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मंगलवार, 28 मार्च 2017

कचरे से कंचन बनाने की नायाब तकनीक है वर्मी टेक्नोलॉजी

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर 

पर्यावरण सरंक्षण के लिए जितनी जरुरत धरती की हरियाली को बचाने और बढ़ाने की है, उतनी ही जरुरत कूड़े-कचरे के सही निष्पादन और प्रबंधन की भी है। शहरों में घरेलु कूड़ा-कचरा और गावों में कृषि अपशिष्ट पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बनते जा रहे है। मिट्टी, पानी और बयार, इन पर करों ना अत्याचार।  यह एक नारा ही नहीं अपितु  आज समय की नज़ाकत भी है क्योंकि आज हमारे देश में प्रति व्यक्ति के हिसाब से करीब 500 ग्राम कचरा प्रति दिन पैदा किया जा रहा है  जो की मिटटी, पानी और बयार की सेहत ख़राब करने में अहम् भूमिका अदा  कर रहा है। आम आदमी थोड़ी-बहुत मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ इधर-उधर फेंकता ही है। घरों में यह अपशिष्ट सब्जियों और फलों के छिल्के, बचा हुआ खाना-जूठन, अण्डों के छिल्के, कागज आदि के रूप में होता है और ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं का मल-मूत्र, फसलों के अवशेष,पशुओं को खिलाया जाने वाला चारा-दाना, सूखी पत्तियां  आदि होते है।  इन अपशिष्ट के ढेर शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में बखूबी देखे जा सकते है। इन सभी पदार्थो के पुनःचक्रीकरण से एक ओर अपशिष्ट पदार्थो को यहाँ-वहां फेकनें की समस्या से निजात मिल सकती है, वही हम अपने आस-पास सुन्दर-स्वच्छ वातावरण का भी निर्माण कर सकते है। 


कचरा पैदा करने में अव्वल है भारत  

हरित क्रांति की सफलता के उपरांत भारत भले ही अन्नोत्पादन में आत्म निर्भरता हासिल कर ली हो परंतु स्वंत्रता प्राप्ति के 67  वर्षो बाद भी देश में अमूमन सभी कृषि जिंसों की औसत उपज विश्व औसत और अनेको देशों से कम बनी हुई है।  यहाँ तक की अनेकों क्षेत्रों में कृषि उत्पादन या तो स्थिर हो गया है या फिर उसमें गिरावट दर्ज की जा रही है।  जलवायु परिवर्तन के कारण ही कई फसलों का  उत्पादन प्रभावित होने लगा है।  विश्व में सबसे अधिक मात्रा में कचरा उत्पन्न करने वाले देशों में   चीन और अमेरिका के बाद भारत का नाम सुमार है। भारत में प्रति  दिन लगभग 1,33,760 टन कचरा उत्पन्न किया जाता है।  इसमें से 91152  टन  कचरा प्रति दिन एकत्रित किया जाता है जिसमे से  मात्र 25884 टन प्रति दिन  कचरा नगर पालिकाओं द्वारा  ठीक से निष्पादित (उपचारित) किया जा सका था। सर्वाधिक कचरा उत्पन्न करने वाले राज्यो में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र,और तमिलनाडु राज्य आते है।  इस प्रकार निष्पादन के बाद प्रति दिन लगभग 1,07,876 टन कचरे के बदबू मारते  ढेर  शहरों-कस्बों के आस पास या  सड़कों  किनारे देखे जा  सकते है। समय रहते कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निष्पादन नहीं किया गया तो आने वाले  वर्ष 2031 और 2050 तक देश में क्रमशः 165 और 436 मिलियन टन कचरा उत्पन्न होने का अनुमान लगाया गया है। जनसँख्या वृद्धि के साथ ही गांव, नगर, हाट और बाजार बढ़ रहे है जिसके अनुपात में कचरे का उत्पादन भी बढ़ रहा है।  एक समय बाद कचरे के ढेर इकट्ठा  करने के लिए शायद जमीं भी ना मिलेगी, मात्र कचरा जलाना ही एकमात्र विकल्प रह जाएगा, जिससे उठते जहरीले धुएँ और उड़ती विषैली धूलों से जान स्वास्थ्य को भारी क्षति उठानी पड़ सकती है। 

सरकारी योजनाओं और जनभागीदारी से संभव है कचरा निष्पादन 

उचित ढंग से कचरा प्रबंधन की खातिर ही  भारत सरकार ने पहले  निर्मल भारत अभियान और हाल ही में स्वच्छ भारत अभियान (क्लीन इंडिया मिशन) प्रारंभ  किया गया है। वास्तव में शहरों और कस्बों के आस-पास बढ़ते कचरे के पहाड़ो के कारण हमारे पर्यावरण को भारी क्षति हो रही है।  इनसे फैलती गंदगी से मच्छर और मच्छरों से मलेरिया और कचरे से उत्पन्न जहरीली गैसों से बढ़ते प्रदुषण से मनुष्य में  घातक  बीमारिया फ़ैल रही है।  कचरा प्रबंधन के निष्पादन का कार्य सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं संभव है, इसके लिए देश के हर नागरिक  को सक्रीय भागीदारी और सहयोग की भावना से कार्य करना होगा। अपने आस पास और सार्वजानिक स्थानों में न कचरा फैलाये और न ही किसी को फ़ैलाने दें, इसका पक्का संकल्प हम सब को लेना होगा ।  ऐसा अनुमान है की एक व्यक्ति अपने भार से तीन गुना कचरा उत्पन्न करता है।  इसे तो आप और हम ही  मिलकर कम  कर सकते है। वास्तव में कचरे के उचित प्रबंधन से बड़ी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है और इससे बेहतरीन जैविक खाद बनाई जा सकती है।   इस दिशा में देश की कई नगर पालिकाएं और कुछ स्वयं सेवी संस्थाए  सराहनीय कार्य कर रही है।  छत्तीसगढ़ राज्य की धमतरी नगर पालिका ने कचरे से जैविक खाद तैयार करने का वीणा उठाया है, जिससे वहां के किसानों को जैविक खाद सुगमता से मिलना प्रारम्भ हो गया है।  इससे  वहां का वातावरण शुद्ध हो रहा है और नगर पालिका को अच्छी  आमदनी भी हो  रही है।  देश के अन्य शहरों में भी इस प्रकार के मॉडल प्रारम्भ करने की महती आवश्यकता है। 

कचरे  से कंचन-वर्मी टेक्नोलॉजी

घर और गांव के कूड़े-करकट (अवशिष्ट) को जैविक खाद के रूप में परिवर्तित करने में केंचुओं की महती भूमिका होती है। केचुएं सड़े-गले पदार्थो तथा कूड़े-करकट (रबर, प्लास्टिक,कांच, लोहा, कंकड़-पत्थर रहित कचरा) को अपना आहार बनाकर मिट्टी में उनका पुनः चक्रीकरण कर देते है। ऐसा अनुमान किया गया है की 1000 टन गीले कार्बनिक कचरे को केंचए 300 टन अति उत्तम जैविक खाद में तब्दील कर देते है। परीक्षणों से यह भी ज्ञात हुआ है की केंचुए सड़ने-गलने योग्य कचरे को मात्र 35 दिनों में  उपयोगी खाद में परिवर्तित कर देते है। इस प्रकार फसलोत्पादन के लिए बेह्तरीन जैविक खाद प्राप्त होने के साथ-साथ शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदुषण फैला रहे कचरे के अम्बार के निबटान की समस्या से भी शीघ्र मुक्ति मिल जाती है।  यही नहीं केंचुओं द्वारा कार्बनिक कूड़े-कचरे को जैविक खाद में परवर्तित करने की प्रक्रिया में हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन डाई ऑक्साइड जैसे तेज दुर्गन्ध पैदा करने वाले योगिकों का निर्माण नहीं होने पाता है जो इस प्रक्रिया का सबसे बड़ी विशेषता है। यही कारण है की देश विदेश के कई महानगरों में शहरी कचरे के निष्पादन हेतु वर्मी टेक्नोलॉजी को अपनाने की मुहीम चल रही है। मानव जनसँख्या के अनियंत्रित विस्तार और विकास की रफ़्तार में सबसे आगे निकल जाने की होड़ के चलते हमारा पर्यावरण पहले ही काफी  प्रदूषित  हो गया है और अब कचरे से भी वातावरण  जहरीला होता जा रहा है। स्वच्छ, स्वस्थ और सुन्दर शहर और गाँव बनाने में केंचए महत्वपूर्ण किरदार   की भूमिका निभा सकते है जो हर प्रकार के जैविक कचरे को  तीव्र गति से अमूल्य खाद में तब्दील कर देते है। अतः घरेलू कार्यो, कृषि कार्यों और उद्योगों से उत्पन्न बेकार जैविक कचरे से जैविक खाद (वर्मी कम्पोस्ट) तैयार करके वर्तमान प्रदूषण में काफी कमीं लाई जा सकती है, साथ जैविक खाद के प्रयोग से अपनी कृषि को भी समोन्नत करने में मदद कर सकते है।
केंचुआ का परिचय: केंचुआ फाइलम एनिलिडा, आर्डर आलिगोकीटा,कुल लंब्रीसाइडी तथा वंश आईसेनिया के अन्तर्गत आता है। इसकी दो जाति-लम्ब्रीकस टेरेस्ट्रिस और आईसेनिया फोटिडा प्रसिद्ध है।  केंचुआ खंडित शरीर का एक लंबा कृमि है। इनमे आँखे और श्रवणेन्द्रियाँ नहीं होती है। ये उभयलिंगी होते है। ये भूमि के अंदर रहते है तथा इनको अँधेरा प्रिय होता है। गर्मियो में ये नमीं की खोज में नीचे चले जाते है।  केंचुए भूमि में ऊपरी सतह से 30-40 सेमी तक की गीली कचरे युक्त भूमि में रहना पसंद करते है। ये बिना रुके निरंतर मिट्टी और कचरे को खाते रहते है और भूमि की ऊपरी सतह पर कास्ट (दानेदार खाद) इकठ्ठा करते रहते है। लाल रंग के केंचुए वर्मी कल्चर के लिए अधिक उपयुक्त पाए गए है। सादे गले पदार्थों को जैविक खाद में परिवर्तित कर देने की केंचुओ में अदभुत क्षमता होती है।  केंचुओ की सहायता से कचरे से खाद तैयार करना ही वर्मी कल्चर कहलाता है। केंचुओ के मल को वर्मी कम्पोस्ट कहते है।  

किसानों के मित्र और प्राकृतिक हलवाहे है केंचुए

सामान्यतौर पर एक जोड़ी केंचुआ एक वर्ष में 250 नए केंचए पैदा करता है और प्रतिदिन अपने भोजन की तलाश में अपने नुकीले सिरे से 16-20 सुरंगे यानि बिल बनाता है।  ये भूमि की ऊपरी सतह से लेकर 30-50 से.मी. की गहराई तक नमीं और तापमान के अनुरूप अपनी सक्रियता बनाये रखते है। अनुमान लगाया गया है की भूमि में सुरंग बनाने की प्रक्रिया में एक जोड़ा केंचुआ लगभग 4-9 किलोग्राम तक भूमि की निचली तह की उपजाऊ मिट्टी को बारीक़ अवस्था में भूमि की ऊपरी सतह पर पहुंचा देता है।  दरअसल ये मिट्टी खाते है और उसको ही सेवइयों के रूप में  भूमि की ऊपरी सतह पर फैला देते है। इससे भूमि की अच्छी जुताई हो जाती है और वह भुरभुरी हो जाती है जो की पौधों की वृद्धि के लिए महफ़ूज़ होती है।  इसलिए सुप्रसिद्ध प्राणी विशेषज्ञ चार्ल्स डार्विन ने केंचुओ को धरती को प्राकृतिक रूप से जोतने वाला कहा था जो बिना दाम के ही भरपूर जुताई करते है। उनके मतानुसार एक एकड़ भूमि में लगभग 10,000 केंचए रहते है जो साल भर में 14-18 टन मिट्टी भूमि के नीचे से लाकर सतह पर इकट्ठी कर देते है और भूमि की ऊपरी सतह पर मिटटी की 1/5 इंच मोटी  नई परत निर्मित कर देते है। केंचुओ के बिल खोदने के स्वभाव के कारण ही मिट्टी पोली और छिद्रित बन जाती है जिससे मिट्टी  में जल और वायु संचार सुगमता से होने लगता है। इससे पेड़-पौधों की जड़ों का विकास अच्छा होता है। केंचए जमीं की सतह फैली घांस और पत्तियों को भी मिट्टी के नीचे दबा देते है जिससे घांस-पत्तियां भी सड़कर खाद में परिवर्तित हो जाती है और मिट्टी में मिलकर उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायक होती है। इसके अलावा केंचए मिट्टी की सतह के गहरे अवतलों में विद्यमान खनिज लवणों और कार्बनिक पदार्थों को भी भूमि की ऊपरी सतह पर लाने का भी कार्य करते है। इससे भी पेड़-पौधों को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध होते है। 

गोबर खाद से भी बेहतर है वर्मी कम्पोस्ट 

केंचुए जितनी अधिक मात्रा में जैविक अवशेष (कूड़ा-करकट और सड़े  गले पदार्थ) निगलते है उसका मामूली अंश ही उनके जीवन के लिए उपयोगी होता है। इनके शरीर से निकलने वाले मल (वर्मी कम्पोस्ट) में पौध पोषण के  लिए अनिवार्य  सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में बचे रह जाते है।  गोबर खाद की तुलना में वर्मी कम्पोस्ट में पोषक तत्व अधिक मात्रा में होते है।  गोबर खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश की मात्राएँ क्रमशः 0.5, 0. 25, और 0.5 प्रतिशत होती है जबकि केंचुए की खाद में इनकी मात्राएँ  क्रमशः 1.5-2.5, 1.0-1.5 और 1.0-1.5 प्रतिशत से भी अधिक हो सकती है। इनके अलावा बहुत से सूक्ष्म पोषक तत्व भी वर्मी कम्पोस्ट में मौजूद होते है।  केंचुए मिट्टी में बी-2 अर्थात सायनेकोबेलेमिन की मात्रा सात गुना तक बढ़ा देते है जिससे पौधों में रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।  

ऐसे बनायें वर्मी कम्पोस्ट पिट 

कचरे से केंचुआ खाद बनाने की दो पद्धतियां है: इनडोर (छायादार स्थान) और आउटडोर (खुले स्थान) पद्धति जिनका विवरण अग्र प्रस्तुत है.
1. इनडोर पद्धति : यह छायादार (ढंके हुए स्थानों) स्थानों पर खाद तैयार करने की व्यावसायिक पद्धति है। इसमें नालीदार चददरों अथवा एस्बेस्टस की चादरों से बड़े-बड़े शेड या ढंके हुए छप्पर तैयार किये जाते है। छप्पर की फर्श पर ईट, सीमेंट या पत्थर के टेंक या क्यारियां बनाई जाती है. पक्की क्यारियां प्रायः 10 फ़ीट लंबी, 3 फ़ीट चौड़ी एवं 2 फ़ीट ऊंची रखी जाती है। इस पद्धति में जैविक पदार्थ के रूप में शहरी व्यर्थ पदार्थ या कल कारखानों के व्यर्थ पदार्थों का उपयोग किया जाता है। 
2. आउटडोर पद्धति : यह एक खुले स्थानों में खाद बनाने की पद्धति है जिसका उपयोग बगीचों, खेतों, खलिहानों, पशुशाला या छायादार वृक्षों के आस-पास खाद बनाने के लिए किया जाता है। बड़ी मात्रा में व्यर्थ पदार्थो से खाद तैयार करने के लिए यह उत्तम विधि है क्योंकि व्यर्थ जैविक पदार्थ बहुत मात्रा में आसपास ही उपलब्ध हो जाते है  जिससे जैविक पदार्थो को लाने ले जाने में समय, श्रम और पैसा की वचत होती है तथा तैयार खाद को बेचने और उपयोग करने में सुगमता होती है। 

आसान है वर्मी कम्पोस्ट पिट भरने की विधि

  • केंचुआ क्यारियों में सबसे पहले तीन इंच (7-8 सेमी) मोटी गिट्टी या ईट के टुकड़ों अथवा बालू रेत की तह क्यारी के फर्श पर बिछा कर उसे पानी से भिंगो दें। 
  • पहली परत के ऊपर सूखे सख्त जैविक पदार्थ फसलों का भूसा, गन्ने की खोई या फिर लकड़ी का बुरादा आदि (जिन्हें सड़ने-गलने में ज्यादा समय लगता हो ) की तह बिछा कर उस पर पानी छिटककर गीला कर देंवे।  यह परत हार्ड बैड (बिछावन) कहलाती है। 
  • तीसरी परत में 2-3 इंच मोटी (5-7 सेमी) गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट बिछा कर इसे भी पानी से गीला कर देवें। 
  • चौथी परत में केंचुओं सहित वर्मी कम्पोस्ट (जिसमें लगभग 1000 केंचुए हो)  की एक समान पतली तह बिछा देवें। औसतन 9 वर्ग मीटर में 1000 केंचुए मिलाना चाहिए। 
  • पांचवी परत में शीघ और आसानी से सड़ने वाले व्यर्थ पदार्थ जैसे सब्जियो-फलों के छिल्के और अवशेष, खरपतवार,गोबर या बॉयोगैस स्लरी आदि की 10-15 इंच (25-37 सेमी ) मोटी तह बिछाए या ढेर लगाएं। 
  • छटीं और अंतिम परत में सूखी घांस, पत्तों, भूसा या धान का पुआल आदि डालकर जुट के बोरे से उसे ढँक देते है ताकि नमीं सरंक्षित रहे और केंचुओं की सक्रियता के लिए उचित वातावरण कायम बना रहे। 
  • इस विधि में तली में बिछाई गई हार्ड बेड  विपरीत परिस्थितियों में भोजन के रूप में केंचुओं द्वारा उपयोग में ली जाती है। ऊपर की भोजन सामग्री समाप्त होने के उपरांत केंचुए नीचे की तह को खाते है।  नई खाद्य सामग्री (व्यर्थ जैविक पदार्थ) ऊपर डालने से केंचए पुनः ऊपर आ जाते है और खाद बनाने का कार्य करते रहते है। आवश्यकतानुसार 2-3 माह में एक बार क्यारियां खाली करके हार्ड बैड को नए सिरे से बिछा कर उपरोक्तानुसार अन्य परतें जमाकर खाद तैयार करते रहें।      
वर्मी कम्पोस्ट  तैयार करने के लिए दिशा निर्देश 
सभी प्रकार के बेकार जैविक पदार्थ जैसे रसोई घर का कचरा (सब्जियों और फलों के छिल्के,अंडो के छिल्के,, कागज, पत्तियां, सड़े-गले फल-फूल  सब्जियां, लकड़ी आदि), पशुपालन, मुर्गी पालन  से प्राप्त होने वाले बेकार पदार्थ, जानवरों और पक्षियों को खिलाया जाने वाला चारा, भूषा, दाना आदि) तथा कृषि अवशिष्ट से उत्तम श्रेणी का वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है। केंचुआ खाद बनाते समय अधोलिखित बातों पर ध्यान देन चाहिए;
  • खाद बनाने में उपयोग में लाये जाने वाले जैविक पदार्थों में कांच,पत्थर, धातु के टुकड़े, प्लास्टिक आदि नहीं होना चाहिए। 
  • वर्मी कम्पोस्ट तैयार किये जाने वाली क्यारियों में झारे से प्रतिदिन पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। 
  • केंचुओ को अँधेरे और नम स्थान अधिक पसंद है अतः केंचुआ पालन का स्थान छाया दार (सघन पेड़ों की छाया अथवा खुले में छप्पर आदि) होना चाहिए क्योंकि केंचुए रोशनी से विकर्षित होते है। अधिक धूप और तेज गर्मी ये वर्दाश्त नहीं कर पाते है।    
  • केंचुआ घरों को गर्मी और वर्षा से सुरक्षा के लिए  उपयुक्त  व्यवस्था होनी चाहिए।  केंचुओं की अच्छी क्रियाशीलता के लिए न्यूनतम 7-8 डिग्री सेल्सियस और अधिकतम 25-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त पाया गया है। 
  • केंचुआ घरों के आस-पास जल जमाव नहीं होना चाहिए अन्यथा केंचुए अन्य सूखे स्थानों की तरफ भाग सकते है।   केंचुआ घर हवादार (वायु संचार की पर्याप्त व्यवस्था) भी होना चाहिए।
  • केंचुओ को प्राकृतिक शत्रुओं जैसे छिड़ियां, सांप, मेढक, दीमक, चीटियां आदि से बचने के लिए समय-समय पर क्यारियों के चारोँ और नाली खोद कर उसमे क्वीनलफास या फालीडाल डस्ट डाल देना चाहिए। 
  • अनुकूल परिस्थितियों में केंचुए 35-45 दिनों के अंदर कचरे और गोबर को उत्तम खाद में परिवर्तित कर देते है। तैयार खाद के  क्यारियों में  ढेर बना दें जिससे ऊपर के केंचुए नीचे की तह  में चले जावें।  खाद निकालने का कार्य हाथ से करना चाहिए।
  • तैयार जैविक खाद को छायादार स्थानों में ढेर लगाकर रखना चाहिए तथा आवश्यकतानुसार खेत में उपयोग करें  और आवश्यकता से अधिक खाद दूसरे  किसानों को  बेच कर लाभ कमा सकते है ।

खेती किसानी के लिए वरदान है केंचुआ खाद 

वर्मी कम्पोस्ट के इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरा शक्ति, पानी सोखने और वायु संचार की क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि होती है।  सघन खेती से बिगड़ती मिट्टी की सेहत सुधारने में यह खाद बहुत उपयोगी है।  केंचुओ द्वारा तैयार यह जैविक खाद पेड़-पौधों, सब्जियों, फल-फूलों के लिए बेहतरीन प्राकृतिक एवं सम्पूर्ण खाद है। वर्मी कम्पोस्ट जैविक खाद का उपयोग विभिन्न फसलों में अलग अलग मात्रा में किया जाता है।  खेत की तैयारी के समय 2.5 से 3.0  टन प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। खाद्यान्न फसलों में 5-6 टन प्रति हेक्टेयर तथा फलदार पेड़ों में 1-10 किलो प्रति पेड़ की दर से वर्मी कम्पोस्ट खाद का प्रयोग किया जा सकता है। किचन गार्डन तथा गमलों में 100 ग्राम प्रति गमला खाद का प्रयोग करें. सब्जी वाली फसलों में 8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से इस खाद का प्रयोग लाभकारी रहता है। 
इस प्रकार से हम कह सकते है की कचरे से कंचन पैदा करने में वर्मी टेक्नोलॉजी पर्यावरण सौम्य और  बेहद उपयोगी तकनीक  है जिसके माध्यम से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लग रहे कचरे के ढेरों का सुगमता से निपटान हो सकता है।  इस कार्य में न्यूनतम लागत में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बेरोजगार नौजवानों को आकर्षक  रोजगार मिल सकता है।  इस तकनीक के अपनाने से हम अपने आस-पास के वातावरण को स्वच्छ, स्वस्थ और सुन्दर बना सकते है।

मशीनों की मदद से भी कचरे से कम्पोस्ट  

भारतीय पशु चीट्स अनुसन्धान संसथान, बरेली और भारतीय प्रौद्योगिकी संसथान , रुड़की ने घर के  कूड़े-कचरे से जैविक खाद तैयार करने के वास्ते एक मशीन का निर्माण किया है जिसे 'मैकेनिकल काऊ कम्पोस्टिंग' नाम दिया गया है। इस मशीन की सहायता से महज साथ दिन में बिना बदबू वाली उत्तम जैविक खाद तैयार की जा सकती है।  जबकि परम्परागत विधि से खाद तैयार करने में छह माह का समय लगता था। इस मशीन में  शुरुवात में प्रति दिन  देसी गाय का गोबर 40 दिन तक डालना पड़ेगा, ताकि उसमे सूक्ष्मजीवी पैदा हो सकें. इसके साथ ही हर दिन 100 किलो घर का जैविक कूड़ा-करकट भी डाला जा सकता है।  पहली बार में ४० दिन में खाद तैयार हो जाती है।  एक बार मशीन के अंदर सूक्ष्मजीवी जमा हो  जाने के बाद घर के जैविक कूड़े से साथ दिन में ही उत्तम जैविक खाद तैयार हो सकता है।  इस प्रकार की मशीनें शहरों के विभिन्न मुहल्लों और कालोनियो में स्थापित करने से वहां के  कचरे का निष्पादन सुगमता से किया जा सकता है।  इससे प्रदुषण से मुक्ति मिलेगी और स्थानीय निकायों की आमदनी में भी इजाफा हो सकता है।  
अतः कचरा निष्पादन के लिए ईमानदार पहल करते हुए हमारी सरकार और स्थानीय निकायों को जनभागीदारी की मदद से कुछ ठोस कदम उठाना पड़ेगें।  इस कार्य में बेरोजगार युवाओं को रोजगार भी मुहैया हो सकता है।  हमारे अन्नदाता  किसानों को कम कीमत उपयोगी जैविक खाद प्राप्त हो सकेगी और सबसे ऊपर हम अपने गांव, नगर, शहर, को स्मार्ट गांव, नगर और स्मार्ट शहर बनाकर भारत सरकार के निर्मल भारत और स्वच्छ भारत  अभियान की महत्वकांछी  परिकल्पना को साकार करने में अपना योगदान दे सकते है।  
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सम-सामयिक कृषि:चैत्र-वैसाख (अप्रैल) माह की कृषि कार्य योजना


डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 


         बसन्त ऋतु का माह अप्रैल यानी चैत्र-वैशाख को  शरद तथा  ग्रीष्म ऋतु का संधिकाल भी कहा जाता है। इस समय वातावरण का तापक्रम अधिक और  नमीं की मात्रा कम हो जाती है। औसतन  अधिकतम एवं न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 38 एवं 22 डिग्री सेन्टीग्रेड संभावित  है।  वायु की गति भी तेज (लगभग  8.2 किमी प्रति घंटा)  हो सकती है। धूंल भरी आधियाँ आने की संभावना रहती है। बैशाखी त्यौहार के  लिए मशहूर इस माह खेतों  में लहलहाती सुनहरी फसलें कटाई के  लिए तैयार होती है। शादी-विवाह के इस मौसम  में किसान खुशहाल दिखाई देते है। विक्रम संवत की चैत्र शुक्ल की पहली तिथि से न केवल  नवरात्रि में दुर्गा व्रत पूजन का आरंभ होता  है, बल्कि राजा रामचन्द्र का राज्याभिषेक, युधिष्ठर का राज्याभिषेक, सिख परंपरा के  द्वितीय गुरू अंगदेव का जन्म हुआ। मान्यता है कि ब्रम्हाजी ने  चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि की रचना शुरू की थी। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही सतयुग का प्रारंभ माना जाता है जो  हमें सतयुग की ओर निरंतर  बढ़ने की प्रेरणा देती है। इस महिने बैसाखी का पर्व भी धूमधाम से मनाया जाता है। बैसाखी पर ही किसान अपनी फसल की कटाई करते है। अखंड भारत के समय से भारत की संस्कृति से जुड़ा यह पर्व एकता, भाईचारे और उन्नति का सूत्र रहा है। चैत्र-वैसाख में संपन्न किये जाने वाले प्रमुख कृषि कार्यों पर यहाँ विमर्श प्रस्तुत है।  

                                                                     इस माह के मूलमंत्र 

1.फसल चक्र योजना बनाएंः  किसान भाइयों को अपनी आवश्यकतानुसार आदर्श  फसल चक्र योजना  बनाकर खेती करना चाहिए जिससे समय पर खाद, बीज और  अन्य आदानों  की व्यवस्था करने में आसानी हो  और  फसल उत्पाद को  उचित भाव पर बाजार या मंडी में बेचा जा सके। उपयुक्त फसल चक्र अपनाने से मंहगे आदानों  का कुशल उपयोग, कीट-रोगों का प्रभावी  नियंत्रण और  दलहनी फसलों के  खेती में समावेश से मृदा स्वास्थ्य बना रहता है । कुछ उपयोगी  फसल चक्रों के  उदाहरण है- धान या मक्का-आलू-ग्रीष्मकालीन मूंग, धान-आलू,-सरसों -सूरजमुखी, ग्रीष्मकालीन मूंगफली-धान-सरसों, सोयाबीन-चना-तिल, धान-आलू-गेंहू, हरी खाद-धान, मक्का-गेंहू आदि।
2.मिट्टी का स्वास्थ्य परीक्षणः ग्रीष्मकाल  में खेत खाली होने  पर मिट्टी परीक्षण हेतु खेत से मिट्टी के  नमूने लें। कम से कम तीन वर्ष में एक बार अपने खेत की मिट्टी का परीक्षण अवश्य ही कराएं जिससे मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों  यथा नत्रजन, स्फुर, पोटाश, जिंक आदि की मात्रा, भूमि की क्षारीयता व अम्लता का पता चल जाता है। इससे फसलों के  लिए आवश्यक पोषक  तत्व व उर्वरकों  की सही एवं संतुलित मात्रा का आंकलन किया जा सकता है। 
3.मृदा सूर्यीकरण  : खरपतवार नियंत्रण की यह एक कारगर पद्धति है।  खेत की जुताई कर उसे समतल करने के उपरान्त हल्की सिचाई करें. खेत में ओल आने पर पॉलीथिन से अच्छी प्रकार ढँक कर कम से कम एक माह के लिए छोड़ दें।  इससे मृदा का तापमान बढ़ने से खेत में उगने वाले खरपतवारों के बीज और पौधे नष्ट हो जाएंगे। ऐसा करने से आगामी फसल में खरपतवार समस्या कम हो जाती है। 

                                                       फसलोत्पादन में इस माह के प्रमुख कार्य 

गेंहूँ एवं जौः इन फसलों के पकने पर समय से कटाई करना सुनिश्चित करें । कटाई पश्चात दोनों फसलों  की गहाई की व्यवस्था करें।   उपज को  अच्छी प्रकार सुखाकर साफ कर पक्की कोठियों  में भंडारित करें ।आज कल कटाई-गहाई कार्य कंबाइन हार्वेस्टर से आसानी से हो जाती है।   भंडारण के  समय दानों  में नमीं की मात्रा 9-10 प्रतिशत तक रखें जिससे कीट आक्रमण नहीं होगा । पशुओं  खिलाने के  लिए भूषे को  भी नमीं रहित स्थान  या फिर  कूप बनाकर भंडारित करें।
चना एवं मटरः दाना पकने की अवस्था में फसलों की समय से कटाई कर लें। 
उर्द एवं मूंगः ग्रीष्म कालीन उर्द व मूंग में बुवाई के 25-30 दिन बाद सिंचाई करें। पीला चित्त वर्ण (मौजेक) रोग, थ्रिप्स एवं एफिड कीट से बचाव के लिये फाॅस्फोमिडान 85 ई.सी. 250 मि.ली. या मिथाइल डिमेटान 25 प्रतिशत 1.0 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से आवश्यक पानी में घ¨लकर छिड़काव करें। यह छिड़काव 10-15 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार पुनः करना चाहिए। पत्र दाग रोग की रोकथाम के लिये कार्बेन्डाजिम दवा 500 ग्राम को आवश्यकतानुसार पानी में मिलाकर छिड़काव करें। वैशाखी मूँग की बुवाई इस माह के मध्य तक अवश्य कर दें।
सूरजमुखी : इसमें :फूल निकलते समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। सामान्यतः 10-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई के बाद एक निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है। यूरिया की टापड्रेसिंग के बाद दूसरी गुड़ाई के समय 10-15 से.मी. मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। 
सरसों: इस फसल की कटाई मड़ाई यदि पूरी नहीं हुई है तो तुरन्त कर लें। दानों को  अच्छी तरह सुखाकर उचित जगह पर भण्डारण करें।
मूंगफलीः  अप्रैल के  प्रथम सप्ताह तक ग्रीष्मकालीन मूंगफली की ब¨नी संपन्न करें। गत माह लगाई गई फसल में फूल निकलते समय एवं नस्से (पेग) जमीन में घुसते समय एवं फलियों  में दाना भरते समय खेत में सिंचाई का विशेष ध्यान रखें। फूल व फल बनने के  पहले निराई गुड़ाई कर सिंगल सुपर फॉस्फेट  खाद देकर  पौधों पर मिट्टी चढाने का कार्य करें।  
मक्काः वर्षा ऋतु के  प्रारंभ में भुट्टे प्राप्त करने हेतु  इस समय मक्का लगा सकते है । दीमक प्रभावित क्षेत्रों  में क्लोरपायरोफास  1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं।
गन्नाः समय पर बोये गन्ने में अंधी गुड़ाई, सिंचाई आदि समय पर करें। प्रत्येक सिंचाई के बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। नौलख गन्ने का अंकुरण पूर्ण होने पर लगभग 65-85 किग्रा. यूरिया तथा पेड़ी में 110-125 किग्रा. यूरिया टापडेªसिंग के रूप में प्रयोग करें। देरी से बोई जाने वाली गन्ने (गेंहू कटाई बाद लगाई जाने वाली फसल) की बुवाई  कार्य 15 अप्रैल तक संपन्न  कर लेवें ।  गन्ना की दो कतारों के  बीच सह-फसल के  रूप में मूंग,उड़द, ग्वार की खेती कर अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता  है। गन्ने की पेड़ी फसल में तनाबेधक कीट का प्रकोप होने  पर फोरेट  10 जी दानेदार दवा का 10 किग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग  करें।
कपासः कपास के बीज अंकुरण के  लिए 21-27 डिग्री तापक्रमसर्वोत्तम  रहता है। गेंहू कटाई पश्चात कपास बोनी की तैयारी करें। क्षेत्र के लिए उपयुक्त उन्नत किस्म के बीज की व्यवस्था करें। संकर किस्मो  का बीज (रोये रहित) 1.5 किग्रा. तथा देशी किस्मों का  बीज 3-5 किग्रा. को  5 ग्राम एमीसान, 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लिन, 1 ग्राम सक्सीनिक एसिड को  10 लीटर पानी के घोल में 2 घंटे रखें। दीमक से बचाव के  लिए 1 लीटर पानी में 10 मिली. क्लोरोपायरीफास दवा  मिलाकर बीज पर छिड़क दें तथा 30-40 मिनट छाया में सुखाकर बुवाई करें। यदि जडगलन की समस्या है तो  2 ग्राम बाविस्टीन प्रति किग्रा. बीज की दर से सूखा बीज उपचार किया जा सकता है। कपास को  कतार में 60 सेमी. व पौधों  के  बीच 30 सेमी. का अंतर रखकर 5 सेमी. की गहराई पर बोना चाहिए । अच्छी उपज के लिए प्रति हैक्टेयर 50 हजार पौधे स्थापित होना चाहिए ।
बेबी काॅर्नः   आज कल शिशु मक्का का प्रचलन होटलों  में सलाद, सब्जी, सूप, पकोड़े बनाने  में किया जा रहा  है। इसकी फसल 60 दिन में तैयार हो जाती है। इसके  बगैर बीज के  हरे शिशु भुट्टे उपयोग  में लाये जाते है। इसकी संकर प्रकाश व कंपोसिट केसरी किस्में है जिन्हे 16 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की दर से 30 सेमी. की दूरी पर कतार में लगाया जाता है। पौधों के  मध्य 20 सेमी. का अन्तर रखा जाता है। बुवाई के  समय आधा बोरा  यूरिया, डेढ़  बोरा सिंगल सुपर फॉस्फेट  एवं एक तिहाई बोरा  म्यूरेट आॅफ पोटाश प्रति हेक्टेयर कतार में  देना चाहिए। फसल में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई व सिंचाई करते रहें।
मूंग और तिल : सिंचित क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन मूंग और तिल की बुआई इस माह संपन्न कर लेवें। इन फसलों की शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करें। 
चारा फसलेंः  बरसीम, रिजका एवं जई आदि चारे वाली फसलो  में आवश्यकतानुसार पानी लगायें तथा 20-25 दिन के  अन्तराल पर चारा  कटाई करें। बीज के  लिए छोड़ी  गई फसल से अवांछित पौधे  निकालें एवं सिंचाई करते रहें। चारे के  लिए ज्वार, बाजरा, सुडान घास लोबिया तथा संकर हाथी (नैपियर) घास आदि की बुवाई गत माह की भांति संपन्न करें। संकर हाथी घास की कलमों की रोपाई खेत में नमी हो तो गत माह की भांति करे। पूर्व में लगाई गई चारा फसलों में आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। फरवरी के द्वितीय पखवाड़े में बोई गई चारे वाली मक्का फसल में 30 किग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टेयर की दर से कतारों में टॉपड्रेसिंग के  रूप में प्रदान करें।

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गुरुवार, 23 मार्च 2017

ईंधन, भोजन और मकान का कृषि वानिकी करें निदान

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                भारत   में भूमि उपयोग की प्रमुख दो पद्धतियां कृषि और वानिकी क्रमशः 46.4 व 22.7 % क्षेत्र में अपनाई जा रही है।  कृषि हमारी आजीविका और भोजन का प्रमुख जरिया है परन्तु वन मानव जाति के लिए अमूल्य प्राकृतिक सम्पति ही नहीं है, अपितु हमारी जलवायु और भू-पारस्थिकी  के श्रेष्ठ सरंक्षक भी है।  राष्ट्रिय वन नीति के मुताबिक देश में उपलब्ध कुल भौगोलिक क्षेत्र के 33.33 % भाग में घने वन होना चाहिए।  दुर्भाग्य से अंधाधुंध कटाई, नगरीय विस्तार, औद्योगिक विकास, सड़क निर्माण आदि के चलते हमारे वनों का क्षेत्रफल दिनों दिन घटता जा रह है , जिनका क्षेत्र दिनोदिन घटता जा रहा है।  एक अनुमान के  हिसाब से हम अपने वनों को 13 हजार वर्ग किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से नष्ट कर रहे है।  वास्तव में वनों की अत्यधिक क्षति हमारे खुद के उत्तरजीविता के लिए खतरा है।  एक आंकलन (अग्रवाल एवं साथी, 2009) के अनुसार देश में 100 मिलियन टन जलाऊ लकड़ी, 853 मिलियन टन चारा (हरा और सूखा) तथा 14 मिलियन टन इमारती काष्ठ की कमीं है।  इस कमी को पूरा करने के लिए जंगलों का अवैध तरीके से दोहन किया जाता है जिसे रोकने के लिए देश में में कृषि-वानिकी पद्धति को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है। 
                कृषि वानिकी एक ऐसा विज्ञान है जो कृषि, वानिकी, पशु पालन तथा अन्य विषयों और प्रबंधन पर आधारित है, जो सब मिलकर भूमि उपयोग की सुव्यवस्थित पृष्ठभूमि निर्मित करते है।  कृषि वानिकी भूमि उपयोग की वह धारणीय पद्धति है जिसके अन्तर्गत भूमि का उत्पादन बनाए रखते हुए उस भूमि पर वृक्षों तथा फसलों का उत्पादन और या पशुपालन एक ही समय में अथवा क्रमवद्ध रूप में अपनाया जाता है, जो पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखते हुए  जन समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।  कृषि वानिकी के सन्दर्भ में कृषि के अन्तर्गत फसलें, फल तथा सब्जिओं को वहुद्देशीय वृक्षों (फल, लकड़ी तथा चारे हेतु) के साथ उगाया जाता है।  .
कृषि वानिकी के सिद्धांत
कृषि वानिकी पद्धतियाँ प्रमुख पांच सिद्धांतों यथा धारणीयता, उत्पादकता, लचीलापन, सामाजिक स्वीकार्यता और पारस्थितिकीय सामंजस्य पर आधारित है :-
धारणीयता: धारणीयता का अर्थ प्राकर्तिक संतुलन यानि प्रकृति की क्षमता को बनाए रखते हुए प्राकृतिक  स्त्रोतों का उपयोग करना है। वृक्षों और फसलों को एक साथ उगाने से समय-समय पर होने वाले पारस्थितिकीय परिवर्तन (उच्च तापक्रम, पाला, ओला, तेज हवा आदि) में संतुलन बना रहता है।  इस प्रकार फसल उत्पादन में वृक्ष सहायक होते है। 
 उत्पादकता: वृक्षों के साथ फसलों को उगाने तथा आवश्यकतानुसार पशु पालन करने से कुल उत्पादकता और लाभ में वृद्धि होती है।  इसके अलावा भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रहती है, खरपतवारों का नियंत्रण  होता है और फसल शीघ्र तैयार हो जाती है।  वृक्ष भूमि की निचली सतह से तथा फसलें ऊपरी सतह से नमीं और पोषक तत्व ग्रहण करते है।  वृक्ष होने से मृदा क्षरण से नष्ट होने वाली ऊपरी उपजाऊ परत  का सरंक्षण होता है। 
  लचीलापन : कृषि वानिकी पद्धति में लचीलापन अधिक होता है जो वाह्य तथा आन्तरिक परिवर्तन को सहने की क्षमता प्रदान करता है।  कृषि वानिकी के तीन घटकों यथा फसलें, वृक्ष और पशुओ से उत्पादन प्राप्त होता है . विशेष परिवर्तन की स्थिति में तीनों घटक एक साथ प्रभावित नहीं होते है  वल्कि एक घटक की हानि दुसरे घटक से पूरी हो जाती है। 
सामाजिक स्वीकार्यता : स्थानीय समाज ही कृषि वानिकी का मूल आधार होता है।  समाज के लिए  आवश्यक वस्तुओं जैसे खाद्यान्न, फल, ईधन, पशु चारा, कृषि औजार निर्माण हेतु लकड़ी आदि की पूर्ती फसल और वृक्षों से होने से उनमे आत्मनिर्भरता का भाव विकसित होता है।  इसके अलावा मधुमक्खी पालन, रेशम कीट पालन, लाख उत्पादन और अन्य कुटीर उद्योग स्थापित करने में भी कृषि वानिकी से मदद मिलती है। 
  पारस्थितिकीय सामंजस्यता: वृक्ष कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण कर ऑक्सीजन छोड़ते है जिससे वातावरण शुद्ध होता है . इसके अलावा वृक्ष वायु वेग कम करते है तथा  मृदा एवं जल सरंक्षण में सहायता करते है . इस प्रकार पारस्थितिकीय संतुलन कायम रखने में वृक्ष महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। 

   
कृषि वानिकी पद्धतियाँ

कृषि वानिकी पद्धति के प्रमुख तीन घटकों यथा  वृक्ष, फसलें और पशु में से वृक्ष एक अनिवार्य घटक होता है।  कृषि वानिकी की प्रमुख पद्धतिया निम्नानुसार है :
  1.  कृषि वनिकीय पद्धति (एग्रो-सिल्वीकल्चरल सिस्टम): इस पद्धति में वृक्षों और फसलों को एक साथ एक ही भूमि पर सुव्यस्थित ढंग से उगाया जाता है . खाद्यान्न, ईधन और कृषि औजार हेतु लकड़ी प्राप्त करना इस पद्धति का प्रमुख उद्देश्य होता है।  उदहारण के लिए यूकेलिप्टस के साथ खरीफ में मूंग, उर्द, लोबिया तथा रबी में चना, मटर आदि  सूबबूल के साथ खरीफ में जुआर, बाजरा, सोयाबीन, मूंगफली तथा रबी में गेंहू, चना, सरसों आदि की खेती की जा सकती है।  शहर के नजदीक वृक्षों के साथ सब्जी वाली फसलें लगाना अधिक लाभप्रद होता है .
  2. कृषि उद्यानिकी पद्धति (एग्रो-होर्टीकल्चरल सिस्टम): इस पद्धति में फलदार वृक्षों के साथ खाद्धान्न फसलें या सब्जियां उगाई जाती है .इस पद्धति वृक्षों  से फल, ईधन और कृषि औजार बनाने के लिए लकड़ी तथा फसलो से अन्न और सब्जियां मिल जाती है।  उदहारण के लिए बेर के साथ खरीफ में  लोबिया, गूआरफली आदि तथा  रबी में चना, मसूर, गोभी, आदि. इसी प्रकार नीबू के साथ लोबिया, चना, मटर आदि फसलें लगाई जा सकती है। 
  3.  उद्यानिकी-वानिकी पद्धति (होर्टो-सिल्वीकल्चरल सिस्टम): इस पद्धति में फल, सब्जियां, ईधन और कृषि औजारों के लिए लकड़ी प्राप्त करने के उद्देश्य से फलदार वृक्षों को वनिकीय वृक्षों के साथ सहयोगी  वृक्षों के रूप में लगाया जाता है।  इसमें नियमित फल उद्यानों के उत्तर और पश्चिम दिशाओं में वायु अवरोधक के रूप में वानिकी वृक्ष लगाये जाते है। 
  4.  कृषि-उद्यानिकी-वानिकी पद्धति (एग्रो-होर्टो सिल्वीकल्चरल सिस्टम): यह एक बहुमंजलीय  पद्धति है जिसमे  फल दर वृक्ष, वानिकी वृक्ष और फसलें एक साथ उगाई जाती है  जिससे फल, ईधन, लकड़ी और खाद्यान्न प्राप्त होते रहते है।  उदहारण के लिए किन्नो संतरा को 5 X 5 मीटर की दूरी पर लगाकर इनकी कतारों के मध्य  सुबबूल लगाया जा सकता है। 
  5. वनिकीय-चारागाही पद्धति (सिल्वो-पैस्टोरल सिस्टम): इस पद्धति में चारागाहों में वृक्षों को लगाकर उसमे पशुओं का चराया जाता है. घासों को प्राकृतिक रूप से बढ़ने दिया जाता है . इस प्रणाली से पशुओं को छाया और चारा के अलावा ईधन और लकड़ी प्राप्त होती है।  इसे पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि सरंक्षण के लिए अपनाया जाता है।  उदहारण के लिए सूबबूल, सिरिस, शीशम बबूल आदि वृक्षों को चरागाहों में लगाया जाता है।  
  6.  कृषि-उद्यानिकी-चारागाही पद्धति (एग्रो-होर्टो-पेस्ट्रोरल सिस्टम): यह एक कृषि उधानिकी और उद्यानिकी-चारागाही की मिली जुली पद्धति है जिसके तहत वानिकीय वृक्षों के स्थान पर फलदार वृक्षों को उगाया जाता है  और फलदार वृक्षों के साथ घास तथा खाद्यान्न फसलें लगाई जाती है. घास की कटाई कर पशुओं को खिलाया जाता है . उदहारण के लिए आम, अमरुद, नीबू, किन्नो आदि फलदार वृक्षों के साथ जार, बाजरा, मक्का, अंजन घास और स्टाइलो घास लगाईं जाती है। 
  7.  उद्यानिकी-चारागाही पद्धति (होर्टो-पेस्ट्रोरल सिस्टम): इस पद्धति में चारागाहों में फलदार वृक्ष उगाये जाते है . पशुओं की चराई के साथ साथ फल भी प्राप्त हो जाते है।   उदाहरण के लिए बेर, आंवला, शहतूत, खिरनी, जामुल आदि वृक्षों का रोपण किया जाता है। 
  8.  कृषि-वानिकीय-चारागाही पद्धति (एग्रो-सिल्वो-पेस्ट्रोरल सिस्टम): यह कृषि वानिकीय तथा वन चारागाही पद्धतियों की मिली जुली पद्धति है जिसमे वृक्षों के बीच में खाधान्न फसलें तथा घासें उगाई जाती है। घासें काटकर पशुओं को खिलाई जाती है . इसमें मुखरूप से बबूल और शूबबूल के वृक्ष लगाये जाते है। 
  9. उद्यानिकी-वानिकीय चारागाही पद्धति (होर्टो-सिल्वो-पेस्टोरल सिस्टम); इस प्रणाली में फलदार वृक्षों के साथ साथ वानिकीय वृक्ष तथा घासें उगाई जाती है जिसके तहत फल, ईधन, कृषि औजारों के लिए लकड़ी और जानवरों के लिए चारा प्राप्त होता है।  इस पद्धति का उपयोग हिमालयी क्षेत्रों में किया जाता है। 
  10.  गृह-कृषि-वानिकी पद्धति (होमस्टेड एग्रोफॉरेस्ट्री): यह बहु उद्देशीय तथा बहुपयोगी पद्धति है जिसके अन्तर्गत कृषि वानिकी के सभी घटक आ जाते है।  इसमें  वानकीय वृक्ष, फलदार वृक्ष, नकदी फसलें, खाद्यान्न, सब्जियां और पशुपालन सम्मिलित रहते है।  इस पद्धति के माध्यम से घरेलु उपयोग की वस्तुएं जैसे खाद्यान्न, फल, सब्जियां, ईधन, काष्ठीय लकड़ी, दूध और खेतों के लिए खाद प्राप्त हो जाता है . उदाहरण के लिए नारियल, सुपाड़ी, काली मिर्च, इलाइची, केला, सब्जियां, अन्नानास, कन्दीय फसलें और अनाज वाली फसलें शामिल रहती है।  यह पद्धति केरल में प्रचलित है। 
  11.  सीमान्त वृक्षारोपण (बाउंड्री प्लांटेशन): खेतों और प्रक्षेत्रों की सीमाओं तथा मेंड़ो पर कतार के रूप में वृक्षारोपण करना सीमान्त वृक्षारोपण पद्धति कहलाता है . इसके तहत वानिकीय और फलदार दोनों प्रकार के वृक्ष लगाये जाते है।  प्रक्षेत्रों की सुरक्षा के लिए भी यह उपयोगी पद्धति है जिसमे फल, ईंधन, काष्ठ, चारा आदि प्राप्त हो जाता है. सूबबूल, यूकेलिप्टस, बबूल,बांस, इमली, नीम, आम, जामुन, करोंदा,विलायती इमली, बेल आदि वृक्षों का रोपण इस पद्धति में किया जाता है। 
कृषि वानिकी पद्धति में वृक्षों का चयन



कृषि वानिकी में वृक्षों का चयन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है क्योंकि वृक्षों को फसलो के साथ उगाया जाता है .  वृक्षों में निम्न लिखित गुण होना चाहिए:-
  • कृषि वानिकी में प्रयुक्त किये जाने वाले वृक्ष बहु उद्देशीय होना चाहिए अर्थात इस वृक्षों से एक से अधिक पदार्थ (चारा, ईधन, फल, खाद्यान्न, औषधि, इमारती लकड़ी, आदि) मिलना चाहिए। 
  •  वृक्षों में स्थानीय कृषि जलवायु और भूमिओ में उगने की क्षमता होना चाहिए। 
  •  इनमे विपरीत जलवायु (सूखा, बाढ़ आदि) परिस्थियाँ सहन करने का गुण होना चाहिए .
  •  चरागाहों को छोड़कर अन्य स्थानों के लिए वृक्ष कम छाया देने वाले होने चाहिए। .
  • दलहनी कुल के वृक्ष लगाने का प्रयास करना  चाहिए. ऐसे वृक्ष  वायुमंडल  की नत्रजन भूमि में स्थिर कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायक होते है। 
  •  वृक्ष कम से कम देखभाल में शीघ्र बढ़ने वाले होने चाहिए। 
  • वृक्षों में कटाई-छटाई को सहन कर पुनः बढ़ने की क्षमता होनी चाहिए। 
  • वृक्षों की फसलों के साथ उगने का संयोज्य (कम्पेटिबिलिटी) होना चाहिए। 
  •  कीट, रोग और सूखा सहन करने की क्षमता होना चाहिए। 

                                      कृषि वानिकी के लिए प्रमुख बहुउद्देशीय वृक्ष

सामान्य नाम
वानस्पतिक नाम
प्रमुख उपयोग एवं पद्धति
बबूल
अकेशिया निलोटिका
काष्ठ, ईधन, चारा, खम्भे,टैनिन,नाइट्रोजन स्थिरक. कृषि वानिकी एवं सीमान्त वृक्षारोपण। 
गम अरेबिक वृक्ष
अकेशिया सेनेगल
ईधन, चारा, खम्भे, औसधि, नाइट्रोजन स्थिरक, भूमि सरंक्षण, कृषि वन-चारागाही। 
खैर
अकेशिया कटेचू
काष्ठ, ईधन, चारा, कृषि औजार, कत्था,टेनिन. समूह वृक्षारोपण हेतु।
बेल
ईगली मारमेलोस
फल, चारा, औषधि,गोंद, कृषि औजार, वन-उद्यानिकी हेतु। 
काला  सिरिस
अल्बीजिया लेवेक
ईधन, खम्भे,चारा, कृषि औजार, भूमि सरंक्षण, काष्ठ,शोभादार,टेनिन. कृषि वानिकी एवं वन-चारागाही पद्धति हेतु। 
सफ़ेद सिरिस
अल्बीजिया प्रोसेरा
ईधन, खम्भे, छाया, टेनिन, नाइट्रोजन स्थिरक, सुरक्षा घेरा, कृषि-वन-चारागाही पद्धति हेतु। 
कटहल
आर्टोकार्पस हेटेरोफिलस
फल, चारा, काष्ठ, छाया,शोभाकर, कृषि वानिकी हेतु। 
काजू
एनाकार्डियम ओक्सी  डेन्टेल
फल, गिरी,ईधन, भूमि सरंक्षण, उद्यानिकी-चारागाही हेतु
नीम
अजेदिरेक्टा इंडिका
काष्ठ , ईंधन,औषधि,खम्भे,छाया, पर्यावण और भूमि सुधार.कृषि वानिकी, वन-चारागाही पद्धति.
कचनार
बौहिनिया बेरिगेटा
ईंधन, चारा, कृषि औजार, छाया, सौन्दर्य,टेनिन, भूमि सरंक्षण.कृषि-वानिकी.
नारियल
कोकोस न्यूसीफेरा
फल, रेशा, भूमि सरंक्षण,सीमान्त एवं समूह वृक्षारोपण.
छोटा लसोड़ा
कोर्डिया डाइकोटोमा
फल, काष्ठ, ईंधन, चारा, गोंद. कृषि-वन-चारागाही, कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण)
शीशम
डेल्बर्जिया  लेटीफ़ोलिया   
काष्ठ,ईंधन, चारा,पल्प, औषधि,छाया, भूमि सरंक्षण.कृषि वानिकी, वन चारागाही.
आंवला
इमब्लिका ऑफिसिनेलिस
फल, चारा, ईंधन, औषधि,कृषि औजार. कृषि वानिकी, वन चारागाही.
सफेदा
यूकेलिपटस प्रजाति
ईंधन, खम्भे, तेल, गृह निर्माण,भूमि सरंक्षण, कृषि वानिकी (सीमान्त वृक्षारोपण).
जामुन
यूजीनिया जैम्बोलना
फल, चारा, काष्ठ,खम्भे,औषधि,छाया, भूमि सरंक्षण, वन-उद्यानिकी,बहुउद्देशीय पद्धति.
सूबबूल
ल्युकीना ल्यूकोसेफैला
ईंधन, खम्भे,चारा,पल्प,नाइट्रोजन स्थिरक,भूमि सरंक्षण, कृषि वानिकी, कृषि-वानिकी-चारागाही, उद्यान-वानिकी
आम
मैंजीफेरा इंडिका
फल, काष्ठ, ईंधन, छाया.कृषि वानिकी, वन-उद्यानिकी, बहु मंजलीय खेती। 
बकायन
मीलिया एजाडराक  
ईंधन, काष्ठ, कृषि औजार, औषधि, पर्यावरण सुधार.कृषि वानिकी, वन-चारागाही। 
मुनगा
मोरिंगा ओलीफेरा
सब्जी,चारा, ईंधन, पैकिंग,औषधि,भूमि सरंक्षण.कृषि-वानिकी-चारागाही, वानिकी-उधानिकी.
शहतूत
मोरस एल्बा
फल, रेशम उत्पादन, चारा,भूमि सरंक्षण. कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), कृषि-वानिकी-चारागाही। 
खेजरी
प्रोसोपिस सिनेरैरिया
ईंधन, चारा, खम्भे, कृषि औजार, सब्जी,नाइट्रोजन स्थिरक,भूमि सरंक्षण. कृषि वानिकी (कतार रोपण), कृषि-वानिकी-चारागाही। 
विलायती कीकर
प्रोसोपिस ज्यूलीफ्लोरा
ईंधन, चारा, नेक्टर, खम्भे,नाइट्रोजन स्थिरक, भूमि सरंक्षण. क्रिश्सी वानिकी, वन-चारागाही। 
पोपुलर
पोपुलस प्रजाति
काष्ठ, ईंधन, चारा, पल्प,माचिस उद्योग. कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), वन उद्यानिकी।
करंज
पोनोमिया पिन्नैटा
काष्ठ, ईंधन, चारा, हरी खाद, छाया, औषधि. कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), बहु उद्देशीय पद्धति।
विलायती इमली
पिथिसेलोबियम डल्से
खम्भे, ईंधन, चारा, टेनिन,गोंड, नेक्टर, नाइट्रोजन स्थिरक, फल.सुरक्षा पंक्तियाँ.बहु उद्देशीय पद्धति।
अगस्तय
सेस्बेनिया ग्रेन्डीफ्लोरा
ईंधन, चारा, खाद्य,नाइट्रोजन स्थिरक, भूमि सरंक्षण, कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), करिसी-वन-चारागाही.
इमली
टेमेरिन्डस इंडिका  
फल, काष्ठ, ईंधन, चारा, छाया, औषधि, सुरक्षा पंक्ति. कृषि वानिकी(सीमान्त, समूह रोपण), वन उद्यानिकी।
बेर
ज़िज़िफश मोरिशियाना
फल, काष्ठ, खम्भे,ईंधन, चारा,कृषि औजार, छाया. लाख कीट पालन, भूमि सरंक्षण. कृषि वानिकी (सीमन व समूह रोपण),  वानकीय-चारागाही।

स्त्रोत:श्याम सुन्दर श्रीवास्तव (2001)


कृषि वानिकी के लाभ 

             बढती जनसँख्या और विकास की सरपट दौड़ में भागते मानव ने  प्राकृतिक संसाधनों को  काफी क्षति पहुचाई है जिससे हमारा पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है और हमें वैश्विक तपन जैसी समस्याओं का सामना कर पड़  रहा है. संतुलित पर्यावरण मानव जीवन के लिए आवश्यक है  और संतुलित पर्यावरण निर्माण मृदा, पौधे, पानी, मानव  भूमि की उत्पादकता बनाए रखते हुए  खाद्यान्न, ईधन, चारा, फल, काष्ठ जैसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु  वनों पर पड़ने वाले दवाव को कम करना, भूमि क्षरण को रोकना, मृदा में  नमीं सरंक्षण, वायु वेग को कम करना तथा बढ़ते हुए प्रदुषण को रोकना   आज की महती आवश्यकता है।  यधपि बढ़ती हुई जनसँख्या हेतु खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए सघन कृषि आवश्यक है तो ईधन ब लकड़ी, पशुओं के लिए चारा तथा पर्यावरण सरंक्षण के लिए कृषि वानिकी को अपनाना अति आवश्यक है।  कृषि वानिकी अपनाने से निम्न लिखित फायदे होते  है :
  • वृक्षों और फसलों को एक साथ उगाने से पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में मदद मिलती है। 
  •   सीमित भूमि से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है तथा भूमि की उत्पादकता बनी रहती है क्योंकि फसलों और वृक्षों का मूल तंत्र भिन्न होता है। 
  •  भूमि में जीवांश पदार्थ की मात्रा में व वृधि होती है जिससे भूमि की जल धारण क्षमता और पोषक तत्व उपलब्धता बढ़ जाती है। 
  •  भूमि उपयोग की वैकल्पिक पद्धतियां होने से भूमि का बेहतर उपयोग होता है। 
  •  भूमि की उर्वरा शक्ति बदती है, मृदा क्षरण पर रोक लगती है  और ऊसर भुमिओं में सुधार होता है। 
  •  खाधान्न के अलावा जलाऊ लकड़ी, काष्ठ, फल और पशुओं के लिए वर्ष भर हरा चारा उपलब्ध होता है। 
  • वृक्षों के अनावरण से सूक्ष्म वातावरण में सुधार होता है जिससे फसलोत्पादन में वृधि होती है। 
  •  प्राकृतिक प्रकोप जैसे आंधी, तूफ़ान, अति वृष्टि, अल्प वृष्टि आदि से फसलों में हुई क्षति की पूर्ती वृक्षों से हो जाती है। 
  • किसानो को वर्ष पर्यंत रोजगार और आय के अतरिक्त साधन उपलब्ध होते है। 
  • वनों पर निर्भरता कम होने से वन सरंक्षण और उनके विस्तार में सहायक है। 
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