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बुधवार, 6 जून 2018

बेहतर फसलोत्पादन हेतु जल सरंक्षण एवं सिंचाई की नवोदित पद्धतियाँ


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (ससिविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

            भारत की अधिकांश आबादी की जीविका-आजीविका का मुख्य आधार कृषि है जो शुरू से ही मानसून की वर्षा पर निर्भर रही है।  वर्षाकाल के बाद रबी फसलों की सिंचाई के लिए देश के सभी भागों में वर्षा जल संग्रहण की विविध प्रकार की परम्पराएँ प्राचीन काल से प्रचलन में रही है।  भारत के अनेक राज्यों में वर्षा जल सरंक्षण हेतु तालाब, पोखर, डबरियों की समृद्ध परम्परा रही है।  प्राचीनकाल से ही इन तालाबो का इस्तेमाल  फसलों की सिंचाई, मछली पालन, पशुओं के लिए पेयजल आदि कार्यो में किया जा रहा है।  वर्तमान में आबादी के बढ़ते दबाव के कारण तालाबों पर भी अवैध कब्जे होते जा रहे है।  इनके रख रखाव की कमी के कारण अधिकांश तालाब कचरे/खरपतवारों से अटे पड़े है जिससे उनकी जल संघ्रहण क्षमता कम हो गई है और उनमें संग्रहित जल की गुणवत्ता भी खराब हो चुकी है।  कुदरत ने हमें सदानीरा नदियाँ और झरनों के असंख्य स्त्रोत दिए है, साथ ही इनके प्रबंधन की परंपरागत तकनीकें और ज्ञान-विज्ञान भी हमारे पास है, लेकिन प्रकृति प्रदत्त जल स्त्रोतों का हमने अत्याधिक और असंतुलित दोहन किया है।  दरअसल  भूजल सदियों से भारत की जीवन रेखा रही है और आने वाले समय में भी रहेगी।  शहर हो या गाँव, कृषि हो या फिर उद्योग सभी की जरूरतें मुख्यतः भू-जल से ही पूरी हो रही है।  दुनिया में भूजल का सबसे ज्यादा दोहन भारत में हो रहा है।  देश के अधिकांश स्थानों पर भूजल का असंतुलित तरीके से अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है जिससे  भू-जल स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है और अनेक क्षेत्रों में भूजल स्त्रोत समाप्त होते जा रहे है जो आने वाले समय में भयंकर जल संकट की स्थिति आने का संकेत दे रहे है।  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के आंकलन के अनुसार वर्ष 2007 से 2017 के दरम्यान देश में 61% भूमि गत जल स्तर में गिरावट दर्ज की गई थी. वर्षा जल ही भूजल का मुख्य स्त्रोत है. हमारी नदियाँ, आद्र क्षेत्र, स्थानीय जल स्त्रोत जैसे तालाब, कुएं, वन क्षेत्र आदि भूजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) का कार्य करते है।  आज हमारी नदियाँ, तालाब आदि गाद से भरी पड़ी है जिससे उनकी  जल संग्रहण क्षमता कम हो गई है।  हमें नदियों और तालाबों में जमीं गाद (बालू,मिटटी/कचड़ा) निकालकर साफ़ सफाई की व्यवस्था करें ताकि उनमे वर्षा जल की अधिक मात्रा में संग्रहित हो सके. देश के अधिकांश राज्यों में भूजल पुनर्भरण (रिचार्ज) से अधिक जल खर्च हो रहा है, मसलन राजस्थान और दिल्ली में 137%, उत्तर प्रदेश में 74%, गुजरात में 67%,मध्य प्रदेश में 57% और छत्तीसगढ़ में 35% जल रिचार्ज से अधिक खर्च हो रहा है। 

                          कृषि क्षेत्र के लिए आवश्यक है जल सरंक्षण 

          भारत में लगभग 80 % जल कृषि में सिंचाई हेतु प्रयोग किया जाता है परन्तु जल की उपलब्धता में लगातार कमीं  के कारण कृषि क्षेत्र के लिए जल की उपलब्धतता पर दबाव अधिक बढ़ रहा है, और यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि, वर्ष 2025  तक कुल शुद्ध जल का केवल 63 % भाग ही कृषि उपयोग के लिए उपलब्ध हो पायेगा।  भारत में जहाँ 1951  में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177  घन मीटर थी वहीँ 2011  में यह घटकर 1545  घन मीटर पहुँच गई है।  इस प्रकार बीते 60  वर्षों में जल उपलब्धता में लगभग 70  प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई।  पानी की मांग उद्योग एवं घरेलू उपयोग में बढ़ने के कारण, सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता पर दबाव बढ़ता जा रहा है।  भारत में उपयोग किये जाने वाला भूमिगत जल स्त्रोत सीमित है।  भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन से जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष प्रति वर्ष घटती बारिश और गिरते भूजल की वजह से आसन्न जल संकट को ध्यान में रखते हुए भारत के प्रधान मंत्री ने प्रति बूँद अधिक फसल (मोर क्रॉप पर ड्राप) का नारा दिया है साथ ही सरकार ने प्रधान मंत्री सिचाई परियोजना प्रारम्भ की है।  अधिकांश किसानों द्वारा अपनाई जा रही  पारंपरिक सिंचाई प्रणाली की जल उपयोग दक्षता बहुत ही कम (35-40 %) है।  प्रति इकाई जल से अधिकतम फसल उत्पादन  हेतु विशेषकर  नकदी फसलों/सब्जियों/फलों के लिए ड्रिप सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, पलवार का प्रयोग, उठी क्यारियों में कूंड  द्वारा सिंचाई, सीमित जल नियंत्रित सिंचाई आदि तकनीके बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही है जिनके प्रयोग से नकदी फसलों/सब्जियों से सर्वाधिक पैदावार के साथ साथ अधिकतम जल उपयोग क्षमता भी  हासिल की जा सकती है।
जल सरंक्षण और सिंचाई की उन्नत तकनीके
1. ड्रिप या टपक सिंचाई
           भविष्य में जल कमी की भयावता को देखते हुए कृषि क्षेत्र में प्रकृति प्रदत्त जल के सही/कुशल उपयोग की आवश्यकता है।  कृषि में सिंचाई हेतु टपक सिंचाई जैसी विधि को अपनाकर हम जल को संरक्षित कर संपोषित विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। टपक सिंचाई, सिंचाई की वह विधि है जिसमें जल को मंद गति से बूँद-बूँद के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाइप से प्रदान किया जाता है। इस सिंचाई विधि में उर्वरकों को घोल के रूप में भी प्रदान किया जाता है।
 टपक सिंचाई या बूँद बूँद सिंचाई पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हो रही है. भारत में लगभग 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जियों एवं फलों की सिंचाई ड्रिप के माध्यम से होती है, जबकि पूरे देश में इसकी क्षमता 60 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जी फसलों की सिंचाई करने की है।  सिंचाई की इस नवोदित  पद्धति में पानी की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है एवं पानी के अधिकतम उपयोग क्षमता को इस विधि से प्राप्त किया जा सकता है।  इसमें बूँद-बूँद करके पानी प्रत्येक पौधे की जड़ों के पास ड्रिपर के माध्यम से दिया जाता है।  इस विधि में पानी कम अंतराल पर लेकिन कम मात्रा में दिया जाता है। मृदा जल नमीं हमेशा लगभग क्षेत्र क्षमता पर बरक़रार रखा जाता है जो कि सब्जी उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त नमी स्तर होता है। 
          टपक सिंचाई से लगभग 25 -70  प्रतिशत पानी बचाया जा सकता है जो मृदा, जलवायु, फसल आदि पर निर्भर करता है।  ड्रिप सिंचाई पद्धति से 85-90  % तक जल उपयोग दक्षता हासिल की जा सकती है जबकि पारम्परिक सिंचाई प्रणाली में जल उपयोग दक्षता लगभग 50 ¬प्रतिशत तक ही होती है। भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी में किये गए प्रयोगों में टमाटर, खीरा, भिन्डी एवं ब्रोकली में ड्रिप सिंचाई के प्रयोग से क्रमशः 55 -62  %, 34  %,31 % एवं 38 % तक जल की बचत दर्ज की गई है।  टपक सिंचाई के साथ प्लास्टिक पलवार का प्रयोग करने से 15 -35  % तक अतिरिक्त जल की बचत के साथ जल प्रयोग की दक्षता में काफी सुधर हुआ।  सिंचाई की यह विधि शुष्क  एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ इसका उपयोग नकदी फसलें/सब्जियों/फलों की सिंचाई हेतु किया जाता है।
2.छिडकाव या फौव्वारे द्वारा सिंचाई
          सिंचाई की फव्वारा या बौछारी विधि में पानी फव्वारे  के रूप में वर्षा जल की तरह भूमि पर गिराया जाता है।  पानी सूक्ष्म छिद्र या नोज़ल के माध्यम से उपयुक्त दबाव देकर फौव्वारे के रूप में गिराया जाता है।  इस विधि का प्रयोग मुख्यतः सभी फसलों एवं सभी प्रकार की मृदा के लिए किया जा सकता है परन्तु यह विधि बलुई, बलुई दोमट के साथ साथ  असमान  भौगोलिक क्षेत्र के लिए  भी लाभदायक पाई गई  है।  भारी मिट्टियाँ  जिनकी जल  अन्तःशरण दर 4 मिमी/घंटा से कम हो, के लिए यह विधि लाभकारी नहीं होती है।  यह विधि उथली जड़वाली एवं जल के प्रति सहिष्णु फसलें जैसे मटर, पालक एवं सब्जियों की पौधशाला के लिए बहुत लाभकारी होती है. छिडकाव विधि से सिंचाई करके शरद ऋतु में आलू, मटर आदि को पाले के प्रभाव से बचाया जा सकता है।  छिडकाव द्वारा सिंचाई में घुलनशील उर्वरकों, कीटनाशकों, फफूंद नाशको एवं खरपतवारनाशी आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है।  इस विधि का प्रयोग हवा चलने की दशा में सीमित हो जाता है, क्योंकि इससे पानी का एक समान वितरण सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। 
3. ऊंची उठी हुई क्यारियों में फसलों/सब्जियों को लगाना
         ऊंची उठी क्यारी विधि में सब्जियों/फसलों को ऊंची उठी हुई चौड़ी क्यारियों (75 -100 से.मी.) में दोनों किनारों पर लगाया जाता है और पानी क्यारी के दोनों तरफ कूंड के माध्यम से दिया जाता है. चूँकि सिंचाई सिर्फ कूंड के द्वारा की जाती है इसलिए लगभग 50  % क्षेत्र  हमेशा सूखा बना रहता है. इस विधि से सब्जियों में सिंचाई करने से निम्न लाभ होते है:
v  इस विधि से लगभग 25-35  % जल वचत की जा सकती है। 
v  जड़ क्षेत्र में उचित वायु एवं जल का अनुपात बना रहता है, जो की जड़ों के विकास के लिए उपयुक्त होता है। 
v  अंतः सस्य क्रियाओं एवं दवाओं आदि के प्रयोग में सुगमता होती है। 
v  खेत में जलभराव की समस्या नहीं होती है। 
v  फसल पर कीड़ो एवं रोगों का प्रकोप कम होता है। 
v  समतल क्यारियों की अपेक्षा 15-25 % अधिक उत्पादन एवं उत्तम फसल गुणवत्ता। 
v  यह विधि कतारों में बोई जाने वाली फसलें जैसे सब्जियों और अंतः फसली तथा मल्च आदि प्रयोग के लिए बहुत उपयुक्त होती है। 
v  क्यारियों में लगाई सब्जियों में यदि मल्च (पलवार) भी लगा दिया जय तो लगभग ५०% पानी की बचत के साथ साथ उत्पादन एवं गुणवत्ता में भी बढोत्तरी देखि गयी है। 
4.एकांतर सिंचाई पद्धति
एकांतर सिंचाई विधि को आशिंक जड़ क्षेत्र में सिंचाई विधि भी कहा जाता है जिसमे नियंत्रित तरीके से सिंचाई की जाती है।  इससे उपज में कमीं आये बिना सीमित  जल से सिंचाई  की जाती है।  इसमें सिंचाई दो प्रकार से की जा सकती है : (अ) स्थिर एकांतर कूंड सिंचाई एवं (ब) चक्रीय एकांतर कूंड सिंचाई।  भारतीय सब्जी अनुसन्धान संसथान में किये गए अनुसन्धान में ज्ञात हुआ है कि चक्रीय एकांतर कूंड सिंचाई से प्राप्त टमाटर की उपज कूंड द्वारा सिंचित टमाटर की उपज के समतुल्य पाई गई साथ ही इस तकनीक से 27 % तक जल की बचत हुई। इसमें काली प्लास्टिक के पलवार का प्रयोग करने जल प्रयोग की दक्षता अधिकतम (16.5  क्विंटल उपज प्रति मिमी जल) हुई एवं जल की वचत  54 % हुई, जबकि एकांतर कूंड सिंचाई मात्र से ही दोनों तरफ कूंड द्वारा सिंचाई की तुलना में लगभग ३९% पानी की बचत अंकित की गई। 
5. पलवार (मल्च) का इस्तेमाल
जल सरंक्षण की विभिन्न विधियों के अलावा पलवार (मल्च) का प्रयोग भी  नकदी फसलों और सब्जियों के लिए बहुत लाभप्रद है।  मृदा के ऊपरी सतह से वाष्पीकरण द्वारा होने वाली नमीं का ह्रास रोकने तथा सतह अपवाह (रन-ऑफ़ वाटर) को कम करने में पलवार प्रयोग प्रभावकारी साबित हुआ है। इसके अलावा पलवार से मृदा में जल धारण क्षमता बढती है एवं मृदा नमीं अधिक समय तक सरंक्षित रहती है।  पलवार के इस्तेमाल से पौधों में पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता बढती है. पलवार मृदा तापमान को नियंत्रित करता है जिससे जड़ों का विकास अच्छा होता है।  पलवार मृदा से जल वाष्पीकरण की दर को 15 -50  प्रतिशत तक कम कर देता है।  नकदी फसलो एवं सब्जियों की सफल खेती में कार्बनिक और प्लास्टिक मल्च का प्रयोग प्रभावशाली पाया गया है. गीष्मकालीन फसलों का उत्पादन बढ़ाने एवं जल की बचत करने के लिहाज से कार्बनिक मल्च जैसे फसलों के अवशेष (ठूठ, भूषा आदि), सूखे खरपतवार आदि का प्रयोग लाभकारी रहता है। इसी प्रकार टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, मिर्च तथा कद्दुवर्गीय सब्जियों में प्लास्टिक मल्च विशेषकर कलि पॉलिथीन का प्रयोग फायदेमंद रहता है।  इन पल्वारों के प्रयोग से सब्जियों में 30 -50 % तक पानी की बचत की जा सकती है।  पॉलिथीन मल्च का प्रयोग ड्रिप सिंचाई पद्धति के साथ ज्यादा प्रभावकारी एवं  लाभकारी पाया गया है। सब्जी उत्पादन हेतु अधिकांशतः काली एवं पारदर्शी प्लास्टिक शीट का प्रयोग किया जाता है।  प्लास्टिक मल्च की मोटाई 0.012  से 0.031  मिमी या 25  से 40  माइक्रान तक होती है। टमाटर पर किये गये प्रयोग के अनुसार काली एवं पारदर्शी प्लास्टिक मल्च से लगभग 11 -15  % तक जल की बचत हुई परन्तु जब काली मल्च का इस्तेमाल ऊंची उठी क्यारियों एवं ड्रिप सिंचाई हेतु किया गया तब परम्परागत सिंचाई की तुलना में 50 -66  % तक जल की बचत दर्ज की गई।  कार्बनिक पलवार जैसे पौधों के अवशेष, सूखी घास/खरपतवार, धान की पुआल आदि ग्रीष्मकालीन फसलों के लिए काफी प्रभावकारी साबित हुई है। बसंत-ग्रीष्म ऋतु में भिन्डी में मटर के पुआल का पलवार 10  टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से लगभग 30 % तक जल की बचत हुई. इसी प्रकार टमाटर में धान के पुआल का पलवार अकेले (7.5 टन/हे) या कूंड सिंचित उठी क्यारियों में प्रयोग करने से समतल क्यारियों में पौध रोपण की तुलना में क्रमशः 15  एवं 49 % तक जल की बचत हुई। 
इस प्रकार उपरोक्त बातों/तथ्यों से हम इस नतीजे पर पहुंचते है कि जलवायु परिवर्तन और धरती पर कम हो रही हरियाली के कारण मानसूनी वर्षा में निरंतर कमीं परिलक्षित हो रही है। जल की सबसे अधिक खपत करने वाले कृषि क्षेत्र के समक्ष भारी संकट उत्पन्न हो सकता है। भारत की 60 % से अधिक खेती किसानी वर्षा की मेहरवानी पर टिकी है। ऐसे में हमें प्रधानमंत्री के 'प्रति बूँद अधिक फसल'  की अवधारणा पर खेती करने हेतु आवश्यक उपाय करने होंगे। उपलब्ध वर्षा जल के अधिकतम सरंक्षण हेतु पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ जमीन पर कार्य करना होगा। उपलब्ध जल स्त्रोतों के संतुलित दोहन और पानी की बर्वादी रोकने के लिए सख्त कानूनों को अमलीजामा पहनाना होगा।  कृषि क्षेत्र में भी बाढ़ विधि से सिंचाई विधि पर अंकुश लगाते हुए सिंचाई की नवोदित टपक और फव्वारा सिंचाई पद्धतियों के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार करना होगा तभी कृषि क्षेत्र से बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त अन्नोत्पादन की उम्मीद की जा सकती है। 
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सोमवार, 4 जून 2018

