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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

धान अर्थात चावल की वैज्ञानिक खेती कैसे करें ?

                                       

                                                              डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                                                                  प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                  इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

धान का  आर्थिक महत्त्व 

                 धान  (ओराइजा सटाइवा) ग्रेमिनी या पोएसी कुल का महत्वपूर्ण सदस्य हे। खाद्यान्नों में धान का महत्वपूर्ण स्थान है एंव विश्व की जनसंख्या का अधिकांश भाग दैनिक भोजन में चावल का ही उपयोग करता है। चावल हमारी संस्कृति की पहचान है।बिना रोली -चावल के पूजा नहीं होती तथा माथे पर तिलक नहीं लगता। हमारे यहाँ नव -विवाहित जोड़ों पर अक्षत वर्षा की आज भी परंपरा है। विश्व में खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से चावल की फसल का विशेष योगदान है। संसार की 60 प्रतिशत आबादी के भोजन का आधार चावल  ही है। देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या का प्रमुख खाद्यान्न चावल है। धान ही एक ऐसी फसल है जिसे समुद्र तल से नीचे तथा हिमालय की चोटी तक, भूमध्य रेखा के दोनों ओर काफी दूरी तक, गहरे पानी से  लेकर वर्षा आधारित शुष्क क्षेत्रों, विभिन्न तापमान, अम्लीय से क्षारीय भूमियों और सीधी बोआई से रोपाई इत्यादि विभिन्न परिस्थितियों में सुगमता से उगाया जा सकता है।चावल का प्रयोग विभिन्न उद्योगों में भी किया जाता है, क्योंकि इसमें स्टार्च पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।कपड़ा उद्योग में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है।धान के पैरा का प्रयोग जानवरों को खिलाने तथा विभिन्न वस्तुओं की पैकिंग के लिए किया जाता है। धान की कटाई करने के बाद प्राप्त उपोत्पाद जैसे चावल की भूसी आदि का प्रयोग पशु-पक्षियों को खिलाने में किया जाता है।धान की भूसी से तेल भी निकाला जाता है जिसका प्रयोग खाने में किया जाता है। तेल का उपयोग साबुन बनााने में भी होता है।इसके अलावा चावल का प्रयोग शराब निर्माण में किया जाता है। चावल को अधिकांशतः उबालकर भात के रूप में खाया जाता है।इससे भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थ यथा पोहा, मुरमुरा, लाई, आटे की रोटी के अलावा अब बाजार में विविध उत्पाद मिल रहे है। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि धान का हमारी अर्थव्यवस्था और खाद्यान्न सुरक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है।
धान की लहलहाती फसल 

धान उगाने वाले देश व  प्रदेश 
धान गर्मतर जलवायु वाले प्रदेशों में सफलतापूर्वक उगाया जाता  है। विश्व का अधिकांश धान दक्षिण पूर्वी एशिया मेमं उत्पन्न होता है। चीन, जापान, भारत, इन्डोचाइना, कोरिया, थाइलैण्ड, पाकिस्तान तथा श्रीलंका धान पैदा करने वाले प्रमुख देश हैं।इटली, मिश्र, तथा स्पेन में भी धान की खेती विस्तृत क्षेत्र में होती है।भारत में धान की खेती लगभग सभी राज्यों में की जाती है किन्तु प्रमुख उत्पादक प्रदेशों में आन्ध्र प्रदेश, असम, बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश है। धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है तथा प्रदेश के सभी जिलों मंे इसकी खेती बहुतायता में होती है।मध्यप्रदेश में जबलपुर, रीवा, शहडोल, बालाघाट, कटनी आदि जिलों तथा ग्वालियर संभाग के कुछ भागों में धान की खेती प्रचलित है। विश्व के धान पैदावार करने वाले देशों में क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत (43 मि.हे.) प्रथम स्थान पर है परन्तु उत्पादन (129 मि. टन) में द्वितीय स्थान पर है।चावल उत्पादन में चीन (185.5 मि. टन) विश्व में सबसे आगे है जिसका प्रमुख कारण वहाँ के किसानों द्वारा प्रति हेक्टेयर 6017 किग्रा. धान की पैदावार लिया जाना है। धान की औसत पैदावार के मामले में क्षेत्रीय व प्रादेशिक विषमताएँ हैं। असिंचित क्षेत्रों में धान की उत्पादकता जहाँ 2000 किग्रा. प्रति हे. से भी कम आती है, वहीं पंजाब प्रांत के सिंचित क्षेत्रों में 5800 किग्रा. प्रति. हे. तक उत्पादन लिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य (धान का कटोरा) जहाँ बहुतायता क्षेत्र (खरीफ में 3568 हजार हे. व रबी में 162.27 हजार हे.) में धान की खेती की जाती है। यहाँ धान की औसत उपज खरीफ में 1264 किग्रा. तथा रबी में 2405 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के इर्द गिर्द है। म. प्र. में धान की खेती 1.56 मि. हे. उत्पादन 1.46 मि. टन और उत्पादकता मात्र 938 किग्रा/हे. दर्ज की गई। प्रदेश में धान का उत्पादन खरीफ व रबी में क्रमशः 4510.13 और 390.18 हजार टन (2007-08) दर्ज किया गया हैं। अतः राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर धान का उत्पादन बढ़ाने की व्यापक संभावनाएँ विद्यमान हैं। अनुमान है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंत (2011-2012) तक खाद्यान्न उत्पादन 337.3 करोड़ टन तक बढ़ाना होगा जिसमें से 110 करोड़ टन चावल का उत्पादन होना आवश्यक है।

धन के लिए उपयुक्त जलवायु     

           धान एक उष्ण तथा उपोष्ण जलवायु की फसल है। गर्म शीतोष्ण क्षेत्रों में धान की उपज अधिक होती है। धान की फसल को पूरे जीवन काल में उच्च तापमान तथा अधिक आर्द्रता के साथ अधिक जल की आवश्यकता होती है।धान और पानी का गहरा सम्बन्ध है। जहाँ वर्षा अधिक होती है वहीं धान का क्षेत्रफल अधिक होता है। जिन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 140 से.मी से अधिक होती है धान की फसल सफलतापूर्वक उगाई जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों (100 सेमी. से कम) में सिंचाई के साधन होने पर धान की अच्छी उपज ली जा सकती है। पौधों की बढ़वार के लिए विभिन्न अवस्थाओं पर 21-30 डिग्री से ग्रे  तापक्रम की आवश्यकता होती है। फसल की अच्छी वृद्धि के लिए 25 से 30 डिग्री से ग्रे  तथा पकने के लिए 21-25 डिग्री से ग्रे  तापक्रम की आवश्यकता होती है। पौध बढ़वार के समय अधिक आर्द्रता परंतु फसल पकने के समय कम आर्द्रता का होना लाभदायक रहता है। सूर्य के प्रकाश का धान की पैदावार में बहुत महत्व है। अधिक उपज के लिए धूपदार मौसम आवश्यक है। पकते समय 200 घन्टे का प्रकाश होना अनिवार्य है, परन्तु दिन की लम्बाई के प्रति असंवेदन शील किस्में विकसित होने से प्रकाश अवधि का उपज पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है।
धान की  उत्पादकता कम होने के कारण 
                      धान उत्पादक विकसित देशो की तुलना में भारत के किसानो द्वारा ली जा रही धान की औसत उपज काफी कम ही नहीं वरन वह आर्थिक दृष्टि से भी कृषि के द्रष्टिकोण से अलाभकारी हे।मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की जलवायु व मिट्टियाँ धान की खेती के लिए अनुकूल होने के बावजूद भी यहाँ धान की औसत उपज राष्ट्रीय उपज से भी  कम है जिसके प्रमुख कारण है:
1. प्रदेश में 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में धान की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है जो कि वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है।कल्ले फूटने और दाना बनने की अवस्था के समय पानी की कमी से बहुधा सूखा -अकाल जैसी स्थिति निर्मित हो जाती है। इससे औसत उपज कम होती है।
2. प्रदेश के बहुसंख्यक कृषक धान की खेती परंपरागत पद्धति (छिटकवाँ विधि से बोनी, उर्वरकों व पौध संरक्षण विधियों का न्यूनतम प्रयोग) से करते हैं जिससे उन्हें वांछित उत्पादन नहीं मिलता है।
3. धान की उन्नत किस्मों का उत्पादकता में सीधा (15-20 प्रतिशत) योगदान है परंतु प्रदेश में आज भी बडे़ पैमाने पर देशी किस्मों की खेती प्रचलित है जो कि कीट-व्याधियों व सूखा से प्रभावित होती है।
4. प्रदेश में उर्वरक खपत काफी कम है तथा अधिकांश कृषक धान में उर्वरकों की असंतुलित मात्रा का प्रयोग करते हैं।
5. प्रति इकाई धान की उचित पौध संख्या स्थापित न होने से उपज कम मिलती है।
6. खरपतवारों द्वारा धान के पौधों के विकास एंव वृद्धि में बाधा होती है जिससे उपज में भारी गिरावट आती है।
7. धान में अनेक प्रकार के कीट एंव बीमारियों का प्रकोप प्रारम्भिक काल से फसल पकने की अवस्था तक होता रहता है।

धान फसल से अधिकतम पैदावार एसे लें  

भूमि का चयन 

                        धान की खेती के लिए भारी दोमट भूमि सर्वोत्तम पाई गई है। इसकी खेती हल्की अम्लीय मृदा से लेकर क्षारीय (पीएच 4.5 से 8.0 तक) मृदा में की जा सकती है। छत्तीसगढ़ में मुख्यतः चार प्रकार की भूमि भाटा, मटासी, डोरसा, एंव कन्हार पाई जाती है।मटासी भूमि भाटा से अधिक भारी तथा डोरसा भूमि से हल्की होती है तथा धान की खेती के लिए उपयुक्त होती है। डोरसा भूमि रंग तथा गुणों के आधार पर मटासी तथा कन्हार भूमि के बीच की श्रेणी में आती है। इसकी जलधारणा क्षमता मटासी भूमि की तुलना में काफी अधिक होती है। धान की कास्त के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है।कन्हार भूमि भारी, गहरी व काली होती है। इसकी जल धारण क्षमता अन्य भूमि की अपेक्षा सर्वाधिक होती है तथा कन्हार भूमि रबी फसलों के लिए उपयोगी होती है। छत्तीसगढ़ राज्य में लगभग 77 प्रतिशत धान की खेती असिंचित अवस्था (वर्षा आधारित) में की जाती है।

 खेत की तैयारी    
                 ऋगवेद में कहा गया है कि यो ना बपतेह बीजम अर्थात तैयार किये गये खेत में ही बीज बोना चाहिए, जिससे कि भरपूर अन्न पैदा हो। फसल उगाने से पहले विभिन्न यंत्रों की सहायता से खेत की अच्छी तरह से तैयार की जाती है जिससे खेत खरपतवार रहित हो जाएँ। धान के खेत की तैयार शुष्क एंव आर्द्र प्रणाली द्वारा बोने की विधि पर निर्भर करती है। शुष्क प्रणाली में खेत की तैयारी के लिए फसल के तुरन्त बाद ही खेत को मिट्टि पलटने वाले हल से जोत देते हैं। इसके बाद पानी बरसने पर जुताई करते हैं। इस प्रकार भूमि की भौतिक दशा धान के योग्य बन जाती है। गोबर की खाद, कम्पोस्ट या हरी खाद बोआई से पहले प्रारम्भिक जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। 

उन्नत किस्में 

               फसलोत्पादन में उन्नत किस्मों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। धान की उन्नत बोनी किस्मों की उपज क्षमता 8-10 टन प्रति हेक्टेयर है। क्षेत्र की जलवायु, खेतों की स्थिति के आधार पर एंव उनमें उपलब्ध मृदा नमी को  देखते हुए उपयुक्त धान की किस्मों का चयन करना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार धान की उन्नत किस्में  
1. असिंचित ऊपरी भूमि  हेतु अनुशंसित किस्में
भूमि प्रकार किस्म अवधि उपज प्रमुख विशेषताएँ
(दिनों में) (क्वि./हे.)
 हल्की कलिंगा-3 80-90 22-25 मध्यम ऊँचाई, पतला दाना
वनप्रभा 85-95 18-20 उपर्युक्त समान
भारी भूमि आदित्य 85-95 23-25 बौनी, मोटा दाना
तुलसी 100-110 28-30 उपर्युक्त समान
पूर्णिमा 100-110 28-30 बौनी, पतला दाना
दन्तेश्वरी 100-110 28-30 बौनी, पतला दाना
2. असिंचित मध्यम भूमि 
हल्की भूमि पूर्णिमा 100-110 32-35 बौनी, लम्बा पतला दाना
               तुलसी 100-110 32-35 मोटा दाना
               अन्नदा 100-110 33-35 मोटा दाना, सूखा रोधी
               दन्तेश्वरी 100-110 34-35 लम्बा पतला दाना
भारी भूमि   आई.आर-36 115-120 37-40 लम्बा पतला दाना
              आई.आर-64 110-120 38-40 लम्बा पतला दाना
              क्रान्ति 125-130 43-45 मोटा दाना, पोहा हेतु
             महामाया 125-130 44-45 मोटा दाना, पोहा हेतु

3.  असिंचित निचली भूमि हेतु अनुशंसित किस्में 
हल्की भूमि अभया         120-125 32-35 बौनी, गंगई व ब्लास्ट रोग प्रतिरोधी, लम्बा दाना
क्रान्ति         125-130 42-45          बौनी, पोहा एंव मुरमुरा हेतु, मोटा दाना
महामाया      125-130 47-55 गंगई प्रतिरोधी, पोहा हेतु
भारी भूमि सफरी-17        140-145 40-42 ऊँची, बारीक दाना
मासूरी          140-145 38-40 ऊँची, मध्यम बारीक दाना
बम्लेश्वरी      135-140 46-50 बौनी, मोटे दानों वाली
स्वर्णा           140-150 44-45 बौनी, मध्यम दाने                        
4. सिंचित परिस्थितियों हेतु उपयुक्त किस्में 

            आई.आर-36 ,अभया ,आई.आर-64, पूसा बासमती -1 ,क्रान्ति, स्वर्णा .
महामाया ,बम्लेश्वरी ,माधुरी, साली वाहन  आदि।
5. विशेष परिस्थितियों के लिए धान की उपयुक्त किस्में

क्र. परिस्थितियां           उपयुक्त किस्में  
1. गंगई प्रभावित क्षेत्र अभया, महामाया, दन्तेश्वरी, चन्द्रहासिनी, कर्मा मासुरी, सम्लेश्वरी, इंदिरा सोना (सं)
2. ब्लास्ट प्रभावित क्षेत्र अभया, तुलसी, आदित्य, समलेश्वरी, कर्मा मासुरी
3. ब्लाईट प्रभावित क्षेत्र         बम्लेश्वरी
4. करगा प्रभावित क्षेत्र श्यामला, स्वर्णा, महामाया
5. बहरा भूमि         सफरी17, मासुरी, स्वर्णा, बम्लेश्वरी, जलदुबी
6. सूखा प्रभावित क्षेत्र कलिंगा3, अन्नदा, पूर्णिमा, क्रांति, तुलसी, आदित्य
7. सुगधिंत किस्में पूसा बासमती-1, माधुरी, इन्दिरा सुगन्धित-1

मध्यप्रदेश के लिये धान की उपयुक्त किस्मों की विशेषताएँ

किस्म अवधि दाने का प्रकार उपज प्रमुख विशेषताएँ
                     (दिन) (क्विंटल ./हे.)

अति शीघ्र पकने वाली किस्में
कलिंगा-3         75 लंबा पतला 30 ऊँची पतली, सूखारोधी
जे.आर.75 80 मध्यम पतला 30 सूखारोधी
पूर्वा               85 लंबापतला                 30 बौनी,सूखारोधी किस्म
वनप्रभा 95 लंबा पतला 30 ऊँची किस्म, सूखा, झुलसन रोधी
जवाहर-201 100 लंबा पतला 35 बोनी, सूखारोधी
तुलसी 100 लंबा पतला 30 सूखा,तना छेदक, झुलसनरोधी
आदित्य 105 लंबा छोटा 30 बौनी,वर्षा निर्भर खेती हेतु
पूर्णिमा 105 लंबा पतला 30 वर्षा आधारित सीधी बोनी हेतु
अन्नदा 110 छोटा मोटा 35 बौनी, सूखारोधी किस्म
शीघ्र पकने वाली किस्में
जवाहर-353 115 लंबा पतला 35-40 मध्यम ऊँचाई, बारानी खेती
रासी              115 मध्यम पतला 35-40 वर्षा निर्भर खेती के लिये
आई.आर-64 120 लंबा पतला 35-40 रोग प्रतिरोधी सिंचित बंधान युक्त
आई.आर-36 125 लंबा पतला 40-45 रोग प्रतिरोध सिंचित बंधान युक्त
मध्यम समय में पकने वाली किस्में
माधुरी 130 लंबा सुगंधित 35-40 सिंचित बंधान युक्त क्षेत्र
क्रांति 135 मोटा गोल                    50-55 पोहा बनाने हेतु उपयुक्त
पू. बासमती-1 135 लंबा सुगंधित 30-35 सिंचित,बंधान युक्त क्षेत्र
महामाया 140 लंबा मोटा                    50-55 गंगई निरोधक
देर से पकने वाली किस्में
श्यामला 145 लंबा पतला 40-45 बैंगनी रंग, सिंचित क्षेत्र
स्वर्णा 150 लंबा पतला 50-55 बोनी
माहसुरी 150 लंबा पतला 50-55 सिंचित क्षेत्र हेतु।
सफरी-17 155 लंबा पतला 35-40 सिंचित एंव बंधान युक्त क्षेत्र हेतु।
धान की सुगन्धित  किस्में
कस्तूरी: यह किस्म उच्च उपज क्षमता, मिलिंग गुणवत्ता के साथ-साथ झुलसा रोग निरोधक एंव तना छेदक सहनशील है।
तरोरी बासमती: उत्तम गुणवत्ता वाली ऊँची किस्म है।
पूसा बासमती: बोनी किस्म है जिसे पूसा 150 एंव करनाल लोकल के संकरण से निकाला गया है। उच्च उपज उपज क्षमता एंव अच्छे गुणवत्ता वाली होती है।
यामिनी (सी.एस.आर. 30): यह किस्म प्रथम सुगंधित किस्म हैं इसकी उपज सामान्य बासमती किस्मों से 20 प्रतिशत अधिक पाई गई है एंव गुणवत्ता में तरोरी बासमती के समतुल्य है।
पूसा सुगंध -2 (पूसा 2504-1-26): इस किस्म की अवधि 130 दिन है एंव इसकी उपज क्षमता पूसा बासमती से 11 प्रतिशत ज्यादा पाई गई है एंव गुणवत्ता में तरोरी बासमती के समतुल्य हैं। यह किस्म झुलसा रोग के लिए निरोधक है।
पूसा सुगंध -3 (पूसा 2504-1-31): इस किस्म के पकने की अवधि 130 दिन है एंव इसकी उपज क्षमता तुलनात्मक रूम से पूसा बासमती से 17 प्रतिशत ज्यादा पाई गई है एंव झुलसा रोग हेतु सहनशील हैं।

बोआई या रोपाई  सही  समय पर हो  

                   पं. जवाहर लाल ने कहा था -कृषि यानि खेती किसी चीज का इन्तजार नही कर सकती। इसलिए वर्षा प्रारंभ होते ही बोवाई का कार्य प्रारम्भ का देना चाहिये। जून मध्य जुलाई प्रथम सप्ताह तक का समय धान की बोनी के लिए सबसे उपयुक्त रहता है।बोआई में देरी से कीट व्याधियों का प्रकोप व उपज में गिरावट आती है। रोपाई हेतु नर्सरी में बीज की बोआई सिंचाई उपलब्ध होने पर जून के प्रथम सप्ताह में ही कर देना चाहिये क्योंकि जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई मध्य तक की रोपाई से अच्छी उपज प्राप्त होती है। लेही विधि से धान के अंकुरण हेतु 6-7 दिन का समय बच जाता है अतः देरी होने पर लेही विधि से बोनी की जा सकती है।
बीज की मात्रा
अच्छी उपज के लिए खेत और बीज दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है। चयनित किस्मों का प्रमाणित बीज किसी विश्वसनीय संस्था से प्राप्त करें। एक बार प्रमाणित किस्म का बीज बोने के 3 वर्ष तक बदलने की आवश्यकता नहीं होती हैं।बीज में अंकुरण 80-90 प्रतिशत होना चाहिये और वह रोग रहित हो। इस तरह से छाँटा हुआ बीज रोपा पद्धति में 30-40, छिड़का एंव बियासी विधि हेतु 100-120 तथा कतार बोनी में 90-100 तथा लेही पद्धति में 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग किया जाता है। प्रमाणित किस्म के बीज का प्रयोग करने पर नमक के घोल से उपचार  करने की आवश्यकता नहीं होती हैै।

बीज उपचार 

                  खेत में बोआई अथवा रोपाई करने से पूर्व बीज को उपचारित करना आवश्यक है। सबसे पहले बीज को नमक के घोल में डालें। इसके लिए 10 लिटर पानी में 1.6 किलो सामान्य नमक का घोल बनाते हैं और इस घोल में बीज डालकर हिलाया जाता है। भारी एंव स्वस्थ बीज नीचे बैठ जाएँगे और हल्के बीज ऊपर तैरने लगेंगे। हल्के बीज निकालकर अलग कर दे तथा नीचे बैठे भारी बीजों को निकालकर साफ पानी से दो-तीन बार धोएँ व छाया में सुखाएँ। फफूँद एंव जीवाणुनाशक दवाओं के घोल से बीज का उपचार करने से बीजों के माध्यम से फैलने वाले फफूँद एंव जीवाणुजनित रोग फैलने की संभावना नहीं रहती है। इसके लिए बीजों को 2 ग्राम मोनोसाल या थायरम व 2 ग्राम बाविस्टन प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोनी करें। बैक्टीरियल रोगों की रोकथाम के लिये बीजों को 00.02 प्रतिशत स्ट्रेप्तो  साइक्लिन के घोल में डुबाकर उपचारित करना लाभप्रद रहता है।

धान की खेती की पद्धतियाँ 

               धान के लगभग 25 प्रतिशत क्षेत्र में सुनिश्चित सिंचाई की उपलब्धता है तथा लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्र जल-मग्न (जल निकास की सुविधा न होना) एंव शेष भाग में खेती वर्षाधीन है जो उपरभूमि धान के अन्तर्गत आता है। आमतौर पर धान की प्रमुख पद्धतियाँ अग्रानुसार है।
(क) ऊँची मृदाओं में खेती
भारत में धान की खेती प्रमुख विधि उपरिभूमिखेती है। देश कुल कृषि योग्य भूमि के 60 प्रतिशत भाग में अपनाई जाती है। इससे चावल की कुल उपज का 40 प्र्रतिशत भाग प्राप्त होता है। यह पद्धति वर्षा पोषित क्षेत्रों या असिंचित क्षेत्रों में प्रचलित है। इसमें धान की बुआई निम्न विधियों से की जाती है -
1. छिटकवाँ बोवाई 
2. पंक्तियों में बोवाई हल की पीछे या ड्रिल से की जाती है।
3. बियासी पद्धति: छिटकवाँ विधि से बीज बोकर लगभग एक माह की फसल अवस्था में पानी भरे खेत में हल्की जुताई की जाती है।
(ख) निचली मृदाओं में खेती
1. लेह युक्त मृदाओं में खेती: इसमें बुआई दो विधियों से करते हैं-(अ) लेही पद्धति: धान के बीज को अंकुंिरत करके मचाये हुये खेत में सीधे छिटकवाँ विधि से बोवाई और (ब) रोपाई पद्धति: नर्सरी में पौधे तैयार करके  लगभग एक माह बाद खेत मचाने के बाद कतार में पौधे रोपे जाते हैं।
2. लेह रहित मृदाओं में खेती: इसमें बुआई पंक्तियों में अथवा छिटकवाँ विधि (बियासी) से की जाती हैं।
उन्नत खुर्रा बोनी 
अनियमित एंव अनिश्चित वर्षा के कारण किसी-न-किसी अवस्था में प्रत्येक वर्ष धान की फसल सूखा से प्रभावित हो जाती है। अतः उपलब्ध वर्षा जल की प्रत्येक बूँद का फसल उत्पादन में समुचित उपयोग आवश्यक हो गाया है, तभी सूखे से फसल को बचाया जा सकता है। उन्नत खुर्रा बोनी में अकरस जुताई, देशी हल या टैक्ट्रर द्वारा की जाती है। जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित (नारी हल) या टैक्ट्रर चलित सीड ड्रील द्वारा 20 से.मी कतार-से कतार की दूरी पर धान बोया जाता है।नींदा नियंत्रण के लिए अंकुरण के पूर्व ब्यूटाक्लोर या अन्य नींदानाशक का छिड़काव किया जाता है।
बियासी विधि 
                    प्रदेश में लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र में धान की बुवाई बियासी विधि से की जाती है। इसमें वर्षा आरंभ होने पर जुताई कर खेत में धान के बीज को छिड़क कर देशी हल अथवा हल्का पाटा चलाया जाता है। जब फसल करीब 30-40 दिन की हो जाती है तथा खेतों में 8-10सेमी. पानी भर जाता है तब खड़ी फसल में देशी हल चलाकार बियासी करते हैं। बियासी करने के बाद चलाई समान रूप से करना चाहिए। इस विधि से भरपूर उपज लेने के लिए निम्न बातें ध्यान में रखना चाहिए:
1. खेत में जुताई के बाद उपचारित बीज की बोनी करें तथा दतारी हल चलाकर मिट्टि में हल्के से मिला दें जिससे बीज अधिक गहराई पर न जावे एंव अंकुरण भी अच्छी और एक साथ हो सके।
2. स्फुर और पोटाॅश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की 20 प्रतिशत मात्र बोने के समय डालें।
3. नत्रजन की बाकी मात्रा 40 प्रतिशत बियासी के समय, 20 प्रतिशत बियासी के 20-25 दिन एंव शेष 20 प्रतिशत मात्रा बियासी के 40-50 दिन बाद डालें।
4. पानी उपलब्ध होने पर बुवाई के 30-40 दिनों के अंदर बियासी करना चाहिए तथा चलाई बियासी के बाद 3 दिन के अंदर संपन्न करें।
5. बियासी करने के लिए सँकरे फाल वाले देशी हल या लोहिया हल का उपयोग करें ताकि बियासी करते समय धान के पौधों को कम-से कम क्षति पहुँचे।
6. सघन चलाई: धान की खड़ी फसल में बियासी करने से धान के बहुत से पौधे मर जाते हैं, जिससे प्रति इकाई पौधों की संख्या कम रह जाती है। जबकि अधिकतम उत्पादन के लिए बियासी के बाद खेत में पौधों की संख्या 150-200प्रति वर्गमीटर रहना चाहिए। इसके लिए बोए जाने वाले रकबे के 1/20 वें भााग में तिगुना बीज बोये। चलाई करते समय यहाँ से अतिरिक्त पौधों को उखाड़कर खेत के रिक्त स्थानों में रोपें जिससे प्रति वर्गमीटर क्षेत्र में  कम-से-कम 150-200 पौधे स्थापित हो सकें। ऐसा करने के प्रति वर्गमीटर में कम-से-कम 350-400कंसे प्राप्त हो सकते हैं।
उन्नत कतार बोनी 
                    रोपा विधि में पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध न होने तथा बियासी विधि में पौधों के अधिक मर जाने से उत्पादन में कमी होती है, इसलिए धान की कतार में बुवाई करें। इस विधि में बुवाई यंत्रों अथवा देशी हल के पीछे बनी कतारों में सिफारिश के अनुसार उर्वरकों एंव बीज की बुवाई करें। खेतों में अच्छी बतर (ओल) की स्थिति में यंत्रों द्वारा कतार बुवाई आसानी से की जा सकती है। कतार बुवाई हेतु निम्न विधि अपनाते हैं: 
1. अकरस जुताई करें। वर्षा होने के बाद 2-3 बार जुताई करते हैं।
2. तैयार समतल खेत में टैªक्टर चलित सीड ड्रिल, इंदिरा सीड ड्रिल, नारी हल, भोरमदेव या देशी हल के पीछे 20-22सेमी. की दूरी पर कतारों में बीज बोयें।बीज बोने की गहराई 4-5 सेमी. से अधिक न हो।
3. बुवाई के समय सुझाई गई उर्वरकों की मात्रा देवें एंव सीड ड्रिल में दानेदार उर्वरकों का ही उपयोग करें।
4. नत्रजन की 20-30 प्रतिशत मात्रा बोते समय तथा 30 प्रतिशत मात्रा कंसे आते समय (बोने के 30-40दिन बाद) एंव शेष 40 प्रतिशत मात्रा गभोट के 20 दिन पहले (बुवाई के 60-70दिनों बाद) डालना चाहिए। स्फुर व पोटाॅश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कतारों में डालें।
5. कतार बुवाई विधि में नींदा नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। बुवाई के 5 दिनों के अंदर अंकुरण पूर्व नींदानाशी (प्री इमरजेंस हरबीसाइड) का प्रयोग करें। बुवाई के 20-25 दिनों बाद कतारों के बीच निदाई यंत्र से या मजदूरों द्वारा की जानी चाहिए। बुवाई के 30-35 दिनों के अंदर 2,4-डी सोडियम साल्ट 80 डब्ल्यू. पी 0.5 कि.ग्रा. का छिड़काव कतारों के मध्य करें। चैड़ी पत्ती वाले नींदा के नियंत्रण के लिए इथाक्सी सल्फुरान 15 ग्राम सक्रिय तत्व साहलोफाफ बुटाईल 100-120 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर या फेनाक्सीप्राप-पी-इथाइल 90 ग्राम सक्रिय तत्व प्रतिहेक्टेयर छिड़काव करें।
रोपण विधि (ट्रांस्प्लान्टिंग ) 
                इस विधि में धान की रोपाई वाले कुल क्षेत्र के लगभग 1/10 भाग में नर्सरी तैयार की जाती है तथा 20 से 30 दिनों की आयु होने पर खेतों को मचाकर रोपाई की जाती है।सिंचाई की निश्चित व्यवस्था अथवा ऐसे खेतों में जहाँ पर्याप्त वर्षा जल उपलब्ध हो, इस विधि से धान की फसल लगाई जाती है।
रोपणी की तैयारी 
1. खेत की 2-3 बार जुताई कर मिट्टि को भुरभुरी कर लें तथा अन्तिम जुताई के पूर्व 20 गाड़ी (10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से )गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिलाएँ।
2. खेत को समतल कर करीब एक से डेढ़ मीटर चैड़ी, दस से पंद्रह सेन्टीमीटर ऊँची एंव आवश्यकतानुसार लम्बी क्यारियाँ बनाएँ। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 1000 वर्ग मीटर रोपणी पर्याप्त होती है।
3. खेत की ढाल के अनुसार रोपणी में सिंचाई एंव जल निकास नालियाँ बनावें।
4. बनाई गयी क्यारियों मेें प्रति मीटर 40 ग्राम बारीक धान या 50 ग्राम मोटे धान का बीज बीजोपचार के बाद 10 सेंटीमीटर दूरी की कतारों में 2-3 सेंटीमीटर गहरा बोऐं। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 40-50 किलो ग्राम बीज पर्याप्त होता है।यदि अंकुरण 80 प्रतिशत से कम हो तो उसी अनुपात में बीज दर बढ़ावें। क्यारियों में बुवाई के बाद बीज को मिट्टि की हल्की परत से ढँक दें।
5. प्रतिवर्ग मीटर नर्सरी में 10 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 5 ग्राम यूरिया अच्छी तरह मिला दें।
6. नर्सरी में पानी का जमाव न होने दे परन्तु रोपणी की मिट्टि सदैव नम रखें।
7. यदि रोपणी में पौधे नत्रजन की कमी के कारण पीली दिखाई देवें तो 15 से 30 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 7 से 15 ग्राम यूरिया प्रति वर्ग मीटर रोपणी में देवें।
8. रोपाई में विलम्ब होने की संभावना हो तो नर्सरी में नत्रजन की टाप ड्रेसिंग न करें।
9. आवश्यकता होने पर पौध संरक्षण दवाओं का छिड़काव करें। यदि नर्सरी में सल्फर या जिंक की कमी हो तो सिफारिश अनुसार इनकी पूर्ति करें।
10. रोपाई के समय थरहा निकाल कर पौधों की जड़ों को पानी में डुबाकर रखें। रोपणी को क्यारियों से निकालने के दिन ही रोपाई करना उपयुक्त होता है। 
11. रोपणी में यदि खरपतवार हो तो उन्हें निकालने के बाद ही नत्रजन का प्रयोग करें।
धान की रोपाई 
1. यदि हरी खाद लगाई गई हो तो रोपाई के 6-8 दिन पूर्व ही हरी खाद को मिट्टि में हल चलाकर अच्छी तरह से मचाई करें। यदि खेत ऊँचा-नीचा हो तो पाटा चलाकार समतल कर लें। इसी समय उर्वरकों की आधार मात्रा प्रदान करें।
2. रोपाई के पूर्व खेत की अच्छी तरह से मचाई करें। यदि खेत ऊँचा-नीचा हो तो पाटा चलाकार समतल कर लें। इसी समय उर्वरकों की आधार मात्रा प्रदान करें।
3. सामान्य तौर पर धान की रोपणी की उम्र 20 से 30 दिन तक होनी चाहिए। जल्दी पकने वाली धान की रोपाई 20 से 25 दिन के अन्दर करें। मध्यम या देर से पकने वाली किस्मों की रोपणी की उम्र 25 से 30 दिन उपयुक्त होती है।
4. खेत मचाई के दूसरे दिन रोपाई करना ठीक रहता है। यदि रोपाई के समय खेतों में पानी अधिक भरा हो तो अतिरिक्त पानी की निकासी करें।
5. रोपा लगाते समय एक स्थान (हिल)पर 2 से 3 पौधों की रोपाई करें। पौधे सदैव सीधे एंव 2-3 सेमी. गहरे लगावें। कतारों व पौधों के बीच की दूरी 15ग10 या 15ग15 सेमी. शीघ्र पकने वाली किस्मों के लिए और 20ग10 सेमी. मध्यम व देर से पकने वाली जातियों के लिए रखना चाहिए। जहाँ ताउची गुरम (वीडर) का उपयोग करना हो वहाँ 20ग15 सेमी. की दूरी रखना उचित होगा। 
6. पौधे की उम्र 30 दिनों से अधिक हो तो सघन रोपाई कर पौधों की सख्या बढ़ाएँ। निर्धारित मात्रा से 10 प्रतिशतअधिक  नत्रजन का प्रयोग करें।
7. प्रत्येक 3 से 4 मीटर के बाद लगभग 30 सेमी. का रास्ता सस्य कार्य हेतु रखें।
8. धान की मध्यम अवधि की किस्मों का उपयोग करने से धान के बाद संचित मृदा नमी में रबी फसलें भी ली जा सकती है।
धान लगाने की लेही विधि 
                लगातार वर्षा होने अथवा बुवाई में विलम्ब होने से बतर बोनी एंव रोपणी(नर्सरी) की तैयारी करने का समय न मिल सके तो लेही विधि अपनाई जा सकती है।इसमें रोपा विधि की तरह ही खेत की मचाई की जाती है तथा अंकुरित बीज खेत में छिड़क देते है। लेही बोनी के लिए प्रस्तावित समय से 3-4 दिन पूर्व से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर दें। निर्धारित बीज मात्रा को रात्रि में 8-10 घन्टे भिगोना चाहिए। फिर इन भीगे हुये बीजों का पानी निथार का इन बीजों को पक्के फर्श पर रखकर बोरे से ठीक से ढँक देना चाहिये।लगभग 24-30 घंटे में बीज अंकुरित हो जायेगें। अब बोरों को हटाकर बीज को छाया में फैलाकर सुखाएँ। इन अंकुरित बीजों का प्रयोग 4-5 दिन तक कर सकते हैं।बुवाई के समय खेत में पानी अधिक न रखें अन्यथा बोये गये अंकुरित बीजों के सड़ने की संभावना रहती है। खेत में पानी के निकास की व्यवस्था करें तथा यह ध्यान रखें कि यथासंभव खेत न सूखें।

खाद एंव उर्वरक

                धान फसल में खाद एंव उर्वरकों की सही मात्रा का निर्धारण करने के लिए वहाँ फसल चक्र तथा मिट्टी  परीक्षण से प्राप्त परिणामों की जानकारी होना आवश्यक है। पोषक तत्वों का प्रबंधन इस प्रकार करना चाहिए कि मुख्य अवस्था में फसल को भूमि से पोषक तत्वों की आपूर्ति कम न हो। बोआई व रोपाई को अतिरिक्त दौजी निकलने तथा पुष्प गुच्छ प्रर्वतन की अवस्थाओं में भी आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति करना चाहिए। धान की एक अच्छी फसल एक हेक्टेयर भूमि से 150-175 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-30 किलोग्राम फास्फोरस, 200-250 किलोग्राम पोटाश तथा अन्य पोषक तत्वों को ग्रहण करती है।रासायनिक तथा जैविक दोनों ही साधनों का उपयोग पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए करने से भूमि की उर्वरा शक्ति टिकाऊ बनी रहती है साथ ही धान की उपज में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है।
गोबर खाद 
धान की फसल में 5-10 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी गोबर या कम्पोस्ट खाद का उपयोग करने से महँगे रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में 50-60 किलो प्रति हेक्टेयर तक की कटौती की जा सकती है।इसके उपयोग से भूमि के भैतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में सुधार होता है।इससे फसल को मुख्य पोषक तत्वों के साथ-साथ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों की पूर्ति भी धीरे-धीरे होती रहती है।
हरी खाद 
रोपा विधि से लगाये गये धान में हरी खाद के उपयोग में आसानी होती है। इसके लिये सनई ढे़चा का 25 किग्रा. बीज प्रति हे. की दर से रोपाई के एक माह पूर्व मुख्य खेत में बोना चाहिए। रोपाई से पहले खेत में मचैआ करते समय खड़ी फसल को मिट्टि में अच्छी तरह मिला दें। हरी खाद के प्रयोग से 50-60 किग्रा. प्रति हे. उर्वरकों की बचत की जा सकती है।

उर्वरक देने का समय व विधि 

               स्फुर व पोटाश की पूर्ण मात्रा बुवाई या रोपाई के समय देना चाहिए। यदि बुवाई, बियासी या रोपाई के समय आधार खाद के रूप में स्फुर व पोटाश नहीं डाला गया हो या सिफारिश की गई मात्रा की आधी डाली हो तो पूरी उर्वरक की मात्रा या शेष आधी बियासी या रोपाई के 20-30 दिन के अंदर (खेत में 3-5 सेमी. जल होने पर) देना चाहिए। धान के खेत में नत्रजन विभाजित मात्रा (दूसरी सारणी के अनुसार ) में देना चाहिए।इससे नत्रजन का अच्छी तरह से उपयोग हो सकेगा। 
  धान की फसल के लिए मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा (किग्रा. हे.)
क्र. धान की अवधि (दिनों में) नत्रजन स्फुर पोटाश
1. 80-100    40-60 20-40 10-15
2. 101 से 125(बौनी किस्में) 60-80 30-40 15-20
3. 126 से 140    80-100 40-50 20-25
4. 141 से अधिक दिन 
बौनी किस्में     80-100 40-50 20-25
ऊँची किस्में     40-60 20-30 10-15
असिंचित अवस्था में जल उपलब्धता के अनुसार उर्वरकों की संस्तुत मात्रा को 20-30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। यदि हरी एंव जैविक खाद का उपयोग किया गया है तो 20-25 प्रतिशत नत्रजन का उपयोग कम किया जा सकता है।
धान में नत्रजन देने का समय
फसल की अवस्था धान पकने की अवधि
                          शीघ्र तैयार होने वाली मध्यम अवधि          देर से तैयार होने वाली
                         नत्रजन(%) उम्र(दिन)          नत्रजन(%) उम्र(दिन)           नत्रजन(%) उम्र(दिन)
बियासी विधि
1. बुवाई 0            0                   10-20           0                    0              0
2. बियासी 30            20                  30-40     25-30                   25      25-30
3. कंसे 45 35-45 20         40-50                   40       45-75
4. प्रारंभिक गभोट 25 50-60 20-30      60-70                   35       65-75
कतार बोनी
1. बुवाई 30 0 20            0                        25          0
2. कंसे 45 35-45 50 40-50                     40      45-55
3. प्रारंभिक गभोट 25 50-60 30 60-70                     35      65-75
रोपाई विधि
1. रोपाई - - 30 20-25                    25       20-25
2. कंसे - - 40 40-50                    40       45-55
3. प्रारंभिक गभोट      - - 30 60-70                    35       65-75

नत्रजन उपयोग दक्षता  बढ़ाने के उपाय 

              नत्रजनयुक्त उर्वरकों में किसान यूरिया का प्रयोग ही करते हैं। धान के खेत में जलभराय के कारण यूरिया की क्षमता नाइट्रीकरण, विनाइट्रीकरण एंव वाष्पीकरण के कारण कम हो जातती है। यूरिया से प्राप्त अमोनिकल नाइट्रोजन का ह्यस कम करने तथा नाइट्राइट बनने से रोकने के हल्की गीली मिट्टि 6 भाग को, एक भाग यूरिया के साथ मिलायें। मिट्टि सूखी हो तो बारीक कर यूरिया मिलायें व पानी छिड़ककर हल्का गीला करें एंव इस मिश्रण को 2-3 दिन तक छाँव में रखें। इससे यूरिया की नत्रजन अमोनियम में बदल जाती है और कुछ हद तक नत्रजन का स्थिरीकरण हो जाता है। अधिक वर्षा होने या ज्यादा पानी भरे खेतों में डालने से नत्रजन का खेत में रिसाव द्वारा नुकसान नहीं हो पाता जिससे नत्रजन की उपलब्धता अधिक समय तक बनी रहती है।अधिक पानी भरे खेत में या लगातार वर्षा के समय यूरिया नहीं डालना चाहिए।
मिट्टि के मिश्रण से उपचारित यूरिया के अलावा नीम की खली व कोलतार मिश्रण से भी यूरिया को उपचारित कर इसकी उपयोग दक्षता बढ़ाई जा सकती है। नत्रजन की सम्पूर्ण मात्रा उपचारित यूरिया के द्वारा आधार खाद के रूप में दें। सावधानी के लिए 80 प्रतिशत उपचारित यूरिया खेत की आखरी मचाई के बाद डाले व पाटा लगाकर रोपाई करे तथा बियासी विधि में उपचारित यूरिया चलाई के बाद दें। शेष 20 प्रतिशत यूरिया 25-40 दिन के बाद उपयोग करें।कन्हार एंव डोरसा मिट्टि में इस तरीके से नत्रजन की क्षमता बढ़ जाती है। हल्की मिट्टियों में यूरिया 3 से 4 भागों में विभाजित कर डालें।
बड़े कारगर है सूक्ष्म पोषक तत्व 
देश की अधिकांश धनहा मिट्टियों में जस्ते की कमी के लक्षण दिखते हैं जैसे खेत में कहीं-कहीं फसल की बढ़वार रूक जाना। निचली पत्तियों में शिराओं के बीच पीला पड़ जाना एंव अधिक पीला पड़ने पर अग्रभाग में भूरे धब्बे दिखाई देना। इससे बीच की पत्तियों का रंग लाल-भूरा हो जाता है जो कि तनों तक फैल जाता है।जस्ते की कमी को दूर करने के लिए धान के बीच को 2.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट के घोल में 10 घंटे या रात भर पानी में भिगोकर रखें। इसके लिए 20 लीटर पानी में 500 ग्राम जिंक सल्फेट का घोल प्रयोग करें अथवा 1000 वर्ग मीटर रोपणी में 2.5 किलोग्राम जिंक सल्फेट बुवाई के पहले मिट्टि में मिला देना चाहिए। छिड़कवाँ या कतार बोनी विधि से बोए गए धान में 25 किलोग्राम/हेक्टेयर के हिसाब से जिंक सल्फेट खेत की तैयारी या बियासी के समय देना लाभकारी पाया गया है।  
धान की खड़ी फसल में भी जस्ते का छिड़काव किया जा सकता है। एक किलो जिंक सल्फेट को 190 लीटर पानी में घोलें। इसके बाद 500 ग्राम चूने को 10 लीटर पानी में मिलाकर 15 मिनट तक पानी को स्थिर होने पर ऊपर के साफ पानी को जिंक सल्फेट के घोल में मिलाकर छिड़काव करें।
धान की बेहतर उपज के लिए जैविक उर्वरको का उपयोग 
धान में जैविक उर्वरक जैसे नील हरित काई, एजोस्पाइरिलम एंव पी. एस. बी. कल्चर आदि का प्रयोग लाभकारी होता है।
1. नील हरित काई: नील हरित काई धान फसल के लिये प्रकृति प्रदत्त अमूल्य जैविक खाद है। इसका उपयोग प्रायः धान के उन खेतों में करें, जिनमें पानी भरा रहता है।इससे लगभग 25 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब सेधान की फसल को मिलती है जिससे लगभग 50-60 कि.ग्रा. यूरिया खाद की बचत हो जाती है।साथ-ही-साथ लगभग 10 क्विंटल कार्बनिक पदार्थ प्रति हेक्टेयर भी प्राप्त होता है, जो पूरे फसल चक्र के लिये मृदा में अनुकूल सुधार करता है।
धान की रोपाई अथवा बियासी और चलाई के 5-6 दिन बाद 5-8 सेमी. खड़े एंव स्थिर पानी में 10 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से नील हरित क्रांति कल्चर का छिड़काव करें। खेत का पानी बहकर बाहर न जाये,इसका प्रबंध  कल्चर छिड़काव के पहले ही कर लें। स्फुर तथा सूर्य के प्रकाश की पर्याप्त उपलब्धता नील हरित काई की वृद्धि में बहुत अधिक सहायक होती है। नील हरित काई में एनाबीना, नोस्टाक, रिबूलेरिया, केलोथ्रिक्स, साइटोनेमा जाति की ऐसी प्रजातियाँ, जिनमें हेटेरोटिस्ट कोशाओं की संख्या अधिक हो,से बना कल्चर फसलों के लिये ज्यादा लाभदायक होता है, क्योकि ऐसी प्रजातियाँ प्रायः वायुमण्डलीय नत्रजन की अधिक मात्रा एकत्र करती हैं।
2.एजोस्पाइरिलम: यह असहजीवी जीवाणु मृदा में स्वतंत्र रूप से निवास करते हुए वायुमण्डलीय नत्रजन को इकट्ठा कर पौधों देता है। यह कल्चर उन फसलांें के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है, जिनहें जल भराव वाली या अधिक नमी युक्त भूमि में उगाया जाता है। शोध परिणामों से यह देखा गया है कि एजोस्पाइरिलम के प्रयोग से 10 प्रतिशत तक धान फसल की उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
3. स्फुर घोलक जीवाणु (पी. एस. बी.) कल्चर: स्फुरधारी उर्वरकों का प्रायः 5 से 25 प्रतिशत भाग ही पौधे उपयोग कर पाते है, शेष मात्रा मृदा में अघुलनशील अवस्था में रहती है जो पौधों के लिये अनुपयोगी हो जाती है। स्फुर घोलक जीवाणु कल्चर अघुलनशील स्फुर को घोलकर पौधे को उपलब्ध कराने की क्षमता रखता है। इसके प्रयोग से लगभग 60-70 कि.ग्रा. तक सिंगल सुपर फाॅस्फेट बचाया जा सकता है या 3 से 7 प्रतिशत तक फसल की उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
उतेरा फसल पद्धति में उर्वरक उपयोग: असिंचित अवस्था में धान के खेत में उतेरा फसल लेने का प्रचलन है। धान की खड़ी फसले में कटाई के 15-20 दिन पहले उतेरा के रूप में तिवड़ा, बटरी, अलसी, चना, मसूर, उड़द, आदि फसलों की बोआई की जाती है। जिन क्षेत्रों में यह पद्धति अपनाई जाती है वहाँ धान की फसल में निर्धारित उर्वरकों के अलावा 20 किग्रा. स्फुर प्रति हेक्टेयर का उपयोग करना फायदेमंद रहता है।

धान फसल के असली दुष्मन :खरपतवार 


खरपतवार वे पौधे हैं, जों बिना चाहे खेत में फसल के साथ उगते हैं। धान के खेतों में मुख्यतः सांवा, मोथा, दूब, कनकउआ, करगा(जंगली धान) आदि खरपतवार बहुआ उग आते है जो कि फसल के साथ पोषक तत्वों, नमी, प्रकाश, एंव स्थान हेतु प्रतिस्पर्धा कर फसल को कमजोर कर देते हैं जिससे उत्पादन व गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऊँची भूमि वाले धान (बियासी और कतार बोनी) में 30-90 प्रतिशत, निचली एंव जलमग्न भूमि(लेही में) 30-50 प्रतिशत तथा रोपा पद्धति में 15-20 प्रतिशत उपज में क्षति खरपतवारों द्वारा होती है। समय पर नींदा नियंत्रण से धान की पैदावार में बढोत्तरी की जा सकती है।

धान की विभिन्न पद्धतियों में खरपतवार नियंत्रण

             धान की उपज पर खरपतवारों के प्रतिकूल प्रभाव को समाप्त करना अथवा कम-से-कम करना ही खरपतवार नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य है। खरपतवार रहित वातावरण उत्पन्न करने धान की विभिन्न अवस्थाओं या बोने की विधि के अनुसार खरपतवार नियंत्रण किया जाना चाहिए।
नर्सरी: बतर स्थिति में थरहा (नर्सरी )डालने के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प 1-1.5 कि./हे. या आक्साडार्यजिल 70-100 ग्राम/हे. या प्रिटिलाक्लोर +सेफनर 500 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें।
कतार बोनी: अकरस (सुखे खेत  में ) जुताई करें। वर्षा होने पर वर्षा के 5-6 दिन बाद फिर जुताई करें तथा बतर (ओल) आने पर कतार में धान की बुवाई करें। बुवाई के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर या पेण्डीमेथीलिन या थायाबेनकार्प 1-1.5कि./हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें। बुआई के 30-35 दिन बाद कतारों के बीच पतले हल द्वारा जुताई करें या हाथ से निदांई करें। धान का अंकुरण होने के 14-20 दिन में यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप अधिक हो तो फिनाक्साप्राप या फिनाक्साप्राप या साहलोफास 80 ग्राम/हे. तथा चैडी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये इथाॅक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का उपयोग किया जा सकता है।
बियासी विधि: इस पद्धति में धान की बुवाई दो परिस्थितियों में की जाती है (1) वर्षा से पहले  जमीन तैयार कर सूखे खेत में ही धान का छिड़काव कर हल द्वारा जमीन में मिलाया जाता है। छत्तीसगढ़ में अधिकतर क्षेत्र में धान इसी पद्दति से लगाया जाता हे। (2) वर्षा आरंभ होने पर जमीन की तैयारी कर बतर की स्थिति में बीज की बुवाई की जाती है। अतः जब बुवाई सूखी भूमि में की जाती है तब प्रथम वर्षा के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प 1-1.5 कि./हे. या प्रिटीलाक्लोर $ सेफनर 500-700 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव भूमि में नमी रहते करें। बतर स्थिति में बुवाई किये गये धान में बोने के 3-4 दिन के अंदर उपरोक्त शाकनाशियों में से किसी एक छिड़काव करेें। चलाई करते समय खरपतवारो को जमीन में दबा दें। आवश्यकतानुसार बियासी से 25-30 दिन बाद एक बार हाथ से निंदाई कर सकते हैं।
रोपा विधि: अच्छी मचाई तथा खेत में पानी रखना खरपतवार प्रकोप कम करने मेें सहायक होता है। रोपा लगाने के 6-7 दिन के अंदर एनीलोफाॅस 400-600 मि.ली. प्रति हेक्टेयर या ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प या पेण्डीमेथालीन 1-1.5 कि./हे. सक्रिय तत्व का प्रयोग करे। धान अंकुरण होने के 14-20 दिन मं यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये इथाक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. या क्लोरिम्यूरान $ मेटासल्फयूरान 4 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें। खरपतवार नियंत्रण होता है वरन भूमि में इस समय डाले गये उर्वरक मुख्यतः नत्रजन की उपलब्धता धान के पौधे को ज्यादा मात्रा में होती है। यदि तावची गुरमा न हो हाथ से निंदाई करे।
लेही पद्धति: लेही पद्धति में जिस तरह से रोपा लगाने के पहले भूमिकी तैयारी की जाती है, उसी तरह इस पद्धति में भी खेत की मचाई करे। भूमि में बहुत हल्का पानी रखे व अंकुरित बीज का छिड़काव करे। लेही डालने के 8-10 दिन बाद ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प 1-1.4 कि./हे.या एनीलोफास 400-600 मि.ली./हे. या 20 बाद क्लोरिम्यूरान + मेटासल्फयूरान 4 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें। लेही डालने के 30से 35 दिन बाद बियासी करना उत्तम होता है तथा बियासी के 3 दिन के अंदर चलाई अवश्य करें।
करगा नियंत्रण: प्रमाणित बीजों का उपयोग करे। करगा प्रभावित खेतों में बैंगनी पत्ती वाली किस्मों के धान (श्यामला) की खेती लगातार दो या तीन वर्ष करे। करगा छँटाई कम-से-कम 3 बार करे। खेतों के पास गड्ढ़ों अथवा तालाबों में लगे पसहर धान (जंगली) के पाधों का उन्मूलन करना भी आवश्यक है। 

धान में आवश्यक है सही जल प्रबंधन 

                धान फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। धान की फसल में वर्षा न होने या कम होने पर जब मृदा में नमी संतृप्त अवस्था से कम होने लगे (मिट्टि में हल्की दरार पड़ने लगे) तो सिंचाई करना आवश्यक रहता है। जल माँग भूमि के प्रकार, मौसम, भू-जल स्तर तथा किस्मों की अवधि पर निर्भर करता है। भारी से हल्की मिट्टि में लगभग 1000 मिमि. से 1500 मिमि. तक पानी लगता है। जल आवश्यकता बढ़ाने में मुख्य रूप से निचली सतहों तक रिसने वाले जल का अधिक योगदान है जो मृदा की किस्म तथा मौसम पर निर्भर करता है। यह हानि कुल आवश्यक जल करीब 30-50 प्रतिशत तक होता है।वर्षाकाल में जल की पूर्ति वर्षा से हो जाती है। वर्षा शीघ्र समाप्त होने पर सिंचाई जल की आवश्यकता पड़ती है। धान कुल जल आवश्यकता का लगभग 40प्रतिशत भाग बीज अंकुरण से कंसा बनने की अवस्था तक, 50 प्रतिशत गर्भावस्था से दूध भरने तक तथा 10 प्रतिशत फसल के पक कर तैयार होने तक लगता है। सबसे अधिक जल का उपयोग कुल जल आवश्यकता का लगभग 25 प्रतिशत गभोट अवस्था में होता।धान में कंसा विकास,गभोट, फूल आने और दाना बनते समय खेत में पानी की कमी हाने से उत्पादन प्रभावित होता है।
असिंचित धान फसल में जल प्रबंधन 
                छिटकवाँ या कतार विधि से धान की बोनी करने के बाद जब पौधे बढ़कर लगभग 5 सेमी. हो जाये तब खेत की मुही बाँधकर उसमें छापल या हल्का (1-3 सेमी.) जल स्तर रखें जिससे खरपतवार अधिक न पनपे व धान की बाढ़ पर भी विपरीत प्रभाव पड़े। पौधे जैसे-जैसे बढ़ते हैं पानी का स्तर 5-7 सेमी. तक बढ़ाये जायें एंव ध्यान रखें कि धान के पौधे पानी में न डूबे। जब धान 25-30 दिन की हो जाय तो भरे हुए पानी का उपयोग बियासी के लिए करें तथा ज्यादा पानी न भरें। कंसा अवस्था खत्म होने पर गभोट की अवस्था शुरू होती है। इस समय खेत की मुही बाँधकर 8 से 10 सेमी. वर्षा जल संग्रहण करें। अधिक वर्षा होने पर खेतों से अतिरिक्त पानी की निकासी करते रहें। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में डबरियों में जल संग्रहण का कार्य अवश्य करें तथा इस पानी का उपयोग आवश्यकतानुसार बियासी तथा बाद की सिंचाई के लिए किया जा सकता है।असिंचित अवस्था में भी थरहा पद्धति अपनाई जा सकती है। तैयार खेतों में रोपणी डालने का कार्य शीघ्र करें। जहाँ रोपा लगाना है उन खेतों को जोतकर पानी संग्रह करें। थरहा तैयार होने पर खेत को मचाकर थरहा लगावें तथा बोता धान में बियासी की तरह जल प्रबंध करना चाहिए।  
रोपा विधि में जल प्रबंधन 
                  रोपा लगाने के समय मचाये गये खेत  में 1-2सेमी.से अधिक पानी न रखें कि रोपा लगाने के बाद मचाया हुआ  खेत सूखने न पावे। रोपाई के बाद एक सप्ताह तक खेत में पानी का स्तर 1-2सेमी. से रोपित पौधे जल्दी स्थापित हो जाते है। पौधे स्थापित होने के बाद कंसे फूटने की अवस्था पूर्ण होने तक उथला जल स्तर 5-7सेमी. तक बनाये रखें। अधिक वर्षा होने पर 5-7 सेमी. से अधिक जल को खेत से निकाल देना चाहिए।
देशी (ऊँची) किस्म की धान में कंसे फूटने की अवस्था पूर्ण होने से लेकर गभोट की अवस्था या बाल निकलने की अवस्था तक उथला जल स्तर 5-7 सेमी. रखें। बालियाँ निकलने के बाद खेत में उथला जल स्तर या खेत को पूर्ण रूप से गीली अवस्था में रखा जा सकता है। गभोट की अवस्था से दाना भरने की अवस्था तक पानी की कमी नहीं होनी चाहिये। कमी होने पर सिंचाई करें।
जल निकास 
खेतों में पानी बहता रहे तो जल निकास आवश्यक नहीं है। अगर खेतों का पानी स्थिर है और काफी समय से रूका हुआ है तो पूर्ण कंसे निकलने की अवस्था के बाद और फूल आना समाप्त होने के तुरंत बाद जल निकास लाभदायक होता है। जल निकास के बाद खेत को सूखने न दें तथा सिंचाई द्वारा फिर पानी भर दें।

फसल चक्र 

                   किसी निश्चित भूखण्ड पर एक निश्चित अवधि तक फसलों को इस तरह हेर-फेर कर उगाना, जिससे भूमि की उर्वरा-शक्ति का ह्यस न हो, फसल चक्र या फसल-क्रम कहलाता है। वैदिककालीन कृषकों को भी यह भली-भाँति मालूम था, कि फसलों को उदल-बदलकर चक्रीय क्रम में उगाने से मृदा की उर्वरता में अभिवृद्धि होती है। वैसे तो सुनिश्चित सिंचाई तथा अनुकूल तापमान पर वर्ष में धान की 2-3 फसलें आसानी से ली जा सकती है  परन्तु लगातार धान उगाते रहने से भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होने के साथ-साथ विशेष प्रकार के घास-पात, कीट-बीमारियों से फसल ग्रसित हो जाती है जिससे उपज व गुणवत्ता में कमी आने लगती है। इसलिए फसलों को हेर-फेर कर बोने से भूमि एंव किसान दोनों को ही फायदा होता है। धान के फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश एंव फसल अवशिष्टों को मिट्टि में मिलाना आदि पहलुओं पर ध्यान देना अति आवश्यक है। जहाँ सिंचाई की सुविधाँ है, वहाँ धान के साथ अन्य फसलें उगाई जा सकती हैं। अतः गेहूँ , आलू , तोरिया, बरसीम, गन्ना, सूर्यमुखी आदि को सफलतापूर्वक सघनता के साथ उगाया जा सकता है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में, जहाँ जल निकास सुविधाएँ तथा भूमि की जल-धारण क्षमता अच्छी है, वहाँ धान के बाद दलहनी फसलों जैसे चना एंव मसूर का समावेश जल-धारण क्षमता अच्छी है, वहाँ धान के बाद दलहनी फसलों जैसे चना एंव मसूर का समावेश किया जा सकता है। प्रदेश में खेत की परिस्थिति के अनुसार निम्न फसल चक्र अपनाये जा सकते हैं।

कटाई कब और कैसे 

                  धान की विभिन्न किस्में लगभग 100-150 दिन में पक जाती हैं।बालियाँ निकलने के एक माह पश्चात् धान पक जाता है। जब दाने कड़े हो जायें तो फसल काट लेना चाहिए। दाने अधिक पक जाने पर झड़ने लगते है और उनकी गुणवत्ता में दोष आ जाता है। फसल काटने के 1-2 सप्ताह पूर्व खेत को सूखा लेना चाहिए जिससे पूर्ण फसल एक समान पक जाय। कटाई हैसिये या शक्तिचालित यंत्रों द्वारा की जाती है।
धान के बंडलों को खलियान में सूखने के लिए फैला देते हैं और बैलों द्वारा मडाई करते हैं।तत्पश्चात् पंखे की सहायता से ओसाई की जाती है। पैर से चलाया जाने वाला जापानी पैडी थ्रेसर का प्रयोग भी किया जाता है।
उपज एंव भंडारण: धान की देशी किस्मों से 25-30 क्विंटल /हे. छिटकवाँ धान से 15-20 क्विंटल ./हे. तथा धान की बौनी उन्नत किस्मों से 50-80 क्विंटल /हे. उपज प्राप्त की जा सकती है।धान को अच्छी तरह धूप में सूखा लेते हैं तथा दोनों में 12-13 प्रतिशत नमी पर हवा व नमी रहित स्थान पर भंडारण किया जाना चाहिए। धान को कूटकर चावल तैयार किया जाता है। धान कूटने वाले यंत्र को  पावर राइस हलर कहते हैं।इससे 66-67 प्रतिशत चावल प्राप्त होता है।जबकि हाथ से कूटने पर 70 प्रतिशत चावल प्राप्त होता है। प्रायः छिलके और चावल का अनुपात 1:2 का होता है।

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