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बुधवार, 26 दिसंबर 2018

ग्रीष्मकाल में मूंगफली की बिजाई से भरपूर कमाई


ग्रीष्मकाल में मूंगफली की बिजाई से भरपूर कमाई
डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर

तिलहनी फसलों में सोयाबीन के बाद मूंगफली दूसरी महत्वपूर्ण फसल है।  देश में खाद्य तेलों की कमीं को दूर करने के लिए मूंगफली की खेती को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है. मूंगफली के सभी भाग आर्थिक रूप से उपयोगी होते है।  मूंगफली के दानों में 45-50 प्रतिशत तेल, 28-30 प्रतिशत प्रोटीन, 21-25 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन बी समूह, विटामिन सी, कैल्शियम, मैग्नेशियम, जिंक, फॉस्फोरस आदि पाया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है।  इसके दानों को सीधे खाने अथवा तेल निकलने के लिए उपयोग में लाया जाता है।  तेल निकालने के उपरांत प्राप्त खली को पशु आहार एवं कार्बनिक खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।  फलियों को तोड़ने के बाद प्राप्त पर्णीय भाग को पशुओं के खिलाया जा सकता है. यह एक पौष्टिक चारा है. इसकी जड़ों में नत्रजन स्थरीकरण होता है जिससे मूंगफली के बाद बोई जाने वाली फसल में 25-50 किग्रा प्रति हेक्टर नत्रजन की बचत होती है। भारत में वर्ष 2015-16 के दौरान मूंगफली की खेती 45.55 लाख हेक्टेयर में लगाई गई जिससे 1486 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 67.71 लाख टन उत्पादन हुआ था। विश्व औसतमान 1630 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की तुलना में हमारे देश में मूंगफली की औसत उपज काफी कम है। मूंगफली की औसत उपज के मामले में अमेरिका (4310 किग्रा./हे.) प्रथम एवं चीन (3590 किग्रा./हे.) दूसरे स्थान पर है। भारत में  अधिकांश क्षेत्र में मूंगफली की खेती खरीफ ऋतू (जून से अक्टूबर)में की जाती है. वर्षा पर निर्भरता, खरपतवार एवं कीट रोगों के अधिक प्रकोप के कारण खरीफ में मूंगफली की उपज कम आती है। कुछ क्षेत्रों में   वर्षा ऋतू के बाद खेतों में उपलब्ध नमीं अथवा जीवन रक्षक सिंचाई के आधार पर की जाती है।
 ग्रीष्मकाल में मूँगफली की खेती अधिक उपज (औसत 1877 किग्रा./हे.) देती है,क्योंकि खरीफ की अपेक्षा ग्रीष्म  में खरपतवार, कीड़े एवं बीमारियों का प्रकोप फसल पर कम होता है। अतः ग्रीष्मकाल में सूक्ष्म सिंचाई की सहायता से मूँगफली के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार करने से मूंगफली उत्पादन में इजाफा हो सकता है और देश में खाद्यान्न तेलों की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए कृषकों को निम्न तकनीक अपनानी आवश्यक हैः
मूंगफली फसल उपज फोटो साभार गूगल
उपयुक्त जलवायु

मूंगफली उष्ण कटिबंधीय पौधा होने के कारण इसे लम्बे समय तक गर्म मौसम की आवश्यकता होती है।  बीज अंकुरण और प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14-15 डिग्री से.ग्रे. तापमान की आवश्यकता होती है।  फसल वृद्धि के लिए 21-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान उत्तम रहता है।  पर्याप्त सूर्य प्रकाश, उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा मूंगफली की खेती के लिए सर्वश्रेष्ठ रहती है।  खरीफ की अपेक्षा ग्रीष्मकाल मूंगफली की खेती के लिए आदर्श मौसम होता है।  फसल पकने तथा खुदाई के समय एक माह तक गर्म एवं खुला मौसम बेहतर उपज के लिए आवश्यक है।
भूमि की किस्म
मूँगफली की फसल को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है, परन्तु भरपूर उपज के लिए  बलुई दोमट भूमि जिसमे प्रचुर मात्रा में कार्बनिक पदार्थ एवं कैल्शियम मौजूद हो, अच्छी रहती है। भूमि का पी एच मान 5.5-7.5 के मध्य होना चाहिए।  ग्रीष्मकालीन मूँगफली, आलू, मटर, सब्जी मटर तथा राई की कटाई के बाद खाली खेतों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।  उत्तम गुणवत्ता वाली मूंगफली हल्की मिटटी में पैदा होती है क्योंकि इसमें खूँटी (पेग) आसानी से भूमि में प्रवेश कर सकते है, फलियाँ अच्छी तरह बढ़ सकती है तथा खुदाई में भी आसानी होती है।  भारी चिकनी मिटटी मूंगफली की खेती के लिए अनुपयुक्त रहती है। 
खेत की तैयारी
ग्रीष्मकालीन मूँगफली के लिए खेत की तैयारी अच्छी प्रकार कर लेनी चाहियें। मूंगफली का विकास भूमि के अन्दर होने के कारण खेत की मिटटी ढीली, भुरभुरी एवं बारीक होना आवश्यक है.  खेत की एक गहरी जुताई (12-15 सेमी.)तथा 2-3 जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करके भुरभुरा बना लेना चाहिये। बहुत अधिक गहरी जुताई न करे अन्यथा फलियाँ गहराई पर बनेगी और खुदाई में कठिनाई हो सकती है. अंतिम जुताई के समय 1.5 % क्यूनालफास 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से मिटटी में मिला देने से दीमक और भूमिगत कीड़ों से फसल सुरक्षित रहती है.
उन्नत किस्मों का चयन
उन्नत किस्म का बीज फसल उत्पादन का एक आवश्यक अंग है. पुरानी किस्मों की अपेक्षा नविन उन्नत किस्मों में अधिक उपज क्षमता के साथ-साथ ये कीट-रोगों के प्रतिरोधक होती है.ग्रीष्मकालीन मूँगफली से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए शीघ्र तैयार होने वाली तथा गुच्छेदार प्रजातियों आई.सी.जी.एस.-11आदि  का चयन करना चाहिए । छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त मूंगफली की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत है।
प्रमुख किस्में 
पकने की अवधि(दिनो में)
उपज (कु./हे.)
सेलिंग (%)
दानों में तेल की मात्रा  (%)
एस.बी-11  
110-120  
28-30
68-70
48-50
आई.सी.जी.एस.-44
105-110
23-27
70-72
45-49
आई.सी.जी.एस.-11  
105-110
20-25  
68-70
47-50
आई.सी.जी.एस.-37
105-110
18-20
70-72
48-50
जे.जी.एन.-23
90-95  
15-20  
69-70
45-50
टी.जी.-37
90-100
20-22  
69-71
48-50
जे एल.-501
105-110  
20-25
69-70
48-50
विकास
105-110
20-22
70-72
48-49
 इन किस्मों के अलावा पृथा एवं मल्लिका आदि भी ग्रीष्मकाल के लिए उपयुक्त है।
सही बीज दर
मूंगफली की बुआई हेतु बीज के लिए स्वस्थ फलियों का चयन करना चाहिए अथवा उनका प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए।  बीज पूर्ण विकसित होना चाहिए.बुआई से 2-3  दिन पहले दानों को फलियों से सावधानीपूर्वक  अलग करना चाहिए जिससे डेन के लाल भीतरी आवरण को क्षति न पहुंचे अन्यथा बीज अंकुरण शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।  किसान भाई प्रायः मूंगफली के बीज का प्रयोग कम मात्रा में करते है जिसके कारण खेत में पौधों की बांक्षित संख्या स्थापित नहीं हो पाती है, परिणामस्वरूप उन्हें उपज कम मिलती है.ग्रीष्मकालीन फसल से अच्छी पैदावार होने हेतु (गिरी) में 95-100 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर की दर से डालना चाहिए। बीज की मात्रा कम न करें अन्यथा पौधे कम रहने पर उपज सीधे प्रभावित होगी।
बीज शोधन एवं उपचार
बीजजनित रोगों से सुरक्षा हेतु बोने से पूर्व बीज (गिरी) को उपयुक्त रसायन से उपचारित कर लेना चाहिए. बीजोपचार के लिए थीरम 75 % डब्लू.एस. 2.0 ग्राम तथा कार्बेन्डजिम का 50 प्रतिशत 1 ग्राम घुलनशील चूर्ण के मिश्रण की 3.0 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से शोधित कर लेना चाहिए। दीमक एवं सफ़ेद लट बचाव के लिए क्लोरपायरीफ़ॉस (20 ई सी) का 10-15 मि.ग्रा. प्रति किग्रा बीज के हिसाब से बीजोपचार करें।  इस शोधन के 5-6 घण्टे के बाद बोने से पहले बीज मूँगफली के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर (राइजोबियम लेग्युमिनोसेरम) से उपचारित करें। इस कल्चर से बीजों को उपचारित करने के लिए 2-5 लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ डालकर गर्म कर घोल बना लेवें।  इस घोल को ठंडा करके उसमे 600 ग्राम उपरोक्त कल्चर मिलाएं. यह घोल एक हेक्टेयर की बुवाई के लिए आवश्यक बीज हेतु  पर्याप्त होता है.  इस घोल को बीज के ऊपर छिडक कर हल्के हाथ से मिलायें जिससे बीज के ऊपर एक हल्की पर्त बन जाये। इस बीज को 2-3 घण्टे छाया में सुखाने के बाद प्रातः या शाम को बुवाई करे । तेज धूप में कल्चर के जीवाणु के मरने की आशंका रहती है।  बीजोपचार करते समय ध्यान रखें कि सबसे पहले कवकनाशक फिर कीटनाशक एवं अंत में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें ।
ऐसे करें बिजाई 
खेत में पर्याप्त नमी के लिए पलेवा देकर ग्रीष्मकालीन मूँगफली की बुवाई करना उचित होगा। यदि खेत मे उचित नमी नही हैं तो मूँगफली का जमाव अच्छा नही होगा जो उपज को सीधा प्रभावित करेगा। सफल उत्पादन के लिए उचित बीज दर के साथ उचित दूरी पर बुवाई करना आवश्यक होता है। गुच्छेदार प्रजातियों ग्रीष्मकालीन खेती के लिए उत्तम रहती है। इसलिए बुवाई  30 सेमी. की दूरी पर देशी हल से खोले  गयें कूडो में 10 सेमी की दूरी पर करना चाहियें। फैलने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सेमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखन चाहिए।  बीज को 5-6 सेमी गहराई पर बोना चाहिए।  बुवाई के बाद खेत में क्रास पाटा लगाकर दानों का पूरी तरह से मिट्टी से ढंक देना चाहियें। ।
बुवाई का उचित समय
ग्रीष्मकालीन मूँगफली की अच्छी उपज लेने के लिए बुवाई जनवरी के अंतिम सप्ताह से लेकर मार्च के प्रथम सप्ताह तक  अवश्य समाप्त कर लें। विलम्ब से बुवाई करने पर मानसून की वर्षा प्रारम्भ होने की दशा में खुदाई के बाद फलियों की सुखाई करने में कठिनाई होगी।
खाद एवं उर्वरक प्रबन्धन
मूँगफली की अच्छी पैदावर लेने के लिए उर्वरकों का प्रयोग बहुत आवश्यक है। बुवाई के 15 दिन पूर्व 10 टन  प्रति हे. की दर से गोबर की खाद डालन चाहिये। 20 किग्रा. नत्रजन (43 किग्रा यूरिया), 60 किग्रा. फॉस्फोरस (375 किग्रा सुपर फास्फेट) एवं 20 किग्रा. पोटाश (33 किग्रा म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) प्रति हेक्टर की दर से आधार खाद के रूप में देना चाहिए. मूंगफली में सल्फर तत्व का विशेष महत्त्व है।  सल्फर की पूर्ति हेतु जिप्सम सस्ता स्त्रोत है जिसे  200  किग्रा. प्रति हे. की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय  प्रयोग करना चाहिए। जिंक की कमी वाली मिट्टियों में 25 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर अकेले अथवा गोबर की खाद के साथ प्रयोग करना चाहिए. खड़ी फसल में जिंक की कमीं के लक्षण दिखने पर 0.5 % जिंक सल्फेट एवं 0.25 % बुझे हुए चूने (200 लीटर पानी में 1 किग्रा जिंक सल्फेट तथा 0.5 किग्रा बुझे हुए चूने) का घोल बनाकर पर्णीय छिडकाव करना चाहिए।  बोरोन की कमीं वाली मृदा में बोरेक्स 10 किग्रा प्रति हेक्टेयर अकेले या जिप्सम के साथ खड़ी फसल में 40-50 दिनों की अवस्था में देना लाभकारी रहता है।  उर्वरक का प्रयोग इस प्रकार से करे जिससे यह बीज के 3-4 सेमी नीचे पड़ें।
शोध परीक्षणों से ज्ञात हुआ है की थायोयूरिया के प्रयोग से मूंगफली की उपज में सार्थक वृद्धि होती है. मूंगफली की फसल में 0.1 % थायोयूरिया (500 लीटर पानी में 500 ग्राम थायोयूरिया) के दो पर्णीय छिडकाव प्रथम  फूल आने के समय एवं दूसरा  फलियाँ बनते समय करना चाहिए।  
उचित जल प्रबन्ध आवश्यक  
ग्रीष्मकालीन मूँगफली की खेती के लिए सिंचाई आवश्यक है । बेहतर उपज के लिए मूंगफली को 50-75 मिमी जल की आवश्यकता होती है. पलेवा देकर बुवाई के बाद पहली सिचाई अंकुरण पूर्ण होने पर करें। फसल  में 30-35 दिन के बाद फसल में फूल आने प्रारम्भ हो जाते हैं, इसलिए दूसरी सिंचाई 35 दिन की फसल होने पर करें।इसके बाद तीसरी सिंचाई  खूँटी बनने की अवस्था (बुवाई के 45-50 दिन के बाद),चौथी सिचाई 70-75 दिन के बाद फलियों में दाना भरते समय करना चाहिये। आखिरी सिंचाई खुदाई से एक सप्ताह पहले करनी चाहिए।  इससे फलियाँ भरपूर निकलती है और खुदाई में आसानी होती है। इस प्रकार भरपूर उपज लेने के लिए 4-5 सिचाईयों की आवश्यकता होती है। सिंचाई करते समय इस बात का ध्यान रहें कि खेत में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए।  जल भराव की समस्या होने पर जल निकास की उचित व्यवस्था करना चाहिए।  सिंचाई नालियों की सहायता से छोटी-छोटी क्यारियां बना कर करना चाहिए।

पौधों की जड़ों पर मिटटी चढ़ाना
मूंगफली की फसल में निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है और फसल की जड़ों का विकास अच्छा होता है. पौधों की जड़ों पर अंतिम निराई-गुड़ाई के साथ मिटटी चढ़ाने का कार्य जरुरी होता है।  मिटटी चढ़ाने से मूंगफली में बनने वाली खूंटियों (पेग) को मिटटी में घुसने एवं वृद्धि करने में सहायता मिलती है।  यह कार्य फसल की 40-45 दिनों की अवस्था तक कर लेना चाहिए । ध्यान रहे फसल में अधिकीलन अर्थात खूँटियॉ (पेगिंग) बनने के बाद  निकाई-गुड़ाई नहीं करें।
खरपतवारों को न पनपने दें  
खरपतवार फसल के साथ प्रकाश, जल,पोषक तत्वों एवं स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते है. समय रहते खरपतवारों को नियंत्रित नहीं किया गया तो उपज में 40-45 % तक की गिरावट आ सकती है.मूंगफली की फसल प्रारंभिक 30-35 दिनों की अवस्था में खरपतवारों के प्रति सवेदनशील होती है. खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रथम निराई-गुड़ाई बुआई के 15-20 दिनों बाद एवं दूसरी निराई-गुड़ाई 30-35 दिन बाद करना चाहिए।  निराई गुड़ाई के लिए खुरपी अथवा हैण्ड हो का इस्तेमाल किया जा सकता है।   रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु बुवाई से 1-3 दिन के अन्दर पेन्डिमेथेलिन (स्टॉम्प) की 1.0-1.5 किग्रा अथवा एलाक्लोर (लासो) 1.5-2.0  या मेटोलाक्लोर (डुअल) की1.0-1.5 प्रति हैक्टेयर सक्रिय तत्व की मात्रा 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर मिटटी में मिलाना चाहिए। दवा प्रयोग के समय खेत में पर्याप्त नमीं होना आवश्यक है. खड़ी फसल में सकरी पत्ती वाले खरपतवार (घास) के नियंत्रन हेतु क्युजालोफॉप  (टर्गासुपर) 40-50 ग्राम प्रति हेक्टर सक्रिय तत्व की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन पर छिडकाव करें।  इमेज़ेथापायर (परस्यूट 10% एसएल) की 75-100 ग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन पर छिडकाव करने से चौड़ी पत्ती वाले एवं कुछ घास कुल के खरपतवार नियंत्रित हो जाते है। 
कीट-रोगों से फसल सुरक्षा भी आवश्यक
वैसे तो ग्रीष्मकाल में उगाई जाने वाली मॅूगफली में प्रायः कीट ⁄ रोग  का प्रकोप प्रायः कम होता है, परन्तु दीमक, चेंपा एवं फलीवेधक के प्रकोप की संभावना रहती है।  बुवाई के पूर्व कवकनाशी से बीजोपचार करने से रोग प्रकोप की संभावना नहीं रहती है। फसल की पत्ती धब्बा आदि रोगों से सुरक्षा हेतु 2-3 सप्ताह के अंतराल पर कार्बेन्डाजिम (0.025%) + मेंकोजेब (0.2%) छिड़काव करना चाहिए। फसल में संभावित कीट प्रकोप एवं नियंत्रण के उपाय अग्र प्रस्तुत है। 
दीमक : यह सूखे की स्थिति में जड़ों तथा फलियों को काटती है। जड़ कटने से पौधे सूख जाते है। फलियों के अन्दर गिरी के स्थान पर मिट्टी भर देती है। खड़ी फसल में प्रकोप होने पर क्लोरपायरीफास 20% ई.सी. की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें।
चेंपा एवं माहू: ये छोटे-छोटे हरे एवं भूरे रंग के कीट होते है, जो पौधों के रस को चूसते है एवं वायरस जनित रोग फ़ैलाने में सहायक होते है।  इन कीटों के नियंत्रण के लिए डाईमेथोयेट (रोगर) 30 ई सी या इमिडाक्लोप्रिड (20 एस एल) की 1 लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिडकाव करना चाहिए। 
फली छेदक (चने की सूंडी): यह हरे रंग की सूंडी पत्तियों को खाकर फसल को नुकसान पहुंचाती है. इस कीट के नियंत्रण हेतु क्युनाल्फोस (25 ई सी) 2.5 मिली दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर खड़ी फसल में छिडकाव करना चाहिए। 
उपयुक्त समय पर करें खुदाई एवं मड़ाई  
मूंगफली की फसल की खुदाई का समय उपज एवं गुणवत्ता के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस फसल में सभी फलियाँ एक साथ नहीं पकती है।  अतः जब 75-80 % फलियाँ पककर तैयार हो जाये तब फसल की खुदाई करनी चाहिए।  खुदाई तभी करें जब मॅूगफली की पुरानी पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगें, छिलके के ऊपर नसें उभर आयें एवं फली कठोर हो जाये और  फली के अन्दर बीज के ऊपर की झिल्ली गुलाबी या लाल रंग की  हो जाये। फसल की खुदाई फावड़े अथवा पत्तीदार हैरो अथवा मूंगफली खुदाई यंत्र से की जा सकती है।  खुदाई करते समय  मृदा में उचित नमी मौजूद होनी चाहिए. खुदाई के बाद मूंगफली के पौधों के छोटे-छोटे गट्ठर बनाकर ( गट्ठर उलटे अर्थात फलियाँ धुप की तरफ फ़ो)  खेत में ही सूखने के लिए छोड़ देना चाहिए।  सूखने के बाद फलियों को हाथ से अथवा थ्रेशर की सहायता से अलग कर लेना चाहिए।  इसके बाद फलियों को अच्छी प्रकार से साफ़ करने के बाद 8-10  % नमीं स्तर तक  हलकी धुप में सुखा लेना चाहिए।  फलियों को तेज धुप में न सुखाएं । तेज धूप में सुखाई गयी मूँगफली के दानों की अंकुरण क्षमता कम हो जाती है ।
उपज एवं आमदनी  भरपूर  
ग्रीष्मकाल में उपरोक्त आधुनिक तकनीक से खेती करने पर मूंगफली की 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो सकती है।  इसकी खेती में लगभग  35  हजार रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है।  यदि प्रति हेक्टेयर 20 क्विंटल उपज प्राप्त होती है जिसे बाजार में 50 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बेचने पर एक लाख का कुल मुनाफा होता है जिसमे से उत्पादन लागत 35 हजार घटाने से 65 हजार प्रति हेक्टेयर  का शुद्ध मुनाफा प्राप्त किया जा सकता है। 
ऐसे करे भण्डारण
             आवश्यकता से अधिक अथवा अच्छे बाजार भाव की प्रत्याशा में अच्छी प्रकार से सुखाई गई फलियों को हवादार एवं नमीं रहित स्थान में भंडारित करें अथवा बाजार में बेचने की व्यवस्था करें। अधिक नमीं वाली मूँगफली का भण्डारण करने पर  फलियॉ काले रंग की और बीज में विषाक्तता अर्थात कडुआपन  उत्पन्न हो जाता  है जो खाने, बेचने  एवं बीज हेतु सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं।

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सोमवार, 24 दिसंबर 2018

खेतों में सूर्यमुखी की बहार:नव वर्ष में खुशियाँ अपार


खेतों में सूर्यमुखी की बहार: नव वर्ष में खुशियाँ अपार
डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर

भारत में खाद्य तेलों की बढ़ती मांग और  तिलहनों के कम उत्पादन के कारण खाद्य तेलों का सालाना 1.40 से 1.50 करोड़ टन आयात करना पड़ रहा है। वर्ष 2017-18 में खाद्य तेलों का उत्पादन 1.05 करोड़ टन रहा और घेरलू आपूर्ति के लिए लगभग 74.996 करोड़ मूल्य का 1.53 करोड़ टन खाद्य तेल का आयात किया गया।  देश में खाद्य तेलों की कमीं को देखते हुए केंद्र सरकार ने आगामी वर्ष 2022 तक 4.6 करोड़ टन तिलहन उत्पादन का लक्ष्य रखा है जिससे लगभग 1.6-1.7 करोड़ टनखाद्य तेल प्राप्त होने की उम्मीद है।  भारत में तिलहनों का उत्पादन बढ़ाने  के लिए तिलहनी फसलों की खेती के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार एवं प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। सिंचित क्षेत्रों में तिलहनों की खेती खरीफ/रबी  के साथ-साथ ज़ायद (ग्रीष्म ऋतू)  में भी करना होगा।  खरीफ की अपेक्षा अनुकूल मौसम होने के कारण  ग्रीष्मकाल में सूर्यमुखी/सोयाबीन/तिल फसलों में कीट/रोग का प्रकोप कम होता है और भरपूर प्रकाश उपलब्ध होने के कारण फसल  उत्पादन अच्छा होता है।  तो आइये इस नव वर्ष 2019 में खेती का श्रीगणेश सूर्यमुखी की खेती से करें।
 सूरज को निहारते सूरजमुखी के फूल देखने में जितने सुन्दर और आकर्षक लगते है वही इसके बीज खाने में स्वादिष्ट और बीजों से प्राप्त तेल भी सेहत के लिए गुणकारी समझा जाता है. भारत में मूंगफली, सरसों एवं सोयाबीन के बाद तिलहनी फसलों में सुर्मुखी का चौथा स्थान है।   हमारे देश में महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में सबसे अधिक सूरजमुखी की खेती होती है।  इसके बीजों में 45-50 % तक उच्च गुणवत्ता वाला तेल पाया जाता है. सुर्मुखी के तेल में 64 % लिनोलिक अम्ल पाया जाता है, जो मनुष्य के ह्रदय में कोलेस्ट्राल को कम करने में सहायक होता है. इसके तेल को वनस्पति घी तैयार करने में किया जाता है. इसकी खली में 40-44 % प्रोटीन पाई जाती है, जो की मुर्गियों एवं पशुओं के लिए उत्तम आहार है।  सूर्यमुखी की गिरी खाने में स्वादिष्ट होती है जिसे कच्चा एवं भूनकर भी खाया जाता है।  इसके दानों में विटामिन ए,डी एवं ई पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।  सूरजमुखी की खेती खरीफ ,रबी एवं जायद तीनो ही मौसमों में की जा सकती है। परन्तु खरीफ में सूरजमुखी की फसल पर अनेक रोग कीटों का प्रकोप होता है। फूल छोटे होने के साथ-साथ उनमें दाना भी कम पड़ता है। जायद में सूरजमुखी की अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में किसान  भाई  कम समय और न्यूनतम लागत से ग्रीष्मकाल  में सूर्यमुखी की खेती सफलता पूर्वक कर  नए वर्ष 2019 को खुशहाल बना सकते है । सूर्यमुखी से अधिकतम उपज और आमदनी लेने के लिए उन्नत सस्य तकनीकी अग्र प्रस्तुत है ।   
सूर्यमुखी की लहलहाती फसल फोटो साभार गूगल

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

सूर्यमुखी की वृद्धि एवं विकास पर प्रकाश अवधि का प्रभाव नहीं पड़ता है और इसलिए इसे खरीफ, रबी और बसन्त (ग्रीष्मकाल) में सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है।  वर्षा ऋतु में वातावरण में अधिक आद्रता एवं बदल छाये रहने के कारण इसकी उपज कम आती है।  अच्छी फसल बढ़वार और उपज के लिए 20-25 डिग्री से.ग्रे.तापमान उपयुक्त होता है।

भूमि का चयन  

सूरजमुखी की खेती अम्लीय व क्षारीय भूमि को छोडकर सुनिश्चित सिंचाई वाली सभी प्रकार की भूमियों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परन्तु  उचित जल निकास वाली दोमट एवं  भारी भूमि सर्वथा उपयुक्त रहती है।

खेत की तैयारी

खेत में पर्याप्त नमीं न होने की दशा में हलकी सिंचाई कर  जुताई करनी चाहियें। आलू, राई, सरसों अथवा गन्ना आदि के बाद खेत खाली होते ही एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा देशी हल या कल्टीवेटर से एक-दो जुताई करने के उपरांत पाटा चलाकर  मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए। रोटावेटर से खेत की तैयारी शीघ्र हो जाती है।

उन्नत किस्म के बीज

सूर्यमुखी की फसल से अधिकतम उपज और आमदनी के लिए संकर प्रजातियों के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए परन्तु ध्यान रखें इन प्रजातियों का बीज प्रति वर्ष उपयोग नहीं करना है अर्थात ने बीज बुवाई में प्रयोग करें।  संकुल किस्मों का बीज 2-3 वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है परन्तु इनसे उत्पादन कम प्राप्त होता है।  सूर्यमुखी की प्रमुख संकुल किस्मों एवं संकर प्रजातियों की विशेषताए अग्र सारणी में प्रस्तुत है।
क्र.सं.
किस्म/प्रजाति
पकने की अवधि (दिन में)
मुंडक का आकार (सेमी.)
अधिकतम उपज क्षमता (कु./हे.)
तेल प्रतिशत
(क)
संकुल




