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शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

औषधीय एवं सगन्ध पौधो के उपयोग-रोग भगाये स्वस्थ बनाये

                                                                डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                  प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
                                        इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

              औषधीय एवं सगन्ध पौधो के उपयोग से सम्बंधित महतवपूर्ण जानकारी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। कृपया इनके उपयोग से पहले अपने नजदीकी चिकित्सक से परामर्श अवश्य लें। हमारे आस-पास या जंगलो में यह पौधे प्राकृतिक रूप से उगते है परन्तु हम इनके महत्व को नहीं जानते है। बहुत सी जड़ी बूटिया अब दुर्लभ  या फिर विलुप्ति के कगार पर  है। इन पौधो को पहचानिए और इनके सरंक्षण में अपना योगदान दीजिए। आजकल अनेक औषधीय एवं सगन्ध फसलों की व्यावसायिक खेती कर अधिकतम मुनाफा कमाया जा रहा है। सभी फोटो-चित्र इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) से साभार लिए गए है तथा जनहित में पुनः प्रकाशित किए जा रहे है।







































































रविवार, 21 अप्रैल 2013

एक चमत्कारिक फसल- सोयाबीन का सस्यविज्ञान

           डॉ . गजेन्द्र सिंह तोमर 
                  प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                      इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)      

सोयाबीन: विविध उपयोग 

            सोयाबीन अर्थात ग्लाइसिन मैक्स  दलहनी कुल की तिलहनी फसल है। इसे एक चमत्कारी फसल की संज्ञा दी गई है क्योकि   इसके दाने में 40-42 प्रतिशत उच्च गुणवत्ता वाली प्रोटीन और 18-20 प्रतिशत तेल के अलावा 20.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.24 प्रतिशत कैल्शियम, 11.5 प्रतिशत फास्फोरस व 11.5 प्रतिशत लोहा पाया जाता है। सोयाबीन में 5 प्रतिशत लाइसिन नामक अमीनो अम्ल पाया जाता है, जबकि अधिकतर धान्य फसलों में इसकी कमी पायी जाती है। प्रचुर मात्रा  में विटामिन पाये जाने के कारण एन्टीबाइटिक दवा बनाने के लिए यह विशेष उपयुक्त है । प्रोटीन व तेल की अधिकता के कारण इसका उपयोग घरेलू एंव औद्योगिक स्तर पर किया जाता है। सोयाबीन ऐसा खाद्य पदार्थ है जो  लगभग गाय के दूध के समान पूर्ण आहार माना जाता है । इससे दूध, दही तथा अन्य खाद्य साम्रगी तैयार की जाती है। बीज में स्टार्च की कम मात्रा तथा प्रोटीन की अधिकता होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए यह अत्यंत लाभप्रद खाद्य पदार्थ हैं। इसके अलावा वनस्पति तेल-घी, साबुन, छपाई की स्याही, प्रसाधन सामग्री, ग्लिसरीन, औषधियाँ आदि बनाई जाती हैं। सोयाबीन की खली और भूसा मूर्गियों एंव जानवरों के लिए सर्वोत्तम भोजन है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में ग्रंथियाँ  पाई जाती हैं जो  जिनमे वायुमंडलीय नत्रजन संस्थापित करने की  क्षमता होती हैं जिससे भूमि की उर्वरता बढ़ती है। सोयाबीन का विविध प्रयोग एवं अनेक विशेषताएँ होने के कारण इसे मिरेकल क्राप और  चमत्कारी फली  कहा जाता हैं।सोयाबीन की दाल की उपयोगिता अधिक है । इससे तरह-तरह के व्यंजन बनते है । परन्तु अभी भी भारतीय घरो  में सोयाबीन के उत्पाद अधिक प्रचलित नहीं हुए है । 
मूँगफली एवं सोयाबीन के पोषक तत्वो  का तुलनात्मक विवरण
विवरण                सोयाबीन (प्रतिशत)        मूँगफली (प्रतिशत)
जल                              8.1                                7.9
प्रोटीन                         43.2                               2.7
वसा                           19.5                                40.1
कार्बोहाइड्रेट                20.9                               20.3
खनिज                         4.6                                 1.9
फॉस्फ़ोरस                   0.69                               0.39
कैल्शियम                   0.24                               0.05
लोह (मिग्रा)                 11.5                                1.6
कैलोरी भेल्यू               451                                  549       

         सम्पूर्ण भारत के कुल उत्पादन का 59.06 प्रतिशत सोयाबीन उत्पादन कर मध्यप्रदेश प्रथम स्थान पर है , इसलिए  इसे सोयाबीन राज्य के नाम से जाना जाता है। प्रदेश में वर्ष 2008-09 में स¨यबीन 5.12 मिलियन हैक्टर क्ष्¨त्र्ा में उगाया गया जिससे 5.85 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया । प्रदेश में स¨याबीन की अ©सत उपज 1142 किग्रा, प्रति हैक्टर रही ।  छत्तीसगढ़ राज्य में 133.06 हजार हेक्टेयर में सोयाबीन  की खेती होती है  जिससे 1114 किग्रा. प्रति हेक्टेयर औसत उपज प्राप्त होती है ।

 उपयुक्त जलवायु
    साधारण शीत से लेकर साधारण उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सोयाबीन की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सोयाबीन के बीजो  का अंकुरण 20-32 डि से  तापक्रम पर 3-4 दिन में हो जाता है। फसल वृद्धि के लिए 24-28 डि से तापमान उचित रहता है। बहुत कम (10 डि से  से कम) या अधिक होने पर सोयाबीन की वृद्धि, विकास एंव बीज की गुणता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सोयाबीन एक अल्प प्रकाशापेक्षी पौधा   है जिससे इसकी अधिकांश किस्मों में दिन छोटे व रातें लम्बी होने पर ही फूल आता है। इसकी अधिकांश किस्मों में दिन की अवधि 14 घंटे से कम होने पर ही फूल आता है। भारत में खरीफ में उगाई जाने वाली किस्में प्रकाशावधि के लिए अधिक संवेदनशील होती हैं। अच्छी फसल के लिए 62-75 सेमी. वार्षिक वर्षा होना आवश्यक हैं। शाखाएँ व फूल बनते समय खेत में नमी रहना आवश्यक है । पुष्पीय कलियो  के विकसित होने के 2-4 सप्ताह पूर्व पानी की कमी होने से पौधो की शाकीय वृद्धि घट जाती है जिसके फलस्वरूप अधिक संख्या में फूल व फलियाँ गिर जाती है । फल्लियाँ पकते समय वर्षा  होने से फलियो  पर अनेक रोग लग जाते है जिससे वे सड़ जाती है साथ ही बीज गुणता में भी कमी आ जाती है । यदि कुछ समय तक पौधे सूखे की अवस्था में रहे और इसके बाद अचानक बहुत वर्षा हो जाए या सिंचाई कर दी जाए, तो फल्लियाँ गिर जाती है।
भूमि का चयन 
             सोयाबीन की खेती के लिए उचित जल निकास वाली हल्की मृदायें  अच्छी रहती हैं। दोमट, मटियार दोमट  व अधिक उर्वरता वाली कपास की काली मिट्टियों  में सोयाबीन फसल का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है। भूमि का पी. एच. मान 6.5 से 7.5 सर्वोत्तम पाया गया है। छत्तीसगढ़ की डोरसा एंव कन्हार जमीन सोयाबीन की खेती के लिए अच्छी होती है। अम्लीय मृदाओं   में चूना तथा क्षारीय मृदाओंमें जिप्सम मिलाकर खेती करने से इसकी जड़ों में गाँठों का विकास अच्छे से होता है।
खेत की तैयारी
          खेत की मिट्टी महीन, भुरभुरी तथा ढेले रहित होनी चाहिए। पिछली फसल की कटाई के तुरंत बाद खेत में गहरी जुताई करने से भूमि में वायु संचार और  जल सग्रहण क्षमता  बढ़ती है और विभिन्न खरपतवार, रोगाणु व कीट आदि धूप से नष्ट हो जाते हैं। इसके बाद दो या तीन बार देशी हल से खेत की जुताई कर पाटा चलाकर खेत को समतल व भुरभुरा कर लेना चाहिए। खेत में हल्का ढलान देकर जल निकास  का समुचित प्रबंध भी कर लेना चाहिए। समयानुसार वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई उपलब्ध हो तो पलेवा  देकर बुवाई की जा सकती है। ऐसा करने पर अंकुरण अच्छा होता है।
उन्नत किस्में
    सोयाबीन की सफल खेती, साथ ही साथ अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने का प्रमुख आधार, उपयुक्त किस्म का चयन व उत्तम बीज का चुनाव ही है। उत्तम किस्म का सोयाबीन का स्वस्थ बीज बोने से उपज में लगभग  20-25 प्रतिशत की वृद्धि की जा सकती है। उन्नत किस्म का बीज राज्य कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विभाग या अन्य विश्वसनीय प्रतिष्ठानो से क्रय किया जाना चाहिए।
सोयाबीन की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएँ
1.जेएस. 93-05: सोयाबीन की यह शीघ्र पकने (90-95 दिन) वाली किस्म है । इसके फूल बैंगनी रंग के ह¨ते है तथा फली में चार दाने होते है । इस किस्म की उपज क्षमता 200-2500 किग्रा.प्रति हैक्टर आंकी गई है ।
2.जेएस. 72-44: सोयबीन की यह भी अगेती (95-105 दिन) किस्म है । इसका पौधा सीधा, 70 सेमी. लम्बा। होता है । इसकी उपज क्षमता     2500-3000 किग्रा. प्रति हैक्टर है ।
3.जे. एस.-335: यह 115-120 दिन में पकने वाली किस्म है जिसका दाना पीला तथा फल्लियाँ चटकने वाली होती है । इसकी ओसत उपज 2000-2200 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
4.जेएस. 90-41: स¨याबीन की यह किस्म 90-100 दिन में तैयार होती है । इसके फूल बैंगनी रंग के ह¨ते है तथा प्रति फली 4 दाने पाये जाते है । इसकी अ©सत उपज क्षमता 2500-3000 किग्रा. प्रति हैक्टर मानी जाती है ।
5.समृद्धि: यह शीघ्र तैयार ह¨ने (93-100 दिन) वाली किस्म है । इसके फूल बैगनी, दाना पीला दाना और  नाभि काल ह¨ती है । ओसत उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है ।
6.अहिल्या-3: यह किस्म 90-99 दिन में पककर तैयार ह¨ती है तथा ओसतन 2500-3500 किग्रा. उपज क्षमता रखती है । इसके फूल बैगनी तथा दाने पीले ¨ रंग के होते है । विभिन्न कीट-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
7.अहिल्या-4: यह किस्म 99-105 दिन में पककर तैयार होती है । इसके फूल सफेद तथा दाना पीला और नाभि भूरी होती है । इसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
8.पीके-472: यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । इसके फूल सफेद तथा पीला दाना होता है । ओसत उपज क्षमता 3000-3500 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
9.जेएस. 75-46:  बोआई से 115-120 दिन में तैयार होने वाली इस किस्म के फूल गहरे बैंगनी रंग तथा दाना पीला होता है । ओसतन 2000-2200 किग्रा. उपज देने में सक्षम पाई गई है ।
10.जेएस 72-280(दुर्गा): सोयाबीन की यह किस्म 102-105     दिन में पकती है । सफेद फूल, पीला दाना तथा काली नाभि वाली यह किस्म 2000-2200 किग्रा. उपज देने में सक्षम पाई गी है ।
11.एमएसीएस-58: शीघ्र तैयार (90-95 दिन) होने वाली इस किस्म के फूल बैंगनी, पीला दाना और  भूरी नाभि पाई जाती है । ओसत उपज क्षमता 2500-4000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है ।
12.जेएस. 76-205(श्यामा): यह किस्म 105-110 दिन में तैयार ह¨ती है । इसके फूल बैगनी तथा  दाना काल्¨ रंग का होता है । ओसतन 2000-2500 किग्रा. उपज क्षमता पाई गई है ।       
13. इंदिरा सोया-9: यह किस्म 110-115 दिन में पकती है । इसके फूल बैंगनी तथा दाना पीले  रंग का होता है । ओसत उपज क्षमता 2200-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर पाई गई है ।
14. परभनी सोनाः सोयबीन की यह शीघ्र तैयार होने वाली (85-90 दिन) बहु-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।इसके 100 दानो  का भार 11-12 ग्राम तथा उपज क्षमता 2500-3000 किग्रा. दर्ज की गई है ।
