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शनिवार, 5 जून 2021

पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली से संभव है जीवन की खुशहाली

                             डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान), इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

पर्यावरण  के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे में आम जन जीवन में पर्यावरण के प्रति जागरुकता फैलाने के उद्देश्य से हर साल 5 जून को पूरी दुनिया में विश्व पर्यावरण दिवस (World Environment Day) मनाया जाता है। साल 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रदूषण पर स्टॉकहोम, स्वीडन में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था। इसके बाद पहली बार 5 जून 1974 को ‘केवल एक पृथ्वी’  थीम के साथ विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था और इसके बाद हर साल इसे मनाया जा रहा है। पर्यावरण से सम्बंधित विश्व के सबसे बड़े कार्यक्रम को मनाते हुए 46 वर्ष बीत गए परन्तु फिर भी हम सचेत होते नहीं दिख रहे।  बीते समय की प्राकृतिक आपदाएं हमें संकेत दे रहीं है कि आधुनिक विज्ञान की खोजों के नशे में चूर मनुष्य ने कुदरत के साथ सदियों से स्थापित रिश्ते खराब कर लिए है। प्रकृति के साथ विज्ञान की खिलवाड़ और साम्राज्यवादी राष्ट्रों का सूक्ष्मजीवों के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप फैली कोविड-19 महामारी से पूरी दुनिया बीते दो वर्ष से त्रस्त है कोरोना से पहले भी सार्स, ईबोला, रेबीज, एवियन फ्ल्यू, स्वाइन फ्ल्यू जैसी न जाने कितनी बीमारियाँ जानवरों से इंसानों में फैली है जो स्पष्ट तौर पर इंसानों के प्रकृति के साथ बिगड़ते रिश्तों अथवा 'पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पन्न असंतुलन का परिणाम है। वर्तमान में एक तरफ तो कोरोना महामारी से आबादी को बचाने के लिए विभिन्न सुरक्षात्मक उपाय अपनाए जा रहे है तो दूसरी तरफ कोरोना संक्रमण से बचने के लिए इस्तेमाल की गई पी पी ई किट, मास्क, दस्ताने, सेनेटाइजर की बोतले आदि के उचित निस्तारण की व्यवस्था न होने की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बढ़ने का अंदेशा दिख रहा है


कोरोना ने हमें अहसास करा दिया है, कि प्रकृति से छेड़छाड़ कितना घातक हो सकती है। पेड़ पौधों द्वारा प्रदत्त प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन की कीमत का अंदाजा कोरोना संक्रमित मरीजों की ऑक्सीजन कमीं से होने वाली मौतों से लगाया जा सकता है.  प्रकृति ने हमें सिखला दिया की हम चाहे कितनी भी तरक्की क्यों ना कर लें कुदरत के सामने हम बौने ही रहेंगे । दरअसल सूक्ष्मजीव भी पारिस्थितिकी तंत्र के ही घटक है और इस तंत्र के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ कर हम सुरक्षित नहीं रह सकते प्रकृति के अंधाधुंध दोहन की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलित बिगड़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप आज विश्व समुदाय को प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है



विश्व पर्यावरण दिवस 2021 की थीम

विश्व पर्यावरण दिवस-2021 की थीम 'पारिस्थितिकी तंत्र बहाली' (Ecosystem Restoration) रखा गया है। इसका तात्पर्य है की कैसे हम अपने पर्यावरण के तंत्र को बरकरार रखें.  पारिस्थितिकी तंत्र का अर्थ है जैव एवं अजैव घटकों के बीच परस्पर आदान प्रदान का अन्योन्याश्रित संबंध. जंगलों को नया जीवन देकर, अपने आस-पास अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाकर, बारिश के पानी को नदी,नालों, तालाबों  आदि में संरक्षित करके, नदियों को स्वच्छ रख कर, अति खनन और अवैध खुदाई पर उचित कार्यवाही, वन्य जीव-जंतुओं को आवश्यक संरक्षण देकर हम पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से बहाल (रिस्टोर) कर सकते हैं। पारिस्थितिक तंत्र की बहाली का अर्थ है मानवीय गतिविधियों से होने वाले नुकसान को रोकना और हमारी प्रकृति को हरा-भरा  करना। इसके लिए हमें अपने वनों को नष्ट होने से बचाना है और आर्द्रभूमि को संरक्षित करना पड़ेगा तभी वन्य जीव-जंतु एवं बहुमूल्य वनस्पतियां जीवित रह सकती है ।

इसके अलावा मानव आबादी को अपनी जीवन शैली में कुछ ऐसे बदलाव लाने का संकल्प लेना चाहिए जो चीजों के प्राकृतिक क्रम को बहाल करने में मदद कर सकें।

1.    भोजन की बर्बादी पर अंकुश लगाना जरुरी: हमारे देश में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति लगभग 50 किलो खाध्य पदार्थ बर्बाद हो जाता है इससे न केवल पानी, उर्जा और धन नष्ट होता है बल्कि भोजन की इस बर्बादी से 71 लाख टन मीथेन गैस उत्सर्जित होती है जो पर्यावरण को प्रदूषित करती है

2.    पेपर मग और टिशु पेपर का उपयोग कम करना: दुनियां में प्रति वर्ष 16 अरब पेपर मग (चाय-पानी हेतु) का इस्तेमाल हो रहे है जिन्हें बनाने के लिए लाखों पेड़ काटे जाते है और 4 अरब गैलन पानी नष्ट किया जाता है. इसी प्रकार हजारो टन टिश्यु पेपर का उपयोग होता है पेपर के मग और टिश्यु पेपर के उपयोग पर अंकुश लगाकर हम पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते है

3.    वाहनों की गति सीमित रखे: वाहनों के इस्तेमाल से ही 1.7 अरब टन ग्रीन हाउस गैस पर्यावरण में पहुँचती है. कार की गति 70-80 किमी प्रति घंटा या इससे कम रखने पर 8 % प्रदूषण कम होता है

4.    बिजली और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का जब उपयोग नहीं करते है तब इन्हें बंद करना न भूलें. ऐसा करने से पर्यावरण में प्रदूषण कम होता है

5.    अपने घर के आस पास पेड़-पौधे लगायें. एक बड़ा पेड़ रोजाना 21 किलो कार्बन डाई ऑक्साइड सोखता है और 10 लोगों को प्राणवायु (ऑक्सीजन) उपलब्ध कराता है प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम एक पेड़ लगाकर पर्यावरण को संमृद्ध बनाने में योगदान देना चाहिए

6.    जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे एवं बाढ़ की आपदाएं होती है. शहरी क्षेत्र में सडकों और पक्की सतह के विस्तार के कारण 90 % वर्षा जल बहकर नदीं नालों में मिलकर बाढ़ की स्थिति पैदा करता है. अपने घर पर वाटर रिचार्ज सिस्टम लगाकर जल संरक्षण का कार्य करना चाहिए जिससे भूमि का जल स्तर कायम रहेगा वर्षा जल संरक्षण से सूखे एवं बाढ़ की समस्या से निजात मिल सकती है

पारिस्थितिकी तंत्र बहाली का दशक

विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर  संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरे  नेरीइमेजिन, रिक्रिएट, रिस्टोरनारे के साथ पारिस्थितिकी तंत्र बहाली (इकोसिस्टम रिस्टोरेशन) कार्ययोजना के यू एन दशक (2021-2030)  के शुरुआत की घोषणा की है । संयुक्त राष्ट्र की इस पहल का उद्देश्य हर महाद्वीप और हर महासागर में पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण को रोकना और बहाल करना है। आने वाले समय में हम सब को मिलकर पृथ्वी के सभी जीवों के स्वास्थ्य और कल्याण हेतु मनुष्यों और प्रकृति के बीच संबंधों को बहाल करना है तथा स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्र के क्षेत्र में वृद्धि करने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदुषण में कमीं लाना है। दरअसल बहुत लम्बे समय से मानवता ने, धरती के जंगलों को काटा हैं,  नदियों और महासागरों को प्रदूषित किया है, आर्द्रभूमि को नष्ट किया है  और घास-चारागाहों पर अतिक्रमण किया है विकास की अंधी दौड़ और प्रकृति पर विजय पाने की लालसा के कारण हमने उसी पारिस्थितिकी तंत्र को घायल कर दिया है, जो हमारे जीवन और संस्कृति का आधार है। प्रकृति पर निरंतर प्रहार कर हम अपने अस्तित्‍व के लिये आवश्‍यक भोजन, जल एवँ संसाधनों से, स्‍वयं को वंचित करने का ख़तरा मोल ले रहे हैं। पारिस्थितिकी तंत्र बहाल कर टिकाऊ विकास के समस्त लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिलेगी। ऐसा करने से न केवल पृथ्‍वी के संसाधनों को संरक्षण मिलेगा, बल्कि 2030 तक लाखों नए रोज़गार पैदा होंगे, हर वर्ष 70 ख़रब डॉलर से अधिक की आमदनी होगी और ग़रीबी तथा भुखमरी मिटाने में मदद मिलेगी।


आर्द्रभूमि(वेटलैंड)-महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र

जलीय एवं स्थलीय वन्य प्राणी प्रजातियों व वनस्पतियों की प्रचुरता होने से वेटलैंड समृद्ध पारिस्थतिकीय तंत्र है आर्द्रभूमि(वेटलैंड्स) एक प्राकृतिक व कुशल कार्बन सिंक (कार्बन अवशोषक) के रूप में कार्य करता है आर्द्रभूमि अत्यंत उत्पादक जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र है वेटलैंड न केवल जल भंडारण कार्य करते हैं, अपितु बाढ़ के अतिरिक्त जल को अपने में समेट कर बाढ़ की विभीषिका को कम करते हैं ये जलवायु संबंधी आपदाओं के विरुद्ध बफर के रूप में कार्य करती हैं अर्थात  जलवायु परिवर्तन के आकस्मिक प्रभावों से बचा जा सकता है इसके अलावा 40 फीसदी से अधिक प्रजातियां वेटलैंड्स में ही रहती हैं जो एक समृद्ध जलीय जैववविविधता का प्रतिनिधित्व करते हैंविश्व की 90% आपदाएं जल से संबंधित होती हैं तथा यह तटीय क्षेत्रों में रहने वाले 60% लोगों को बाढ़ अथवा सूनामी से प्रभावित करती है  आर्द्रभूमियों से जलावन लकड़ी,भोज्य पदार्थ, फल, औषधीय वनस्पतियाँ, पौष्टिक चारा प्राप्त होता हैं आर्द्रभूमि पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक सेवाएँ प्रदान करती है धरती की उर्वरता को बनायें रखने, भू-गर्भ जल स्तर को नीचे जाने से रोकने, बाढ़ और सूखे से सुरक्षा के लिए आर्द्रभूमि को संरक्षित करना अत्यन्त आवश्यक है यही नहीं आर्द्रभूमि वन्य प्राणियों के लिए फीडिंग (भोजन), ब्रीडिंग (प्रजनन) ड्रिंकिंग (पेय) का मुख्य आधार है इनके क्षेत्र में कमीं होने के कारण पारिस्थितिकी तन्त्र में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है

बेहतर पर्यावरण के लिए भारत में जैव ईंधन को बढ़ावा

एथेनॉल इको-फ्रैंडली फ्यूल है। एथेनॉल एक तरह का अल्कोहल है जिसे पेट्रोल में मिलाकर गाड़ियों में फ्यूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है। एथेनॉल का उत्पादन गन्ना, मक्का, ज्वार आदि फसलों   से होता है। आज विश्‍व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एथेनॉल ब्लेंडिंग 2020-2025 के लिए रोडमैप जारी किया जिसमे भारत के  इथेनॉल ब्‍लेंडिंग टॉरगेट को साल 2023 तक 20% करने का ऐलान किया। अभी देश में 320 हजार करोड़ लीटर एथेनॉल उपयोग हो रहा है। इससे किसानों की आमदनी में काफी इजाफा हुआ। इस अवसर पर पीएम ने पुणे में तीन जगहों पर E 100 के वितरण स्टेशनों की एक पायलट परियोजना का भी शुभारंभ किया। तेल कंपनियों को सीधे E-100 बेचने की अनुमति मिल गई है। पेट्रोल में 20% एथेनॉल ब्लेंडिंग (सम्मिश्रण) का लक्ष्य हासिल करने से से देश को महंगे तेल आयात पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी। पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने से पेट्रोल के उपयोग से होने वाले प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी। इसके इस्तेमाल से गाड़ियां 35% कम कार्बन मोनोऑक्साइड का उत्सर्जन करती है। सल्फर डाइऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन का उत्सर्जन भी इथेनॉल कम करता है। इथेनॉल में मौजूद 35 फीसदी ऑक्सीजन के चलते ये फ्यूल नाइट्रोजन ऑक्साइड के उत्सर्जन को भी कम करता है। एथेनॉल मिलावट वाले पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी पेट्रोल के मुकाबले बहुत कम गर्म होती हैं।  कच्चे तेल के मुकाबले  यह काफी सस्ता पड़ेगा। एथेनॉल का इस्तेमाल बढ़ने से किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी और चीनी मिलों को आमदनी बढाने का एक नया जरिया मिलेगा ।

संक्षिप्त में विश्व पर्यावरण दिवस-2021 के अवसर पर हम सब को यह सुनिश्चित करना होगा की जीवन के लिए स्वस्थ पर्यावरण जरुरी है और स्वस्थ पर्यावरण के लिए हमें प्रकृति के साथ मित्रवत व्यवहार करना है प्रकृति प्रदत्त संसाधनों यथा जल, वायु, हवा एवं नाना प्रकार की वनस्पतियों का आवश्यकतानुसार दोहन करना है वर्षा जल का भरपूर संरक्षण करते हुए जल का कुशल उपयोग करना है मृदा एवं जल संरक्षण के लिए पेड़-पौधों से धरती की हरियाली कायम करना है तभी हमारा पारस्थितिकी तंत्र बहाल हो सकता है   

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

धरती माता करे पुकार...अब नहीं सहेंगे अत्याचार

                                                                          डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

खस एक विश्वविख्यात सुगंधित घास : खेती में लागत कम-लाभ अधिक

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)


खस (वेटीवर) घास भारतीय मूल की घनी गुच्छेदार एक बहुवर्षी घास है। इसका वैज्ञानिक नाम वैटिवेरिया जिजेनिओइड्स जो पोयेसी कुल की सदस्य है इसके पौधे  1.5  मीटर (5 फीट) ऊंचे होते है जो चौड़े घेर (clump) बनाते है। इसकी पत्तियां 3 मीटर तक लम्बी एवं 8 मिमी. चौड़ी होती है खस की रेशेदार जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हुई 2 से 3 मीटर तक भूमि की गहराई में चटाईनुमा फैलती हैं। हल्के पीले रंग या भूरे से लाल रंग वाली जड़ों को सुगन्धित तेल उत्पादन के लिए उत्कृष्ट माना जाता है। इसकी पत्तियां पतली लम्बी, सुदृण तथा किनारे पर खुरदुरी होती है। इसका पुष्पक्रम पैनिकल (15 से 30 सेमी. लम्बा) के रूप में जिसके केन्द्रीय कक्ष में अनेक पतले रैसीम का झुंड होता है। इसके स्पाइकलेट भूरे-हरे और बैंगनी रंग के जोड़े में होते है।


बहुत उपयोगी है खस 

खस (वेटीवर)घास के पौधे, जड़ें एवं पुष्पक्रम 

खस (वेटीवर) घास की जड़ों में सुगन्धित वाष्पशील तेल पाया जाता है, जो एक प्रकार का इत्र है। इसके तेल से वेट्रीवरोल, वेट्रीवेरोन एवं वेट्रीवेरिल एसिटेट नामक सुगन्धित रसायन तैयार किये जाते है । जड़ों में  पाए जाने वाले के कारण यह विश्व प्रसिद्ध है। इससे प्राप्त तेल का उपयोग इत्र, साबुन, शर्बत, पान मसाला, खाने की तम्बाकू तथा अनेक सौन्दर्य प्रसाधनों में किया जाता है। खस की तासीर ठंडी होती है इसलिए खस का शरबत गर्मियों में पीने के लिए एक फायदेमंद और बेहतरीन ड्रिंक है। खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए ही नहीं होता, आयुर्वेद जैसी परम्परागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। यह जलन को शान्त करने और त्वचा सम्बन्धी विकारों को दूर करने में प्रयोग किया जाता है।खश की सूखी पत्तियों एवं डंठल का उपयोग  हार्ड बोर्ड बनाने में किया जाता है। खश की जड़ के क्वाथ का इस्तेमाल से ज्वर, सूजन और अपच में लाभ होता है। जड़ों का लेप शिर पर लगाने से शरीर की गर्मी या जलन में आराम मिलता है।

सुगन्धित तेल के अलावा इसकी जड़ों से परदे, चटाईयां तथा पंखे बुने जाते है। गर्मियों में खश की टट्टियाँ तैयार कर कूलर में लगाई जाती है तथा परदे खिड़की दरवाजों में टाँगे जाते है। पानी पड़ने या छिडकने पर शीतल व सुगन्धित हवा प्रदान करती है। इसकी  पत्ती एवं तनों का उपयोग झोपडी बनाने में किया जाता है। इसकी पत्तियों को  कपड़ों में रखने से कीड़े आदि से सुरक्षित रहते है । इसकी हरी मुलायम पत्तियों का उपयोग पशु चारे के रूप में भी किया जाता है।  इसकी सूखी पत्तियों से टोपी, हस्त-बैग, हाँथ के पंखे और बहुत सी शोभाकारी वस्तुए बनाई जाने लगी है खस की  जड़ें  भूमि की गहराई में क्षैतिज रूप से बढ़कर चटाई नुमा संरचना बनाती है जिससे इसके  पौधे भूमि के कटाव रोकने और जल संरक्षण में सहायक होते हैं। खस के पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता अधिक होती है

