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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

सीमांत एवं लघु कृषकों की आर्थिक समृद्धि हेतु समन्वित कृषि प्रणाली

                               डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर

                 भारत में बढ़ते  औद्योगिकीकरण, शहरीकरण तथा जनसँख्या दबाव के कारण प्रति व्यक्ति भूमि जोत की उपलब्धता निरंतर घटती जा रही है।  भारत में कृषि के मौजदा परिदृश्य पर गौर करे तो  ज्ञात होता है की देश में 90  प्रतिशत से अधिक किसान छोटे एवं सीमान्त वर्ग में आते है।  एक आंकलन के अनुसार 70  फीसदी सीमान्त और 16  फीसदी किसान परिवारों के पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है।  राष्ट्रिय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार 36 फीसदी किसान भूमिहीन है।  भविष्य में छोटे और भूमिहीन किसानों की संख्या बढ़ना सुनिश्चित है।  इस प्रकार सिकुड़ती कृषि भूमि, घटते संसाधन और बढती जनसँख्या को दृष्टिगत रखते हुए फसल प्रणाली आधारित कृषि विकास की बजाय सम्पूर्ण कृषि-प्रणाली आधारित विकास को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोई भी अकेला कृषि व्यवसाय छोटे एवं सीमान्त किसानों के जीविकोपार्जन हेतु पर्याप्त खाद्यान्न एवं आमदनी प्रदान नहीं कर सकता है।  आज के प्रतिस्पर्धी युग में सीमित एवं महंगे संसाधनों का कुशल उपयोग कर, फसलोत्पादन के साथ अन्य कृषि उद्यमों का समावेश करना समय की मांग है।  लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए समन्वित कृषि प्रणाली वरदान सिद्ध हो रही है, क्योंकि यह न केवल नियमित आय एवं रोजगार का माध्यम है, बल्कि यह किसान परिवार को खाध्य एवं पोषण सुरक्षा के साथ-साथ परिवार के सदस्यों की खेती के प्रति रूचि बढाने और सम्मान से जीविकोपार्जन चलाने में भी सहायक है।
कृषि को अधिक लाभकारी एवं भरोसेमंद बनाने के लिए फसलोत्पादन के साथ कृषि के सहायक उद्यम जैसे फसल, बागवानी, डेयरी, मछली पालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन, सस्य वानिकी आदि को समन्वित करने की रणनीत अपनानी पड़ेगी ताकि इन किसानों के सीमित संसाधनों का समुचित उपयोग कर इनके आय एवं आर्थिक विकास की निरंतरता को कायम रखा जा सके।   यह प्रणाली किसानों को अतिरिक्त रोजगार एवं आय के अवसर मुहैया कराने के साथ साथ  प्राकृतिक संसाधनों एवं पर्यावरण को सरंक्षित रखने में भी सहायक सिद्ध होगी ताकि आगे आने वाली पीढ़ी अपने विकास हेतु इनका समुचित उपयोग कर सके।  केंद्रीय कृषिमंत्री श्री  राधा मोहन सिंह ने कहा है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का  लक्ष्य हासिल करने के लिए केन्द्रित एकीकृत कृषि प्रणाली (आईएफएस) को बढ़ावा देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि एकीकृत कृषि प्रणाली पुनर्चक्रण, पारिवारिक पोषण, पारिस्थितिकी सुरक्षा और रोजगार सृजन के माध्यम से उत्पादन बढ़ाने, मुनाफे और लागत में कमी करने में सहायक है।
क्यों आवश्यक है समन्वित कृषि प्रणाली ? 
भारत में बढती आबादी, बेरोजगारी, दिन प्रति दिन सिकुड़ते संसाधनों, जलवायु परिवर्तन और बढती मंहगाई को ध्यान में रखते हुए  लघु और सीमान्त कृषकों को समन्वित कृषि प्रणाली को अपनाना होगा क्योंकि:
  • लघु एवं सीमान्त कृषकों की आजीविका एवं आर्थिक सुरक्षा हेतु ।
  • प्रति इकाई कृषि उत्पादकता एवं लाभप्रदता में  सुनिश्चित वृद्धि के लिए।
  • कृषि अवशेषों के पुनर्चक्रण से मृदा उर्वरता में वृद्धि एवं पर्यावरण सरंक्षण।
  • कृषको को वर्ष पर्यन्त आमदनी हेतु कृषि के विविध आयाम उपलब्ध कराने बावत। 
  • भोजन हेतु जलाऊ लकड़ी और पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध करवाने हेतु।
  • कृषक परिवार एवं ग्राम्य नौजवानों को सतत रोजगार मुहैया करवाने हेतु।
  • गाँव में कृषि उद्यम स्थापित करने हेतु आवश्यक उत्पाद उपलब्ध कराने हेतु।
  •  कृषकों की आर्थिक स्थिति एवं रहन-सहन में सुधार लेन हेतु आवश्यक है।
समन्वित कृषि प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य एवं लाभ
समन्वित कृषि प्रणाली का मुख्य उद्देश्य भूमि, श्रम,पूँजी, समय एवं अन्य संसाधनों का बुद्धिमत्ता पूर्वक उपयोग करना है, ताकि किसान परिवार को पूरे वर्ष रोजगार एवं आमदनी प्राप्त होती रहे जिससे उनके  विकास की निरंतरता को कायम रखा जा सके. समन्वित कृषि प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य एवं इस अपनाने के प्रमुख लाभ अग्र प्रस्तुत है:
1.   समन्वित कृषि प्रणाली का मुख्य उद्देश्य कृषक परिवार की सभी आवश्यकताओं यथा  खाद्यान्न, सब्जी, फल-फूल, दूध, चारे, मांस, ईंधन आदि की  पूर्ति उस मॉडल के माध्यम से  सुनिश्चित करना है , जिससे बाजार पर किसान की निर्भरता को कम किया जा सके। 
2.   कृषक परिवार की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्भहन हेतु अतिरिक्त आमदनी भी प्राप्त हो सके।
3.   इस प्रणाली के जरिये कृषक स्वरोजगार के अवसर पैदा कर सकते है जिससे न केवल अपने  परिवार के सदस्यों को बल्कि दुसरे किसान भाइयों को भी रोजगार उपलब्ध करा सकते है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की काफी कमी रहती है।  हमारे ज्यादातर ग्रामीण युवा बेरोजगार घूम रहे है।  समन्वित कृषि प्रणाली में प्रति इकाई समय प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक कृषि क्रियाओ के जुड़ने से अधिक कृषि मजदूरों की आवश्यकता पड़ने से ग्रामीण युवाओं की बेरोजगारी को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
4.   कृषक परिवार हेतु पौष्टिक आहार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये खेतों से ही पर्याप्त मात्रा में अनाज, दलहनों, तिलहनों, सब्जियों, फलों, दूध और मछली का उत्पादन  करना  तथा पशुओं को पूरे साल पर्याप्त मात्रा में हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करना समन्वित कृषि प्रणाली का उद्देश्य है।  इस प्रणाली को अपनाने से परिवार को पौष्टिकता से परिपूर्ण ताज़ी सब्जी एवं फल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते रहते है।
5.   अपशिष्ट पदार्थों का पुनर्चक्रण समन्वित कृषि प्रणाली का अभिन्न अंग है। यह खेती से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के टिकाऊ निपटान का सबसे उपयोगी तरीका है।  कृषि अपशिष्ट पदार्थों में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के साथ-साथ बहुत से सूक्ष्म पोषक तत्व भी खेतों में ही पुनर्चक्रण के माध्यम से पौधों को उपलब्ध हो जाते हैं।
6.   समन्वित कृषि प्रणाली का यह भी उद्देश्य है की किसानों के पास उपलब्ध  भूमि का विवेकपूर्ण ढंग से सदुपयोग हो जिससे उन्हें प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन प्राप्त हो सकें।  इसके अलावा जल और प्रकाश  जैसे प्राकृतिक संसाधनों का  विवेकपूर्ण और कुशल  उपयोग  संभव है। प्रति बूँद अधिकतम उत्पादन सुनिश्चित हो।
7.   समन्वित कृषि प्रणाली दृष्टिकोण अपनाने से खेती में प्राकृतिक जोखिमों (सूखा व बाढ़) तथा कीट-रोग व्याधियो से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम करने के अलावा  बाजार में मंदी  के जोखिमों से भी बचाव होता है।
8.   भारत के लघु एवं सीमान्त किसानों की आर्थिक दशा काफी दयनीय है. खेती बाड़ी एवं पारिवारिक प्रयोजन से उन पर  कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है. समन्वित कृषि प्रणाली के माध्यम से किसानों के पास उपलब्ध सीमित संसाधनों का सदुपयोग करके उनकी आर्थिक दशा को काफी हद तक सुधरा जा सकता है। 
समन्वित कृषि प्रणाली मॉडल ( फोटो -साभार -गूगल )

समन्वित कृषि प्रणाली के प्रमुख घटक
1.   फसल उत्पादन :- यह महत्वपूर्ण घटक है जिसके मध्यम से मनुष्य को भोजन, मीठाकारक और कपड़ों के लिए रेशा तथा जानवरों के लिए चारा प्राप्त होता है।  इसके अलावा किसान परिवार के दीगर खर्चों के लिए पूँजी भी उपलब्ध हो जाती है।  इस घटक में प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग हेतु विभिन्न प्रकार की फसल पद्धतियाँ विकसित की गई है जिनके इस्तेमाल से किसान यथोचित लाभ अर्जित कर सकते है।
2.   पशुपालन :- अनादि कल से किसान फसलोत्पादन के साथ साथ पशुपालन को भी अपनाते आ रहे है। वास्तव में फसल उत्पादन और पशुपालन एक दुसरे के पूरक है क्योंकि पशुओं से प्राप्त गोबर खाद फसलोत्पादन में प्रयुक्त होता है और कृषि से प्राप्त फसल अवशेष/ भूषा से पशुओं का जीवन निर्वाह होता है।  पशुपालन मूल रूप से दूध, मांस, ऊन उत्पादन, खेतों की जुताई और आवागमन के साधन  के लिए किया जाता है।  इसमें गाय,बैल, भैस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोडा, सूअर आदि का पालन पोषण किया जाता है। 
3.   कुक्कुट एवं बतख पालन :- भारत में मुर्गी और बतख पालन पुस्तैनी व्यवसाय नहीं रहा  है परन्तु कुछ दशकों से यह तेजी से उभरते कृषि उद्यम का रूप लेता जा रहा है।  प्रारंभ में कुछ किसान परिवार अपने घर के पिछवाड़े में मुर्गी पालन किया करते थे।  अब अंडा और मांस उत्पादन के लिए मुर्गी और बतख पालन एक अत्यंत लाभकारी व्यवसाय के रूप में उभर रहा है।  खेतों से प्राप्त अनाज विशेषकर मक्का दाना, धान की भूषि, दालों के छिलके आदि  मुर्गियों  को खिलाया जाता है और मुर्गी खाद का उपयोग खेती में किया जाता है।
4.   मछली पालन :- वर्षा वाहुल्य क्षेत्रों के गाँव और खेतों में तालाब बहुतायत में पाए जाते है जिनके माध्यम से खेतों की सिंचाई और घरेलु कार्य हेतु जल की आपूर्ति होती है. इन्ही तालाबों में मछली पालन का कार्य भी किया जाता है, जिससे किसानों को अतिरिक्त आमदनी प्राप्त होती है।  धान की भूषि एवं अन्य फसलों से अवशेष तथा तिलहन की खली मछलियों के भोजन के लिए तालाब में डाल दिए जाते है।  इसके अतिरिक्त पशुपालन और मुर्गीपालन से प्राप्त जैविक खाद भी तालाब में डाले जाते है जिससे तालाब में जलीय खरपतवार उग आते है है जिन्हें  मछलियों द्वारा भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है। 
5.   कृषि वानिकी :-  इस कृषि प्रणाली के तहत फसलोत्पादन के साथ साथ फल, चारा। ईंधन और लकड़ी प्राप्त करने हेतु बहुउद्देशीय पेड़ों का रोपण किया जात है।  कृषि वानिकी न केवल मनुष्य और पशुओं की दैनिक जरूरतों को पूरा करती है वल्कि पर्यावरण सरंक्षण के लिए भी उपयोगी है।  इसके अलावा यह पद्धति मृदा उर्वरकता को कायम रखने, जल जमाव, मृदा क्षरण  और मृदा लवणता को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  कृषि वानिकी, कृषि-उद्यान-वानिकी कृषक परिवार को अतिरिक्त आमदनी प्रदान करने में प्रभावी भूमिका अदा कर रही है जिसके कारण यह देश की विभिन्न कृषि प्रणालियों में  महत्वपूर्ण घटक के रूप में सम्मलित की जा रही रही है।
6.   मधुमक्खी पालन :- मधुमक्खियाँ बहुमूल्य शहद (मधु रस) पैदा करने के साथ साथ ये विभिन्न  फसलों में परागण की क्रिया संपन्न करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिससे फसलोत्पादन में वृद्धि होती है।  इसके अलावा मधुमक्खी पालन से मोम भी प्राप्त होता है जिसकी बाजार में अच्छी मांग होती है. सीमित स्थान और कम लागत में मधुमक्खी पालन को व्यवसायिक रूप से अपनाये जाने से छोटे और मझोले कृषको को अतिरिक्त आमदनी प्रपात होती है।
7.   मशरूम उत्पादन :- मशरूम एक खाध्य फफूंद है जिसे सब्जी के रूप में चाव से खाया जाता है। इसमें उच्च गुणवत्ता वाले पोषक तत्व पाए जाते है।  इसे  साफ़ सुथरे कमरों/झोपड़ियों में  कम खर्चे में आसानी से उगाया कर अतिरिक्त आमदनी अर्जित की जा सकती है।  हमारे देश में प्रमुख रूप से बटन और ढींगरी मशरूम पैदा किया जाता है।  इसकी खेती में फसल उत्पादन के उप-उत्पाद जैसे, धान का पुआल, गेंहू का भूषा का उपयोग किया जाता है।  मशरूम फसल काटने के बाद बचे हुए कम्पोस्ट को खेतों में खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है।
8.   बायोगैस उत्पादन :-  बायोगैस वैकल्पिक उर्जा का सस्ता और टिकाऊ स्त्रोत है जिसे खाना पकाने, रौशनी करने अथवा कृषि पम्प चलाने में उपयोग किया जाता है।  पशुपालन से प्राप्त गोबर और फसल अवशेष आदि से बायो गैस उत्पादन किया जाता है तथा बायोगैस उत्पादन के बाद बचे हुए उप-उत्पादन को स्लरी कहते हैजिसे खेतों में जैविक खाद के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।  बायोगैस स्लरी को मछली के तालाबों में भी डाला जा सकता है. आमतौर पर 3-4 जानवरों वाली पशु इकाई से 1.5 किलोवाट की बायो गैस यूनिट की स्थापना करके एक परिवार की खाना बनाने लायक गैस, प्रकाश हेतु 2-3  बल्ब जलाने की सुविधा तथा यूनिट से प्राप्त गोबर स्लरी से अधिक पोषकता वाली गोबर खाद प्राप्त होती है।  बायोगैस इकाई की स्थापना हेतु सरकार की  50 % से अधिक अनुदान योजना का लाभ उठाया जा सकता है।

आदर्श कृषि प्रणाली मॉडल

             एक अच्छा कृषि मॉडल वह होता है, जिसमें किसान अपनी जोत के अनुसार विभिन्न इन्टरप्राइजेज को शामिल करके तथा उपलब्ध संसाधनों एवं समय का भरपूर उपयोग करके अधिक कृषि उत्पाद प्राप्त कर सके एवं अपने उत्पाद को बाजार में उचित दर पर बेच कर आर्थिक लाभ प्राप्त कर सके   इसके अलावा प्रक्षेत्र अपशिष्ट (फॉर्म वेस्ट) एवं फसल उत्पाद अवशेषों (क्रॉप रेसिड्यू) के पुनः चक्रण द्वारा टिकाऊ फसलोत्पादन  प्राप्त करना भी एक अच्छे कृषि प्रणाली मॉडल की विशेषता होती है।  
समन्वित  कृषि प्रणाली अनुसंधान परियोजना निदेशालय, मोदीपुरम द्वारा  विकसित समन्वित कृषि प्रणाली के विभिन्न मॉडलों  से प्राप्त जानकारी एवं अनुभवों के आधार पर कृषि प्रणाली के कुछ प्रादर्श (मॉडल) अग्र प्रस्तुत है :
लघु एवं मध्यम कृषकों (पांच एकड़ भूमि) हेतु मॉडल :- इस कृषि प्रणाली के अंतर्गत फसल उत्पादन + पशुपालन+बागवानी (फल एवं सब्जी उत्पादन)+ मुर्गीपालन +मधुमक्खी पालन + वर्मी कम्पोस्टिंग एवं गोबर गैस प्लांट को अपनाया जाता है और वैज्ञानिक विधि से सही समय पर समस्त सस्य क्रियाओं को सम्पादित किया जाता है तो इस मॉडल से किसान भाई 6.5 लाख से अधिक का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।  यह मॉडल सिंचित क्षेत्र के छोटे और मध्यम वर्ग के किसानों के लिए उपयुक्त पाया गया है।  
लघु कृषकों (तीन एकड़ भूमि)  हेतु मॉडल :- इसके अंतर्गत फसल + पशुपालन (2 भैंस एवं  1 गाय) + बागवानी (फल एवं सब्जी) + मछली पालन + मधुमक्खी पालन + मशरूम उत्पादन को सम्मिलित किया जाता है।  इसमें सभी कृषि घटकों का बेहतर प्रबंधन किया जाता  है, तो प्रति वर्ष 4 लाख से अधिक   रुपए का शुद्ध लाभ  प्राप्त हो सकता है। यह मॉडल सिंचित छोटे किसानों के लिए अधिक उपयुक्त है।  
 लघु कृषकों (ढाई एकड़ भूमि) हेतु मॉडल  :- इस मॉडल के अनुसार ढाई एकड़  जमीन पर  किसान भाई यदि फसल + पशुपालन (1 भैंस एवं  1 गाय) + बागवानी (फल एवं सब्जी) + मधुमक्खी पालन एवं मशरूम की खेती करते है तो उन्हें इससे प्रतिवर्ष   3 लाख से अधिक  रुपये की शुद्ध आमदनी  प्राप्त हो सकती है। यह मॉडल सिंचित क्षेत्र के छोटे कृषको  के लिए अधिक उपयुक्त है। 
सीमांत कृषकों (एक एकड़ भूमि) हेतु  मॉडल :- इस मॉडल के अन्तर्गत वैज्ञानिक विधि से फसल + पशुपालन (1 गाय)  मधुमक्खी पालन एवं मशरूम खेती को अपनाकर किसान कृषि कार्य करें तो प्रति वर्ष  1.5 लाख रु. की शुद्ध आय  प्राप्त हो सकती है। यह मॉडल विशेषकर सिंचित क्षेत्र के सीमांत कृषकों के लिए अधिक उपयुक्त है।
समन्वित कृषि प्रणाली के उपरोक्त सभी मॉडलों में उपलब्ध संसाधनों के अनुसार किसान स्थानीय परिस्थिति और सुविधानुसार घटकों में परिवर्तन कर सकते हैं। मॉडलों में दर्शाया गया शुद्ध लाभ कृषि एवं उद्यम प्रबंधन पर निर्भर करता है। 

समन्वित कृषि प्रणाली की सफलता हेतु आवश्यक बातें

1.कृषक अपने परिवार की खाद्यान्न आवश्यकता, पशुओं हेतु चारा एवं अन्य दैनिक जरुरत के अनुसार अलग अलग उद्यमों के लिए कृषि भूमि का निर्धारण करें. फसल चुनाव के समय घर की आवश्यकता के साथ साथ मृदा एवं जलवायु को ध्यान में रखकर फसलों का चयन करें.
2.फल-सब्जी, पेड़-पौधे ऐसे लगाने चाहियें जो लगातार घरेलू आवश्यकता की पूर्ती करते हो तथा निरंतर  आमदनी देते हों, जैसे केला, पपीता,  धनियाँ, टमाटर,हरी मिर्च, सहजन, कटहल, आम, नीबू  एवं अमरूद इत्यादि।
3. पारिवारिक श्रम और समय का सदुपयोग करने हेतु  कृषि कार्यों की समय सारणी बना लें, जिससे समसामयिक कृषि  कार्य संपन्न करने में सुविधा होगी।
4. कृषि प्रक्षेत्र पर उपलब्ध सभी उत्पाद (अनाज,फल, फूल, सब्जी, दूध आदि) तथा उप उत्पाद (सब्जिओं के पत्ते, डंठल, छिलके, गोबर, गोमूत्र, भूषा, खरपतवार आदि) व्यर्थ न जाने दें। सभी उत्पादों का उपयोग करना सुनिश्चित करें। व्यर्थ के समझे जाने वाले पदार्थो से वर्मी कम्पोस्ट या अन्य जैविक खाद तैयार कर खेती में उपयोग कर रासायनिक खादों पर निर्भरता कम की जा सकती है।
5.कृषि पक्षेत्र पर खली स्थानों या अनुपयोगी स्थानों जैसे बाहरी मेड़ों आदि पर बहुउपयोगी बृक्षों का रोपण अवश्य  करें।  खेत की बाहरी मेड़ों पर करोंदा, बेर,नीबू, सहजन,बांस आदि के बृक्ष लगाये जा सकते है।
6.कृषि और प्राकृतिक संसाधनों का बहुउद्देशीय उपयोग सुनिश्चित करें।
7.कृषि प्रणाली के सभी घटकों के आय-व्यय का नियमित लेखा-जोखा रखें।
8.बाजार की मांग एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखकर ही कृषि प्रणाली के घटकों का चयन किया जाना चाहिए। 
              इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है की भारत की कृषि और किसानों की दशा और दिशा सुधारने के लिए समन्वित कृषि प्रणाली को पूरी निष्ठा के साथ अंगीकार करना होगा तभी हमारे देश के बहुसंख्यक लघु और सीमान्त कृषि परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है।  भारत के प्रधानमंत्री ने आगामी वर्ष 2022  तक किसानों की आमदनी दो गुना होने का जो सपना देखा है, उसे साकार देखने के लिए समन्वित कृषि प्रणाली वरदान सिद्ध हो सकती है।  सही मायने में उपलब्ध संसाधनों का वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन और आधुनिक सस्य विधियों को अपनाकर समन्वित कृषि प्रणाली से फसलोत्पादन 2-3  गुना बढाया जा सकता है, 40-60 प्रतिशत संसाधनों की वचत के अलावा किसानों को अतिरिक्त रोजगार और कृषक परिवार की खाद्ध्यान्न और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। 

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शनिवार, 16 जून 2018

नवोदित कृषि का अमोघ अस्त्र :उर्वर सिंचाई (फर्टिगेशन)


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

भारत में हरित क्रांति की सफलता में उन्नत किस्मों के साथ साथ सिंचाई और उर्वरकों का अहम् योगदान रहा है और आने वाले वर्षों में भी रहेगा. क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाये तो विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रफल हमारे देश में है परन्तु प्रति हेक्टेयर फसल उत्पादकता की दृष्टि से हमारा देश अभी भी काफी पीछे है।  बढती आबादी के भरण पोषण के लिए हमे प्रति इकाई उत्पादकता बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।  जलवायु परिवर्तन और वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण देश में प्रति वर्ष वर्षा की मात्रा  कम होती जा रही है जिससे कृषि के लिए सिंचाई जल की आपूर्ति में भी कमी होन स्वाभाविक  है।  ऐसे में हमे उपलब्ध जल संसाधनों के सक्षम और कुशल उपयोग से ही फसलोत्पादन को बढ़ाना है।  रासायनिकों के असंतुलित प्रयोग से हमारी उपजाऊ जमीने बंजर होने की कगार पर है, तो दूसरी तरफ रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है।  फसलोत्पादन को टिकाऊ बनाने के लिए आवश्यक है की उपलब्ध जल की प्रति बूँद से अधिकतम उत्पादन लिया जाए साथ ही उर्वरकों आदि कृषि आदानों के कुशल एवं संतुलित प्रयोग करते हुए फसल उत्पादकता बढ़ाने हेतु आवश्यक उपाय किये जाने चाहिये। सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों के अभ्युदय से जल तथा पोषक तत्वों के कुशल एवं संतुलित प्रयोग की आशा जगी है।  सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियों को अपनाकर 40-70% पानी की बचत के साथ-साथ उर्जा और मजदूरी में भी बचत होती है और गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के साथ-साथ 30-40% तक उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।  फर्टिगेशन दो शब्दों फ़र्टिलाइज़र अर्थात उर्वरक और इरिगेशन अर्थात सिंचाई से मिलकर बना है।   सिंचाई के  पानी के साथ साथ  उर्वरकों का सीधा प्रयोग कर पौधों की जड़ों तक पहुँचाने की प्रक्रिया को फर्टिगेशन अर्थात सिंचाई के साथ उर्वरीकरण या उर्वर सिंचाई कहते है।  इस प्रक्रिया में सिंचाई जल के साथ आवश्यक घुलनशील उर्वरकों को मिश्रित कर दिया जाता है।  यह कार्य ड्रिप सिंचाई प्रणाली तंत्र की कंट्रोल यूनिट पर स्थापित उर्वरक इंजेक्टर प्रणाली के माध्यम से किया जाता है। इसमें उर्वरकों के अलावा अन्य  जल विलेय रसायनों तथा कीटनाशकों का प्रयोग भी सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों द्वारा किया जा सकता है।  वास्तव में फर्टिगेशन फसल और मृदा की आवश्यकताओं के अनुरूप उर्वरक एवं जल का संतुलित मात्रा में उपयोग करने के लिए प्रभावी तकनीक है।  फसलोत्पादन में जल और पोषक तत्वों  का उचित समन्वय अधिक पैदावार और उत्पाद की गुणवत्ता का आधार स्तम्भ है।  फर्टिगेशन में उर्वरकों को कई बार में सुनियोजित सिंचाई के साथ दिया जाता है, इससे पौधों उनकी आवश्यकता के अनुसार पोषक तत्व उपलब्ध हो जाते है, साथ ही मूल्यवान उर्वरकों का अपव्यय भी नहीं होता है। 

फर्टिगेशन तकनीक की आवश्यकता

यह सर्विदित है की कृषि में जल एवं उर्वरक आवश्यक निवेश है एवं कृषि की सफलता या बिफलता इन दोनों तत्वों के समुचित बंधन पर ही टिकी होती है। जल एवं उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग से अनेक प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही है। मसलन पंजाब के उत्तर-पश्चिम भाग में भू-जल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है।  जबकि दक्षिण-पश्चिम भाग में लवणता की समस्या तेजी से बढ़ रही है।  कमोवेश भारत के हर राज्य में जल एवं उर्वरक जनित समस्याएं उत्पन्न हो रही है।  ऊसर भूमि का क्षेत्रफल भी बढ़ता जा रहा है।  इसके अलावा मृदा के भौतिक,रासायनिक एवं जैविक गुणों में भी तेजी से गिरावट देखी जा रही है, जिसका मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। फसलों और प्राणी जगत में  नित नई बीमारियों का प्रकोप हो रहा है।  इन सभी समस्यायों के द्भव में असंतुलित जल एवं उर्वरक प्रयोग का अहम् योगदान है।  भारतीय मृदाओं में फसलोत्पादन के लिए आवश्यक नत्रजन, फॉस्फोरस,पोटाश के अलावा जस्ता और सल्फर जैसे पोषक तत्वों का निरंतर क्षरण होता जा रहा है।  भूमि में पोषक तत्वों की कमीं की पूर्ती करने हेतु रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है।  उर्वरकों की बढती मांग की पूर्ति करने के लिए उर्वरकों का एक बड़ा हिस्सा बाहर से आयात किया जाता है, जिस पर देश को प्रति वर्ष करोंड़ो रुपये खर्च करने पड़ते है।फर्टिगेशन द्वारा उर्वरकों का प्रभावी उपयोग करके उर्वरक लागत को काफी हद तक कम किया जा सकता है।  इसके अलावा भूमंडलीकरण और विश्व व्यापारीकरण के कारण विश्व कृषि बाजार का परिद्रश्य तेजी से बदल रहा है जिससे पारंपरिक फसलों के स्थान पर  बहुत सी नकदी फसलें, सब्जियां, फल, पुष्पों आदि का प्रचलन बढ़ता जा रहा है।  इ फसलों को अन्तराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप उत्पादित करने के लिए उर्वर सिंचाई प्रणाली (फर्टिगेशन) का इस्तेमाल अति आवश्यक और समीचीन हो गया है। 

फर्टिगेशन हेतु उपयुक्त उर्वरक

हमारे देश में नत्रजन धारी उर्वरकों  को ही मुख्यतः फर्टिगेशन द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।  फॉस्फोरस और पोटाश युक्त उर्वरक पुर्णतः जल विलेय न होने के कारण इस विधि से पौधों को आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते है।  इसके अलावा ये उर्वरक सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को भी अवरुद्ध कर देते है. यद्यपि कुछ पोटाश युक्त उर्वरकों जैसे पोटैशियम सल्फेट, पोटेशियम नाइट्रेट, पोटेशियम क्लोराइड को इस विधि से भी फसलों को दिया जा सकता है. अनेक सूक्ष्म तत्व जैसे लोहा एवं जिंक को चिलेट के रूप में तथा ताबां को कॉपर सल्फेट के रूप में फर्टिगेशन द्वारा फसलों को दिया जा सकता है।  वैसे आज कल किसानों के लिए फर्टिगेशन के माध्यम से देने के लिए पानी में घुलनशील उर्वरक बाजार में कई कंपनीयो द्वारा उपलब्ध करवाए जा रहे है| किसान यह ध्यान रखे कई यूरिया, पोटाश पानी में अत्यधिक घुलनशील है, साथ ही घुलनशील उर्वरक भी बाजार में उपलब्ध है| किसान फॉस्फोरस पौषक तत्व के लिए उन उर्वरक को काम में ले जिनमें फॉस्फोरस का स्वरूप फास्फोरिक एसिड के रूप में हो, इसे उर्वरक तरल रूप में बाजार में उपलब्ध है|
इसके अलावा किसान मोनो अमोनियम फॉस्फेट (नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस)पॉलीफीड (N, P, K), मल्टी K (N & K) और पोटैशियम सलफेट (पोटैशियम और सल्फर) आदि उर्वरक फर्टिगेशन में उपयोग कर सकते है, यह उर्वरक पानी में अत्यधिक घुलनशील है साथ ही इन उर्वरको से किसान अपनी फसल एवं पौधों को सूक्ष्म  पोषक तत्वों जैसे Fe, Mn, Cu, B, Mo की आपूर्ति  भी कर सकते है। 
नाइट्रोजन फर्टिगेशन उर्वरक:- यूरिया, अमोनियम सलफेट, अमोनियम नाइट्रेट, कैल्शियम अमोनियम सलफेट, कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट, कुछ प्रमुख नाइट्रोजन उर्वरक है जो किसान ड्रिप सिचाई के दौरान फर्टिगेशन के रूप में काम लिए जासकते  है। 
फॉस्फोरस  फर्टिगेशन उर्वरक:- फास्फोरिक एसिड एंड मोनो अमोनियम फॉस्फेट। 
पोटैशियम फर्टिगेशन उर्वरक:-पोटैशियम नाइट्रेट, पोटैशियम क्लोराइड, पोटैशियम सलफेट और मोनो पोटैशियम फॉस्फेट। 

उर्वरक प्रयोग का उपयुक्त समय

फसल को आवश्यकतानुसार पोषक तत्वों की समान एवं सही समय पर आपूर्ति ही उर्वर सिंचाई की सफलता का मूल मन्त्र है. मृदा के एक बड़े हिस्से के जल संतृप्त होने के बाद ही उर्वर सिंचाई प्रारंभ की जानी चाहिए नत्रजन-नाइट्रेट  अधिकाधिक मात्रा में मृदा के ऊपरी सतह में उपस्थित रहे और पौधों को सुगमता से उपलब्ध हो सकें।  इस प्रकार सिंचाई चक्र के अंतिम हिस्से से उर्वरक प्रयोग प्रारंभ करना अधिक फायदेमंद होगा। 

फर्टिगेशन में उर्वरक प्रयोग की शुरुआत उर्वरकों की प्रकृति के साथ-साथ मृदा की भौतिक सरंचना पर भी निर्भर करती है।  यदि बलुई मिटटी में फर्टिगेशन करना है तो सिंचाई चक्र के अंतिम भाग में उर्वरक प्रयोग शुरू करना चाहिए जिससे पोषक तत्वों के निक्षालन (लीचिंग)  न्यूनतम या नगण्य सम्भावना रहे, जबकि चिकनी मिटटी में उर्वरक प्रयोग सिंचाई चक्र की शुरुआत से ही प्रारंभ कर सकते है, क्योंकि इसमें निक्षालन प्रक्रिया बहुत धीमी होती है और जल का मिट्टी में फैलाव क्षैतिज दिशा में तेज होता है।  इस प्रकार हर स्थान पर पोषक तत्वों की उपस्थिति में समानता बनाये रख सकते है।

 फर्टिगेशन तकनीक प्रयोग में  कुछ सावधानियां

फर्टिगेशन के लिए उर्वरक घोल बनाने से पहले हमे कुछ तकनिकी बातों पर विशेष ध्यान देनें की आवश्यकता है। 
Ø जब भी हम घोल बनाये उस समय घोलने के लिए आवश्यक जल का 50-75 % भाग पानी कंटेनर में भरें. साथ ही साथ इस बात का भी ध्यान रखें की यदि तरल उर्वरक एवं पानी में घुलनशील उर्वरक दोनों का प्रयोग एक साथ ही करना है तो पहले तरल उर्वरक को कंटेनर में डालें उसके बाद विलेय उर्वरक को मिश्रित करें। 
Ø यदि किसी अम्ल का प्रयोग करना है तो हमेशा अम्ल को पानी में मिलायें। अम्ल में पानी घोलने का प्रयास न करें। 
Ø सूक्ष्म सिंचाई के लिए प्रयोग होने वाले गंदे पानी के उपचार के लिए क्लोरीन गैस का प्रयोग करना है तो गैस को कंटेनर के पानी में मिलायें परन्तु क्लोरीन गैस मिश्रण के समय इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कंटेनर में कोई अम्ल या अम्लीय उर्वरक नहीं है वरना विषाक्त क्लोरीन गैस की उत्पत्ति संभव है। 
Ø क्लोरीन एवं अम्ल का भण्डारण एक ही स्थान पर अर्थात एक ही कक्ष में नहीं करना चाहिए। 
Ø दो कंपाउंड (मिश्रण) को मिश्रित करने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि कैल्शियम एवं सल्फेट युक्त कंपाउंड तो नहीं है, वरना इनकी रासायनिक क्रिया से अघुलनशील या कम घुलनशील कंपाउंड की उत्पत्ति होगी. उदाहरण के लिए यदि कैल्शियम नाइट्रेट एवं अमोनियम सल्फेट उर्वरक का प्रयोग एक ही साथ करें तो ये दोनों मिलकर कैल्शियम सल्फेट (जिप्सम) नामक एक बहुत कम घुलनशील कंपाउंड उत्पन्न करते है जो कि सूक्ष्म सिंचाई में प्रयुक्त होने वाले सवेंदनशील उपकरणों जैसे फ़िल्टर, ड्रिपर, माइक्रोजेट आदि को अवरुद्ध कर देता है, जबकि ये दोनों कंपाउंड अलग-अलग पानी में अति घुलनशील है और उर्वर सिंचाई में बहुतायत में प्रयोग किये जाते है। 

फर्टिगेशन हेतु उपयुक्त फसलें

            उर्वर सिंचाई के दायरे में सामान्यतौर पर कतार बोनी वाली सभी फसलों में लाया जा सकता है परन्तु प्रारंभिक लागत अधिक होने के कारण इसका प्रयोग  अधिक आय देने वाली या नकदी फसलों तक ही सीमित है जैसे-
फसलें: गन्ना, आलू,कपास, चाय आदि। 
सब्जियां :टमाटर, मिर्च,गोभी, ब्रोकली, शिमला मिर्च, भिन्डी, बेल वाली सब्जियां-लौकी, तोरई, कुंदरू, करेला, खीरा आदि। 
फल : आम, अनार, अनानास,संतरा, पपीता, संतरा,किन्नो,केला,अंगूर,स्ट्रॉबेरी आदि। 
फूल:गुलाब,कारनेशन,आर्किड,जरबेरा, ग्लोडीओलस, लिलियम आदि। 

फर्टिगेशन तकनीक से लाभ

§          फर्टिगेशन जल एवं पोषक तत्वों के नियमित प्रवाह को सुनिश्चित करता है जिससे पौधों की विकास  दर तथा फसलोत्पाद की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
v  इस प्रक्रिया द्वारा पानी और पोषक तत्वों  को फसल की मांग के अनुसार उचित समय पर दे सकते है। इस प्रकार फर्टिगेशन जल एवं उर्वरक के अनावश्यक व्यय को नियंत्रित करने में सहायक है। 
v  फर्टिगेशन पोषक तत्वों की उपलब्धता और पौधों की जड़ों के द्वारा उपयोग बढ़ा देता है। 
v  फर्टिगेशन उर्वरक देने की विश्वस्तरीय और सुरक्षित विधि है। फर्टिगेशन से जल और उर्वरक पौधों के मध्य न पहुंचकर सीधे उनकी जड़ों तक पहुंचते हैं इसलिए खरपतवार कम संख्या में उगते हैं।
v  फर्टिगेशन के माध्यम से अत्यधिक जल और रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से होने वाले पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को नियंत्रित करने में सहायता होती है
v  परंपरागत उर्वरक उपयोग विधि की अपेक्षा फर्टिगेशन सरल और अधिक सुविधाजनक है जिससे समय और श्रम दोनों की बचत होती है।
v  इस प्रक्रिया में उर्वरक कम मात्रा में परन्तु कई बार में सिंचाई जल के साथ देने से पोषक तत्वों एवं पानी की नियमित बनी रहती है, जिससे पौधों की वृद्धि दर तथा गुणवत्ता में इजाफा होता है। 
v  ड्रिप द्वारा फर्टिगेशन से बंजर (रेतीली या चट्टानी मिट्टी) में जहां जल एवं पोषक तत्वों को पौधे के मूल क्षेत्र के वातावरण में नियन्त्रित करना कठिन होता वहां भी फसल ली जा सकती है।
v  सिंचाई के साथ पौध वृद्धि कारकों (ग्रोथ हर्मोंन),खरपतवारनाशको, कीटनाशको और फफुन्द्नाश्कों का प्रयोग प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। 
फर्टिगेशन पर देश विदेश में किये गए अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि इस प्रणाली को अपनाने से प्रचलित प्रणाली की अपेक्षा जल एवं उर्वरक की काफी बचत होती है।  इस विधि में उर्वरक उपयोग दक्षता अधिक होने के कारण 20-40 % कम उर्वरक प्रयोग करके भी इष्टतम पैदावार और उत्पाद की उच्च गुणवत्ता प्राप्त की जा सकती है। 

फर्टिगेशन के प्रसार में बाधाएं

इस नवोदित तकनीकी के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा इसकी प्रारंभिक लागत का अधिक होना है, जो भारत के सीमान्त और लघु किसानों क्रय क्षमता से बाहर है।  इसके अतिरिक्त कुछ तकनीकी बाधाओं की वजह से भी इस प्रणाली का विकास धीमी गति से हो रहा है। 
v उर्वरक सिंचाई के तकनीकी पहलुओं तथा सुचारू संचालन के विषय में किसानो को जानकारियों का आभाव जैसे उर्वरक की किस्म, मात्रा, प्रयोग का समय एवं सांद्रता आदि के बारे में भारतीय किसान अन्विज्ञ है, जिसके कारण कृषको को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। 
v फर्टिगेशन में पूर्णरूपेण जल में विलेय उर्वरकों का प्रयोग ही संभव है।  यदि रासायनिक उर्वरक पूरी तरह जल में घुलनशील नहीं है तो उनके प्रयोग से प्रणाली के ड्रिपर एवं स्प्रिंकलर के छेदों के अवरुद्ध होने का खतरा बना रहता है। 
v जल में पूर्ण विलेय  उर्वरकों की बाजार में उपलब्धता कम है।  इनकी कीमत अधिक होने के कारण इनका प्रयोग अधिक आमदनी देने वाली फसलों तक ही सीमित है।       

सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली अब सरकार के मिशन मोड़ पर  

भारत सरकार ने वर्ष 2005 में उपलब्ध पानी के स्त्रोतों का उपयोग सूक्ष्म सिंचाई में करने हेतु सूक्ष्म सिंचाई योजना की शुरुआत की जिससे पांच वर्षो में देशभर में 26 लाख हेक्टेयर खेती भूमि को सूक्ष्म सिंचाई से आच्छादित हो गई।  वर्ष 2010 से भारत सरकार ने इस योजना में परिवर्तन करते हुए राष्ट्रिय सूक्ष्म सिंचाई मिशन के रूप में लागू किया है।  यह मिशन सिंचाई जल की उपयोगिता, दक्षता एवं उत्पादों की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए कारगर  सिद्ध होगा।  भारत सरकार द्वारा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना लागू की गई है जिसके उपघटक 'पर ड्रॉप मोर क्रॉप' माइक्रोइरीगेशन कार्यक्रम के अन्तर्गत ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी ढंग से विभिन्न फसलों में अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। राष्ट्रिय सूक्ष्म सिंचाई मिशन में लघु एवं सीमान्त किसानो को 50% केन्द्रांश और 40% राज्यांश कुल 90% अनुदान ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति अपनाने पर दिया जा रहा है। देश में उपलब्ध जल संसाधनों के कुशल उपयोग और उर्वर क्षमता बढ़ाने के लिए सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली के साथ उर्वरीकरण से भारत के किसान प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेकर ही अपनी आमदनी को दो गुना तक बढ़ा सकते है।

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