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मंगलवार, 1 सितंबर 2020

खरीफ फसलों में खरपतवार नियंत्रण हेतु प्रभावी शाकनाशी

 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,

कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

कृषि के प्रारंभ  काल से ही फसलों के साथ कुछ अनचाहे पौधे उगते आये है जो फसलोत्पादन को कम करते है तथा कृषि कार्यो में बाधा उत्पन्न करते है. बिना बोये खेतों में उगने वाले अवांक्षित पौधों को खरपतवार कहते है. खरपतवार प्रकोप और परिस्थितयों के आधार पर अनियंत्रित खरपतवारों से फसलों की पैदावार में 5 से 85 प्रतिशत तक हानि हो सकती है. दरअसल खरपतवार फसलों के लिए भूमि में उपलब्ध आवश्यक पोषक तत्व एवं नमीं का बड़ा हिस्सा अवशोषित कर लेते है तथा साथ ही साथ फसल के लिए आवश्यक प्रकाश एवं स्थान से भी वंचित कर देते है जिससे पौधों का विकास, उत्पादन क्षमता और गुणवत्ता घट जाती है. खरपतवार प्रबंधन में हमेशा यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि फसल को हमेशा न तो खरपतवार मुक्त रखा जा सकता है और न ही ऐसा करना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होता है. अधिकतम उपज के लिए फसल-खरपतवार प्रतिस्पर्धा की क्रांतिक अवधि अर्थात नाजुक समय में फसल को खरपतवारों से मुक्त रखा जाना आवश्यक है. खरपतवार-फसल प्रतिस्पर्धा की क्रांतिक अवस्था से तात्पर्य फसल जीवन चक्र के उस समय से है जब खरपतवार नियंत्रण से अधिक शुद्ध आर्थिक लाभ प्राप्त होता हो तथा खरपतवार नियंत्रण न करने पर उपज एवं लाभ में सबसे अधिक कमीं हो. अधिकाँश फसलों में यह समयावधि बुवाई के लगभग 30-40 दिन तक रहती है. इस समय  फसल को खरपतवार रहित रखना नितान्त आवश्यक है. खरीफ की प्रमुख फसलों में खरपतवार-फसल प्रतियोगिता का क्रांतिक समय अग्र सारणी में दिया गया है.

सारणी: खरीफ फसलों में फसल-खरपतवार प्रतियोगिता का क्रांतिक समय

फसल

क्रांतिक अवधि (बुवाई के बाद दिन)

फसल

क्रांतिक अवधि (बुवाई के बाद दिन)

धान (सीधी बुवाई)

15-45

अरहर

15-60

धान (रोपित)

30-45

मूँग

15-45

मक्का

15-45

उड़द

15-30

ज्वार

15-45

लोबिया

15-30

बाजरा

30-45

सोयाबीन

20-45

कपास

15-60

सोयाबीन

20-45

  खरपतवारों का  नियंत्रण भौतिक व यांत्रिक विधियों से किया जा सकता है परन्तु इन विधियों में समय,श्रम और पूँजी अधिक लगती है जिससे खेती की लागत बढ़ जाती है.  शाकनाशी  रसायनों द्वारा  खरपतवारों को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है. इससे प्रति हेक्टेयर लागत कम आती है तथा समय की बचत होती है. लेकिन इन रसायनों का प्रयोग करते समय सावधानी बरतनी पड़ती है. खरपतवार नियंत्रण में शाकनाशी रसायनों के उपयोग में एक और विशेष लाभ है. हाथ से निदाई या डोरा (वीडर) चलाकर निदाई, फसल की कुछ बढ़वार हो जाने पर की जाती है और इन सस्य क्रियाओं में खरपतवार जड़ मूल से समाप्त होने की बजाय, ऊपर से टूट जाते है, जो बाद में फिर वृद्धि करने लगते है. शाकनाशी रसायनों में यह स्थिति नहीं बनती क्योंकि यह फसल बोने के पूर्व या बुवाई के बाद उपयोग किये जाते है जिससे खरपतवार अंकुरण अवस्था में हो समाप्त हो जाते है अथवा बाद में शाकनाशी के प्रभाव से पूर्णतया नष्ट हो जाते है. खेती में लागत कम करने के लिए रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण एक कारगर उपाय है, इसमें समय, श्रम और पैसे की बचत होती  है.

खरीफ फसलों के प्रमुख खरपतवार

खरीफ के मौसम में अनुकूल वातावरण होने के कारण खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है. खरीफ मौसम में घास कुल एवं मोथा कुल के सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के अलावा द्विबीजपत्री चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप होता है. विभिन्न खरपतवारों के नाम एवं फोटों अग्र प्रस्तुत है जिन्हें पहचान कर उनका  नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है. 

1.संकरी पत्ती वाले खरपतवार

खरीफ फसलों के सकरी पत्ती वाले एक बीज पत्रिय खरपतवार  
घास एवं मोथा कुल के सकरी पत्ती वाले खरपतवार 

 
खरीफ फसलों के सकरी पत्ती वाले एक बीज पत्रिय खरपतवार


2. खरीफ फसलों के चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार 
खरीफ के चौड़ी पत्ती वाले द्विदलीय खरपतवार 

खरीफ के चौड़ी पत्ती वाले द्विदलीय खरपतवार

खरीफ के चौड़ी पत्ती वाले द्विदलीय खरपतवार

खरीफ के चौड़ी पत्ती वाले द्विदलीय खरपतवार


खरीफ के चौड़ी पत्ती वाले द्विदलीय खरपतवार



खरीफ के चौड़ी पत्ती वाले द्विदलीय खरपतवार

खरीफ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार 

खरीफ फसलों में खरपतवारों के नियंत्रण के लिए शाकनाशी रसायनों का प्रयोग निम्नानुसार किया जाता है :

1.बुवाई से पहले प्रयोग (Pre-plant Application): सक्रिय शाकनाशियों का बुवाई से 2-10 दिन पहले मिट्टी में प्रयोग करने को बुवाई पूर्व प्रयोग कहते है. इस प्रकार का प्रयोग उस समय किया जाता है जब शाकनाशी रसायन फसल के पौधों के लिए घातक हो. वाष्पशील (volatile) शाकनाशी जैसे फ्ल्युक्लोरालिन, ट्राईफ्ल्युरालिन का वाष्पीकरण रोकने के लिए इन्हें मिट्टी में मिला दिया जाता है.फसल लगने के बाद इन्हें मिट्टी में सुचारू रूप से नहीं मिलाया जा सकता है, इसलिए बोने के पहले इन्हें मिट्टी में मिलाया जाता है. सोयाबीन में  फ्ल्युक्लोरालिन व  ट्राईफ्ल्युरालिन का अंकुरण के समय प्रयोग करने की अपेक्षा बुवाई से पहले प्रयोग करना अधिक प्रभावी होता है.  बुवाई से पहले इन शाकनाशियो को मिट्टी में अच्छी तरह मिलाया जा सकता है और इस समय इनकी अधिक मात्रा का भी प्रयोग सुरक्षित रहता है.

2.अंकुरण के पहले प्रयोग (Pre-emergence Application): फसल की बुवाई के बाद एवं फसल व खरपतवार के अंकुरण से पूर्व शाकनाशी के प्रयोग को अंकुरण पूर्व प्रयोग कहते है. शाकनाशियों का प्रयोग बुवाई से 1-4 दिन बाद परन्तु अंकुरण से पहले  किया जाता है. इसमें केवल वैशेषिक शाकनाशियों का प्रयोग किया जाता है. इस समय अधिक घुलनशील रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकि इनके बह जाने का अंदेशा होता है. वैशेषिक शाकनाशी के प्रयोग से खरपतवार के अंकुरित होने वाले बीज मर जाते है और फसल पर इनका दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है.उदाहरण के लिए एट्राजीन,एलाक्लोर,पेंडीमेथालिन,ऑक्सीफ्लोरफेन आदि का प्रयोग अंकुरण के पहले किया जाता है.

3.अंकुरण के बाद प्रयोग (Post-emergence Application): फसल के अंकुरण के बाद शाकनाशी प्रयोग करने को अंकुरण के बाद प्रयोग कहते है. बुवाई के बाद प्रयोग तभी किया जाता है जब फसल के पौधे इतने बड़े हो जाय कि वे शाकनाशी दवा सहन कर सकें. गेंहू में 2,4-डी सोडियम साल्ट का प्रयोग बुवाई के 28-35 दिन बाद करने पर चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट हो जाते है.

सारणी : विभिन्न खरीफ फसलों में शाकनाशी रसायनों का प्रयोग ऐसे करें 

रसायन

व्यवसायिक नाम

फसल

सक्रिय तत्व दर (ग्राम/हे.)

व्यवसायिक मात्रा (ग्राम/हे.)

छिडकाव का समय

ट्राईफ्लूरालिन

टेफ्लान

दलहन व तिलहन

1000

2083

बीज बुवाई से पूर्व

खरपतवार अंकुरण  से पूर्व प्रयोग होने वाले खरपतवारनाशी

ब्युटाक्लोर 50 ईसी

मचैटी

धान रोपित,मूंगफली

1500

3000

रोपाई/बुवाई के 3 दिन के अन्दर

प्रेटिलाक्लोर 50 ईसी

रिफिट/सोफिट

धान सीधी बुवाई/रोपित

750-1000

1500-2000

रोपाई/बुवाई के 3 दिन के अन्दर

ऑक्जाडॉयरजिल 80 डब्ल्यू पी

टॉप स्टार

धान रोपित

100

125

रोपाई/बुवाई के 3 दिन के अन्दर

एनिलोफ़ॉस 30 ईसी

एरोजिन/एनिलोगार्ड

धान रोपित

400

1333

रोपाई के 3-8 दिन के अन्दर

पेंडीमेथलिन 30 ईसी

स्टॉम्प

धान सीधी बुवाई, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूंग, उर्द, मूंगफली, अरहर, तिल, कपास

1000

3333

बुवाई के तुरंत बाद या 2-3 दिन के अन्दर उचित नमीं की अवस्था में

एलाक्लोर 50 ईसी

लासो

मूंग,उर्द,अरहर, तिल,सूरजमुखी

1000-2500

2000-5000

-तदैव-

एट्राजीन 50 डब्ल्यू पी

एट्राटाफ

मक्का,ज्वार,बाजरा

500-1000

1000-2000

-तदैव-

मैट्रीब्युजिन 70 डब्ल्यू पी

सैंकोर

मूंग,उर्द,अरहर,सोयाबीन

250-750

357-1070

-तदैव-

मेटालाक्लोर 50 ईसी

डुअल

मूंग,उर्द,अरहर

1500

3000

-तदैव-

ऑक्सीडायजोन 25  ईसी

रॉनस्टार

मूंगफली,तिल

750

3000

-तदैव-

ऑक्सीफ्लोरोफिन 23.5 ईसी

गोल

सूर्यमुखी,मूंगफली

100-200

425-850

बुवाई के 2-3 दिन के अन्दर

पेंडीमेथिलीन + इमेजाथापर 32 ईसी

वेल्लर

सोयाबीन

1000

3125

बुवाई के तुरन बाद उचित नमी पर

खरपतवार अंकुरण के बाद प्रयोग होने वाले खरपतवारनाशी

इमेजाथापर 10 ईसी

परसूट

सोयाबीन,मूंगफली

100-200

1000-2000

बुवाई के 10-15 दिन बाद

2,4-डी (इथाइल ईस्टर) 34 ईसी

चैंपियन

धान

500

1470

रोपाई के 30-35 दिन बाद

फ्यूजीफॉप 12.5 ईसी

फ्लूजीलेड

सोयाबीन,मूंगफली

125-250

1000-2000

रोपाई के 30-35 दिन बाद

साईंहैलोफॉप 10 ईसी

क्लिंचर

धान की सीधी बुवाई

80-100

800-1000

-तदैव-

बिस्पाइरीबैक सोडियम 10 एस सी

नोमिनी गोल्ड

सीधी बुवाई एवं रोपित धान

25

250

बुवाई के 15-20 दिन एवं रोपाई के 20-25 दिन बाद

फिनाक्साप्रॉप पी.इथाइल 9.3 ईसी

व्हिप सुपर

धान की सीधी बुवाई,सोयाबीन

60-100

645-1075

बुवाई के 20-25 दिन बाद

प्रोपक्यूजाफॉप 10 ईसी

एजिल

सोयाबीन

100

1000

5-7 पत्ती अवस्था

हेलोक्सीफॉप 10 ईसी

फोकस

सोयाबीन

125-250

1250-2500

बुवाई के 20 दिन बाद

मेटसल्फ्यूरान मिथाइल 20 डब्ल्यू पी

आलमिक्स

सीधी बुवाई एवं रोपित धान

4.0

20

रोपाई एवं बुवाई के 25-30 दिन बाद

2,4-डी डाईमिथाइल एमाइन साल्ट 58 डब्ल्यू एस सी

जूरा

मक्क

500

862

2-4 पत्ती अवस्था

2,4-डी डाईमिथाइल एमाइन साल्ट 80  डब्ल्यू पी

वीड कट

मक्का

1000

1250

2-4 पत्ती अवस्था

इथोक्सि सल्फ्यूरॉन 15 डब्ल्यू जी  

सनराइज

धान की सीधी बुवाई व रोपित धान

12.5-25

83-167

रोपाई एवं बुवाई के 25-30 दिन बाद

आइसोप्रोट्युरान 75 डब्ल्यू पी

आइसोगार्ड

गेंहू

500-750

667-1000

बुवाई के 10-15 दिन बाद

क्युजेलाफॉप पी इथाइल 5 ईसी

टरगा सुपर

मूंगफली, सोयाबीन

40-50

800-1000

बुवाई के 15-20 दिन बाद

क्युजेलाफॉप पी इथाइल 4.4  ईसी

पटेरा

सोयाबीन

44

1000

-तदैव-

क्लोरीम्यूरोन इथाइल 25  डब्ल्यू पी

क्लोबेन

सोयाबीन

9.0

36

-तदैव-

इमेजाथापर 35 % +इमेजामॉस 35 % डब्ल्यू पी

ओडीसी

सोयाबीन

70

100

-तदैव-

शाकनाशियों के छिडकाव के समय विशेष सावधानियां

  •  शाकनाशी की संस्तुत मात्रा का ही प्रयोग करना चाहिए. कम मात्रा में प्रयोग से खरपतवारों पर कम प्रभावी तथा अधिक मात्रा होने पर फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है.
  •  फसलों में प्रयोग हेतु संस्तुत वर्णात्मक शाकनाशियों का ही प्रयोग करना चाहिए.
  •  बुवाई से पूर्व तथा खरपतवार बीज अंकुरण से पहले प्रयोग किये जाने वाले शाकनाशी की क्रियाशीलता के लिए पर्याप्त नमीं का होना अति आवश्यक होता है.
  •  छिडकाव करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि शाकनाशीय घोल का समान रूप प्रक्षेत्र में वितरण हो जिससे सम्पूर्ण प्रक्षेत्र में खरपतवारों पर नियंत्रण हो सकें.
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मंगलवार, 4 अगस्त 2020

लाभप्रद खेती के लिए समझदारी से खरपतवार प्रबंधन

                                                        डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

पौधे मानव जाति के लिए बहुमूल्य निधि है इनके बिना हम पृथ्वी पर जीवित नहीं रह सकते है, परन्तु सभी पौधों को अबाध गति से उगने एवं बढ़ने नहीं दिया जा सकता विश्व में तीन लाख से अधिक पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती है, जिसमें से केवल तीन हजार जातियाँ आर्थिक महत्त्व की है। जो पौधे मानव की आवश्यकताओं की पूर्ती करते है, उन्हें फसल कहते है और जो पौधे फसलों से प्रतियोगिता करते है, उन्हें खरपतवार कहा जाता है । जब आर्थिक महत्त्व की जाती (फसल) उगाई जाती है, तो उसके साथ बहुत से अन्य पौधे उग जाते है जो फसल के साथ प्रतिस्पर्धा करते है तथा अवांछनीय होते हैइन्ही अवांछनीय पौधों को खरपतवार कहते है। ऐसा पौधा या वनस्पति जो अतिशय हानिप्रद, अनुपयोगी, अवांछनीय या विषैला हो, खरपतवार की श्रेणी में आता है।फसलों में खरपतवारों का प्रकोप होने से उपज में 20 से 65 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है। खरपतवारों के प्रकोप के कारण होने वाले नुकसान की सीमा कई बातों पर निर्भर करती है। फसलों में किसी भी अवस्था पर खरपतवार नियंत्रण करना समान रूप से आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक फसल के लिए खरपतवारों की उपस्थिति के कारण सर्वाधिक हानि होने की अवस्था या अवधि होती है। इस अवधि या अवस्था को क्रांतिक अवस्था कहते है। अधिकांश खाद्यान्न फसलों में यह अवस्था 30-45 दिन की होती है अर्थात बुवाई से लेकर 45 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त होना जरुरी है उचित समय पर सही ढंग से समझदारी से खरपतवारों का नियंत्रण करके फसल की उपज और गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है।
खरपतवार नियंत्रण की यांत्रिक विधि फोटो साभार गूगल 

खरपतवारों से होने वाली हानियाँ
1.खरपतवारों से फसलों की उपज में कमीं:खरपतवारों की उपस्थिति से फसलों की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यदि इनका सही समय पर समझदारी से नियंत्रण न किया जाए तो ये फसलों की उपज में 20 से 65 प्रतिशत तक कमीं कर सकते है
2.फसल क्रियाओं व भण्डारण में बाधा: खरपतवार, खेतों में की जाने वाली विभिन्न कृषि क्रियाओं जैसे जुताई, सिंचाई, उर्वरकों के प्रयोग, कटाई व मड़ाई में बाधा डालते है बहुत से खरपतवारों के बीज फसलों के बीजों के साथ मिल जाते है, जिनको साफ़ करने में खाद्यान्न बीज की काफी मात्रा भी साथ में व्यर्थ हो जाती है
3.फसल की गुणवत्ता में कमीं: खरपतवार,फसलों के उत्पाद की गुणवत्ता को कम कर देते है जिससे उत्पादकों को बाजार में कम मूल्य मिलता है बहुत से खरपतवार जैसे जंगली प्याज के कन्द फसलों में दुर्गन्ध तथा सत्यानाशी के बीज सरसों के बीज में मिल जाने से ड्राप्सी नामक घातक बिमारी फैलाते है
4.जानवरों के उत्पाद की गुणवत्ता में ह्रास: बहुत से खरपतवारों जैसे जंगली प्याज के बीज चारे की फसलों में दुर्गन्ध पैदा करते है तथा पार्थेनियम पशुओं के दूध व मांस की गुणवत्ता को प्रभावित करती है
5.जानवरों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव: चारागाहों व चारे की फसलों के साथ मिलकर कुछ खरपतवार जैसे पार्थेनियम (कांग्रेस घास) तथा बर्रू घास, कल्ले निकलने की अवस्था में जानवरों द्वारा अधिक खा लेने पर जहरीले साबित होते है
6.मनुष्य के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव: बहुत से खरपतवार मनुष्यों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालते है कुछ खरपतवारों से मनुष्य को एलर्जी व अन्य बीमारियाँ हो जाती है विश्व में लाखों व्यक्तियों को श्वांस व त्वचा रोग पार्थेनियम पौधों के परागकणों व पौधों के सम्पर्क में आने के कारण हो रहे है काँटेदार खरपतवारों से खेत में काम करने वाले व्यक्तियों की त्वचा कट-फट जाती है
7.नदी,तालाबों में प्रदूषण: खरपतवार, नदी,नाला, बाँध,झीलों,तालाबों में प्रदूषण फैलाते है जिससे पानी का रंग,स्वाद व गंध बदल जाता है तथा नदी में तैरने व नाव खेने में दिक्कत आती है. खरपतवार,नहरों में जल बहाव की गति को 20-30 प्रतिशत तक कम कर देते है तथा सिंचाई व जल निकास के लिए बनाई गई नालियों को अवरुद्ध कर देते है.इससे नालियों के आस-पास जल भराव की समस्या उत्पन्न हो जाती है पानी में पाए जाने वाले खर्प्तार मछली पालन के लिए भी अभिशाप है
8.प्राकृतिक सौन्दर्य का ह्रास:हमारे रहने व कार्य करने के स्थान पर खरपतवार आस-पास के वातावरण के सौन्दर्य पर दुष्प्रभाव डालते है
खरपतवारों द्वारा फसलों की उपज में कमीं के कारण
1.आवश्यक पोषक तत्वों के लिए स्पर्धा: खरपतवार, फसलों में दिये गये आवश्यक पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करते है तथा कुछ खरपतवारों की वृद्धि दर अधिक होने के कारण फसलों की तुलना में अधिक पोषक तत्व ग्रहण कर लेते है, जिससे फसलों के लिए पोषक तत्वों की कमीं हो जाती है
2.सौर ऊर्जा के लिए प्रतिस्पर्धा:सामान्यतः खरपतवारों की वृद्धि फसलों की तुलना में अधिक होती है तथा ये फसलों पर छाया करते है, जिससे फसलों के पौधों को समुचित मात्रा में सूरज का प्रकाश नहीं मिल पाता जिसके फलस्वरूप प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है
3.जल के लिए प्रतिस्पर्धा: खरपतवार, फसलों के साथ भूमि में उपलब्ध नमीं के लिए प्रतिस्पर्धा करते है तथा फसलों की अपेक्षा ये अधिक जल का वाष्पोत्सर्जन करते है, जिससे फसलों के लिए भू-जल की उपलब्धतता कम हो जाती है
4.स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा: खरपतवार, फसलों के साथ भूमि के अन्दर व बाहर स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते है, जिससे पौधों की जड़ों व शाखाओं को बढ़ने के लिए कम स्थान मिल पाती है
5.एलिलोपैथिक प्रभाव: पर्याप्त पोषक तत्व, प्रकाश व पानी होने के बावजूद भी फसलों के पौधों की बढ़वार खरपतवारों की मौजूदगी में कम हो जाती है. पौधों के बढ़वार में कमीं, साथ में उग रहे खरपतवारों की जड़ों द्वारा उत्सर्जित होने वाले घातक रसायनों या पत्तियों द्वारा वाष्पीय तत्व या अवशेष के सड़ने गलने के कारण उत्पन्न होते है उदाहरण के लिए ज्वार की पौधों की जड़ों द्वारा प्रूसिक अम्ल उत्सर्जित होता है जो ज्वार की फसल के बाद उगाई जाने वाली गेंहूँ की फसल की वृद्धि पर कुप्रभाव डालता है
6.हानिकारक कीट व रोगों का अधिक प्रकोप: फसलों की पैदावार कम करने के साथ-साथ खरपतवार, बहुत से कीड़े व रोगाणुओं के लिए विपरीत मौसम में मेजवान का कार्य करते है, जो फसल उगने पर आक्रमण करते है
 खरपतवारों को वर्गीकरण
विश्व में खरपतवारों की 30000  से अधिक प्रजातियॉ पाई जाती है जिनमें  लगभग 18000  किस्म के पौधों से अधिक नुकसान होता हैं । सभी प्रकार के खरपतवारों के लिए अलग प्रकार से नियंत्रण की आवश्यकता होती है तथा इनके बढ़ने के तरीके और इसे होने वाली हानिया भी अलग प्रकार की होती है । खरपतवारों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है ।
जीवन चक्र के आधार पर वर्गीकरण: जीवन चक्र के आधार पर खरपतवारों को तीन वर्गा में विभक्त किया जाता है ।
1.एकवर्षीय खरपतवार :ये खरपतवार अपना जीवन चक्र एक वर्ष या एक ऋतु में पूर्ण कर लेते है। वार्षिक खरपतवार के पौधो को उगने के समय के अनुसार चार  वर्गो में विभक्त करते            है।
वर्षा ऋतु के खरपतवार: ये खरपतवार जून-जुलाई में उगते है तथा सितम्बर अक्टूबर तक अपना जीवन चक्र पूर्ण कर लेते हैं जैसे मकोय, जंगली चौलाई, लहसुआ.हजारदाना आदि ।
शरद ऋतु के खरपतवार: ये पौधे रबी की फसलो के साथ सितम्बर से नवम्बर तक उगकर फरवरी-मार्च तक जीवन चक्र पूर्ण कर लेते है । इसमे जंगली जई, बथुआ, कृष्ण नील, वनप्याजी, गेहू का मामा आदि ।
ग्रीष्म ऋतु के खरपतवार-इस वर्ग में ऐसे खरपतवार आते है जो गर्म और शुष्क मौसम में फरवरी से जून तक अपना जीवन-चक्र पूर्ण कर लेते है । इसमें नुनियॉं, पत्थर चट्टा आदि प्रजातियॉ आती है।
बहु-मौसमी खरपतावर: इस वर्ग में वे खरपतवार आते है । जो वर्ष भर में किसी समय उगकर अपना जीवन चक्र पूर्ण कर सकते है । इनमें किसी खास मौसम के लिए अनुकूलन नहीं होता है।       ये पौधे वर्ष में एक से अधिक बार अपना जीवन चक्र पूर्ण कर सकते है जैसे संवई घास,हजारादाना आदि ।
2.द्विवर्षीय खरपतवार: इस वर्ग के खरपतवार दो वर्षो में अपना जीवन चक्र पूर्ण करते है । इन खरपतवारों में प्रथम वर्ष में वानस्पतिक वृद्धि होती है तथा दूसरे वर्ष में फूल फल आते          है  जैसे जंगली गाजर ।
3.बहु वर्षीय खरपतवार :इस वर्ग के खरपतवार एक बार उगने के बाद कई वर्षो तक जीवित रहते है । इनकी वृद्धि तथा प्रवर्धन इसके वानस्पतिक भागों जैसे जड़ों प्रकन्द, कंद,   शल्ककंद से होता है । इस वर्ग के कुछ पौधे बीजों द्वारा भी बढ़ते है. बहु वर्षीय खरपतवारों में दूब घास, मौथा,कांस आदि आते है.
पौधा की बनावट के आधार पर वर्गीकरण    
1.चौड़ी पत्ती वाले या द्विबीज पत्री खरपतवार: इसमें बथुआ, हिरनखुरी, मटरी आदि    सम्मिलित है ।
2.घासे या एकबीज पत्री खरपतवार: इसमें दूबघास, जंगली जई आदि आते है ।
3.सेजिस: इस वर्ग में मोथ, नागरमोथा इत्यादि पौधे सम्मिलित हैं ।
खरपतवार प्रबन्ध की विधियॉं
खरपतवार प्रबन्ध के अंतर्गत खरपतवारों का निरोधन,उन्मूलन  तथा नियंत्रण सम्मिलित है । खरपतवार नियंत्रण से तात्पर्य खरपतवार खरपतवारों को इस प्रकार नियंत्रण करने से है जिससे कृषि क्रियाओं सुगमता पूर्वक सम्पादित की जा सकें तथा लाभदायक फसलोंत्पादन किया जा सके । इस प्रकार मात्र खरपतवारों नियंत्रित करना पर्याप्त नहीं हैं । कुछ हानिकारक, कष्टप्रद, विषैले, ऐसे खरपतवार होते है, जिनका उन्मूलन करना आवश्यक होता है ताकि वे पुनः न उग पाए। खरपतवारों की रोकथाम अथवा निरोध से अभिप्राय है खरपतवारों को खेत में उगने ही न देना । इसके अर्न्तगत वे समस्त विधियॉं आती है जिनके माध्यम से खरपतवारों का नए स्थानों पर प्रवेश रोका जाता है । ऐसे खरपतवार जो फसलों के बीज व रोपण सामग्री अथवा फार्म यंत्रों के माध्यम से फैलते है उनकी रोकथाम के लिए निम्न विधियॉं प्रयोग में लाई जाती है ।
  खरपतवार रहित  साफ़ बीजों का प्रयोग करना चाहिए ।पशुओं को ऐसे खरपतवार चारे के रूप में नहीं खिलाने चाहिए जिनके बीज परिपक्व हो चुके हो तथा जिनमें अंकुरण क्षमता हो । यदि इस प्रकार के पदार्थ को खिलाना अपरिहयि हो तो खिलाने   के पहले उन्हेंउबालना चाहिए या उनकी पिसाई कर देनी चाहिए । ताजी गोबर की खाद अथवा अधूरी सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।  जीवांश पदार्थ युक्त ऐसे पलवार (मल्च) का प्रयोग नहीं करना जिसमें खरपतवार के बीजों के होने की सम्भावना हो ।  पके हुए बीज युक्त खरपतवारों से आच्छादित खेतों में पशुओं की चराई के पश्चात उन्हें खरपतवार रहित खेतों में नहीं जाने देना चाहिए । पशुओं  के गोबर के साथ अथवा शरीर से चिपक कर खेत में बीजें के प्रसारणकी सम्भावना रहती है । एक खेत से होकर दूसरे खेत में ले जाने से पूर्व कृषि यंत्रों की अच्छी प्रकार साफ़-सफाई कर लेनी चाहिए ताकि खरपतवारों को फैलने से रोका जा सकें ।  फार्म की सड़को के किनारों खलिहान, फार्म के भवनों के आसपास के खरपतवारों बीज बनने से को पूर्व ही समाप्त कर देना चाहिए । सिंचाई और जल निकास की नालियों के किनारों तथा इनके बीच उगे खरपतवारों को नष्ट करते रहना चाहिए । रोपाई की जाने वाली फसलों में नर्सरी से पौध उखाड़तें समय ध्यान देना चाहिए कि पौधों के साथ खरपतवार के पौधे न मिले हों ।

खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ


खरपतवार नियंत्रण  के लिए यांत्रिक, कृषिगत और  रासायनिक विधियों का इस्तेमाल किया जाता है ।
1.यांत्रिक विधिया: इस विधि में खरपतवारों को उखाड़ने, कटाई करने, दबाने जलाने, आदि कार्यों हेतु मशीनों व यंत्रों  का प्रयोग किया जाता हे । इस विधि में खरपतवारों को हाथ से खींच कर या खुरपी, फावड़ा या कुदाल के द्वारा अथवा ट्रैक्टर के पीछे कई टाइनों वाला यंत्र लगाकर उखाड़ दिया जाता है । घास या फसलों की पत्तियों को एक परत के रूप में भूमि पर फसलों के बीच में बिछाना या उनको जला देना भी इसी विधि में सम्मलित है। प्रतेक फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए कम से कम 25 दिन के अंतराल पर दो बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है । इस विधि में लागत व समय अधिक लगता है ।
2.जैविक विधियां: जैव नियंत्रण में  विशिष्ट प्रकार के खरपतवारों को विशिष्ट परजीवियों, परभक्षियों तथा रोगाणुओं के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है । इस विधि का इस्तेमाल अभी प्रचलन में नहीं है।
3.रासायनिक नियंत्रण: खरपतवार की रासायनिक विधियों का प्रयोग विवेक तथा सावधानी पूर्वक करने पर अच्छी सफलता प्राप्त होती है । खरपतवार के नियंत्रण हेतु प्रयुक्त कुछ रसायन एक वर्ग के पौधो के समाप्त कर देते है जबकि दूसरे वर्ग के पौधे इनके प्रयोग से अप्रभावित रहते है । खरपतवार नाशकों का चयन व प्रति इकाई क्षेत्रफल में उनकी मात्रा, प्रयोग करने की विधि व समय की खरपतवार नियंत्रण की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रसायनों की सहायता से खरपतवार नियंत्रण जल्दी, कम लागत में प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। यह विधि आर्थिक दृष्टि से लाभकारी भी सिद्ध हुई है ।
4.समन्वित खरपतवार नियंत्रण:  जब दो या दो से अधिक खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ खरपतवारों के प्रभावशाली नियंत्रण के लिए अपनाई जाती है तो इसमें विभिन्न विधियों का समुचित चयन, समन्वय तथा क्रियान्वयन, पर्यावरण एवं आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक होता है

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सोमवार, 3 अगस्त 2020

स्वाद, सेहत और मुनाफे के लिए सब्जियों की जैविक खेती

                                                       डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत ने हरित क्रांति के तहत सिंचाई के संसाधनों के विकास, उन्नत किस्मों के प्रसार, रासायनिक उर्वरकों एवं पौध संरक्षण दवाओं के इस्तेमाल से फसलों के उत्पादन में उतरोत्तर बढ़ोत्तरी तो हुई परन्तु पर्यावरण ह्रास की कीमत पर। समय बीतने के साथ भूमि की उर्वराशक्ति में गिरावट के कारण फसलों की उत्पादकता में स्थिरता अथवा गिरावट के साथ-साथ खेती की बढ़ती लागत चिंता और चिंतन का विषय है। विज्ञान का उपयोग प्रकृति के साथ उचित तालमेल की बजाय उससे मुकाबला कर व्यवसायिक दृष्टिकोण से खेती की गई।  आधुनिक कृषि के तहत   रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं जैविक खादों के नगण्य उपयोग की वजह से भूमि में मुख्य एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमीं होने से न केवल फसलों की पैदावार में गिरावट आ रही है बल्कि विभिन्न कृषि उत्पादों की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।सब्जी उत्पादन में यह समस्या गंभीर रूप धारण करती जा रही है क्योंकि इनमें फसलों की अपेक्षा रासायनिक उर्वरक तथा पौध संरक्षण और वृद्धि नियंत्रक रसायनों का बेसुमार इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप जल-वायु प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। जहरीले रसायन आधारित खेती से उत्पादित विभिन्न सब्जियों के सेवन से मनुष्यों एवं पशुओं में जानलेवा बीमारियाँ पनपने लगी है। इन विकट परिस्थितियों में जहरयुक्त रसायन आधारित खेती को त्याग कर जहरमुक्त जैविक खेती अपनाकर न केवल मृदा-स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या को कम किया जा सकता है बल्कि मनुष्य को स्वादिष्ट और जहर मुक्त सब्जी मुहैया कराकर देश की पोषण सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सकती है। विश्व व्यापार संधि के चलते अन्तराष्ट्रीय खुली प्रतिस्पर्धा में वही खेती टिक पायेगी जो कम लागत व सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली होगी । स्वाद और सेहत के लिए सर्वोत्तम जैविक सब्जियों के प्रति उपभोक्ताओं में बढ़ते रुझान के कारण बाजार में इन सब्जियों के बेहतर दाम मिलने की वजह से किसानों के लिए सब्जियों की खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है।

जैविक पद्धति से सब्जी-फल उत्पादन फोटो साभार गूगल 

क्या है जैविक खेती

वास्तव में जैविक खेती वही है जो कि हमारी मिट्विटी और जलवायु के अनुसार हो और हमारे पास उपलब्कध संसाधनों द्वारा संपन्न हो तथा जिसमें सभी प्राकृतिक आदानों का संतुलित सदुपयोग हो ताकि वे लम्बे समय तक उपलब्ध हो सकें खेती फसल उत्पादन की वह पद्धति है जिसमें खेती रासायनिक उत्पादों जैसे रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, फफूंदनाशी,शाकनाशी, वृद्धि नियामक आदि का प्रयोग न करके जैविक पदार्थो जैसे जैविक खाद, जैव उर्वरक, हरी खाद, जैविक कीट नाशक एवं फसल-चक्र परिवर्तन आदि के प्रयोग पर निर्भर करती है। प्रकृति आधारित इस पद्धति का मुख्य उद्देश्य मृदा, पौधों, पशुओं एवं मनुष्य के स्वास्थ्य के अनुकूल फसल उत्पादन करना है। इस प्रकार से जैविक खेती की मूल भावना विज्ञान द्वारा खोजे गए प्रकृति के रहस्यों व वरदानों का कृषि क्षेत्र में उचित उपयोग कर उत्पादन के उचित स्तर को प्राप्त करना है 

जैविक खेती के प्रमुख चरण

जैविक खेती अपनाने के लिए किसान को तीन चरणों यथा जैविक परिवर्तन, जैविक कृषि प्रबंधन एवं प्रमाणीकरण प्रक्रिया का अनुपालन करना होता है।

A.जैविक परिवर्तन

जैविक खेती प्रारम्भ करने के समय से लेकर वास्तविक जैविक फसल उत्पादन के बीच के समय को परिवर्तन अवधि कहते है। यह अवधि एक वर्ष से लेकर तीन वर्ष तक की हो सकती है वार्षिक फसलों के लिए परिवर्तन अवधि एक वर्ष एवं लंबी अवधि वाली फसलों तथा बागवानी पौधों के लिए दो से तीन वर्ष की होती है। सफल जैविक परिवर्तन हेतु अधोलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।

1.जैविक खेती एवं जैविक मानकों से सम्बंधित समस्त जानकारी

2.जैविक खेती में प्रयुक्त होने वाले संसाधनों का ज्ञान एवं उनकी उपलब्धता

3.जैविक परिवर्तन की सावधानी पूर्वक तैयारी करना

4.खेत की उर्वराशक्ति के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

5.स्थानीय वातावरण के अनुसार फसलों एवं पशुओं का चयन

6.उपयुक्त फसल चक्रो का चुनाव एवं अनुपालन

7.कीट-व्याधियों के जीवन चक्र एवं नियंत्रण का ज्ञान

8.खेती-किसानी से सम्बंधित सभी अभिलेखों का सुचारू रूप से रखरखाव.

