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मंगलवार, 15 मार्च 2016

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और समृद्धि के लिए कारगर है सिसल की खेती



डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
 
अमेरिकन मूल का पौधा सिसल (अगेव) जिसे भारत में खेतकी तथा रामबांस कहते है। आमतौर पर सिसल को शुष्क क्षेत्रों में पशुओं और जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु खेत की मेड़ों पर लगाया जाता रहा है। अनेक स्थानों पर इसे शोभाकारी पौधे के रूप में भी लगाया जाता है। परन्तु अब यह एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक रेशा प्रदान करने वाली फसल के रूप में उभर रही है। इसकी पत्तियों से उच्च गुणवत्ता युक्त मजबूत और चमकीला प्राकृतिक रेशा प्राप्त होता है।  विश्व में रेशा प्रदान करने वाली प्रमुख फसलों में सिसल का छटवाँ स्थान है और पौध रेशा उत्पादन में दो प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्त्तमान में हमारे देश में लगभग 12000 टन सिसल रेशे का उत्पादन होता है, जबकि 50000 टन रेशे की आवश्यकता है।  भारत को प्रति वर्ष सिसल के रेशे अन्य देशों जैसे तंज़ानिया, केनिया आदि से आयात करना पड़ता है। 
क्या है सिसल ?
        सिसल यानि सेंचुरी प्लांट  (एगेव) प्रजाति की विभिन्न किस्मों  अर्थात एगेव सीसलानाaa  एगेव कैनटला,  अमेरिकाना, एगेव एमेनियेनसीस, एगेव फोरक्रोयडेस एगेव एनगुस्टीफोलिया इत्यादि  की पत्तियों से रेशा प्राप्त होता है। सीसल (एगेव सीसलाना) एगेव वर्ग के एगेभेसी वंशज के अन्तर्गत आता है। इसकी पत्तियां 2 से 3 फिट लम्बी होती है जिनके  अग्र भाग यानि टिप पर नुकीले कांटे होते है
सिसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश 
      विश्व में सीसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश ब्राजील, चीन, तनजानियां, केनिया, मोजाम्बिक और मेडागास्कर हैं. भारत में इसकी खेती उड़ीसा, छत्तीसगढ़,  मध्य प्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र्, बिहार और अन्य राज्यों में की जाती है।
सिसल का आर्थिक महत्त्व  
        भारत में पत्तियों से रेशा प्राप्ति वाली फसलों में सीसल अर्थात खेतकी एक अत्यधिक महत्वपूर्ण फसल है। सीसल के पौधों को उगाकर मिट्टी के कटाव को भी रोका जा सकता है। खेत के  चारों तरफ सीसल की बाड़ (फेंसिंग) लगाने से जानवरों से फसल की सुरक्षा की जा सकती है  इसका रेशा मजबूत सफ़ेद और चमकीला होता है।  इसका उपयोग समुद्री जहाज के लंगर का रस्सा और औद्योगिक कल-कारखानों में भी होता है। इसके अलावा गद्दी, चटाई, चारपाई बुनाई की रस्सी और घरेलू उपयोग में प्रयोग किया जाता है। सीसल का रेशा उत्कृष्ट किस्म के कागज बनाने में उपयोग किया जाता है। वर्तमान में इसका अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने में उपयोग किया जा रहा है। जैसे कि फिशिंग नेट, कुशन, ब्रश, स्ट्रेप चप्पल और फैन्सी सामग्री के रूप में लेडीज बैंग, कालीन, बेल्ट, फ्लोर  कवर, वाल कवर इत्यादि के अलावा घर को सजाने के लिए विभिनन प्रकार की सजावट की वस्तुएं बनायी जा रही हैं। सीसल के रेशे से बनायी गयी वस्तुएं अपेक्षाकृत मजबूत टिकाऊ  और सस्ती होती है। सीसल  रेशा निकलने के बाद शेष कचरे में हेकोजेनीन पाया जाता है। जिसका कारटीजोन हार्मोन बनाने में उपयोग किया जाता है।  इसके अलावा कचरे का उपयोग जैविक खाद के रूप में भी किया जाता है।
                               ऐसे करें सिसल की खेती 
उत्तम जलवायु 
         सीसल की खेती अधिकाशतः शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु में होती है। सीसल में कुछ समय तक सूखे की अवधि को सहन करने की क्षमता होती है। आमतौर पर पौधे की बढ़वार के लिए अनुकूल वर्षा चाहिए। अच्छी फसल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि पौध अवस्था के दिनों में वर्षा समय-समय पर हो। जहां वार्षिक वर्षो कम से कम 250 से 350  मिलीमीटर होती हो वहां इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सीसल की अच्छी फसल बढ़वार के लिए तापमान अधिक, मौसम सूखा,तेज धूप एवं अधिक समय तक प्रकाश की आवश्यकता होती है।
खेती के लिए मृदा का चयन 
          सीसल की खेती उचित जलनिकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है परन्तु बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है। इसके अलावा कंकरीली-पथरीली, ऊँची-नीची बंजर भूमियों में भी इसकी खेती की जा सकती है। ज्यादा अम्लीय और क्षारीय मिट्टिया इसकी खेती ¢ लिए उपयुक्त नहीं होती है।
खेत की तैयारी 
              खेती की तैयारी से पहले खरपतवारों  को साफ करके एक या दो बार जुताई करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि मिट्टी में वायु संचार जल धारण क्षमता बढ़ सके। मिट्टी की उपरी सतह को जहां तक संभव हो कम खोलना चाहिए। बुआई के लिए ढेलेदार मिट्टी पर्याप्त होती है।  जहां भूमि कटाव की संभावना हो वहां जुताई नहीं करनी चाहिए वहां कतारबध्द गडढे बनाकर सीसल की रोपाई करनी चाहिए।
पौध सामग्री  
       सीसल के पौधे में बहुधा बीज का विकास नहीं होता है।  इसका प्रगुणन वानस्पतिक विधि से किया जाता है। बुआई-रोपाई हेतु पौधे से उत्पन्न सकर्स और  बल्बिल्स उपयोग में लाये जाते है।  सीसल के जीवन काल के अन्त में एक लम्बे डण्डे के समान आकृति विकसित होती है जिसकी शाखाओं पर बल्बिल्स बनते हैं। एक पौधे से औसतन 500 से 2000  बल्बिस  की उत्पत्ति होती है। मध्य फरवरी से मध्य अप्रैल तक बल्बिल्स को संग्रह करके नर्सरी में बुआई कर देनी चाहिए। इसके अलावा सीसल के पौधों के मूल से प्रकन्द की उत्पत्ति होती है, जो 5 से 15 सेमी नीचे से निकलकर मिट्टी में समतल बढ़ते है और कुछ दूरी पर जाकर ऊपर की ओर उठने लगते है, जिन्हे  सकर्स के नाम से जाना जाता है। अपने जीवन काल में एक पौधा लगभग 20 से 30  सकर्स  उत्पन्न करता है। भारत में  सीसल की खेती के लिए मुख्यतः सकर्स  का अधिक प्रयोग किया जाता है।  सामान्यतौर पर एक से डेढ़  वर्ष  पुराने सकर्स को नर्सरी में पौध तैयार करना अच्छा रहता है।  बल्बिल्स से पौध तैयार करने में अधिक समय लगता है।
नर्सरी में पौधा कब और कैसे तैयार करें
  नर्सरी में सकर्स या बल्बिल्स को उगाकर अच्छे पौधे तैयार किये जा सकते हैं तथा इसकी रोपाई  अधिक भूखण्ड में की जा सकती है। जहां नर्सरी बनाई जाये वहां जल निकास का उचित प्रबंध, मिट्टी उपजाऊ, समतल और  सिंचाई की समुचित व्यवस्था आवश्यक है। नर्सरी वाले खेत की जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिटटी को अच्छी तरह  भुरभुरा करने की आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में प्राथमिक नर्सरी में नये स्वस्थ सकर्स या बल्बिल्स को कतार में 10 सेमी तथा पौध से पौध 5 सेमी की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। रोपाई के पश्चात् हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। पूर्णरूप से देख-रेख करने के 4-6 माह  पश्चात् इस पौध  यानि 20 से 30 सेमी ऊँचे पौधे  को प्राथमिक नर्सरी से चुनकर द्वितीय नर्सरी में उगाते है। रोपाई से  पहले  पौध की ख़राब  जड़ों और सूखी पत्तियों की छंटाई करके साफ करने के पश्चात् 50 x 25  सेंमी की दूरी पर द्वितीय नर्सरी में रोपाई  की जाती है। 
मुख्य खेत में रोपाई
 खेत  में निश्चित दुरी पर 30-40 सेमी गहरे गड्ढे बनाकर उसमे  जैविक खाद  को मिट्टी के साथ मिलाकर हल्का भरना चाहिए। रोपाई मानसून आरम्भ होने के साथ-साथ कर लेनी चाहिए। एक कतार में रोपाई विधि में पंक्ति से पंक्ति 2  मीटर की दूरी  तथा पौध से पौध ¢ बीच 1 मीटर की दूरी रखने पर एक हैक्टर में 5000  ©धे स्थापित हो जाते है दो कतारों के बीच खाली स्थान में आवश्यकतानुसार  फलीदार फसलों को उगाकर एक निश्चित भूखण्ड से अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
खाद एवं उर्वरक
     उर्वरक और खाद का प्रयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति ओर जलवायु के आधार पर किया जाता है। उपजाऊ जमीनों में उर्वरक देने की आवश्यकता नहीं होती है। अधिकतम रेशा उत्पादन के के लिए नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस तथा पोटाश क्रमशः60:30:60 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से गड्ढों में डालना चाहिए 
कटाई का समय   
      पत्तियों की कटाई, रोपाई से 2 से 3  वर्ष के बाद हंसिआ से करनी चाहिए। जब पत्तियां 60 सेमी या इससे अधिक लम्बी हो जायें और  पत्तियां मिट्टी को छूने लगें। कटाई नवम्बर से जून के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए। पौधो से पत्तियों की प्रथम कटाई के समय 16 पत्तियों को काटा जाता है और दूसरी कटाई के लिए 12 पत्तियों को प्रति पौधा छोड़ दिया जाता है। सीसल की पत्तियों की कटाई 3 से 6  माह के अंतराल की अपेक्षा वार्षिक कटाई लाभदायक सिध्द हुई है।
उपज एवं रेशा निष्कर्षण 
      सीसल का पौधा अपने पूरे जीवन काल अर्थात 7 से 8 वर्षो में लगभग 250 से 300  पत्तियों की उत्पत्ति करता है। एक पत्ती से सामान्यतः 20 से 30  ग्राम सूखा रेशा प्राप्त होता है। सामान्यतौर पर सीसल की पत्तियों में रेशे की मात्रा कुल हरे भाग का 4  प्रतिशत होती है। आमतौर पर सीसल की औसत उपज ढाई से चार  टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष प्राप्त होती है। यह पौधों की संख्या, जलवायु,  मिट्टी की उर्वरता तथा पौध प्रबंधन पर निर्भर करता है। पत्तियों की कटाई के पश्चात् डिकोरटीकेटर मशीन द्वारा रेशा निकालते है। रेशा पत्तियों की कटाई के साथ-साथ या कटाई के 48  घंटे के अन्दर निकाल लेना चाहिए। अन्यथा रेशा अच्छे किस्म का नहीं होता है। कटाई के पश्चात् पत्तियों को ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्ड गर्मी में सूर्य के प्रकाश में नही रखना चाहिए  अन्यथा रेशे की गुणवत्ता ख़राब हो सकती है। रेशा निकालने के पश्चात् इसे साफ पानी से अच्छी तरह धुलाई करके इन्हें निचोड़ने के तुरन्त बाद बांस के मचान पर रखकर सुखाया जाता है। जमीन या सड़कों पर रेशा सुखाने से रेशे गंदे हो जाते है। सूखे रेशे को खंभे से पटककर अनुपयुक्त कोशिकाओ को अलग करना चाहिए।  तत्पश्चात् रेशे को अच्छी तरह झाड-पोंछ और ब्रश करके एक या दो दिन सुखाते हैं। पूर्ण रूप से सुखाने के बाद रेशे का बंडल बनाकर बेचने के लिए बाजार भेज देते हैं।
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शुक्रवार, 11 मार्च 2016

ग्रामीणों की रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया बना चरोटा खरपतवार

         डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
           प्राध्यापक, सस्य विज्ञान
              इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                            
           
चकवत यानि  चरोटा एक खरपतवार के रूप में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों, सड़क किनारे और बंजर भूमियों में बरसात के समय अपने आप उगता है।   परन्तु बीते  3-4 वर्ष से  अनुपयोगी समझे जाना  वाला  एवं स्वमेव उगने वाला यह  खरपतवार अब  आदिवासी व ग्रामीणजनों के लिए   रोजगार एवं  आमदनी का प्रमुख साधन बनता जा रहा है। यकीनन वर्षा ऋतु में बेकार पड़ी भूमियों में  हरियाली बिखेरने वाले इस द्बिबीजपत्री वार्षिक पौधे को  मैनमार,  चीन, मध्य अमेरिका के  अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में  झारखण्ड, बिहार, ऑडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों  में बखूबी से देखा जा सकता है।
 चकवत के पौधे का परिचय  
               चकवत  के  पौधे को  पवाड़, पवाँर, चकवड़, संस्कृत में चक्रमर्द और  अग्रेजी में सिकल सेना के  नामों  से भी जाना जाता है जिसका वानस्पतिक नाम कैसिया तोरा लिनन बेकर) है।  लेग्यूमिनेसी कुल के  इस पौधे की ऊंचाई 30-90 सेमी होती है। पत्तियां तीन जोड़ी में बनती है। इसकी पत्तियों  को  मसलने पर विशेष प्रकार की गंध आती है। पोधें में  पुष्प जोड़ी में निकलते है जो कि पीले रंग के  होते है। चक्रवत में पुष्पन अवस्था प्रायः अगस्त-सितम्बर में आती है। फलियाँ हंसिया के  आकार की 15-25 सेमी लम्बी होती है। प्रति फल्ली 25-30 बीज विकसित होते है। बीज चमकीले हल्के  कत्थई या धूसर  रंग के   होते है।
चकवत के पौधे अम्लीय भूमि से लेकर क्षारीय भूमियों (4.6 से लेकर 7.9 पीएच मान) में सुगमता से उगते है। चकवत के पौधे 640 से लेकर 4200 मिमि. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से उगते है। इसके बीज 13 डिग्री सेग्रे. से कम  और 40 डिग्री सेग्रे. से अधिक तापक्रम पर नही उगते है।  पौध बढ़वार के लिए औसतन 25 डिग्री सेग्रे तापक्रम की आवश्यकता होती है।  प्रकाश अवधि का चकवत की  पौध वृद्धि पर प्रभाव पड़ता है।  प्रकाश अवधि 6 से 15  घंटे हो जाने पर  इसके पौधे अधिक वृद्धि करते है। एक समान प्रकाश अवधि में पौधे छोटे अकार के होते है। इसमें फल्लियाँ तभी बनती है जब इसे 8-11 घंटे  प्रकाश मिलता है।

बड़े काम का है चरोटा खरपतवार
           वर्षाकाल में झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश  आदिवासी व ग्रामीण लोग  चक्रवद की नवोदित और  मुलायम पत्तियों  तथा टहनियों का प्रयोग साग-भाजी के  रूप में करते है। इस पौधे के संम्पूर्ण भागों  यथा पत्तियाँ, तना, फूल, बीज एवं जड़ का उपयोग विविध प्रयोजनों  के  लिए किया जाता है। इसकी पत्तियां न केवल भाजी के  रूप में बल्कि कुमांयु के  कुछ क्षेत्रों  में चाय के  रूप में भी प्रयोग  की जाती है। चर्म रोगों के  लिए यह एक प्रभावकारी ओैषधि है साथ ही इसकी पत्तियों  को पुल्टिस के  रूप में घाव व फ़ोड़े पर प्रयोग किया जाता है। पोषक मान की दृष्टि से चक्रवत की हरी पत्तियों  में (प्रति 100 ग्राम खाने योग्य भाग में) 84.9 ग्राम नमी, 5 ग्राम प्रोटीन, 0.8 ग्राम वसा, 1.7 ग्राम खनिज, 2.1 ग्राम रेशा, 5.5 ग्राम कार्बोइड्रेट, 520 मिग्रा.कैल्शियम,39 मिग्रा.फाॅस्रफ़ोरस,124 मिग्रा. लोहा तथा 10152 मिग्रा.कैरोटीन के  अलावा थाइमिन, राइबोफ्लेविन,नियासिन, विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाई जाती है।
चक्रवत के  बीज का उपयोग
              चक्रवत के बीज से प्रमुख रूप से ग्रीन टी, चॉकलेट, आइसक्रीम के अलावा विविध आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाने में प्रयोग किया जा रहा  है। इसके  बीज को  भूनकर काफी के  विकल्प के  रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसके गोंद पैदा करने वाली प्रमुख फसल  ग्वार के बीज की तुलना में इसके बीजों में अधिक मात्रा में गोंद (7.65 प्रतिशत) पाया  जाता है।
चरोटा से गाजर घांस का उन्मूलन भी 
              चरोटा के बीजों से अनन्य  खाद्य पदार्थों के अलावा गोंद तो प्राप्त होता है।  जहाँ चरोटा के पौधे उगते है वहां गाजर घांस यानि पार्थिनियम (विश्व का सबसे खतरनाक और तेजी से फ़ैलने वाला खरपतवार) के पौधें नहीं उगते है। अतः गाजर घांस प्रभावित क्षेत्रों में चरोटा के बीजों का छिड़काव या खेती करने से उक्त खरपतवार से छुटकारा मिल सकता है। यही नहीं चरोटा को हरी खाद के रूप में भी उपयोग में लाया जा सकता है।  
ऐसे लेते है चरोटा की फसल
             बिना लागत और स्वमेव उपजी चरोटा की फसल भूमिहीन और गरीब किसानों और आदिवासियों के लिए एक बहुमूल्य तोहफा है। ठण्ड का मौसम आते है चरोटा की फल्लियाँ पकने लगती है। धान की कटाई पश्चात ग्रामीण स्त्री-परुष अपनी सामर्थ्य के अनुसार चरोटा के पौधों की कटाई  प्रारम्भ  कर देते है। फसल को  सुखाने के बाद सड़क पर बिछा दिया जाता है।  इसके ऊपर वाहनों के गुजरने से फल्लिओं से बीज निकल आता है, जिसकी उड़ावनी और सफाई कर बीज निकाल लिया जाता है।
बिन बोई फसल से बेहतर आमदनी 
                        बगैर  किसी लागत के स्वमेव उपजी चरोटा  की फसल को बेचने किसानों को भटकना भी नहीं पड़ता है। व्यापारी किसान के घर से ही इसे खरीद लेते है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों जैसे बस्तर संभाग के अलावा रायपुर, बिलासपुर दुर्ग और सरगुजा के ग्रामीण भी इस प्रकृति प्रदत्त फसल से खासा मुनाफा कमा रहे है। वर्तमान में चरोटा के बीज 40-50 रुपये प्रति किलो की दर से बाजार में ख़रीदा जा रहा है। चरोटा बीज के व्यापारी/आढ़तिया किसानो से इसे खरीद कर मुंबई, हैदराबाद, विशाखापटनम आदि शहरों में भेज रहे है जहां से इसका निर्यात चाइना और अन्य एशियाई देशों में किया जाता है। बहुत से ग्रामीण और आदिवासी इसके थोड़े बहुत बीज हाट-बाजार में बेच कर रोजमर्रा की वस्तुएं क्रय करते है।  चरोटा की फसल के बेहतर दाम मिलने से अब अधिक संख्या में ग्रामीणजन इस फसल को एकत्रित करने उत्साहित हो रहे है।  ग्रामीणों के साथ-साथ व्यापारियों के लिए भी चरोटा की फसल आमदनी का जरियां बन रही है। चकवत का ओषधीय एवं आर्थिक महत्व को देखते हुए अब चकवत की उन्नत खेती की संभावनाएं तलाशी जा रही है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के सस्य विज्ञानं विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा चकवत की फसल से अधिकतम उपज और आमदनी लेने के लिए शोध कार्य प्रारम्भ किये गए है। 
    
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