1
मार्डन
75-80
12-15  
06-08
34-38
2
ई सी 68414
100-110  
15-20
12-15
35-37

टी एन ए यू एस यू एफ-7
90-95
16-20
08-12
38-42
(ख)
संकर




1
के.वी. एस.एच-1
90-95
15-20
12-15
42-44  
2
डी आर एस एच-1  
95-110  
18-21
15-20  
40-44
3
के.वी. एस.एच-44
95-100  
20-22
14-18  
36-38  
4
डी आर एस एफ-108
95-100
18-20
15-18
36-39

बुवाई का उपयुक्त समय

सूर्यमुखी की खेती वर्ष पर्यन्त सफलतापूर्वक की जा सकती है।  सामान्यतः सूर्यमुखी खरीफ में 80-90, रबी में 105-130 दिनों एवं जायद में 110-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।  जायद में सूरजमुखी की बुवाई का उपयुक्त समय जनवरी के अंतिम सप्ताह से फरवरी का दूसरा पखवारा होता है, जिससे फसल वर्षाकाल के पहले पक जायें। बुवाई में देर करने से वर्षा शुरू हो जाने के बाद उपज और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

बुवाई कतार विधि से 

सूर्यमुखी की अधिकतम उपज के लिए बुवाई कतारों मे करें. कतार से कतार की दूरी 60 सेमी. एवं पौधे से पौधे के मध्य 30 सेमी. का फासला रखना चाहिए . शीघ्र तैयार होने वाली एवं संकर प्रजातियों के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी. रखना उचित रहता है।  बीजों की बुवाई 4-5 सेमी. की गहराई पर करनी चाहियें। बुवाई के 10-15 दिन बाद सिंचाई से पूर्व थिनिंग (विरलीकरण) द्वारा पौधे से पौधे की आपसी दूरी 15 सेमी स्थापित  कर लेनी चाहियें।

सही बीज दर

एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 12 से 15 किग्रा स्वस्थ संकुल प्रजाति का प्रमाणित बीज पर्याप्त होता है। सूर्यमुखी लो संकर प्रजाति का 5-6 किग्रा. बीज प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए । यदि बीज का जमाव 70 प्रतिशत से कम हो तो तद्नुसार बीज की मात्रा बढ़ा देना चाहिये।

फसल सुरक्षा के लिए बीज शोधन

शीघ्र और एकसार अंकुरण के लिए बीजों को 12-14  घण्टे पानी में भिगोकर छाया में 3-4 घण्टे सुखाने के पश्चात बीज जनित रोगों से सुरक्षा हेतु कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम या थीरम 2.5 ग्राम तथा पाउडरी मिल्ड्यू रोग से बचाव हेतु मेटालाक्सिल 6 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से शोधित कर बुवाई करना चाहिए। बीज की दीमक एवं अन्य कीटों से सुरक्षा हेतु बुवाई से पूर्व इमिडाक्लोप्रिड 5-6 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने के उपरान्त बुवाई करें। 

अच्छी उपज के लिए संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन 

सामान्यतः उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। इसकी खेती में बुवाई से 15 दिन पूर्व 6 से 8  टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद प्रति हेक्टर का प्रयोग लाभप्रद पाया गया है। मिट्टी परीक्षण की सुविधा न होने की दशा में संकुल किस्मों में 80 किग्रा एवं संकर प्रजाति में 100 किग्रा नत्रजन, 60 किग्रा० फास्फेारस एवं 40 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टर पर्याप्त होता है। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूंडों में प्रयोग करना चाहिये। नत्रजन की शेष मात्रा बुवाई के 30 एवं 45  दिन बाद सामान भागों में प्रयोग करें । फॉस्फोरस तत्व की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट के माध्यम से करना चाहिए जिससे फसल को आवश्यक सल्फर की पूर्ति हो सके।

जायद में सिंचाई आवश्यक  

वर्षा काल में सूर्यमुखी को असिंचित अवस्था में सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है, परन्तु जायद में सूर्यमुखी की खेती के लिए सिंचाई आवश्यक होती है। हल्की भूमि में जायद मे सूरजमुखी की अच्छी फसल के लिए 4-5 सिचांईयो की आवश्यकता पडती है। तथा भारी भूमि में 3-4 सिंचाइयां क्यारियों बनाकर करनी चाहिेयें. खेत में नमीं के आभाव में बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई करें । ध्यान रखें कि कलिका बनते समय, फूल निकलते समय तथा दाना भरते समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। इस अवस्था में सिंचाई बहुत सावधानी पूर्वक करनी चाहिए ताकि पौधे न गिरने पायें। सामान्यतः ग्रीष्मकाल में 10-15 दिनों के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। प्रारम्भिक अवस्था की सिंचाई स्प्रिकलर द्वारा किया जायें। तो लाभप्रद होती है।

जरुरी है खरपतवारों की रोकथाम 

            सूर्यमुखी  की फसल को बुवाई से 60 दिनों तक खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है. इसके लिए बुवाई के 15-20 दिनों बाद 15 दिन के अंतराल पर हाँथ या यांत्रिक विधि से निराई –गुड़ाई करना चाहिए । सूर्यमुखी के मुंडक काफी वजनदार होते है और तना कमजोर होता है।  अतः फसल की ऊंचाई 50-60 सेमी होने पौधों पर 10-15 सेमी मिटटी चढ़ाना आवश्यक है, जिससे फसल को गिरने से बचाया जा सके।  रासायनिकों द्वारा  खरपतवार नियंत्रण हेतु पेन्डिमैथेलिन 01 किग्रा अथवा एलाक्लोर 01-1.5 किग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टर के हिसाब से 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के बाद 2-3 दिन के अन्दर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है।

भरपूर फसल के लिए परसेचन क्रिया

सूरजमुखी एक परसेचित (पर परागित) फसल है। इसके मुंडक में दाना भरने एवं  अच्छी उपज के लिए परसेचन क्रिया नितान्त आवश्यक है। वैसे तो यह क्रिया भौरों एवं मधुमक्खियों के माध्यम से होती है। जहां इनकी कमी हो, वहां हाथ द्वारा परसेंचन की क्रिया आवश्यक है। अच्छी तरह फूल खिल  जाने पर हाथ में दस्ताने पहनकर या किसी मुलायम रोंयेदार कपड़ा हाथ में लपेट कर सूरजमुखी के मुंडकों पर चारों ओर धीरे-धीरे फेरते जायें । पहले फूल के किनारे वाले भाग पर, फिर बीच के भाग पर यह क्रिया प्रातःकाल 8-10 बजे तक की जा सकती है।

फसल सुरक्षा

            सूर्यमुखी की फसल में बहुत से कीट-रोगों का प्रकोप होता है। यदि सही समय में कीट रोग प्रबंधन के उपाय नहीं अपनाये जाते है तो उपज में भारी क्षति होने की संभावना रहती है. रोगों से सुरक्षा हेतु बीजों को उपचारित करके बोना नितांत आवश्यक है. फसल में लगने वाले प्रमुख कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्नानुसार है.
दीमक: इस कीट के श्रमिक फसल को भारी क्षति पहॅचाते है। इसके नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व 2.5 किग्रा। ब्यूवेरिया बैसियाना को लगभग 75 किग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर एक सप्ताह छाया में फैलाने के बाद प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करें।  खडी फसल में दीमक अथवा कट वर्म का प्रकोप दिखाई देने पर सिंचाई के पानी के साथ क्लोरपाइरीफास 20 ई०सी० 2.5-3.5 लीटर प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
हरे फुदके : इस कीट के प्रौढ़ तथा बच्चे पत्तियों से रसचूसकर हानि पहुंचाते हैं। इससे पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते हैं। इसके नियन्त्रण हेतु मिथाइल ओडिमेटान 25% ई०सी० 1 लीटर या डाइमेथोएट 30% ई०सी० की 1.00 लीटर मात्रा का 600-800 लीटर पानी के साथ प्रति.हे. या इमिडाक्लोपिड 250 ग्राम छिड़काव करें। यह छिड़काव अपरान्ह देर से करना चाहिए ताकि परसेंचन क्रिया प्रभावित न हो।
केपिटूलम बोरर : इस कीट की सूडियों मुडक मे बन रहे बीजो को खाकर काफी क्षति पहुचाती है।  सायपरमेथ्रिन (0.005 %) दवा का 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।
कटाई-मड़ाई एवं उपज
जब सूरजमुखी के बीज पक कर कडे ( 20 % नमीं) हो जाये तो मुडको की कटाई कर लेना चाहिये। पके हुए मुडको का पिछला भाग पीले-भूरे रंग का हो जाता है। मुडको को काटकर छाया  मे सुखा लेना चाहियें। मुंडकों को ढेर बनाकर नही रखना चाहियें. अच्छी प्रकार सूखने के बाद डण्डे से पीटकर अथवा थ्रेसर से मड़ाई संपन्न करें । सूरजमुखी फसल की उपरोक्तानुसार वैज्ञानिक ढंग से खेती करने पर संकुल प्रजातियों से  औसत उपज 12-15  क्विंटल  तथा संकर प्रजातियों से  20-25 क्विंटल  प्रति हेक्टर तक प्राप्त हो सकती  है। बीजों को सुखा कर (10 % नमीं) उचित स्थान पर भण्डारण करें अथवा बाजार में बेचा जा सकता है । बीज से तीन महीने के अन्दर तेल निकाल लेना चाहियें। अन्यथा तेल मे कडुवाहट आ सकती है। 
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