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शनिवार, 4 दिसंबर 2021

मिट्टी की लवणता को रोकें, मिट्टी की उत्पादकता को बढ़ावा दें

                                                  डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


 विश्व मृदा दिवस-2021

आज विश्व मृदा दिवस है! अथर्ववेद में कहा गया है कि माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या: अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं…  यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या: अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।धरती माता हमारे जीवन के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है, हमारा भरण-पोषण करती है। इसलिए वेद आगे कहते है - "उप सर्प मातरं भूमिम् " -- हे मनुष्यो मातृभूमि की सेवा करो । वाल्मीकि रामायण में भी कहा गया है  ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसीअर्थात जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है। अतः प्रकृति के अनमोल रत्न भूमि की रक्षा, सुरक्षा और सम्मान करना हम सब का कर्तव्य ही नहीं नैतिक दायित्व भी है. इसके उलट मानव अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति के लिए धरती का शोषण करने लगा है. आंकड़े बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत बनने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। हम सब को मिलकर भूमि को उर्वर एवं उपजाऊ बनाये रखने के सघन प्रयास करना चाहिए।


थाईलैंड के राजा भूमिबोल अदुल्यादेज द्वारा मृदा प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन के महत्त्व के प्रति जागरूकता फैलाने के लिये की गई आजीवन प्रतिबद्धता के चलते उनके जन्म दिन 5 दिसम्बर को हर साल “विश्व मृदा दिवस” मनाया जाता है। हम जानते हैं कि हमारा भविष्य स्वस्थ मिट्टी पर निर्भर करता है मगर आपने कभी सोचा है कि कितनी बार आप अपने पैरों के नीचे की जमीन की सराहना करते हैं, उसका सम्मान करते है ? दुनियां में मिट्टी के बिना कोई खाद्य सुरक्षा नहीं हो सकती है बल्कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति भी संभव नहीं है । विज्ञान ने आज जीवन के लिए आवश्यक सभी वस्तुओ को बना लिया है परन्तु मिट्टी और पानी बनाने में अभी तक कामयाबी हासिल नहीं कर पायी है और इसकी कोई संभावना भी नहीं है।

विश्व मृदा दिवस उस पृथ्वी के महत्त्व को जानने का दिन है जो हमारे सुपोषण का ख्याल रखती है, स्वच्छ पेय जल देती है, हमें कपड़े-पोशाक उपलब्ध कराती है, हमारे आवास और सैर-सपाटे का आधार बनती है  और हमें सशक्त बनाती है खाध्य एवं कृषि संगठन (FAO) द्वारा विश्व मृदा दिवस-2021 का विषय “मिट्टी की लवणता को रोकना, मिट्टी की उत्पादकता  को बढ़ावा देना (Halt soil salinization, boost soil productivity) रखा गया है, जिसका उद्देश्य मृदा प्रबंधन में बढती चुनौतियों का समाधान करते हुए, मिट्टी के लवणीकरण को समाप्त करना है

कृषि की दृष्टी से मृदा लवणता वैश्विक स्तर पर एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहाँ निक्षालन हेतु पर्याप्त वर्षा का अभाव रहता है, वहां लवणता गंभीर समस्या बनी रहती है संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में  यह स्पष्ट होता है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी का क्षरण जलभराव, क्षारीकरण के कारण हो रहा है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है। एक अनुमान के अनुसार विश्व की 833 मिलियन हेक्टेयर (8.7 %) भूमि लवण-ग्रस्त है.

वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा एवं जलवायु में असमानता के कारण आने वाले समय में यह संकट विकराल रूप धारण कर सकता है हमारे देश में लवणग्रस्त क्षेत्रो का विस्तार विभिन्न प्रदेशों यथा गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि में फैला हुआ है कुल लवण प्रभावित मृदाओं का लगभग 56 प्रतिशत क्षारीयता एवं 44 प्रतिशत लवणता की समस्या से प्रभावित है सिन्धु-गंगा का उपजाऊ मैदानी क्षेत्र, क्षारीयता की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित है हमारे प्रदेश छत्तीसगढ़ में मृदा लवणता की समस्या बहुत कम है परन्तु नहरी सिंचित क्षेत्रों में हमें सतर्क रहते हुए सही जल प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए

मिट्टी में पानी में घुलनशील लवणों के निर्माण को लवणीकरण कहा जाता है आमतौर पर इसमें सोडियम, कैल्शियम तथा  मैग्नीशियम एवं उनके क्लोराइड एवं सल्फेट अधिक मात्रा में पाए जाते है लवणीय मृदा प्रायः जलभराव की समस्या से भी ग्रसित होती है ऐसी मृदा में ऊपरी सतह पर सफेद पपड़ी बन जाती है

पौधों की वृद्धि पर मिट्टी की लवणता का मुख्य प्रभाव जल अवशोषण में कमी है मिट्टी में पर्याप्त नमीं होने के वावजूद भी पानी के अवशोषण में कमीं के कारण फसलें मुरझा जाती हैं और अन्त में मर जाती हैं तेजी से बढती हुई आबादी को ध्यान में रखते हुए आने वाले वर्षों में सबको पर्याप्त पोषण उपलब्ध हो इसके लिए देश में उपलब्ध लगभग 6.73 मिलियन हैक्टर लवणीय एवं क्षारीय भूमि को उत्पादन योग्य बनाना अत्यन्त आवश्यक है लवणता की समस्या नए क्षेत्रों में लगातार बढती जा रही है और ऐसी संभाना है कि इसका वर्तमान प्रभावित क्षेत्र वर्ष 2050 तक तीन गुणा बढ़कर 20 मिलियन हैक्टर हो सकता है अनुपयुक्त मृदा एवं जल प्रबंधन के कारण लवणों का जमाव होना विश्वभर में एक गंभीर समस्या बनती जा रही है मृदा लवणता फसल उत्पादन को प्रभावित करती है जिसके फलस्वरूप खाध्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है लवणग्रस्त मृदाओं को रोकने तथा सुधर करने के लिए एक समग्र प्रबंधन प्रणाली की आवश्यकता है जिसमें सिंचाई योजनाओं का सही प्रबंधन तथा निष्कासित जल का पुनः उपयोग तथा सुरक्षित निष्कासन आदि सम्मलित है जिप्सम का प्रयोग, सही फसलों एवं किस्मों का चयन, उपयुक्त फसल चक्र, कुशल जल प्रबंधन, खाद एवं उर्वरकों का संतुलित उपयोग, गहरी जुताई, मल्च का प्रयोग आदि ऐसे उपाय है जिनसे मृदा लवणता को रोका जा सकता है

वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है। ऊसर एवं बंजर होती भूमियों से फसल उत्पादन कम होता है जिससे किसानों की आर्थिक दशा कमजोर हो जाती है और अंततः राष्ट्रिय कृषि आय में कमीं आ जाती है।

मानव की भांति हमारी मृदा भी बीमार हो जाती है पौधों की बढ़वार के लिए सामान्यतौर पर 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है प्रमुख रूप से एक या एक से अधिक पोषक तत्वों की कमीं या अधिकता, भूमि का अम्लीय, लवणीय व क्षारीय होना और जल भराव भूमि की प्रमुख बीमारियाँ है इन्ही के कारण कोई भूमि उपजाऊ होते हुए भी उत्पादक नहीं होती है और यही मुख्य बजह है कि देश के अनेक क्षेत्रों में फसल उत्पादकता कम होती जा रही है या स्थिर हो गयी है

आजादी के समय भारत के मृदाओं में मुख्यतः नाइट्रोजन तत्व की ही कमीं थी लेकिन सघन खेती करने से अब लगभग 10 पोषक तत्वों की कमीं आ गई है. पौधों की वृद्धि एवं उपज  के लिए पोषक तत्वों का संतुलित एवं आवश्यक मात्रा में प्रयोग नितांत जरुरी है आज नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश का आदर्श अनुपात बिगड़ गया है. उर्वरकों के असंतुलित उपयोग ने समस्या बढ़ाई है

भारत में 83 प्रतिशत से अधिक मृदाओं में नाइट्रोजन की कमीं पाई गई है फॉस्फोरस का स्तर मध्यम व पोटाश का स्तर उपयुक्त पाया गया है देश की मृदाओं में से 39.1 % में गंधक, 34 % में जिंक, 31% में लोहा, 22.6 % में बोरोन, 4.8 % में तांबे की कमीं पाई गई है फसलों की उपज अन्य विकारों से भी कम हो जाती है देश की लगभग 6.73 मिलियन हैक्टर मृदाओं में  लवणी एवं क्षार की मात्रा अधिक है

मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार लाने और मिट्टी के स्वास्थ्य की जांच  के लिए देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने साल 2015 में मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना (एसएचसी) की शुरूआत की थी इस योजना के तहत किसानों की प्रत्येक जोत के जी पी एस आधारित मृदा स्वास्थ कार्ड बनाये जा रहे है। इन कार्डों में भूमि में उपस्थित पोषक तत्वों एवं मृदा विकारों को ध्यान में रखकर फसल के अनुसार उर्वरकों की सलाह दी जा रही है। मृदा कार्ड योजना में अब तक देश के 22 करोड़ 56 लाख किसानों को कार्ड वितरित किये गए है। इस योजना के तहत 429 मृदा परीक्षण प्रयोगशालाएं, 102 चल मृदा परिक्षण प्रयोगशालाएं और 8452 सूक्ष्म मृदा परिक्षण प्रयोगशालाएं मृदा परीक्षण का कार्य कर रही है. छत्तीसगढ़ में मृदा स्वास्थ्य कार्ड तैयार करने के लिए किसानों के खेतो से 7.87 लाख मृदा नमूने एकत्रित कर मृदा परिक्षण करने के उपरान्त किसानों को वितरित किये गए।  मृदा परीक्षण प्रयोगशाला,इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर  ने रेफरल मृदा परीक्षण प्रयोगशाला के रूप में सफलता पूर्वक कार्य संपादित किया जा रहा है ।

मृदा के स्वास्थ्य के लिए मृदा परीक्षण सतत चलने वाला कार्य है। अतः किसानों को अपने खेत की मिट्टी की जांच प्रति तीन वर्ष के अंतराल से करवाते रहना चाहिएमृदा स्वास्थ कार्ड आधारित उर्वरक उपयोग से जहाँ भूमि एवं फसल की आवश्यकता के अनुरूप संतुलित मात्रा में उर्वरक दिया जा सकता है, वहीँ जहां किसान भाई आवश्यकता से अधिक मात्रा में उर्वरक प्रयोग करते थे, वहां इनकी मात्रा कम हो जाने से फसल उत्पादन लागत में कमीं आ रहीं है । यदि कार्ड में अधिक मात्रा में उर्वरकों की अनुसंशा है तो निश्चित ही किसान को अधिक उतपादन प्राप्त होगा  । एक सर्वेक्षण के अनुसार मृदा स्वास्थ कार्ड बांटने के उपरान्त 8 से 10 प्रतिशत उर्वरक खपत में कमीं हुई है तथा फसलों की उपज में भी 5-6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है ।

स्वस्थ मृदा से ही भरपूर फसल उत्पादन की कल्पना साकार हो सकती है. हम सब को धारण करने वाली एवं पोषण प्रदान करने वाली धरती को स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाये रखने टिकाऊ मृदा प्रबंधन की महती आवश्यकता है.  आइये आज विश्व मृदा दिवस के शुभ अवसर पर हम सब मृदा के उत्तम स्वास्थ के लिए मृदा के पोषण प्रबंधन एवं रखरखाव के लिए कारगर कदम उठाने का संकल्प लेते है

धरती माता की जय ! जय किसान-जय जवान-जय विज्ञान ! जय जोहार-जय छत्तीसगढ़ !

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

राष्ट्रिय कृषि शिक्षा दिवस-2021

 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 

इंदिरा गांधी कृषि विश्कृवविद्षियालय,

महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी  के पुण्य जन्मदिन  के शुभ अवसर पर  ICAR के तत्वाधान में प्रति वर्ष देश के समस्त कृषि विश्व विद्यालयों एवं कृषि संस्थानों में  3 दिसंबर को राष्ट्रिय कृषि शिक्षा दिवस मनाया जाता  है।  इसका मुख्य उद्देश्य  ज्यादा से ज्यादा युवाओं को कृषि की शिक्षा से जोड़ना और देश को कृषि क्षेत्र मे समृद्ध बनाना है। इसी तारतम्य में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविध्यालय द्वारा कृषि महाविद्यालय रायपुर के सभागार में विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ.एस.एस. सेंगर के मुख्य आतिथ्य में  राष्पूट्रेरिय कृषि शिक्षा दिवस 3 दिसम्बर 2021 को उत्साह से मनाया गया जिसमें विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं सहित स्कूलों के छात्र, विश्वविध्यालय के प्राध्यापक गण, अधिकारी एवं जनप्रतिनिधियों ने भाग लिए. 

राष्ट्रिय कृषि शिक्षा दिवस के अवसर पर विवि के कुलपति डॉ.सेंगर सभा का संबोधित करते हुए 

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के सभी महाविद्यालयों एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों पर राष्ट्रिय शिक्षा दिवस मनाया गया जिसके माध्यम से कृषि शिक्षा की उपादेयता एवं कृषि विज्ञान के क्षेत्र में रोजगार एवं नवाचार के अवसर विषय पर परिचर्चा आयोजित की गई. इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सेंगर ने कृषि शिक्षा दिवस कार्यक्रम आयोजन के  उद्देश्य  एवं महत्त्व पर विस्तार से चर्चा की. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि  डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी  का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वह उस संविधान सभा के अध्यक्ष थे जिसने संविधान की रूपरेखा तैयार की। उन्होंने कुछ समय के लिए स्वतन्त्र भारत की पहली सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री के रूप में भी सेवा की थी।उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रपति के रूप में 12 साल के कार्यकाल के बाद उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्नसे सम्मानित किया गया।

डॉ राजेंद्र प्रसाद बेहद लोकप्रिय थे, इसी वजह से उन्‍हें राजेंद्र बाबू या देश रत्‍न कहकर पुकारा जाता था ।  पढ़ाई लिखाई में उनका श्रेष्ठ स्थान रहता था, उन्हें अच्छा स्टूडेंट माना जाता था. एक बार एक परीक्षक ने उनकी  परीक्षा कॉपी में लिखा था, कि यह  "परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है"।

वैसे तो डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी पेशे से वकील थे परन्तु गांधी जी  की प्रेरणा से  उन्होंने वकालत छोड़कर स्‍वतंत्रता संग्राम में उतरने का फैसला किया व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर उन्होंने  गांवों में गरीबों और दीन किसानों के बीच काम करना स्वीकार किया

कृषि एवं खाध्य  मंत्री के रूप में उनका एक नारा ‘ग्रो मोर फूड’ बहुत प्रसिद्ध हुआ और तभी से हमारे देश की कृषि उन्नति के पथ पर अग्रसित हो रही है

भारत में शिक्षा एवं कृषि के विकास में उनके  योगदान को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, द्वारा उनके जन्म दिन को कृषि शिक्षा दिवस के रूप में मनाने का सराहनीय निर्णय लिया गया है विनम्रता और विद्वता से भरा उनका व्यक्तित्व देशवासियों को सदा प्रेरित करता रहेगा उनकी जन्म-जयंती के अवसर पर हम उन्हें  शत-शत नमन करते है

कृषि महाविद्यालय, कांपा,महासमुंद द्वारा विद्यालय में कृषि शिक्षा दिवस का आयोजन 


आजादी के समय देश की लगभग 30 करोड़ आबादी के लिए भी खाद्यान्न उपलब्ध नहीं था लेकिन कृषि वैज्ञानिकों के अथक प्रयास, किसानों की कड़ी मेहनत तथा  सरकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के फलस्वरूप आज भारत में न केवल अन्न के भंडार भरे हुए है बल्कि विदेशों को हम अनाज एवं अन्य कृषि उत्पाद निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित भी करने लगे है.  बढती जनसँख्या एवं सीमित हो रहे प्राकृतिक संसाधनों यथा भूमि, जल आदि  तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की वजह से आज कृषि क्षेत्र की उत्पादकता स्थिर होती जा रही है और जमीनों की उर्वरता घटती जा रही है.  विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में कृषि वैज्ञानिकों एवं कृषि विस्तार अधिकारीयों की बेहद कमीं महशूस की जा रही है

 एक अनुमान के अनुसार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभी केंद्रों को मिलाकर देश में  अभी केवल 6000 वैज्ञानिक कार्यरत हैं, जबकि जनसँख्या के हिसाब से दो लाख कृषि वैज्ञानिकों की जरुरत है । भारत में प्रति 10 लाख व्यक्तियों पर 48 कृषि वैज्ञानिक हैं जबकि जापान के पास प्रति 10 लाख पर साढ़े तीन हज़ार और अमेरिका में साढ़े चार हज़ार कृषि वैज्ञानिक प्रति दस लाख जनसंख्या पर हैं। इस कमी का सबसे बड़ा कारण तो देश में  मूलभूत कृषि शिक्षा की कमी है। आज हमारे देश की जनसंख्या का कुल 5.6 प्रतिशत लोग ही स्नातक हैं। हमारे देश में 74 के आस-पास कृषि विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से हर साल 25 हज़ार के आस-पास कृषि में स्नातक या परा-स्नातक निकल पाते हैं. अब इतने बड़े कृषि पर आधारित देश में 25 हज़ार की संख्या का क्या महत्व है । इसलिए देश में गुणवत्तायुक्त कृषि शिक्षा के विस्तार  की महती आवश्यकता है। कृषि शिक्षा की प्रगति,  कृषि को संमृद्धशाली बनाने और किसानों की आमदनी बढाने के लिए केन्द्रीय कृषि एवं किसान मंत्रालय ने अनेक महत्वाकांक्षी परियोजनाएं एवं कार्यक्रम प्रारंभ किये है जिनके उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हो रहे है।

छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी भी कृषि शिक्षा, अनुसंधान एवं प्रसार को प्राथमिकता दे  रहे है राज्य स्थापना के समय छत्तीसगढ़ में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के अंतर्गत  केवल एक  कृषि महाविद्यालय हुआ करता था। आज कृषि-31, उद्यानिकी-11, कृषि अभियांत्रिकी-4, वानिकी-1  तथा खाद्य प्रौद्योगिकी महविद्यालय-1  (कुल 48 महाविद्यालय) संचालित किये जा रहे है अर्थात प्रति वर्ष 2 से अधिक महाविद्यालय प्रारंभ किये गए जो कृषि शिक्षा के महत्त्व के साथ-साथ विश्वविद्यालय एवं राज्य सरकार की कृषि क्षेत्र तथा किसानों के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को सिद्ध करता है इसके अलावा कृषि को समोन्नत करने के उद्देश्य से  8 अनुसंधान केंद्र एवं कृषि तकनीकी प्रसार के वास्ते 27 कृषि विज्ञान केंद्र इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत काम कर रहे हैं। पिछले वर्ष राज्य शासन ने महात्मा गांधी उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय का शुभारम्भ किया है जिससे प्रदेश में फल-फूल-सब्जी एवं वानिकी क्षेत्र में तेजी से विकास होगा   हमारे प्रदेश में कामधेनु विश्वविद्यालय भी कार्यरत है जिसके तहत पशुपालन एवं पशु चिकित्सा विज्ञान में शिक्षा प्रदान की जाती है इस प्रकार भारत सरकार एवं प्रदेश सरकार की सहायता से छत्तीसगढ़ के उत्तर में बलरामपुर से लेकर दक्षिण में सुकमा तक कृषि शिक्षा, अनुसंधान एवं प्रसार का एक मजबूत नेटवर्क तैयार हो गया है। कृषि की शिक्षा में प्रदेशवासियों के रुझान को देखते हुए हमने विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रमों में  प्रवेश क्षमता में भी वृद्धि की है।

कृषि शिक्षा को ज्य़ादा आकर्षक और रोजगार परक बनाने के  प्रयास किये जा रहे हैं ताकि ज्यादा समझदार और योग्य छात्र देश में कृषि शिक्षा को चुने। कुछ वर्ष पूर्व  प्रतिभाशाली छात्र मेडिकल या इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हैं, परन्तु अब कृषि शिक्षा में भी छात्रों का रुझान देखने को मिल रहा है । अब  कृषि विश्वविद्यालयों में  कृषि की उच्च शिक्षा के लिए आधारभूत सुविधाओं और संरचनाओं के विकास की ओर ध्यान दिया जा रहा हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा चार वर्षीय स्नातक कृषि शिक्षा को प्रोफेशनल डिग्री का दर्जा दिया गया है। कृषि शिक्षा के पाठ्यक्रम को आधुनिक एवं व्यवहारिक बनाकर उसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित किया जा रहा हैछात्रों के कौशल विकास हेतु स्टूडेंट रेडीस्कीम की शुरुआत की गई है जिसके अंतर्गत छात्रों को किसानों से कृषि पध्दतियों को सीखने-समझने का अवसर मिल रहा है अब नई शिक्षा नीति के तहत हम शीघ्र ही कृषि के महत्वपूर्ण विषयों में सर्टिफिकेट कोर्स एवं 1 व 2 वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी प्रारंभ करने जा रहे है जिससे प्रदेश के ग्रामीण युवाओं को रोजगार और व्यवसाय के क्षेत्र में नये अवसर प्राप्त होंगे

शिक्षा, उद्यमिता और रोज़गार ये तीन अंग ऐसे हैं जिन्हें देश की कृषि शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना होगा और इसी के अनुरूप कृषि शिक्षा में बदलाव किये जा रहे है । हमारे प्रधानमंत्री चाहते हैं कि हमारे कृषि स्नातक नौकरी खोजने वाले न बनें, वो नौकरी देने वाले बनें अर्थात वो खुद उद्यमी बनें.  इसके लिए हम  भारत में लागू नई शिक्षा नीति के अनुरूप कृषि शिक्षा प्रणाली में ज़रूरी बदलाव करने जा रहे हैं। 

कृषि प्रधान भारत की आधी से अधिक आबादी तथा छत्तीसगढ़ की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी की आजीविका कृषि अथवा कृषि से सम्बंधित व्यवसाय पर निर्भर करती है. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अहम् योगदान है आमतौर पर पहले लोग एग्रीकल्चर यानि कृषि शिक्षा का नाम सुनते ही किसान बनने की बात सोचते थे लेकिन आज कृषि शिक्षा ग्रहण करने के बाद कृषि और उद्यानिकी क्षेत्र में रोजगार और नवाचार की असीम संभावनाएं हैं।  इस क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण करने के बाद युवा कृषि विश्वविद्यालय एवं अन्य शोध संस्थानों में वैज्ञानिक/ प्रोफ़ेसर बनने के अलावा राज्य के कृषि एवं सम्बंधित विभागों में कृषि विस्तार अधिकारी, विषय वास्तु विशेषग्य  के रूप में अपना कैरियर चुन सकते है। इसके अलावा हमारे कृषि स्नातक  बैंक व बीमा क्षेत्रो के साथ-साथ  बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में अच्छे पॅकेज पर नौकरी प्राप्त कर रहे  है नौकरी के अलावा व्यवसाय के रूप में खाध्य प्रसंकरण उद्योग, कृषि सेवा केंद्र, बागवानी, डेयरी, मुर्गी पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन, मशरूम की खेती, आधुनिक तरीके से व्यवसायिक फसल उत्पादन आदि को व्यवसाय के रूप में अपनाकर खुशहाल जीवन जी रहे है. व्यवसाय केंद्र संचालित करने के लिए सरकार द्वारा आर्थिक सहायता दी जाती है भारत सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा नवाचार एवं कृषि उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रिय विकास योजनारफ्तार योजना  के तहत  कृषि व्यवसाय इन्क्यूबेटर केंद्र का संचालन किया जा रहा है। इस योजना के तहत छत्तीसगढ़ राज्य में कृषि में स्टार्टअप उद्योग एवं व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए कृषि विश्वविद्यालय के  एग्री बिजनेस इन्क्यूबेशन केन्द्र के माध्यम से स्टार्टअप योग्य नवाचारी विचारों के लिए पांच लाख रूपये की प्रोत्साहन राशि दी जाती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने देश में प्रतिभा को आकर्षित करने और उच्च कृषि शिक्षा को मजबूत करने के लिए राष्ट्रीय कृषि उच्च शिक्षा परियोजना (NAHEP) शुरू किया है भारत की नई शिक्षा नीति के तहत  मिडल स्कूल स्तर पर कृषि शिक्षा की शुरुआत की जा रही है जिससे बच्चो में खेती को लेकर वैज्ञानिक सोच बढ़ेगी और कृषि से जुड़े कारोबार की जानकारी भी ग्रामीण परिवारों को मिल सकेगी

कृषि शिक्षा को आधुनिक बनाने एवं किसानों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने के लिए देश के प्रधानमंत्री तथा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री जी ने अनेक नीतिगत निर्णय लिए है जो अभिनंदनीय है और मै आशा करता हूँ की आने वाले समय में हमारा कृषि तंत्र और भी सशक्त होगा, किसानों की आमदनी में बढ़ोत्तरी होगी तथा कृषि शिक्षा प्राप्त छात्र-छात्राओं के लिए रोजगार एवं स्वयं का व्यवसाय स्थापित करने के अनेक अवसर प्राप्त होंगे

पिछले दो वर्ष से पूरा विश्व कोविड-19 महामारी की चपेट में है और अभी भी कोरोना का संक्रमण फ़ैल रहा है  उद्योग धंधे बंद होने से लाखों लोगों को रोजगार से विमुख होना पड़ा  कृषि क्षेत्र ही ऐसा था जिसने पूरे विश्व सहित भारत में बेरोजगारों/ग्रामीणों को रोजगार दिया और जीविकोपार्जन हेतु लोगों को काम दिया  आप सभी से निवेदन है की माननीय प्रधानमंत्री के  ‘जान है तो जहान है’ के सूत्र वाक्य को भूलिए नहीं    कोविड महामारी से बचने के आवश्यक उपाय यथा केंद्र और राज्य शासन द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करते रहिये

शनिवार, 5 जून 2021

पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली से संभव है जीवन की खुशहाली

                             डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान), इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

पर्यावरण  के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे में आम जन जीवन में पर्यावरण के प्रति जागरुकता फैलाने के उद्देश्य से हर साल 5 जून को पूरी दुनिया में विश्व पर्यावरण दिवस (World Environment Day) मनाया जाता है। साल 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रदूषण पर स्टॉकहोम, स्वीडन में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था। इसके बाद पहली बार 5 जून 1974 को ‘केवल एक पृथ्वी’  थीम के साथ विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था और इसके बाद हर साल इसे मनाया जा रहा है। पर्यावरण से सम्बंधित विश्व के सबसे बड़े कार्यक्रम को मनाते हुए 46 वर्ष बीत गए परन्तु फिर भी हम सचेत होते नहीं दिख रहे।  बीते समय की प्राकृतिक आपदाएं हमें संकेत दे रहीं है कि आधुनिक विज्ञान की खोजों के नशे में चूर मनुष्य ने कुदरत के साथ सदियों से स्थापित रिश्ते खराब कर लिए है। प्रकृति के साथ विज्ञान की खिलवाड़ और साम्राज्यवादी राष्ट्रों का सूक्ष्मजीवों के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप फैली कोविड-19 महामारी से पूरी दुनिया बीते दो वर्ष से त्रस्त है कोरोना से पहले भी सार्स, ईबोला, रेबीज, एवियन फ्ल्यू, स्वाइन फ्ल्यू जैसी न जाने कितनी बीमारियाँ जानवरों से इंसानों में फैली है जो स्पष्ट तौर पर इंसानों के प्रकृति के साथ बिगड़ते रिश्तों अथवा 'पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पन्न असंतुलन का परिणाम है। वर्तमान में एक तरफ तो कोरोना महामारी से आबादी को बचाने के लिए विभिन्न सुरक्षात्मक उपाय अपनाए जा रहे है तो दूसरी तरफ कोरोना संक्रमण से बचने के लिए इस्तेमाल की गई पी पी ई किट, मास्क, दस्ताने, सेनेटाइजर की बोतले आदि के उचित निस्तारण की व्यवस्था न होने की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बढ़ने का अंदेशा दिख रहा है


कोरोना ने हमें अहसास करा दिया है, कि प्रकृति से छेड़छाड़ कितना घातक हो सकती है। पेड़ पौधों द्वारा प्रदत्त प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन की कीमत का अंदाजा कोरोना संक्रमित मरीजों की ऑक्सीजन कमीं से होने वाली मौतों से लगाया जा सकता है.  प्रकृति ने हमें सिखला दिया की हम चाहे कितनी भी तरक्की क्यों ना कर लें कुदरत के सामने हम बौने ही रहेंगे । दरअसल सूक्ष्मजीव भी पारिस्थितिकी तंत्र के ही घटक है और इस तंत्र के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ कर हम सुरक्षित नहीं रह सकते प्रकृति के अंधाधुंध दोहन की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलित बिगड़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप आज विश्व समुदाय को प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है



विश्व पर्यावरण दिवस 2021 की थीम

विश्व पर्यावरण दिवस-2021 की थीम 'पारिस्थितिकी तंत्र बहाली' (Ecosystem Restoration) रखा गया है। इसका तात्पर्य है की कैसे हम अपने पर्यावरण के तंत्र को बरकरार रखें.  पारिस्थितिकी तंत्र का अर्थ है जैव एवं अजैव घटकों के बीच परस्पर आदान प्रदान का अन्योन्याश्रित संबंध. जंगलों को नया जीवन देकर, अपने आस-पास अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाकर, बारिश के पानी को नदी,नालों, तालाबों  आदि में संरक्षित करके, नदियों को स्वच्छ रख कर, अति खनन और अवैध खुदाई पर उचित कार्यवाही, वन्य जीव-जंतुओं को आवश्यक संरक्षण देकर हम पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से बहाल (रिस्टोर) कर सकते हैं। पारिस्थितिक तंत्र की बहाली का अर्थ है मानवीय गतिविधियों से होने वाले नुकसान को रोकना और हमारी प्रकृति को हरा-भरा  करना। इसके लिए हमें अपने वनों को नष्ट होने से बचाना है और आर्द्रभूमि को संरक्षित करना पड़ेगा तभी वन्य जीव-जंतु एवं बहुमूल्य वनस्पतियां जीवित रह सकती है ।

इसके अलावा मानव आबादी को अपनी जीवन शैली में कुछ ऐसे बदलाव लाने का संकल्प लेना चाहिए जो चीजों के प्राकृतिक क्रम को बहाल करने में मदद कर सकें।

1.    भोजन की बर्बादी पर अंकुश लगाना जरुरी: हमारे देश में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति लगभग 50 किलो खाध्य पदार्थ बर्बाद हो जाता है इससे न केवल पानी, उर्जा और धन नष्ट होता है बल्कि भोजन की इस बर्बादी से 71 लाख टन मीथेन गैस उत्सर्जित होती है जो पर्यावरण को प्रदूषित करती है

2.    पेपर मग और टिशु पेपर का उपयोग कम करना: दुनियां में प्रति वर्ष 16 अरब पेपर मग (चाय-पानी हेतु) का इस्तेमाल हो रहे है जिन्हें बनाने के लिए लाखों पेड़ काटे जाते है और 4 अरब गैलन पानी नष्ट किया जाता है. इसी प्रकार हजारो टन टिश्यु पेपर का उपयोग होता है पेपर के मग और टिश्यु पेपर के उपयोग पर अंकुश लगाकर हम पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते है

3.    वाहनों की गति सीमित रखे: वाहनों के इस्तेमाल से ही 1.7 अरब टन ग्रीन हाउस गैस पर्यावरण में पहुँचती है. कार की गति 70-80 किमी प्रति घंटा या इससे कम रखने पर 8 % प्रदूषण कम होता है

4.    बिजली और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का जब उपयोग नहीं करते है तब इन्हें बंद करना न भूलें. ऐसा करने से पर्यावरण में प्रदूषण कम होता है

5.    अपने घर के आस पास पेड़-पौधे लगायें. एक बड़ा पेड़ रोजाना 21 किलो कार्बन डाई ऑक्साइड सोखता है और 10 लोगों को प्राणवायु (ऑक्सीजन) उपलब्ध कराता है प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम एक पेड़ लगाकर पर्यावरण को संमृद्ध बनाने में योगदान देना चाहिए

6.    जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे एवं बाढ़ की आपदाएं होती है. शहरी क्षेत्र में सडकों और पक्की सतह के विस्तार के कारण 90 % वर्षा जल बहकर नदीं नालों में मिलकर बाढ़ की स्थिति पैदा करता है. अपने घर पर वाटर रिचार्ज सिस्टम लगाकर जल संरक्षण का कार्य करना चाहिए जिससे भूमि का जल स्तर कायम रहेगा वर्षा जल संरक्षण से सूखे एवं बाढ़ की समस्या से निजात मिल सकती है

पारिस्थितिकी तंत्र बहाली का दशक

विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर  संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरे  नेरीइमेजिन, रिक्रिएट, रिस्टोरनारे के साथ पारिस्थितिकी तंत्र बहाली (इकोसिस्टम रिस्टोरेशन) कार्ययोजना के यू एन दशक (2021-2030)  के शुरुआत की घोषणा की है । संयुक्त राष्ट्र की इस पहल का उद्देश्य हर महाद्वीप और हर महासागर में पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण को रोकना और बहाल करना है। आने वाले समय में हम सब को मिलकर पृथ्वी के सभी जीवों के स्वास्थ्य और कल्याण हेतु मनुष्यों और प्रकृति के बीच संबंधों को बहाल करना है तथा स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्र के क्षेत्र में वृद्धि करने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदुषण में कमीं लाना है। दरअसल बहुत लम्बे समय से मानवता ने, धरती के जंगलों को काटा हैं,  नदियों और महासागरों को प्रदूषित किया है, आर्द्रभूमि को नष्ट किया है  और घास-चारागाहों पर अतिक्रमण किया है विकास की अंधी दौड़ और प्रकृति पर विजय पाने की लालसा के कारण हमने उसी पारिस्थितिकी तंत्र को घायल कर दिया है, जो हमारे जीवन और संस्कृति का आधार है। प्रकृति पर निरंतर प्रहार कर हम अपने अस्तित्‍व के लिये आवश्‍यक भोजन, जल एवँ संसाधनों से, स्‍वयं को वंचित करने का ख़तरा मोल ले रहे हैं। पारिस्थितिकी तंत्र बहाल कर टिकाऊ विकास के समस्त लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिलेगी। ऐसा करने से न केवल पृथ्‍वी के संसाधनों को संरक्षण मिलेगा, बल्कि 2030 तक लाखों नए रोज़गार पैदा होंगे, हर वर्ष 70 ख़रब डॉलर से अधिक की आमदनी होगी और ग़रीबी तथा भुखमरी मिटाने में मदद मिलेगी।


आर्द्रभूमि(वेटलैंड)-महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र

जलीय एवं स्थलीय वन्य प्राणी प्रजातियों व वनस्पतियों की प्रचुरता होने से वेटलैंड समृद्ध पारिस्थतिकीय तंत्र है आर्द्रभूमि(वेटलैंड्स) एक प्राकृतिक व कुशल कार्बन सिंक (कार्बन अवशोषक) के रूप में कार्य करता है आर्द्रभूमि अत्यंत उत्पादक जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र है वेटलैंड न केवल जल भंडारण कार्य करते हैं, अपितु बाढ़ के अतिरिक्त जल को अपने में समेट कर बाढ़ की विभीषिका को कम करते हैं ये जलवायु संबंधी आपदाओं के विरुद्ध बफर के रूप में कार्य करती हैं अर्थात  जलवायु परिवर्तन के आकस्मिक प्रभावों से बचा जा सकता है इसके अलावा 40 फीसदी से अधिक प्रजातियां वेटलैंड्स में ही रहती हैं जो एक समृद्ध जलीय जैववविविधता का प्रतिनिधित्व करते हैंविश्व की 90% आपदाएं जल से संबंधित होती हैं तथा यह तटीय क्षेत्रों में रहने वाले 60% लोगों को बाढ़ अथवा सूनामी से प्रभावित करती है  आर्द्रभूमियों से जलावन लकड़ी,भोज्य पदार्थ, फल, औषधीय वनस्पतियाँ, पौष्टिक चारा प्राप्त होता हैं आर्द्रभूमि पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक सेवाएँ प्रदान करती है धरती की उर्वरता को बनायें रखने, भू-गर्भ जल स्तर को नीचे जाने से रोकने, बाढ़ और सूखे से सुरक्षा के लिए आर्द्रभूमि को संरक्षित करना अत्यन्त आवश्यक है यही नहीं आर्द्रभूमि वन्य प्राणियों के लिए फीडिंग (भोजन), ब्रीडिंग (प्रजनन) ड्रिंकिंग (पेय) का मुख्य आधार है इनके क्षेत्र में कमीं होने के कारण पारिस्थितिकी तन्त्र में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है

बेहतर पर्यावरण के लिए भारत में जैव ईंधन को बढ़ावा

एथेनॉल इको-फ्रैंडली फ्यूल है। एथेनॉल एक तरह का अल्कोहल है जिसे पेट्रोल में मिलाकर गाड़ियों में फ्यूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है। एथेनॉल का उत्पादन गन्ना, मक्का, ज्वार आदि फसलों   से होता है। आज विश्‍व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एथेनॉल ब्लेंडिंग 2020-2025 के लिए रोडमैप जारी किया जिसमे भारत के  इथेनॉल ब्‍लेंडिंग टॉरगेट को साल 2023 तक 20% करने का ऐलान किया। अभी देश में 320 हजार करोड़ लीटर एथेनॉल उपयोग हो रहा है। इससे किसानों की आमदनी में काफी इजाफा हुआ। इस अवसर पर पीएम ने पुणे में तीन जगहों पर E 100 के वितरण स्टेशनों की एक पायलट परियोजना का भी शुभारंभ किया। तेल कंपनियों को सीधे E-100 बेचने की अनुमति मिल गई है। पेट्रोल में 20% एथेनॉल ब्लेंडिंग (सम्मिश्रण) का लक्ष्य हासिल करने से से देश को महंगे तेल आयात पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी। पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने से पेट्रोल के उपयोग से होने वाले प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी। इसके इस्तेमाल से गाड़ियां 35% कम कार्बन मोनोऑक्साइड का उत्सर्जन करती है। सल्फर डाइऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन का उत्सर्जन भी इथेनॉल कम करता है। इथेनॉल में मौजूद 35 फीसदी ऑक्सीजन के चलते ये फ्यूल नाइट्रोजन ऑक्साइड के उत्सर्जन को भी कम करता है। एथेनॉल मिलावट वाले पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी पेट्रोल के मुकाबले बहुत कम गर्म होती हैं।  कच्चे तेल के मुकाबले  यह काफी सस्ता पड़ेगा। एथेनॉल का इस्तेमाल बढ़ने से किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी और चीनी मिलों को आमदनी बढाने का एक नया जरिया मिलेगा ।

संक्षिप्त में विश्व पर्यावरण दिवस-2021 के अवसर पर हम सब को यह सुनिश्चित करना होगा की जीवन के लिए स्वस्थ पर्यावरण जरुरी है और स्वस्थ पर्यावरण के लिए हमें प्रकृति के साथ मित्रवत व्यवहार करना है प्रकृति प्रदत्त संसाधनों यथा जल, वायु, हवा एवं नाना प्रकार की वनस्पतियों का आवश्यकतानुसार दोहन करना है वर्षा जल का भरपूर संरक्षण करते हुए जल का कुशल उपयोग करना है मृदा एवं जल संरक्षण के लिए पेड़-पौधों से धरती की हरियाली कायम करना है तभी हमारा पारस्थितिकी तंत्र बहाल हो सकता है   

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

धरती माता करे पुकार...अब नहीं सहेंगे अत्याचार

                                                                          डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

खस एक विश्वविख्यात सुगंधित घास : खेती में लागत कम-लाभ अधिक

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)


खस (वेटीवर) घास भारतीय मूल की घनी गुच्छेदार एक बहुवर्षी घास है। इसका वैज्ञानिक नाम वैटिवेरिया जिजेनिओइड्स जो पोयेसी कुल की सदस्य है इसके पौधे  1.5  मीटर (5 फीट) ऊंचे होते है जो चौड़े घेर (clump) बनाते है। इसकी पत्तियां 3 मीटर तक लम्बी एवं 8 मिमी. चौड़ी होती है खस की रेशेदार जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हुई 2 से 3 मीटर तक भूमि की गहराई में चटाईनुमा फैलती हैं। हल्के पीले रंग या भूरे से लाल रंग वाली जड़ों को सुगन्धित तेल उत्पादन के लिए उत्कृष्ट माना जाता है। इसकी पत्तियां पतली लम्बी, सुदृण तथा किनारे पर खुरदुरी होती है। इसका पुष्पक्रम पैनिकल (15 से 30 सेमी. लम्बा) के रूप में जिसके केन्द्रीय कक्ष में अनेक पतले रैसीम का झुंड होता है। इसके स्पाइकलेट भूरे-हरे और बैंगनी रंग के जोड़े में होते है।


बहुत उपयोगी है खस 

खस (वेटीवर)घास के पौधे, जड़ें एवं पुष्पक्रम 

खस (वेटीवर) घास की जड़ों में सुगन्धित वाष्पशील तेल पाया जाता है, जो एक प्रकार का इत्र है। इसके तेल से वेट्रीवरोल, वेट्रीवेरोन एवं वेट्रीवेरिल एसिटेट नामक सुगन्धित रसायन तैयार किये जाते है । जड़ों में  पाए जाने वाले के कारण यह विश्व प्रसिद्ध है। इससे प्राप्त तेल का उपयोग इत्र, साबुन, शर्बत, पान मसाला, खाने की तम्बाकू तथा अनेक सौन्दर्य प्रसाधनों में किया जाता है। खस की तासीर ठंडी होती है इसलिए खस का शरबत गर्मियों में पीने के लिए एक फायदेमंद और बेहतरीन ड्रिंक है। खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए ही नहीं होता, आयुर्वेद जैसी परम्परागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। यह जलन को शान्त करने और त्वचा सम्बन्धी विकारों को दूर करने में प्रयोग किया जाता है।खश की सूखी पत्तियों एवं डंठल का उपयोग  हार्ड बोर्ड बनाने में किया जाता है। खश की जड़ के क्वाथ का इस्तेमाल से ज्वर, सूजन और अपच में लाभ होता है। जड़ों का लेप शिर पर लगाने से शरीर की गर्मी या जलन में आराम मिलता है।

सुगन्धित तेल के अलावा इसकी जड़ों से परदे, चटाईयां तथा पंखे बुने जाते है। गर्मियों में खश की टट्टियाँ तैयार कर कूलर में लगाई जाती है तथा परदे खिड़की दरवाजों में टाँगे जाते है। पानी पड़ने या छिडकने पर शीतल व सुगन्धित हवा प्रदान करती है। इसकी  पत्ती एवं तनों का उपयोग झोपडी बनाने में किया जाता है। इसकी पत्तियों को  कपड़ों में रखने से कीड़े आदि से सुरक्षित रहते है । इसकी हरी मुलायम पत्तियों का उपयोग पशु चारे के रूप में भी किया जाता है।  इसकी सूखी पत्तियों से टोपी, हस्त-बैग, हाँथ के पंखे और बहुत सी शोभाकारी वस्तुए बनाई जाने लगी है खस की  जड़ें  भूमि की गहराई में क्षैतिज रूप से बढ़कर चटाई नुमा संरचना बनाती है जिससे इसके  पौधे भूमि के कटाव रोकने और जल संरक्षण में सहायक होते हैं। खस के पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता अधिक होती है

                                             खस की मांग अधिक उत्पादन कम 

खस (वेटीवर) के तेल की बहुपयोगिता के कारण राष्ट्रिय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसके तेल की अधिक मांग होने के कारण नैसर्गिक रूप से जंगलों व नदी किनारों पर  पैदा होने वाली खश घास का रकबा घटता जा रहा है कम उत्पादन एवं बढती मांग के कारण इसके तेल एवं जड़ों की कीमतें भी बढती जा रही है।  संसार में खस तेल का उत्पादन  लगभग 300 टन होता है जिसमें केवल 20-25 टन तेल भारत में उत्पादित होता है. हमारे देश में खस की खेती राजस्थान, असम, बिहार, उत्तरप्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश राज्यों में  की जाती है, जिनसे केवल 20-25 टन तेल पैदा हो पाता है । वर्तमान में हमारे देश में वेटीवर तेल की खपत 100 टन के आस-पास है जिसमें से 80 प्रतिशत तेल के आपूर्ति आयात के माध्यम से की जाती है उत्तर खस(भारत में उत्पादित होने वाले खस के सुगन्धित तेल की प्रीमियम गुणवत्ता की कीमत अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत अच्छी प्राप्त होती है। कम उत्पादन और बढती मांग के कारण भारत में खस घास की खेती की अपार संभावनाएं है। उपजाऊ, गैर-उपजाऊ अथवा बेकार पड़ी भूमियों और खेत की मेंड़ों पर खस घास का रोपाण कर आकर्षक आमदनी अर्जित की जा सकती है. ग्रामीण नौजवानों के लिए खस की खेती और तेल के आसवन की इकाई एक बेहतर रोजगार और आय अर्जन का सुनहरा व्यवसाय हो सकती है

                  खस (वेटीवर) घास उत्पादन की सस्य तकनीक 


भारत में  ठन्डे इलाकों को छोड़कर सभी प्रदेशों में खस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। खस के पौधों का विकास प्राकृतिक रूप से अथवा खेतों में  1000 से 2000  मि.मी. वार्षिक वर्षा  220 से 420 सेग्रे. तापक्रम एवं मध्यम आर्द्रता  व नम  जलवायु में सफलतापूर्वक उगाये जा सकते है। इसकी जड़ों की उचित बढ़वार के लिए मृदा का  तापक्रम 250 सेग्रे उपयुक्त पाया गया है  वातावरण का तापक्करम 50 सेग्रे से कम होने पर इसकी जड़े सुषुप्ता अवस्था में चली जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी इसे आसानी से लगाया जा सकता है

भूमि का चयन

खस घास के पौधे प्राकृतिक रूप से नदियों के किनारे अथवा दलदली भूमि पर उगते है। खश की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों (जलमग्न, लवणीय, क्षारीय, ऊंची-नीची) में आसानी से की जा सकती है, परन्तु बलुई दोमट भूमि, जिसका पी एच मान 6-8 हो, सर्वोत्तम पायी गई है। चिकनी मृदाओं में जड़ों की खुदाई  में कठिनाई होती है। बलुई दोमट मृदा में जड़ें लम्बी  होती है और इनकी खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है। ग्रीष्मकाल में एक दो बार खेत की गहरी जुताई (20-25 से.मी.)करने से जड़ों का विकास अच्छा  होने के साथ-साथ मृदा  जल संरक्षण होता है एवं खरपतवार नियंत्रित रहते है। पौधों की रोपाई के समय खेत में 1-2 बार कल्टीवेटर से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिट्टी को समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

भारत में खस घास की दो प्रजातियाँ यथा दक्षिण भारतीय खस एवं उत्तर भारतीय खस की खेती की जाती है। उत्तर भारतीय खस से उत्तम गुणवत्ता का सुगन्धित तेल प्राप्त होता है परन्तु इनकी जड़े कम लम्बी होती है।  दक्षिण भारतीय खस घास से जड़ एवं तेल की पैदावार अधिक प्राप्त होती है। दक्षिण भारतीय खस की प्रमुख उन्नत किस्मों में  पूसा हाइब्रिड-8, सीमेप खस.-2, के एच-8, सुगंधा, के एच-40 व ओ डी व्ही-3 व्यापारिक खेती के लिए उपयुक्त है  केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ ने अधिक उत्पादन एवं उच्च गुणवत्ता वाली किस्में विकसित की है। इनमें (i) धारिणी-खश तेल की सुगंध वाली व मृदा संरक्षण के लिए उपयुक्त, (ii)गुलाबी-गुलाब जैसी सुगंध (iii)केसरी-केसर जैसी सुगंध वाली खश की नवीन किस्में है।

पौध रोपण का समय एवं विधि

सिंचित क्षेत्रों में खश की रोपाई फरवरी से लेकर मध्य अक्टूबर तक की जा सकती है परन्तु बेहतर उत्पादन के लिए जुलाई से अगस्त माह का समय सर्वोत्तम रहता है। असिंचित एवं ढालू जमीनों में वर्षात का समय इसकी रोपण हेतु अच्छा रहता है। सिंचित क्षेत्रों में घास की रोपाई के लिए मार्च-अप्रैल का समय सर्वोत्तम रहता है, परन्तु पौध स्थापन हेतु आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना जरुरी है

खश का प्रवर्धन बीज व  वानस्पतिक विधि से किया जा सकता है बीज से अप्रैल-मई में नर्सरी में पौधे तैयार कर दो माह बाद तैयार पौधों को मुख्य खेत में रोपा जाता है। खस की सभी जातियों एवं सभी परिस्थितयों में बीज उत्पादन नहीं होता है। व्यवसायिक खेती के लिए वानस्पतिक विधि अधिक कारगर रहती है। वानस्पतिक विधि अर्थात स्लिप्स से रोपण हेतु इसके 12 माह पुराने पौध झुंडों को सावधानी पूर्वक उखाड़कर उनसे एक-एक कलम  अलग की जाती है इन जड़युक्त कलमों को ही स्लिप्स कहते है प्रत्येक स्लिप  10-15 से.मी. लम्बी स्लिप (जड़युक्त तना), जिनमें 2-3 गांठे होना चाहिए। पर्याप्त जड़ वाला मुलायम तना (स्लिप) रोपाई के लिए अच्छा रहता है।     

पौध झुंड से स्लिप्स को निकालने के बाद इन्हें छाया में रखना चाहिए इनकी ऊपर की पत्तियां काट दें तथा नीचे की सूखी पत्तियों को हटा कर इन पर पानी छिडक देना चाहिये खस घास की स्लिप्स को भूमि में 10 से.मी. की गहराई पर  कतार से कतार   तथा पौध से पौध 60 x 30, 60 x 45  या 60 x 60 सेंटीमीटर की दूरी पर भूमि की उर्वरा शक्ति, सिंचाई की सुविधा तथा किस्म के आधार पर लगाना चाहिए। इस प्रकार  एक हेक्टेयर में 27,800 से लेकर 1,10,000 पौधे स्थापित होने चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद मिट्टी में मिला देने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। मध्यम एवं उच्च उर्वरायुक्त मृदाओं में सामान्यतः खस बिना खाद एवं उर्वरक के उगाई जा सकती है। कम उर्वर या हल्की भूमि  में 50 किग्रा. नाइट्रोजन, 30 किग्रा. फॉसफोरस:20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर  की दर से देना लाभकारी रहता है। खस स्थापन के  दूसरे वर्ष वर्षा प्रारंभ होने के बाद 40 किग्रा नाइट्रोजन का उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन

खस सूखा सह घास है तथा सामान्यतौर में इसकी फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है. रोपाई के समय बेहतर पौध स्थापना हेतु सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पौधे एक माह में पूर्णतः स्थापित हो जाते हैं। रोपाई के बाद वर्षा हो जाने पर सिंचाई की जरुरत नहीं पड़ती है। अवर्षा की स्थिति में  जड़ों के बेहतर विकास के लिए सिंचाई देना लाभकर होता है।

खरपतवार प्रबंधन

खस की रोपाई के बाद 35 से 40 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रखा जाना चाहिए. पौध स्थापित होने के बाद खरपतवार प्रकोप कम होता है। खेत में 1-2  बार निराई एवं गुड़ाई  करने से खरपतवार समाप्त होने के साथ-साथ खस की पौध वृद्धि एवं विकास अच्छा होता है। रोपाई के 4-5 माह बाद पौधों के ऊपरी हरे भाग को जमीन से 20-30 ऊंचाई से काट देने से जड़ों का विकास अच्छा होता है। इसी प्रकार द्वितीय वर्ष घास में फूल आने के पूर्व ऊपर से हरे भाग को काट देना लाभकारी पाया गया है।

जड़ों की खुदाई

खश की जड़ों में तेल पुष्पन काल के बाद बनता है। सामान्यतः खश 18 से 20 माह में खुदाई योग्य हो जाती हैं। पूर्ण विकसित जड़ों की खुदाई नवम्बर से लेकर फरवरी तक की जा सकती है। खुदाई पूर्व पौधों का ऊपरी भाग हंसिया से काट लिया जाता है।  काटे गये ऊपरी भाग को चारे, ईंधन या झोपड़ियाँ बनाने के काम में लाया जाता है।

ऊपरी भाग की कटाई उपरान्त कुदाली या अन्य यंत्र की सहायता से जड़ों को खोद लिया जाता है। खुदाई के समय जमीन में हल्की नमीं रहना आवश्यक है। खुदाई पश्चात् जड़ों को खेत में दो से तीन दिन सुखाने से मिट्टी झड़ जाती है। ट्रैक्टर चालित  मिट्टी पलटने वाले हल से 40 से 45 सेंमी. गहराई तक जड़ों की खुदाई आसानी से  की जा सकती है। औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित ट्रेक्टर चालित खस जड़ खुदाई यंत्र अधिक सुविधाजनक एवं किफायती पाया गया है।

उत्पादन एवं आमदनी

खस घास के तेल उत्पादन की मात्रा रोपाई के समय, किस्म, जलवायु एवं सस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है।  उपजाऊ दोमट व बलुई दोमट मृदा में रोपी गई खस घास की उन्नत किस्मों से 35-40 क्विंटल ताज़ी जड़े प्राप्त हो जाती है जिन्हें छाया में सुखाने के बाद आधुनिक आसवन विधि के माध्यम से 20-30  किग्रा तेल प्राप्त किया जा सकता है। मध्यम उपजाऊ बलुई भूमि से 25-30 क्विंटल जड़े तथा उनसे 15-25 किग्रा तक सुगन्धित तेल प्राप्त  किया जा सकता है। जलमग्न एवं समस्याग्रस्त भूमियों में खस घास एवं तेल का उत्पादन कम होता है। इसकी जड़ों में 0.6 से 0.8 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उन्नत किस्मों की सूखी जड़ों में औसतन 1  प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो जाता है। खस की जड़ों का सुगन्धित तेल का उत्पादन वाष्प आसवन विधि द्वारा किया जाता है। इसकी जड़ों से सामान्यतः तेल निकालने के लिए 14-16 घंटे जड़ों का आसवन करना उपयुक्त रहता है। खुदाई के जड़ों को पानी में धोकर  साफ़ करने के पश्चात  छोटे-छोटे (5-10 से.मी.)टुकड़ों में काट कर छाया में 1-2 दिन तक सुखाया जाता है। जड़ों को धूप में सुखाने पर तेल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। इसके बाद भाप आसवन विधि से तेल निकाला जाता है। स्टेनलेस स्टील से बने आसवन संयंत्र द्वारा उच्च गुणवत्ता का तेल प्राप्त होता है।  तेल को सूखे एवं ठन्डे स्थान पर स्टेनलेस स्टील के पात्रों में भंडारित कर रखना चाहिए अथवा बाजार में बेच देना चाहिए। 

सामान्यतौर पर खस  घास उत्पादन में  50 से 60 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर  लागत आती है। खस घास का तेल बाजार में 25 से 30 हजार रूपये प्रति किलो की दर से बिकता है। खस के पौधों का ऊपरी भाग तथा तेल निकालने के पश्चात इसकी जड़े बेचकर अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है। उचित किस्म एवं सही फसल उत्पादन तकनीक अपनाने पर खस की खेती  से लगभग 1.8 लाख से 2.5 लाख  रुपए प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है। 

खस घास की पत्तियों एवं तनों से आकर्षक हस्त शिल्प जैसे टोकनी, बैग, चटाई आदि बनाकर लाभ कमाया जा सकता है
खस घास से निर्मित हस्त शिल्प वस्तुएं फोटो साभार गूगल 

नोट : 1.खस (वेटीवर) घास  की उन्नत खेती से सम्बंधित अधिक जानकारी एवं उचित दर पर इसकी पौध सामग्री प्राप्त करने  के लिए लेखक से ई-मेल profgstomar@gmail.com के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है

2. लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें