डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
मक्का के विविध उपयोग
प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
मक्का के विविध उपयोग
मक्का विश्व की एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है। मक्का में विद्यमान अधिक उपज
क्षमता और विविध उपयोग के कारण इसे खाधान्य फसलों की रानी कहा जाता है।
पहले मक्का को विशेष रूप से गरीबो का मुख्य भोजन माना जाता था परन्तु अब
ऐसा नही है । वर्तमान में इसका उपयोग मानव आहार (24 %) के अलावा कुक्कुट
आहार (44 % ),पशु आहार (16 % ), स्टार्च (14 % ), शराब (1 %) और बीज (1 %)
के रूप में किया जा रहा है । गरीबों का भोजन मक्का अब अपने पौष्टिक गुणों
के कारण अमीरों के मेज की शान बढ़ाने लगा है। मक्का के दाने में 10 प्रतिशत
प्रोटीन, 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 4 प्रतिशत तेल, 2.3 प्रतिशत क्रूड
फाइबर, 1.4 प्रतिशत राख तथा 10.4 प्रतिशत एल्ब्यूमिनोइड पाया जाता है।
मक्का के में भ्रूण में 30-40 प्रतिशत तेल पाया जाता है। मक्का की प्रोटीन
में जीन प्रमुख है जिसमें ट्रिप्टोफेन तथा लायसीन नामक दो आवश्यक अमीनो
अम्ल की कमी पाई जाती है। परन्तु विशेष प्रकार की उच्च प्रोटीन युक्त मक्का
में ट्रिप्तोफेंन एवं लाईसीन पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है जो गरीब
लोगो को उचित आहार एवं पोषण प्रदान करता है साथ ही पशुओ के लिए पोषक
आहार है । यह पेट के अल्सर और गैस्ट्रिक अल्सर से छुटकारा दिलाने में
सहायक है, साथ ही यह वजन घटाने में भी सहायक होता है। कमजोरी में यह बेहतर
ऊर्जा प्रदान करता है और बच्चों के सूखे के रोग में अत्यंत फायदेमंद है। यह
मूत्र प्रणाली पर नियंत्रण रखता है, दाँत मजबूत रखता है, और कार्नफ्लेक्स
के रूप में लेने से हृदय रोग में भी लाभदायक होता है।मक्का के स्टीप जल में
एक जीवाणु को पैदा करके इससे पेनिसिलीन दवाई तैयार करते हैं।
अब मक्का को कार्न, पॉप कार्न, स्वीट कॉर्न, बेबी कॉर्न आदि अनेको रूप
में पहचान मिल चुकी है । किसी अन्य फसल में इतनी विविधता कहां देखने को
मिलती है । विश्व के अनेक देशो में मक्का की खेती प्रचलित है जिनमें
क्षेत्रफल एवं उत्पादन के हिसाब से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, चीन और
ब्राजील का विश्व में क्रमशः प्रथम, द्वितिय एवं तृतीय स्थान है । पिछले
कुछ वर्षो में मक्का उत्पादन के क्षेत्र में भारत ने नये कीर्तिमान
स्थापित किये है जिससे वर्ष 2010-11 में मक्का का उत्पादन 217.26 लाख टन
के उच्च स्तर पर पहुंच गया है एवं उत्पादकता 2540 किग्रा. प्रति हैक्टर
के स्तर पर है जो वर्ष 2005-06 की अपेक्षा 600 किलोग्राम . अधिक है । यही
वजह है कि मक्का की विकास दर खाद्यान्न फसलो में सर्वाधिक है जो इसकी
बढ़ती लोकप्रियता को दर्शाती है । भारत में सर्वाधिक क्षेत्रफल में मक्का
उगाने वाले राज्यो में कर्नाटक, राजस्थान एवं आन्ध्र प्रदेश आते है जबकि
औसत उपज के मान से आन्ध्र प्रदेश का देश में सर्वोच्च (4873 किग्रा.
प्रति हैक्टर) स्थान रहा है जबकि तमिलनाडू (4389 किग्रा) का द्वितिय और
पश्चिम बंगाल तृतीय (3782 किग्रा.) स्थान पर रहे है । छत्तीसगढ़ के सभी
जिलो में मक्के की खेती की जा रही है वर्ष 2009-10 के आँकड़ों के हिसाब से
प्रदेश में 171.22 हजार हेक्टेयर (खरीफ) और 15.59 हजार हेक्टेयर में (रबी)
मक्का बोई गई जिससे क्रमशः 1439 व 1550 किग्रा. प्रति हेक्टेयर ओसत उपज
दर्ज की गई।
मक्का की उपज बढाने के वैज्ञानिक तरीके
भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी
मक्का की खेती लगभग सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमियों में की जा सकती है
परन्तु अधिकतम पैदावार के लिए गहरी उपजाऊ दोमट मिट्टी उत्तम होती है,
जिसमे वायु संचार व जल निकास उत्तम हो तथा जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में
हों। मक्का की फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 के मध्य ( अर्थात
न अम्लीय और न क्षारीय) उपयुक्त रहता हैं। जहाँ पानी जमा होने की
सम्भावना है वहाँ मक्के की फसल नष्ट होने की सम्भावना रहती है । खेत में 60 से.मी के
अन्तर से मादा कूंड पद्धति से वर्षा ऋतु में मक्का की बोनी करना लाभदायक
पाया गया है।
भूमि की जल व
हवा संधारण क्षमता बढ़ाने तथा उसे नींदारहित करने के उद्देश्य से
ग्रीष्म-काल में भूमि की गहरी जुताई करने के उपरांत कुछ समय के लिये छोड़
देना चाहिए। पहली वर्षा होने के बाद खेत में दो बार देशी हल या हैरो से
जुताई करके मिट्टी नरम बना लेना चाहिए, इसके बाद पाटा चलाकर कर खेत समतल
किया जाता है। अन्तिम जोताई के समय गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिट्टी में
मिला देना चाहिए ।
उन्नत किस्में
संकर
किस्में: गंगा-1, गंगा-4, गंगा-11, डेक्कन-107, केएच-510, डीएचएम-103,
डीएचएम-109, हिम-129, पूसा अर्ली हा-1 व 2, विवेक हा-4, डीएचएम-15 आदि ।
सकुल
किस्में: नर्मदा मोती, जवाहर मक्का-216, चन्दन मक्का-1,2 व 3, चन्दन सफेद
मक्का-2, पूसा कम्पोजिट-1,2 व 3, माही कंचन, अरून, किरन, जवाहर मक्का-8, 12
व 216 , प्रभात, नवजोत आदि ।
विशिष्ट मक्का की अच्छी उपज लेने के लिए निम्नलिखित उन्नत प्रजातियों के शुद्ध एवं प्रमाणित बीज ही बोये जाने चाहिए।
1.उत्तम प्रोटीन युक्त मक्का (क्यूपीएम): एच.क्यू पी.एम.1 एवं 5 एवं शक्ति-1 (संकुल)
2.पाप कार्न: वी. एल. पापकार्न, अम्बर, पर्ल एवं जवाहर
3.बेबी कार्न: एच. एम. 4 एवं वी.एल. बेबी कार्न-1
4.मीठी मक्का: मधुरप्रिया एवं एच.एस.सी. -1(संकर)- 70-75 दिन, उपज-110 से 120 क्विंटल प्रति है., 250-400 क्विंटल हरा चारा।
5.चारे हेतु: अफ्रीकन टाल, जे-1006, प्रताप चरी-6
बोआई का समय
भारत में मक्का की बोआई वर्षा प्रारंभ होने पर की जाती है। देश के विभिन्न
भागों में (खरीफ ऋतु) बोआई का उपयुक्त समय जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई
के प्रथम पखवाड़े तक का होता है। शोध परिणामों से ज्ञात होता है कि मक्का की
अगेती बोआई (25 जून तक) पैदावार के लिए उत्तम रहती है। देर से बोआई करने
पर उपज में गिरावट होती है। रबी में अक्टूबर अंतिम सप्ताह से 15 नवम्बर तक
बोआई करना चाहिए तथा जायद में बोआई हेतु फरवरी के अंतिम सप्ताह से मार्च
तृतीय सप्ताह तक का समय अच्छा रहता है। खरीफ की अपेक्षा रबी में बोई गई
मक्का से अधिक उपज प्राप्त होती है क्योंकि खरीफ में खरपतवारों की अधिक
समस्या होती है, पोषक तत्वों का अधिक ह्यस होता है, कीट-रोगों का अधिक
प्रकोप होता है तथा बदली युक्त मौसम केे कारण पौधों को सूर्य ऊर्जा कम
उपलब्ध हो पाती हैं।जबकि रबी ऋतु में जल एंव मृदा प्रबंधन बेहतर होता है।
पोषक तत्वों की उपलब्धता अधिक रहती है। कीट,रोग व खरपतवार प्रकोप कम होता
है और फसल को प्रकाश व तापक्रम इष्टतम मात्रा में प्राप्त होता है।
सही बीज दर
संकर मक्का का प्रमाणित बीज प्रत्येक वर्ष किसी विश्वसनीय संस्थान से लेकर
बोना चाहिये। संकुल मक्का के लिए एक साल पुराने भुट्टे के बीज जो भली
प्रकार सुरक्षित रखे गये हो , बीज के लिए अच्छे रहते है । पहली फसल कटते
ही अगले वर्ष बोने के लिए स्वस्थ्य फसल की सुन्दर-सुडोल बाले (भुट्टे)
छाँटकर उन्हे उत्तम रीति से संचित करना चाहिए । यथाशक्ति बीज को भुट्टे से
हाथ द्वारा अलग करके बाली के बीच वाल्¨ दानो का ही उपयोग अच्छा रहता है ।
पीटकर या मशीन द्वारा अलग किये गये बीज टूट जाते है जिससे अंकुरण ठीक नहीं
होता । भुट्टे के ऊपर तथा नीचे के दाने बीच के दानो की तुलना में
शक्तिशाली नहीं पाये गये है । बोने के पूर्व बीज की अंकुरण शक्ति का पता
लगा लेना अच्छा होता है । यदि अंकुरण परीक्षण नहीं किया गया है तो प्रति
इकाई अधिक बीज बोना अच्छा रहता है । बीज का माप, बोने की विधि, बोआई का समय
तथा मक्के की किस्म के आधार पर बीज की मात्रा निर्भर करती है । प्रति
एकड़ बीज दर एवं पौध अंतरण निम्न सारणी में दिया गया है ।
सामान्य मक्का क्यूपीएम बेबी कार्न स्वीट कार्न पाप कार्न चारे हेतु
बीज दर (किग्रा. प्रति एकड़) 8-10 8 10-12 2.5-3 4-5 25-30
कतार से कतार की दूरी (सेमी) 60-75 60-75 60 75 60 30
पौधे से पौधे की दूरी (सेमी.) 20-25 20-22 15-20 25-30 20 10
ट्रेक्टर चलित मेज प्लांटर अथवा देशी हल की सहायता से रबी मे 2-3 सेमी.
तथा जायद व खरीफ में 3.5-5.0 सेमी. की गहराई पर बीज बोना चाहिए। बोवाई किसी
भी विधि से की जाए परंतु खेत में पौधों की कुल संख्या 65-75 हजार प्रति
हेक्टेयर रखना चाहिए। बीज अंकुरण के 15-20 दिन के बाद अथवा 15-20 सेमी.
ऊँचाई ह¨ने पर अनावश्यक घने पौधों की छँटाई करके पौधों के बीच उचित फासला
स्थापित कर खेत में इष्टतम पौध संख्या स्थापित करना आवश्यक है। सभी प्रकार
की मक्का में एक स्थान पर एक ही पौधा रखना उचित पाया गया है ।
बीज उपचार
संकर मक्का के बीज पहले से ही कवकनाशी से उपचारित ह¨ते है अतः इनको अलग
से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं होती है । अन्य प्रकार के बीज को थायरम
अथवा विटावेक्स नामक कवकनाशी 1.5 से 2.0 ग्राम प्रतिकिलो बीज की दर से
उपचारित करना चाहिए जिससे पौधों क¨ प्रारम्भिक अवस्था में रोगों से बचाया
जा सके ।
बोआई की विधियाँ
मक्का बोने की तीन विधियाँ यथा छिटकवाँ, हल के पीछे और डिबलर विधि प्रचलित है, जिनका विवरण यहां प्रस्तुत हैः
1.छिटकवाँ विधि:
सामान्य तौर पर किसान छिटककर बीज बोते है तथा ब¨ने के बाद पाटा या हैरो
चलाकर बीज ढकते है । इस विधि से बोआई करने पर बीज अंकुरण ठीक से नहीं ह¨
पाता है, पौधे समान और उचित दूरी पर नहीं उगते जिससे बांक्षित उपज के
लिए प्रति इकाई इश्टतम पौध संख्या प्राप्त नहीं हो पाती है । इसके अलावा
फसल में निराई-गुड़ाई (अन्तर्कर्षण क्रिया) करने में भी असुविधा होती है ।
छिटकवाँ विधि में बीज भी अधिक लगता है ।
2. कतार बौनी :
हल के पीछे कूँड में बीज की बोआई सर्वोत्तम विधि है । इस विधि में कतार
से कतार तथा पौध से पौध की दूरी इष्टतम रहने से पौधो का विकास अच्छा
होता है । उपज अधिक प्राप्त होती है । मक्का की कतार बोनी के लिए मेज
प्लान्टर का भी उपयोग किया जाता है ।
वैकल्पिक जुताई-बुवाई
विभिन्न संस्थानो में हुए शोध परिणामो से ज्ञात होता है कि शून्य
भूपरिष्करण, रोटरी टिलेज एवं फर्ब पद्धति जैसी तकनीको को अपनाकर किसान भाई
उत्पादन लागत को कम कर अधिक उत्पादन ले सकते है ।
जीरो टिलेज या शून्य-भूपरिष्करण तकनीक
पिछली फसल की कटाई के उपरांत बिना जुताई किये मशीन द्वारा मक्का की बुवाई
करने की प्रणाली को जीरो टिलेज कहते हैं। इस विधि से बुवाई करने पर खेत की
जुताई करने की आवश्यकता नही पड़ती है तथा खाद एवम् बीज की एक साथ बुवाई की
जा सकती है। इस तकनीक से चिकनी मिट्टी के अलावा अन्य सभी प्रकार की मृदाओं
में मक्का की खेती की जा सकती है। जीरो टिलेज मशीन साधारण ड्रिल की तरह ही
है, परन्तु इसमें टाइन चाकू की तरह होता है। यह टाइन मिट्टी में नाली के
आकार की दरार बनाता है, जिसमें खाद एवम् बीज उचित मात्रा में सही गहराई पर
पहुँच जाता है।
फर्ब तकनीक से बुवाई
मक्का की बुवाई सामान्यतः कतारो में की जाती है। फर्ब तकनीकी किसानों में
प्रचलित इस विधि से सर्वथा भिन्न है। इस तकनीक में मक्का को ट्रेक्टर चलित
रीजर-कम ड्रिल से मेंड़ों पर एक पंक्ति में बोया जाता है। पिछले कुछ वर्षों
के अनुसंधान में यह पाया गया हैं कि इस तकनीक से खाद एवम् पानी की काफी
बचत होती है और उत्पादन भी प्रभावित नही होता हैं। इस तकनीक से बीज उत्पादन
के लिए भी मक्का की खेती की जा रही है। बीज उत्पादन का मुख्य उद्देश्य
अच्छी गुणवता वाले अधिक से अधिक बीज उपलब्ध कराना है।
खाद एंव उर्वरक
मक्का की भरपूर उपज लेने के लिए संतुलित मात्रा में खाद एंव उर्वरकों का
प्रयोग आवश्यक है। मक्के को भारी फसल की संज्ञा दी जाती है जिसका भावार्थ
यह है कि इसे अधिक मात्रा में पोषक तत्वो की आवश्यकता पड़ती है । एक
हैक्टर मक्के की अच्छी फसल भूमि से ओसतन 125 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा.
फॉस्फ¨रस तथा 75 किलोग्राम पोटाश ग्रहण कर लेती है।अतः मिट्टी में इन पोषक
तत्वो का पर्याप्त मात्रा में उपस्थित रहना अत्यन्त आवश्यक है । भूमि
में नाइट्रोजन की कमी होनेपर पौधा छोटा और पीला रह जाता है, जबकि
फॉस्फ़ोरस कम होने पर फूल व दानो का विकास कम होता है । साथ ही साथ जडो का
विकास भी अवरूद्ध ह¨ जाता है । भूमि में पोटाश की न्यूनता पर कमजोर पौधे
बनते है, कीट-रोग का आक्रमण अधिक होता है । पौध की सूखा सहन करने की
क्षमता कम हो जाती है । दाने पुष्ट नहीं बनते है । मक्के की फसल में 1
किग्रा नत्रजन युक्त उर्वरक देने से 15-25 किग्रा. मक्के के दाने प्राप्त
होते हैं। मक्के की फसल में पोषक तत्वो की पूर्ति के लिए जीवाशं तथा
रासायनिक खाद का मिलाजुला प्रयोग बहुत लाभकारी पाया गया है। खाद एंव
उर्वरकों की सही व संतुलित मात्रा का निर्धारण खेत की मिट्टी परीक्षण के
बाद ही तय किया जाना चाहिए।
मक्का बुवाई से 10-15 दिन पूर्व 10-15 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की
खाद खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। मक्का में 150 से 180 किलोग्राम
नत्रजन, 60-70 किलो ग्राम फास्फ़ोरस, 60-70 किलो ग्राम पोटाश तथा 25
किलो ग्राम जिंक सल्पेट प्रति हैक्टर देना उपयुक्त पाया गया है। संकुल
किस्मो में नत्रजन की मात्रा उपरोक्त की 20 प्रतिशत कम देना चाहिए ।
मक्का की देशी किस्मो में नत्रजन, स्फुर व पोटाश की उपरोक्त मात्रा की
आधी मात्रा देनी चाहिए । फास्फोरस, पोटाश और जिंक की पूरी मात्रा तथा 10
प्रतिशत नाइट्रोजन को आधार डोज (बेसल) के रूप में बुवाई के समय देना
चाहिए। शेष नाइट्रोजन की मात्रा को चार हिस्सों में निम्नलिखित विवरण के
अनुसार देना चाहिए।
20 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल में चार पत्तियाँ आने के समय देना चाहिए।
30 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल में 8 पत्तियाँ आने के समय देना चाहिए।
30 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल पुष्पन अवस्था में हो या फूल आने के समय देना चाहिए तथा
10 प्रतिशत नाइट्रोजन का प्रयोग दाना भराव के समय करना चाहिए।
सिचाई हो समय पर
मक्के की प्रति इकाई उपज पैदा करने के लिए अन्य फसलो की अपेक्षा अधिक
पानी लगता है । शोध परिणामों में पाया गया है कि मक्के में वानस्पतिक
वृद्धि (25-30 दिन) व मादा फूल आते समय (भुट्टे बनने की अवस्था में) पानी
की कमी से उपज में काफी कमी हो जाती है। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए
मादा फूल आने की अवस्था में किसी भी रूप से पानी की कमी नहीं होनी चाहिए।
खरीफ मौसम में अवर्षा की स्थिति में आवश्यकतानुसार दो से तीन जीवन
रक्षक सिंचाई चाहिये।
छत्तीसगढ़ में रबी मक्का के लिए 4 से 6 सिंचाई की आवश्यकता होती है। यदि 6
सिंचाई की सुविधा हो तो 4-5 पत्ती अवस्था, पौध घुटनों तक आने से पहले व
तुरंत बाद, नर मंजरी आते समय, दाना भरते समय तथा दाना सख्त होते समय सिंचाई
देना लाभकारी रहता है। सीमित पानी उपलब्ध होने पर एक नाली छोड़कर दूसरी
नाली में पानी देकर करीब 30 से 38 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है।
सामान्य तौर पर मक्के के पौधे 2.5 से 4.3 मि.ली. प्रति दिन जल उपभोग कर
लेते है। मौसम के अनुसार मक्के को पूरे जीवन काल(110-120 दिन) में 500 मि.
ली. से 750 मि.ली. पानी की आवश्यकता होती है। मक्के के खेत में जल भराव की
स्थिति में फसल को भारी क्षति होती है। अतः यथासंभव खेत में जल निकाशी की
ब्यवस्था करे।
खरपतवारो से फसल की सुरक्षा
मक्के की फसल तीनों ही मौसम में खरपतवारों से प्रभावित होती है। समय पर
खरपतवार नियंत्रण न करने से मक्के की उपज में 50-60 प्रतिशत तक कमी आ जाती
है। फसल खरपतवार प्रतियोगिता के लिए बोआई से 30-45 दिन तक क्रांन्तिक समय
माना जाता है। मक्का में प्रथम निराई 3-4 सप्ताह बाद की जाती है जिसके 1-2
सप्ताह बाद बैलो से चलने वाले यंत्रो द्वारा कतार के बीच की भूमि गो ड़
देने से पर्याप्त लाभ होता है । सुविधानुसार दूसरी गुड़ाई कुदाल आदि से की
जा सकती है । कतार में बोये गये पौधो पर जीवन-काल में, जब वे 10-15 सेमी.
ऊँचे हो , एक बार मिट्टी चढ़ाना अति उत्तम होता है । ऐसा करने से पौधो की
वायवीय जड़ें ढक जाती है तथा उन्हें नया सहारा मिल जाता है जिससे वे लोटते
(गिरते)नहीं है । मक्के का पोधा जमीन पर लोट जाने पर साधारणतः टूट जाता
है जिससे फिर कुछ उपज की आशा रखना दुराशा मात्र ही होता है ।
प्रारंम्भिक
30-40 दिनों तक एक वर्षीय घास व चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण
हेतु एट्राजिन नामक नीदनाशी 1.0 से 1.5 किलो प्रति हेक्टेयर को 1000 लीटर
पानी में घोलकर बुआई के तुरंत बाद खेत में छिड़कना चाहिए। खरपवारनाशियो के
छिड़काव के समय मृदा सतह पर पर्याप्त नमी का होना आवश्यक रहता है। इसके
अलावा एलाक्लोर 50 ईसी (लासो) नामक रसायन 3-4 लीटर प्रति हक्टेयर की दर से
1000 लीटर पानी में मिलाकर बोआई के बाद खेत में समान रूप से छिड़कने से भी
फसल में 30-40 दिन तक खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। इसके बाद 6-7 सप्ताह में
एक बार हाथ से निंदाई-गुडाई व मिट्टी चढ़ाने का कार्य करने से मक्के की फसल
पूर्ण रूप से खरपतवार रहित रखी जा सकती है।
कटाई-गहाई
मक्का की प्रचलित उन्नत किस्में बोआई से पकने तक लगभग 90 से 110 दिन तक
समय लेती हैं। प्रायः बोआई के 30-50 दिन बाद ही मक्के में फूल लगने लगते
है तथा 60-70 दिन बाद ही हरे भुट्टे भूनकर या उबालकर खाने लायक तैयार हो
जाते है । आमतौर पर संकुल एंव संकर मक्का की किस्मे पकने पर भी हरी दिखती
है, अतः इनके सूखने की प्रतिक्षा न कर भुट्टो कर तोड़ाई करना चाहिए। एक
आदमी दिन भर में 500-800 भुट्टे तोड़ कर छील सकता है । ताजा भुट्टों का
ढेर लगाने से उनमें फफूंदी लग सकती है जिससे दानों की गुणवत्ता खराब हो
जाती है। अतः भुट्टों को छीलकर धूप में तब तक सुखाना चाहिए जब तक दानों में
नमी का अंश 15 प्रतिशत से कम न हो जाये। इसके बाद दानों को गुल्ली से अलग
किया जाता है। इस क्रिया को शैलिंग कहते है।
उपज एंव भंडारण
सामान्य तौर पर सिंचित परिस्थितियों में सही सस्य प्रबंधन से संकर मक्का की उपज 50-60 क्विंटल
./हे. तथा संकुल मक्का की उपज 45-50 क्विंटल ./हे. तक प्राप्त की जा सकती
है। एक हेक्टेयर से लगभग 45000-50000 भुट्टे प्राप्त होते है ।
इसके अलावा 200-225 क्विंटल हरा चारा प्रति हैक्टर भी प्राप्त होता है ।
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