                                             खस की मांग अधिक उत्पादन कम 

खस (वेटीवर) के तेल की बहुपयोगिता के कारण राष्ट्रिय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसके तेल की अधिक मांग होने के कारण नैसर्गिक रूप से जंगलों व नदी किनारों पर  पैदा होने वाली खश घास का रकबा घटता जा रहा है कम उत्पादन एवं बढती मांग के कारण इसके तेल एवं जड़ों की कीमतें भी बढती जा रही है।  संसार में खस तेल का उत्पादन  लगभग 300 टन होता है जिसमें केवल 20-25 टन तेल भारत में उत्पादित होता है. हमारे देश में खस की खेती राजस्थान, असम, बिहार, उत्तरप्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश राज्यों में  की जाती है, जिनसे केवल 20-25 टन तेल पैदा हो पाता है । वर्तमान में हमारे देश में वेटीवर तेल की खपत 100 टन के आस-पास है जिसमें से 80 प्रतिशत तेल के आपूर्ति आयात के माध्यम से की जाती है उत्तर खस(भारत में उत्पादित होने वाले खस के सुगन्धित तेल की प्रीमियम गुणवत्ता की कीमत अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत अच्छी प्राप्त होती है। कम उत्पादन और बढती मांग के कारण भारत में खस घास की खेती की अपार संभावनाएं है। उपजाऊ, गैर-उपजाऊ अथवा बेकार पड़ी भूमियों और खेत की मेंड़ों पर खस घास का रोपाण कर आकर्षक आमदनी अर्जित की जा सकती है. ग्रामीण नौजवानों के लिए खस की खेती और तेल के आसवन की इकाई एक बेहतर रोजगार और आय अर्जन का सुनहरा व्यवसाय हो सकती है

                  खस (वेटीवर) घास उत्पादन की सस्य तकनीक 


भारत में  ठन्डे इलाकों को छोड़कर सभी प्रदेशों में खस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। खस के पौधों का विकास प्राकृतिक रूप से अथवा खेतों में  1000 से 2000  मि.मी. वार्षिक वर्षा  220 से 420 सेग्रे. तापक्रम एवं मध्यम आर्द्रता  व नम  जलवायु में सफलतापूर्वक उगाये जा सकते है। इसकी जड़ों की उचित बढ़वार के लिए मृदा का  तापक्रम 250 सेग्रे उपयुक्त पाया गया है  वातावरण का तापक्करम 50 सेग्रे से कम होने पर इसकी जड़े सुषुप्ता अवस्था में चली जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी इसे आसानी से लगाया जा सकता है

भूमि का चयन

खस घास के पौधे प्राकृतिक रूप से नदियों के किनारे अथवा दलदली भूमि पर उगते है। खश की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों (जलमग्न, लवणीय, क्षारीय, ऊंची-नीची) में आसानी से की जा सकती है, परन्तु बलुई दोमट भूमि, जिसका पी एच मान 6-8 हो, सर्वोत्तम पायी गई है। चिकनी मृदाओं में जड़ों की खुदाई  में कठिनाई होती है। बलुई दोमट मृदा में जड़ें लम्बी  होती है और इनकी खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है। ग्रीष्मकाल में एक दो बार खेत की गहरी जुताई (20-25 से.मी.)करने से जड़ों का विकास अच्छा  होने के साथ-साथ मृदा  जल संरक्षण होता है एवं खरपतवार नियंत्रित रहते है। पौधों की रोपाई के समय खेत में 1-2 बार कल्टीवेटर से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिट्टी को समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

भारत में खस घास की दो प्रजातियाँ यथा दक्षिण भारतीय खस एवं उत्तर भारतीय खस की खेती की जाती है। उत्तर भारतीय खस से उत्तम गुणवत्ता का सुगन्धित तेल प्राप्त होता है परन्तु इनकी जड़े कम लम्बी होती है।  दक्षिण भारतीय खस घास से जड़ एवं तेल की पैदावार अधिक प्राप्त होती है। दक्षिण भारतीय खस की प्रमुख उन्नत किस्मों में  पूसा हाइब्रिड-8, सीमेप खस.-2, के एच-8, सुगंधा, के एच-40 व ओ डी व्ही-3 व्यापारिक खेती के लिए उपयुक्त है  केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ ने अधिक उत्पादन एवं उच्च गुणवत्ता वाली किस्में विकसित की है। इनमें (i) धारिणी-खश तेल की सुगंध वाली व मृदा संरक्षण के लिए उपयुक्त, (ii)गुलाबी-गुलाब जैसी सुगंध (iii)केसरी-केसर जैसी सुगंध वाली खश की नवीन किस्में है।

पौध रोपण का समय एवं विधि

सिंचित क्षेत्रों में खश की रोपाई फरवरी से लेकर मध्य अक्टूबर तक की जा सकती है परन्तु बेहतर उत्पादन के लिए जुलाई से अगस्त माह का समय सर्वोत्तम रहता है। असिंचित एवं ढालू जमीनों में वर्षात का समय इसकी रोपण हेतु अच्छा रहता है। सिंचित क्षेत्रों में घास की रोपाई के लिए मार्च-अप्रैल का समय सर्वोत्तम रहता है, परन्तु पौध स्थापन हेतु आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना जरुरी है

खश का प्रवर्धन बीज व  वानस्पतिक विधि से किया जा सकता है बीज से अप्रैल-मई में नर्सरी में पौधे तैयार कर दो माह बाद तैयार पौधों को मुख्य खेत में रोपा जाता है। खस की सभी जातियों एवं सभी परिस्थितयों में बीज उत्पादन नहीं होता है। व्यवसायिक खेती के लिए वानस्पतिक विधि अधिक कारगर रहती है। वानस्पतिक विधि अर्थात स्लिप्स से रोपण हेतु इसके 12 माह पुराने पौध झुंडों को सावधानी पूर्वक उखाड़कर उनसे एक-एक कलम  अलग की जाती है इन जड़युक्त कलमों को ही स्लिप्स कहते है प्रत्येक स्लिप  10-15 से.मी. लम्बी स्लिप (जड़युक्त तना), जिनमें 2-3 गांठे होना चाहिए। पर्याप्त जड़ वाला मुलायम तना (स्लिप) रोपाई के लिए अच्छा रहता है।     

पौध झुंड से स्लिप्स को निकालने के बाद इन्हें छाया में रखना चाहिए इनकी ऊपर की पत्तियां काट दें तथा नीचे की सूखी पत्तियों को हटा कर इन पर पानी छिडक देना चाहिये खस घास की स्लिप्स को भूमि में 10 से.मी. की गहराई पर  कतार से कतार   तथा पौध से पौध 60 x 30, 60 x 45  या 60 x 60 सेंटीमीटर की दूरी पर भूमि की उर्वरा शक्ति, सिंचाई की सुविधा तथा किस्म के आधार पर लगाना चाहिए। इस प्रकार  एक हेक्टेयर में 27,800 से लेकर 1,10,000 पौधे स्थापित होने चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद मिट्टी में मिला देने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। मध्यम एवं उच्च उर्वरायुक्त मृदाओं में सामान्यतः खस बिना खाद एवं उर्वरक के उगाई जा सकती है। कम उर्वर या हल्की भूमि  में 50 किग्रा. नाइट्रोजन, 30 किग्रा. फॉसफोरस:20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर  की दर से देना लाभकारी रहता है। खस स्थापन के  दूसरे वर्ष वर्षा प्रारंभ होने के बाद 40 किग्रा नाइट्रोजन का उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन

खस सूखा सह घास है तथा सामान्यतौर में इसकी फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है. रोपाई के समय बेहतर पौध स्थापना हेतु सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पौधे एक माह में पूर्णतः स्थापित हो जाते हैं। रोपाई के बाद वर्षा हो जाने पर सिंचाई की जरुरत नहीं पड़ती है। अवर्षा की स्थिति में  जड़ों के बेहतर विकास के लिए सिंचाई देना लाभकर होता है।

खरपतवार प्रबंधन

खस की रोपाई के बाद 35 से 40 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रखा जाना चाहिए. पौध स्थापित होने के बाद खरपतवार प्रकोप कम होता है। खेत में 1-2  बार निराई एवं गुड़ाई  करने से खरपतवार समाप्त होने के साथ-साथ खस की पौध वृद्धि एवं विकास अच्छा होता है। रोपाई के 4-5 माह बाद पौधों के ऊपरी हरे भाग को जमीन से 20-30 ऊंचाई से काट देने से जड़ों का विकास अच्छा होता है। इसी प्रकार द्वितीय वर्ष घास में फूल आने के पूर्व ऊपर से हरे भाग को काट देना लाभकारी पाया गया है।

जड़ों की खुदाई

खश की जड़ों में तेल पुष्पन काल के बाद बनता है। सामान्यतः खश 18 से 20 माह में खुदाई योग्य हो जाती हैं। पूर्ण विकसित जड़ों की खुदाई नवम्बर से लेकर फरवरी तक की जा सकती है। खुदाई पूर्व पौधों का ऊपरी भाग हंसिया से काट लिया जाता है।  काटे गये ऊपरी भाग को चारे, ईंधन या झोपड़ियाँ बनाने के काम में लाया जाता है।

ऊपरी भाग की कटाई उपरान्त कुदाली या अन्य यंत्र की सहायता से जड़ों को खोद लिया जाता है। खुदाई के समय जमीन में हल्की नमीं रहना आवश्यक है। खुदाई पश्चात् जड़ों को खेत में दो से तीन दिन सुखाने से मिट्टी झड़ जाती है। ट्रैक्टर चालित  मिट्टी पलटने वाले हल से 40 से 45 सेंमी. गहराई तक जड़ों की खुदाई आसानी से  की जा सकती है। औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित ट्रेक्टर चालित खस जड़ खुदाई यंत्र अधिक सुविधाजनक एवं किफायती पाया गया है।

उत्पादन एवं आमदनी

खस घास के तेल उत्पादन की मात्रा रोपाई के समय, किस्म, जलवायु एवं सस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है।  उपजाऊ दोमट व बलुई दोमट मृदा में रोपी गई खस घास की उन्नत किस्मों से 35-40 क्विंटल ताज़ी जड़े प्राप्त हो जाती है जिन्हें छाया में सुखाने के बाद आधुनिक आसवन विधि के माध्यम से 20-30  किग्रा तेल प्राप्त किया जा सकता है। मध्यम उपजाऊ बलुई भूमि से 25-30 क्विंटल जड़े तथा उनसे 15-25 किग्रा तक सुगन्धित तेल प्राप्त  किया जा सकता है। जलमग्न एवं समस्याग्रस्त भूमियों में खस घास एवं तेल का उत्पादन कम होता है। इसकी जड़ों में 0.6 से 0.8 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उन्नत किस्मों की सूखी जड़ों में औसतन 1  प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो जाता है। खस की जड़ों का सुगन्धित तेल का उत्पादन वाष्प आसवन विधि द्वारा किया जाता है। इसकी जड़ों से सामान्यतः तेल निकालने के लिए 14-16 घंटे जड़ों का आसवन करना उपयुक्त रहता है। खुदाई के जड़ों को पानी में धोकर  साफ़ करने के पश्चात  छोटे-छोटे (5-10 से.मी.)टुकड़ों में काट कर छाया में 1-2 दिन तक सुखाया जाता है। जड़ों को धूप में सुखाने पर तेल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। इसके बाद भाप आसवन विधि से तेल निकाला जाता है। स्टेनलेस स्टील से बने आसवन संयंत्र द्वारा उच्च गुणवत्ता का तेल प्राप्त होता है।  तेल को सूखे एवं ठन्डे स्थान पर स्टेनलेस स्टील के पात्रों में भंडारित कर रखना चाहिए अथवा बाजार में बेच देना चाहिए। 

सामान्यतौर पर खस  घास उत्पादन में  50 से 60 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर  लागत आती है। खस घास का तेल बाजार में 25 से 30 हजार रूपये प्रति किलो की दर से बिकता है। खस के पौधों का ऊपरी भाग तथा तेल निकालने के पश्चात इसकी जड़े बेचकर अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है। उचित किस्म एवं सही फसल उत्पादन तकनीक अपनाने पर खस की खेती  से लगभग 1.8 लाख से 2.5 लाख  रुपए प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है। 

खस घास की पत्तियों एवं तनों से आकर्षक हस्त शिल्प जैसे टोकनी, बैग, चटाई आदि बनाकर लाभ कमाया जा सकता है
खस घास से निर्मित हस्त शिल्प वस्तुएं फोटो साभार गूगल 

नोट : 1.खस (वेटीवर) घास  की उन्नत खेती से सम्बंधित अधिक जानकारी एवं उचित दर पर इसकी पौध सामग्री प्राप्त करने  के लिए लेखक से ई-मेल profgstomar@gmail.com के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है

2. लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

डायबिटीज की रामबाण औषधि-इन्सुलिन प्लांट की करें व्यवसायिक खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान),

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

मधुमेह रोग  के उपचार में केयोकंद के पौधे का इस्तेमाल कारगर सिद्ध होने के कारण  लोग इसे इंसुलिन के पौधे के नाम से जानते हैं। केयोकंद को जारूल, केऊ, संस्कृत में सुबन्धु, पदमपत्रमूलम व  केमुआ तथा अंग्रेजी में स्पाइरल फ्लैग के नाम से जाना जाता है।  वनस्पति शास्त्र में इसे कॉस्टस स्पेसियोसस व कॉसटस इग्नेउस के नाम से जाना जाता है यह पौधा भारत के असम, मेघालय, बिहार, उत्तरांचल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के जंगलों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है इसकी दो उप प्रजातियाँ -कास्ट्स स्पेसिओसस नेपालेसिस व कास्ट्स स्पेसिओसस आरजीरोफाइलस जो सम्पूर्ण भारत में पायी जाती है

 इन्सुलिन प्लांट अर्थात कियोकंद, कॉस्टेसी या जिन्जिबरेसी (अदरक) कुल का एक बहुवर्षीय पौधा है यह सीधा बढ़ने वाला 1.2 से 2.7 मीटर ऊंचा पौधा होता है इसके मूलकांड कंदीय, पनीला (फीका) होता है कियोकंद की पत्तियां 15-35 से.मी. लम्बी तथा 5-7 से.मी. चौड़ी आयताकार व नुकीली होती है जो तने में पेचदार या सर्पिल रूप से व्यवस्थित होती है पत्तियों की ऊपरी सतह चिकनी तथा निचली सतह रोमिल होती है इसमें जुलाई-अगस्त में सुन्दर और आकर्षक सफेद रंग के फूल आते है, जो एक घनी स्पाइक में लगते है फूल के सहपत्र 2-3 से.मी. लम्बे हल्के नोकदार चमकीले लाल रंग के होते है। इसके फल (केप्सूल) गोल लाल रंग तथा बीज काले सफेद बीज चोल बाले होते है  इसे  शोभाकारी पौधे के रूप में गार्डन या गमलों में भी उगाया जाता है शर्दियों के दौरान इसके पेड़ मुरझा जाते है। इसकी पत्तियां स्वाद में हल्की खट्टी, खारी एवं लसलसी होती है 

औषधीय तत्व, गुण एवं विशेषताएं

कियोकंद के राइजोम में स्टार्च अधिक मात्रा में पाया जाता है इनका उपयोग खाध्य पदार्थ बनाने एवं औषधीय तैयार करने में किया जाता है कंद का स्वाद कषाय या हल्का कडुवा होता है। आदिवासी और वनवासी इसके प्रकंदों को कच्चा या पकाकर सब्जी के रूप में खाते है इनमें 44.51 % कार्बोहाइड्रेट, 31.65 % स्टार्च, 14.44 % एमाइलोस, 19.2 % प्रोटीन, 3.25 % वसा   के साथ-साथ  विटामिन-ए, बीटा केरोटीन, विटामिन-सी, विटामिन-ई आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इनके से सेवन  कुपोषण एवं आखों की समस्या से निजात मिलती है  कियोकंद की पत्तियां, तना और प्रकंद का उपयोग मधुमेह, सर्दी-खाशी, नजला-जुकाम से उत्पन्न बुखार के उपचार हेतु किया जाता है यह ह्रदय के लिए लाभकारी तथा शीतल प्रभाव वाला माना जाता है केवकंद को ताकत और ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है इसके कंद का चूर्ण को शक्कर के साथ सेवन करने से लू और गर्मी से राहत मिलती है। 

कियोकंद के राइजोम एवं तने में डायोस्जेनिन और टिशोजेनिन  नामक रसायन पाए जाते है इसके कंद, तना और पत्तियों में क्रमशः 396, 83 व 70 % डायोस्जेनिन पाया जाता है। डायोस्जेनिन द्रव्य का उपयोग स्टीयराइड हार्मोन तैयार करने में किया जाता है जलवायु, क्षेत्र, कंद  लगाने के समय एवं विधि के अनुसार डायोस्जेनिन की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है उदहारण के लिए मध्यभारत में डायोस्जेनिन की मात्रा 2.5 %, गंगा के कछार में 1.7 %, दक्षिणी भागों में 0.8 %, पश्चिमी भारत में 1-1.5 % पायी जाती है, जबकि उत्तरी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में यह 3.1 % तक पायी जाती है

मधुमेह रोग के लिए रामबाण औषधि है

इन्सुलिन प्लांट फोटो साभार गूगल 
इंसुलिन पौधा प्रकृति की ओर से मधुमेह के रोगियों को एक अनमोल उपहार है। इस पौधे की पत्तियां खाकर शरीर में शुगर के स्तर को नियंत्रित किया जा सकता है इसके सेवन से मधुमेह रोगियों को इन्सुलिन के इंजेक्शन लगवाने की आवश्यकता नहीं पडती मेडिकल साइंस के अनुसार टाइप-टू डाइबटीज के रोगी के शरीर में इंसुलिन की पर्याप्त मात्रा नहीं बनती है। इन रोगियों के ही शरीर में दवा या इंजेक्शन, के जरिए इंसुलिन पहुंचाया जाया है। विशेषज्ञों के अनुसार डाइबटीज-टू से पीड़ित रोगियों की संख्या करीब 80 प्रतिशत है और इनके लिए इंसुलिन प्लांटबहुत ही कारगर साबित हुआ है। इसके पत्तों का नियमित रूप से (एक पत्ती प्रति दिन) सेवन  करने से पैंक्रियाज में  बनाने वाली ग्रंथि के बीटा सेल्स मजबूत होते हैं। परिणामस्वरूप पैंक्रियाज ज्यादा मात्रा में इंसुलिन बनाता है, जिसके चलते खून में शुगर का स्तर  अर्थात मधुमेह (डायबिटीज) नियंत्रित रहती है।

अनेक आयुर्वेदिक कम्पनी इसकी पत्ती,तना और प्रकन्द का जूस और पाउडर बनाकर मधुमेह की कारगर औषधि के रूप में  बाजार में बेच रही है

प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाए जाने वाले बहुपयोगी कियो के पौधों के अति दोहन से इनके पौधों की संख्या निरंतर घटती जा रही है इसलिए वन विभाग एवं अन्य संएवं गठनों ने  इस पौधे को संकटाग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखते हुए इसके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु परामर्श दिए है औषधिय क्षेत्र में उपयोग के कारण  बाजार में इसकी मांग अधिक होने के चलते कियोकंद की खेती आर्थिक रूप से लाभकारी सिद्ध हो रही है शहरी क्षेत्रों में इसे शोभाकारी और औषधीय पौधे के रूप में गमलों में भी लगाकर इस्तेमाल में लिया जा सकता है किसान अपने खेत में इसका उत्पादन कर उपज के रूप में इसकी पत्तियां एवं प्रकंदों को बेचकर अच्चा खाशा मुनाफा अर्जित कर सकते है

                                 इन्सुलिन प्लांट (कियोकंद) की खेती ऐसे करें  

उपयुक्त जलवायु  एवं भूमि 

इन्सुलिन या कियोकंद के पौधों की वानस्पतिक बढ़वार एवं कंद विकास के लिए उष्ण से समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती हैइसकी पौधे नमीं युक्त आर्द्र जलवायु में अच्छे पनपते है पौध वृद्धि एवं विकास के लिए औसत तापक्रम 200 से 400 सेग्रे.उचित पाया गया है शर्दियों में 40 सेग्रे से कम तापक्रम हानिकारक होता है इसकी खेती 1200 से 1400 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है कियोकंद को धूपदार जमीनों के अलावा  पेड़ों की छाया में  भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है

सफल खेती के लिए बलुई दोमट से चिकनी दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 6 से 7.5 तक हो, उपयुक्त रहती है गहरी और उपजाऊ भूमियों में केयोकंद का उत्पादन अधिक होता है वर्षा प्रारंभ होने से पहले खेत की गहरी जुताई करके 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा से खेत समतल कर लेना चाहिए  खेत में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था करना आवश्यक है

रोपाई का समय

कियोंकंद की बुवाई मानसून आगमन के पश्चात जून-जुलाई में की जाती है  सिंचाई की सुविधा होने पर अप्रैल-मई में कंदों को लगाने से लगभग 80 प्रतिशत कंद अंकुरित हो जाते है और उपज भी अधिक प्राप्त होती है जून-जुलाई में रोपाई करने से उपज कम आती है इसकी रोपण हेतु लगभग 18-20 क्विंटल स्वस्थ कंदों की आवश्यकता होती है

बुवाई की विधियां  


कियोकंद के प्रकन्द (राइजोम) फोटो साभार गूगल 
कियोकंद का प्रवर्धन बीज, तना कलम और कंद से किया जा सकता है कंद रोपण सर्वश्रेष्ठ पाया गया है बीज से प्रवर्धन हेतु बीजों को बीज शैय्या पर बोया जाता है तथा बीज अंकुरण पश्चात पौधों में 3-4 पत्तिया विकसित होने पर उन्हें तैयार खेत में रोप दिया जाता है

कंद से बुवाई हेतु इसके कंदों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है जिनमें कम से कम दो कलियां हो और प्रत्येक का वजन 30-40 ग्राम हो इन टुकड़ों को खेत में लगभग 10 सेमी. की गहराई पर रोपा जाना चाहिए ध्यान रखें कंद लगाते समय इनकी कलियाँ भूमि में ऊपर की तरफ रहें

तना कलम से लगाने के लिए तने को टुकड़ों में जिनमें 2 गांठे (कली) हो, काट लिए जाता है इन टुकड़ों को दिसंबर से अप्रैल तक नम रेत (बालू) में रखा जाता है अंकुरण होने पर इन्हें नर्सरी  या पोलीथिन बैग में लगाया जाता है इससे प्राप्त कंदों का वजन कम  होता है

कियोकंद की पौध या कंदों को हमेशा कतारों में लगाना चाहिए कतार से कतार और पौध से पौध 40-50 से.मी. की दूरी रखना चाहिए इस प्रकार एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 40-45 हजार पौधे स्थापित होने से भरपूर उत्पादन प्राप्त होता है। वर्षा न होने पर कंद या पौध लगाने के उपरान्त खेत में हल्की सिंचाई अवश्य करना चाहिए

खाद एवं उर्वरक

कियोकंद के बेहतर उत्पादन के लिए खेत में खाद एवं उर्वरक देना आवश्यक है इसके लिए खेत की अंतिम जुताई के समय 10-12 टन गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट को मिट्टी में मिला देना चाहिए इसके अलावा 60 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस तथा 40 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई/रोपाई के समय देना चाहिए नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई/रोपाई के 40-50 दिन बाद (पौधों पर मिट्टी चढाते समय) कतारों में देना चाहिए। कियोक्न्द की जैविक खेती करने के लिए रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना है। गोबर की खाद की मात्रा बढाकर अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।

सिंचाई  एवं जल निकास

कियोकंद की बुवाई या रोपाई के बाद खेत में नमीं बनाये रखने के लिए हल्की सिंचाई करना आवश्यक है वर्षा ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु सूखे या अवर्षा की स्थिति में सिंचाई करें वर्षा ऋतु समाप्त होने पर 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहे अधिक वर्षा होने पर खेत से जलनिकास की व्यवस्था करना चाहिए

निंदाई गुड़ाई

वर्षा ऋतु में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है अतः आवश्यकतानुसार एक-दो निंदाई गुड़ाई कर पौधों पर पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए

खुदाई एवं प्रसंस्करण

सामान्यतौर पर कियोकंद की फसल 170 से 180 दिनों में तैयार हो जाती है। जून में लगाई गई फसल नवम्बर के अंतिम सप्ताह में खोदने के लिए तैयार हो जाती है फसल पकने के पूर्व इसके पत्तों को तने सहित काट लेना चाहिए पत्तों को साफकर हवा में सुखाकर जूट को बोरों में भरकर नमीं रहित स्थान पर भंडारित करें अथवा इनका पाउडर बनाकर बेचा जा सकता है। सामान्यतौर पर इसके कंद फरवरी-मार्च में खुदाई के लिए तैयार हो जाते है कंदों की खुदाई करने के पूर्व खेत में हल्की सिंचाई करने से कंदों की खुदाई आसानी से हो जाती है खुदाई के उपरान्त प्राप्त कंदों को पानी में अच्छी प्रकार धोकर सुखाया जाता है सूखे हुए कंदों को बोरियों में नमीं रहित स्थान पर भंडारित करना चाहिए बीज के लिए ताजा कंदों (गीली अवस्था में) को छायादार स्थान में रेत बिछाकर रखा जाता है

उपज एवं आमदनी

                उचित सस्य प्रबंधन तथा जलवायु के अनुसार कियोकंद से 200 से 250 क्विंटल ताजे कंद प्राप्त किये जा  सकते है। इन कंदों को सुखाने  पर 30 से 40 क्विंटल कंद का वजन रहता है एक पौधे से 20-25 प्रकन्द प्राप्त होते है इसके ताजे कंदों को 20 से 30 रूपये प्रति किलो की दर से बेचा जा सकता है सूखे कंदों को 80 से 100 रूपये के भाव में  बेचा जा सकता है आजकल बाजार में इसके पौधे 25 से 500 रूपये में इन्सुलिन प्लांट के नाम से नर्सरी में बेचे जा रहे है किसान भाई भी इनके कंदों या तैयार पौधों को नर्सरी या सीधे उपभोक्ताओं को बेच कर लाभ कमाया जा सकता है  
एक पौधे में पूरे जीवनकाल में 150-200 पत्तियां विकसित होती है पत्तियों को तने सहित काटकर छाया में सुखाकर नमीं रहित स्थान पर भंडारित कर लेना चाहिए इनकी पत्तियों या पाउडर को बेचकर अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है
इन्सुलिन प्लांट की खेती में औसतन 70 हजार से 85 हजार रूपये प्रति एकड़ लागत आती है प्रति एकड़ 80 क्विंटल प्रकन्द प्राप्त होने पर तथा इन्हें 30 रूपये प्रति किलो की दर से बेचने पर 2.4 लाख रूपये प्राप्त हो सकते है. इसके अलावा इसकी पत्तियां एकत्रित कर बेचने से अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है। इस पौधे की पत्तियों का पाउडर 500 से 800 रूपये प्रति किलो के भाव से ऑनलाइन बेचा जा रहा है इसकी हरी पत्ती एवं तने का जूस भी बाजार में बिकता है इस प्रकार इसकी खेती के साथ-साथ यदि इस पौधे का पाउडर, जूस, कंद का पाउडर तैयार करने का कार्य किया जाए तो  निश्चित ही इस व्यवसाय से आकर्षक लाभ कमाया जा सकता है  एक एकड़ जमीन में इसकी खेती तथा उपज के विधिवत प्रसंस्करण  एवं मार्केटिंग कर  10-15 लाख रूपये  प्रति वर्ष  लाभार्जन किया जा सकता है
इन्सुलिन प्लांट की खेती से सम्बंधित अधिक जानकारी एवं उचित दर पर इसकी पौध सामग्री प्राप्त करने  के लिए लेखक से ई-मेल profgstomar@gmail.com के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है

नोट: 1. कृपया ध्यान रखिये लेखक द्वारा  इन्सुलिन पौधे के उपयोग एवं खेती की तकनीकी जानकारी दी गई है. किसी भी रोग की दवा के रूप में हम इस पौधे के सेवन की सलाह नहीं दे रहे है किसी योग्य चिकित्सक या आयुर्वेदाचार्य के पारमर्ष के उपरान्त ही इस पौधे या उत्पादों के सेवन की सलाह दी जाती है

2. इन्सुलिन पौधे की खेती की लागत एवं लाभ के आंकड़े जलवायु, सस्य प्रबंधन तथा बाजार की स्थिति  के अनुसार परिवर्तनीय रहते है लेखक ने इसकी खेती एक मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत की है

कृपया ध्यान देवें: इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के आलेख को अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर प्रकाशित न करें यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें