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शनिवार, 1 अगस्त 2020

ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने छत्तीसगढ़ सरकार की अभिनव पहल-गौधन न्याय योजना

                                                डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

प्राचीनकाल से गौधन, गजधन और बाजिधन को को रतन धन से भी पहले रखा गया है, क्योंकि पशुधन हमारे देश में कृषि व्यवस्था का आधार रहा है पशुपालन पूर्व में कृषि का सहायक धंधा हुआ करता था किंतु अब ऐसा नहीं है आज कल यह एक पृथक रोजगार और आय सृजन का ऐसा क्षेत्र बन गया है जिसमें विपुल संभावनाएं है पूरे देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने एवं किसानों की आमदनी को दोगुना करने अनेक कृषि और किसान हितैषी योजनाये चलाई जा रही है धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है और 65 प्रतिशत क्षेत्र में धान की एक फसली खेती प्रचलित है धान बाहुल्य राज्य होने के बावजूद प्रदेश के किसान धान की औसत पैदावार अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम (महज 1.5 से 2.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) ले पा रहे है धान लेने के बाद सिंचाई सुविधाओं के अभाव में रबी फसलों की खेती नहीं करते है इसके परिणामस्वरूप प्रदेश के किसानों को गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है प्रदेश में पशुपालन बहुतायत में किया जाता है परन्तु दाना-चारा के अभाव में यहां के पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता बहुत ही कम (800-900 मिली प्रति पशु प्रति दिन) है जिससे किसानों को पशुपालन आर्थिक से लाभकारी नहीं होने तथा चारा संकट के चलते वें अपने पशुधन को खुला चरने के लिए छोड़ देते है और यहीं वजह है जिससे राज्य में द्विफसली क्षेत्र में इजाफा नहीं हो पा रहा है कम होती वर्षा, गिरता भू-जल स्तर, बढती खेती की लागत एवं पशुधन के लिए चारा संकट जैसी समस्याओं से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने नरवा,गरवा, घुरवा अउ बाड़ी नाम की महत्वकांक्षी योजना की शुरुवात की है मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने नारा दिया-‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी नरवा,गरवा,घुरवा अउ बाड़ी,एला बचाना हे संगवारी’ ! उनका स्पष्ट मानना  है कि छत्तीसगढ़ की पहचान के लिए चार चिन्ह है-नरवा (नाला), गरवा (पशु और गोठान),घुरवा (खाद) एवं बाड़ी (बगीचा), जिनके संरक्षण से भूजल भरण, सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, जैविक खेती को बढ़ावा, फसल सघनता (रबी फसलों का क्षेत्र विस्तार) बढ़ने के साथ-साथ पशुधन को आर्थिक रूप से लाभकारी बनाने और परम्परागत किचन गार्डन (बाड़ी) बढ़ावा मिलने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार और किसानों की आमदनी में इजाफा होने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होने की उम्मीद है इस में कोई दो मत नहीं है कि जिस उद्देश्य से यह योजना प्रारम्भ की गई है उसका सही और सम्क्रियक यान्वयन होता है तो निश्चित ही प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था को इससे दूरगामी लाभ हो सकता है
गौधन न्याय योजना एक अभिनव पहल
माननीय मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ द्वारा गौधन न्याय योजना  का शुभारम्भ फोटो साभार गूगल 
छत्तीसगढ़ सरकार ने नरवा,गरवा, घुरवा अउ बाड़ी कार्यक्रम के तहत प्रदेश में गौपालन को आर्थिक रूप से लाभदायक  बनाने, खुले में पशु चराने की प्रथा रोकने, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से “गौधन न्याय योजना” का शुभारम्भ किया है इस योजना के फलीभूत होने पर  सड़कों और शहरों को आवारा पशुओं से मुक्ति  के साथ-साथ पर्यावरण सरंक्षण में भी मदद मिल सकती है। दरअसल छत्तीसगढ़ में खुले में पशुओं के चराने की परंपरा रही है, जो मवेशियों और फसलों दोनों के लिए हांनिकारक है। हाई-वे और शहरों की सड़कों पर आवारा जानवर सड़क दुर्घटनाओं का प्रमुख कारण बनते हैं। अधिकतर पशुपालक  दूध निकालने के बाद गायों को खुला छोड़ देते है, जिससे फसलों की चराई के अलावा गन्दगी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रदेश में गौधन न्याय योजना के जमीनी स्तर पर लागू होने पर निश्चित रूप से पशुपालकों की आमदनी बढ़ने के साथ साथ प्रदेश में दोफसली क्षेत्र में इजाफा होगा जिससे प्रदेश की अर्थव्यवस्था में सुधार होने की उम्मीद की जा सकती है ।
भारत में पहली बार लागू इस महत्वकांक्षी योजना के तहत छत्तीसगढ़ के लोक पर्व हरेली (20 जुलाई,2020, हरियाली अमावश्या) के अवसर पर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने सांकेतिक रूप से गोबर खरीद कर योजना का शुभारम्भ किया । इस योजना के तहत सरकार पशुपालकों से दो रुपए किलो की दर से गोबर खरीद कर इससे गोठानों में वर्मीकम्पोस्ट बनाकर किसानों को बेचा जायेगा । अब तक प्रदेश में 3509  गोठान बन चुके है इनमें से 1659  गोठानों में कृषि, बागवानी के अलावा वर्मीकम्पोस्ट बनाने का काम ग्रामीण महिला समूहों के माध्यम से प्रारम्भ हो गया है। प्रदेश में 5409 ग्राम पंचायतों में गोठान निर्माण का प्रावधान है। योजना के हितग्राहियों का पंजीयन कर उन्हें एक कार्ड जारी किया जायेगा जिसमें गोबर खरीद की मात्रा, कीमत एवं अन्य जानकारियां दर्ज की जायेगा।
क्या कहता है गोबर का गणित
पशुपालन विभाग की 19वीं  पशु गणना के हिसाब से प्रदेश में 1 करोड़ 46 लाख 13 हजार पशुधन है। इनमे 98.13 लाख गाय और 14 लाख भैंस है। स्वस्थ पशु दिनभर में औसतन 10-12 किलो तक गोबर देते है। सामान्यतौर पर एक पशु से औसतन एक दिन में पांच किलो गोबर भी मिलेगा तो पूरे प्रदेश में हर रोज 5 करोड़ 60 लाख 65 हजार किग्रा (56065 टन प्रति दिन) गोबर प्राप्त होगा। यह सालाना 2 करोड़ 4 लाख 63 हजार 725 टन होगा। सरकार द्वारा यदि 2 रूपये प्रति किलो अर्थात 2000 रूपये प्रति टन की दर से गोबर क्रय किया जाता है, तो प्रति दिन 11 करोड़  21 लाख  30 हजार रूपये खर्च करना होगा । सरकार को वार्षिक बजट में गोबर खरीदने के लिए भारी भरकम बजट का प्रावधान करना होगा । यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहता है तो 2 रूपये प्रति किलो के भाव से गोबर बेचने से किसान को एक पशु से 3650 रूपये और 5 पशुओं से 18,250 रूपये प्रति वर्ष का मुनाफा हो सकता है ।
यदि ख़रीदे गए गोबर से केंचुआ खाद बनाई जाती है तो लगभग 28 हजार टन केंचुआ खाद का निर्माण होगा जिसे 8000 प्रति टन (8 रूपये प्रति किलो सरकारी दर) के भाव से बेचने पर 22,40,00000 की आमदनी हो सकती है। इसमें आधी उत्पादन लागत को घटा दिया जाये तो भी सरकार की यह योजना घाटे की नहीं है। अब सवाल उठता है की किसान 8 रूपये किलों केंचुआ खाद क्यों और कैसे खरीदेगा। वर्तमान में इस्तेमाल किया जा रहा रासायनिक उर्वरक किसान को सस्ता पड़ता है । इसे एक उदाहरण से समझते है: मान लीजिये किसी धान्य फसल में 60:40:20 किग्रा प्रति हेक्टेयर  की दर से क्रमशः नाइट्रोजन:फॉस्फोरस: पोटाश दिया जाना है तो इसके लिए 134:375:33 किलो क्रमशः यूरिया:सिंगल सुपर फॉस्फेट:म्यूरेट ऑफ़ पोटाश की आवश्यकता पड़ेगी। बाजार में यूरिया 5.56/-, सिंगल सुपर फॉस्फेट  7.25/-व म्यूरेट ऑफ़ पोटाश 18.20/-किलो के भाव से मिलता है तो किसान को कुल उर्वरकों पर 4068 रूपये प्रति हेक्टेयर का खर्चा करना पड़ेगा।  दूसरी ओर फसल में 60 किग्रा नाइट्रोजन तत्व की पूर्ती करने के लिए किसान को कम से कम 4 टन वर्मीकम्पोस्ट (1.5 % नत्रजन) खाद क्रय करनी होगी जिसके लिए उसे 32000 रूपये की कीमत चुकानी होगी जो उसकी सीमा से बाहर है। यद्यपि वर्मीकम्पोस्ट का इस्तेमाल करने से भूमि की उर्वरा शक्ति और फसल की गुणवत्ता में सुधार होगा परन्तु रासायनिक उर्वरकों की तुलना में उपज कम या बराबर आ सकती है। कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि  वर्मी कम्पोस्ट खाद विक्रय पर किसान को कम से कम 50 प्रतिशत की छूट प्रदान कर 4 रूपये प्रति किलो की दर से यह खाद उपलब्ध कराने का प्रावधान किया जाए  तभी गौधन न्याय योजना अपने उद्देश्यों में फलीभूत हो सकती है।
गोबर से जैविक खाद कम्पोस्ट 
भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए खेती में जैविक खाद का प्रयोग आवश्यक होता है। इसी उद्देश्य से कृषि विभाग ने नाडेप विधि से खाद (कम्पोस्ट) बनाने की विधि की जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया जिसके फलस्वरूप गाँव-गाँव में नाडेप-टांका निर्मित किये गए। कम से कम गोबर का उपयोग करके अधिकाधिक मात्रा में खाद बनाने के लिए नाडेप पद्धति सर्वोत्तम है। नाडेप विधि से कम्पोस्ट बनाने में जैविक कचरा और गोबर को मिलाकर टांका में भरा जाता है। इस पद्धति से मात्र एक गाय के वार्षिक गोबर से 80 से 100 टन (लगभग 150 बैलगाड़ी ) खाद प्राप्त हो सकती है।
ऐसे बनेगी गोबर से वर्मीकम्पोस्ट
वर्मीकम्पोस्ट तैयार करने के लिए गोबर की खाद के अलावा मिट्टी,पानी, घरेलू तथा पशुशाला का कूड़ा कचरा तथा फसल अवशेष के अलावा केंचुओं (एपीजेइक तथा एनेसिक प्रजातियाँ) की आवश्यकता होती है। केंचुआ खाद बनाने के लिए गड्ढा विधि सर्वोत्तम रहती है। इसमें 4 x 1.25 x 0.75 मीटर आकार की जुड़वां पक्की टंकी बनाते है जिसका निर्माण जमीन पर होना चाहिए। हर दिवार में 30 सेमी.पर छेद रखे जाते है। इस विधि में सूखी घास-पत्तियां,गोबर 3-4 क्विंटल, कूड़ा कचरा 7-8 क्विंटल एवं 8500 से 10,000 केंचुओं की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम 15 सेमी. सूखी घास, चारा,कचरा की तह लगाकर उसे 24 घंटे तक पानी से तार रखते है। अब इसमें 300-350 केंचुआ प्रति वर्ग मीटर की दर से छोड़कर 20 सेमी कचरे की तह  जमा देते है। इसे भी पानी से नम बनाये रखते है। भराई के बाद ढेर के ऊपर छाया की व्यवस्था करना आवश्यक है। भराई के बाद 30-45 दिन तक ढेर को नम बनाये रखना चाहिए. इस प्रकार 60-65 दिन में 3-4 क्विंटल कम्पोस्ट तैयार हो जाता है। इसके अतिरिक्त उक्त ढेर से 20-25 हजार केंचुआ भी प्राप्त हो जाते है। दूसरी बार खाद बनाने के लिए इन  केंचुओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। एक वर्ष में 3-4 बार में  वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है।
विवरण
गोबरखाद
कम्पोस्ट
वर्मीकम्पोस्ट
यूरिया+सुपर फॉस्फेट +म्यूरेट ऑफ़ पोटाश
तैयार होने में लगने वाली अवधि
6 माह
4 माह
2 माह
रेडीमेड
नाइट्रोजन %
0.3-0.5
0.5-1.0
1.2-1.6
यूरिया-46 % नत्रजन
फॉस्फोरस %
0.4-0.6
0.5-0.9
1.5-1.8
सुपर फॉस्फेट-16% फॉस्फोरस
पोटाश %
0.4-0.5
1.0
1.2-2.0
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश-60 % पोटाश
लाभदायक जीवों की संख्या
बहुत कम
कम
काफी अधिक
नगण्य
मात्रा प्रति हेक्टेयर
10 टन
10 टन
4-5 टन
कम मात्रा
गोबर गैस संयंत्र: ऊर्जा के साथ खाद
गौधन न्याय योजना के तहत प्रदेश की सभी गौठानों में यदि गोबर गैस संयंत्रों की स्थापना की जाए तो इससे ग्रामीणों के लिए ईंधन, प्रकाश और कम हॉर्स पॉवर के डीजल इंजन चलाने के लिए बिजली के साथ-साथ उत्तम गुणवत्ता की जैविक खाद (बायोगेस स्लरी) भी उपलब्ध हो सकती है। दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गोबर का प्रयोग उपले बनाकर ईंधन के रूप में किया जाता है। यदि ग्रामीण जन गोबर को बेच देते है तो उन्हें ईंधन की कमीं के अलावा खाद भी उपलब्ध नहीं हो पायेगा। वर्मीकम्पोस्ट खरीदकर खेती में उपयोग करना  किसानों के लिए एक मंहगा सौदा हो सकता है। अतः 5-6 पशु पालने वाले किसान परिवारों को गोबर गैस संयत्र स्थापित करने के लिए उन्हें प्रेरित करने की आवश्यकता है । इससे उनके ईंधन और खाद की समस्या का समाधान हो सकता है ।
क्या है बायोगेस स्लरी
बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत गैस के रूप में और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप में होता हैं, जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता हैं । दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र में 50 किलोग्राम प्रतिदिन या 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस गोबर में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लरी का खाद प्राप्त होता हैं। खेती के लिये यह अति उत्तम खाद होता है। स्लरी खाद में लगभग 1.4 % नाइट्रोजन, 1.2 % फॉस्फोरस और 1 % पोटाश के अलावा  अनेक सूक्ष्म पोषक तत्व (आयरन, मैगनीज,जिंक,कॉपर आदि ) पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है। स्लरी के खाद के इस्तेमाल से फसल को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ  मिट्टी की संरचना में सुधार होता है तथा जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूखी खाद असिंचित खेती में 5 टन एवं सिंचित खेती में 10 टन प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है । ताजी गोबर गैस स्लरी सिंचित खेती में 3-4 टन प्रति हैक्टर  की दर से प्रयोग करने की सिफारिस की जाती है । सूखी खाद का उपयोग खेत की अंतिम जुताई के समय एवं ताजी स्लरी का उपयोग सिंचाई जल के साथ किया जा सकता है । स्लरी के उपयोग से फसलों को तीन वर्ष तक पोषक तत्व धीरे-धीरे उपलब्ध होते रहते हैं।
गौधन न्याय योजना सफल बनाने कुछ सुझाव
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई गौधन न्याय योजना को सफल बनाने  के लिए गाँव-गौठानों के पास और गौचर भूमि में वर्ष भर हरा चारा उत्पादन का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जाये और यह कार्य ग्राम समितियों के माध्यम से संपन्न कराया जाए उत्पादित चारे को न्यूनतम दर पर गौपालकों को उपलब्ध कराया जाए। हरा चारा उपलब्ध होने से छुट्टा चराई पर रोक लगेगी, गाँव में दुग्ध उत्पादन बढेगा जिससे पशुपालन को बढ़ावा मिलेगा। गौठानों में सामुदायिक स्तर पर अथवा 5-6 परिवारों को मिलाकर  गोबर गैस संयंत्रों की स्थापना की जाए जिससे ग्रामीण परिवारों को बिजली, रसोई के लिए गैस और छोटे पम्पों के लिए उर्जा प्राप्त होने के साथ-साथ बहुमूल्य खाद (स्लरी) प्राप्त होगी जिससे  जंगलों-पेड़-पौधों  की कटाई रुकेगी तथा फसल उत्पादन में सतत बढ़ोत्तरी होगी। गौपालकों से गोबर क्रय करने के बदले उन्हें हरा चारा और वर्मी कम्पोस्ट न्यूनतम लागत पर उपलब्ध कराये जाने से जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा। गौपालकों द्वारा उत्पादित दूध, दही, घी आदि का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाए ताकि पशुपालन लाभ का व्यवसाय बन सकें। इसके अलावा प्रदेश में उपलब्ध पशुधन की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पशु नश्ल सुधार कार्यक्रम को बढ़ावा देना आवश्यक है तभी हमारे पशुधन आर्थिक रूप से लाभकारी हो सकते है। इस प्रकार गौधन न्याय योजना के सफल क्रियान्वयन से ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में सुधार होने के साथ-साथ भूमिहीन और सीमान्त किसानों को वर्ष भर रोजगार देने में यह वरदान सिद्ध हो सकती है।

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

बुधवार, 29 जुलाई 2020

सोर्फ़ मशीन का वादा-पेड़ी गन्ने से उपज एवं मुनाफा ज्यादा

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत में गन्ने की खेती लगभग 5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है तथा इसकी औसत उत्पादकता 70 टन प्रति हेक्टेयर के आस पास है। देश में लगभग 50 मिलियन गन्ना किसान तथा उनके परिवार अपने जीविकोपार्जन के लिए इस फसल व इस पर आधारित चीनी-गुड़ उद्यग से सीधे जुड़े हुए है। गन्ना उत्पादन में पेड़ी फसल का विशेष महत्त्व है, क्योंकि गन्ने का  भारत में गन्ने के कुल क्षेत्रफल में से आधे क्षेत्रफल (50-55 %) में गन्ने की पेड़ी  फसल ली जाती है। शीघ्र परिपक्व होने के कारण पेड़ी फसल की कटाई एवं पिराई पहले होती है। पेड़ी गन्ने के रस में चीनी परता अधिक होता है परन्तु औसत उत्पादकता मुख्य फसल से 20-25 प्रतिशत कम आती है। दरअसल गन्ना उत्पादन में फसल अवशेष प्रबंधन सबसे बड़ी समस्या है गन्ना कटाई के बाद खेत में लगभग 8-10 टन प्रति हेक्टेयर गन्ने की सूखी पत्तियां खेत में रह जाती है. पेड़ी फसल वाले खेत में उर्वरक एवं सिंचाई देने में काफी परेशानी होती है जिसके कारण किसान फसल अवशेष जला देते है। एक तो फसल अवशेष जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमीं होती है तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है। गन्ने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने में गन्ना कल्लों की अधिक मृत्यु दर, पोषक तत्वों की निम्न उपयोग दक्षता, गन्ने की सूखी पातियों एवं अवशेष का कुप्रबंधन प्रमुख बाधक कारक है। 

पेड़ी गन्ना फसल के बेहतर प्रबंधन के लिए अद्भुत सोर्फ़ मशीन फोटो साभार गूगल  
(SORF) यानी Stubble shaver, Off-bar, Root pruner cum Fertilizer drill मशीन के नाम से जाना जाता है। यह एक बहुउद्देशीय मशीन है जिसकी सहायता से पेड़ी फसल का बेहतर प्रबंध किया जा सकता है। इस  मशीन से निम्न कार्य सम्पादित किये जा सकते है:

1.सोर्फ़ मशीन ट्रेश (फसल अवशेष,पत्ती) आच्छादित खेत में भी रासायनिक उर्वरकों को पेड़ी गन्ने की जड़ों के पास (मृदा के अन्दर) स्थापित करने में सक्षम है।

2.यह मशीन गन्ना काटने के बाद खेत में शेष बचे हुए ठूठों (स्टबल) को भूमि की सतह के पास से एक सामन रूप से काटने के लिए उपयुक्त है।

3.इस मशीन द्वारा गन्ने की पुरानी मेंड़ों (रेज्ड बेड) की मिट्टी को बगल से आंशिक रूप से काटकर (ऑफ़ बारिंग) उसको दो मेंड़ों के बीच पड़ी ट्रेश के ऊपर डाल दिया जाता है जिससे अवशेष (ट्रेश) के शीघ्र अपघटन (सड़ने) में मदद मिलती है।

4.सोर्फ़ मशीन द्वारा पेड़ी  गन्ने की पुरानी जड़ों को बगल से कर्तन कर दिया जाता है जिससे नई जड़ों का विकास होता है जो पानी और पोषक तत्वों के अवशोषण बढ़ाने में सहायक होती है। इससे पेड़ी गन्ने में कल्लों (टिलर) की संख्या व उपज में बढ़ोत्तरी होती है।

सोर्फ़ मशीन के फायदे

Øपेड़ी गन्ने की उपज बढाने के लिए विशेष फसल प्रबंधन कार्यो का समय पर निष्पादन होता है.

Øपत्ती-फसल अवशेष (ट्रेश) आच्छादित खेत में भी रासायनिक उर्वरकों का भूमि में स्थापन संभव होता है।

Øस्वस्थ कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है जिससे पेड़ी गन्ने की उपज में 10-38 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी होती है।

Øप्रति हेक्टेयर 27 से 50 हजार रूपये तक शुद्ध मुनाफे में इजाफा होता है जिससे लाभ:लागत अनुपात में 12-13 प्रतिशत तक बढ़त होती है।

Øइस मशीन के प्रयोग से 20-25 % उर्वरक वचत तथा 6-21 % सिंचाई जल की बचत होती है. इस प्रकार उर्वरक उपयोग दक्षता तथा जल उपयोग क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है।

Øपौधों की जड़ कर्तन (कटिंग) से अधिक मात्रा में स्वस्थ जड़ों का विकास होने से अल्प अवधि के सूखे से होने वाले दुष्प्रभावों से फसल की सुरक्षा होती है।

Øयह पर्यावरण हितकारी तकनीक है जिसके तहत नत्रजन धारी उर्वरक का भूमि में स्थापन होने अमोनिया उत्सर्जन में कमीं होती है तथा ट्रेश (फसल अवशेष) जलाने से होने वाले पर्यावरणीय दुष्प्रभावों से छुटकारा मिलता है ।

मुख्य गन्ना फसल की कटाई के पश्चात गन्ने की पेड़ी फसल के बेहतर प्रबंधन के लिए किसान भाई उपरोक्त सोर्फ़ मशीन का उपयोग कर 3-4 पेड़ी फसल लेकर अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते है। इस मशीन के उपयोग से एक तरफ गन्ना उपज में बढ़ोत्तरी होती है तो दूसरी ओर किसानों को शीघ्र फसल प्राप्त होने से आर्थिक लाभ भी होता है।

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

आज की जरुरत है बिन माटी हवा में स्मार्ट खेती -हाइड्रोपोनिक्स

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

आमतौर पेड़-पौधे-फसलें भूमि या मिट्टी में ही उगाए जाते हैं। हम यह भी जानते है कि पेड़-पौधे-फसल उगाने और उनकी वृद्धि-विकास के लिये खाद, मिट्टी, पानी और सूर्य का प्रकाश जरूरी होता है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि पौधे या फसल उत्पादन के लिये सिर्फ तीन चीजों अर्थात  पानी, पोषक तत्व और सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। इस प्रकार से यदि हम बगैर मिट्टी के ही पेड़-पौधों को किसी अन्य माध्यम से पोषक तत्व उपलब्ध करा दें तो बिना मिट्टी के भी, पानी और सूरज के प्रकाश की उपस्थिति में पेड़-पौधे उगाये जा सकते हैं। दरअसल, बढ़ती आबादी, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण  ने खाद्ध्य और पोषण सुरक्षा की आबाद गति में रुकावट पैदा कर दी है. ऐसे में बिना मिट्टी के पौधे उगाने वाली स्मार्ट तकनीक एक नई उम्मीद के रूप में उभरकर आई है. न खेत की जरुरत, न मौसम का इन्तजार, दुकान, छत, छज्जे, कहीं पर माटी बिना साग, सब्जी, गेंहू, धान,चारा, फल, फूल सभी की फसलें उगाई जा सकती है. केवल पानी में या बालू या कंकड़, लकड़ी का बुरादा या नारियल का रेशा आदि  के बीच नियंत्रित जलवायु ( में बिना मिट्टी के सब्जी,चारा व फूलों के पौधे उगाने की तकनीक को हाइड्रोपोनिक्स कहते है. दूसरे शब्दों में, यह कृषि की एक ऐसी विधा है जिसमें मृदा का उपयोग किये बिना जल और पोषक तत्वों की सहायता से खेती की जाती है.

चित्र: मृदा  रहित खेती(हाइड्रोपोनिक) फोटो साभार गूगल 
हाइड्रोपोनिक्स तकनीक वास्तव में अनादिकालीन उस प्रौद्योगिकी का परिष्कृत स्वरूप है जिसमें नदी-नालों व तालाबों में कुछ सीमित पौधों की खेती हुआ करती थी.बेबीलान के हैंगिंग गार्डन, एजटेक के तैरते खेत और भारत में नदी किनारे पनपी सभ्यता एक प्रकार की जलीय खेती के ही उदाहरण है.

क्या है स्मार्ट हाइड्रोपोनिक्स तकनीक

स्मार्ट हाइड्रोपोनिक्स, खेती की वो आधुनिक तकनीक है जिसमें वनस्पति वृद्धि और उपज का नियंत्रण जल और उसके पोषण स्तर के जरिये होता है. मृदा रहित खेती का अविष्कार जूलियस वों सचस और विलियम क्नॉप (1859-1875) ने किया. इसके बाद पहली बार वर्ष 1929 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सस्यवैज्ञानिक डॉ. विलियम एफ.गेरिक ने मृदा रहित माध्यम पर टमाटर की व्यवसायिक खेती की और इस तकनीक का नाम ‘हाइड्रोपोनिक’ रखा. हाइड्रोपोनिक्स शब्द की उत्पत्ति दो ग्रीक शब्दों हाइड्रो तथा पोनोस से मिलकर हुई है. हाइड्रो का अर्थ है  पानी, जबकि पोनोस का अर्थ है कार्य. हाइड्रोपोनिक्स में पौधों और चारे वाली फसलों को नियंत्रित परिस्थितयों में 15 से 30 डिग्री सेल्सियस ताप पर लगभग 80 से 85 प्रतिशत आर्द्रता में उगाया जाता है. सामान्यतया पेड़-पौधे अपने आवश्यक पोषक तत्व जमीन से ग्रहण करते है, लेकिन हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराने के लिए पौधों में एक विशेष प्रकार का घोल डाला जाता है. इस घोल में पौधों की बढ़वार के लिए जरुरी खनिज लवण मिलाये जाते है. पानी, कंकडों या बालू आदि में उगाये जाने वाले पौधों में इस घोल की माह में एक-दो बार केवल कुछ बूंदे ही डाली जाती है. इस घोल में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, मैग्नेशियम, कैल्शियम, सल्फर, जिंक और आयरन आदि तत्वों को एक विशेष अनुपात में मिलाया जाता है, जिससे पौधों को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध होते रहें.

हाइड्रोपोनिक्स अर्थात जलीय कृषि में जल को अच्छी प्रकार से उन सभी पोषक तत्वों को समृद्ध किया जाता है जो पौधों की वृद्धि और बेहतर उपज के लिए जिम्मेदार होते है. जल के पीएच को संतुलित रखा जाता है जिससे पौधों की अच्छी वृद्धि होती है. कृषि की इस पद्धति में पौधे जल और सूरज की रौशनी से पोषण प्राप्त कर उत्पादन देते है. हाइड्रोपोनिक्स कृषि के लिए यह सुनिश्चित करना होता है कि मिट्टी की बुनियादी क्रिया को जल के साथ बदल दिया जाए. आमतौर पर हाइड्रोपोनिक्स प्रणाली में बालू या बजरी या प्लास्टिक का इस्तेमाल पौधों की जड़ों को समर्थन देने के लिए किया जाता है. हाइड्रोपोनिक्स में पौधों को संतुलित पोषण प्रदान करने के लिए जल में उर्वरक मिलाया जाता है. इजराइल, जापान, चीन और अमेरिका आदि देशों के बाद अब भारत में भी यह तकनीक विस्तार ले रही है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से चारा फसलों के अलावा स्ट्राबेरी, खीरा, टमाटर,पलक, गोभी, शिमला मिर्च जैसी सब्जिय उगाई जाने लगी है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पौधों को पाइप के माध्यम से उगाया जाता है. पौधों के आकर एवं किस्म के अनुसार पाइप का चयन किया जाता है तथा एक निश्चित दूरी पर इनमे गोल छेद बनाकर जालीनुमा कप में पौधों को रखा जाता है तथा सभी पाइप को एक-दूसरे से नलियों के माध्यम से जोड़ दिया जाता है जिनमें पानी को बहाया जाता है. इसमें पौधों के विकास के लिए जरुरी पोषक तत्वों का घोल पानी में मिला दिया जाता है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक की विशेषता यह है की इसमें मिट्टी के बिना परु पानी के सीमित इस्तेमाल से चारा फसलें, सब्जियां, फल-फूल पैदा किये जाते है. इसमें n तो अनावश्यक खरपतवार उगते है और न in पौधों पर कीड़े लगने का भय रहता है. यह तकनीक पत्ते वाली सब्जियों के लिए काफी उपयुक्त है. वर्तमान में खेतों में प्रति एकड़ 25-30 हजार स्ट्राबेरी के पौधे लगये जाते है. इस तकनीक का उपयोग कर प्रति एकड़ 60 से 120 हजार पौधे लगाये जा सकते है तथा उत्पादन को कई गुना बढाया जा सकता है.

लाभकारी है हाइड्रोपोनिक्स तकनीक

परम्परागत तकनीक से पौधे उगाने की अपेक्षा हाइड्रोपोनिक्स तकनीक के अनेक लाभ है.

1.   इस तकनीक से विपरीत जलवायु परिस्थितियों में उन क्षेत्रों में भी पौधे उगाये जा सकते है, जहां भूमि की कमीं है अथवा वहां की मिट्टी उपजाऊ नहीं है.

2.   इस तकनीक से बेहद कम खर्च में पौधे और फसलें उगाई जा सकती है. एक अनुमान के अनुसार 5 से 8 इन्च ऊंचाई वाले पौधे के लिए प्रति वर्ष एक रुपये से भी कम खर्च आता है. इसकी सहायता से आप कहीं भी पौधे उग सकते है.

3.   परंपरागत बागवानी की अपेक्षा हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से बागवानी करने पर पानी का 20 प्रतिशत भाग ही पर्याप्त होता है.

4.   हाइड्रोपोनिक्स तकनीक का प्रयोग बड़े पैमाने पर अपने घरों एवं बड़ी इमारतों में सब्जियां उगाने में किया जा सकता है.

5.   चूंकि इस विधि से पैदा किये गए पौधों और फसलों का मिट्टी और भूमि से कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें कीट-रोग का प्रकोप कम होने से कीट रोग नाशको का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता है. अतः यह एक पर्यावरण हितैषी तकनीक है.   

6.   हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पौधों में पोषक तत्वों का विशेष घोल डाला जाता है, इसलिए इसमें उर्वरकों एवं अन्य रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती है.

7.   इस विधि से उगाई गई फसलें और पौधे जल्दी तैयार हो जाते है. इस विधि के अंतर्गत क्षैतिज के साथ-साथ उर्ध्वाधर स्थान का भी उपयोग कर सकते हैं।  

8.   जमीन में उगाये जाने वाले पौधों की अपेक्षा इस तकनीक में बहुत कम स्थान की आवश्यकता होती है.

9.   इस तकनीक में पारम्परिक खेती के मुकाबले कम समय में फसल तैयार हो जाती है और इस प्रकार की खेती में श्रम की आवश्यकता भी कम होती है.

10. इस नई तकनीक के माध्यम से शुष्क क्षेत्रों और शहरों में वर्ष पर्यंत हरा चारा पैदा किया जा सकता है, जिससे अधिक दुग्ध उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

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रविवार, 26 जुलाई 2020

खेतों की मेड़ों पर वर्षभर करें पशुधन के लिए हरा चारा उत्पादन

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

जनसँख्या दबाव, शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण की वजह से दिन प्रति दिन कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है, जिससे एक ओर खाद्यान्न उत्पादन में कठिनाई आ रही है, वहीं दूसरी ओर पशुधन के लिए आवश्यक पौष्टिक हरा चारा भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है यदि चारा उगाने के लिए अधिक भूमि का प्रयोग किया जाता है, तो इससे खाद्यान्न उत्पादन में नकारात्मक असर पड़ सकता है इस समस्या से पूर्ण निजात पाने के लिए यह जरुरी हो जाता है, कि खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित किये बिना पशुधन के लिए आवश्यक हरा चारा उत्पादित किया जाये.इसके लिए खेतों के चारों तरफ खाली पड़ी मेंड़ों पर हरा चारा का वर्ष पर्यन्त उत्पादन लिया जा सकता है एक अनुमान के अनुसार भारत में मेंड़ों का कुल क्षेत्रफल 383.8 हजार हेक्टेयर है जिससे हम प्रति वर्ष  लगभग 43,542 टन हरा चारा प्राप्त कर सकते है छत्तीसगढ़ में खेतों की मेड़ों के अंतर्गत लगभग 10 प्रतिशत भूमि आती है जिसका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है।

खेत की मेंड़ पर नेपियर घास फोटो साभार गूगल 
मेंड़ पर चारा उगाने की तकनीक से जहां खाली पड़ी मेंड़ों का उपयोग हो जाता है वहीं दूसरी तरफ अन्य फायदे भीं होते है जैसे-चारा उत्पादन लागत में कमीं, पारंपरिक चारा उत्पादन की तुलना में प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक चारा उत्पादन और अधिक ऊंचाई वाली फसलें जैसे संकर नेपियर बाजरा, गिनी घास आदि के जडित कल्ले मेड़ों पर लगाने से ये बाड़ (घेरा) का भी काम करती है इसके अलावा मेंड़ों पर खरपतवार पनपने की समस्या भी समाप्त हो जाती है इस प्रकार मेंड़ों पर उत्पादित हरे चारे से 5 लाख से अधिक पशुओं को वर्ष भर हरा चारा उपलब्ध हो सकता है संकर नेपियर घास एवं गिनी घास मेंड़ पर उगाने के लिए उपयुक्त पाई गई है. जलमग्न भूमि की मेंड़ों पर पैरा घास आसानी से उगाई जा सकती है उद्यानों या बागानों में गिनी घास अच्छा उत्पादन देती है पेड़ों की छाया में भी इस घास से हरा चारा प्राप्त किया जा सकता हैबारानी दशाओं के लिए अंजन घास अथवा सेवन घास उपयुक्त रहती है सिंचित क्षेत्रों में किसान चाहे तो खेतों की मेड़ों की बेकार पड़ी भूमि पर लौकी, तोरई, करेला, सेम (मंडप बनाकर) तथा मंडप के नीचे  मटर, फूल गोभी, पत्ता गोभी, स्ट्राबेरी आदि फसलों की मल्टीलेयर खेती करके अतिरिक्त आमदनी अर्जित कर सकते है

मेंड़ों पर हरा चारा रोपण तकनीक

मेंड़ों पर चारा रोपण के लिए बहुवर्षीय चारा फसलों के जीवित कल्लों की आवश्यकता होती है आमतौर पर इन कल्लों की रोपाई 50-100 सेमी. की दूरी पर वर्षा के मौसम में की जाती है इसकी रोपी जडित कल्ले या तनों की कटिंग  से की जाती है तने की कटिंग में कम से कम 3-4 आँखें (बड) होना चाहिए. रोपाई का उपयुक्त समय फरवरी-मार्च तथा जुलाई-अगस्त होता है रोपाई के लिए कटिंग को जमीन में कुदाली की सहायता से 450 कों पर 4 से 5 सेमि. गहरा रोपकर आस-पास की मिट्टी अच्छे से दबा देते है तने की कटिंग लगाते समय कम से कम दो कलियाँ (बड) भूमि के अन्दर दबानी चाहिए कल्लों या कटिंग की रोपाई के पश्चात वर्षा न होने की स्थिति में हल्का पानी देना चाहिए जिससे वह मिट्टी में अच्छी प्रकार से पकड़ बना लें. रोपाई के कुछ दिनों बाद जीवित कल्लों से छोटी-छोटी पत्तियां निकलने लगती है. रोपाई के 30-35 दिनों के बाद जड़ों से कल्ले फूटने लगते है प्रयोगों में देखा गया है की 4 माह में प्रत्येक कल्ले से 12-18 कल्ले विकसित हो जाते है रोपाई के 60-68 दिनों बाद प्रथम कटाई में प्रत्येक घेर से 2-3 किग्रा (2-4 क्विंटल प्रति 100 मीटर मेंड़) हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है.संकर नेपियर की उपयुक्त किस्मों में आई.जी.एफ.आर.आई.हाइब्रिड नेपियर न.6,7 एवं 10 उपयुक्त पाई गई है जिनसे 70-100 क्विंटल हरा चारा प्राप्त होता है अन्य किस्मों में एन.बी.-21 से 100-160 क्विंटल, यसवंत से 190-250 क्विंटल तथा सी.ओ.-3 से 400-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है   

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