B.जैविक कृषि प्रबंधन

प्रमाणीकृत जैविक खेती करने के लिए जैविक खेती के विभिन्न घटकों में प्रयुक्त होने वाले सभी उपादानों का उपयोग जैविक नियमों के अनुसार ही होना चाहिए.

जैविक खेती के प्रमुख घटक

जैविक खेती के घटकों में मृदा उर्वरता प्रबंधन

1.मृदा उर्वरता प्रबंधन: जैविक खेती में पोषक तत्वों की आपूर्ति एवं भूमि की उर्वराशक्ति को बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर विभिन्न प्रकार की जैविक खादों यथा गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, वर्मीकम्पोस्ट के अलावा हरी खाद तथा जैव उर्वरकों जैसे राइजोबियम, एज़ोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलिम, फॉस्फोरस घोलक जीवाणु आदि का प्रयोग किया जाता है। उपयुक्त फसल चक्र एवं बहुफसली प्रणाली भी मृदा को स्वस्थ एवं उर्वर बनाये रखने के सहायक होती है। फसलों के अवशेष, पशु-अवशेष जैसे गौमूत्र, बिछावन, हड्डी का चूरा, मछली खाद, विभिन्न प्रकार की खलियों आदि का प्रयोग किया जाता है। जैविक खाद, हरी खाद एवं जैविक उर्वरकों के अलावा जैविक खेती में किसान स्वयं निम्न विशेष जैविक तरल खाद तैयार कर खेती को लाभकारी बना सकते है ।

(अ)संजीवक: इसे बनाने के लिए 100 किग्रा गाय के गोबर + 100 लीटर गो-मूत्र + 500 ग्राम गुड़ को 300 लीटर पानी में 10 दिन तक सड़ाया जाता है। इसके बाद इसमें 20 गुना पानी मिलाकर एक एकड़ भूमि में छिडक देते है अथवा सिंचाई जल के साथ प्रयोग करते है।

(ब)जीवामृत: इसे बनाने के लिए 10 किग्रा गाय का गोबर + 10 लीटर गो-मूत्र + 2 किग्रा गुड़ + 2 किग्रा किसी डाल का आटा + 1 किग्रा जिवंत मिट्टी को 200 लीटर पानी में मिलाकर 7-8 दिन तक सड़ने दिया जाता है। इस मिश्रण को नियमित रूप से दिन में 3-4 बार हिलाते रहते है। एक एकड़ खेत में सिंचाई जल के साथ जीवामृत का प्रयोग किया जा सकता है।

(स)पंचगव्य: पंचगव्य बनाने के लिए गाय के गोबर का घोल 4 किग्रा + गाय का गोबर 1 किग्रा + गो-मूत्र 3 लीटर + गाय का दूध 3 लीटर + छाछ 2 लीटर + गाय का घी 1 किग्रा को मिलाकर 7 दिन तक सड़ने दिया जाता है। प्रतिदिन इस मिश्रण को 2 बार हिलाते है। तीन लीटर पंचगव्य को 100 लीटर पानी में मिलाकर मृदा पर छिड़काव करते है अथवा 20 लीटर पंचगव्य को सिंचाई जल के साथ एक एकड़ खेत में प्रयोग किया जा सकता है।

2.फसल का चुनाव: जैविक खेती के लिए चयनित फसलें एवं प्रजातियाँ स्थानीय पर्यावरणीय दशाओं के अनुकूल और कीट-रोग अवरोधी होनी चाहिए। सभी चयनित फसलों के बीज प्रमाणित जैविक कृषि उत्पाद होने चाहिए। यदि प्रमाणित जैविक बीज उपलब्ध न हो तो बिना रासायनिक उपचार के उत्पादित अन्य बीज भी  प्रयोग किये जा सकते है। जैविक खेती में परिवर्तित आनुवांशिकी वाले बीजों तथा ट्रान्सजेनिक पौधों का प्रयोग नहीं करना है।

3.खरपतवार नियंत्रण: सब्जियों की जैविक खेती में खरपतवारों का समुचित प्रबंधन बेहद जरुरी है। इसके लिए रासायनिक खरपतवार नाशियों के स्थान पर यांत्रिक एवं सस्य क्रियाओं जैसे ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई, भूमि का सौर्यीकरण, निराई-गुड़ाई, उचित फसल चक्र, प्लास्टिक एवं जैविक पलवार (मल्च) का प्रयोग,उचित सिंचाई प्रबंधन आदि विधियों का परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करके सब्जियों को खरपतवारों से मुक्त रखा जा सकता है।

4.उचित फसल चक्र: जैविक खेती के तहत फसलों को अदल-बदल कर बोना चाहिए जैसे खाद्यान्न फसलों के बाद दलहनी फसलें, अधिक खाद पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम कम खाद-पानी चाहने वाली फसलें आदि । इससे खेत की उर्वराशक्ति कायम रहती है तथा फसलों में कीट-रोगों का प्रकोप कम होता है।

5.कीट-रोग नियंत्रण: जैविक सब्जी उत्पादन में रासायनिक कीटनाशकों,फफूंदनाशकों एवं वृद्धि नियामकों का प्रयोग नहीं करना है। इसके स्थान पर सस्य-विधि,यांत्रिक विधि, जैविक विधि तथा अनुमत जैव रसायनों अथवा वानस्पतिक उत्पादों का प्रयोग करना है। जैविक कीट-रोग प्रबंधन हेतु निम्न उपाय कारगर होते है:

(a) प्रतिरोधी फसल प्रजातियों का चयन एवं कीट-रोग रहित बीजों का प्रयोग सबसे अच्छे बचाव का उपाय है। प्रभावी फसल चक्र, बहु-फसली प्रणाली, ट्रैप फसल के प्रयोग तथा कीटों के प्राकृतिक वास में बदलाव से नाशी जीवों को नियंत्रित किया जा सकता है।

(b) यांत्रिक विकल्प के अन्तर्गत रोगी एवं रोग ग्रस्त भाग को अलग करना, कीटों के अण्डों एवं लार्वों को एकत्र करके नष्ट करना, खेतों में चिड़ियों के बैठने के स्थान की उचित व्यवस्था करना, प्रकाश प्रपंच लगाना, फेरोमों ट्रैप अथवा रंगीन चिपचिपी पट्टी आदि का उपयोग कीट-रोग नियंत्रण के प्रभावी उपाय है।

(c) जैविक विकल्प में नाशी जीवों का भक्षण करने वाले मित्र जीव-जंतुओं जैसे ट्राईकोग्रामा (40-50 हजार अंडे प्रति हेक्ट्रे) चेलोनस बरनी (15 से 20 हजार अंडे प्रति हेक्टेयर) अथवा क्राईसोपरला के 5 हजार अंडे प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करके नाशी जीवों का नियंत्रण किया जा सकता है।

(d) ट्राईकोडर्मा विरिडी या ट्राईकोडर्मा हार्जिएनम या स्यूडोमोनास फ्लूरिसेंस का 4-6  ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से अकेले अथवा संयुक्त रूप से उपचार अधिकांश बीज व मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है। ट्राईकोडर्मा  से कपास, दलहनी व तिलहनी फसलों तथा सब्जी व बागवानी फसलों में उपचार किया जा सकता है. इसी प्रकार बवेरिया बासियाना, मेटाराइजियम एनिसोप्लियाई आदि से  विशेष नाशीजीव समुदाय का प्रबंधन किया जा सकता है।बैसिलस थुर्रीजिएन्सिस (बी.टी.) नामक बैक्टेरिया का प्रयोग पत्तागोभी में लगने वाले हीरक पृष्ठ कीट के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है.

(e) बहुत से वृक्ष एवं पौधों की पत्तियों जैसे नीम,धतूरा, बेशरम आदि अथवा बीजों के अर्क का उपयोग नाशिजिवों के नियंत्रण में किया जा सकता है। नीम अर्क एवं तेल विभिन्न प्रकार के कीटों जैसे ग्रासहॉपर, लीफ हॉपर, एफिड, जैसिड, इल्ली आदि के नियंत्रण में प्रभावी रहता है। एक लीटर गो-मूत्र को 20 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडकाव करने से अनेक कीट-रोगों के नियंत्रण के साथ-साथ पौध वृद्धि पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

C.जैविक प्रमाणीकरण

जैविक खेती के प्रमाणीकरण हेतु विश्व स्तर पर एक प्रक्रिया बनाई गई है जिसे प्रमाणीकरण (सर्टिफिकेशन) कहते है। इसके कई नियम-विधान बनाये गए है जिनके आधार पर प्रमाणीकरण संस्था यह प्रमाण पत्र देती है कि अमुक किसान का खेत या किसान समूह के खेतों में उसके द्वारा उगाई गई फसल या उत्पाद 100 प्रतिशत जैविक विधि से तैयार किया गया है। प्रमाणीकरण में जैविक कृषि उत्पादन का नहीं बल्कि कृषि उत्पादन पद्धति का प्रमाणीकरण करवाना होता है। प्रमाणीकरण संस्था द्वारा खेत का इतिहास यानि उसमें पूर्व में क्या फसल ली गयी है, कितना उर्वरक व कीटनाशक उपयोग किया गया है, तथा अन्य सभी जानकारी जो उत्पादन को प्रभावित करती है, को इकट्ठा किया जाता है। इसके बाद मिट्टी व पानी की गहन जांच करने के पश्चात किसान को क्या-क्या कार्य करने है और क्या नहीं करना है के बारे में निर्देश दिए जाते है। मोटे तौर पर जैविक प्रमाणीकरण के लिए निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है।

Ø सभी संश्लेषित रासायनिक आदानों तथा परिवर्तित आनुवंशिकी के जीवों का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है।

Ø केवल वही भूमि जिसमें कई वर्षो से प्रतिबंधित आदानों का प्रयोग नहीं किया गया हो, प्रमाणीकरण प्रक्रिया के तहत लाइ जा सकती है।

Ø अपनाई जा रही सभी प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों का उचित प्रलेखन आवश्यक है।

Ø जैविक एवं अजैविक उत्पादन इकाइयों को एक दूसरे से बिल्कुल अलग रखना ।

Ø समय-समय पर खेत का निरिक्षण कर जैविक मानकों का पालन सुनिश्चित करना ।

जैविक खेती के लाभ

Ø जैविक खेती में सामान्यतः किसान के पास उपलब्ध संसाधनों का उपयोग होता है, जिससे किसान कृषि स्तर पर आत्म निर्भर बन सकते है.

Ø जैविक खेती से भूमि की गुणवत्ता में सुधार एवं भूमि-जल-वायु प्रदूषण पर अंकुश लगता है जिससे पर्यावरण संरक्षण में मदद मिल सकती है ।

Ø जैविक विधि से उगायी गई फसलों-सब्जियों का स्वाद एवं पौष्टिकता उत्तम होती है।

Ø जैविक विधि के तहत उगाई गए सभी कृषि उत्पादों यथा अन्न,सब्जी,फल आदि हानिकारक रसायनों से मुक्त होते है अर्थात स्वास्थ्य वर्धक होते है।

Ø जैविक उत्पादों का बाजार मूल्य अधिक होने से जैविक खेती लाभप्रद होती है।

इस प्रकार से हम कह सकते है कि जैविक पद्धति से उगाये गये भोज्य पदार्थों मसलन खाद्यान्न तेल,फल-फूल-सब्जी, दूध आदि की आवश्यकता आज किसान से लेकर आम उपभोक्ता महसूस कर रहे है। जैविक खेती और जैविक उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा  अनेक कृषि और किसान हितैषी योजनायें संचालित की जा रही है जिनमें आकर्षक अनुदान का भी प्रावधान है ताकि किसानों को प्रोत्साहन मिल सकें। अतः प्रकृति आधारित पर्यावरण हितेषी जैविक खेती कर किसान आत्म निर्भरता की ओर अग्रसर होकर देशवाशियों को जहर मुक्त खाद्यान्न, फल-फूल और सब्जियां उपलब्ध कर स्वस्थ और संपन्न राष्ट्र बनने की राह आसान कर सकते है।

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे।