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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

गेंहू उत्पादन की आधुनिक तकनीक अपनाएं -उपज और आमदनी बढ़ाएं

                                                  डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
भारत की खाद्यान्न सुरक्षा में धान-गेंहू फसल प्रणाली का महत्वपूर्ण स्थान है।   जलवायु परिवर्तन के कारण निरंतर कम होते जल स्त्रोत एवं मिट्टियों का खराब होते स्वास्थ्य जैसी समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए धान-गेंहू फसल प्रणाली को उपजाऊ एवं आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद और टिकाऊ बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. गेंहू भारत की एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है।  भारत में वर्ष 2015-16 के दरम्यान  गेंहू की खेती  30.97 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की गई जिसमें 2872 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से  88.94 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ. गेंहू की विश्व औसत उपज 3268 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की अपेक्षा भारत की औसत उपज लगभग 4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर कम है .जर्मनी में गेंहू की औसत उपज 7998 किग्रा. है तो फ़्रांस में यह औसत 7254 किग्रा. प्रति हेक्टेयर है, जो की हमारे देश की औसत उपज से दो गुना से अधिक है. भारत के विभिन्न प्रान्तों में गेंहू की औसत उपज में बहुत असमानता देखने को मिलती है. मसलन, मध्य प्रदेश में यह 2900 किग्राम. है तो छत्तीसगढ़ में मात्र 1345 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की औसत दर से  उत्पादन होता है. गेंहू की औसत उपज की दृष्टि से हरियाणा (4574 किग्रा/हेक्टेयर) एवं पंजाब (4491 किग्रा./हेक्टेयर) देश में सबसे आगे है जिनकी तुलना में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की औसत उपज बहुत कम है. जाहिर है भारत में विशेषकर धान-गेंहू फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में गेंहू उत्पादन बढ़ाने की असीम संभावनाएं मौजूद है।  यदि किसान भाई गेंहू उत्पादन की आधुनिक वैज्ञानिक  विधियाँ अपनाये तो निश्चित रूप से उनकी उपज और आमदनी में आशातीत वृद्धि हो सकती है। संसाधन सरंक्षण आधारित कम लागत में गेंहू की अधिकतम  उपज लेने के लिए आधुनिक तकनीक अग्र प्रस्तुत है.
गेंहू फसल फोटो साभार गूगल

भूमि एवं खेत की तैयारी

गेंहू की खेती के लिए उचित जल निकास वाली दोमट व बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है. खेत तैयार करने के लिए प्रथम जुताई मिटटी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से करनी चाहिए।  इसके पश्चात हैरो अथवा कल्टीवेटर  द्वारा क्रॉस जुताई करके पाटा लगाकर मिटटी को समतल कर लेना चाहिए। आज कल गेंहू की उत्पादन लागत काम करने के लिए गेंहू की खेती शून्य जुताई विधि से करना फायदेमंद सिद्ध हो रहा है।  

उत्तम किस्मों के बीज का चयन

अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए उन्नत किस्मों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  अतः गेंहू  का भरपूर उत्पादन लेने के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव क्षेत्रीय अनुकूलता एवं बुवाई के समय को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए जिससे इनकी उत्पादन क्षमता का लाभ लिया जा सकें। किसान भाइयों को उनके   क्षेत्र के लिए संस्तुत उन्नत किस्मों के  प्रमाणित बीज का इस्तेमाल ही करना चाहिए।  समय से बुवाई वाली किस्मों को विलंब से अथवा देरी से बुआई हेतु संस्तुत किस्मों को समय पर बुआई करने से उपज में कमीं होती है।मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए अनुमोदित गेंहू की प्रमुख उन्नत किस्मों की  अग्र तालिका में प्रस्तुत है। 
किस्म का नाम
अवधि (दिन)
उपज (क्विंटल/हे.)
प्रमुख विशेषताएं
सुजाता
135-140  
25-30
समय पर बुआई सिंचित एवं असिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त. दाने चमकदार एवं 1000 दानों का वजन 42 ग्राम. म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त
डी.एल.-803
120-125
50-60
सरबत किस्म है,सिंचित क्षेत्र समय से बुवाई हेतु उपयुक्त.1000 दानों का वजन 40-42 ग्राम. म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त
जी.डब्ल्यू.-173
110-115
40-50
शरबती किस्म देर से बुआई (15-20 दिसंबर) हेतु उपयुक्त. 1000 दानों का वजन 40-42 ग्राम. म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
जी.डब्ल्यू.-190
125-130
50-60
शरबती किस्म समय से बुआई हेतु उपयुक्त. 1000 दानों का वजन 40-42 ग्राम. म.प्र. के लिए उपयुक्त
मंगला (एच.आई.-1077)
125-135
50-60
समय से बुवाई हेतु उपयुक्त. दाने शरबती एवं 1000 दानों का भार 42-45 ग्राम. म.प्र. के लिए उपयुक्त
एच.आई.-8381
130-135
50-60
समय से बुवाई हेतु उपयुक्त. दाने चमकीले  एवं 1000 दानों का भार 48-52 ग्राम. म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-977
115-120
40-45
विलंब से बुवाई (15-20 दिसंबर) हेतु म.प्र. के लिए उपयुक्त. 1000 दानों का वजन 40-42 ग्राम
जी.डब्ल्यू.-273
111-115
55-60
सिंचित अवस्था एवं समय से बुवाई हेतु म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-1418
115-120
50-55
समय एवं देर से बुवाई हेतु उपयुक्त. म.प्र. के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-454
105-115
45-50
देर से बुवाई हेतु  म.प्र. के लिए उपयुक्त.
डी.एल.-788-2
120-125
40-45
सिंचित अवस्था एवं विलंब से बुवाई हेतु म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
राज-1555
122-127
35-45
सिंचित अवस्था एवं समय से बुवाई हेतु म.प्र. के लिए उपयुक्त.
राज-3765
105-107
43-47
देर से बुवाई हेतु म.प्र. के लिए उपयुक्त.
एम्.पी.-4010
110-112
45-60
सिंचित अवस्था एवं विलंब से बुवाई हेतु म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-8713  
115-117
40-42
मध्यम आकर का शरबती दाना. छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-1544
120-125
43-45
अधिक खाद चाहने वाली किस्म छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-8381
120-125
40-45
कठिया चमकदार दाने. छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
जी.डब्ल्यू.-366
122-125
42-45
छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एम्.पी.-1215
117-119
38-40
गेरुआ निरोधक कठिया गेंहू छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
एच.आई.-8498
115-120
40-45
आंशिक कंडुआ निरोधक छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.

बुआई का समय  एवं बीज दर

बुआई के समय वातावरण का तापमान 21-25 डिग्री सेंटीग्रेड होना आवश्यक होता है।  उत्तम बीज अंकुरण और फसल बढ़वार के लिए तापमान 16-20 डिग्री सेंटीग्रेड होना अच्छा रहता है।  अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में उचित पौध संख्या स्थापित होना आवश्यक है और उचित पौध संख्या के लिए सही बीज दर प्रयोग करना चाहिए। गेंहू की बुवाई की परिस्थिति के अनुसार बुआई का समय एवं बीज दर निम्नानुसार रखना चाहिए:
बुवाई की परिस्थिति
बुआई का समय
बीज दर (किग्रा./हेक्टेयर)
सिंचित क्षेत्र समय पर बुवाई
नवम्बर के प्रथम सप्ताह से नवम्बर के अंतिम सप्ताह तक
100
सिंचित क्षेत्र विलंब से बुवाई
दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक
125

बीज उपचार

यदि किसान भाई  अपना स्वयं ला बीज प्रयोग करते है तो बुवाई पूर्व बीज अंकुरण क्षमता की जांच अवश्य कर लेनी चाहिए।  इसके उपरान्त बीज उपचार कर  बुवाई करें।   बुआई पूर्व बीज को कार्बोक्सिन (वीटावेक्स 75 डब्ल्यू पी) या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यू पी) 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज अथवा वीटावेक्स 75 डब्ल्यू पी  1.25 ग्राम और बायोएजेंट कवक (ट्राईकोडरमा विरडी) 4 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचार करें , ट्राईकोडरमा विरडी से बीजोपचार करने से बीज अंकुरण अच्छा होता है तथा बाद की अवस्थाओं में पौध रोग से बचने की क्षमता भी बढ़ जाती है।  गेंहू के बीजों को जैव उर्वरक जैसे एजोटोबैक्टर एवं फॉस्फोरस घुलनशील बैक्टीरिया से उपचारित करने से उपज में 5-7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होती है।

गेंहू की बुवाई ऐसे करें 

खेत में नमीं की कमी होने पर पलेवा देकर बुवाई करने से बीजों का अंकुरण शीघ्र और एकसार होता है।  सामान्य समय पर गेंहू की बुवाई पंक्तियों में 22.5 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए तथा बीज बोने की गहराई 5 सेमी. रखना चाहिए।  देर से बोये जाने वाले गेंहू में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15-17.5 सेमी.रखना लाभकारी रहता है।
आमतौर पर किसान गेंहू की बुआई छिटका विधि से करते है, जो एक अवैज्ञानिक तरीका है क्योंकि इस विधि से बुवाई करने से खेत में निराई-गुड़ाई करने, खरपतवार नियंत्रण, सिंचाई और पौध सरंक्षण क्रियाएं संपन्न करने में बाधा होती है जिसके कारण गेंहूँ की पैदावार भी कम आती है।  धान-गेंहू फसल प्रणाली के अंतर्गत उत्पादन लागत को कम करने के लिए गेंहू बुआई की अनेक नवीन तकनीके कारगर सिद्ध हो रही है।  कम लागत में गेंहू का अधिकतम उत्पादन लेने की लिए किसान भाइयों को अग्र प्रस्तुत विधियों व्यवहार में लेना चाहिए। 
गेंहू की बुआई की कतार विधि   
गेंहू की कतार बुआई हेतु सीड ड्रिल या सीड-कम-फर्टीड्रिल का इस्तेमाल करना सर्वोत्तम रहता है।  इसमें बीज को बीज पेटिका में और उर्वरक को उर्वरक पेटिका में भरकर बीज बुवाई के साथ साथ उर्वरक प्रयोग भी एक साथ संपन्न हो जाता है।  इस विधि में निर्धारित पंक्तियों में बुवाई होती है जिससे बीज समान दूरी एवं उचित गहराई पर गिरने से खेत में पौधों की उचित संख्या स्थापित हो जाती है।  बुआई की लागत में कमीं एवं उत्पादन में बढ़ोतरी होती है।
शून्य कर्षण बुवाई (जीरो टिलेज)
धान की कटाई के बाद बगैर जुताई गेंहूँ की बुआई (शून्य कर्षण विधि) एक लाभदायक तकनीक सिद्ध हो रही है, जिसमे विशेष तौर पर तैयार की गई बीज संग उर्वरक डालने वाली मशीन अर्थात जीरो टिल कम फर्टीड्रिल का इस्तेमाल किया जाता है।  धान-गेंहू फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में पद्धति से धान की कटाई के उपरांत खेत की बिना जुताई किये ही गेंहू की बुआई संपन्न की जाती है। इस विधि को अपनाकर गेंहू की बुआई लगभग 10-12 दिन पहले ही संपन्न की जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 5-7 हजार रूपये की बचत होती है।  इस विधि के अंगीकरण से किसान अनेक ससाधनों जैसे समय, श्रम,इंधन,पूँजी,पानी और पोषक तत्व की बचत कर सकते है।  शून्य कर्षण विधि से गेंहू की बुवाई करने से खरपतवार जैसे मंडूसी /गेंहूँसा, चूर्णिल आसिता व करनाल बंट रोग तथा दीमक आदि का प्रकोप भी कम होता है।
बेड प्लान्टर से बुवाई
इस विधि में उठी हुई शैय्या पर  बहुफसली (मल्टी क्रॉप) बेड प्लान्टर द्वारा गेंहू की बुवाई की जाती है।  इसमें बीज एवं उर्वरक का प्रयोग एक साथ किया जाता है।  इस विधि को अपनाने से  बेहतर उत्पादन के साथ-साथ 25 % सिंचाई जल की बचत की जा सकती है।
हैप्पी सीडर से बुवाई
धान के खेतों में अवशेष प्रबंधन हेतु हैप्पी सीडर (टर्बो) विकसित की गई है जो की रोटरी टिलेज प्रणाली पर आधारित है।  इस मशीन के आगे लगे फलेल 1500 आर पी एम पर घूमते है और  धान के पुआल (पराली) के अवशेषों को काटकर मिटटी में मिलाते जाते है तथा पीछे लगी ड्रिल के माध्यम से बीज एवं उर्वरक की बुआई होती है।  इस मशीन की सहायता से एक घंटे में लगभग एक एकड़ क्षेत्र में बुवाई की जा सकती है।  इस तकनीक के इस्तेमाल से किसान भाई 7-8 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की बचत  के साथ-साथ 3-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अतिरिक्त उपज भी प्राप्त कर सकते है। भारत के अनेक राज्यों विशेषकर पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश  में धान की कटाई कंबाइन हार्वेस्टर से करने के उपरांत धान के अवशेषों को खेत में ही जला दिया जाता है, जिससे एक तरफ वायुमंडल प्रदूषित होता है तो दूसरी तरफ खेत की नमी एवं मृदा में उपस्थित लाभकारी सूक्ष्मजीवी भी नष्ट हो जाते है।  इसके अलावा पुआल जलाने से भूमि  की उर्वरता बढाने वाले कार्बनिक पदार्थ भी समाप्त हो जाते है।  अतः पर्यावरण सरंक्षण, मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पुआल/पराली को खेत में जलाने की वजाय इनका जैविक खाद बनाकर इस्तेमाल करके मृदा स्वास्थ्य में सुधार एवं फसल उत्पादन में वृद्धि कर सकते है।
रोटरी डिस्क ड्रिल
भारतीय गेंहू एवं जौ अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित यह तकनीक फसल अवशेषों विशेषकर धान और गन्ना फसल अवशेषों में बिना जुताई किये गेंहू बुवाई की श्रेष्ठ तकनीक है जिसमें  गेंहू की बुवाई रोटरी टिल ड्रिल से की जाती है।   इस मशीन के माध्यम से एक बार में ही खेत की तैयारी, बीज एवं उर्वरक की बुआई तथा पाटा लगाने जैसी सस्य क्रियाये संपन्न हो जाती है।  इस तकनीक के अपनाने से समय, श्रम एवं डीजल की बचत होती है. इसके अलावा इस विधि से  किसान गेंहू की बेहतर उपज के साथ-साथ लगभग 4-5  हजार रूपये प्रति हेक्टेयर तक की बचत कर सकते है.  इस मशीन को चलाने के लिए कम से कम 45 अश्व शक्ति के ट्रैक्टर की आवश्यकता होती है।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

फसल की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है. फसल के लिए आवश्यक उर्वरकों की सही मात्रा का निर्धारण करने हेतु मृदा परीक्षण अनिवार्य होता है। दो या तीन वर्ष में एक बार खेत में सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट 8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिटटी में मिलाना चाहिए।  सिंचित क्षेत्रों में समय पर बोये जाने वाले गेंहू में 150 किग्रा. नत्रजन,60 किग्रा. फॉस्फोरस, एवं 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना चाहिए।  सिंचित क्षेत्रों में विलंब से बोये जाने वाले गेंहूँ में 120 किग्रा. नत्रजन,60 किग्रा. फॉस्फोरस एवं 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। इन उर्वरकों  में से नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस, पोटाश एवं सल्फर की सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय पंक्तियों में देना चाहिए।  शेष नत्रजन को दो बराबर भागों में बांटकर  प्रथम व द्वितीय सिंचाई देने के तुरंत बाद छिडक देनी चाहिए।  आज कल गेंहू की फसल में विशेषकर धान-गेंहू फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में जस्ते (जिंक) की कमी भी देखी जा रही है।  इसके लिए 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के पूर्व अन्य उर्वरकों के साथ देनी चाहिए।  फॉस्फोरस तत्व की पूर्ति हेतु सिंगल सुपर फॉस्फेट का इस्तेमाल करने से फसल को सल्फर तत्व भी उपलब्ध हो जाता है।  जिंक सल्फेट के माध्यम से भी फसल को कुछ सल्फर उपलब्ध हो जाती है।  

फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई आवश्यक  

गेंहू  की अच्छी पैदावार  के लिए समय पर सिंचाई करना निहायत जरुरी रहता है।  पानी की उपलब्धता एवं पौधों की आवश्यकतानुसार गेंहू में सिंचाई करना चाहिए। सामान्यतौर पर गेंहू की फसल के लिए 4-6 सिंचाई की आवश्यकता होती है।  शीर्ष जड़ अवस्था एवं बलि बनते समय खेत में नमीं की कमीं से उपज में भारी गिरावट आती है।  अतः इन अवस्थाओं पर सिंचाई करना नितांत आवश्यक होता है।  यदि फरवरी में तापमान सामान्य से अधिक बढ़ने लगे तो हल्की सिंचाई देना लाभदायक रहता है। अधिकतम उपज के लिए गेंहू की विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं में निम्नानुसार सिंचाई करना चाहिए।
सिंचाई की उपलब्धता
सिंचाई का समय ( बुवाई बाद, दिन में,)
सिंचाई की उपलब्धता
सिंचाई का समय ( बुवाई बाद, दिन में,)
एक
21
चार
21,45,85,105
दो
21,85
पाँच
21,45,65,85,105
तीन
21,65,106
छः
21,45,65,85,120
             गेंहू में फव्वारा विधि द्वारा सिंचाई करने पर पानी की बचत होती है और उत्पादन भी अधिक प्राप्त होता है।  भारत सरकार द्वारा संचालित प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत ‘प्रति बूँद से अधिक उपज’ की अवधारण को फलीभूत करने के लिए किसान भाई अपने खेतों में फव्वारा विधि को अपनाकर सीमित जल में अधिकतम फसल क्षेत्र में सिंचाई कर सकते है और अपना फसल उत्पादन बढ़ा सकते है।  फव्वारा सिंचाई हेतु सरकार  द्वारा किसानों को आकर्षक अनुदान भी दिया जा रहा है। 

खरपतवार प्रबंधन

गेंहूँ की फसल में मुख्य रूप से संकरी पत्ती वाले खरपतवारों में  गुल्ली डंडा, जंगली जई, पोई घास आदि तथा चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार जैसे बथुआ, जंगली पालक,हिरन खुरी, पीली सैंजी,कृष्णनील, प्याजी आदि पाए जाते है।  यदि समय रहते खरपतवारों को नियंत्रित न किया जाए तो गेंहू की उपज में 30-35 % तक हांनि होने की संभावना रहती है। गेंहूं फसल में संभावित खरपतवार प्रकोप के अनुसार अग्र सारिणी में बताये अनुसार खरपतवार नाशियों का प्रयोग करना चाहिए।
खरपतवार का प्रकार
नियंत्रण हेतु खरपतवारनाशी दवाएं
मात्रा प्रति हेक्टेयर
 प्रयोग करने का समय
संकरी पत्ती
क्लोडिनाफॉप (टॉपिक/पॉइंट/झटका)
400 ग्राम
बुवाई के 30-35 दिन बाद 300 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
संकरी पत्ती
पिनोक्साडेन(एक्सिल 5 ई.सी.)
1000 मि.ली.
बुवाई के 30-35 दिन बाद 300 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
चौड़ी पत्ती
2,4-डी (वीडमार)
1250 मि.ली.
बुवाई के 30-35 दिन बाद 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
चौड़ी पत्ती
मैटसल्फ्यूराँन (एलग्रिप)
20 ग्राम
बुवाई के 30-35 दिन बाद 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
चौड़ी पत्ती
कारफेन्ट्राजोन (एफिनिटी)
50 ग्राम
बुवाई के 30-35 दिन बाद 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
सकरी एवं चौड़ी पत्ती
सल्फोसल्फ्यूरान(लीडर/सफल)
32.5 ग्राम
बुवाई के 20-25 दिन बाद (प्रथम सिंचाई पूर्व) या बुवाई के 30-35 दिन बाद (सिंचाई पश्चात) प्रयोग करें
सकरी एवं चौड़ी पत्ती
आइसोप्रोट्युरान (आइसोगार्ड 75 डब्ल्यू पी)
1250 ग्राम
बुवाई के 25-30 दिन बाद 300 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
सकरी एवं चौड़ी पत्ती
सल्फोसल्फ्यूरान + मैटसल्फ्यूराँन (टोटल/वेस्टा)
40 ग्राम
बुवाई के 20-25 दिन बाद (प्रथम सिंचाई पूर्व) या बुवाई के 30-35 दिन बाद (सिंचाई पश्चात) प्रयोग करें
सकरी एवं चौड़ी पत्ती
मिसोसल्फ्यूरान + आइडोसल्फ्यूरान (अटलांटिस)
400 ग्राम
बुवाई के 30-35 दिन बाद 300 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
सकरी एवं चौड़ी पत्ती
फिनोक्साप्रॉप + मेट्रिब्युजिन (एकार्डप्लस)
1250-1500 मि.ली.
बुवाई के 30-35 दिन बाद 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
सकरी एवं चौड़ी पत्ती
पेंडीमैथालीन (स्टॉम्प)
3000-3500  मि.ली.
बुवाई के 2 दिन बाद तक दवा को 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें

कटाई एवं मढ़ाई

जब दानों में लगभग 20% नमी शेष रह जाए तब फसल हाथ से कटाई के लिए उपयुक्त रहती है. कंबाइन हार्वेस्टर से शीघ कटाई-मढ़ाई  के लिए दानों में नमी 14% से कम होना आवश्यक रहता है. फसल की कटाई सावधानीपूर्वक करना चाहिए ताकि बालियाँ या दाने खेत में कम से कम बिखरें।  संभवतः कटाई का कार्य सुबह के समय करना चाहिए।  फसल सूखने पर थ्रेशर से मढ़ाई का कार्य करें।  

उपज एवं आर्थिक लाभ

इस आलेख में ऊपर वर्णित उन्नत विधियों द्वारा गेंहू की खेती करने से  दाने की औसत  उपज 40-45 क्विंटल तथा भूसे की 50-55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है।  गेंहू की एक हेक्टेयर खेती करने पर लगभग 30000 रुपये का खर्चा आ जाता है।  आर्थिक गणना हेतु यहाँ पर हम गेंहू की संभावित उपज 40 क्विंटल दाना एवं 50 क्विंटल मान लेते है।  इस वर्ष (2017-18) के लिए  केंद्र सरकार द्वारा घोषित गेंहू के समर्थन मूल्य 1840 रूपये प्रति क्विंटल की दर से गेंहू बेचा जाता है तो गेंहू अनाज से 73600-82800  रूपये तथा दो सो रूपये प्रति क्विंटल की दर से भूषा बेच कर 10000-11000 रूपये अर्थात कुल आमदनी 83600-93800 रुपये प्राप्त होगी जिसमें से उत्पादन लागत 30000 रुपये घटा देवें तो 53600-63600 रूपये का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।  

अनाज भण्डारण

           बाजार में बेचने के बाद शेष अनाज को पक्के साफ़ फर्श या  त्रिपाल पर फैलाकर तेज धुप में अच्छी तरह सुखा लें जिससे दानों में नमीं की मात्रा 12% से कम हो जाए।  साफ़ और सूखे अनाज को जी आई शीट की बिन्स (कोठिया) में भंडारित करें।  अनाज की कीड़ों से सुरक्षा हेतु एल्यूमीनियम फॉस्फाइड की एक टिकिया प्रति 10 क्विंटल अनाज के हिसाब से रखनी चाहिए जिससे गेंहूँ में कीट प्रकोप की संभावना नहीं रहती है। 

नोट: कृपया  लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख की कॉपी कर  अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है, तो  ब्लॉगर/लेखक  से अनुमति लेकर /सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य देंवे  एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

रबी दलहनों की उपज बढ़ाएं: देश को दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाएं


                                    डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)

                                            इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
                             राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, 
                                                  अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

दलहन हमारे देश की खाद्य सामग्री में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जलवायु परिवर्तन के दौर में  टिकाऊ  खेती, मृदा की उर्वराशक्ति को कायम रखने और पोषण सुरक्षा में  दलहनी फसलों का अति महत्वपूर्ण योगदान है। भारत की बहुसंख्यक शाकाहारी आबादी की प्रोटीन, खनिज एवं विटामिन्स की प्रतिपूर्ति हेतु दैनिक भोजन में दालों का समावेश आवश्यक रहता है। विश्व में सबसे ज्यादा क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती करते हुए सबसे बड़े उत्पादक देश (वैश्विक उत्पादन का 25%) होने पर हम  हर्षित  भले ही हो सकते है परन्तु गर्वित बिल्कुल नहीं हो सकते क्योंकि कृषि प्रधान देश होने के बावजूद हमें अपनी  घरेलु आवश्यकता की पूर्ति हेतु औसतन 40 लाख टन दालों का आयात विदेशों से करना पड़ता है। भारत में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता वर्ष 1951 में 60 ग्राम थी जो  वर्तमान में घटकर 41-42 ग्राम के आसपास आ गई है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति  होनी चाहिए। दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा विश्व खाद्य और कृषि संगठन ने प्रति व्यक्ति प्रति दिन 104 ग्राम दालों की संस्तुति की है।
चना फोटो साभार गूगल
भारत सरकार, कृषि विभाग और कृषि वैज्ञानिकों के तमाम प्रयासों के बावजूद भी दालों की खपत (22-26 मिलियन टन) के विरुद्ध दलहनी फसलों का उत्पादन पिछले 10-12 वर्षो से 18-20 मिलियन टन पर टिका हुआ है जिसके परिणामस्वरूप घरेलू खपत की पूर्ति हेतु प्रति वर्ष 4-6 मिलियन टन दालें विदेशों से आयात  करनी पड़ती है। यधपि इंद्र देव की मेहरवानी से पिछले 2-3 वर्षो से मानसून अच्छा रहने एवं सरकार द्वारा की गई विभिन्न नीतिगत पहलों के परिणामस्वरूप मौजूदा वर्ष 2017-18 के दौरान दलहनों का कुल उत्पादन रिकॉर्ड 23.95  मिलियन टन अनुमानित है, जो विगत वर्ष के दौरान प्राप्त 23.13 मिलियन टन उत्पादन की तुलना में 0.82  मिलियन टन अधिक है । परन्तु अभी भी हम यह नहीं कह सकते है कि दलहन उत्पादन के मामले में हमारा देश आत्म निर्भर हो गया है।  भारतीय दलहन शोध संस्थान के अनुसार वर्ष 2030 तक देश की जनसंख्या 1.6 बिलियन पँहुच जायेगी और उसे 32 मिलियन टन दालों की आवश्यकता पडेगी । इस लक्ष्य के अनुसार देश को प्रतिवर्ष दलहन के उत्पादन मे 4.2% बढोत्तरी करने की जरूरत है । भारत में खरीफ एवं रबी में क्रमशः 143.41 एवं  149.36 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनों  की खेती  प्रचलित है जिनसे 636 एवं 889 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से उत्पादन प्राप्त किया जाता है।  रबी दलहनों में चना  की खेती सर्वाधिक क्षेत्रफल 95.39 हजार लाख हेक्टेयर में हुई जिससे 951 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 90.75 लाख टन उत्पादन हुआ. हमारे देश में चने की औसत उपज विश्व औसत (982 किग्रा. प्रति हेक्टेयर) से तो अधिक है परन्तु चीन (3759 किग्रा.), इजराइल (3559 किग्रा.) एवं अन्य देश हमसे 4 गुना अधिक उपज ले रहे  है।  रबी की दूसरी महत्वपूर्ण दलहन  मसूर है  जिसकी खेती 12.76 हजार लाख हेक्टेयर में  हो रही है  जिससे  765  किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 9.76 लाख टन उत्पादन लिया जा रहा है। विश्व औसत उपज (1067 किग्रा./हेक्टेयर) की अपेक्षा हमारे देश में मसूर की औसत उपज बहुत ही कम है।  मसूर की औसत उपज के मामले में हम क्रोएशिया (2862 किग्रा.), न्यूजीलैंड (2469 किग्रा.) जैसे अनेक देशों से काफी पीछे है।   रबी की तीसरी दलहनी फसल मटर है, जिसे 9.03 हजार लाख हेक्टेयर  क्षेत्र में बोया जाता है तथा 821 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 7.42 लाख टन उत्पादन प्राप्त  होता है ।  मटर की विश्व  औसत उपज (1614 किग्रा. प्रति हेक्टेयर) की अपेक्षा  हमारे देश के किसान आधी  उपज ले पा रहे है।  जबकि प्रति हेक्टेयर औसत उपज के मामले में आयरलैंड (5000 किग्रा.), नीदरलैंड (4766 किग्रा.) एवं डेनमार्क (4048 किग्रा.) हमसे बहुत आगे है। 
मसूर फोटो साभार गूगल
हमारे देश और दलहन उत्पादक प्रदेशों में औसत उपज कम होने के मुख्य कारण है : (i) अधिक उपज देने वाली कीट रोग प्रतिरोधी किस्मों की कमीं एवं उपलब्ध किस्मों का न्यूनतम प्रसार, (ii) सीमान्त और असिंचित भूमियों में अवैज्ञानिक तरीके से खेती करना (iii) उर्वरकों एवं राईजोबियम कल्चर का प्रयोग नहीं करना तथा (iv) पौध सरंक्षण यथा खरपतवार,कीट-रोग प्रबंधन पर ध्यान नहीं देना ।  छत्तीसगढ़ में चने की खेती  280.93 हजार हेक्टेयर में हो रही है जिससे  779 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से   218.85 हजार टन उत्पादन लिया जा रहा है।  मटर के अंतर्गत 12.84  हजार हेक्टेयर क्षेत्र है जिससे  361 किग्रा.प्रति हेक्टेयर  के औसत से  4.63  हजार टन उत्पादन लिया गया.  मसूर  फसल की खेती 16.63 हजार हेक्टेयर में  की जा रही है जिससे  334  किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से  5.55 हजार टन उत्पादन लिया जा रहा है। जाहिर है, राष्ट्रिय औसत उपज की तुलना में  प्रदेश के किसान चना, मसूर और मटर की बहुत कम उपज ले पा रहे है, जिसके 2-3 गुना बढाने की व्यापक संभावनाएं  है।  भारत में बढती आबादी की आवश्यकता को देखते हुए एक तरफ हमें दलहनी फसलों की औसत उत्पदकता में वृद्धि करनी होगी और दूसरी तरफ धान उत्पादक राज्यों विशेषकर छत्तीगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि  में धान के बाद पड़ती (फैलो) पड़ी भूमियों  (करीब 12 मिलियन हेक्टेयर) में रबी दलहनों की खेती को बढ़ावा देना होगा तभी हम देश को खाद्यान्न की भांति दलहनों के मामले में भी आत्म निर्भर बना सकते है जिसके परिणामस्वरूप  देश की जनता को खद्यान्न और पोषण सुरक्षा मुहैया की जा सकती है. वर्तमान में भारत के प्रमुख दलहन उत्पादक राज्यों की औसत उपज, किसानों के खेत की उपज और वैज्ञानिकों द्वारा किसान के खेतों पर डाले गए प्रक्षेत्र प्रदर्शनों की उपज के बीच बहुत बड़ी खाई (गैप) विद्यमान है, जिसे पाटना आवश्यक है। दलहनों का प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने के लिए  किसानों को उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज की उपलब्धता,सामयिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर तथा कवकनाशियों से  बीजोपचार, खरपतवार प्रबन्धन तथा फसल सरंक्षण पर आवश्यक ध्यान देना जरुरी है । इस ब्लॉग में रबी ऋतु की प्रमुख दलहन चना, मसूर और मटर फसलों की उपज बढ़ाने हेतु कारगर तकनीक प्रस्तुत है :  
मटर फोटो साभार गूगल
1.मृदा का चयन  एवं खेत की तैयारी
चना, मटर एवं मसूर की खेती अच्छे जल निकास वाली  बलुई दोमट से  चिकनी दोमट भूमि में सफलता पूर्वक की जा सकती है। खेत की मिटटी का पी.एच. मान 6.5 से 7.5  के मध्य होना चाहिए।  गेंहू की तरह इन फसलों को बहुत अच्छी प्रकार से तैयार किए गए खेत की जरुरत नहीं होती है।   एक गहरी जुताई के बाद कल्टीवेटर से खड़ी-आड़ी जुताई कर पाटा लगाकर   बुआई हेतु खेत तैयार हो जाता है। चने के खेत में छोटे-मोटे ढेले रहने से पौधो का विकास अच्छा होता है।   इन फसलों की दीमक एवं कट वर्म से सुरक्षा हेतु 1.5% क्युनालफ़ॉस या पारथिऑन चूर्ण 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से आखिरी जुताई के साथ खेत में मिला देवें. दलहनी फसलों की उतेरा पद्धति से  बुआई करने हेतु किसी  भी प्रकार की कर्षण क्रिया की आवश्यकता नहीं होती। जल के सरंक्षण एवं जल उपयोग की कुशलता में वृद्धि करने हेतु मेड़ एवं नाली बनायें।  जहाँ बहुत अधिक वर्षा होती है, उठी हुई शैय्या बनाकर मेड़ एवं नाली बनाकर बोना एक आदर्श बुआई विधि है। धान- चना/मसूर फसल प्रणाली में शून्य जुताई पद्धति से चना,मटर एवं मसूर की बुआई लाभकारी पाई गई है ।
2. उन्नत किस्में के बीज का प्रयोग 
              विभिन्न दलहनी फसलों की व्यापक क्षेत्रों के अनुकूल उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों के इस्तेमाल  से दलहनों की उत्पादकता में आशातीत बढ़ोत्तरी हो सकती है । भारत में अभी भी 20-30 प्रतिशत किसान ही दलहनों की उन्नत किस्मों के बीज का इस्तेमाल कर रहे है।  अतः इन फसलों की उन्नत कीट रोग प्रतिरोधी किस्मों के बीज की समय पर उपलब्धता एवं किसानों द्वारा उपयोग किया जाना बेहतर उपज के लिए निहायत जरुरी है.  मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए  चना, मसूर एवं मटर की प्रमुख उन्नत किस्मे है:
चना: देसी किस्मों में जे.जी.-315, जे.जी.-16, गुजरात चना-1, बी.जी.डी.-72, बी जी-391, विजय, पूसा-372, जे.जी.-14, जे.जी.-2, विशाल,जे.ए.के.आई.-9218, वैभव, इंदिरा चना-1, दिग्विजय, जे.एस.सी.-55, जे.एस.सी.-56, जवाहर चना गुलाबी-1  तथा काबुली चने की  शुभ्रा, जे.जी.के.-2, के.ए.के.-2, उज्ज्वल, फूले जी.-0517, पी.के.वी. काबुली-4 उपयुक्त किस्में है.
मसूर:लेन्स-4076,नूरी(आई.पी.एल.-81),जवाहर मसूर-3,शिवालिक(एल.-4076), जे.एल.-1, आई.पी.एल.-316,  आर.बीएल.-31, शेरी (डी.पी.एल.-62) आदि अधिक उत्पादन देने वाली किस्मे है। 
मटर: अम्बिका, पारस, प्रकाश(आई.पी.एफ.डी.1-10), विकास (आई.पी.एफ.डी.99-13),आदर्श (आई.पी.एफ. डी.99-25), के.पी.एम.आर.-400, जे.पी.-885, आई.पी.एफ.डी. 10-12, सपना, शुभ्रा, इंदिरा मटर-1  आदि के इस्तेमाल से अधिकतम उत्पादन लिए जा सकता है।
3. बीज सुरक्षा कवच हेतु जरुरी है  बीजोपचार 
कीट-रोग से रक्षा हेतु बुआई से पूर्व बीज पर सुरक्षा कवर चढ़ाना आवश्यक रहता है जिसके लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम+थीरम (1+2 ग्राम/किग्रा. बीज) अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम/किग्रा. बीज से  उपचारित करें। बीजों की कीड़ो-मकोड़ों से सुरक्षा हेतु क्लोरोपाइरीफ़ॉस 20 ई सी 6 मिली. प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें । दलहनी फसल के बीज का राइजोबियम कल्चर से उपचार करने से  इन फसलों की जड़ों में नत्रजन स्थिरीकरण की क्षमता बढ़ जाती है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उपज में बढ़ोत्तरी होती है। राइजोबियम कल्चर  200 ग्राम प्रति  5 पॉकेट प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है. उपचार हेतु 100 ग्राम गुड़ को एक लीटर पानी में घोलकर हल्का गरम कर लेने के पश्चात ठंडा होने पर इस घोल में पांच पॉकेट उक्त कल्चर के अच्छी प्रकार से मिलाये. इस घोल में संस्तुत बीज दर (80 किग्रा.) को भली भांति मिला देवे जिससे बीज के ऊपर एक परत बन जाये. इसके बाद उपचारित बीज को छाया में सुखाकर शीघ्र बुआई संपन्न करें।  फास्फोरस  की उपलब्धता बढ़ाने हेतु बीज को फास्फेट घुलनशील जीवाणु (15-20 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) से उपचारित करना चाहिए अथवा 4 किग्रा. पी.एस.बी. को 50 किग्रा. कम्पोस्ट में मिलकर खेत में बुआई पूर्व इस्तेमाल किया जा सकता है। बीजोपचार हेतु फफूंदीनाशक-कीटनाशक एवं राइजोबियम कल्चर के क्रम का पालन करना चाहिए।
4. अधिक उपज के लिए  समय पर बुआई
 रबी दलहनों से अधिकतम उपज लेने के लिए सही समय पर इनकी बुआई करना आवश्यक होता है। अगेती बुआई से कीट रोगों का अधिक आक्रमण होता है क्योंकि बुआई के समय तापमान अधिक रहने से पौधों की असाधारण वृद्धि हो जाती है जिससे उपज में गिरावट हो जाती है. विलंब से बुआई करने पर दाना भरते समय तापक्रम बढ़ने से उपज और गुणवत्ता में  भारी कमी हो जाती है । अतः इन फसलों की उपयुक्त समय पर बुआई करना लाभकारी रहता है. असिंचित क्षेत्रों में चना, मसूर और मटर की बुआई 15 अक्टूबर तक संपन्न कर लेना चाहियें । सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों  में इन फसलों की बुआई  15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक संपन्न कर लेने से अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है। नमी की कमी होने की अवस्था में मध्य अक्टूबर बुआई का उपयुक्त समय है। धान से  खाली हुए क्षेत्रों में उतेरा पद्धति में बुवाई हेतु बीज दर 15-20 % बढ़ा देनी चाहिए।
5. सही बीज-दर एवं उचित पौध संख्या  
बुआई हेतु बीज शुद्ध, रोग मुक्त तथा 90-95 %  अंकुरण क्षमता वाला होना चाहिए। चने की  छोटे दाने वाली किस्मों  (12-15 ग्राम/100 दाने) हेतु 80 किग्रा. प्रति हेक्टेयर  तथा मध्यम व बड़े दानों वाली किस्मों (25 ग्राम/100 दाने) हेतु  100  किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई करना  करना चाहिए । मसूर की छोटे दानों वाली किस्मों के लिए  40-45 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा बड़े दाने वाली किस्मों  के लिए  55-60 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर  पर्याप्त रहता है। मटर के छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिए बीज दर 50-60 कि.ग्रा./हे. तथा बड़े दाने वाली किस्मों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है । इन फसलों की मिश्रित फसल के रूप में बुआई के लिए अनुशंसित बीज की आधी मात्रा का इस्तेमाल करें।
इन दलहनी फसलों की बुआई कतारों में करने से निराई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण में सुविधा रहती है, बीज की मात्रा कम लगती है तथा उपज अधिक प्राप्त होती है।   चने में बुआई की दूरी 30 सेमी. x 10 सेमी. रखें ।  बीज की बुआई 5-6 सेमी. से अधिक नहीं होनी चाहिए।  सिंचित क्षेत्रों में चने की कतारों के मध्य 45 सेमी. की दूरी रखना लाभकारी पाया गया है। पौध संख्या चना में 33-40 पौधे/ वर्ग मी.,  मसूर  में 80 पौधे/ वर्ग मी. तथा मटर की ऊँची प्रजातियों हेतु 20-22 पौधे/ वर्ग मी. तथा बौनी प्रजातियों हेतु 33-40 पौधे/ वर्ग मी. संख्या उपयुक्त  रहती है। धान के कटने के बाद नो-टिल सीड  ड्रिल की सहायता से  चना/मसूर/मटर  की बुआई करने और धान की पुआल की पलवार खेत में छोड़ने पर मृदा में नमी का पर्याप्त सरंक्षण  होता है और चना की उपज में वृद्धि होती है।
6. संतुलित मात्रा में उर्वरक प्रयोग 
दलहनी फसल होने के कारण चना, मसूर और मटर को अधिक खाद-उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है । मृदा परीक्षण उपरान्त खेत में पोषक तत्वों की उपलब्धता के आधार पर खाद एवं उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण करना लाभदायक होता है।  सामान्य  उर्वरा शक्ति वाले खेतों में नाइट्रोजन 20 किग्रा. (44 किग्रा. नीम लेपित यूरिया), फास्फोरस 40 किग्रा. (250 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट), पोटाश 25  किग्रा. (42 किग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) प्रति हेक्टेयर का खेत की अंतिम जुताई के समय व्यवहार करें ।  फली बनते समय अथवा देर से  बोई गई फसल में शाखाओं के बनते समय  2 % यूरिया अथवा  डी.ए.पी. के घोल का छिड़काव करने से समुचित पैदावार मिलती है। मृदा में विशिष्ट सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होने पर 15-20 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट/हे. तथा 1-1.5 किग्रा. अमोनियम मौलिब्डेट के प्रयोग की संस्तुति की जाती है।
7. जीवन रक्षक सिंचाई  
 यदि बुआई के समय भूमि में पर्याप्त नमीं है तो आरंभ में पानी नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे एक तो जड़ों में गांठे बनने में रूकावट आती है और दूसरा जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पाती है।  हल्की मृदाओं में इन फसलों में शाखाऐं निकलते समय तथा फली बनते समय 1-2 सिचाई देने से फसल उत्पादकता में आशातीत वृद्धि होती है।  फूल आने की अवस्था में सिचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूलों के गिरने तथा अतिरिक्त वानस्पतिक वृद्धि होने की समस्या उत्पन्न हो सकती है।  दलहनी फसलों में  फव्वारा  विधि से  सिचाई करना सर्वोत्तम है। इन फसलों के खेत में पानी नहीं भरना चाहिए अतः खेत में जल निकासी की उचित व्यवस्था करना आवश्यक है। 
8. आवश्यक है खरपतवार प्रबन्धन
उत्पादकता में कमी को रोकने हेतु फसलों को खरपतवारों से  मुक्त रखना आवश्यक है। चना फसल की बोआई  के 30 - 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। ऐसा देखा गया है कि समय पर खरपतवार नियंत्रण न करने पर 40 - 50 प्रतिशत तक चना उत्पादन में  कमी हो सकती है । खेत में खरपतवार नष्ट करने के लिए एक निंदाई बोआई के 30 दिन बाद एवं दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मिली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा  2.5-3 लीटर) प्रति हेक्टेयर अंकुरण के पूर्व 500 - 600 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़कना चाहिए। सँकरी पत्ती वाले  खरपतवार जैसे सांवा, दूबघास, मौथा आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात 800-1000 मिली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20 दिन बाद करना चाहिए।
चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने से (खुटाई करने) पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 15-20 सेमी. की ऊँचाई के हो जाएँ तब खुटाई का कार्य करना चाहिए। ऐसा करने से शाखायें अधिक फूटती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या बढ़ जाती है।
9. फसल सुरक्षा उपाय अपनाएं
दलहनी फसलों में कीट-ब्याधियों का प्रकोप अधिक होता है. सुरक्षात्मक एवं आकस्मिक उपायों का समग्र रूप से इस्तेमाल कर फसल में कीट-रोग से संभावित क्षति को कम करते हुए उत्पादन में वृद्धि लायी जा सकती है । बोआई के पूर्व  रोग-रोधी उन्नत किस्मों का चयन करें।  सूत्रकृमि ग्रसित खेतों में गर्मी में गहरी जुताई तथा उचित समय  पर बुआई करें।  खड़ी फसल  में फली भेदक कीट के नियंत्रण हेतु  4-5 यौन आकर्षण जाल प्रति हे. की दर से  प्रयोग करें । चिड़ियों के बैठने के लिए T आकार के डंडों  का (35-40 प्रति हेक्टेयर) प्रावधान करें ।  चना एवं मटर में यदि फली भेदक का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर (1-2 लार्वा/मीटर पंक्ति) तक पहुँच जाए तो कीटनाशी का छिड़काव करें. इसके लिए ट्राइजोफ़ॉस 40% ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600-800 लीटर पानी में घोलकर आवश्यकतानुसार  छिड़काव करें। मसूर की खड़ी फसल में  माहू का प्रकोप होने पर डाईमीथोएट (0.03 %) का  छिड़काव करें।  मटर एवं मसूर में रतुआ  रोग के नियन्त्रण हेतु घुलनशील गंधक (0.2-0.3%) अथवा मेन्कोजेब ;0.02 %) का छिड़काव करें।  रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें।  चूर्णिल आसिता के नियन्त्रण हेतु कार्बेन्डाजिम (1 ग्राम/लीटर पानी) अथवा केराथेन 48 ई.सी. (0.5 मिली. प्रति लीटर पानी) का भी प्रयोग किया जा स कता है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें।
10. समय पर करें कटाई एवं गहाई
चना, मटर एवं मसूर की फसल कटाई हेतु किस्म के अनुसार फरवरी-मार्च में  तैयार हो जाती  है । जब 70 -80 प्रतिशत फल्लियाँ  भूरे रंग की हो जाएं और पौधे पीले पड़ने लगे पक जायें तो फसल की कटाई करना चाहिए। देर से कटाई करने पर फलियों के चटकने से दाने खेत में बिखर जाते है। कटाई हँसिये द्वारा सावधानीपूर्वक करना चाहिए जिससे फलियाँ चटकने न पायें। काटने के बाद फसल को एक सप्ताह तक खलिहान में सुखाते हैं। इसके पश्चात् दाॅय चलाकर या थ्रेशर द्वारा दाने अलग कर हवा में साफ कर लिये जाते हैं।
11. भरपूर उपज  
                   अनुकूल वातावरण होने तथा उपरोक्त सस्य तकनीकी अपनाने से  चना, मसूर और मटर  की शुद्ध फसल से क्रमशः 20-25 क्विंटल, 15-20 क्विंटल एवं 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर   दाना उपज प्राप्त होती है । दानो  के भार का लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। हरे मटर (फल्लियों) की पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक ली जा सकती है.चना, मसूर एवं मटर के बीज को अच्छी तरह सुखाकर जब उनमें 10- 12 प्रतिशत नमी रह, जाय तब उचित स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।
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