सतत लाभकारी फसलोत्पादन हेतु उत्तम कृषि पद्धतियाँ अपनाएं


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

      बदलते कृषि परिवेश में, बढ़ते तापमान, पर्यावरण प्रदूषण, मृदा क्षरण तथा फसल पर कीट, बीमारियों और खरपतवारों के प्रकोप को कम करने के लिए उत्तम एवं सुधरी कृषि क्रियाओं को अंगीकार करना नितांत आवश्यक है. फसलोत्पादन में  इसके प्रत्येक घटक जैसे भूमि का चयन,खेत की तैयारी, फसल प्रबंधन,खरपतवार नियंत्रण, पौध सरंक्षण, फसल कटाई आदि का महत्वपूर्ण योगदान है।  उत्तम कृषि पद्धतियाँ कृषि उत्पादन तथा उत्पादन के पश्चात की प्रक्रियाओं के सिद्धांतों का एक संग्रह है, जिनके इस्तेमाल से हम सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक स्थिरता को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित एवं स्वच्छ कृषि उत्पादन प्राप्त कर सकते है। 

उत्तम कृषि प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य

v  सतत कृषि उत्पादन और प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाना। 
v  प्राकृतिक संसाधनों का समुचित और संतुलित उपयोग करना। 
v  खाद्ध्य श्रंखला के अंतर्गत उत्पाद की गुणवत्ता एवं सुरक्षा का लाभ उठाना। 
v  खाद्ध्य आपूर्ति श्रंखला में बदलाव करते हुए आधुनिक विपणन सुविधाओं का लाभ उठाना। 
v  कृषकों एवं कृषि आदान/उत्पाद निर्यातकों के लिए नई विपणन सुविधाओं का विकास करना.
v  सामजिक एवं आर्थिक मांगों की पूर्ती करना। 
चयनित कृषि क्रियाओं हेतु उत्तम कृषि पद्धतियाँ
1.मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन
मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में सुधार हेतु कार्बनिक तथा जैविक गतिविधियाँ कृषि उत्पादन को सतत बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण है. ये सभी कारक एक साथ मिलकर मृदा की उर्वरता और उत्पादकता को निर्धारित करते है। 
v  मृदा की जैविक गतिविधियों को बढाकर पौधों को उपलब्ध नमी और पोषक तत्व उपयोग में सुधार करना। 
v  मृदा क्षरण और पोषक तत्वों तथा हानिकारक रसायनों के निक्षालन से होने वाले नुकसान को कम करना। 
v  मृदा की भौतिक सरंचना में सुधार हेतु जेविक खेती के मध्यम से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा  और जल धारण क्षमता बढ़ाना। 
v  न्यूनतम जुताई क्रियाओं को अपनाते हुए मृदा में नमीं सरंक्षण को बढ़ावा देना
v  मृदा एवं वायु द्वारा हो रहे मृदा क्षरण को कम करना। 
v  कार्बनिक और अकार्बनिक उर्वरकों तथा अन्य कृषि रासायनिकों का उचित मात्रा, सही समय तथा प्रभावी विधि से इस्तेमाल करना जिससे मृदा स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार से नुकसान न हो। 
2. कुशल जल प्रबंधन
मात्रात्मक और गुणात्मक दृष्टि से जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन में कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. कुशल सिंचाई पद्दति, सही जल निकासी तथा लवणता द्वारा होने वाली हानि को कम करना आवश्यक है। 
v  सतही एवं मृदा जल के उचित प्रबंधन हेतु मृदा सरंक्षण की समस्त क्रियाओं को अपनाना। 
v  फसलवार उचित सिंचाई पद्धतियों का चयन और समयबद्ध फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई करना। 
v  खेत में अनावश्यक जल की निकासी का प्रबंधन करना। 
v  मृदा में जैविक पदार्थो की उचित मात्रा बनाएं रखते हुए जल उपयोग दक्षता को बढ़ाना
v  पानी की बचत अथवा सीमित जल का उचित प्रबंधन हेतु सिंचाई की उचित विधियों जैसे बूँद-बूँद सिंचाई, फव्वारा सिंचाई को अपनाना।
v  पशुओं के लिए पर्याप्त चारा-पानी की व्यवस्था करना।  
3.उत्कृष्ट फसल उत्पादन प्रबंधन
उत्कृष्ट फसल उत्पादन हेतु वार्षिक और बारहमासी फसलों एवं उन्नत किस्मों का चयन स्थानीय उपभोक्ता तथा बाजार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। 
v  उपयुक्त फसल और फसल की उन्नत किस्म का चुनाव क्षेत्र विशेष की जलवायु एवं स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार करना चाहिए। 
v  ग्रीष्मकाल में खेतों की गहरी जुताई करें जिससे खरपतवार, कीट-रोगों का प्रकोप कम हो.
v  समय पर उन्नत/प्रमाणित किस्मों के बीज की बुआई संपन्न करें। 
v  क्षेत्र और जलवायु के अनुसार अनुसंशित अगेती/पक्षेती फसलें/किस्मों का चयन करें जिससे विषम जलवायुविक परिस्थितियों में भी उत्पादन और आमदनी बढ़ सकें। 
v  बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु उचित फफूंदनाशक से बीजोपचार करें। 
v  फसल की बुआई में उचित बीज दर का प्रयोग करें. बुआई कतार विधि से करें. कतार से कतार तथा पौधे से पौधे के बीच समुचित दूरी रखे. प्रति इकाई क्षेत्र में इष्टतम पौध संख्या स्थापित करें। 
v  खेत की जुताई और बुआई ढलान के विपरीत करें जिससे वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण हो सकें.
v  फसल चक्र अपनाये जिससे मृदा की उर्वरता बरकार रहने के साथ साथ कीट-रोगों के प्रकोप में कमी आएगी . फसल चक्र में दलहनी फसलों को अवश्य सम्मलित करें.
v  दलहनी/तिलहनी फसलों में जिप्सम का प्रयोग अवश्य करें.
v  अन्तर्वर्ती फसल पद्धति को अपनावे जिससे प्रति इकाई क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन लिया जा सके. यह पद्धति में वर्षाधीन क्षेत्रो के लिए बहुत लाभकारी है.
v  मृदा परीक्षण के आधार पर फसल की आवश्यकतानुसार संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों का इस्तेमाल करें
v  फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर उचित विधि से सिंचाई करें तथा वर्षाकालीन फसलों में जल निकास का प्रावधान अवश्य करें.
v  जैविक खेती अपनाएं. जरुरत पड़ने पर फसल में समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन करें.
v  खरपतवार प्रकोप से फसल की सुरक्षा हेतु एकीकृत खरपतवार प्रबंधन को अपनाया जाये.
v  आवश्यकतानुसार फसल सरंक्षण उपाय अपनाना चाहिए. कीट-रोग नियंत्रण हेतु सस्य वैज्ञानिक/जैविक विधियों का इस्तेमाल करना चाहिए.
v  फसल की कटाई सही समय पर संपन्न करें.
4.उत्तम पौध सरंक्षण पद्धतियाँ
खेती में फसलों की उत्पादकता बढाने के साथ साथ उत्पाद की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए कीट रोगों से फसल की सुरक्षा करना अति आवश्यक है. इसके लिए समन्वित कीट-रोग प्रबंधन के सिद्धांतो को ध्यान में रखते हुए कीट-रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करना, समय पर फसलों की बुआई, सही फसल चक्र अपनाना,ट्रेप फसल उगाना तथा रासायनिक विधि के माध्यम से कीट-रोग-खरपतवार नियंत्रित करना आवश्यक होता है.
v  कीट-रोग प्रतिरोधी/सहनशील किस्मों का चयन कर बुआई करना तथा फसल चक्र और कर्षण क्रियाओं द्वारा कीट-रोगों से फसल का बचाव किया जा सकता है.
v  जैविक विधियों द्वारा भी कीट-रोगों पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है.
v  फसल सुरक्षा की दृष्टि से हानिकारक और लाभदायक कीट-पतंगों के बीच संतुलित बनाना आवश्यक रहता है.
v  आवश्यकता होने पर न्यायसंगत तथा सुरक्षित कीटनाशकों/फफून्द्नाश्कों का फसल पर छिडकाव किया जा सकता है. परन्तु कीटों की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से अधिक होने पर ही कीटनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिए.
v  किसी भी कीटनाशक का उपयोग दुबारा न करें बल्कि फसल चक्र की भाँती कीटनाशी चक्र का उपयोग करना चाहिए। 
v  कीटनाशक/रोगनाशक के छिडकाव/भुरकाव हेतु सही उपकरण और नोजल का उपयोग करें। 
v  कीट/रोग ग्रसित फसल अवशेष जैसे धान/गेंहू/गन्ना के ठूठ, टमाटर, बैगन, गोभी आदि के बेकार फल, टहनियां, डंठल आदि को इकठ्ठा कर कम्पोस्ट खाद बना लेवे या नष्ट करे देवें। 
v  परभच्ची चिड़ियाँ, मैना. गौरईया,उल्लू, मोर आदि के बैठने के लिए खेत में लकड़ी के स्टेंड बनाये तथा इन पक्षियों को खेत में आकर्षित करने हेतु एक दो दिन चुग्गा (दाना) डालें। 
v  कृषि रसायनों का भण्डारण/उपयोग निर्धारित मापदंडो और निर्देशों के अनुसार ही करें। 
v  मित्र कीटों का सरंक्षण करें, प्रकाश प्रपंच एवं फेरोमेन ट्रेप का उपयोग करें। 
v  समन्वित कीट प्रबंधन, समन्वित रोग प्रबंधन और समन्वित खरपतवार प्रबंधन को बढ़ावा देवें।
5.फसल कटाई एवं भण्डारण
फसल की कटाई, उत्पाद की गुणवत्ता और भण्डारण हेतु स्वीकार्य तकनीक के क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। 
v  सब्जी/फल फसलों में उत्पाद की कटाई कीटनाशी/रोगनाशी रसायनों के छिडकाव के बाद प्रतीक्षा अवधी समाप्त होने के बाद ही करना चाहिए। 
v  फसल की कटाई उचित समय पर उन्नत यंत्रों की सहायता से करें। 
v  अनाज को अच्छी प्रकार से साफ़ कर, सुखाकर (८-१० % नमीं स्तर) भंडारित करें.
v  फसल उत्पाद का भण्डारण वैज्ञानिक तरीके से उचित स्थान,तापमान,नमीं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। 
इस प्रकार कृषक भाई उत्तम कृषि पद्धतियाँ अपनाते है तो उन्हें फसलों से सतत गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त होता रहेगा. इसके अलावा इन सस्य क्रियाओ के अपनाने से पर्यावरण सरंक्षण के साथ साथ किसानों को सीमित लागत में अधिकतम उत्पादन और आमदनी प्राप्त हो सकती है। 

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।   

लवणीय एवं क्षारीय भूमियों के पुनरूत्थान एवं फसलोत्पादन हेतु उन्नत सस्य विधियाँ


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (ससिविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

                हमारे देश भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से लगभग 143 मिलियन हेक्टेयर पर खेती की जाती है जबकि लगभग 117 मिलियन हेक्टेयर परती एवं बंजर भूमि है। भूमि लवणता एवं क्षारीयता देश की एक प्रमुख समस्या है। आंकड़े बताते हैं कि देश की लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता  एवं क्षारीयता से प्रभावित है जो कि देश की कुल भूमि के 13% क्षेत्रफल का प्रतिनिधित्व करती है। लगभग 40% लवणीय एवं क्षारीय भूमि का विस्तार उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा तथा पंजाब राज्यों में है जो कि हरित क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। इन मृदाओं की ऊपरी सतह पर भूरे/सफ़ेद  लवणों की परत फैली रहती है। जल निकास का उचित प्रबन्ध न होने से वर्षा ऋतु में इन भूमियों में पानी भर जाता है। परिणामस्वरूप अवांछित खरपतवारों, घासों व हानिकारक झाड़ियों के फैलाव को बढ़ावा मिलता है.  सूखने पर इन भूमियो की सतह बहुत कठोर हो जाती है  जिसके कारण  पौधों की जड़ो का विकास व् वृद्धि नहीं हो पाती है। इस तरह की भूमियाँ छोटे किसानों के पास है जो आर्थिक रूप से पिछड़े है . लवणीय एवं क्षारीय भूमियां देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी क्षति है क्योंकि इससे मृदा की उत्पादकता प्रभावित होती है परिणामस्वरूप लवणीय एवं क्षारीय भूमियां बंजर या बेकार भूमि  में तब्दील हो जाती है। बढ़ती आबादी को देखते हुए लवणीय एवं क्षारीय भूमियों का पुनरूत्थान करते हुए उनमे उन्नत फसलोत्पादन तकनीक अपनाना समय की आवश्यकता है। इस प्रकार लवणीय व् क्षारीय भूमि सुधार कार्यक्रम से भारत के  छोटे एवं मझोले किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। 

1.लवणीय भूमि

लवणीय भूमि वह भूमि होती है जिसमें घुलनशील लवणों (सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम व  पो टेशियम के क्लोराइड एवं सल्फेट आयन) की मात्रा ज्यादा होती है जो फसलों की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करती है। लवणीय भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज प्रति से.मी. से अधिक, विनिमय योग्य सोडियम की मात्रा 15 प्रतिशत से कम तथा पी.एच. मान 8.5 से कम होता है। यदि इन मृदाओं में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाए तो अधिकांश घुलनशील लवण पानी के साथ बह जाते हैं। इन भूमियों का भू-जल स्तर यदि सीमित गहराई से ऊपर न आए तो ये भूमियां फिर से  सामान्य बन जाती हैं। इन भूमियों में पानी का अवशोषण बहुत ही धीरे-धीरे होता है। बीजों का जमाव भी देरी से होता है। पौधों की बढ़वार और जड़ो का विकास भी अवरुद्ध हो जाता हैण् अंततः पौधे लवणों की अधिकता के कारण सूख जाते है। 

2.क्षारीय भूमि

क्षारीय भूमियों को ऊसर भूमि भी कहा जाता है। इन भूमियों में सोड़ियम कार्बोनेट व बाइकार्बोनेट लवणों की अधिक मात्रा पायी जाती है। भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज से कम, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक व पी.एच. मान 8.5 से अधिक होता है, जो फसलों के लिए हानिकारक साबित होता है .  इन भूमियों की ऊपरी सतह पर राख व काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इन भूमियों में 40-50 से.मी. की गहराई पर सोडियम युक्त कठोर परतें पायी जाती हैं। क्षारीय भूमियों की भौतिक दशा  बहुत ही खराब होती है। इस प्रकार की भूमियों में सोडियम लवणों की अधिकता व जलभराव होने से  बोयी गई फसलों  की वृद्धि सामान्य रूप से नहीं हो पाती है। भूमि की भौतिक व रासायनिक दशा खराब होने के कारण हमी की  उपजाऊ व उर्वराशक्ति का हृास हो जाता है। इस तरह की भूमि का निर्माण प्रायः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क व अपर्याप्त जल निकास वाले क्षेत्रो  में होता है।

भूमि की लवणीयता  व क्षारीयता का पौधों पर प्रभाव

  भूमि की लवणीयता एवं क्षारीयता का पौधों पर हानिकारक प्रभाव निम्नानुसार पड़ता है
1.   मृदा विलियन में विलेय लवणों का सांद्रण अधिक होने के कारण विलियन का परासरण दबाव पौधों की जड़ों की कोशिकाओं में मिलने वाले विलियन के परासरण दाब की अपेक्षा अधिक होता है जिसके परिणामस्वरूप पौधों की कोशिकाओं से जल जीव द्रव्य कुंचन के बाहर निकलकर अधिक सांद्रण मृदा विलियन में प्रवेश करने लगता है. अंततः पौधों से जल निकल जाने से वे मुरझाकर सूख जाते है। 
2.   मृदा विलियन में यदि लवणों का सांद्रण 0.5 % है तो पौधों द्वारा जल का शोषण कम हो जाता है. यदि लवण  सांद्रण बढ़कर 30 % हो जाता है तो जल अवशोषण पूरी तरह से अवरुद्ध हो जाता है।  ऐसी स्थिति में मृदा में उपस्थित पोषक तत्व पौधों को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाते है जिससे पौधे दैहिक शुष्कता से प्रभावित हो जाते है।   

लवणीय व क्षारीय भूमियों का पुनरुत्थान एवं फसलोत्पादन

लवणीय व क्षारीय भूमियों की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बनाये रखने हेतु कुछ समय तक उन्नत कृषि-क्रियाओं को अपनाना अति आवश्यक है। तभी हम इन समस्याग्रस्त भूमियों को सुधारकर फसलोत्पादन हेतु उपयोगी बना सकते हैं। किसान भाई निम्नलिखित भूमि प्रबन्धन एवं कृषण क्रियाओं  को अपनाकर लवणीय एवं क्षारीय भूमियों से अधिकाधिक फसलोत्पादन ले सकते हैं।
Ø भूमि सुधार के लिए सर्वप्रथम खेत को अच्छी तरह समतल करके मेड़बन्दी करनी चाहिए। इसके लिए लेजर लैंड लेवलर का प्रयोग किया जा सकता है। जून-जुलाई में खेत की 10 से.मी. की गहराई तक जुताई करके 10-15 दिनों तक खेत में पानी भरकर धान की रोपाई कर देनी चाहिए। ध्यान रखें कि धान की पौध लगभग 30-35 दिन पुरानी हो जिससे पौध आसानी से स्थापित हो सके। एक स्थान पर 3-4 पौधों की रोपाई करे । धान की कटाई के  बाद गेंहूं की फसल बोनी चाहिए।
Ø खेतों की जुताई अलग-अलग गहराई पर करनीचाहिए। इसके लिए आधुनिक कृषि यन्त्रों जैसे डिस्क प्लोऊ, सब सायलर या चीजल हल का प्रयोग 2-3 वर्षों में एक बार अवश्य करें। जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और पानी के आवागमन में आसानी रहती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि भी ठीक तरह से हो जाती है। 
Ø मृदा में लवण अधिक होने पर फसल बुआई से पूर्व खेत में पानी भर देवें तथा उसके बाद से ऊपरी तथा निचली सतही विधि द्वारा जल निकास कर देवें जिससे घुलनशील लवण पौधों की जड़ों से दूर हो जायेंगे। 
Ø उपयुक्त फसल चक्र अपनाना चाहिए। अधिक गहरी जड़ों वाली फसलों के बाद कम गहरी जड़ों वाली फसलों को उगाना चाहिए। फसल चक्र में खाद्यान्न फसलों के साथ दलहनी फसलों को  उगाना चाहिए। परन्तु ध्यान रहे  कि प्रारम्भिक  3-4 वर्षों तक दलहनी फसल न उगाएं। उचित फसल चक्र अपनाने से भूमि की जलधारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता को भी बढाया जा सकता है। 
Ø ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाए रखने हेतु गोबर की खाद, कम्पोस्ट, मुर्गी  खाद, हरी खाद, फसल अवशेषों इत्यादि का समय-समय  पर इस्तेमाल  करते रहना चाहिए। जहां पर शीरा या प्रेसमड उपलब्ध हो, उसका प्रयोग करें। कुछ  अम्लीय प्रकृति के  उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट व अमोनियम नाइट्रेट आदि का अधिक प्रयोग करना चाहिए ।
Ø जिन क्षेत्रों का पानी लवणीय व क्षारीय स्वभाव का हो, वहाँ पर सिंचाई की ड्रिप अथवा फव्वारा पद्धति का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई हमेशा  हल्की व थोड़े अन्तराल पर करनी चाहिए क्योंकि भूमि की ऊपरी सतह लवणता के कारण जल्दी सूख जाती है। ऐसी भूमियों में फसलो  के अन्तर्गत अन्धाधुन्ध सिंचाई  नहीं करें। 
Ø लवणीयता व क्षारीयता सहन करने वाली फसलों को उगाना चाहिए।  इसके  साथ-साथ फसलों की लवणीय व क्षारीयरोधक किस्मों का चयन करना चाहिए। कुछ फसलें लवणों को अल्पमात्रा में भी सहन नहीं कर पाती हैं जबकि कुछ मध्यम वर्ग की सहनशीलता दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फसलें बहुत ही सहनशील होती हैं जो अधिक लवणीय भूमियों में भी उग सकती हैं।
   अधिक लवण सहनशील फसलें :धान, बरसीम, गन्ना,रिजका, मैंथी,जौ,शलजम,चुकंदर,कपास, ढैंचा,फलों में खजूर और फालसा।
  मध्यम लवण सहनशील फसले : गेंहू, जई,मक्का, बाजरा,अरहर, गोभी, टमाटर,आलू, मटर,प्याज, लौकी,करेला और खीरा. फलों में अनार, अंजीर,अमरुद, आम, केला आदि। 
  न्यून लवण सहनशील फसलें : मूंग, उड़द, चना,सनई,मूली, गुआर आदि। फलों में सेव,नाशपाती,बेर, नीबू आदि। 
Ø फसलों की बुवाई करते समय बीज दर सामान्य से थोड़ी ज्यादा रखें क्योंकि लवणीय एवं क्षारीय भूमि में सामान्यतः बीजों का कम जमाव व पौधें की शुरूआती बढ़वार कम होती हैण् बुआईध्रोपाई करते समय पंक्तिओं एवं पौधों की दूरी को सामान्य से थोडा कम कर लेना चाहिए। 
Ø जहाँ तक हो सके फसलों की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए। मेड़ें पूरब से पश्चिम दिशा की ओर बनानी चाहिए। पौधों की बुवाई/रोपाई उत्तर दिशा में मेड़ के मध्य मे ं करें यदि मेड़ बनाना सम्भव न हो तो बुवाई छोटी-छोटी समतल क्यारी बनाकर करें। क्यारियों का एक किनारा सिंचाई नाली से जुड़ा हो तथा दूसरा किनारा जल निकास नाली से जुड़ा होना चाहिए। जिससे आवश्यकता से अधिक पानी खेत से जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाला जा सके। मेड़ों पर बुवाई करने से पौधों की जड़े कम से कम हानिकारक लवणों के सम्पर्क मे आती हैं।
Ø फसलों में नाइट्रोजन  की मात्रा को सामान्य मृदा से 20 प्रतिशत अधिक देना चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर देनी चाहिए। इसके अलावा 25 कि.ग्रा.जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा को दो बराबर भागों में खड़ी फसल में पौधों मे  फूल आने से पूर्व  देना चाहिए। 
Øलवणीय मृदाओं  में  हमेशा फसल  उगाते रहना चाहिए और खेत को कभी खाली नहीं रखना चाहिए तथा फसल चक्र में ऐसी फसलों को सम्मलित करना चाहिए जो लवण सहिष्णु हो जैसे धान -जौ, ढैंचा (हरी खाद), ढैंचा-गेंहू, कपास-रिजका,आलू,मक्का आदि। 
Ø क्षारीय भूमि में जिप्सम प्रयोग के बाद हरी खाद के रूप में ढैंचा की फसल उगाना अच्छा रहता है। चीनी मिल से प्राप्त शीरा को क्षेत में बुआई से 5-6 सप्ताह पूर्व मिलाकर सिंचाई कर डंडे से क्षारीय भूमि में सुधार होता है। चीनी मिल के प्रेसमड  लगभग 12. 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालने पर क्षारीय भूमि में सुधार होता है। इसे बुआई से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई के साथ प्रयोग करना लाभकारी होता है। 
Ø क्षारीय भूमियो के सुधार हेतु धान का भूषा 12-15 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग भी लाभदायक होता है। ऐसी भूमियों में मध्यम सहनशील फसलें जैसे जौ,गेंहू,बरसीम, गन्ना,कपास आदि उगानी चाहिए। 

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