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शनिवार, 2 जून 2018

फसल चक्र अपनाएं, भूमि की उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाएं


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

           आधुनिक युग में खेतों से अधिकतम उत्पादन लेने हेतु नाना प्रकार के खाद एवं उर्वरक उपलब्ध हैं. खरपतवारों, कीटों तथा बीमारियों से पौधों की रक्षा करने के लिए अनेक शाकनाशी तथा कीटनाशक और रोगनाशक रसायनों से बाजार अटा पड़ा है जिनसे खरपतवारों तथा कीट-रोगों का प्रभावी ढंग से नियन्त्रण किया  जा सकता है।  प्राचीन समय में   भूमि की उर्वरता बढ़ाने, कीट-ब्याधिओं के नियंत्रण हेतु विविध फसल चक्र अपनाने के अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता था लेकिन आज उन्नत और आधुनिक कृषि के दौर में हमारे पास भूमि की उर्वरता और उत्पादकता को टिकाऊ बनाये रखने, कीट-रोग और खरपतवारों के नियंत्रण हेतु  सस्ते तथा कम समय में प्रभावकारी अनेक  विकल्प उपलब्ध है। अतः  कृषि को लाभकारी बनाने के लिए अथवा खेती से दो गुनी आमदनी प्राप्त करने के लिए  हमें  बाजार की मांग के अनुसार तथा भूमि और जलावायुविक परिस्थितिओं को ध्यान में रखते हुए फसल चक्र  अपनाने की महती आवश्यकता हैं।
फसल चक्र का मुख्य उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखना तथा इसके अलावा कीट-ब्याधिओं से फसल की सुरक्षा करना होता है । प्राचीन समय में फसल चक्र में हरी खाद की फसल उगाना तथा खेत को परती छोड़ना आवश्यक समझा जाता था परन्तु आधुनिक कृषि में सघन फसल पद्धति को अपनाना मजबूरी है क्योंकि आधुनिक समय में हमारी जनसंख्या जिस तरह से बढ़ रही है उसके लिए यह आवश्यक है कि सघन खेती वाले कार्यक्रमों के लिए सघन फसल चक्र अ[नए  जायें ताकि कम समय में प्रति इकाई क्षेत्र से अधिकतम  उत्पादन/आर्थिक लाभ  प्राप्त किया जा सके

फसल चक्र के प्रकार

Ø ऐसे फसल चक्र जिनके पूर्ण या बाद में खेत परती छोड़ी छोड़ा जाता है जैसे- परती-बाजरा, गेहॅू-परती आदि.
Ø से  फसल चक्र जिनमें मुख्य फसल से पूर्व या बाद में हरी, खाद वाली फसल उगाई जाती है .उदाहरणार्थ हरी-खाद-जौ, हरी खाद-गेहॅू गेहॅू-हरी खाद।
Ø ऐसे फसल चक्र जिसमें बिना दाल वाली फसल से पूर्व अथवा बाद में दाल वाली फसल उगाई जाती है उदाहरणार्थ- गेहॅू-सोयाबीन,ज्वार-चना, अरहर-मक्का, मूंगफली-गेंहू आदि
Ø भूमि की उर्वरा शक्ति की परवाह किये बिना  अनाज के बाद  फिर अनाज वाली फसल लेना जैसे- धान-गेंहू, मक्का-गेंहूँ आदि.
Ø भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये दाल वाली फसलों  के बाद दलहन फसल  ली जा सकती है  जैसे अरहर-मुंग,मॅूग-चना, सोयाबीन-मटर/मसूर आदि.
Ø से फसल चक्र जिनमें सघन फसल पद्धति से विविध फसलों की खेती की जाती है जैसे- धान-गेंहू-मूंग, मॅूग-मक्का, तोरिया-गेहॅू-लोबिया, मक्का-चना-मक्का आदि फसल चक्रों में से कृषक भूमि, जलवायु, सिंचाई आदि की सुविधानुसार कोई सा भी फसल चक्र अपना सकते  है।

फसल चक्र के सिद्वान्त

              फसल चक्र का  निर्धारण करने  से पूर्व किसान को अपनी भूमि का आकर-प्रकार, जलवायु, सिंचाई साधन,फसल का प्रकार, किस्में,दैनिक आवश्यकताएं, लागत का स्वरूप तथा भूमि की उर्वरा शक्ति को ध्यान में  रखना चाहिए।   फसल चक्र बनाते और अपनाते  समय किसान भाइयों को अग्र प्रस्तुत बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिये:
1. दलहनी फसलों के बाद खाद्यान्न  फसलें उगाना चाहिये। दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रन्थियां पाई जाती है जिनमे नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले  राइजोबियम जीवाणु पाये जाते हैं जो वायमण्डल की नत्रजन को भूमि में स्थिर करते है  इससे भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है जो की आगामी फसल के लिए लाभदायक होती है।          
2. गहरी जड़ों वाली फसलों के साथ उथली जड़ों वाली फसल उगानी चाहिय क्योंकि गहरी जड़ों वाली फसलें भूमि में गहराई से पोषक  तत्वों का अवशोषण करती है तथा उथली जड़ों वाली फसल ऊपरी भूमि उपस्थित  शेष पोषक तत्वों का अवशोषण कर सकती है इस प्रकार की फासले उगाने से भूमि की विभिन्न परतों में विद्यमान पोषक तत्वों का समुचित उपयोग हो जाता है. उदहारण अरहर-गेंहू, चना-धान,कपास-मैंथी आदि।    
3.अधिक खाद चाहने वाली फसलों के साथ कम खाद चाहने वाली फसलें बोना चाहिए. आधिक खाद-उर्वरक चाहने वाली फसलें लगातार एक ही भूमि में लगाते रहने से भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है और खेती की लागत भी बढ़ जाती है.अतः अधिक पोषक तत्व चाहने वाली फसलों के बाद कम पोषक तत्व चाहने वाली फसलें लगाना चाहिए. जैसे गन्ना-गेंहू, धान-चना,आलू-लोबिया,मक्का-मूंग/उर्द आदि।  
4. अधिक पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम पानी चाहने वाली फसलें बोना चाहिए .इससे  उपलब्ध सिंचाई साधनों का सदुपयोग हो सकेगा. इसके अलावा इस प्रकार के फसल चक्र से  भूमि का वायु संचार अच्छा ना रहेगा। खेत में लगातार अधिक पानी चाहने वाली फसलें उगाते रहने से मृदा जल स्तर ऊपर आ जायेगा जिससे भूमि की सेहत खराब हो सकती है . उदहारण गन्ना-जौ, धान-चना/मटर आदि .   
5. फसलें  इस प्रकार ली जानी चाहिये कि फार्म पर उपलब्ध  सिंचाई साधनों, खाद एवं उर्वरकों, कृषि  यन्त्रों आदि  का भली-भांति  सदुपयोग हो सके। इसके अतिरिक्त उपलब्ध श्रम, बीज, भूमि इत्यादि के सही उपयोग के आधार पर   फसल चक्र बनाना/अपनाना चाहिये।
6.फसल चक्र में इस तरह की फसलों को समायोजित करना चाहिए कि अधिकाधिक आर्थिक लाभ   हो सके। इसके लिये आवश्यक है कि स्थानीय आवश्यकताओं तथा स्थानीय बाजार का भली भाँती  होना चाहिए ताकि उसी के अनुसार फसल चक्र बनाया जाये।
7.अधिक कर्षण क्रियाये/भूपरिष्करण चाहने वाली फसल के बाद कम कर्षण क्रियाये चाहने वाली फसल लगाना चाहिए।  इस प्रकार के फसल चक्र से मृदा की भौतिक सरंचना अच्छी बनी रहती है . इससे फसल उत्पादन लागत भी कम आती है। 

फसल चक्र का चुनाव

          किसी भी फसल चक्र को बनाने और उसे अपनाने  से पूर्व उसमें सम्मिलित की जाने वाली फसलों का चयन करते समय  निम्नलिखित कारकों को  ध्यान में  रखना आवश्यक होता है:
v जलवायु:- अपने क्षेत्र विशेष के लिए फसल चक्र बनाते/अपनाते समय क्षेत्र की जलवायु  अर्थात  वर्षा की मात्रा और उसका वितरण, अधिकतम और न्यूनतम  तापक्रम,प्रकाश की अवधि को ध्यान में रखना आवश्यक होता है. 
v मुदा :- फसल चक्र में विभिन्न फसलों के चयन के समय खेत में उपलध मृदा नमी ; मृद गठन ; मृदा पी. एच.  मान को ध्यान में रखना चाहिए। 
v सस्य प्रबन्धन:-खाद व उर्वरकों की उपलब्धता, सिंचाई जल की उपलब्धता, फसल  सुरक्षा रसायनों (कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण हेतु)  उपलब्धता के आधार पर फसलों का चयन लाभकारी होता है। 
v आर्थिक कारक :- फसल की आवश्यकता या माग,  ; फसल का बाजार  मूल्य या कीमत को भी ध्यान में रखकर फसलों का चयन करना चाहिए। 

फसल चक्र के फायदे

              फसल चक्र अपनाने से मृदा उर्वरता तथा मृदा नमी का सन्तुलित रूप से उपयोग होता है । उदाहरणार्थ यदि एक फसल मृदा से अधिक मात्रा में पोषक तत्व ग्रहण करती है तो अगली दलहनी फसल मृदा में पोषक तत्व का स्थिरीकरण करती है। इस प्रकार मृदा उर्वरता और उत्पादकता में  सन्तुलन बना रहता है।
§  विभिन्न दलहनी, उथली,गहरी, जड़ों वाली फसलों का समावेश फसल चक्र में होने के कारण मृदा के भौतिक, रासायनिक, जैविक गुणों में सुधार  होता है।
§  फसल चक्र में विभिन्न तरह की फसलों के समायोजन के कारण खरपतवारों, कीटों तथा बीमारियों पर प्रभावी  नियंत्रण रखा जा सकता है। एक ही फसल खेत में बार-बार उगाने  से फसल पर कीट ब्याधिओं का प्रकोप  बढ़ता है।
§  मृदा की उर्वरा शक्ति, मृदा, नमी, वायु, संचार इत्यादि जब अच्छे बने रहते हैं तो फसलोत्पादन स्वतः ही बढ़ जाता है और उपज अपेक्षाकृत अधिक प्राप्त होती है।
§  कीट तथा बीमारियों से बचाव के कारण फसल उपज की गुणता बढ़ जाती है।
§  अच्छे गुण वाली अधिक फसल उपज होने के कारण अधिक आर्थिक लाभ होता है।
§  फसल चक्र अपनाकर खेती करने से सिंचाई के साधनों, फार्म, यन्त्रों, मजदूरों, की उपलब्धता तथा उपलब्ध अन्य साधनों हम भली-भाॅति उपयोग में ला सकते हैं और उनकी दक्षता बढ़ा सकते हैं तथा इस प्रकार उनकी आयु भी बढ़ जाती है।
इस प्रकार से किसी भी क्षेत्र में टिकाऊ और लाभकारी फसलोत्पादन के लिए किसानों को अपने खेत मृदा के प्रकार, जलवायु, सिंचाई, खाद एवं उर्वरकों  की उपलब्धता, बाजार भाव आदि के आधार पर फसल चक्र का चयन कर अपनाने से टिकाऊ फसलोत्पादन लिया जा सकता है।   
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

शनिवार, 26 मई 2018

वर्षा निर्भर क्षेत्रों में टिकाऊ उत्पादन और अधिक आमदनी के कारगर उपाय


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर, 
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान) 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, 
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

                  विश्व की बढती आबादी के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए हमे कम से कम भूमि से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना होगा।  हमारे पास उपलब्ध कृषि क्षेत्र में, अधिक से अधिक भूमि का उपयोग कर लिया गया है तथा कृषि क्षेत्र के विस्तार की अब सम्भावना नहीं है।  अब प्रश्न यह उठता है की मिट्टी, पानी एवं हवा को प्रदूषित किये बिना, पर्यावरण की दृष्टी से सुरक्षित, सामाजिक रूप से मान्य तथा आर्थिक दृष्टिकोण से व्यवहारिक तरीकों से क्या हम फसलोत्पादन के लक्ष्यों को वाकई हासिल  कर सकते है।  विश्व का ७५-९० % भूभाग कम वर्षा वाले क्षेत्र के अंतर्गत आता है।  संसार में पैदा होने वाली अरहर का ९५%, जुआर का ९०%, बाजरे का ८०% और मूंगफली का ५०%  वर्षा आश्रित क्षेत्रों  के किसान पैदा कर रहे  है और   आने वाले समय में विश्व की बढती जनसँख्या की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक फसलोत्पादन इसी क्षेत्र से आने की सम्भावना है।   भारत में ६०-६५% खेती पुर्णतः वर्षा पर निर्भर है।  वर्षा आश्रित  खेती को ही बारानी खेती कहा जाता है।  देश में कुल खाद्द्यान्न उत्पादन का अमूमन ४४% भाग इन्ही क्षेत्रों से आता है और देश की कुल आबादी के ४०% लोगों की आवश्यकता इससे पूरी होती है। वर्षा जल तथा अन्य  संसाधनों की उपलब्धतता की दृष्टि से इन क्षेत्रों में व्यापक क्षेत्रीय असमानताएं विद्यमान है।  हमारे देश का लगभग ३०% क्षेत्र (१०.९ करोड़ हेक्टेयर) सूखे की आशंका वाला है, जहाँ ०-७५० मिमी तक वार्षिक वर्षा होती है। वहीँ  ४२% क्षेत्र पर ७५०-११५० मि.मी., २०% क्षेत्र पर ११५०-२००० मि.मी. और शेष ८% क्षेत्र में  २००० मि.मी. से अधिक वर्षा का लाभ मिलता है।  देश के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में खेती के लिए सिचाई तो दूर पीने के पानी की भी किल्लत होती है. सामान्यतौर पर देश में औसतन १२०० मिमी वार्षिक वर्षा होती है जिसका ७५-९० % हिस्सा जून से सितम्बर के समय दक्षिण-पश्चिमी मानसून के सक्रीय होने से होती है. वर्षा में अनिश्चितता और विभिन्नता के कारण एक तरफ शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में सूखे से फसलोत्पादन प्रभावित होता है तो दूसरी ओर अधिक वर्षा से मृदा कटाव और बाढ़ से फसलोत्पादन प्रभावित होता है।

 टिकाऊ  कृषि  प्रबंधन के कारगर  उपाय

            स्थाई कृषि प्रबंधन के तहत ऐसी दीर्धकालीन कृषि प्रक्रियाओं का विकास करना है जो उत्पादक और लाभप्रद हो, जिनसे प्राकृतिक संसाधनों का सरंक्षण हो सके, पर्यावरण सुरक्षित रहे, उत्पाद में गुणवत्ता कायम रहे तथा स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की दृष्टि से लाभप्रद भी हो.इस उद्देश्य की पूर्ती हेतु हमे कम लागत वाली ऐसी कृषि तकनीकों की व्यवस्था करनी होगी जिनसे प्रबंधन में दक्षता आये और फसल उत्पादन में काम आने वाले कृषि संसाधनों का कुशल उपयोग हो सकें तभी हम बारानी क्षेत्रो में फसल उत्पादन को स्थायित्व प्रदान कर सकते है। फसलो की अदला बदली करके (फसल परिवर्तन) बुआई जैसे दलहनी फसलों के बाद धान्य फसलों की बुआई करना चाहिए। रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, जैव उर्वरक आदि के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना चाहिए अथवा रासायनिक और जैविक खाद को 2/3 और 1/3 के अनुपात को अपनाना मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन की दृष्टि उपयुक्त माना गया है.इससे फसल उत्पादकता में स्थायित्व लाया जा सकता है। रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग न करें वरन इनका संतुलित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए जैसे अनाज वाली फसलो के लिए 4:3:1 के अनुपात में नत्रजन:स्फुर:पोटाश की मात्रा देना चाहिए एवं दलहनी फसलो में 1:2:1 के अनुपात में उक्त तत्व देना लाभकारी पाया गया है।
                   अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में प्राप्त वर्षा जल का सरंक्षण करना, जैव कीटनाशी,फफूंदनाशी और खरपतवारनाशी के आवश्यकतानुसार प्रयोग को बढावा देना चाहिए. तालाबो में वर्षा जल को एकत्रित करना तथा खेत में मेंढ़ बंदी कर वर्षा जल को सरंक्षित करना चाहिए. तालाबों में एकत्रित जल से हम सूखे की स्थिति में जीवनदायी सिचाई दे सकते है. खेत में सरंक्षित नमीं का उचित उपयोग कर हम फसल उत्पादन में वृद्धि कर सकते है। बारानी फसलो की बुआई के समय ही ही खाद-उर्वरक देना चाहिए या फिर जीवन दाई सिचाई के समय इनका प्रयोग करना लाभदायक रहता है. इसके साथ साथ खरपतवारों का समन्वित नियंत्रण करने से फसलोत्पादन  में इजाफा होता है। बारानी खेती में उचित फसल पद्धति अपनाने से उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी होती है। इन क्षेत्रों में एक फसली खेती या फिर अंतरवर्ती फसल प्रणाली अपनाने से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लिया जा सकता है। फसलोत्पादन के साथ साथ पशुपालन (गाय, भैस, बकरी भेड़ पालन), मुर्गी पालन आदि सहायक कृषि व्यवसाय लाभदायक रहते है। इन क्षेत्रों की समस्याग्रस्त भुमिओं में फलदार वृक्ष लगाना अथवा वन-वृक्ष लगाने से ईधन, चारा, इमारती लकड़ी के साथ साथ अनेक प्रकार के खाद्ध्य पदार्थ प्राप्त किये जा सकते है।  इन जमीनों के उचित प्रबंधन से फसल उत्पादन भी किया जा सकता है।

स्थायी संसाधन प्रबधन


भूमि, जल, जलवायु, पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ कृषि विकास के स्तम्भ है जिनके उचित सरंक्षण और प्रबंधन से ही स्थायी कृषि विकास और मानव कल्याण संभव है.हमें ऐसी कृषि तकनीकियों को अमल में लाना होगा जिनसे कृषि उत्पदान और अनाज की गुणवत्ता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े और साथ ही साथ भूमि, जल,पर्यावरण और जैव विविधितता भी असंतुलित न हो।  कृषि में सौर्य उर्जा के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और खाद्धय पदार्थों की गुणवत्ता और शुद्धता बनाये रखने के लिए हमें रासायनिको का प्रयोग कम करना होगा अपितु रासायनिक खेती की वजाय जैविक खादों का इस्तेमाल कर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना होगा।

भूमि का सही प्रबंधन


बारानी अथवा शुष्क कृषि के स्थायित्व के लिए भूमि की उत्पादकता बढ़ाना निहायत जरुरी है.वर्तमान में बारानी कृषि की फसल उत्पादकता ८-१० क्विंटल प्रति हेक्टेयर है जो कि नाकाफी है. उत्पादकता का मापन हम फसल उत्पादन से करते है जबकि भूमि उत्पादकता को प्रभावित करने वाले तमाम कारको यथा मृदा कटाव,पोषक तत्वों का वर्षा जल के साथ बह जाना, अम्लीयता, क्षारीयता, जल भराव, मरुस्थलीकरण आदि की अवहेलना कर देते है. जबकि फसल अवशेष प्रबंधन,जल सरंक्षण, जल निकास,कंटूर का निर्माण, संतुलित उर्वरक प्रबन्धन, उचित फसल चक्र, मृदा प्रबन्धन आदि का मिट्टी, जलवायु और फसल प्रणाली के साथ तालमेल करके भूमि की उत्पादकता में वृद्धि कर सकते है।

वर्षा जल का उचित प्रबंधन


बारानी क्षेत्रों की उत्पादकता बढाने के लिए प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल का सरंक्षण और उसका सही उपयोग सफल फसल उत्पादन का महत्वपूर्ण कारक है। इन क्षेत्रों में प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्रों के समुचित प्रबंधन एवं पानी के समन्वित रूप से उपयोग को बढ़ावा दिया जाना अत्यावश्यक है.खेत का पानी खेत में और गाँव का पानी गाँव में सरंक्षित करने की अवधारणा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इन क्षेत्रों में दबाव पर आधारित सिंचाई प्रणालियों जैसे स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई अपनाने से पानी की बचत भी होती है और कम पानी में हम अधिक क्षेत्र में सिंचाई दे सकते है.जिन बारानी क्षेत्रों में बलुई दोमट मिट्टी पायी जाती है वहां वर्षा से पहले जुताई कर लेनी चाहिए तथा ढलान के विपरीत दिशा में चारों  तरफ ऊंची (लगभग ५० सेमी ) मेड बना लेना चाहिए, इससे वर्षा जल सरंक्षण में मदद मिलती है.कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मानसून से पहले खेत की गहरी जुताई (२५ सेमी) से भूमि में वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते है की बारानी क्षेत्रों में वर्षा जल के उचित प्रबंधन से वहां की उत्पादकता को दुगना किया जा सकता है।

              बारानी क्षेत्रों में सिंचाई का एकमात्र साधन वर्षा जल ही होता है।  किसी भी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता की अवधि के निर्धारण के लिए कुल वर्षा, उसका वितरण और वाष्पन से होने वाली हाँनि का आकलन करना आवश्यक है. इन क्षेत्रों में फसलों के लिए पानी की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है जब वर्षा की मात्रा और वाष्पन से होने वाली क्षति का अनुपात कम से कम ०.३३ होता है. इसे आद्रता की उपलब्धतता का सूचकांक भी कहा जाता है.इसके आधार पर जमीन में नमीं की उपलब्धता सुनिश्चित करते हुए फसल बुआई के समय का निर्धारण किया जा सकता है.मान लीजिये की कही औसत वर्षा ७५० मिमी हो रही है तो बुआई का समय जमीन में ७५% आद्रता स्तर के आधार पर १५-२० सप्ताह हो सकता है।

समेकित फसल प्रबंधन


आमतौर पर बारानी क्षेत्रों में दलहनी फसलें जैसे अरहर, मोठ, चना. मसूर, गुआर आदि धान्य फासले जैसे जुआर, बाजरा, रागी,कोदो, जौ आदि तथा तिलहनी फसलें जैसे मूंगफली,सरसों, अलसी आदि की खेती प्रचलित है. इन फसलों के लिए उपयुक्त क्षेत्र अनुसार कम अवधि वाली एवं कम पानी  चाहने वाली फसल और उनकी उन्नत किस्मो का चयन कर उचित समय पर सही विधि से बुआई  करने से प्रति इकाई बेहतर उपज प्राप्त की जा सकती है। फसलों को फसल चक्र के सिद्धांत के अनुसार अदल-बदल कर बोना, खेत में  उपलब्ध नमीं  के अनुसार एक फसल लेना या अंतरवर्ती फसल प्रणाली को अपनाना चाहिए जिससे प्रति इकाई  क्षेत्रफल से अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकें।

संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन


कहते है बारानी क्षेत्रों की जमीने न केवल प्यासी है बरन वे भूखी भी है। अतः वर्षा जल प्रबंधन के साथ साथ इन जमीनों में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की सही खुराक देना भी उत्तम फसल उत्पादन के लिए आवश्यक पाया गया है.इन क्षेत्रों के किसान बहुदा खाद एवं उर्वरक का उपयोग कम और असंतुलित मात्रा में करते है जिससे उन्हें बांक्षित उत्पादन नही मिलता है। इन क्षेत्रों में पोषक तत्वों का संतुलित प्रयोग साधारणतया खेत में नमी की उपलब्धता या जीवनदायी सिंचाई पर निर्भर करता है. सभी आवश्यक पोषक तत्वों (नत्रजन, फॉस्फोरस व् पोटाश) को बुआई के समय ही कूंड में हल के पीछे देना या फिर सीड-कम-फर्टी ड्रिल मशीन द्वारा बीज के साथ उचित गहराई पर देना लाभदायक रहता है. इससे पोषक तत्व आसानी से पौधो को उपलब्ध होकर उनके वृद्धि एवं विकास में मदद करते है. यदि जीवन रक्षक सिंचाई की उपलब्धता है अथवा संयोग से फसल वृद्धिकाल में वर्षा हो जाती है तो नत्रजन की एक चौथाई मात्रा को कड़ी फसल की कतारों (टॉप ड्रेसिंग) में देना बहुत लाभदायक रहता है।

इष्टतम पौध संख्या एवं खरपतवार प्रबंधन


बारानी क्षेत्रों में अधिकतम उत्पादन लेने के लिए प्रति इकाई क्षेत्र में पौधों की उचित संख्या को व्यवस्थित करना  बेहद जरुरी होता है। आवश्यकता से अधिक पौध संख्या प्रति वर्ग मीटर वाष्पोत्सर्जन को बढ़ावा देती है जिससे खेत में  नमी समाप्त हो जाने से पौधों की वृद्धि एवं विकास अवरुद्ध हो जाता है। दूसरी तरफ कम पौध संख्या होने से भी उपज कम हो जाती है।  अतः बुआई के १५ दिन बाद पौधो का विरलन कर खेत में पौधों की इष्टतम संख्या व्यवस्थित कर लेना चाहिए।  फसल की प्रारम्भिक वृद्धिकाल के समय ही खरपतवारों का उन्मूलन/नियंत्रण कर लेने से उत्पादन अच्छा होता है।  क्योंकि खरपतवार पानी, पोषक तत्व और प्रकाश के लिए फसल के साथ प्रतियोगिता करके फसल को बुरी तरह नुकसान पहुंचाते है. अतः समय पर समेकित खरपतवार नियंत्रण   करना जरुरी है. दलहनी फसलो में पेंडीमेथालिन १-१.२५ किग्रा एवं तिलहनी फसलों में फ्लुक्लोरालिन १.१.५ किग्रा दवा को ५००-६०० लिटर पानी में घोलकर बुआई के पूर्व और बुआई के तुरंत बाद खेत में छिडकाव करने से खरपतवारों को नियंत्रित रखा जा सकता है। इसके बाद बुआई के ३०-३५ दिन बाद पुनः जमे हुए खरपतवारों को निंदाई गुड़ाई करके समाप्त किया जा सकता है. इस प्रकार फसल की इष्टतम पौध संख्या स्थापित करने के साथ समय पर खरपतवार नियंत्रण से भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है।

अपनाने होंगे कृषि आधारित उद्यम  


शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में अनिश्चित और अनियमित वर्षा के कारण  सिर्फ फसलोत्पादन से आर्थिक सम्पन्नता नहीं आ सकती है. इन क्षेत्रों में हमे कृषि भूमि के वैकल्पिक उपयोग पर भी ध्यान देना होगा. अतः  अनाज, दलहन और तिलहनी फसलो के साथ साथ खेतों में  फलदार वृक्ष लगाकर कृषि को लाभदायक बनाया जा सकता है.अदाहरण के लिए बेर, खेजड़ी, आंवला,आम, बेल आदि फलदार वृक्षों को उगाना लाभदायक पाया गया है.खेती के साथ साथ इन क्षेत्रो में गाय-भेष पालन,भेड़-बकरी पालन जिसे कृषि आधारित व्यवसाय भी आर्थिक दृष्टि से  फायदेमंद पाए गए है.इन क्षेत्रों में फसलोत्पादन को अधिक लाभकारी बनाने के लिए क्यारियाँ बनाकर खेती करना, चारागाह प्रबंधन और सस्य वानिकी जैसी कृषि विधाएं भी उपयोगी साबित हो रही है.

उपसंहार


वर्षा आधारित खेती वाले क्षेत्रों के उत्पादन में स्थायित्व लाने के लिए उन क्षेत्रों में उपलब्ध वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण और उसका सदुपयोग करना नितांत आवश्यक है।  इसके लिए हमे जल सरंक्षण के उपयुक्त तरीके (तालाब, पोखरों, कुओं आदि  में वर्षा जल को एकत्रित करना, नालों में बंधान बनाकर वर्षा जल को बहने से रोकना आदि) अपनाते हुए क्षेत्र/जलवायु के अनुसार उपयुक्त फसलें/किस्मो की खेती करना आवश्यक है. एकल फसल के साथ साथ मिश्रित और अंतरवर्ती फसल प्रणाली अपनाने से कृषि में जोखिम को कम किया जा सकता है.इन क्षेत्रों की कृषि भुमिओं में पोषक तत्वों की भरी कमी देखी गयी है।  अतः   टिकाऊ उपज के लिए बारानी क्षेत्रों में जैविक खेती/ समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.इस प्रकार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि बारानी क्षेत्रों में वर्षा जल प्रबंधन, मृदा एवं फसल प्रबंधन के साथ कृषि के सहयोगी उद्यम अपनाने से इन क्षेत्रों की उत्पादकता और आमदनी में स्थायित्व लाया जा सकता है।

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