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गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

गन्ने की खेती: बेहतर उपज और आमदनी कैसे ?

                                                                   

                                                                      डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                                                                          प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                  इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

 

    भारतवर्ष को  गन्ने की मातृभूमि  माना जाता है। इक्षु या ईख की सृष्टि महर्षि विश्वामित्र ने की और  नवनिर्मित स्वर्ग का यह सर्वप्रथम पौधा माना जाता था। वह स्वर्ग तो  अब नहीं है पर महर्षि जी की यह अमूल्य देन अब भी मानव का हित साधक बनि हुई  है । गन्ना भारत वर्ष की प्रमुख नकदी फसलों में से एक है, जिसपर  लगभग 50 मिलियन किसान अपनी जीविका के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर हैं और इतने ही खेतिहर मजदूर हैं, जो गन्ने के खेतों में काम करके अपनी जीविका कमाते हैं। भारत में र्निमित सभी मुख्य मीठाकारकों के लिए गन्ना एक मुख्य कच्चा माल है। इसका उपयोग दो प्रमुख कुटीर उद्योगों प्रमुख रूप से गुड़ तथा खंडसारी उद्योगों में भी किया जाता है। इन दोनों उद्योगों से लगभग 10 मिलियन टन मीठाकारकों (गुड़ और खंडसारी) का उत्पादन होता है जिससे देश में हुए गन्ने के उत्पादन का लगभग 28-35 प्रतिशत गन्ने का उपयोग होता है। गन्ने का रस सफेद शक्कर, खाण्डसारी तथा गुड़ बनाने में काम आता है। गन्ने का उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है। इसके कुल उत्पादन का लगभग 35-55% शक्कर बनाने, 40 -42% गुड़ बनाने, 3-4 % खाण्डसारी व 17 -18% गन्ना चूसने के लिए किया जाता है।  मानव मात्र को  शक्ति देने के लिये जितनी भी फसल उत्पादित करते है उनमें गन्ने का सर्वश्रेष्ठ स्थान है । केवल 0.25 हैक्टर भूमि से उत्पादित गन्ने की उपज से जो  शक्ति  मिलती है वह 10 लाख कैलोरी होती है और यह एक मनुष्य के लिये वर्ष भर कार्य करने की शक्ति देने के लिये पर्याप्त है ।  भारत में शक्कर उद्य¨ग 30,000 करोड़ का व्यवसाय है  जिसका कपड़ा उद्योग के बाद दूसरा स्थान है । गन्ना पैदा करने से ल्¨कर शक्कर उत्पादन में बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार उपलब्ध  है।  चीनी, गन्ने की खोई तथा शीरा  गन्ना उद्योग के मुख्य सह-उत्पाद हैं। शराब  बनाने में प्रयुक्त होने वाला शीरा भी गन्ने से ही प्राप्त होता है। साधारण चीनी कारखाने में 100 टन गन्ने से औसतन  10 टन शक्कर, 4 टन, शीरा 3 टन प्रेस मड (जैव उर्वरक में प्रयोग होता है) तथा 30 टन ख¨ई प्राप्त होती है । इसके अलावा 30 टन गन्ने का ऊपर का भाग और  पत्तियाँ भी निकलती है जिसे चारे या खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । इसकी खोई से कागज, कार्डबोर्ड आदि बनाये जाते है। गन्ने का ऊपरी भाग (अगोला) पशुओं के लिए पौष्टिक चारे के रूप में उपयोग रहता है।
      भारत में गन्ने की खेती लगभग 4.42 मिलियन हेक्टेयर  क्षेत्रफल में की जा रही है जिससे 285.03 मिलियन टन गन्ना  उत्पादन प्राप्त होता है । देश में गन्ने की औसत उपज  69 टन  प्रति हेक्टेयर है।  भारत में सम्पूर्ण गन्ना उत्पादन की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का प्रथम, महाराष्ट्र का द्वितीय तथा तमिलनाडु का तृतीय स्थान है । औसत उपज के मान से तमिलनाडू (106197 किग्रा), पश्चिम बंगाल (93085 किग्रा.) तथा  कर्नाटक (83018 किग्रा.) का क्रमशः प्रथम, द्वितिय एवं तृतीय स्थान है  । देश में 93.2 प्रतिशत  सिंचित क्षेत्र  में गन्ने की फसल  ली जाती है । छत्तीसगढ़ के  कबीरधाम, जगदलपुर, सरगुजा, दुर्ग, बिलासपुर व रायपुर जिलो  में गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है । सर्वाधिक उत्पादन देने वाले  जिलो  में कबीरधाम, जगदलपुर एवं सरगुजा जिले  आते है। छत्तीसगढ़ में गन्ने की खेती 23.61 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 65.36 हजार टन गन्ना उत्पादित होता है। छत्तीसगढ़ में गन्ने की औसत उत्पादकता 27.68 टन प्रति हेक्टेयर है जो राष्ट्रीय उत्पादकता (69 टन प्रति हे.) से काफी कम है। एक अनुमान के अनुसार भारत में वर्ष 2020 तक चीनी एवं मिठास उत्पादन की 27.39 मिलियन टन की अनुमानित मांग संभावित है  । इस लक्ष्य को  प्राप्त करने के लिए 100 टन प्रति हैक्टर औसत उपज तथा  11 प्रतिषत चीनी प्रत्यादन के साथ 415 मिलियन टन तक गन्ने के उत्पादन में वृद्धि का लक्ष्य हमारे सामने है । इसके लिए गन्ना फसल के अन्तर्गत क्षेत्र  विस्तार के अलावा बेहतरीन सुधरी हुई प्रजातियो और  उन्नत तकनीकी के माध्यम से प्रति इकाई क्षेत्र  में गन्ने की उपज में   बदोत्तरी  तथा चीनी प्रतिदान में यथोचित वृद्धि लाने की महती आवश्यकता है । छत्तीसगढ में कबीरधाम, बाल¨द (दुर्ग) एवं सरगुजा में सहकारी शक्कर कारखाने स्थापित किये गये है । अतः गन्ना क्षेत्र विस्तार और  उत्पादन की अपार संभावनाएं है । गन्ने की अधिकतम उपज तथा  आर्थिक लाभ के लिए उन्नत किस्मो  के बीज और  उत्पादन की आधुनिक तकनीक  विस्तार करने की आवश्यकता है । छत्तीसगढ़ राज्य मे गन्ना उत्पादन और  औसत उपज बढ़ाने के लिए आधुनिक सस्य तकनीक के प्रमुख पहलू अग्र प्रस्तुत है ।

गन्ना खेती के लिए उपयुक्त है छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश  की जलवायु

                    गन्ना के लिए उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। गन्ना बढ़वार के समय लंबी अवधि तक गर्म व नम मौसम तथा अधिक वर्षा का होना सर्वोत्तम पाया गया है। गन्ना बोते समय साधारण तापमान, फसल तैयार होते समय आमतौर पर शुष्क व ठण्डा मौसम, चमकीली धूप और पाला रहित रातें उपयुक्त रहती है। छत्तीसगढ़ क¨ प्रकृति ने ऐसी ही जलवायु से नवाजा है । गन्ने के अंकुरण के लिए 25-32 डि से.  तापमान  उचित रहता है। गन्ने की बुआई और फसल बढ़वार के लिए 20- 35 डि से. तापक्रम उपयुक्त रहता है। इससे कम या अधिक तापमान पर वृद्धि घटने लगती है। गन्ने की खेती उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 - 120 सेमी. तक होती है। समय पर वर्षा न होने पर सिंचाई आवश्यक है। पानी की कमी होने पर गन्ने मे रेशे अधिक उत्पन्न होते हैं और अधिक वर्षा में शक्कर का प्रतिशत कम हो जाता है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं के लिए आर्द्रता 56 - 87 प्रतिशत तक अनुकूल होती है। सबसे कम आर्द्रता कल्ले बनते समय एवं सबसे अधिक, गन्ने की वृद्धि के समय चाहिए। सूर्य के प्रकाश  की अवधि एवं तापमान का गन्ने में सुक्रोज निर्माण पर अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रकाश की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट बनता है जिससे गन्ने के भार में वृद्धि होती है। लम्बे दिन तथा तेज चमकदार धूप से गन्ने में कल्ले अधिक बनते हैं। तेज हवाएँ गन्ने के लिए हानिकारक है क्योंकि इससे गन्ने गिर जाते हैं जिससे गन्ने की उपज और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

    गन्ने की खेती बलुई दोमट से  दोमट और भारी मिट्टी मे सफलता पूर्वक की जा सकती है परंतु गहरी तथा उत्तम जल निकास वाली दोमट मृदा जिनकी मृदा अभिक्रिया 6.0 से 8.5 होती है, सर्वात्तम रहती है। उचित जल निकास वाली जैव पदार्थ व पोषक तत्वो से परिपूर्ण भारी मिट्टियो  में भी गन्ने की खेती सफलतार्पूक की जा सकती है।  अम्लीय मृदाएं  इसकी खेती के लिए हांनिकारक होती है।
    गन्ने की पेड़ी लेने के कारण इसकी फसल लम्बे समय (2 - 3 वर्ष) तक खेत में रहती है । इसलिए खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। खेत तैयार करने के लिए सबसे पहले पिछली फसल के अवशेष भूमि से हटाते है। इसके बाद जुताई  की जाती है और जैविक खाद मिट्टी में मिलाते है। इसके लिए रोटावेटर उपकरण उत्तम रहता है। खरीफ फसल काटने के बाद खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है । इसके बाद 2 - 3 बार देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा तथा खेत समतल कर लेना चाहिए। हल्की मिट्टियो  की अपेक्षा भारी मिट्टी में अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है ।

बेहतर उपज के लिए अपनाएं  उन्नत किस्में

         गन्ने की उपज क्षमता का पूर्ण रूप से दोहन करने के लिए उन्नत किस्मो  के स्वस्थ बीज का उपयोग क्षेत्र विशेष की आवश्यकता के अनुरूप करना आवश्यक है। रोग व कीट मुक्त बीज नई फसल (नोलख फसल) से लेना चाहिए। गन्ने की पेड़ी फसल को  बीज के रूप में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। छत्तीसगढ. के लिए अनुमोदित गन्ने की नवीन उन्नत किस्मों की विशेषताएँ यहाँ प्रस्तुत है ।

1.को -8371(भीम): यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । स्मट रोग रोधी, सूखा व जल जमाव सहनशील । इसकी उपज 117.7 टन प्रति हैक्टर तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोस पाया जाता है ।
2.को -85004 (प्रभा): शीघ्र तैयार ह¨ने वाली इस किस्म की उपज क्षमता 90.5 टन  प्रति हैक्टर  है तथा रस में 19.5 प्रतिशत शुक्रोस होता है ।  नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए यह उपयुक्त किस्म  है । यह स्मट   रोग रो धी , रेड रॉट से मध्यम प्रभावित, पेड़ी फसल हेतु उपयुक्त किस्म है।
3.को -86032 (नैना): मध्यम समय में तैयार ह¨ने वाली इस किस्म से 102 टन  प्रति हैक्टर उपज  प्राप्त ह¨ती है एवं रस में 20.1 प्रतिशत शुक्र¨स ह¨ता है । मैदानी क्षेत्रो  में नवम्बर-जनवरी में लगाने हेतु उपयुक्त है । स्मट व रेड रॉट रोग रो धी होने के साथ साथ सूखा रोधी किस्म है जो  पेड़ी फसल के लिए उपयुक्त है ।
4 .को -87044 (उत्तरा): मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । उपज 101 टन  प्रति हैक्टर तथा रस में शुक्र¨स 18.3 प्रतिशत । स्मट रोग मध्य अवरोधी तथा रेड रोट रोग से मध्य प्रभावित है।
5 .को -88121(कृष्ना):मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म छत्तीसगढ में  नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त किस्म है । उपज 88.7 टन  तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोश  पाया जाता है । स्मट रोग रो धी, सूखा सहन यह किस्म गुड़ बनाने के लिए श्रेष्ठ है ।
पायरिल्ला प्रभावित क्षेत्रो के लिए: को. जेएन. 86 - 141 उपयुक्त है।
गुड़ के लिए: को. जेएन. 86 - 141 (सूखा सहनशील), को जेएन. 86 - 572 (चूसने हेतु नरम), को. जेएन. 86 - 2072, को. 86032 (जड़ी फसल के लिए उत्तम), को. जेएन, 86 - 2087 उपयुक्त किस्म है।
गन्ने की अन्य प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्म का                          शक्कर        अवधि            गन्ना पैदावार
नाम                                     (%)           (माह)              (टन/हे.)
को. जेएन. 86 - 141            21.10        10 - 12            90 - 100
को. जेएन. 86 - 572            20.01        10 - 12            90 - 110
को. 7314                            18.80        10 - 12            90 - 100
को. जेएन. 86 - 2072          19.90        10 - 12            90 - 100
को. 7219                            18.16        12 - 14            100 - 120
को. 86032                          17.18        12 - 14            110 - 120
को. 7318                            18.16        12 - 14            100 - 120
को. 6304                            18.80        12 - 14            100 - 120
को. जेएन. 86 - 600            19.06        12 - 14            100 - 120
को. जेएन. 86 - 2087          19.04        12 - 14            100 - 120
को. पंत 90 - 223                 18.02        12 - 14            100 - 120
को. पंत 92 - 227                 18.03        12 - 14            100 - 120

गन्ना बोआई-रोपाई का समय

    गन्ने की बुआई के समय वातावरण का तापमान 25 - 32 डिग्री से.गे. अच्छा माना जाता है। भारत के उत्तरी राज्यों में इतना तापमान वर्ष में दो बार रहता है - एक बार अक्टूबर-नवम्बर में तथा दूसरी बार फरवरी-मार्च में। अतः इन दोनों ही समय पर गन्ना बोया जा सकता है। भारत में गन्ने की बुआई शरद ऋतु (सितम्बर - अक्टूबर), बसन्त ऋतु (फरवरी - मार्च) एवं वर्षा ऋतु (जुलाई) में की जाती है।छत्तीसगढ़ में शरद व बसंत ऋतु में ही गन्ना ब¨या जाना लाभप्रद है ।
1. शरद कालीन बुआई: वर्षा ऋतु समाप्त होते ही शरद कालीन गन्ना लगाया जाता है। गन्ना लगाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर - नवम्बर रहता है। देर से बुआई करने पर तापक्रम घटने लगता है, फलस्वरूप अंकुरण कम होता है और उपज में कमी आ जाती है। फसल वृद्धि के लिए लम्बा समय, भूमि में नमी का उपयुक्त स्तर और प्रारम्भिक बढ़वार के समय अनुकूल मौसम मिलने के कारण शरद ऋतु की बुआई से 15-20 प्रतिशत अधिक उपज और रस में शक्कर की मात्रा ज्यादा प्राप्त होती है।
2. बसंत कालीन बुआई: रबी फसलों की कटाई के बाद बसंत कालीन गन्ने की बुआई फरवरी - मार्च मे की जाती है। भारत मे लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र में गन्ने की बुआई इसी ऋतु में की जाती है। इस समय बोई गई गन्ने की फसल को 4 - 5 माह का वृद्धि काल ही मिल पाता है और चरम वृद्धि काल के दौरान फसल को नमी की कमी और अधिक तापक्रम तथा गर्म हवाओं का सामना करना पड़ता है जिससे शरद कालीन बुआई की अपेक्षा बसंतकालीन गन्ने से उपज कम प्राप्त होती है।

कैसा हो  गन्ने का बीज

            उत्तर भारत मे गन्ने की फसल मे बीज नहीं बनते है। अतः गन्ने की बुआई वानस्पतिक प्रजनन (तने के टुकड़ों) विधि से की जाती है। गन्ना बीज चयन एवं बीज की तैयारी से सम्बन्धित निम्न बातें ध्यान में रखना आवश्यक है।
1. बीज के लिए गन्ने का भाग
    अपरिपक्व गन्ने अथवा गन्ने के ऊपरी भाग का प्रयोग बीज के लिए करना चाहिए । वस्तुतः गन्ने के ऊपरी हिस्से से लिये गये बीज शीघ्र अंकुरित हो  जाते है, जबकि निचले भाग से लिए गए टुकड़े देर से जमते है, क्योंकि ऊपरी भाग की आँखे  ताजी एवं स्वस्थ होने के कारण शीघ्र जम जाती है, जबकी निचले भाग की पुरानी आँख पर एक कठोर परत जम जाती है जो अंकुरण में बाधक होती है। गन्ने के ऊपरी 1/3 हिस्से में घुलनशील नत्रजन युक्त पदार्थ, नमी तथा ग्लूकोज की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है जिससे गन्ने के टुकड़ो को अंकुरण के लिए तुरन्त शक्ति मिल जाती है और जमाव शीघ्र हो जाता है। गन्ने के निचले हिस्से में सुक्रोज (जटिल अवस्था में) होने से देर में अंकुरण होता है। इसके अलावा ऊपरी भाग में पोर छोटे होते है। इसलिए पंक्ति की प्रति इकाई लम्बाई में अपेक्षाकृत अधिक कलियाँ पाई जा सकती है और इस प्रकार रिक्त स्थान होने की संभावना कम हो जाती है।
फूल आने के बाद गन्ना का प्रयोग बुआई के लिए नहीं करना चाहिए क्योंकि गन्ने में पिथ बनने के कारण अंकुरित होने वाले भाग में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
2. गन्ने को टुकड़ों में काटकर बोना
                 गन्ना के पूरे तने को  न बोकर इसको काटकर (2 - 3 आँख वाले टुकड़े) छोटे - छोटे टुकड़ों में बोया जाता है। क्योकि गन्ने के पौधे या तने में शीर्ष सुषुप्तावस्था  पाई जाती है। यदि पूरा गन्ना  बगैर काटे बो दिया जाता है, तो उसका ऊपरी हिस्सा तो  अंकुरित हो  जाता है परन्तु नीचे वाला भाग नहीं जमता। गन्ने के पेड़ में कुछ ऐसे हार्मोन्स भी पाये जाते है जो पौधें में ऊपर से नीचे की और  प्रवाहित होते है तथा इन हार्मोन्स का प्रभाव नीचे की आँख के ऊपर प्रतिकूल पड़ता है। कुछ हार्मोन्स गन्ने की आँख या कली को विकसित होने से रोकते है । गन्ने को  टुकड़ो  में काट कर बोने से इन हार्मोन्स का प्रवाह रूक जाता है। जिससे प्रत्येक आँख अपना कार्य सही ढंग से करने लगती है। इसके अलावा गन्ने को टुकड़ों में काटने से कटे हुए हिस्सों से पानी एवं खनिज लवण शीघ्र प्रवेश कर जाते है, जो शीघ्र अंकुरण में सहायक होते है।
3. गन्ने के टुकड़ो  को  सीधा नहीं तिरछा काटा जाए
          बीज के लिए गन्ने के टुकड़ो  को हमेशा तिरछा काटा जाना चाहिए क्योंकि सीधा काटने से गन्ना फट जाता है जिससे उनसे काफी रस निकल जाता है और बीज में कीट-रोग लगने की संभावना भी बढ़ जाती है। तिरछा काटने से गन्ना फटता नहीं है और उसका जल-लवण अवशोषण क्षेत्र  भी बढ़ जाता है। शीघ्र अंकुरण के लिए टुकड़ो  का अधिक अवशोषण क्षेत्र सहायक होता है। सीधा काटने से कटा क्षेत्र कम रहता है अर्थात्  अवशोषण क्षेत्र समिति होता है।बोआई के लिए गन्ने के तीन आँख वाले टुकड़े सर्वोत्तम माने जाते है, परन्तु आमरतोर पर  अब दो  आँख वाले  टुकडे  का प्रयोग होने लगा है ।

सही हो बीज बोने की दर 

               गन्ने की बीज दर  टुकड़े के अंकुरण प्रतिशत, गन्ने की किस्म, बोने के समय आदि कारको  पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर गन्ने की 50-60 प्रतिशत कलिकायें ही अंकुरित होती है। नीचे की आँखें अपेक्षाकृत कम अंकुरित होती है। बोआई हेतु मोटे गन्ने की मात्रा अधिक एवं पतले गन्ने की मात्रा कम लगती है। शरदकालीन  ब¨आई में गन्ने में अंकुरण प्रतिशत अधिक होता है। अतः बीज की मात्रा भी कम लगती है। बसंतकालीन गन्ने में कम अंकुरण होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक बीज लगता है। एक हेक्टेयर ब¨आई के लिए तीन कलिका वाले 35,000 - 40,000 (75 - 80 क्विंटल ) तथा दो कलिका वाले 40,000 - 45,000 (80 - 85  क्विंटल ) टुकड़ों की आवश्यकता पड़ती है। इन टुकड़ों को आँख - से - आँख  या सिरा - से - सिरा मिलाकर लगाया जाता है। गन्ने के टुकड़ों को 5 - 7 सेमी. गहरा बोना चाहिए तथा कलिका  के ऊपर 2.5 से. मी. मिट्टी चढ़ाना चाहिए।

बीज उपचार से फसल सुरक्षा 

                        फसल को रोगो  से बचाव हेतु गन्ने के टुकड़ो को एमीसान नामक कवकनाशी की  250 ग्राम  मात्रा को 200 लीटर पानी के घोल में 5 से 10 मिनट तक डुबाना चाहिये। इस दवा के न मिलने पर 600 ग्राम डायथेन एम - 45 का प्रयोग करना चाहिए । रस चूसने वाले कीड़ो की रोकथाम के लिए उक्त घोल में 500 मि. ली. मेलाथियान कीटनाशक मिला लेना चाहिए। गन्ने के टुकड़ों को लगाने के पूर्व मिट्टी के तेल व कोलतार के घोल  अथवा क्लोर¨पायरीफाॅस दवा को 2.5  मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर गन्ना बीज के टुकड़ों के किनारों को डुबाकर उपचारित करने से दीमक आदि भूमिगत कीटो का प्रकोप कम हो जाता है। अच्छे अंकुरण के लिए बीजोपचार से पूर्व गन्ने के बीजू टुकड़ों को 24 घन्टे तक पानी में डुबाकर रखना चाहिए। गन्ना कारखाने में उपलब्ध नम - गर्म हवा संयंत्र में (54 डि. से. पर 4 घंटे तक) गन्ने के टुकड़ों को उपचारित करने पर बीज निरोग हो जाता है।

गन्ना लगाने की विधियाँ

    गन्ने की बुवाई सूखी या पलेवा की हुई गीली दोनो  प्रकार की भूमि पर की जाती है । सूखी भूमि में  पोरिया (गन्ने के टुकड़े) डालने के तुरन्त बाद सिंचाई की जाती है  । गीली बुवाई में पहले  पानी नालियो या खाइयो  में छोड़ा जाता है और फिर गीली भूमि में पोरियो  को रोपा जाता है । गन्ने की बुआई भूमि की तैयारी , गन्ने की किस्म, मिट्टी का प्रकार, नमी की उपलब्धता, बुआई का समय आदि के अनुसार निम्न विधियों से की जाती है:
1. समतल खेत में गन्ना बोना: इसमें 75 - 90 सेमी. की क्रमिक दूरी पर देशी हल या हल्के डबल मोल्ड बोर्ड हल से 8 - 10 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। इन कूडों में गन्ने के टुकड़ों की बुआई (एक सिरे से दूसरे सिरे तक) करके पाटा चलाकर  मिट्टी से 5-7 सेमी. मिट्टी से ढंक दिया जाता है। आज कल  ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लांटर से भी बुआई की जाती है।
2. कूँड़ में गन्ना बोनाः इस विधि  मे गन्ना रिजर द्वारा उत्तरी भारत में  10 - 15 सेमी. गहरे कूँड़ तथा दक्षिण भारत मे 20 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। गन्ने के टुकड़ों को एक - दूसरे के सिरे से मिलाकर इन कूँड़¨ में बोकर ऊपर से 5-7 सेमी. मिट्टी चढ़ा देते है । इस विधि में बुवाई के तुरन्त बाद पानी दे दिया जाता है, पाटा नहीं लगाया जाता ।
3. नालियों में गन्ना बोना: गन्ने की अधिकतम उपज लेने के लिए यह श्रेष्ठ विधि है ।गन्ने की बुआई नालियों में करने के लिए 75 - 90 सेमी. की दूरी पर 20 - 25 सेमी. गहरी एवं 40 सेमी. चौड़ी नालियाँ बनाई जाती है। सामान्यतः 40 सेमी. की नाली और 40 सेमी. की मेढ़ बनाते है। गन्ने के टुकड़ों को  नालियों के मध्य में लगभग 5 - 7 सेमी. की गहराई पर बोते है तथा कलिका के ऊपर 2.5 सेमी. मिट्टी होना आवश्यक है। प्रत्येक गुड़ाई के समय थोड़ी सी मिट्टी मेढ़ो की नाली में गिराते रहते है। वर्षा आरम्भ होने तक मेढ़ो की सारी मिट्टी नालियों में भर जाती है और खेत समतल हो जाता है। वर्षा आरंभ हो जाने पर गन्ने में  नत्रजन की टापड्रेसिंग करके जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देते हैं। इस प्रकार मेढ़ों के स्थान पर नालियाँ और नालियों के स्थान पर मेढ़ें बन जाती हैं। इन नालियों द्वारा जल निकास भी हो जाती है। इस विधि से गन्ना लगाने के लिए ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लान्टर यंत्र सबसे उपयुक्त रहता है। नालियो  में गन्ने की रोपनी करने से फसल गिरने से बच जाती है । खाद एवं पानी की बचत होती है । गन्ने की उपज में 5-10 टन प्रति हैक्टर की वृद्धि होती है । गन्ना नहीं गिरने से चीनी की मात्रा  में भी वृद्धि पायी जाती है ।
4. गन्ना बोने की दूरवर्ती रोपण विधि (स्पेस ट्रांस्प्लान्टिंग):  यह विधि भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है । इसमें 50 वर्ग मीटर क्षेत्र में (1 वर्ग मीटर की 50 क्यारियाँ) पोधशाला बनाते हैं। इनमें एक आँख वाले 600 - 800 टुकड़ें लगाते हैं। इसमें सिर्फ 20  क्विंटल ही  बीज  लगता है। बीज हेतु गन्ने के  ऊपरी भाग का ही प्रयोग करना चाहिए। क्यारियों में नियमित रूप से सिंचाई करें। बीज लगाने के 25 - 30 दिन बाद (3 - 4 पत्ती अवस्था) पौध को मुख्य खेत में रोपना  चाहिए। इस विधि से गन्ना लगाने हेतु पौध स्थापित होने तक खेत में नमी रहना आवश्यक है। इस विधि से बीज की बचत होती है। खेत में पर्याप्त गन्ना (1.2 लाख प्रति हे.) स्थापित होते हैं। फसल में कीट-रोग आक्रमण कम होता है। परंपरागत विधियों की अपेक्षा लगभग 25 प्रतिशत अधिक उपज मिलती है।
5. गन्ना बोने की दोहरी पंक्ति विधिः भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित गन्ना लगाने की यह पद्धति अच्छी उपजाऊ एवं सिंचित भूमियो  के लिए उपयुक्त रहती है । दोहरी पंक्ति विधि में गन्ने के दो  टुकड़ो  को  अगल-बगल बोया जाता है जिससे प्रति इकाई पौध घनत्व बढ़ने से पैदावार में 25-50 प्रतिशत तक बढोत्तरी होती है ।

अधिकतम उपज के लिए खाद एवं उर्वरक 

             गन्ने की 100 टन प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 208 किलो नत्रजन, 53 किलो फास्फोरस तथा  280 किलो पोटाश ग्रहण करती है। अतः वांक्षित उत्पादन के लिए गन्ने में खाद एवं उर्वरको  को  सही एवं संतुलत मात्रा में  देना आवश्यक रहता है । खेत की अंतिम जुताई के पूर्व 10-12 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी गोबर की खाद भूमि में मिला दें। यदि मिट्टी  परीक्षण  नहीं किया गया है तो प्रति हे. 120 - 150 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा. स्फुर व 60 किग्रा. पोटाश की अनुशंसा की जाती है। यदि भूमि मे जस्ते की कमी हो तो 20 से 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हे. गन्ना लगाते समय देना चाहिए । बसन्तकालीन फसल में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें । नत्रजन की शेष मात्रा बआई के 80 - 90 दिन बाद दी जाना चाहिए । शरदकालीन गन्ने में भी नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें। नत्रजन की शेष मात्रा बुआई के 110 - 120 दिन बाद दी जानी चाहिए। पोषक तत्वो  की कुल आवश्यकता का एक तिहाई हिस्सा गोबर की खाद या कम्पोस्ट द्वारा तथा शेष दो तिहाई भाग रसायनिक उर्वरक के रूप मे देने से गन्ने के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार होता है। इस तरह उर्वरकों का प्रयोग करने पर अधिक लाभ व उत्पादन मिलता है।

समय पर सिंचाई और जल निकासी

                गन्ने की फसल को जीवन काल में 200-300 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। फसल की जलमांग  क्षेत्र, मृदा का प्रकार, किस्म, बुआई का समय और बोने की विधि पर निर्भर करती है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं में जल माँग को निम्नानुसार विभाजित किया गया है -
    फसल अवस्थाएँ                        समय (दिन)        जलमाँग (सेमी.
1.    अंकुरण                                   बुआई से 45            30
2.    कल्ले बनने की अवस्था              45 से 120            55
3.    वृद्धि काल                                 120 से 270            100
4.    पकने की अवस्था                      270 से 360            65                        
                  गन्ने में सर्वाधिक पानी की माग बुआई के 60 दिन से लेकर 250 दिन तक होती है। फसल में प्रति सिंचाई 5-7 सेमी. पानी देनी चाहिए। गर्मी में 10 दिन व शीतकाल में 15 से 20 के अंतर से सिंचाई करें। मृदा में उपलब्ध नमी 50 प्रतिशत तक पहुचते ही गन्ने की फसल में सिंचाई कर देनी चाहिए। शरदकालीन फसल के लिए औसतन 7 सिंचाईयाँ (5 मानसून से पहले व 2 मानसून के बाद) और बसन्तकालीन फसल के लिए 6 सिंचाईयों की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी वाली स्थिति में गरेडों  में सूखी पत्तियाँ बिछाने से सिंचाई संख्या कम की जा सकती हैं। खेत को छोटी-छोटी क्योरियों में बाँटकर नालियों मे सिंचाई करना चाहिए। फव्वारा विधि से सिंचाई करने से पानी बचत होती है तथा उपज में भी बढोत्तरी होती है।
    वर्षा ऋतु में मृदा मे उचित वायु संचार बनाये रखने के लिए जल - निकास का प्रबन्ध करना अति आवश्यक ह। इसके लिए नाली में बोये गये गन्ने की नालियों को बाहरी जलनिकास नाली से जोड़ देना चाहिए। जल निकास के अभाव मे जड़ों का विकास ठीक से नहीं होता है। सबसे अधिक क्रियाशील द्वितीयक जड़े मरने लगती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण  की क्रिया मन्द पड़ जाती है। गन्ने की उपज और सुक्रोज की मात्रा घट जाती है। अतः सिंचाई के साथ साथ गन्ने मे जल निकास भी आवश्यक है।

गन्ना विकास हेतु आवश्यक है पौधो  पर मिट्टी चढ़ाना

                 गन्ने में खरपतवार नियंत्रण एवं अंकुरण बढ़ाने के उद्देश्य से गन्ने के अंकुरण से पहले  ही खेत की गुड़ाई की जाती है जिसे अंधी गुड़ाई  कहते है। इसका  प्रमुख उद्देश्य वर्षा के पश्चात् मृदा पपड़ी  को तोड़ना, कड़ी मिट्टी को ढीला करना, गन्ने के खुले टुकड़ों को ढँकना, खरपतवारों  को नष्ट करना तथा सड़े - गले टुकड़ों को निकालकर अंकुरित गन्ने को बोना है। इससे ख्¨त में वायु संचार तथा मृदा नमी संरक्षण भी ह¨ता है । गुड़ाई का यह कार्य कुदाली अथवा बैल चालित कल्टीवेटर द्वारा किया जा सकता है।इसके बाद गन्ने को गिरने से बचाने के लिए दो बार गुड़ाई करके पौधों पर मिट्टी चढाना   चाहिए। अप्रैल या मई माह में प्रथम बार व जून माह में दूसरी बार यह कार्य करना चाहिए। गुड़ाइयों से मिट्टी में वायु संचार, नमी धारण करने की क्षमता,  खरपतवार नियंत्रण तथा कल्ले विकास मे प्रोत्साहन मिलता है।

गन्ने के पौधो को  सहारा भी देना है 

                 गन्ने की फसल को गिरने  से बचाने हेतु जून - जुलाई में  बँधाई की क्रिया  की जाती है। इसमें गन्नों के झुड   को जो कि समीपस्थ दो पंक्तियों में रहते हैं, आर - पार पत्तियों से बाँध देते है। गन्ने की हरी पत्तियों के समूह को एक साथ नहीं बाँधते है क्यांेकि इससे प्रकाश संश्लेषण बाधित होती है। लपेटने  की क्रिया में एक - एक झुंड को पत्तियों के सहारे तार या रस्सी से लपेट देते है और बाँस या तार के सहारे तनों को खड़ा रखते है। यह खर्चीली विधि है। इसके लिए गुडीयत्तम की विधि सर्वोत्तम है। इस विधि में जब गन्ने के तने 75 - 150 सेमी. के हो जाते है तब नीचे की सूखी एवं हरी पत्तियों की सहायता से रस्सियाँ बांध ली जाती है और उन्हे गन्ने की ऊँचाई तक लपेट देते है। इससे गन्ने की कोमल किस्में फटती नहीं है। सहारा देना  विधि से बाँधे या लपेटे हुए झुंडों  को सहारा देने के लिए बाँस या तार का प्रयोग करते है। उपर्युक्त क्रियाओं से गन्ने का गिरना रूक जाता है और उपज में भी वृद्धि होती है।  

खरपतवारो को रखे काबू में 

                        शदरकालीन  गन्ने का अंकुरण 3 - 4 सप्ताह में तथा बसन्तकालीन गन्ने का अंकुरण 4 - 5 सप्ताह में हो जाता है गन्ने की बुआई के 1 - 2 सप्ताह बाद एक प्रच्छन गुडाई  करनी चाहिए। इससे अंकुरण शीघ्र हो जाती है तथा खरपतवार   भी कम आते है। अंकुरण के 3 माह तक खरपतवार की सघनता के अनुसार 3 से 4 बार निंदाई करना आवश्यक है जिससे कल्ले ज्यादा बनतें है। शरदकालीन गन्ने में चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों (बथुआ, मटरी, अकर, कृष्णनील, मकोय आदि) की रोकथाम के लिए 2, 4-डी (80 प्रतिशत सोडियम साल्ट) 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई से 25 -30 दिन बाद या खरपतवारों की 3-4 पत्ति अवस्था से पहले छिड़कना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ने की फसल में सिमाजीन या एट्राजिन या एलाफ्लोर 2 किग्रा. प्रति हे. की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिये। छिड़काव करते समय खेत में नमी होना आवश्यक है। गन्ने में कहीं-कहीं जड़ परीजीवी जैसे स्ट्राइगा (स्ट्राइगा ल्युटिया) से भी क्षति ह¨ती है । यह हल्के हरे रंग का 15-30 सेमी लम्बा पोधा होता है जो  गन्ने की जड़ से पोषण लेता है । इसकी रोकथाम के लिए 2,4-डी (सोडियम साल्ट) 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टर 2250 लिटर पानी में घ¨लकर छिड़कने से  यह नष्ट ह¨ जाता है । इस परिजीवी खरपतवार की कम संख्या होने  पर इसे जड़ सहित उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है ।

गन्ने के साथ साथ अंतरवर्ती फसले  

    गन्ना की खेती धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, आलू या सरसो के बाद की जाती है। गन्ने की प्रारंभिक अवस्था में  दो कतारों के बीच अंतरवर्ती खेती में दलहनी फसलों की खेती से न केवल अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है वल्कि इससे भूमि की उर्वरा शक्ति और गन्ना उपज में भी बढ़ोत्तरी होती है।    शरदकालीन गन्ना के साथ आलू की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई अक्टूूबर के प्रथम सप्ताह में कतारों में 90 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। गन्ने की दो कतारों के बीच आलू की एक कतार पौधे की दूरी 15 से.मी. रखकर ब¨ना चाहिए। शरदकालीन गन्ना के साथ चना या मसूर की सह फसली खेती हेतु गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य (90 सेमी.) चना या मसूर की 2 कतारें 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ना के साथ मूँग की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई फरवरी में 90 से.मी. की दूरी पर करते है। गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य मूँग या उड़द की दो कतारें 30 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए। मूँग व उड़द की बीज दर 7 - 8 किग्रा. प्रति हैक्टर रखते है।

सही समय पर कटाई

                  गन्ने की फसल 10 - 12 माह में पककर तैयार हो जाती है। गन्ना पकने पर इसके तने को ठोकने पर धातु जैसी आवाज आती है। गन्ने को मोड़ने पर गाँठों  पर आसानी से टूटने लगता है। गन्ने की कटाई उस समय करनी चाहिए जब रस में सुक्रोज की मात्रा  सर्वाधिक हो। गन्ने के रस में चीनीे की मात्रा (पकने का सही समय) हैण्डरिफ्रेक्ट्र¨मीटर से ज्ञात की जा सकती है। फसल की कटाई करते समय ब्रिक्स रिडिंग 17 - 18 के बीज में होना चाहिए या फिर पौधों के रस में ग्लूकोज 0.5 प्रतिशत से कम होने पर कटाई करना चाहिए। फेहलिंग घोल के प्रयोग से रस में ग्लूकोज का  प्रतिशत ज्ञात किया जा सकता है। तापक्रम बढ़ने से सुक्रोज का परिवर्तन ग्लूकोज मे होने लगता है। गन्ना सबसे निचली गाँठ से जमीन की सतह में गंडासे से काटना चाहिए। कटाई के पश्चात् 24 घंटे के भीतर गन्ने की पिराई कर लें अथवा कारखाना  भिजवाएँ क्योकि काटने के बाद गन्ने के भार में 2 प्रतिशत प्रतिदिन की कमी आ सकती है। साथ ही कारखाने में शक्कर की रिकवरी  भी कम मिलती है। यदि किसी कारणवश गन्ना काटने के बाद रखना पड़े तो उसे छाँव में ढेर के रूप में रखें। हो सके तो, ढेर को ढँक दें तथा प्रतिदिन पानी का छिड़काव करें।

अब मन बांक्षित उपज

           गन्ने की उपज मृदा, जलवायु, किस्म, सस्य प्रबन्धन पर निर्भर करती है। सामान्यतया औसतन 400 - 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ना पैदा होता है। उचित प्रबंध होने पर 700 - 90 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  रस की गुणवत्ता उसमें उपलब्ध सुक्रोज की मात्रा से आँकी जाती है, जो गन्ने की किस्म, भूमि, जलवायु, कटाई काल तथा पेरे गये तने के भाग पर निर्भर करती है। प्रायः रस में 12 - 24 प्रतिशत तक सुक्रोज रहती है। जिन गन्नों में 18 -20 प्रतिशत तक सुक्रोज होती है उन्हे आदर्श माना जाता है। देशी विधि से 6-7 प्रतिशत तथा चीनी मिलों से 9 - 10 प्रतिशत शक्कर प्राप्त होती है।  औसतन गन्ने के रस से 12 - 13 प्रतिशत गुड़, 18 - 20 प्रतिशत राब तथा 9 -11 प्रतिशत चीनी प्राप्त होती है। गन्ने में 13-24 प्रतिशत सुक्रोज तथा 3-5 प्रतिशत शीरा पाया जाता है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

गेंहू से भरपूर उपज और अधिकतम लाभ हेतु सस्य-तकनीक

                                                                       डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                                                                          प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                  इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                                                                       

  गेंहूँ का आर्थिक महत्व 

            गेहूँ विश्वव्यापी महत्त्व की फसल है। मुख्य रूप से एशिया में धान की खेती की जाती है, तो भी विश्व के सभी प्रायद्वीपों में गेहूँ उगाया जाता है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए गेहूँ लगभग 20 प्रतिशत आहार कैलोरी की पूर्ति करता है। भारत में धान के बाद गेहुँ सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है जिसका देश के खाद्यान्न उत्पादन में लगभग 35 प्रतिशत का योगदान  है। गेहूँ के दाने में 12 प्रतिशत नमी, 12 प्रतिशत प्रोटीन, 2.7 प्रतिशत रेशा, 1.7 प्रतिशत वसा, 2.7 प्रतिशत खनिज पदार्थ व 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट  पाया जाता है। भारत में गेहूँ के आटे का उपयोग मुख्य रूप से रोटी बनाने में किया जाता है, परन्तु विकसित देशो  में गेहूँ के आटे में खमीर पैदा कर उसका उपय¨ग डबल रोटी, बिस्कुट आदि तैयार करने में किया जाता है । गेहूँ में ग्लूटिन की मात्रा  अधिक होने के कारण इसके आटे का प्रयोग बेकरी उद्योग में भी किया जाता है । इसके अलावा सूजी, रबा, मैदा, दलिया, सेवई, चोंकर (पशुओ  के लिए), उत्तम किस्म की शराब  आदि बनाने में भी गेहूँ का प्रयोग बहुतायत में किया जा रहा है । गेहूँ के भूसे का प्रयोग पशुओ को  खिलाने में किया जाता है ।

        गेहूँ की खेती विश्व के प्रायः हर भाग में होती है । संसार की कुल 23 प्रतिशत भूमि पर गेहूँ की ख्¨ती की जाती है ।  विश्व में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेहूँ उगाने वाले   प्रमुख तीन  राष्ट्र भारत, रशियन फैडरेशन और  संयुक्त राज्य अमेरिका है । गेहूँ उत्पादन में चीन के बाद भारत तथा अमेरिका का क्रम आता है ।औसत   उपज के मामले में फ्रांस का पहला स्थान (7107 किग्रा. प्रति हैक्टर) इजिप्ट का दूसरा (6501 किग्रा.) तथा  चीन का तीसरा (4762 किग्रा) क्रम पर है ।
    देश में गेहूँ की औसत उपज लगभग 2907 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है  । भारत के केरल, मणिपुर व नागालैण्ड राज्यों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों मे गेहूँ की खेती की जाती है परन्तु गेहूँ का अधिकांश क्षेत्रफल उत्तरी  भारत में है। देश में सर्वाधिक क्षेत्रफल मे गेहूँ उत्पन्न करने वाले प्रथम तीन राज्य क्रमशः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं पंजाब है। इनके अलावा  हरियाणा, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य है।  छत्तीसगढ़ राज्य में गेहूँ की खेती का तेजी से विस्तार ह¨ रहा है । राज्योदय के समय (2001-2002) जहां 143.8 लाख हैक्टर में गेहूँ की खेती प्रचलित थी वहीं वर्ष 2009-10 में 177.96 हजार हैक्टर क्षेत्रफल में गेहूँ बोया गया तथा 1306 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत उपज प्राप्त हुई। प्रदेश के सरगुजा, दुर्ग और  राजनांदगांव जिलो  में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेंहू की खेती की जाती है । इन जिलो  के अलावा बिलासपुर, रायपुर तथा  जांजगीर जिलो  में भी गेंहू की खेती की जा रही है । उत्पादन के मामले  में सरगुजा, बिलासपुर व  दुर्ग अग्रणी जिलो  की श्रेणी में आते है । प्रदेश के दंतेबाड़ा जिले  में गेंहू की सर्वाधिक ओसत उपज (1975 किग्रा. प्रति हैक्टर) ली जा रही है ।

गेंहू  से भरपूर उपज और अधिकतम लाभ हेतु सस्य-तकनीक 

उपयुक्त जलवायु क्षेत्र 

                गेहूँ मुख्यतः एक ठण्डी एवं शुष्क  जलवायु की फसल है अतः फसल बोने के समय 20 से 22  डि से , बढ़वार के समय इष्टतम ताप 25 डि से  तथा पकने के समय  14 से 15 डि से तापक्रम उत्तम  रहता है। तापमान  से अधिक होने पर फसल जल्दी पाक जाती है और उपज घट जाती है। पाल्¨ से फसल क¨ बहुत नुकसान होता है । बाली लगने के समय पाला  पड़ने पर बीज अंकुरण शक्ति ख¨ देते है और  उसका विकास रूक जाता है । छ¨टे दिनो  में पत्तियां   और कल्लो  की बाढ़ अधिक होती है जबकि दिन बड़ने के साथ-साथ बाली निकलना आरम्भ होता है। इसकी खेती के लिए 60-100 से. मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। पौधों की वृद्धि के लिए  वातावरण में 50-60 प्रतिशत आर्द्रता उपयुक्त पाई गई है। ठण्डा शीतकाल तथा गर्म ग्रीष्मकाल गेंहूँ की बेहतर फसल के लिए उपयुक्त माना जाता है । गर्म एवं नम  जलवायु गेहूँ के लिए उचित नहीं होती, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में फसल में रोग अधिक लगते है।

भूमि का चयन 

     गेहूँ सभी प्रकार की कृषि य¨ग्य भूमियों में पैदा हो सकता है परन्तु दोमट से भारी दोमट, जलोढ़ मृदाओ  मे गेहूँ की खेती सफलता पूर्वक की जाती है। जल निकास की सुविधा होने पर मटियार दोमट  तथा काली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ली जा सकती है। कपास की काली मृदा  में गेहूँ की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है। भूमि का पी. एच. मान 5 से 7.5 के बीच में होना फसल के लिए उपयुक्त  रहता है क्योंकि अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि   गेहूं के लिए अनुपयुक्त ह¨ती है।  
खेत  की तैयारी
    अच्छे  अंकुरण  के लिये एक बेहतर भुरभुरी  मिट्टी की आवश्यकता होती है। समय पर जुताई  खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त  हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बोआई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके। खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई  मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ ) से करनी चाहिए जिससे खरीफ फसल के अवशेष   और खरपतवार मिट्टी मे दबकर सड़ जायें। इसके  बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयाँ देशी हल - बखर या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा देकर खेत समतल कर लेना चाहिए। ट्रैक्टर चालित रोटावेटर यंत्र् से खेत एक बार में बुवाई हेतु तैयार हो  जाता है ।  सिंचित क्षेत्र  में धान-गेहूँ फसल चक्र में विलम्ब से खाली होने वाले  धान के खेत की समय से बुवाई करने के लिए धान की कटाई से पूर्व सिंचाई कर देते है तथा शून्य भू-परिष्करण बुवाई करके मृदा की भौतिक  अवस्था का संरक्षण, समय से बुवाई, खेती व्यय में कमी तथा सघन कृषि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनती है । धान-गेहूँ चक्र वाले  क्षेत्र में यह विधि बहुत प्रचलित होती जा  रही है ।

उन्नत किस्में

               फसल उत्पादन मे उन्नत किस्मों के बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। गेहूँ की किस्मों का चुनाव जलवायु, बोने का समय और क्षेत्र के आधार पर करना चाहिए।

गेहूँ की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएं

1.रतन: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 112 दिन में पकती है। दाना गोल होता है। सूखा व गेरूआ रोधक किस्म है जो औसतन 19 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज देती है।
2.अरपा: इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म देर से बोने के लिए सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 112 दिन में पकती है। दाना अम्बर रंग का होता है। अधिक तापमान, गेरूआ रोग व कटुआ कीट रोधक किस्म है जो औसतन 23-24 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज देती है।
3.नर्मदा 4: यह पिसी सरबती किस्म, काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। यह असिंचित एवं सीमित सिंचाई क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इसके पकने का समय 125 दिन हैं इसकी पैदावार 12-19 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। इसका दाना सरबती  चमकदार होता है। यह चपाती बनाने के लिये विशेष उपयुक्त है।
4. एन.पी.404: यह काला और भूरा गेरूआ निरोधक कठिया किस्म असिंचित दशा के लिये उपयुक्त है। यह 135 दिन मे पक कर तैयार होती है। पैदावार 10 से 11 क्विंटल  प्रति हेक्टयर होती है। इसका दाना बड़ा, कड़ा और सरबती रंग का होता है।
5. मेघदूत: यह काला और भूरा गेरूआ निरोधक कठिया जाति असिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। इसके पकने का समय 135 दिन है। इसकी पदौवार 11 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना एन.पी.404 से कड़ा होता है।
6.हायब्रिड 65: यह पिसिया किस्म है, जो भूरा गेरूआ निरोधक है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावार असिंचित अवस्था में 13 से 19 क्विंटल  प्रति हेक्टयर होती है। इसका दाना, सरबती, चमकदार, 1000 बीज का भार 42 ग्राम होता है।
7.मुक्ता: यह पिसिया किस्म है जो भूरा गेरूआ निरोधक है। असिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावार 13 - 15 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना सरबती लम्बा और चमकदार होता है।
8.सुजाता: यह पिसिया (सरबती) किस्म काला और भूरा गेरूआ सहनशील है। असिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावा 13 - 17 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना, सरबती, मोटी और चमकदार होता है।
9.सोनालिका: यह गेरूआ निरोधक, अंबर रग की, बड़े दाने वाले किस्म। यह 110 दिनों में पककर तैयार हो जाता है। देर से बोने के लिए उपयुक्त है। धान काटने के बाद जमीन तैयार कर बुवाई की जा सकती है। इसकी पैदावार 30 से 35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है।
10.कल्याण सोना (एच.डी.एम.1593): इसका दाना चमकदार, शरबती रंग का होता है। यह किस्म 125 दिन मे पक जाती है। पैदावार प्रति हेक्टेयर 30 से 35 क्विंटल  तक होती है। गेरूआ रोग से प्रभावित यह किस्म अभी भी काफी प्रचलित है।
11.नर्मदा 112: यह पिसिया (सरबती) किस्म है जो काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। असिंचित एवं सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है।इसके पकने का समय 120 - 135 दिन है। इसकी पैदावार 14 - 16 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना सरबती चमकदार और बड़ा होता है। इह चपाती बनाने के लिए विशेष उपयुक्त है।
12.डब्ल्यू.एच. 147: यह बोनी पिसी किस्म काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। सिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। बाले गसी हुई मोटी होती है। इसका पकने का समय 125 दिन होता है। इसका दाना मोटा सरबती होता है। इसकी पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
13.एच.डी. 4530: यह बोनी कठिया किस्म काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। सिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। बाले गसी हुई और मोटी होती है। इसका पकने का समय 130 दिन होता है। इसका दाना मोटा, सरबती और कड़क होता है। इसकी पैदावार 35 क्विंटल/ हेक्टेयर होती है।
14. शेरा (एच.डी.1925): देर से बोने के लिए यह जाति उपयुक्त है। यह गेरूआॅ निरोधक है यह कम समय 110 दिन में पक जाती है। इसका दाना आकर्षक होता है।इसकी पैदावार लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
15. जयराज: इसकी ऊँचाई 100 से. मी. है। यह जाति 115 दिन मे पकती है। इसके दाने सरबती मोटे (1000 दानो का भार 49 ग्राम) व चमकदान होते है। यह गेरूआ प्रतिबंधक सिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। यह किस्म दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोई जा सकती है। इसकी पैदावार 38 से 40 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
16. जे.डब्लू.-7: यह देर से तैयार (130 - 135 दिन) होने वाली किस्म है। बीज सरबती, मुलायम से हल्के कड़े (1000 बीज का भार 46 ग्राम) होते है। रोटी हेतु उत्तम , सी - 306 से अधिक प्रोटीन होता है। इसकी औसत उपज 23 - 25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।

गेहूँ की नवीन उन्नत किस्मो  के गुणधर्म

1. जे.डब्लू.-1106: यह मध्यम अवधि (115 दिन) वाली किस्म है जिसके पौधे सीधे मध्यम ऊँचाई के होते है। बीज का आकार सिंचित अवस्था में बड़ा व आकर्षक होता है। सरबती तथा अधिक प्रोटीन युक्त किस्म है जिसकी आसत उपज 40 - 50 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
2. अमृता (एच.आई. 1500): यह सरबती श्रेणी की नवीनतम सूखा निरोधक किस्म है।  इसका पौधा अर्द्ध सीधा तथा ऊँचाई 120 - 135 से. मी. होती है। दाने मध्यम गोल, सुनहरा (अम्बर) रंग एवं चमकदार होते है। इसके 1000 दानों का वजन 45 - 48 ग्राम और बाल आने का समय 85 दिन है। फसल पकने की अवधि 125 - 130 दिन तथा आदर्श परिस्थितियों में 30 - 35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
3. स्वर्णा (एच.आई.-1479): समय से बोने हेतु मध्य प्रदेश की उर्वरा भूमियो के लिए शीघ्र पकने वाली गेरूआ निरोधक किस्म है। गेहू का दाना लम्बा, बोल्ड, आकर्षक, सरबती जैसा चमकदार व स्वादिष्ट होता है। इसके 1000 दानो का वजन 45 - 48 ग्राम होता है। फसल अवधि 110 दिन हे। इस किस्म से 2 - 3 सिंचाइयों से अच्छी उपज ली जा सकती है। गेहूँ की लोक-1 किस्म के विकल्प के रूप में इसकी खेती की जा सकती है।
4. हर्षित (एचआई-1531): यह सूखा पाला अवरोधी मध्यम बोनी (75 - 90 से. मी. ऊँचाई) सरबती किस्म है। इसके दाने सुडौल, चमकदार, सरबती एवं रोटी के लिए उत्तम है जिसे सुजाता किस्म के विकल्प के रूप में उगाया जा सकता है। फसल अवधि 115 दिन है तथा 1 - 2 सिंचाई में 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज देती है।
5. मालव शक्ति (एचआई - 8498): यह कम ऊँचाई वाली (85 से.मी) बोनी कठिया (ड्यूरम) किस्म है। यह नम्बर - दिसम्बर तक बोने हेतु उपयुक्त किस्म है। इसका दाना अत्यन्त आकर्षक, बड़ा, चमकदार, प्रोटीन व विटामिन ए की मात्रा अधिक, अत्यन्त स्वादिष्ट होता है। बेकरी पदार्थ, नूडल्स, सिवैया, रवा आदि बनाने के लिए उपयुक्त है। बाजार भाव अधिक मिलता है तथा गेहूँ निर्यात के लिए उत्तम किस्म है। इसकी बोनी नवम्बर से लेकर दिसम्बर के द्वितीय सप्ताह तक की जा सकती है। इसकी फसल लोक-1 से पहले तैयार हो जाती है। इससे अच्छी उपज लेने के लिए 4 - 5 पानी आवश्यक है।
6. मालवश्री (एचआई - 8381): यह कठिया गेहूँ की श्रेणी में श्रेष्ठ किस्म है। इसके पौधे बौने (85 - 90 से.मी. ऊँचाई), बालियों के बालों का रंग काला होता है। यह किस्म 4 - 5 सिंचाई मे बेहतर उत्पादन देती है। इसके 1000 दानों का वजन 50 - 55 ग्राम एवं उपज क्षमता 50 - 60 क्विंटल  प्रति हेक्टर है।
    राज-3077 गेहूँ की ऐसी नयी किस्म है, जिसमें अन्य प्रजातियों की अपेक्षा 12 प्रतिशत अधिक प्रोटीन पाया जाता है। इसे अम्लीय एवं क्षारीय दोनों प्रकार की मिट्टियों में बोया जा सकता है।

बीजोपचार

              बुआई के लिए जो  बीज इस्तेमाल किया जाता है वह रोग मुक्त,  प्रमाणित तथा क्षेत्र विशेष के लिए अनुशंषित उन्नत किस्म का  होना चाहिए। बीज मे किसी दूसरी किस्म का बीज नहीं मिला होना चाहिए। बोने से पूर्व बीज के अंकुरण प्रतिशत का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए। यदि प्रमाणित बीज  न हो तो उसका शोधन अवश्य करे ।  खुला कण्डुआ  या कर्नाल बन्ट आदि रोगों  की रोकथाम के लिए  कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) या कार्बोक्सिन (बीटावैक्स) रसायन 2.5 ग्राम  मात्रा  प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके अलावा रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडरमा विरडी की 4 ग्राम मात्रा  1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के साथ प्रति किग्रा बीज की दर से बीज श¨धन किया जा सकता है ।

बोआई का समय

                 गेंहूँ रबी की फसल है जिसे शीतकालीन मौसम   में उगाया जाता है । भारत के विभिन्न भागो  में गेहूँ का जीवन काल भिन्न-भिन्न रहता है । सामान्य तौर  पर गेहूं की बोआई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है तथा फसल की कटाई फरवरी से मई तक की जाती है । जिन किस्मों की अवधि 135 - 140 दिन है, उनको नवम्बर के प्रथम पखवाड़े   में व जो किस्में पकने में 120 दिन का समय लेती है, उन्हे 15 - 30 नवम्बर तक बोना चाहिए। गेहूँ की शीघ्र बुवाई करने पर बालियाँ पहले  निकल आती है तथा उत्पादन कम होता है जबकि तापक्रम पर बुवाई करने पर  अंकुरण देर से होता है । प्रयोगो  से यह देखा गया है कि लगभग 15 नवम्बर के आसपास  गेहूँ बोये जाने पर अधिकतर बौनी  किस्में अधिकतम उपज देती है । अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में बोयी गई लंबी किस्मो  से भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है । असिंचित अवस्था   में बोने का उपयुक्त समय बर्षा ऋतु समाप्त होते ही मध्य अक्टूबर के लगभग है। अर्द्धसिंचित अवस्था मे जहाँ पानी सिर्फ 2 - 3 सिंचाई के लिये ही उपलब्ध हो, वहाँ बोने का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। सिंचित गेहूँ बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। बोनी में 30 नवम्बर से अधिक देरी नहीं होना चाहिए। यदि किसी कारण से बोनी विलंब   से करनी हो तब देर से बोने वाली किस्मो की बोनी दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक हो जाना चाहिये। देर से बोयी गई फसल को  पकने से पहले  ही सूखी और  गर्म हवा  का सामना करना पड़ जाता है जिससे दाने सिकुड़  जाते है तथा  उपज कम हो  जाती है ।

बीज दर एवं पौध अंतरण 

    चुनी हुई किस्म के बड़े-बड़े  साफ, स्वस्थ्य और  विकार रहित दाने, जो  किसी उत्तम फसल से प्राप्त कर सुरंक्षित स्थान पर रखे  गये हो , उत्तम बीज होते है । बीज दर भूमि मे नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है। बोने गेहूँ   की खेती के लिए बीज की मात्रा  देशी गेहूँ   से अधिक ह¨ती है । बोने गेहूँ के लिए 100-120 किग्रा. प्रति हैक्टर तथा देशी  गेहूँ के लिए 70-90 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से ब¨ते है । असिंचित गेहूँ  के लिए बीज की मात्रा 100 किलो प्रति हेक्टेर व कतारों के बीच की दूरी 22 - 23 से. मी. होनी चाहिये। समय पर बोये जाने वाले  सिंचित गेहूं  मे बीज दरं 100 - 125 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारो की दूरी 20-22.5 से. मी. रखनी चाहिए। देर वाली सिंचित गेहूं की बोआई के लिए बीज दर 125 - 150 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्तियों के मध्य 15 - 18 से. मी. का अन्तरण रखना उचित रहता है। बीज को रात भर पानी में भिंगोकर बोना लाभप्रद है। भारी चिकनी मिट्टी में नमी की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक रहने तथा ब¨आई में बहुत देर हो  जाने पर अधिक बीज ब¨ना चाहिए । मिट्टी के कम उपजाऊ होने या फसल पर रोग या कीटो  से आक्रमण की सम्भावना होने पर भी बीज अधिक मात्रा में डाले  जाते है ।
    प्रयोगों में यह देखा गया है कि पूर्व - पश्चिम व उत्तर - दक्षिण क्रास बोआई  करने पर गेहूँ की अधिक उपज प्राप्त होती है। इस विधि में कुल बीज व खाद की मात्रा, आधा - आधा करके उत्तर - दक्षिण और पूर्व - पश्चिम दिशा में बोआई की जाती है। इस प्रकार पौधे सूर्य की रोशनी  का उचित उपयोग प्रकाश संश्लेषण  मे कर लेते है, जिससे उपज अधिक मिलती है।गेहूँ मे प्रति वर्गमीटर 400 - 500 बालीयुक्त पौधे  होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है।

बीज बोने की गहराई

    बौने गेहुँ की बोआई में गहराई का विशेष महत्व होता है, क्योंकि बौनी किस्मों में प्राकुंरचोल  की लम्बाई 4 - 5 से. मी. होती है। अतः यदि इन्हे गहरा बो दिया जाता है तो अंकुरण बहुत कम होता है। गेहुँ की बौनी किस्मों क¨ 3-5 से.मी. रखते है । देशी (लम्बी) किस्मों  में प्रांकुरचोल की लम्बाई लगभग 7 सेमी. ह¨ती है । अतः इनकी बोने की गहराई 5-7 सेमी. रखनी चाहिये।

बोआई की विधियाँ

    आमतौर  पर गेहूँ की बोआई चार बिधियो  से (छिटककर, कूड़ में चोगे या सीड ड्रिल से तथा डिबलिंग) से की जाती है   । गेहूं बोआई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियाँ प्रयोग में लाई जा सकती हैः
1. छिटकवाँ विधि : इस विधि में बीज को हाथ से समान रूप से खेत में छिटक दिया जाता है और पाटा अथवा देशी हल चलाकर बीज को  मिट्टी से ढक दिया जाता है। इस विधि से गेहूँ उन स्थानो  पर बोया जाता है, जहाँ अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती है । इस विधि से बोये गये गेहूँ का अंकुरण ठीक से नही हो पाता, पौध  अव्यवस्थित ढंग से उगते है,  बीज अधिक मात्रा में लगता है और पौध  यत्र्-तत्र् उगने के कारण निराई - गुड़ाई  में असुविधा होती है परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते है ।
2. हल के पीछे कूड़ में बोआई : गेहूँ बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है । हल के पीछे कूँड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुआई की जाती है -
(अ) हल के पीछे हाथ से बोआई (केरा विधि): इसका प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहाँ बुआई अधिक रकबे में की जाती  है तथा खेत में पर्याप्त नमी  रहती हो  । इस विधि मे देशी हल के पीछे बनी कूड़ो  में जब एक व्यक्ति खाद और  बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता है तो  इस विधि को  केरा विधि कहते है । हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले  बने कूँड़ कुछ स्वंय ही ढंक जाते है । सम्पूर्ण खेत बो  जाने के बाद पाटा चलाते है, जिससे बीज भी ढंक जाता है और  खेत भी चोरस हो  जाता है ।
(ब) देशी हल के पीछे नाई बाँधकर बोआई (पोरा विधि): इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें नाई, बास या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता है। एक ही आदमी हल चलाता है तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता है। इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5 - 8 सेमी. गहरे कूड़ में बीज पड़ता है । इस विधि मे बीज समान गहराई पर पड़ते है जिससे उनका समुचित अंकुरण होता है। कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूड़ बनते है।
3. सीड ड्रिल द्वारा बोआई: यह पोरा विधि का एक सुधरा रूप है। विस्तृत क्षेत्र  में बोआई करने के लिये यह आसान तथा सस्ता ढंग है  । इसमे बोआई बैल चलित या ट्रेक्टर चलित बीज वपित्र द्वारा की जाती है। इस मशीन में पौध अन्तरण   व बीज दर का समायोजन  इच्छानुसार किया जा सकता है। इस विधि से बीज भी कम लगता है और बोआई निश्चित दूरी तथा गहराई पर सम रूप से हो पाती है जिससे अंकुरण अच्छा होता है । इस विधि से  बोने में समय कम लगता है ।
4. डिबलर द्वारा  बोआईः इस विधि में प्रत्येक बीज क¨ मिट्टी में छेदकर निर्दिष्ट स्थान पर मनचाही गहराई पर बोते है । इसमें  एक लकड़ी का फ्रेम को खेत में रखकर दबाया जाता है तो खूटियो से भूमि मे छेद हो जाते हैं जिनमें 1-2 बीज प्रति छेद की दर से डालते हैं। इस विधि से बीज की मात्रा काफी कम (25-30 किग्रा. प्रति हेक्टर) लगती है परन्तु समय व श्रम अधिक लगने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
5. फर्ब विधि : इस विधि में सिंचाई जल बचाने के उद्देश्य से ऊँची उठी हुई क्यारियाँ तथा नालियाँ बनाई जाती है । क्यारियो  की चोड़ाई इतनी रखी जाती है कि उस पर 2-3 कूड़े आसानी से ब¨ई जा सके तथा नालियाँ सिंचाई के लिए प्रय¨ग में ली जाती है । इस प्रकार लगभग आधे सिंचाई जल की बचत हो  जाती है । इस विधि में सामान्य प्रचलित विधि की तुलना में उपज अधिक प्राप्त होती है । इसमें ट्रैक्टर चालित यंत्र् से बुवाई की जाती है । यह यंत्र् क्यारियाँ बनाने, नाली बनाने तथा क्यारी पर कूंड़ो  में एक साथ बुवाई करने का कार्य करता है ।
6.शून्य कर्षण सीड ड्रिल विधि: धान की कटाई के उपरांत किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं। गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं। ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की ब¨आई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है। इसके अलावा इसमें लागत भी अधिक आती है। ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। शून्य कर्षण से किसानों का समय तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का  लाभ काफी बढ़ जाता है। इस विधि के माध्यम से खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं। इससे बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 प्रतिशत बढ़ जाती है। खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 प्रतिशत बचत होती है। इसके अलावा खरपतवार प्रक¨प भी कम होता है, जिससे खरपतवारनाशकों का खर्च भी कम हो जाता है। समय से बुआई होने से पैदावार भी अच्छी होती है। जीरो टिल सीड ड्रिल मशीन
        यह  गो .पं.कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित एक ऐसी मशीन है जिसकी मदद से  धान की फसल की कटाई के तुरन्त बाद नमीयुक्त खेत में बिना खेत की तैयारी किये सीधे गेहूँ की बुवाई की जा  सकती है । इसमें लगे कूंड बनाने वाले फरो-ओपरन के बीच की दूरी को कम या ज्यादा किया जा सकता है। यह मशीन गेहूं और धान के अलावा दलहन फसलों के लिए भी बेहद उपयोगी है। इससे दो घंटे में एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई की जा सकती है। इस मशीन को 35 हॉर्स पॉवर शक्ति के ट्रैक्टर से चलाया जा सकता है। मशीन में फाल की जगह लगे दांते मानक गहराई   तक मिट्टी को चीरते हैं। इसके साथ ही मशीन के अलग-अलग चोंगे में रखा खाद और बीज कूंड़ में गिरता जाता है।

खाद एवं उर्वरक

                फसल की प्रति इकाई पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा  पर निर्भर करती है । गेहूँ में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है । खाद एवं उर्वरक की मात्रा गेहूँ की किस्म, सिंचाई की सुविधा, बोने की विधि आदि कारकों पर निर्भर करती है। प्रयोगों से ज्ञात होता है कि लम्बे देशी गेहूँ द्वारा भूमि से लगभग 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 21 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 6 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर ग्रहण कर लिया जाता है जबकि 50 क्विंटल  उपज देने वाले बौने गेहूँ द्वारा भूमि से लगभग 150 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 70-80 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 125-150 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टर ग्रहण कर लिया जाता है। अतः अधिकतम उपज के लिए भूमि में पोषक तत्वों की पूर्ति की जाती है परन्तु उपलब्धता के आधार पर नाइट्रोजन की कम से कम आधी मात्रा गोबर खाद या काम्पोस्ट के माध्यम से देना अधिक लाभप्रद पाया गया है।
    खेत  में 10-15 टन प्रति हेक्टर की दर से सडी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट फैलाकर जुताई के समय बो आई पूर्व मिट्टी में मिला देना चाहिए । रासायनिक उर्वरको  में नाइट्रोजन, फास्फोरस , एवं पोटाश  मुख्य है । सिंचित गेहूँ में (बौनी किस्में) बोने के समय आधार मात्रा के रूप में 125 किलो नत्रजन, 50 किलो स्फुर व 40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। देशी किस्मों में 60:30:30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में उर्वरक देना चाहिए। असिंचित गेहूँ की देशी किस्मों मे आधार मात्रा के रूप में 40 किलो नत्रजन, 30 किलो स्फुर व 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर बोआई के समय हल की तली में देना चाहिये। बौनी किस्मों में 60:40:30 किलों के अनुपात में नत्रजन, स्फुर व पोटाश बोआई के समय देना लाभप्रद पाया गया है।
    परीक्षणो  से सिद्ध हो चुका है कि  सिंचित गेहूँ में नाइट्रोजन की मात्रा एक बार में न देकर दो या तीन बार  में देना अच्छा रहता है। साधारण भूमियों में आधी मात्रा बोते समय और शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई के समय देनी चाहिए। हल्की भूमियों में नाइट्रोजन को तीन बार मे (एक तिहाई बोने के समय, एक-तिहाई पहली सिंचाई पर तथा शेष एक-तिहाई दूसरी सिंचाई पर) देना चाहिए। असिंचित दशा मे  नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश युक्त उर्वरकों को बोआई के समय ही कूड़ मे बीज से 2-3 से.मी. नीचे व 3-4 से.मी. बगल में देने से इनकी अधिकतम मात्रा  फसल को  प्राप्त हो  जाती है । मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद की मात्रा में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि मिट्टी परीक्षण में जस्ते की कमी पाई गई हो तब 20-25 किलो जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बोआई के पहले मिट्टी मे अच्छी प्रकार मिला देना चाहिये।

सिंचाई

    भारत मे लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र में गेहूँ की खेती असिंचित दशा में की जाती है। परन्तु बौनी किस्मों से अधिकतम उपज के लिए सिंचाई आवश्यक है। गेहूँ की बौनी किस्मों को 30-35 हेक्टर से.मी. और देशी किस्मों  को 15-20 हेक्टर से.मी. पानी की कुल आवश्यकता होती है। उपलब्ध जल के अनुसार गेहूँ में सिंचाई क्यारियाँ बनाकर करनी चाहिये। प्रथम सिंचाई में औसतन 5 सेमी. तथा बाद की सिंचाईयों में 7.5 सेमी. पानी देना चाहिए। सिंचाईयो  की संख्या और  पानी की मात्रा  मृदा के प्रकार, वायुमण्डल का तापक्रम तथा ब¨ई गई किस्म पर निर्भर करती है । फसल अवधि की कुछ विशेष क्रान्तिक अवस्थाओं  पर बौनी किस्मों में सिंचाई करना आवश्यक होता है। सिंचाई की ये क्रान्तिक अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं -
1. पहली सिंचाई शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था  पर अर्थात बोने के 20 से 25 दिन पर सिंचाई करना चाहिये। लम्बी किस्मों में पहली सिंचाई सामान्यतः बोने के लगभग 30-35 दिन बाद की जाती है।
2. दूसरी सिंचाई दोजियां निकलने की अवस्था  अर्थात बोआई के लगभग 40-50 दिन बाद।
3.तीसरी सिंचाई सुशांत अवस्था  अर्थात ब¨आई के लगभग 60-70 दिन बाद ।
4. चौथी सिंचाई फूल आने की अवस्था  अर्थात बोआई के 80-90 दिन बाद ।
5. दूध बनने तथा शिथिल अवस्था  अर्थात बोने के 100-120 दिन बाद।
    पर्याप्त सिंचाईयां उपलब्ध ह¨ने पर बौने  गेहूं में 4-6 सिंचाई देना श्रेयस्कर होता है । यदि मिट्टी काफी हल्की या बलुई है त¨ 2-3 अतिरिक्त सिंचाईयो  की आवश्यकता हो  सकती है । सीमित मात्रा में जलापूर्ति  की स्थित  में सिंचाई का निर्धारण निम्नानुसार किया जाना चाहिए:
    यदि केवल दो सिंचाई की ही सुविधा उपलब्ध है, तो पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिन बाद (शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था ) तथा दूसरी सिंचाई फूल आने के समय बोने के 80-90 दिन बाद करनी चाहिये।यदि पानी तीन सिंचाईय¨ हेतु उपलब्ध है तो  पहली सिंचाई  शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था पर (बोआई के 20-22 दिन बाद), दूसरी तने में गाँठें बनने (बोने क 60-70 दिन बाद) व तीसरी दानो में दूध पड़ने के समय (100-120 दिन बाद) करना चाहिये।
    गेहूँ की देशी लम्बी बढ़ने वाली किस्मो  में 1-3 सिंचाईयाँ करते हैं। पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद, दूसरी सिंचाई बोने के 60-65 दिन बाद और तीसरी सिंचाई बोने के 90-95 दिन बाद करते हैं ।
असिंचित अवस्था  में मृदा नमी का प्रबन्धन
    खेत की जुताई कम से कम करनी चाहिए तथा जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए। जुताई का कार्य प्रातः व शायंकाल में करने से वाष्पीकरण  द्वारा नमी का ह्रास कम होता है। खेत की मेड़बन्दी अच्छी प्रकार से कर लेनी चाहिए, जिससे वर्षा के पानी को खेत में ही संरक्षित किया ता सके। बुआई पंक्तियों में 5 सेमी. गहराई पर करना चाहिए। खाद व उर्वरकों की पूरी मात्रा, बोने के पहले कूड़ों में 10-12 सेमी. गहराई में दें। खरपतवारों पर समयानुसार नियंत्रण करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

    गेहूँ के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी खेत में उगकर पोषक तत्वों, प्रकाश, नमी आदि के लिए फसल के साथ प्रतिस्पर्धा  करते है। यदि इन पर नियंत्रण नही किया गया तो गेहूँ की उपज मे 10-40 प्रतिशत तक हानि संभावित है। बोआई से 30-40 दिन तक का समय खरपतवार प्रतिस्पर्धा के लिए अधिक क्रांतिक  रहता है। गेहूँ के खेत में चैड़ी पत्ती वाले और घास कुल के खरपतावारों का प्रकोप होता है।
1. चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार: कृष्णनील, बथुआ, हिरनखुरी, सैंजी, चटरी-मटरी, जंगली गाजर आदि के नियंत्रण हेतु 2,4-डी इथाइल ईस्टर 36 प्रतिशत (ब्लाडेक्स सी, वीडान) की 1.4 किग्रा. मात्रा  अथवा 2,4-डी लवण 80 प्रतिशत (फारनेक्सान, टाफाइसाड) की 0.625 किग्रा.  मात्रा को  700-800 लीटर पानी मे घोलकर एक हेक्टर में बोनी के 25-30 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।
2. सँकरी पत्ती वाले खरपतवार: गेहूँ में जंगली जई व गेहूँसा   का प्रकोप अधिक देखा जा रहा है। यदि इनका प्रकोप अधिक हो तब उस खेत में गेहूँ न बोकर बरसीम या रिजका  की फसल लेना लाभदायक है। इनके नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथेलिन 30 ईसी (स्टाम्प) 800-1000 ग्रा. प्रति हेक्टर अथवा आइसोप्रोटयूरॉन 50 डब्लू.पी. 1.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को  बोआई के 2-3 दिन बाद 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. छिड़काव करें। खड़ी फसल में बोआई के 30-35 दिन बाद मेटाक्सुरान की 1.5 किग्रा. मात्रा को 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़कना चाहिए। मिश्रित खरपतवार की समस्या होेने पर आइसोप्रोट्यूरान 800 ग्रा. और 2,4-डी 0.4 किग्रा. प्रति हे. को मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। गेहूँ व सरस¨ं की मिश्रित खेती में खरपतवार नियंत्र्ण हेतु पेन्डीमिथालिन सर्वाधिक उपयुक्त तृणनाशक है ।

कटाई-गहाई

    जब गेहूँ के दाने पक कर सख्त हो जाय और उनमें नमी का अंश 20-25 प्रतिशत तक आ जाये, फसल की कटाई करनी चाहिये। कटाई हँसिये से की जाती है। बोनी किस्म के गेहूँ को पकने के बाद खेत में नहीं छोड़ना चाहिये, कटाई में देरी करने से, दाने झड़ने लगते है और पक्षियों  द्वारा नुकसान होने की संभावना रहती है। कटाई के पश्चात् फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखाकर मड़ाई  शक्ति चालित थ्रेशर से की जाती है। कम्बाइन हारवेस्टर का प्रयोग करने से कटाई, मड़ाई तथा ओसाई  एक साथ हो जाती है परन्तु कम्बाइन हारवेस्टर से कटाई करने के लिए, दानो  में 20 प्रतिशत से अधिक नमी नही होनी चाहिए, क्योकि दानो  में ज्यादा नमी रहने पर मड़ाई या गहाई ठीक से नहीं ह¨गी ।

उपज एवं भंडारण

    उन्नत सस्य तकनीक से खेती करने पर सिंचित अवस्था में गेहूँ की बौनी  किस्मो से लगभग 50-60 क्विंटल  दाना के अलावा 80-90 क्विंटल  भूसा/हेक्टेयर प्राप्त होता है। जबकि देशी लम्बी किस्मों से इसकी लगभग आधी उपज प्राप्त होती है। देशी  किस्मो से असिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल  प्रति/हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। सुरक्षित भंडारण हेतु दानों में 10-12% से अधिक नमी नहीं होना चाहिए। भंडारण के पूर्ण क¨ठियों तथा कमरो को साफ कर लें और दीवालों व फर्श पर मैलाथियान 50% के घोल  को 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़कें। अनाज को बुखारी, कोठिलों  या कमरे में रखने के बाद एल्युमिनियम फास्फाइड 3 ग्राम की दो गोली प्रति टन की दर से रखकर बंद कर देना चाहिए।

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

ओद्योगिक फसल ज्वार की वैज्ञानिक खेती

                                            

                                                                        डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                                                                           प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                  इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

अन्न,चारा और जैव उर्जा के लिए ज्वार की खेती  

               ज्वार (सोरघम बाईकलर)  ग्रेमिनी कुल की महत्वपूर्ण फसल है, जिसे अंग्रेजी में सोरघम, तेलगु में जोन्ना, मराठी में ज्वारी तथा कन्नड़ में जोल कहा जाता है। पारंपरिक रूप से खाद्य तथा चारा की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इसकी खेती की जाती है, लेकिन अब यह संभावित जैव-ऊर्जा फसल के रूप में भी उभर रही है । खाद्यान्न फसलों में क्षेत्रफल की दृष्टि से ज्वार का  भारत में तृतीय स्थान है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में ज्वार सबसे लोकप्रिय फसल हैं। ज्वार की खेती उत्तरी भारत में खरीफ के मौसम में और दक्षिणी भारत में खरीफ एंव रबी दोनों मौसमों में की जाती है। ज्वार की खेती अनाज व चारे के लिये की जाती है। ज्वार के दाने में क्रमशः 10.4, 1.9, 1.6 व 72 प्रतिशत प्रोटीन, वसा, खनिज पदार्थ एंव कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। ज्वार की प्रोटीन में लाइसीन अमीनो अम्ल की मात्रा 1.4 से 2.4 प्रतिशत तक पाई जाती है जो पौष्टिकता की दृष्टि से काफी कम है। इसके दाने में ल्यूसीन अमीनो अम्ल की अधिकता होने के कारण ज्वार खाने वाले लोगों में पैलाग्रा नामक रोग का प्रकोप हो सकता है। ज्वार की विश्¨ष किस्म से स्टार्च तैयार किया जाता है । इसके दानो  से शराब भी तैयार की जाती है । अलकोहल उपलब्ध कराने का भी एक उत्कृष्ट साधन है । हरे चारे के अतिरिक्त ज्वार से साइल्¨ज भी तैयार किया जाता है जिसे पशु बहुत ही चाव से खाते है । ज्वार के पौधों की छोटी  अवस्था में हाइड्रोसायनिक अम्ल नामक जहरीला पदार्थ उत्पन्न होता है। अतः प्रारंभिक अवस्था में इसका चारा पशुओं को नहीं खिलाना चाहिए। ज्वार की फसल कम वर्षा में भी अच्छी उपज दे सकती है। तथा कुछ समय के लिये पानी भरा रहने पर भी सहन कर लेती है।
 भारत में  ज्वार की खेती-वर्तमान परिद्रश्य
 खाद्य, चारा और अब जैव-उर्जा के रूप में इसके बहु-उपयोग के बावजूद, हमारे देश में ज्वार का रकबा 1 9 7 0 में जहाँ 1 8 .6 1 मिलियन हेक्टेयर हुआ करता था, वर्ष 2 0 0 8 की स्थिति में घट कर 7.76 मिलियन हे.रह जाना चिंता का विषय में है. सिचाई सुबिधाओ में विस्तार तथा बाजार मूल्य में गिरावट की वजह से अन्य फसलों जैसे धान, गन्ना, कपास,सोयाबीन,मक्का आदि फसले अधिक आकर्षक और  लाभकारी होने के कारण  ज्वार इन फसलों से प्रतिस्पर्धा में नीचे रह गया। दूसरी तरफ वैज्ञानिक शोध और विकास की वजह से ज्वार की औषत उपज 5 2 2 किलोग्राम से बढकर 9 8 1 होना, इस फसल के उज्जवल भविष्य का सूचक है। भारत में लगभग सभी राज्यों में ज्वार की खेती की जाती है। परन्तु कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती ज्यादा प्रचलित है। भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश , राजस्थान तथा गुजरात ज्वार पैदा करने वाले प्रमुख प्रदेश है। महाराष्ट्र ज्वार के उत्पादन में लगभग 51.68 प्रतिशत भागीदार है। भारत में वर्ष 2007-08 के आकड़ों के अनुसार ज्वार का कुल क्षेत्रफल 7.76 मिलियन हे. जिससे 10.21 क्विंटल  प्रति हे. की दर से 7.93 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया । मध्य प्रदेश में ज्वार की खेती लगभग 0.53 मिलियन हे. में प्रचलित है जिससे 0.47 मिलियन  टन उत्पादन होता है तथा 14.20  क्विंटल  प्रति हे. औसत उपज आती है। छत्तीसगढ़  में ज्वार की खेती सीमित क्षेत्र (7.86 हजार हे.) में होती है  जिससे 1099 किग्रा. प्रति. हे. की दर से 8.64 हजार टन उत्पादन लिया जाता है । राष्ट्रीय औसत उपज से छत्तीसगढ़ में ज्वार की औसत उपज अधिक होना इस बात का प्रमाण हे की प्रदेश की भूमि और जलवायु इसकी खेती के लिए अनुकूल है। जैव-ईधन के रूप में 
राज्य सरकार  रतनजोत (जेट्रोफा) की खेती को बढावा दे रही है जिसके उत्साहवर्धक परिणाम अभी तक देखने को नहीं मिल रहे है। इस परियोजना पर सरकार  भारीभरकम धन राशी व्यय क्र चुकी है और नतीजा सिफर 
रहा है. रतनजोत की जगह यदि जुआर की खेती को बढावा दिया जाए तो न केवल दाना-चारा का उत्पादन बढेगा वल्कि जैव-उर्जा (बायोडीजल ) उत्पादन के लिए भी बेहतर विकल्प साबित हो सकती है।

उपयुक्त जलवायु

    ज्वार उष्ण (गरम) जलवायु की फसल है। इसकी खेती समुद्र तल से लगभग 1000 मी. की ऊँचाई तक की जा सकती है। शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों को ठंडे प्रदेशों में गर्मी की ऋतु में उगाया जा सकता है। उत्तरी भारत में ज्वार की मुख्य फसल खरीफ में ली जाती है जबकि दक्षिणी भारत में यह रबी में उगाई जाती है ।बीज अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 7-10 डि. से. होना चाहिए। पौधों की बढ़वार के लिए 26-30 डि.से. तापक्रम अनुकूल माना गया है। इसकी खेती के लिए 60-100 सेमी. वार्षिक वर्षा उपयुक्त ह¨ती है। ज्वार की फसल में सूखा सहन करने की अधिक क्षमता होती है क्योंकि इसकी जड़े भूमिमें अधिक गहराई तक जाकर जल अवशोषित कर लेती है । इसके अलावा प्रारंभिक अवस्था में ज्वार के पौधों में जड़ों का विकास तने की अपेक्षा अधिक होता है।जिससे पत्तियों की सतह से जल का कुल वाष्पन भी कम होता है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में परागण के समय वर्षा अधिक होने से परागकण बह जाने की सम्भावना रहती है जिससे इन क्षेत्रों में ज्वार की पैदावार कम आती है। यह एक अल्प प्रकाशपेक्षी पौधा है। ज्वार की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं जबकि दिन अपेक्षाकृत छोटे होते है।

भूमि का चयन 

    ज्वार की फसल सभी प्रकार की मृदाओं यथा भारी और  हल्की मिट्टियां, जलोढ, लाल या पीली दुमट और  यहां तक कि रेतीली मिट्टियो में भी उगाई जाती है, परन्तु इसके  लिए उचित जल निकास वाली  भारी मिट्टियां (मटियार दोमट) सर्वोत्तम होती है। इसीलिए पश्चिमी, मध्य और  दक्षिण भारत की काली मिट्टियो  में इसकी खेती बहुत अच्छी होती है ।असिंचित अवस्था में अधिक जल धारण क्षमता वाली मृदाओं में ज्वार की पैदावार अधिक होती है। मध्य प्रदेश में भारी भूमि से लेकर पथरीले भूमि पर इसकी खेती की जाती हैं। छत्तीसगढ़ की भाटा-भर्री भूमिओ में इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।  ज्वार की फसल 6.0 से 8.5  पी. एच. वाली मृदाओं में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।

खेत की तैयारी

    पिछली फसल के  कट जाने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में 15-20 सेमी. गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 2-3 बार हैरो या 4-5 बार देशी हल चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर लेना चाहिए। बोआई से पूर्व पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। मालवा व निमाड़ में ट्रैक्टर से चलने वाले कल्टीवेटर व बखर से जुताई करके जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाते है। ग्वालियर संभाग में देशी हल या ट्रेक्टर से चलने वाले कल्टीवेटर से जमीन को भुरभुरी बनाकर पाटा से खेत समतल कर बोआई करते हैं।

किस्मों का चुनाव

    ज्वार से अच्छी  उपज के लिए  उन्नतशील  किस्मों का  शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। किस्म का चयन बोआई का समय और क्षेत्र  अनुकूलता के आधार पर करना चाहिए। बीज प्रमाणित संस्थाओं का ही बोये या उन्नत जातियों का स्वयं का बनाया हुआ बीज प्रयोग करें। ज्वार में दो प्रकार की किस्मों के बीज उपलब्ध हैं-संकर एंव उन्नत किस्में। संकर किस्म की बोआई के  लिए प्रतिवर्ष नया प्रमाणित बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। उन्नत जातियों का बीज प्रतिवर्ष बदलना नही पड़ता। 

ज्वार की प्रमुख संकर किस्मों की विशेषताएँ    

1. सी. एस. एच.-5: यह किस्म 105-110 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 33-35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा 90-95 क्विंटल  कडवी का उत्पादन होता है। इसके पौधे 175 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। इसका भुट्टा लम्बा तथा अर्धबंधा होता हैं, दानों का आकार छोटा होता है। यह जाति सम्पूर्ण मध्य प्रदेश के लिये उपयुक्त है।
2. सी. एस. एच -6: यह किस्म 100-105 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 32-34 क्विंटल  तथा कड़वी 80-82 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त किया जा सकता है। इसके पौधे 160-170 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। दानों का आकार छोटा होता है। मिश्रित फसल पद्धति के लिये सबसे उपयुक्त किस्म है। यह सूखा अवरोधी किस्म है।
3. सी. एस. एच -9: यह किस्म 105-110 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। दानों का उत्पादन 36-40 क्विंटल  तथा कड़वी 95-100 क्विंटल  प्रति हे. तक प्राप्त होती है। इसके पौधे 182 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। इसका दाना आकार में थोड़ा बड़ा मोतिया रंग का चमकदार होता है। यह सूखा अवरोधी किस्म है।
4. सी. एस. एच -14: यह किस्म 95-100 दिनों की अवधि में पक कर तैयार हो जाती हैं। इसके दानों का उत्पादन 36 से 40  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर व कड़वी का 85-90  क्विंटल  उत्पादन होता है। इसके पौधे 181 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। यह किस्म कम गहरी भूमि के लिये उपयुक्त है।
5. सी. एस. एच -18: इस किस्म के पकने की अवधि 110 दिन हैं तथा दोनों का उत्पादन 34 हसे 44  क्विंटल/  हेक्टेयर तथा कड़वी का उत्पादन 120 से 130  क्विंटल  है।

ज्वार की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ

1. जवाहर ज्वार 741: यह किस्म 110-115 दिनों की अवधि मेें पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 30 से 32 क्विंटल ./हेक्टेयर हैं तथा कड़वी का 110 से 120 क्विंटल ./हे. है। यह हल्की कम गहरी भूमि तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं।
2. जवाहर ज्वार 938: यह किस्म 115-120 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती हैं। इसके दानों का उत्पादन 33-35 क्विंटल /हे. हैं तथा कड़वी का उत्पादन 120-130  क्विंटल  हे. है। छत्तीसगढ़ व म. प्र. हेतु उपयुक्त है।
3. जवाहर ज्वार 1041: यह किस्म 110-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दाने का उत्पादन 33-36 क्विंटल /हे. है तथा कड़वी का उत्पादन 125-135 क्विंटल /हे. तक होता है। यह छत्तीसगढ़ तथा म. प्र. के लिये अनुमोदित है।
4. एस. पी. बी. 1022: यह शीघ्र पकने वाली किस्म है। जो 100 से 105 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 30-32 क्विंटल ./हेक्टेयर है। यह किस्म झाबुआ तथा निमाड़ क्षेत्रों के लिये अधिक उपयुक्त है।
5. सी. एस. व्ही. 1 (स्वर्ण): यह किस्म 100-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 35-40 क्विंटल . है। कड़वी का उत्पादन 115-125 क्विंटल ./हेक्टेयर तक होता है। इसके पौधे 160-170 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। यह समस्त भारत के लिए उपयुक्त है।
6. सी .एस. व्ही. 15: यह किस्म 110-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 34-38 क्ंिव. है। कड़वी का उत्पादन 115-125 क्विंटल ./हे. तक होता है। इसके पौधे 220-235 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं।
7. एस . ए. आर-1: यह किस्म 115-120 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 27-30 क्विंटल ./हेक्टेयर तथा कड़वी का 95-100 हो जाता है। यह जाति अगिया निरोधक है।
देशी ज्वार (विदिशा 60-1): इस किस्म की उपज क्षमता 20-25  क्विंटल  प्रति हेक्टर है ।
सीएसएच-4,5,6 व 9 रबी मौसम के लिए भी उपयुक्त है।

मीठी ज्वार

            सभी धान्य फसलों में ज्वार की फसल शुष्क पदार्थ उत्पादन में सब से अधिक दक्ष फसल के रूप में जानी जाती है। तने में शर्करा जमा करने की क्षमता के साथ 70-80 प्रतिशत जैव पदार्थ उत्पादन तथा समुचित मात्रा में दाना उत्पादन क्षमता के कारण मीठी ज्वार एक विशिष्ट स्थान रखती है। सी-4 पौधा होने के कारण मीठी ज्वार औसतन 50 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रतिदिन शुष्क पदार्थ उत्पादन कर सकती है। इसके अतिरिक्त मीठी ज्वार में विस्तृत ग्राह्यता, सूखे एवं अधिक पानी तथा अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी के प्रति रोधकता पायी जाती है। उपरोक्त खेती योग्य एवं जैव रसायन गुणों के कारण मीठी ज्वार जैव ईंधन के रूप में प्रयोग की जा सकने वाले एक मुख्य एवं आकर्षक स्रोत के रूप में प्रयोग की जा सकती है। ईन्धन के रूप में प्रयुक्त हो सकने योग्य अल्कोहल उत्पादन के अतिरिक्त मीठी ज्वार का प्रयोग गुड़ एवं सीरप उत्पादन में भी किया जा सकता है। मीठी ज्वार में अधिक प्रकाश संश्लेषण क्षमता के कारण इससे 35 से 40 टन हरा तना तथा 1.5-2.5 टन दाना प्राप्त किया जा सकता है। मीठी ज्वार में लगभग 15-17 प्रतिशत किण्वीकरण योग्य शर्करा पायी जाती है। इसके साथ ही, देश में ऐसी गन्ना चीनी मीलें जिनमें पूरे वर्ष मात्र छः माह ही मशीनरी का भली प्रकार प्रयोग हो पाता है, मीठी ज्वार के प्रयोग से उन छः माह भी चलाई जा सकती हैं जब गन्ने की उपलब्धता नहीं होती है। इस प्रकार रोजगार के नये अवसर उपलब्ध हो सकते है। वर्तमान में मीठी ज्वार को भारत में इथेनॉल उत्पादन के लिए अधिक योग्य बनाने हेतु अनुसंधान एवं विकास के स्तर पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है।
मीठे ज्वार की किस्में: एसएसव्ही-53,96,84 है। जैव इधन (इथेनाल उत्पादन) के लिए सर्वोतम किस्म है.

बीजोपचार

    बोआई से पूर्व बीज को कवकनाशी रसायनो  से उपचारित करके ही बोना चाहिये जिससे बीज जनित रोगों से बचाव किया जा सके। संकर ज्वार का बीज पहले से ही उपचारित होता है, अतएव उसे फिर से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं पडती। अन्य किस्मो के  बीज को  बोने से पूर्व  थायरम  2.5-3 ग्राम  प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। दीमक के प्रकोप से बचने के लिए क्लोरपायरीफास 25 मिली. दवा प्रति किलो बीज  की दर से शोधित करना चाहिए।

बोआई का समय

    मक्का की भाति ज्वार की खेती शीत ऋतु को छोड़कर वर्ष  की जा सकती है। खरीफ में  बुआई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय उपयुक्त रहता है। समय पर बोनी करने से, तना छेदक मक्खी का प्रकोप कम होता है। जून के  अन्तिम सप्ताह से पूर्व बोआई करना उचित नहीं रहता है, क्योकि इस फसल में फूल आते समय अधिक वर्षा  होने  की संभावना रहती है जिसके  फलस्वरूप फूलो  से पराग कणो  के  बह जाने का भय रहता है और  ज्वार के  भुट्टो  में पूर्ण रूप से  दाने नहीं भरते । महाराष्ट्र, कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश में ज्वार की खेती रबी(अक्टूबर-नवम्बर) में भी की जाती है।छत्तीसगढ़ में भी सिंचित क्षेत्रो में ज्वार की 2 -3  फासले आसानी से ली जा सकती है।

बीज एंव बोआई

    सही पौध संख्या अच्छी उपज लेने के लिए आवश्यक है। देशी जातियों की पौध संख्या 90,000 प्रतिहेक्टेयर रखते हैं। ज्वार की उन्नत तथा संकर जातियों के लिए 150,000 प्रति हेक्टेयर पौध संख्या की अनुशंसा की जाती है। इसके लिये 45 सेमी, कतारों की दूरी तथा पौधों से पौधों की दूरी 12-15 सेमी. रखना चाहिये। स्वस्थ एवं अच्छी अंकुरण क्षमता वाला 10-12 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर बोना पर्याप्त होता है। संकर किस्मो में कब बीज (7 -8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) लगता है। ज्वार की बोआई हमेशा पंक्तियों में ही करना चाहिए। पंक्ति में बोआई देशी हल के पीछे कूडों में या नाई द्वारा या फिर सीड ड्रिल से की जा सकती है। बीज 3-4 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए। यह देखा गया है कि ज्यादा गहराई पर बोये गये बीज के बाद तथा अंकुरण से पूर्व वर्षा होने से भूमि की ऊपरी परत सूखने पर कड़ी हो जाती है जिससे बीज जमाव अच्छा नहीं होता है। भूमि में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में उथली बोआई सर्वोत्तम पाई गई है।
    सामान्य तौर पर ज्वार के बीज का अंकुरण 5-6 दिन में हो जाता है। ज्वार में विरलीकरण (घनी  पौधो को निकालना) एक महत्वपूर्ण कार्य है। पौधे-से -पौधे की दूरी 12-15 सेमी. निश्चित करने के लिए विरलीकरण द्वारा फालतू पौधों को निकालते हैं। अंकुरण के बाद 15-20 दिनों में पौध विरलन कार्य करना चाहिए। यदि हल्की वर्षा हो रही हो तो इसी समय रिक्त स्थानों में (जहाँ पौधे न हो) पौध रोपण का कार्य करना चाहिए,जिससे प्रति इकाई इष्टम पौध संख्या स्थापित हो सके।

खाद एंव उर्वरक

                  ज्वार की फसल भूमि से भारी मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण करती है। अतः इसकी खेती से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का बहुत ह्रास ह¨ता है । इसकी जडे मिट्टी की ऊपरी सतह से ही अधिक पोषक  तत्व ग्रहण करती है जिससे इस सतह में पोषक  तत्व कम हो  जाते है । इसके  अलावा सेल्युलोज के  जीवाणुओ  द्वारा मिट्टी की नक्षजन को  अनुपयोगी तथा निरर्थक बना दिये जाने के  कारण भी मिट्टी कुछ समय के  लिए शक्तिहीन जैसी ह¨ जाती है । सामान्यतौर  पर यह प्रभाव 1-2 वर्ष  में समाप्त हो  जाता है, परन्तु इसका असर ज्वार के  बाद बोयी जाने वाली फसल पर व्यापक रूप से पडता है ।
                          ज्वार की अच्छी उपज के लिए फसल  में खाद एंव उर्वरक का प्रयोग उचित मात्रा में करना आवश्यक रहता है। ज्वार की जो फसल 55-60 क्विंटल ./हेक्टेयर दानों को तथा 100-125 क्विंटल . कड़बी की उपज देती है। वह भूमि से 130-150 किलो नत्रजन, 50-55 स्फुर तथा 100-130 किलो पोटाश की मात्रा ग्रहण कर लेती है। पोषक तत्वों की सही मात्रा के निर्धारण के लिए मिट्टि की जांच कराना आवश्यक है। ज्वार की अच्छी उपज के लिए सिंचित दशा में संकर एंव अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए 100-120 किलो नत्रजन 40-50 किलो स्फुर तथा 20-30 किलो पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। असिंचित दशा में संकर किस्मों के लिए 50-60 किलो नत्रजन 30-40 किलो स्फुर तथा 30-40 किलो पोटाश देना चाहिए। सिंचित दशा में किस्मों के लिए 50: 40: 30 किग्रा. स्फुर तथा 30-40 किलो ग्राम क्रमशः नत्रजन, स्फुर व पोटाश प्रति हे. प्रयोग करना चाहिए। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के समय बीज के नीचे कूड़ में डालना चाहिए। जब फसल 30-35 दिन की हो जाए तो नत्रजन की शेष मात्रा दें। असिंचित दशा में पूरा नत्रजन स्फुर व पोटाश बोआई के समय कूडों में गहराई पर डालना अच्छा रहता है। जिंक की कमी वाले स्थानों पर 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का प्रयोग पैदावार बढ़ाता है। गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद उपलब्ध होने पर 5-7 टन प्रति हेक्टेयर अंतिम जुताई के समय देना लाभदायक होता है। असिंचित ज्वार में नत्रजन की कुछ मात्रा पत्तियों पर छिड़काव करके भी दी जा सकती है। ज्वार की फसल में पत्तियों पर 3 प्रतिशत यूरिया का घोल 1000 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर उस समय छिड़कें, जब पौधे 5-6 सप्ताह की हो जाएँ। एक छिड़काव से लगभग 13.5 किग्रा. नत्रजन फसल को मिल जाती है।

सिंचाई एंव जल निकास

                  ज्वार की खेती असिंचित क्षेत्रों में की जाती है परन्तु इसकी उन्नत किस्मों से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए  सिंचाई की उपयुक्त सुविधा होना आवश्यक रहता है। बोआई के समय पर्याप्त नमी होने से बीज अंकुरण अच्छा होता है। मानसून में देरी होने से पलेवा देकर बोआई करना श्रेयस्कर रहता है।  अवर्षा की स्थिति में ज्वार में घुटने तक की अवस्था, फसल में बालियाँ निकलते तथा  दाना भरते समय अर्थात् बोआई से क्रमश: 30, 55 और 75 दिन बाद तदनुसार सिंचाई करना लाभकारी पाया गया है। सिंचाई सदैव 50 प्रतिशत उपलब्ध मृदा नमी पर करना चाहिए। ज्वार की फसल को उत्तम जल निकास की आवश्यकता पड़ती है। खेत में जलभराव से फसल को नुकसान होता है। अतः आवश्यकतानुसार बोआई से पूर्व खेत को अच्छी तरह समतल कर इकाई अधिकतम उपज लेने के लिए ज्वार के साथ सोयाबीन, अरहर, लोबिया, या मूँगफली की अंतरवर्तीय फसलें लेना लाभकारी रहता है। ज्वार की दो कतारें 30 सेमी. की दूरी पर बोने से ज्वार की पूरी उपज व सोयाबीन की 6 से 7 क्विंटल  अतिरिक्त उपज प्राप्त होती है। इस प्रकार मूँगफली व अरहर की फसलें लेने से भी अकेले ज्वार की खेती से अधिक लाभ होता है। ज्वार के साथ लोबिया चारे बोने से ज्वार की तुलना में अधिक उपज मिलती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। सोयाबीन, अरहर, मूँगफली से साथ ज्वार के फसल चक्र से ज्वार की उपज तथा भूमि की उर्वरा शक्ति अच्छी होती है। ज्वार के बाद रबी में गेहूँ, सरसों, चना, मटर आदि फसलों को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

खरपतवार नियंत्रण

    ज्वार के खेत में वे सभी खरपतवार पाये जाते हैं जो कि खरीफ के मौसम में उगते हैं जैसे मौथा, बनचरी, दूब, मकरा, कोदो, बदरा-बन्दरी, दूब आदि। फसल की प्रारंभिक अवस्था में इनका प्रकोप अधिक रहता है। इनकी रोकथाम हेतु प्रथम फसल की 15-20 दिन की अवस्था में कुल्पा या डोरा चलाएँ तथा आवश्यकतानुसार निंदाई करे तथा दूसरी बार 30 से 35 दिन बाद पुनः कुल्पा चलाएँ तथा निंदाई करें। यदि संभव हो तो कुल्पे के दांते में रस्सी बाँधकर पौधों पर मिट्टि चढ़ाएँ। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु एट्राजीन 0.5 से 1 किलो प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करें। छिड़काव करते समय मिट्टि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। खेत में चोड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का अधिक प्रकोप होने पर, 2,4-डी (सोडियम लवण) की 1.0-0.5 किग्रा. प्रति हे. मात्रा को 600-800 ली. पानी में घोलकर बोने के 25-30 दिन बाद छिड़काव चाहिए।

फसल की कटाई और गहाई

    ज्वार की फसल आमतौर से अक्टूबर-नवम्बर में पक कर तैयार हो जाती है। संकर किस्म के तने और पत्तियां भट्टे पक जाने के बाद भी हरे रह जाते हैं। अतः फसल की कटाई के लिए उसके सूखने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। ज्वार की देशी किस्में 80-85 दिन व संकर किस्में 120-125 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पकने पर भट्टे हरे, सफेद या पीले रंग में बदल जाते हैं।दाना कठोर हो जाता है और उसका रंग हरे से बदलकर सफेद या हल्का पीला हो जाता है। जब दानो में नमी का अंश घटकर 25 प्रतिशत कम हो जाए,तो भुट्टों की कटाई की जा सकती है। हर किस्म के भुट्टे के पकने का समय अलग-अलग होता है। ज्वार के पौधांे की कटाई ढेर लगा लेते हैं।बाद में पौधे से भुट्टे को अलग करके सुरवा (15 प्रतिशत नमी स्तर) लेते हैं। भुट्टों की गहाई बैलों की दायॅ चलाकर मडा़ई यंत्र या थ्रेसर द्वारा की जा सकती है। गहाई के तुरंत बाद पंखे की सहायता से ओसाई कर लेनी चाहिए। शक्ति चालित यंत्रों (थ्रेशर) द्वारा गहाई व ओसाई का कार्य एक साथ हो जाता है। कड़वी को सूखाकर अलग ढेर लगा देते हैं। यह बाद में जानवरों को खिलाने के काम आती है। दानों को सुखाकर भंडारण करना चाहिये।

ज्वार की पेड़ी फसल

    ज्वार की फसल की पेड़ी रखने के लिए फसल की कटाई भूमि की सतह से लगभग 8-10सेमी.ऊपर से की जानी चाहिए। तत्पश्चात् दूसरे दिन सिंचाई करनी चाहिए। पेड़ी वाली फसल में पंक्तियों के बीच 30-40 किग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। पौधों में फूल आते समय व दाना भरते समय एक या दो सिंचाई करना चाहिए। पेड़ी फसल लगभग 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है।

उपज एंव भण्डारण

    उन्नत विधि से संकर ज्चार की खेती करने पर औसतन 40-50 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर दाने व 100-125  क्विंटल  सूखी  कड़वी की उपज प्राप्त होती है। वर्षा निर्भर करती है। सामान्यतौर पर इन क्षेत्रों से लगभग 25-30 क्विंटल दाने प्रति हेक्टेयर सूखी कड़वी प्राप्त होती है। ज्वार की देशी किस्मों की उपज 12-20  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। दानों को भंडारित करने के पहलें उन्हें अच्छी तरह धूप में सुखा लेना आवश्यक है। भंडारित किये जाने वाले दानों में नमी का अंश  13 प्रतिशत अधिक नहीं होना चाहिए। ज्वार के 1000 दानों का औसत भार 30-35 ग्राम होता है। ज्वार की मोमी किस्मों से स्टार्च निकाला जाता है।

कटाई उपरान्त तकनीक  


                    ज्वार में पोषक तत्व गेहूं और चावल से कहीं ज्यादा होते हैं। ज्वार की वैश्विक पैदावार सभी अनाजों के उत्पादन में 4.7 फीसदी रहती है। एशिया और अफ्रीका में करोड़ों लोगों के लिए ऊर्जा और प्रोटीन के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण फसल है। तमाम गुण होने के बावजूद ज्वार का आटा बनाकर खाने में इस्तेमाल करना थोड़ा कठिन है क्योंकि आटा बनाने के लिए सबसे पहले इसका छिल्का हटाना होता है। इसके बाद ब्रान (दाने के ऊपर एक सफेद पदार्थ की परत) हटानी पड़ती है। यह प्रक्रिया कठिन है।
            अबोहर स्थित केंद्रीय कटाई पूर्व अभियांत्रिकीय एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (सीफेट) ने ज्वार मिल विकसित की है। इस मिल की सहायता से छिल्का और ब्रान को आसानी से अलग कर सकते है। इस मशीन से छिल्का आसानी से हटाया जा सकता है। इसके बाद सामान्य चक्की से आटा पीसा जा सकते हैं। किसान व कारोबारी इस मशीन से ज्वार का दाना साफ कर सकते हैं। इसमें खर्च कम आएगा। इसके बाद पिसाए गए आटा की लागत कम हो जाएगी। पारंपरिक तरीके से ज्वार का आटा बनाने के लिए छिल्का उतारने पर काफी खर्च आता है। इससे ज्वार के आटा की लागत बढ़ जाती है। सीफेट द्वारा विकसित इस मिल की क्षमता 100 किग्रा प्रति घंटा है। इसके लिए 7.5 एचपी पावर की आवश्यकता होती है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।



रविवार, 14 अप्रैल 2013

मूँगफली का आर्थिक महत्त्व एवं वैज्ञानिक खेती

                                      

                                                                        डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                                                                           प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                  इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

बहुपयोगी व्यापारिक फसल-मूँगफली 

                 भारत की तिलहन फसलो  में मूँगफली का मुख्य स्थान है । इसे तिलहन फसलों का राजा तथा गरीबों के बादाम की संज्ञा दी गई है। इसके दाने में लगभग 45-55 प्रतिशत तेल(वसा) पाया जाता है जिसका उपयोग खाद्य पदार्थो के रूप में किया जाता है। इसके तेल में लगभग 82 प्रतिशत तरल, चिकनाई वाले ओलिक तथा लिनोलिइक अम्ल पाये जाते हैं। तेल का उपयोग मुख्य रूप से वानस्पतिक घी व साबुन बनाने में किया जाता है। इसके अलावा मूँगफली के तेल का उपयोग श्रंगार प्रसाधनों, शेविंग क्रीम आदि के निर्माण में किया जाता है।
    मूँगफली के दाने बहुत ही पौष्टिक होते हैं जिसमें कुछ खनिज पदार्थ, फास्फोरस, कैल्सियम व लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। मूँगफली वानस्पतिक प्रोटीन का एक अच्छा एंव सस्ता स्त्रोत है। इनमें 28-30 प्रतिशत प्रोटीन पायी जाती है।मूंगफली में मांस से 1.3 गुना, अंडे  से 2.5 गुना तथा फलो  से 8 गुना अधिक प्रोटीन   पाया  जाता है । उच्च कोटि की प्रोटीन विद्यमान होने के कारण यह शीघ्र पचने योग्य होती है । इसमें कुछ विटामिन भी प्रचुर मात्रा  में पाये जाते है । मूंगफली में थियामिन, राइबोफ्लोविन और निकोटिनिक अम्ल पर्याप्त मात्रा  में उपस्थिति रहते है साथ ही विटामिन ई भी प्रचुरता में होता है । फॉस्फ़ोरस, कैल्सियम तथा लोहा जैसे खनिज पदार्थ भी मूंगफली में पाए जाते है । मूँगफली के 100 ग्राम दानो  से 349 कैलोरी उर्जा  प्राप्त होती है । इसके दानों को कच्चा, भूनकर अथवा तलकर खाया जाता है अथवा मीठे या नमकीन व्यंजन बनाकर उपयोग में लाया जाता है। मूँगफली से उत्तम गुणों वाला दूध व दही भी तैयार किया जाता है। मूँगफली का हरा वानस्पतिक भाग जो कि खुदाई के बाद प्राप्त होता है, साइलेज के रूप में या हरा ही पशुओं को  खिलाया जाता है। दानों से तेल निकालने के बाद बची हुई खली भी एक पौष्टिक पशु आहार एंव जैविक खाद के रूप में उपयोग की जाती है। इसकी खली में 7-8 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.5 प्रतिशत फास्फोरस तथा 1.5 प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। मूँगफली का छिलका गत्त्¨ बनाने और  कार्क की जगह काम में लाई जाने वाली चीजो  के बनाने के काम में आता है । इसकी जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण  करने वाले जीवाणु (राइजोबियम) पाये जाते हैं जो कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन को भूमि  में (लगभग 80-200 किग्रा. प्रति हे.) स्थिर करते हैं । अतः शस्य-चक्र में रखने पर मूँगफली की खेती से भूमि की भोतिक दशा सुधरती है, उर्वरा शक्ति बढ़ती है । इस फसल क¨ भू-क्षरण र¨कने के लिए भी उत्तम साधन माना गया है । इस प्रकार से मूँगफली बहुपय¨गी व्यापारिक फसल है। भारत में मूँगफली के कुल उत्पादन का 81 प्रतिशत भाग तेल निकालने में, 12 प्रतिशत बीज के रूप में, 6 प्रतिशत खाद्य के रूप में और शेष 1 प्रतिशत निर्यात में उपयोग किया जाता है।
              भारत में क्षेत्रफल तथा उत्पादन की दृष्टि से मूँगफली का सभी तिलहनी फसलों में प्रथम स्थान है। तिलहनी फसलों के कुल क्षेत्रफल का 40 प्रतिशत तथा कुल उत्पादन का 60 प्रतिशत भाग अकेले मूँगफली का है। देश में 6.16 मिलियन हैक्टर  रकबे में मूगफली बोई गई जिससे 1163 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज के मान से 7.17 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया।  देश में मूँगफली की औसत उपज  विश्व औसत उपज (1554 किग्रा/हे.) से काफी कम है। 
      छत्तीसगढ़ के सभी जिलो में मूँगफली की खेती की जाती है, परन्तु सरगुजा, महासमुन्द, जशपुर, बिलासपुर, रायगढ़ जिले क्षेत्रफल व उत्पादन में अग्रणीय हैं। राज्य में खरीफ में 51.60 हजार हैक्टर एंव रबी  में 14.58 हजार हैक्टर में मूँगफली की खेती की गई जिससे क्रमशः 1310 किग्रा. एवं 1156 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज दर्ज की गई।    मध्य प्रदेश में मूंगफली की खेती 0.20 मिलियन हैक्टर क्षेत्र  में की गई जिससे 1140 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज के मान से 0.23 मिलियन टन उपज प्राप्त की गई है । 

कैसी हो जलवायु

    मूँगफली की फसल उष्ण कटिबन्ध की मानी जाती है, परन्तु इसकी खेती शीतोष्ण कटिबन्ध के परे समशीतोष्ण कटिबन्ध  में भी, उन स्थानो  पर जहाँ गर्मी का मौसम पर्याप्त लम्बा हो, की जा सकती है  । जीवन काल में थोड़ा पानी, पर्याप्त धूप तथा सामान्यतः कुछ अधिक तापमान, यही इस फसल की आवश्यकताएं है । जहाँ रात में तापमान अधिक गिर जाता है, वहाँ पौधो  की बाढ़ रूक जाती है । इसी बजह से पहाड़ी क्षेत्रो  में 3,500 फिट से अधिक ऊँचाई पर इस फसल को  नहीं बोते है । इसके लिए अधिक वर्षा, अधिक सूखा तथा ज्यादा ठंड हानिकारक है। अंकुरण एंव प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14 डि से.-15 डि से. तापमान का होना आवश्यक है। फसल वृद्धि के लिए 21-30 डि . से. तापमान सर्वश्रेष्ठ रहता है। फसल के जीवनकाल के दौरान सूर्य का पर्याप्त प्रकाश, उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा का होना उत्तम रहता है।  प्रायः 50-125 सेमी. प्रति वर्ष वर्षा वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए उपयुक्त समझे जाते है। पौधों की वृद्धि एंव विकास के लिए सुवितरित 37-62 सेमी. वर्षा अच्छी मानी जाती है। फसल पकने तथा खुदाई के समय एक माह तक गर्म तथा स्वच्छ मौसम अच्छी उपज एंव गुणों के लिए अत्यंत आवश्यक है।कटाई के समय वर्षा होने से एक तो  खुदाई  में कठिनाई  होती है, दूसरे मूँगफली का रंग बदल जाता है और  फलियो  में बीज उग आने  की सम्भावना रहती है । धूप-काल  का इस फसल पर कम प्रभाव पड़ता है । मूँगफली के कुल क्षेत्रफल का लगभग 88 प्रतिशत भाग खरीफ में और शेष भाग जायद मौसम में उगाया जाता है।

भूमि का चयन

    मूँगफली के लिए अच्छी भुरभुरी हलकी मिट्टी उत्तम रहती है  जिससे इसके नस्से (पेग) सरलता से घुस पायें और  अधिक फली बन सकें । वैसे तो  मूँगफली सभी प्रकार की खेती योग्य भूमि-बलुई, बलुई-दोमट, दोमट, मटियार दोमट, मटियार तथा कपास की काली मिट्टी में उगाई जा सकती है, परन्तु हलकी बलुई-दोमट सबसे उपयुक्त समझी जाती है । कैल्शियम व जीवांश पदार्थ युक्त भूमि उपयुक्त होती है।  भारी और चिकनी मिट्टी इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त रहती है, क्योंकि शुष्क मौसम में इस प्रकार की मृदा कड़ी हो जाती है जिससे स्त्रीकेसर दंड या खूँटियाँ भूमि में प्रवेश नहीं कर पाती और  फलियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता । इसके अलावा इन मिट्टियो  में खुदाई के समय भी कठिनाई होती है। भूमि का पी-एच. मान 5.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। इस फसल के लिए छत्तीसगढ़ की कछारी एंव भाटा-मटासी जैसी हल्की भूमि अधिक उपयुक्त है। अरहर व मूँगफली की मिश्रित खेती के लिए कन्हार-भर्री जमीन अच्छी होती है।

भूमि की तैयारी 

    मूँगफली का विकास भूमि के अंदर  होता है। अतः मिट्टी ढीली, भुरभुरी एंव महीन होना आवश्यक है। इससे जल धारण क्षमता एंव वायु संचार में वृद्धि होती है।बहुत गहरी जुताई अच्छी नहीं रहती है, क्योंकि इससे फल्लियाँ गहराई पर बनेंगी और खुदाई में कठिनाई होती है। पूर्व की फसल कटने के बाद एक गहरी जुताई (12-15 सेमी.) करनी चाहिए। इसके बाद पहली वर्षा के बाद बतर आने पर 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी  को भुरभूरा कर लेना चाहिए। इसके लिए रोटावेटर का भी प्रयोग किया जा सकता है। जुताई के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। जलनिकास के लिए खेत में उचित दूरी पर नालियाँ बनाना चाहिए। दीमक तथा चींटियों से बचाव के लिये क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत का 20-25 किलो प्रति हे. के हिसाब से जुताई के समय देना चाहिए।

उन्नत किस्मो  का चयन 

    प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का एक आवश्यक अंग रहा है। मूँगफली की पुरानी किस्मों की अपेक्षा नई उडन्नत किस्मों की उपज क्षमता अधिक ह¨ती है और उन पर कीटों तथा रोगों का प्रकोप भी कम होता है। अतः उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग बुवाई के लिए करना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु एंव मृदा के अनुसार अनुमोदित किस्मों का उपयोग करना चाहिए।

मूँगफली की प्रमुुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ

1.एके-12-24: मूंगफली की सीधे  बढने वाली यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । फलियो  की उपज 1250 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 75 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दानो  में 48.5 % तेल पाया जाता है । 
2.जे-11: यह एक गुच्छेदार किस्म है ज¨ कि 100-105 दिन में पककर 1300 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ उत्पन्न करने की क्षमता रखती है । खरीफ एवं गर्मी में खती करने के लिए उपयुक्त है । फलियो  से 75 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
3.ज्योति : गुच्छे दार किस्म  है जो की 105-110 दिन में तैयार होकर 1600 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो  से 77.8 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 53.3 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
4.कोंशल (जी-201): यह एक मध्यम फैलने वाली किस्म है जो कि  108-112 दिन में पककर तैयार होती है और  1700 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो  से 71 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
5.कादरी-3:  यह शीघ्र तैयार ह¨ने वाली (105 दिन) किस्म है जिसकी उपज क्षमता 2100 किग्रा. प्रति हैक्टर है । फलियो  से 75 प्रतिशत दाना मिलता है और  दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
6.एम-13: यह एक फैलने वाली किस्म हैजो  कि सम्पूर्ण भारत में खेती हेतु उपयुक्त रहती है । लगभग 2750 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज क्षमता वाली इस किस्म की फलियो  से 68 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
7.आईसीजीएस-11: गुच्छेदार यह किस्म 105-110 दिन में तैयार होकर 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज देती है । इसकी फलियो  से 70 प्रतिशत दाना मिलता है तथा दानो  में तेल की मात्रा 48.7 प्रतिशत होती है ।
8.गंगापुरीः मूंगफली की यह गुच्छे वाली  किस्म है जो  95-100 दिन में तैयार ह¨ती है । फलियो  की उपज 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 59.7 प्रतिशत दाना प्राप्त हो ते है । दाने  में 49.5 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
9.आईसीजीएस-44: मूंगफली की  मोटे दाने वाली किस्म है । फलियो  की उपज 2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 72 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दाने  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
10.जेएल-24 (फुले प्रगति): यह एक शीघ्र पकने वाली (90-100 दिन) किस्म है । इसकी उपज क्षमता 1700-1800 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो  में तेल 50-51 प्रतिशत होता है ।यह मध्यम सघन बढ़ने वाली चिकनी फल्लियो  वाली किस्म है ।
11.टीजी-1(विक्रम): यह किस्म 120-125 दिन में पककर तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो  में तेल की मात्रा  46-48 प्रतिशत पाई जाती है ।यह एक वर्जीनिया अर्द्ध फैलावदार किस्म है ।
12.आई.सी.जी.एस.-37: यह किस्म 105-110    दिन में तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 1800-2000 किग्रा. प्रति हैक्टर तक ह¨ती है । दानो  में 48-50 प्रतिशत तेल पाया जाता है । यह एक अर्द्ध फैलने वाली किस्म है ।

बोआई का समय  

    बोआई के समय का मूंगफली की उपज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए परन्तु अधिक नमी में भी बीज सड़ने की संभावना रहती है । खरीफ में मूँगफली की बोआई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के दूसरे सप्ताह तक की जानी चाहिऐ।  पलेवा देकर अगेती बोआई करने से फसल की बढवार तेजी से होती है तथा भारी वर्षा के समय फसल को नुकसान नहीं पहुँचाता है। वर्षा प्रारम्भ होने पर की गई बोआई से पौधो की बढ़वार प्रभावित होती है साथ ही खरपतवारों का प्रकोप तीव्र गति से होता है।

बीज दर एंव बोआई 

    बीज के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली मूँगफली पूर्ण रूप से विकसित, पकी हुई मोटी, स्वस्थ्य तथा बिना कटी-फटी होनी चाहिए । बोआई के 2-3 दिन पूर्व मूँगफली का छिलका सावधानीपूर्वक उतारना चाहिए जिससे दाने के लाल भीतरी आवरण को क्षति न पहुँचे अन्यथा बीज अंकुरण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। एक माह से ऊपर छीले  गये बीज अच्छी तरह नहीं जमते । छीलते समय बीज के साथ चिपका हुआ कागज की तरह का पतली झिल्ली नहीं उतारना चाहिए क्योकि इसके उतरने या खरोच लगने से अंकुरण ठीक प्रकार नहीं होता है ।  गुच्छेदार  किस्मों में सुषुप्तावस्था नहीं होती है, अत: खुदाई के बाद इनके बीज सीधे खेत में बोये जा सकते हैं। भूमि पर फैलने वाली  या वर्जीनिया किस्मों में सुषुप्तावस्था होती है, अतः शीघ्र बोने के लिए बीजों का ईथालीन क्लोराइहाइड्रिन (0.7 प्रतिशत) से उपचार करना चाहिए। बोआई हेतु 85 प्रतिशत से अधिक अंकुरण क्षमता वाले बीज का ही प्रयोग करना उचित रहता है।
    अच्छी उपज के लिए यह आवश्यक है कि बीज की उचित मात्रा प्रयोग में लाई जाए। मूँगफली की मात्रा एंव दूरी किस्म एंव बीज के आकार पर निर्भर करती है। गुच्छे वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए। ऐसी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेमी. रखी जाती है और उनके लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है। दोनों प्रकार की किस्मों के पौधों की दूरी 15-20 सेमी. रखना चाहिए। भारी मिट्टि में 4-5 सेमी. तथा हल्की मिट्टि में 5-7 सेमी. गहराई पर बीज बोना चाहिए। मूँगफली को किसी भी दशा में 7 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए। अच्छे उत्पादन के लिये लगभग 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होना चाहिए।

बीजोपचार 

    बीज जनित रोगों से बचने के लिए बीजों का  उचित फंफूदीनाशक दवाओ   से शोधन करना आवश्यक है। मूँगफली के बीज को कवकनाशी  जैसे थायरम या बाविस्टीन, 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिऐ। इस उपचारित बीज में राइजोबियम कल्चर से भी निवेशित करना चाहिए। राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित करने के लिए 2-5 लीटर पानी में 300 ग्राम गुड़ डालकर गर्म करके घोल बना लिया जाता है । घोल को ठंडा करके उसमें 600 ग्राम राइबोजियम कल्चर मिलायें। यह घोल एक हे. बोआई के लिए पर्याप्त होता है। इसके बाद फास्फेट विलय जीवाणु खाद(पी.एस.बी.) से बीजों को उपचारित करना चाहिए। उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर शीघ्र बोआई करना चाहिए। इससे उपज में 5-15 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी ह¨ती है। सफेद गिडार की रोकथाम हेतु 254 मिली. क्लोरोपाईरीफास (20ईसी) दवा प्रति किलो बीज की दर से शोधित कर बोआई करना चाहिए।

बोआई की विधियाँ 

    समतल भूमि में मूँगफली को छिटककर बो दिया जाता है। यह एक अवैज्ञानिक विधि है। इसमें पौध संख्या अपर्याप्त रहती है साथ ही फसल की निराई गुड़ाई करने में कठिनाई होती है। उपज भी बहुत कम प्राप्त होती है। मूँगफली की बोआई के लिए प्रायः निम्न विधियाँ प्रयोग में लाई जानी चाहिए -
1. हल के पीछेे बोआई : देशी हल के पीछे से बीज की बोआई कूड़ों में 5-7 सेमी. गहराई पर की जाती है।
2. डिबलर विधि: यह विधि थोड़े क्षेत्रफल में बोआई करने के लिए उपयुक्त है। पंक्तियों में खुरपी की सहायता से छिद्र बना लेते हैं जिनमें बीज डालकर मिट्टि से ढँक देते हैं। इसमें बीज की मात्रा कम लगती है। इसमें श्रम एंव व्यय अधिक लगता है।
3. सीड प्लांटर द्वारा:  इस यन्त्र से बोआई अधिक क्षेत्रफल में कम समय में हो जाती है। बीज को बोने के बाद पाटा चलाकर बीज को ढँक दिया जाता है। भूमि का प्रकार एंव नमी की मात्रा के अनुसार बीज की गहराई 5-7 सेमी. के बीच रखनी चाहिए। इस विधि से श्रम एंव व्यय की बचत होती है।
    छत्तीसगढ़ में मादा कूँड़ पद्धति से बोआई करना अधिक लाभप्रद पाया गया है। प्रत्येक तीन से चार कतारों के बाद जल -निकास के लिये नाली बनाई जाती है।

खाद एंव उर्वरक 

    मूँगफली की फसल भूमि से अपेक्षाकृत अधिक मात्रा  में पोषक तत्वों का अवश¨षण  करती है। मूँगफली की 12-13क्विंटल . प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 110 किग्रा. नाइट्रोजन, 14 किग्रा. फॅस्फोरस और 30 किग्रा. पोटाश ग्रहण कर लेती है। मूँगफली के लिए नत्रजन, स्फुर, पोटाश के अलावा सल्फर, कैल्शियम तत्वों की भी आवश्यकता होती है। दलहनी फसल होने के कारण इसे अधिक नाइट्रोजन देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। चूँकि जीवाणु-ग्रंथिकाओं  का विकास बोने के लगभग 15-20 दिन बाद शुरू होता है, इसलिए फसल की प्रारंभिक बढ़वार के लिए प्रति हे. 10 किग्रा. नत्रजन वर्षा निर्भर क्षेत्रों तथा 20 किग्रा. नत्रजन सिंचित क्षेत्रो के लिए संस्तुत की जाती है। इसकी पूर्ति अमोनियम सल्फेट  के माध्यम से करना चाहिए, क्योंकि इससे फसल को नत्रजन के अलावा आवश्यक गंधक तत्व भी उपलब्ध हो जाता है। गंधक से मूँगफली में तेल की मात्रा बढ़ती है तथा जड़ ग्रंथिकाओं की संख्या में भी वृद्धि होती है। जिससे नत्रजन का संस्थापन अधिक होता है।
    दलहनी फसल होने के कारण इस फसल को फाॅस्फोरस की अधिक आवश्यकता पड़ती है। यह जड़ों के विकास तथा लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि में भी सहायता होती है। इससे नत्रजन का संस्थापन भी अधिक होता है। मूँगफली के लिए 40-60 किग्रा. फास्फोरस प्रति हे. पर्याप्त होता है। यदि स्फुर सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाए तो फसल को स्फुर के साथ-साथ सल्फर तथा कैल्शियम की पूर्ति भी हो जाती है। जिन भूमियों में पोटाश की मात्रा कम हो, पोटाश देना आवश्यक होता है, वहाँ प्रति हेक्टेयर 30-40 किग्रा. पोटाश देना चाहिए। उत्तर भारत में गंधक, कैल्सियम और जिंक तत्व की कमी पायी जाती है। अतः 15-20 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर खाद 20-25 गाड़ी (10-12 टन) देना लाभदायक रहता है। सभी उर्वरकों का प्रयोग बोआई के समय  किया जाना चाहिए। ध्यान रखें कि बीज उर्वरकों के सीधे सम्पर्क में न आये। इनका प्रयोग इस तरह से करना चाहिए, जिससे कि यह बीज के 3-5 सेमी. नीचे पड़े। इसके लिए उर्वरक ड्रिल  नामक यंत्र का प्रयोग किया जा सकता है।

खरपतवार प्रबन्धन 

    मूँगफली की खेती में निराई-गुडाई  का विशेष महत्व है। बोआई से 35 दिन तक खरपतवारों की वृद्धि अधिक होती है। अनियंत्रित खरपतवारों से 50-70 प्रतिशत उपज में कमी हो सकती है। खरपतवार प्रकोप से इसकी जड़ों का विकास रूक जाता है और भारी मिट्टियों में फल्लियों की बढ़वार ठीक से नहीं हो पाती है। अतः फसल में 2 बार निराई-गुडाई अवश्यक करना चाहिए। ब¨आई के 12-15 दिन पश्चात् निरायक (कल्टीवेटर) से गुड़ाई करनी चाहिए और यह गुड़ाई  15-20 दिन बाद पुनः करनी चाहिए । वास्तव में मूँगफली की फसल की सफलता मुख्यतः भूमि में सुइया  (पेग) के अधिकतम विकास पर निर्भर करती है । इसी समय पौधों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिये । जब एक बार सुइयाँ  निकलने लगें और  फलियाँ बनने लगें तो ¨ गुड़ाई बन्द कर देनी चाहिए । मिट्टी चढ़ाने का कार्य गुच्छे वाली और फैलने वाली, दोनों ही प्रकार की किस्मों में किया जाता है। प्रारम्भिक नींदा नियंत्रण के लिये ट्राइफ्लूरालिन 48 ई. सी. 0.25 -0.75 किग्रा. प्रति हे. की दर से बुआई से पहले छिड़काव कर भूमि में मिला देना चाहिए। अंकुरण से पहले एलाक्लोर 50 ईसी 1-1.5 किग्रा. या नाइट्रोफेन 0.25-0.75 किग्रा. प्रति हे. का 500-600 लीटर पानी में बने घोल का छिड़काव करना लाभप्रद पाया गया है। अंकुरण के बाद इमेजेथापिर करना चाहिए। कतारों में बोई गई फसल में निदांई-गुडाई का कार्य, कतारों के बीच हल चलाकर शीघ्रता से किया जाता है।

सिंचाई एंव जल निकास

    सामान्य तौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई करने की जरूरत नहीं पड़ती है। अगेती फसल (मई के अन्त या फिर जून में ब¨ई जाने वाली फसल) लेनी हो, तों बोआई के पूर्व एक सिंचाई करना आवश्यक होता है। अवर्षा या सूखे की स्थिति में फसल की आवश्यकतानुसार 2-3 सिंचाइयाँ करनी चाहिए। नस्से  बनते समय एंव फलियों के भरते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है जिससे फलियाँ भूमि में आसानी से घुसकर विकसित ह¨ सकें । मूँगफली की अच्छी उपज के लिए 50-75 मि.मी. जल की आवश्यकता होती है। हल्की मृदाओं  में जब उपलब्ध जल का स्तर 25 प्रतिशत रह जाये, सिंचाई करनी चाहिए। फसल की परिपक्व अवस्था  पर सिंचाई नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से फल्लियों के भीतर दाने अंकुरित होने लगते हैं। सिंचाई नालियों की सहायता से करनी चाहिए। भारी वर्षा के समय जल निकास की उचित व्यवस्था भी होनी चाहिए, अन्यथा पौधे पीले पड़ जायंगे, कीट आक्रमण होगा तथा फल्लियाँ सड़ सकती हैं।
फसल पद्धति
    मूँगफली की शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत किस्मों का प्रयोग करने से वर्षाधीन क्षेत्रों में राई, मटर गेहूँ  आदि फसले लेकर द्वि फसली खेती की जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर मूँगफली के बाद गेहूँ, चना, मटर, सरसों, की फसलें आसानी से उगाई जा सकती हैं। मूँगफली आधारित अन्तर्वर्ती फसली खेती के लिए कन्हार भूमि में मूगँफली + अरहर (4:1), मूँगफली +सूरजमुखी (3:1 या 2:1), मूँगफली + उर्द (4:1) तथा हल्की भूमि में मूँगफली +तिल(3:1) की खेती लाभकारी रहती है।

कटाई-खुदाई समय पर आवश्यक 

    मूँगफली की फसल 120-150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। शीघ्र पकने वाली किस्में सितम्बर-अक्टूबर तथा देर से पकने वाली किस्में अक्टूबर-नवम्बर में खुदाई के लिए तैयार हो जाती हैं। जब पौधे पीले पड़ने लगें और पत्तियाँ मुरझाकर झड़ने लगें (इस समय 75 प्रतिशत फल्ली पक जाती है) तभी फसल की कटाई/खुदाई करनी चाहिए। इस समय फल्ली के छिल्के की भीतरी सतहह पर गहरा रंग  उत्पन्न हो जाता है और बीज के आवरण का रंग भी किस्म के अनुसार समुचित ढंग से विकसित हो जाता है। अधपकी फसल काटने से उपज कम हो जाती है तथा तेल की मात्रा कम व गुणवत्ता भी घट जाती है। फसल की कटाई, हाथ से पौधे उखाड़कर, खुरपी या कुदाल से खोदकर अथवा देशी हल या ब्लेड हैरो द्वारा, की जा सकती है। कटाई के समय फल्लियों में 40-50 प्रतिशत नमी रहती है। अतः फल्लियों को पौधों से अलग करने के पहले 8-10 दिन तक सुखाना चाहिए। इसके बाद फल्लियाँ हाथ से तोड़कर अच्छी तरह धूप में सुखाया जाता है। खुदाई के समय वर्षा होने पर भूमि में फल्लियों पर फफूंदी  लग सकती है। इससे बीज का रंग बदल सकता है साथ ही उसमें अफलाटाक्सिन (कड़वा-जहरीला पदार्थ) का रासायनिक स्तर काफी बढ़ सकता है। अफलाटाक्सिन से बीजो के खाने का गुण नष्ट होने की संभावना रहती है।

उपज एंव भण्डारण

    उन्नत सस्य विधियों से खेती करने पर गुच्छेदार  किस्मों की फल्लियों की उपज 15-20 क्विंटल  तथा फैलने वाली किस्मों की उपज 20-30 क्विंटल . प्रति हे. तक प्राप्त की जा सकती है।  जब दानों में नमी का अंश 9 प्रतिशत रह जाता है तब भण्डारण किया जाता है। वैसे भण्डारण के समय फल्लियों में नमी का अंश 5 प्रतिशत आर्दश माना जाता है। अधिक नमी वाली फल्लियों को भंडारित करने पर मूँगफली के गुणों में गिरावट आने लगती है जिससे निकाला हुआ तेल खराब होता है। फल्लियों को ही भण्डारित किया जाता है, आवश्यकतानुसार फल्लियों का छिलका पृथक करना चाहिए।

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