15.प्रतीक्षा (एमएयूएस-61-2): यह मध्यम अवधि में तैयार ह¨ने वाली किस्म है जो  जेएस-335 से 10 प्रतिशत अधिक उपज देती है । मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश (बुन्देलखण्ड) तथा महाराष्ट्र राज्य में खेती हेतु संस्तुत की गई है
बोआई का समय
           सोयाबीन की अतिशीघ्र बोआई  से पौधों की वृद्धि अधिक होकर उपज सीमित हो जाती है, जबकि देर से बोने पर तापमान कम हो जाने के कारण पौधों की वृद्धि कम हो जाती है और उपज कम आती है। अतः उपयुक्त समय पर बोआई करना चाहिए। इसका बुवाई का समय इस प्रकार निश्चित करना चाहिए कि पौधों को वानस्पतिक बढ़वार के लिए उचित प्रकाशवधि   मिले। खरीफ में बुवाई के लिये जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के द्वितीय सप्ताह तक का समय उपयुक्त पाया गया है। रबी , बसन्त और गर्मी के मौसम में भी कुछ क्षेत्रों मे सोयाबीन उगाई जा सकती है।
बीज दर एंव पौध  अन्तरण
    बीज का आकार, किस्म, बीज की  अंकुरण क्षमता, बोने की विधि व समय के आधार पर बीज  की मात्रा  निर्भर करती है। सोयाबीन बीज जिसकी अंकुरण क्षमता 85 प्रतिशत हो और 1000 दानों का वजन 125-140 ग्राम हो, चयन करना चाहिए। बुवाई से पूर्व बीज अंकुरण क्षमता ज्ञात कर लें और 60-70 प्रतिशत अंकुरण क्षमता हो तो बीज दर सवा गुना कर बोयें।
    सामान्य तौर पर बड़े दाने वाली सोयाबीन की किस्मो  के लिए 80-90 कि.ग्रा., मध्यम दाने वाली किस्मो  के लिए 70-75 किग्रा. तथा छोटे दानो  वाली किस्मो  हेतु  55-60 किग्रा, बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करना चाहिए। उत्तम उपज के लिए  खेत में वांछित पौध संख्या (3-4 लाख पौधे/हे. ) कायम रखना आवश्यक पाया गया  है । खरीफ में  सोयाबीन 30-45 सेमी. पंक्ति से पंक्ति के फासले पर तथा बसंन्तकालीन फसल में 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। पौधे से पौधे का अन्तर 5 से 8 से. मी. रखना उचित होता है। बसंत ऋतु में 100 किग्रा. प्रति हे. बीज की आवश्यकता होती है। सोयाबीन की खेती में बीज बोने की गहराई का भी विशेष महत्व है। बीज बोने की गहराई मृदा की किस्म व उसमें नमी की मात्रा और बीज के आकार पर निर्भर करती है। सोयाबीन बीज की बुवाई हल्की मिटटी  में 3-5 से.मी. तथा चिकनी व इष्टतम नमी युक्त  चिकनी व भारी मिट्टी में 2-3 सेमी. की गहराई पर ही करनी चाहिए अन्यथा बीज को चींटियाँ   क्षति पहुंचा सकते हैं। बोने के बाद बीज को लगभग 8-10 दिन तक पक्षियों से बचाए रखें ताकि नवजात पौधों को क्षति न पहुँचे।
बीजोपचार
           प्रारंभिक अवस्था में पौधों को फफूँदजनक रोगोंसे बचाने के लिए 1.5 ग्राम थायरम व 1.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) प्रति कि.ग्रा. बीज से बीजोपचार करें। बीजोपचार के समय हाथों में दस्ताने  पहनें और मुँह पर कपड़ा लपेटें या फेसमास्क लगाएँ। वायुमंडल की नाइट्रोजन पौधे को उपलब्ध होती रहे व भूमि की उर्वरा शक्ति भी अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने के लिए उपरोक्त उपचारित बीज को  पुनः सोयाबीन के राइजोबियम कल्चर  25 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज के साथ कल्चर को  अच्छी प्रकार से मिलाने के लिए 10 प्रतिशत गुड़ का घोल (100 ग्राम गुड़ एक लीटर पानी) बनाकर 15 मिनट उबालकर, कमरे के तापक्रम पर ठण्डा कर लेते हैं। इसमें कल्चर का एक पैकेट (250 ग्राम) डालकर  अच्छी तरह से मिलाते हैं। कल्चर के इस मिश्रण को  10 किग्रा. बीज पर डालकर एक समान मात्रा में मिलाकर छाया में सुखाया जाता है। जिस ख्¨त में पहली बार स¨याबीन ली जा रही है उसमें कल्चर की दुगनी या तीन गुनी मात्रा  का प्रयोग करना चाहिए । कल्चर को  अधिक गर्म या ठंडे स्थानो  पर रखने से इसके जीवाणु मर जाते है तथा यह प्रभावी नहीं रह पाता है । राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार करने से पौधों की जड़ों में ग्रंथियाँ  अधिक संख्या में बनती हैं, जिनसे वायुमंडली नाइट्रोजन पौधे को प्राप्त होती है। ध्यान रखें कि फफूँदनाशक दवा एंव राइजोबियम कल्चर को एक साथ मिलाकर कभी भी बीजोपचार नहीं करना चाहिए। उपचारित बीज को ठंडे व छायादार जगह पर रखें तथा यथाशीघ्र बुवाई करना चाहिए। राइजोबियम कल्चर न मिलने पर किसी भी खेत  की मिट्टी, (जहां पूर्व में 2-3 वर्ष से सोयाबीन लगाई जा रही ह¨) 15 सेमी. की गहराई से खोदकर  10-12 क्विंटल  की दर से मिटटी में मिलाना चाहिए ।
बोआई विधियाँ
            सोयाबीन की बुवाई छिंटकवां विधि, सीड ड्रिल से या देशी हल के पीछे कूँड़ो  में की जाती है । आमतौर पर सोयाबीन छिटकवाँ विधि से बोया जाता है। यह वैज्ञानिक विधि नहीं हैं क्योंकि इस विधि में पौधे असमान दूरी पर स्थापित होते हैं, बीज अधिक लगता है और फसल की निराई-गुडाई व कटाई में असुविधा होती है। देशी हल के पीछे अथवा सीड ड्रिल से कतार में बोआई  करने पर बीज कम लगता है और पौधे समान दूरी पर स्थापित होते है। हल के पीछे कूडो़ में सोयाबीन की बुआई करने पर देशी हल से संस्तुत दूरी पर कूँड बना लिये जाते हैं जिनमें बीज को डालकर हल्की मिट्टी से ढँक दिया जाता है। अधिक क्षेत्र में बोनी हेतु ट्रैक्टर या पशु चलित बुवाई मशीन (सीड ड्रिल) का प्रयोग किया जाता है। फसल बोने के एक सप्ताह बाद यदि कूँड़ में किसी स्थान पर अंकुरण न हुआ हो  तथा मृदा में नमी हो तो   खुरपी की सहायता से रिक्त स्थानो  में बीज की बुवाई कर देने से अच्छी  उपज हेतु  खेत में बांछित पौध संख्या स्थापित हो जाती है।
खाद एंव उर्वरक
    सोयाबीन के पौधों को अच्छी वृद्धि, समुचित विकास, भरपूर उपज और बढ़िया गुणों के लिए समुचित पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। मृदा परीक्षण के बाद पोषक तत्वों की आपूर्ति जैविक खाद और रासायनिक उर्वरक देकर करनी चाहिए। सोयाबीन की 30 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देने वाली फसल की कायिक वृद्धि  और बीज निमार्ण के लिए लगभग 325 किग्रा. नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है।  परन्तु दलहनी फसल होने के कारण अपनी जड़ ग्रंथिकाओं द्वारा वायुमंडल से नाइड्रोजन ग्रहण करके पौधों को उपलब्ध कराती है। पौधों में ये ग्रंथिकाएँ अधिक हों और वे प्रभावकारी ढ़ग से कार्य करें, तो फसल के लिए आवश्यक नाइट्रोजन संस्थापित हो जाती हैं। इसके लिए राइजोबियम कल्चर से बीज निवेशन  करना आवश्यक है। राइजोबियम कल्चर उपलब्घ न होने पर नाइट्रोजन धारी खाद अधिक मात्रा में उपयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन युक्त खाद अधिक मात्रा में देने की अपेक्षा जीवाणु संवर्ध  देना अधिक उत्तम रहता है। फसल की प्रारंभिक बढ़वार के लिए नाइट्रोजन देना लाभकारी रहता है। प्रति हेक्टेयर 10-12 टन गोबर की खाद के साथ 20 किग्रा. नत्रजन बोआई के समय देने से उपज में वृद्धि होती है, साथ ही भूमि की उर्वरता भी बनी रहती है। फूल आने से तुरन्त पहले की अवस्था सोयाबीन के लिए नाइट्रोजन आवश्यकता का क्रान्तिक समय है। जहाँ जीवाणु संवर्ध का प्रयोग नहीं किया गया है, वहाँ फसल की कायिक वृद्धि और अधिक उपज के लिए 120-150 किग्रा. नाइट्रोजन देना चाहिए।
    पौधों की वृद्धि व जड़ों के विकास के लिए फास्फोरस भी उपयोगी तत्व है। फास्फोरस 60-70 किग्रा./हे. देने से उपज व दानों के भार में वृद्धि होती है। इस खाद का 5-25 प्रतिशत भाग ही प्रथम वर्ष में पौधों को प्राप्त हो पाता है। जड़ ग्रंथियों व फल्लियों का विकास, दाने भरने तथा फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पोटाश का उपयोग करना आवयक है। सामान्य तौर पर भारतीय मृदाओं में पोटाश की आवयकता नहीं होती है। मृदा परीक्षण के आधार पर पोटाश की कमी वाली मृदाओं में पोटाश देना आवश्यक होता है। मृदा परीक्षण की सुविधा न हो , तो 30-40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। तीनों उर्वरकों को बोआई के समय कूँड में बीच के नीचे प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में डालने से सल्फर और कैल्सियम तत्वों की आपूर्ति भी हो जाती है।जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में बुआई के समय 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट देना लाभकारी पाया गया है। खडी फसल में 5 किग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 किग्रा. बुझा हुआ चूना 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करने से उपज में वृद्धि होती है।
खरपतवार प्रबन्धन
    सोयाबीन के उत्पादन में खरपतवार प्रकोप की विशेष समस्या आती है और खेत में उपलब्ध नमी एंव पोषक तत्वों का अधिकांश भाग ये खरपतवार ही ग्रहण कर लेते हैं।फलस्वरूप उपज में 50-60 प्रतिशत तक हांनि हो सकती है। सोयाबीन फसल के प्रारंभिक 45 दिन तक खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना आवश्यक है ताकि उपज पर विपरीत प्रभाव न पड़े। खरपतवार नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है-
1. यांत्रिक विधि: सोयाबीन फसल की दो बार निराई-गुड़ाई (पहली 15-20 दिन के अन्दर व दूसरी 30-35 दिन पर) करने की सिफारिश की जाती है। यह कार्य खुरपी, हैण्ड हो, डोरा आदि यंत्रों से किया जाता सकता है ।
2. रासायनिक विधि: खरीफ में प्रायः वर्षा के कारण समय पर प्रभावशाली ढंग से निराई या गुडा़ई कर पाना संभव नहीं हो पाता है । अतः ऐसी परिस्थितियों में नींदानाशक रसायन का प्रयोग सुविधाजनक व लाभप्रद होता है।फसल बोने से पूर्व फ्लूक्लोरालिन 45 ई.सी.(बासालिन) या ट्राइफलूरालिन 48 ईसी (तुफान, त्रिनेम) की 2.5 लीटर मात्रा को 500-600 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे. छिड़काव करके कल्टीवेटर या हल आदि से मिट्टी में मिला देना चाहिए। बुआई पूर्व क्लोरिम्यूरान इथाइल 25 डब्लूपी (क्लोबेन) 40 ग्राम प्रति हे. को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से भी खरपतवार नियंत्रित हो जाते है। बोने के तुरंत बाद एलाक्लोर 50 ईसी. (लासो) सोयाबीन बोने के तुरंत बाद 2 कि.ग्रा. दवा 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे. छिड़काव करें । फसल अंकुरण पश्चात् खरपतवार नियंत्रण हेतु फयूजीफाप 25 ई.सी. (फयूजीलेड) 0.25 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग करते है। आजकल घास कुल के खरपतवारो  पर नियंत्रण  पाने के लिए अंकुरण पश्चात क्वीजालफॉप-इथाइल 50 ग्राम प्रति हैक्टर क¨ 750-800 लीटर पानी में घ¨लकर ब¨ने के 25 दिन बाद छिड़काव करने की सलाह दी जाती है ।
सिंचाई
    सोयाबीन साधारणतः वर्षाधारित फसल है परन्तु लम्बे समय तक वर्षा न हो, तो सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है। सोयाबीन की अच्छी फसल को 45-50 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। सोयाबीन में फूलने, फलने, दाना बनने तथा दानों के विकास का समय पानी के लिए बहुत ही क्रांतिक  होता है। इन अवस्थाओं  में पानी की कमी होने से फूल गिर जाते हैं, फल्लियाँ   कम लगती हैं, दाने का आकार छोटा हो जाता है, फलस्वरूप उपज घट जाती है। लम्बे समय तक सूखे की अवस्था में एक सिंचाई फल्लियों में दाना भरते समय अवश्य देना चाहिए। बलुई मृदा में भारी मिट्टियो  की अपेक्षा सिंचाई अधिक बार करनी पड़ती है। फसल की प्रारम्भिक अवस्था में अधिक सिंचाई से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है जिससे  पौधे जमीन पर गिर जाते हैं जिससे उपज कम हो जाती है। लगातार या भारी वर्षा होने पर ख्¨त में जल निकास की उचित व्यवस्था करना आवश्यक रहता है।
कटाई एंव गहाई
    सोयाबीन फसल तैयार होने में किस्म के अनुसार 90-140 दिन लगते है। पकने पर पत्तियाँ पीली होकर गिरने लगती है। जब फल्लियाँ (90 से 95 प्रतिशत) भूरे या गाढ़े भूरे रंग की हो  जाये तब कटाई करनी चाहिए। इस समय बीज में 15-18 प्रतिशत नमी होती है। देर से कटाई करने पर फल्लियाँ चटकने  लगती हैं व उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फसल की कटाई हँसिया या कम्बाइन हारवेस्टर द्वारा की जाती हैं। कटी हुई फसल को खलियान में रखकर 8-10 दिन तक सुखाया जाता है। इसके पश्चात् डंडो से पीटकर या बैलों से दाय चलाकर या ट्रैक्टर  से मड़ाई करते  हैं।मड़ाई सावधानी से करें जिससे बीजो  को क्षति न पहुँचे क्योंकि सोयाबीन के बीज मुलायम होते है। सोयाबीन के दाने में हरापन क्लोरोफिल तथा पीलापन एन्थोसायनिन पिगमेंट के कारण होता है।
उपज एंव भंडारण
    सोयाबीन की फसल पर जलवायु तथा मृदा कारकों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। साधारण दशा में इसकी उपज 20-25 क्विंटल  प्रति हे. तक ली जा सकती है। सोयाबीन का भूसा पशुओं के लिए पौष्टिक चारा है। बीज को साफ कर, अच्छी तरह सुखाना चाहिए और जब बीज में नमी का अंश 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाए तभी हवादार स्थान में भंडारण करना चाहिए। सोयाबीन के बीज को एक साल से अधिक भण्डारित नही करना चाहिए। क्योंकि इसमें तेल की मात्रा अधिक होने के कारण खटास उत्पन्न हो जाती है।

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

सदा बहार तिलहनी फसल- सूरजमुखी


                                                                           डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                   प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                         इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

 सूरजमुखी का महत्व 

                       सूरजमूखी पुष्पन अवस्था में यह फसल खेती के अधीन आने वाले सारे क्षेत्र को सुन्दर व दर्शनीय बना देती है और पकने पर यह हमें उच्च कोटि का खाद्य तेल प्रदान करती है। प्राकश व ताप असंवेदी  होने के कारण इस फसल पर प्रकाश व तापक्रम का प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः वर्ष में किसी भी समय इसे उगाया जा सकता है। इसलिए इस फसल को  सभी मोसमो  की फसल की संज्ञा दी गई है । कम अवधि (90 - 100 दिन) में तैयार होने के कारण बहु फसली खेती के लिए यह एक उत्तम फसल है। सूर्यमुखी से कम बीज दर  में थोड़े समय में अधिक बीज उत्पादन  किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी के बीज में 40 - 50 प्रतिशत तेल व 20 - 25 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है। सूर्यमुखी का तेल स्वादिष्ट एवं विटामिन ए, डी और ई से परिपूर्ण होता है। इसका तेल हल्के पीले  रंग, स्निग्ध गंध, उच्च धूम बिन्दु वाला होता है जिसमें  बहु - असतृप्त वसा अम्ल विशेष रूप से लिनोलीइक अम्ल की अधिकता (64 प्रतिशत) होती है, जो कि रूधिर कोलेस्टेराल की वृद्धि को रोकने  के अलावा उस पर अपचायक प्रभाव  भी डालता है । इसलिए ह्रदय रोगियों के लिए इसका तेल लाभप्रद पाया गया है। पोषण महत्व की दृष्टि से लिनोलीइक अम्ल अत्यावश्यक वसा अम्ल है, जिसकी आपूर्ति आहार
 द्वारा होती है। इसलिए सूर्यमुखी का तेल अधिकांश वनस्पति तेलो की अपेक्षा बेहतर और कुसुम के तेल के समकक्ष माना जाता है। इसके तेल का उपयोग वनस्पति घी (डालडा) तैैयार करने में भी किया जाता है। इसकी गिरी  काफी स्वादिष्ट होती है। इसे कच्चा या भूनकर मूँगफली की भाँति खाया जाता है। गिरी का प्रयोग चिरौंजी या खरबूजे की गिरी के स्थान पर किया जाता है। तेल निकालने के पश्चात् प्राप्त खली पशुओं को खिलाने के लिए उपयोगी है जिसमें 40 - 44 प्रतिशत प्रोटीन होती है। सूरजमुखी की उपज बाजार में अच्छे मूल्य पर आसानी से बेची जा सकती है। सूरजमुखी की फसल के साथ मधुमक्खी पालन भी किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी (हेलिऐन्थस ऐनुअस एल) के वंश नाम की उत्पत्ति ग्रीक शब्दों हेलिआस जिसका अर्थ है सूर्य एवं ऐन्थस (फूल) से हुई है। इसका फ्रैंच नाम टूर्नेसाल है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - सूर्य के साथ घूमना। सूर्यमुखी का जन्म स्थान दक्षिण पश्चिमी अमेरिका एवं मेक्सिको माना जाता है। मेक्सिको से स्पेन होते हुए यह यूरोप पहुँची जहाँ पर अलंकारित पौधों  के रूप मे सूर्यमुखी उगाई जाने लगी तथा पूर्वी यूरोप तिलहन फसल के रूप में इसकी खेती प्रारम्भ हुई।  दुनियां में सूर्यमुखी की ख्¨ती 21.48 मिलियन हैक्टर क्षेत्र फल में की गई जिससे 1227.4 किग्रा. प्रति हैक्ट की दर से 26.366 मिलियन टन उत्पादन दर्ज किया गया । सर्वाधिक रकबे  में सूर्यमुखी उगाने वाले  प्रथम तीन देशो  में रूस, यूक्रेन व भारत देश आते है जबकि उत्पादन में रूस, अर्जेन्टिना एवं यूक्रेन आते है । प्रति हैक्टर औसत उपज के मामले  में फ्रांस प्रथम (2373.5 किग्रा), चीन द्वितिय (1785.7 किग्रा) एवं और अर्जेन्टिना तृतीय (1701.4 किग्रा.) स्थान पर स्थापित रहे है । भारत में सूर्यमुखी को लगभग 1.81 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में लगाया जाता हे  जिससे  लगभग 1.16 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता है  तथा 639 किग्रा. प्रति हैक्टर  हे  औशत उपज आती हे  । सबसे अधिक क्षेत्र फल में सूर्यमुखी उगाने तथा अधिकतम उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन राज्यो  में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र राज्य है जबकि औसत उपज के मामले  में उत्तर प्रदेश प्रथम (1889 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाना द्वितिय (1650 किग्रा. प्रति हैक्टर) एवं बिहार तृतीय (1388 किग्रा) स्थान पर रहे है । छत्तीसगढ़ में सुर्यमुखी की खेती सभी जिलो  में कुछ न कुछ  में की जा  रही है । रायगढ़, राजनांदगांव, दुर्ग, महासमुन्द एवं बिलासपुर जिलो  में सूर्यमुखी बड़े पैमाने पर उगाया जा रहा है । सवसे अधिक उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन जिलों  में रायगढ़, राजनांदगांव व दुर्ग जिले  आते है । ओसत उपज के मामले  में रायगढ़ जिले  का प्रथम स्थान (1410 किग्रा. प्रति हैक्टर) है, जिसके बाद धमतरी और  महासमुन्द जिलो   का स्थान आता है ।

उपयुक्त जलवायु

    सूरजमुखी प्रकाशकाल  के प्रति असंवेदनशील, कम अवधि तथा अधिक अनुकूलन के कारण सभी मौसमों की फसल कहलाती है। सुखाग्रस्त  अथवा बारानी क्षेत्रों में यह फसल देरी से (अगस्त में ) एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे रबी के मौसम (अक्टूबर - नवम्बर) मे उगाया जाता है। सिंचाई की सुविधा हो तो जायद(गर्मी) के मौसम में भी इसे उगाया जा सकता है। उन क्षेत्रों में जहाँ समान रूप से वितरित 500 - 700 मिमी. वार्षिक वर्षा होती है तथा फूल आने के पूर्व समाप्त हो जाती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। फुल और बीज बनते समय तेज वर्षा और हवा से फसल गिर जाती है। सूरजमुखी की वानस्पतिक वृद्धि  के समय गर्म एवं नम जलवायु की आवश्यकता होती है, परन्तु फल आने और परिपक्व होने  के समय चटक धूप वाले दिन आवश्यक है। बीज अंकुरण एवं पौध बढ़वार के समय ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है। बीज अंकुरण के समय 25-30 डि.से.तापक्रम अच्छा रहता है तथा 15 डि.से.  से कम तापक्रम पर अंकुरण प्रभावित होता है। इसकी फसल क¨ 20-25 डि.से.    तापक्रम की आवश्यकता होती है। गर्म दिन और ठण्डी रातें फसल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। सामान्यतौर पर फुल आते समय  से अधिक तापक्रम होने पर बीज की उपज और तेल की मात्रा मे गिरावट होती है। इसी प्रकार  16 डि.से.   से कम तापमान होने पर बीज निर्माण व तेल प्रतिशत मे कमी आती है। आतपौध्भिद होते हुए भी सूरजमुखी मक्का व आलू की तुलना में छाया को अधिक अच्छी तरह सहन कर सकती है। इसके पौधे का आतपानुवर्ती संचलन मुख्यतया धूप के फलस्वरूप विभेदी आक्सिन सांद्रणों के कारण तने के मुड़ने से होता है। आक्सिन के अंतर्जात उद्दीपन के कारण होने वाले इस प्रकार के संचलन को हैबिट कहते है। शीत ऋतु में कम तापमान होने के कारण फसल देर से परिपक्व (लगभग 130 दिन में) ह¨ती है, जबकि खरीफ के मोसम में उच्च तापमान ह¨ने के कारण यह शीघ्र पकती (80 दिन) है ।
 भूमि का चयन 
    सूर्यमुखी की खेती सिंचित बलुई मृदाओं से लेकर उच्च जल धारण क्षमता वाली मटियार मृदाओ तक तथा 6.5 से 8.0 पीएच मान वाली विविध प्रकार की भूमियो मे की जा सकती है। अच्छी उपज के लिए गहरी, उर्वरा, जैवांश युक्त तथा उदासीन अभिक्रिया वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम है। खरीफ की फसल हल्की, रेतीली और पानी के उत्तम निकास वाली भूमि मे ली जा सकती है। यह फसल अस्थाई सूखे का मुकाबला कर सकती है और इसलिए इसे कम वर्षा होने वाले क्षेत्रो मे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। रबी फसल के लिए दोमट - कपास की काली मिट्टी  जो काफी दिनों तक नमी संरक्षित रख सके, इसके लिए उपयुक्त होती है।

भूमि की तैयारी

    सूरजमुखी के लिए ख्¨त की मृदा हल्की एवं भुरभुरी  होनी चाहिए । पिछली फसल काटने के पश्चात् खेत मे एक या दो बार हल या कल्टीवेटर चलाकर खरपतवार नष्ट करते हुए मिट्टी भुरभुरी एवं समतल कर लेनी चाहिए। अंतिम जुताई करने से पूर्व 25 किलो क्लोरपायरीफास प्रति हेक्टेयर बुरक देना चाहिए। रबी की फसल के लिए भूमि की तैयारी अन्य रबी फसलों के समान ही करना चाहिए। वर्षा निर्भर क्षेत्रों मे नमी संरक्षण हेतु उपाय करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ की फसल काटने के तुरंत बाद, जमीन की परिस्थिति के अनुसार जुताई करनी चाहिए। दो या तीन बार कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा द्वारा भूमि को समतल  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीज का छिलका मोटा होने के कारण नमी को  धीमी गति से सोखते है । इसलिए बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का रहना आवश्यक पाया गया है । जलभराव की स्थिति क¨ यह फसल सहन नही कर सकती है । अतः खेत मे जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था करना भी आवश्यक है।

उन्नत किस्में

    सूर्यमुखी की संकुल किस्मों (माडर्न तथा रशियन किस्में) से कम तथा संकर किस्मो से अधिक उपज प्राप्त होती है।रशियन किस्में  में विन्मिक, पेरिडविक, अर्माविसर्कज ,अर्माविरेक आदि है ।
सूरजमुखी की संकर व उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
किस्म का नाम                     अवधि (दिन)        उपज (क्विंटल /हे.)        तेल (%)
मार्डन                                     80 - 85                           7 - 8            38 - 39
विनियमन                             115 - 120                    15 - 25            41 - 43
ज्वालामुखी (संकर)                 95 - 115                     25 - 28            39 - 40
दिव्यमुखी (संकर)                    85 - 90                      25 - 28            41 - 42
एमएसएफएच.-8(संकर)          90 - 95                      25 - 28            42 - 44
एमएसएफएच-17(संकर)       100 - 105                   10 - 15            42 - 44
केबीएसएच-1(संकर)                 90 - 95                    18 - 20            41 - 42
केबीएसएच-44(संकर)            105 - 110                   20 - 25            42 - 44

सूर्यमुखी की अन्य संकर व उन्नत किस्मो  के गुणधर्म

1. जेएसएल-1 (जवाहर सूर्यमुखी): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस व काले रंग का चमटा होता है। यह किस्म जल्दी अर्थात् 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत पैदावार 15 से 20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों मे खरीफ एवं रबी मौसमों के लिये उपयुक्त है।
2. अर्माविस्किज (ई. सी. 68415): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस, हल्के काले रंग का तथा कुछ छोटा रहता है। यह किस्म 125से 130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। उपज क्षमता 9-10 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। यह खरी मौसम के लिए मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह रसियन किस्म है।
3. पैरिडोविक (ई. सी. 68414): इस किस्म का दाना ई. सी. 64415 के समान ही होता है, लेकिन रंग का गहरा काल होता है। यह देरी से (130 से 135 दिनों में) पकती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत होती है। औसत पैदावार 10 से 12 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। खरीफ एवं रबी दोनों मौसमों मे मालवा एवं निमाड़ क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह भी रसियन किस्म है।
4. डीआरएसएफ-108: यह 90 - 95 दिन मे तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 40 प्रतिशत तेल होता है। असिंचित क्षेत्रों में खरीफ ऋतु के लिए उपयुक्त किस्म है।
5. एमएलएसएफएच-82: यह 85-100 दिन में तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 35 प्रतिशत तेल ह¨ता है। मध्य प्रदेश एवं छत्तिससगढ़ के लिए उपयुक्त संकर किस्म है।

बीज दर एवं बीज उपचार

    सूरजमुखी का  प्रमाणित बीज ही उपयोग में लाना चाहिए। सूरजमुखी के बीज भार में हलके (5.6 से 7.5 ग्राम प्रति 100 बीज) ह¨ते है । सूरजमुखी की संकुल किस्मों के लिए 8-10 किग्रा. तथा संकर किस्मो के लिए 6-7 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है।बुआई के पूर्व बीज को 24 घंटे पानी में भिगोकर बोने से अंकुरण प्रतिशत बढ़ता है। बोनी के पूर्व बीज को कैप्टान या थाइरम नामक फफूँदनाशक दवा (3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज) से उपचारित करना आवश्यक है। इससे फफूँदी रोग नहीं हो पाता ।
बोआई का समय
    बहुत सी फसलो की तरह सूर्यमुखी दिन की अवधि तथा ऋतु विशेष से प्रभावित नहीं होती है और इसलिए इसकी ब¨आई किसी भी समय की जा सकती है । अत्यधिक ठण्डे मौसम को छोड़कर वर्ष के प्रायः सभी महीनो में सूर्यमुखी की बुआई की जा सकती है। खरीफ की फसल विशेषकर बारानी क्षेत्रों में अगस्त के दूसरे या तीसरे सप्ताह मे इसकी बोनी करनी चाहिये। जून व जुलाई माह में बोनी करने से उपज प्रायः कम होती है। क्योंकि परागण क्रिया करने वाले कीड़े बहुत कम आते है जिससे बीज का निर्माण ही नहीं होता या सभी बीज पोचे रह जाते है। अतः विभिन्न क्षेत्रों में बोनी का समय इस तरह निर्धारित करना चाहिए जिससे फसल मे फूल बनते समय अधिक व लगातार वर्षा न हो। सूखग्रस्त क्षेत्रों में अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक ब¨नी की जा सकती है। वसन्तकालिक फसल की बोआई 15 जनवरी से 2 0 फरवरी तक करना उचित रहता है ।

बोआई की विधियाँ

    सूर्यमुखी की बुआई कतार या डिबलिंग विधि से करनी चाहिए। संकुल किस्मों में पंक्तियों का फासला 45 सेमी. कतार  से कतार तथा 15 से 20 सेमी. पौध  से पौध अंतर रखना चाहिए। संकर किस्मों की बोनी 60 - 75 सेमी. दूर कतारों में तथा पौध  से  पौध के बीच की दूरी 20 से 25 सेमी. रखना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 60 - 70 हजार पौधे प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहते है। बीज क¨ 2-4 सेमी. की गहराई पर ब¨ना उचित पाया गया है । गर्मी के समय उच्च तापमान ह¨ने के कारण मृदा की ऊपरी परत से नमी शीघ्र सूख जाती है, अतः ब¨आई 4 सेमी. की गहराई पर करना लाभकारी पाया गया है । सूरजमूखी के दानों का अंकुरण धान्यों की अपेक्षा अधिक देर से होता है, क्योकि इसके बीज का छिलका मोटा ह¨ने के कारण उनमें जल अवश¨षण  धीमी गति से ह¨ता है साथ ही इसका अंकुरण भी उपरिभूमिक  होता है। इसके अलावा मृदा की पपड़ी (क्रस्ट) अंकुरण की गति को और  अधिक मंद कर सकती है । उचित नमी एवं तापमान पर सूर्यमुखी के बीज का जमाव  प्रायः 8-10 दिन में हो जाता है।

खाद एवं उर्वरक

    पौधों की बढ़वार के लिए नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश आवश्यक तत्व है। नत्रजन तत्व की कमी से पौधो  की बढ़वार मंद पड़ जाती है । जड़ो  का विकास, बीज का आकार, उचित दाना भराव  व तेल में  बढ़ोत्र री के लिए फास्फोरस आवश्यक पोषक तत्व माना गया है। दाना भराव व रोग रोधित के लिए पोटाश एक उपयोगी तत्व है। पोटेशियम की अत्याधिक कमी ह¨ने से बीज खाली रह जाते है । दो या तीन वर्ष में एक बार 25 से 30 गाड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में 30 किग्रा. नत्र्ाजन, 30 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोनी के साथ देना चाहिए। सिंचितक्षेत्र   मे 60-8 0  किग्रा. नत्रजन , 60 किग्रा. स्फुर तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर देना चाहिए । सिंचित क्षेत्रों में बोनी के समय स्फुर पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा देनी चाहिये। शेष आधी नत्रजन की मात्रा फसल बोने के लगभग एक महीने के बाद सिंचाई के पहले देना चाहिये। लगातार सघन कृषि पद्धतियों से जस्ते व गंधक की भूमि में कमी देखी जा रही है। तिलहनी फसल होने के कारण सूर्यमुखी को सल्फर तत्व की आवश्यकता पड़ती है। बुआई के समय 20-25 किग्रा. जिंक सल्फेट देना लाभप्रद रहता है। यदि फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाता है, तो अलग से सल्फर देने की आवश्यकता नहीं होती है। बुआई के समय सुपर फॉस्फेट या जिंक सल्फेट नहीं दिया गया है तो फसल में फूल आने की अवस्था में जिंक सल्फेट  2.5 किग्रा. और चूना 1.25 किग्रा. को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना भी लाभकारी पाया गया है।

सिंचाई

    खरीफ ऋतु में लगाई गई सूर्यमुखी की फसल क¨ सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । अवर्षा अथवा सूख्¨ की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । भारी वर्षा होने पर खेत से जल निकासी आवश्यक है । रबी एवं जायद की सूर्यमुखी मे तीन सिंचाईयाँ प्रथम बोआई के 40 दिन बाद, द्वितिय बोआई के 75 दिन बाद (पुष्पन अवस्था) तथा तृतीय बोआई के 100 दिन बाद (दाना भरते समय) देना लाभ कारी रहता है । पुष्पन एवं दानो  के विकास की अवस्था पर नमी की कमी का फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । शीतकालीन या बसन्तकालीन सूर्यमुखी की बोआई एक हलकी सिंचाई करने के बाद करना लाभप्रद होता है ।

खरपतवार नियंत्रण

    अंकुरण के 10 - 12 दिन बाद पौधों - से - पौधों का अंतर 20 सेमी. रखने के लिये अनावश्यक पौधों को उखाड़ देना चाहिये तथा एक स्थान पर केवल एक ही पौधा रखना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच में एक-दो बार गुड़ाई (बुआई के 25-30 से दिन व 40-50 दिन) करना चाहिये। सूरजमुखी का फूल भारी और बड़ा होता है जिसके कारण आँधी-पानी से पौधे गिर सकते हैं। अतः दूसरी गुड़ाई के समय पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। खरपतार नियंत्रण हेतु 1 किग्रा. फ्लूक्लोरैलिन (बासालिन 45 ईसी) या पेन्डीमिथिलीन (स्टाम्प 30 ईसी) 3 लीटर प्रति हेक्टेयर का 600 - 800 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करना चाहिये।

परसेचन क्रिया

    सूरजमुखी सामान्यतः परपागित फसल है। अतः अच्छे बीज पड़ने एवं उनके भराव  हेतु परसेचन क्रिया नितान्त आवश्यक है मधुमक्खियों की उपुक्त संख्या होने पर ही परागण अच्छा होता है सूरजमुखी में फूल आते समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मधुमक्खियों के 2-3 छत्तों को एक माह तक रख कर मुण्डकों  में पर परागण की क्रिया को बढ़ाया जा सकता है। मधुमक्खियों की सुरक्षा हेतु कीटनाशकों का प्रयोग कम-से -कम करना चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में मक्खियों की संख्या में कमी आ जाती है। अतः कृत्रिम परसेचन करना आवश्यक हो जाता है। इसके लिए पौधों में अच्छी तरह फल के मुंडक पर चारों ओर धीरे-धीरे घुमा देना चाहिये, जिससे परागकण आसानी से पूरे मुंडक में पहुँचकर परसेचन क्रिया में सहायक हो जाये। यह क्रिया प्रातः काल 7 बजे से 10 बजे के मध्य, एक दिन के अन्तराल से 3-4 बार करनी चाहिए। 
पक्षियों से फसल की रखवाली
    सूरजमुखी में दाना बनते समय फसल की पक्षियों से रक्षा करना चाहिए। फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने   वाला पक्षी तोता होता है। इससे बचाव के लिए पक्षियो को उड़ाने वाले कुछ साधनों जैसे बिजूखा लगाना, पटाखा चलाना या ढोल बजाने की संस्तुति की गयी है।

फसल पद्धति

    सूरजमुखी दिन की लम्बाई के प्रति अपनी अभिक्रिया में प्रकाश उदासीन   होने के कारण इसे प्रायः सभी प्रकार के फसल चक्रों में सम्मिलित किया जा सकता है। उत्तरी भारत में यह मक्का-तोरिया/राई-सूरजमुखी, धान-सूरजमुखी, मक्का-मटर-सूरजमुखी, मक्का-आलू-सूरजमुखी आदि फसल चक्रों  में उगाई जा सकती है। अन्तः फसली खेती  के अन्तर्गत सूरजमुखी + मूँगफली (2.4), अरहर + सूरजमुखी (1.2), सूरजमुखी + सोयाबीन (3.3), सूरजमुखी + उड़द (1.1), मूँगफली +सूरजमुखी (6.2 कतार अनुपात) में उगाना चाहिए।

कटाई एवं गहाई

    सूरजमुखी की फसल खरीफ में 80-90 दिन, रबी में 105-130 दिन तथा जायद में 100-110 दिन में तैयार हो जाती है। शीत ऋतु मे कम तापमान के कारण फसल अधिक समय में परिपक्व होती है। जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें, पुष्प आधार की पिछली सतह पीली पड़ जाए और ब्रेक्ट भूरे पड़ने लगे तो उस समय फसल को काटना उपयुक्त रहता है। यह अवस्था  सामान्यतया परागण  के लगभग 45 दिन बाद आती है। इस समय मुंडक सूखे नहीं दिखते है,परन्तु बीज पक जाते हैं। बीजों में इस समय लगभग 18 प्रतिशत नमी होती है। कटाई हँसिया से या हाथ से उखाड़  कर करते हैं तथा मुंडक को अलग कर लेते हैं। कटाई पश्चात सूरजमुखी के मुंडकों  को 5-6 दिन तक सुखाने के बाद डंडों से पीटकर बीज को अलग कर लिया जाता है। अधिक क्षेत्रफल में उगाई गई फसल की गहाई थ्रेसर से भी की जा सकती है। बीजों को साफ करने के बाद धूप में सुखा लेना चाहिए।

उपज एवं भंडारण

    सूरजमुखी की संकुल किस्मों से 15 - 20  एवं संकर क्विंटल किस्मों  से 20 - 30  क्विंटल  प्रति हे. उपज प्राप्त होती है। खरीफं ऋतु की अपेक्षा रबी एवं बसंत में सूर्यमुखी की उपज अधिक प्राप्त होती है। बीज को भंडारित करने के पूर्व 2-3 दिन तक अच्छी प्रकार से सुखाना आवश्यक है। जब बीजों में नमी की मात्रा 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाय तब उनको उचित स्थान पर संग्रहित  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीजों में सुसुप्तावस्था   लगभग 45 - 50 दिन की होती है।