस्म का पौधा 4 से 5 साल तक पैदावार देता है। 
पी.के.एम. 2: इस किस्म को उद्यान अनुसंधान केन्द्र, (तमिलनाडू कृषि विश्वविद्यालय), पैरीयाकुलाम द्वारा विकसित की गयी। इस किस्म की कच्ची फली हरे रंग की और बहुत स्वादिष्ट होती है, जिनकी लम्बाई 45  से 75 से.मी. तक पाई जाती है।  इसके एक पौधे से एक बार में 300 से 400 फलियां प्राप्त होती है।  सहजन की ये किस्म भी साल में दो बार ही पैदावार देती हैं
धनराजः यह एक बहुवर्षीय सेंजना किस्म है जो बीज द्वारा उगाई जाती है । फलियाँ लम्बी व हरे रंग की होती है । औसत  वार्षिक उत्पादन प्रति पौधा प्रतिवर्ष 400-600 फलियाँ प्राप्त होती है । इसकी फलियाँ आचार बनाने के लिए काम आती है ।
सहजन की बुवाई/रोपाई का समय: सहजन की बुवाई या रोपाई वर्षा आगमन के बाद जुलाई से लेकर अक्टूबर तक की जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर सहजन की पौध की रोपाई वर्ष पर्यन्त की जा सकती है। 
सहजन की बुवाई/रोपाई
सहजन की बहुवर्षीय प्रजातियों की प्रवर्धन वानस्पतिक विधि (कलम) से तथा वार्षिक किस्मों को बीज को सीधे तैयार खेत में अथवा बीज से पौध तैयार कर रोपा जा सकता है.
1.   बीज से बुवाई: सहजन की वार्षिक प्रकृति की उन्नत किस्मों को बीज से बोना लाभकारी होता है।  बीज को तैयार खेत में  सीधे बोया जा सकता है या बीज  से पौध तैयार कर रोपाई की जा सकती है।  एक हेक्टेयर में लगभग 650  ग्राम बीज की आवश्यकता होती है. आवश्यक बीज को रात भर पानी में भिंगोने के उपरान्त 100 ग्राम ऐज़ोस्पिरिलम कल्चर से उपचारित करने से अंकुरण शीघ्र होता है और पौधे स्वस्थ्य होते है।  बीजों की बुवाई 3 x 3 मीटर की दूरी पर 45 x 45 x 45 से.मी. के गड्ढों में 2.5-3.0 से.मी. की गहराई पर करना चाहिए। बीज बुवाई के समय मिट्टी में पर्याप्त नमीं होना चाहिए। बुवाई के 8-10 दिन में बीजों का अंकुरण हो जाता है। 
2.   बीज से पौध तैयार कर रोपण : सहजन के बीज से  नर्सरी/पौधशाला में  पौध तैयार कर खेत में तैयार गड्ढों में रोपाई की जा सकती है।  इसके लिए 20 x 10   से.मी. आकार के पॉलीथिन बैग  का  उपयोग किया जा सकता है।  पॉलिथीन बैग को दो भाग मिट्टी, एक भाग बालू (रेत) और एक भाग सड़ी  गोबर की खाद से भरने के उपरान्त प्रत्येक बैग में दो से तीन बीज डालने चाहिए। बीजों को रात भर पानी में भिंगोने के बाद बुवाई करने से बीज अंकुरण अच्छा  होता है। बीजों की बुवाई बाद प्रतिदिन हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।  बुवाई के बाद 8-10 दिन में बीज अंकुरित हो जाते है ।   पॉलिथीन बैग  में एक स्वस्थ पौधा छोड़कर बांकी को निकाल देना चाहिए।  अंकुरण के  30 से 40 दिन बाद  अथवा 60-90 से.मी. ऊंची पौध को थैली से हटाकर  निर्धारित दूरी पर तैयार गड्ढों में  रोपाई कर देना चाहिए।  पौध रोपण का कार्य मानसून आने के पश्चात जुलाई-अगस्त में करना चाहिए। 
3.   कलम रोपण: सहजन की बहुवर्षीय प्रजातियों का प्रबर्धन कलम से करना अधिक लाभकारी पाया गया है। कलम द्वारा तैयार पौधे अच्छी गुणवत्ता वाले होते है। सहजन वृक्ष से  1-2 वर्ष  पुरानी शाखाओं (कठोर लकड़ी) को कलम के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए । खेती में रोपाई अथवा पौध तैयार करने हेतु  45-100 से.मी. लंबी व 8-10  से.मी. गोलाई की शाखाएं  उपयुक्त होती है।  कलम को आई.बी.ए. के 50  पीपीएम के घोल में 24 घंटे डुबोकर लगाने से अंकुरण बेहतर होता है।  कलम को सीधे खेत में लगाया जा सकता है / कलमों को  नर्सरी या पोलीबैग  में लगाकर पौध तैयार कर मुख्य खेतों में रोपा जा सकता है । कलम  का एक तिहाई हिस्सा  मिट्टी  में दवाना चाहिए अर्थात कलम की लम्बाई 90 से.मी होने पर उसे 30 सेमी गहरा लगाना चाहिए। पौधशाला या पॉलीबैग में लगाई गई कलमों से 2-3 माह में पौधे रोपाई योग्य हो जाते है। कलमों को सीधे खेत में लगाना है तो गड्डों में हल्की रेतीली मिटटी और गोबर की खाद मिलाकर कलमों की रोपाई करना चाहिए।  
पौधरोपण का समय एवं विधि  
सहजन के बीज की बुवाई अथवा पौध रोपण का कार्य जुलाई-अगस्त मेंकरना   चाहिए । सहजन की वार्षिक किस्मों को 3 X 3 मीटर (1111 पौधे प्रति हेक्टेयर) तथा बहुवार्षिक प्रजातियों को 5 x 5 मीटर  की दूरी पर (400 पौधे प्रति हेक्टेयर) वर्गा कार विधि से लगाना चाहिए। पत्ती उत्पादन के उद्देश्य से सहजन की खेती करने के लिए कतार से कतार की दूरी 1 x 1 मीटर की दूरी पर बुवाई/पौध रोपण करना चाहिए।  कतारों में निर्धारित दूरी पर खूंटिया गाड़ कर 45 x 45 x 45 सें.मी. आकार के गड्ढे तैयार कर लेना चाहिए। यह कार्य मई-जून में करना चाहिये। खोदे गए गड्ढों की ऊपरी मिट्टी में 10-15 किलो गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट मिलाकर पुनः भर देना चाहिए। दीमक की संभावना होने पर मिट्टी व खाद के मिश्रण में 100 ग्रीम क्यूनालफ़ॉस  (1-5 प्रतिशत चूर्ण) दवा भी मिला देनी चाहिए। गड्ढों की वापिस भराई के पश्चात सभी गड्ढों  के केंद्र बिन्दु पर लकड़ी या लोहे की खूंटी गाड़ दे ताकि पौधे लगाने का केन्द्र बिन्दू ध्यान में रहें । वर्षा  होने के बाद तैयार गड्ढों में  पौधों की रोपाई कर आवश्यकता होने पर सिंचाई कर देना चाहिए।
अधिक उत्पादन के लिए जरुरी है  पौधों की कटाई-छंटाई   
          वार्षिक सहजन के पौधों की शाखाएं तेजी से ऊपर की ओर 10-12 मीटर ऊंचाई तक बढ़ती है। अधिक ऊंचे वृक्षों में शाखाएं कम बनने के कारण  कम उत्पादन प्राप्त होने के अलावा फलियों को तोड़ने में कठिनाई भी होती है।  अतः  सहजन के पौधों की ऊंचाई 75 से.मी. होने पर या बुवाई के 60 दिन बाद (वार्षिक किस्म) उनके शीर्ष (चोटी) को तोड़ देना चाहिए।  इससे पौधों में अधिक शाखाएं विकसित होती हैं।  सहजन की बहुवर्षीय प्रजातियों की शाखाओं की कटाई छंटाई  उनके शीर्ष से 70 से.मी. की लम्बाई तक करना चाहिए जिससे पुष्पन अच्छा होता है और फलिया अधिक बनती है।  कटाई-छटाई प्रति वर्ष अक्टुम्बर-नवम्बर में  करना लाभदायक होता है । छंटाई करते समय एक दूसरे से ऊपर से गुजरने  वाली तथा नीचे की ओर झुकी हुई शाखाओं को धारदार सिकेटियर से कटाई कर देनी चाहिए। इसके अलावा प्रत्येक साल में फल तोड़ने के बाद एक बार पौधे की कटाई-छंटाई करते रहने नई शाखाओं का विकास होता है जिससे पुष्पन व पैदावार में वृद्धि होती है।  इसी तरह सूखी हुई टहनियाँ तथा  रोगग्रस्त शाखाओं को समय- समय पर काटते रहना चाहिए।
संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन  
          सहजन की अच्छी वानस्पतिक बढ़वार एवं फलन के लिए खाद एवं उर्वरक देना आवश्यक है. सहजन के बीज की बुवाई/रोपाई हेतु तैयार गड्ढों में ऊपर की मिट्टी के साथ 125  ग्राम यूरिया , 75 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और 50 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटास प्रति गड्ढे के हिसाब से मिला देना चाहिए।  इसके बाद बुवाई/रोपाई के तीन माह बाद 100 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सुपर फॉस्फेट तथा 50 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधे की दर से थालों में मिलाकर सिंचाई कर देना चाहिए। पौधों में पुष्पावस्था के समय 100 ग्राम यूरिया प्रति पौधा देना लाभकारी होता है।  
सिंचाई एवं जल निकास   
         सहजन के पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। वर्षा के आभाव अथवा सूखे की स्थिति में सहजन की बुवाई/रोपाई से पूर्व और बुवाई रोपाई के तीसरे दिन बाद सिंचाई करना चाहिए।  पौधों की रोपाई के प्रथम चार से छः माह में नियमित रुप से सर्दियों में 15 दिन तथा गर्मियों में 7-10 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए। वृक्षों में फलियां विकसित होते समय सिंचाई करना आवश्यक होता है। व्यावसायिक खेती में सिंचाई की ड्रिप तकनीक का सहारा लिया जा सकता है जिसके तहत गर्मी के मौसम में प्रति पेड़, प्रतिदिन 6  लीटर पानी देने से उपज में दोगुनी बढ़ोत्तरी हो सकती है । वर्षा ऋतु में सहजन के खेती में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था कर लेना चाहिए।  जल भराव की स्थिति में सहजन के पेड़ क्षतिग्रस्त हो सकते है। 
सहजन के साथ अन्तरासस्य फसलें
सहजन को अंतरवर्ती फसल के रूप में चना, मटर,आलू, अदरक, प्याज, लहसुन, हल्दी, अरवी, शकरकंद,टमाटर आदि  फसलों की सहफसली खेती की जा सकती है. इनके अलावा सहजन के साथ दूसरे पौधें जैसें सहजन के साथ खाली स्थान पर एलोवेरा, सीताफल, आंवला,अमरुद,बेर आदि फलदार वृक्ष  लगा कर दौहरा लाभ अर्जित किया जा सकता है । सहजन केसाथ साथ  निम्बू घास,एलोवेरा आदि लगाने पर अतिरिक्त उपज के साथ-साथ भूमि का कटाव रुकता है व मृदा नमी सरंक्षित होती है । अंतरवर्ती खेती से सहजन में अधिक फूल व फलियाँ लगती है ।
                                        फलियों एवं पत्तियों की कटाई  
पत्ती  उत्पादन के उद्देश्य से सहजन की खेती की जा रही है तो पौधों की ऊंचाई 1.5 से 2.0 मीटर (उर्वरा भूमियों में बुवाई के 60-90 दिन बाद) होने पर भूमि सतह से 20-45 सेमी. छोड़कर करना चाहिए।  इसके बाद 35-40 दिन के अंतराल पर अन्य कटाइयां की जा सकती है। सहजन की वार्षिक प्रजातियों में वर्ष में दो बार पुष्पन एवं फलन होता है। अतः फलियों की तुड़ाई वर्ष में दो बार (फरवरी-मार्च और सितम्बर-अक्टूबर) में करना चाहिए। सहजन की हरी मुलायम फलियां  1-1.5 सेमी की मोटी होने पर पकने से पूर्व काट लेना चाहिए। फलन के समय पौधों की शाखाओं को बांस-बल्ली का सहारा देने से पेड़ों को गिरने और शाखाओं को टूटने से बचाया जा सकता है।      
                                                     सहजन की उपज  
        सहजन फसल की पैदावार मुख्य तौर पर जलवायु, भूमि  के प्रकार, किस्म और सस्य प्रबंधन पर निर्भर करती  है। सामान्यतौर पर  सहजन  के उत्तम सस्य प्रबंधन से औसतन 500-600 क्विंटल  हरी फली उपज तथा 600-700  क्विंटल  हरी पत्ती उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है। तुड़ाई के बाद फलियों को समान आकार के बंडलों में बांधकर, श्रेणीकरण और टोकरियों आदि में पेकिंग करके बाजार में बेचने की व्यवस्था करना चाहिए। हरी पत्तियों की कटाई कर बाजार में बेचने की व्यवस्था करें अथवा उन्हें छाया में सुखाकर जूट के बोरों  में भरकर नमीं रहित स्थानों में सरंक्षित करें। पत्तियों का पाउडर बनाकर बेचने पर अच्छी कीमत प्राप्त की जा सकती है। सहजन की वार्षिक किस्में 3-4 वर्ष तक आर्थिक उपज देती है। इसके बाद इनके पौधों को काटकर अन्य फसलों की खेती करना चाहिए।  
                                         सहजन के खेती से आकर्षक आर्थिक लाभ 
          सहजन की खेती में  कम लागत और न्यूनतम रखरखाव में बहुत आकर्षक मुनाफा  जा सकता है । बैसे तो सहजन की फलियों की बिक्री स्थानीय बाजार में आसानी से हो जाती है परन्तु इसकी बड़े पैमाने पर व्यवसायिक खेती करने के लिए इसके उत्पादों को देश की अन्य सब्जी मंडियों में भेजने की व्यवस्था कर लेना चाहिए । सहजन की खेती में लगभग 1.5 से 2.0 लाख  रूपये प्रति  हेक्टेयर की  लागत अनुमानित है। सहजन  की हरी फलियां  बाजार में 3500-4000  रूपये प्रति क्विंटल के थोक भाव में  आसानी से बिक जाती है जो बाजार में इनकी आवक पर निर्भर करता हैएक हेक्टेयर में यदि 500 क्विंटल  फलियाँ प्राप्त होती है जिन्हें 3500  रूपये प्रति क्विंटल के  थोक भाव से बेचने पर कुल 17 लाख 50 हजार रुपये की आमदनी प्राप्त हो सकती है जिसमें से 2.5 लाख  रूपये की अधिकतम उत्पादन लागत घटाने पर 15 लाख रूपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध मुनाफा प्राप्त किया जा सकता है। सहजन की हरी पत्तियों को छाया में सुखाने के पश्चात उनका पाउडर बनाकर बेचने पर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। इस प्रकार से परिवार को सुपोषण तथा रोजगार के साथ सहजन की खेती से प्रति वर्ष आकर्षक  मुनाफा कमाया जा सकता है जो अन्य किसी व्यवसाय में संभव नहीं है।   
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