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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

सदा बहार तिलहनी फसल- सूरजमुखी


                                                                           डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                   प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                         इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

 सूरजमुखी का महत्व 

                       सूरजमूखी पुष्पन अवस्था में यह फसल खेती के अधीन आने वाले सारे क्षेत्र को सुन्दर व दर्शनीय बना देती है और पकने पर यह हमें उच्च कोटि का खाद्य तेल प्रदान करती है। प्राकश व ताप असंवेदी  होने के कारण इस फसल पर प्रकाश व तापक्रम का प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः वर्ष में किसी भी समय इसे उगाया जा सकता है। इसलिए इस फसल को  सभी मोसमो  की फसल की संज्ञा दी गई है । कम अवधि (90 - 100 दिन) में तैयार होने के कारण बहु फसली खेती के लिए यह एक उत्तम फसल है। सूर्यमुखी से कम बीज दर  में थोड़े समय में अधिक बीज उत्पादन  किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी के बीज में 40 - 50 प्रतिशत तेल व 20 - 25 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है। सूर्यमुखी का तेल स्वादिष्ट एवं विटामिन ए, डी और ई से परिपूर्ण होता है। इसका तेल हल्के पीले  रंग, स्निग्ध गंध, उच्च धूम बिन्दु वाला होता है जिसमें  बहु - असतृप्त वसा अम्ल विशेष रूप से लिनोलीइक अम्ल की अधिकता (64 प्रतिशत) होती है, जो कि रूधिर कोलेस्टेराल की वृद्धि को रोकने  के अलावा उस पर अपचायक प्रभाव  भी डालता है । इसलिए ह्रदय रोगियों के लिए इसका तेल लाभप्रद पाया गया है। पोषण महत्व की दृष्टि से लिनोलीइक अम्ल अत्यावश्यक वसा अम्ल है, जिसकी आपूर्ति आहार
 द्वारा होती है। इसलिए सूर्यमुखी का तेल अधिकांश वनस्पति तेलो की अपेक्षा बेहतर और कुसुम के तेल के समकक्ष माना जाता है। इसके तेल का उपयोग वनस्पति घी (डालडा) तैैयार करने में भी किया जाता है। इसकी गिरी  काफी स्वादिष्ट होती है। इसे कच्चा या भूनकर मूँगफली की भाँति खाया जाता है। गिरी का प्रयोग चिरौंजी या खरबूजे की गिरी के स्थान पर किया जाता है। तेल निकालने के पश्चात् प्राप्त खली पशुओं को खिलाने के लिए उपयोगी है जिसमें 40 - 44 प्रतिशत प्रोटीन होती है। सूरजमुखी की उपज बाजार में अच्छे मूल्य पर आसानी से बेची जा सकती है। सूरजमुखी की फसल के साथ मधुमक्खी पालन भी किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी (हेलिऐन्थस ऐनुअस एल) के वंश नाम की उत्पत्ति ग्रीक शब्दों हेलिआस जिसका अर्थ है सूर्य एवं ऐन्थस (फूल) से हुई है। इसका फ्रैंच नाम टूर्नेसाल है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - सूर्य के साथ घूमना। सूर्यमुखी का जन्म स्थान दक्षिण पश्चिमी अमेरिका एवं मेक्सिको माना जाता है। मेक्सिको से स्पेन होते हुए यह यूरोप पहुँची जहाँ पर अलंकारित पौधों  के रूप मे सूर्यमुखी उगाई जाने लगी तथा पूर्वी यूरोप तिलहन फसल के रूप में इसकी खेती प्रारम्भ हुई।  दुनियां में सूर्यमुखी की ख्¨ती 21.48 मिलियन हैक्टर क्षेत्र फल में की गई जिससे 1227.4 किग्रा. प्रति हैक्ट की दर से 26.366 मिलियन टन उत्पादन दर्ज किया गया । सर्वाधिक रकबे  में सूर्यमुखी उगाने वाले  प्रथम तीन देशो  में रूस, यूक्रेन व भारत देश आते है जबकि उत्पादन में रूस, अर्जेन्टिना एवं यूक्रेन आते है । प्रति हैक्टर औसत उपज के मामले  में फ्रांस प्रथम (2373.5 किग्रा), चीन द्वितिय (1785.7 किग्रा) एवं और अर्जेन्टिना तृतीय (1701.4 किग्रा.) स्थान पर स्थापित रहे है । भारत में सूर्यमुखी को लगभग 1.81 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में लगाया जाता हे  जिससे  लगभग 1.16 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता है  तथा 639 किग्रा. प्रति हैक्टर  हे  औशत उपज आती हे  । सबसे अधिक क्षेत्र फल में सूर्यमुखी उगाने तथा अधिकतम उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन राज्यो  में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र राज्य है जबकि औसत उपज के मामले  में उत्तर प्रदेश प्रथम (1889 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाना द्वितिय (1650 किग्रा. प्रति हैक्टर) एवं बिहार तृतीय (1388 किग्रा) स्थान पर रहे है । छत्तीसगढ़ में सुर्यमुखी की खेती सभी जिलो  में कुछ न कुछ  में की जा  रही है । रायगढ़, राजनांदगांव, दुर्ग, महासमुन्द एवं बिलासपुर जिलो  में सूर्यमुखी बड़े पैमाने पर उगाया जा रहा है । सवसे अधिक उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन जिलों  में रायगढ़, राजनांदगांव व दुर्ग जिले  आते है । ओसत उपज के मामले  में रायगढ़ जिले  का प्रथम स्थान (1410 किग्रा. प्रति हैक्टर) है, जिसके बाद धमतरी और  महासमुन्द जिलो   का स्थान आता है ।

उपयुक्त जलवायु

    सूरजमुखी प्रकाशकाल  के प्रति असंवेदनशील, कम अवधि तथा अधिक अनुकूलन के कारण सभी मौसमों की फसल कहलाती है। सुखाग्रस्त  अथवा बारानी क्षेत्रों में यह फसल देरी से (अगस्त में ) एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे रबी के मौसम (अक्टूबर - नवम्बर) मे उगाया जाता है। सिंचाई की सुविधा हो तो जायद(गर्मी) के मौसम में भी इसे उगाया जा सकता है। उन क्षेत्रों में जहाँ समान रूप से वितरित 500 - 700 मिमी. वार्षिक वर्षा होती है तथा फूल आने के पूर्व समाप्त हो जाती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। फुल और बीज बनते समय तेज वर्षा और हवा से फसल गिर जाती है। सूरजमुखी की वानस्पतिक वृद्धि  के समय गर्म एवं नम जलवायु की आवश्यकता होती है, परन्तु फल आने और परिपक्व होने  के समय चटक धूप वाले दिन आवश्यक है। बीज अंकुरण एवं पौध बढ़वार के समय ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है। बीज अंकुरण के समय 25-30 डि.से.तापक्रम अच्छा रहता है तथा 15 डि.से.  से कम तापक्रम पर अंकुरण प्रभावित होता है। इसकी फसल क¨ 20-25 डि.से.    तापक्रम की आवश्यकता होती है। गर्म दिन और ठण्डी रातें फसल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। सामान्यतौर पर फुल आते समय  से अधिक तापक्रम होने पर बीज की उपज और तेल की मात्रा मे गिरावट होती है। इसी प्रकार  16 डि.से.   से कम तापमान होने पर बीज निर्माण व तेल प्रतिशत मे कमी आती है। आतपौध्भिद होते हुए भी सूरजमुखी मक्का व आलू की तुलना में छाया को अधिक अच्छी तरह सहन कर सकती है। इसके पौधे का आतपानुवर्ती संचलन मुख्यतया धूप के फलस्वरूप विभेदी आक्सिन सांद्रणों के कारण तने के मुड़ने से होता है। आक्सिन के अंतर्जात उद्दीपन के कारण होने वाले इस प्रकार के संचलन को हैबिट कहते है। शीत ऋतु में कम तापमान होने के कारण फसल देर से परिपक्व (लगभग 130 दिन में) ह¨ती है, जबकि खरीफ के मोसम में उच्च तापमान ह¨ने के कारण यह शीघ्र पकती (80 दिन) है ।
 भूमि का चयन 
    सूर्यमुखी की खेती सिंचित बलुई मृदाओं से लेकर उच्च जल धारण क्षमता वाली मटियार मृदाओ तक तथा 6.5 से 8.0 पीएच मान वाली विविध प्रकार की भूमियो मे की जा सकती है। अच्छी उपज के लिए गहरी, उर्वरा, जैवांश युक्त तथा उदासीन अभिक्रिया वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम है। खरीफ की फसल हल्की, रेतीली और पानी के उत्तम निकास वाली भूमि मे ली जा सकती है। यह फसल अस्थाई सूखे का मुकाबला कर सकती है और इसलिए इसे कम वर्षा होने वाले क्षेत्रो मे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। रबी फसल के लिए दोमट - कपास की काली मिट्टी  जो काफी दिनों तक नमी संरक्षित रख सके, इसके लिए उपयुक्त होती है।

भूमि की तैयारी

    सूरजमुखी के लिए ख्¨त की मृदा हल्की एवं भुरभुरी  होनी चाहिए । पिछली फसल काटने के पश्चात् खेत मे एक या दो बार हल या कल्टीवेटर चलाकर खरपतवार नष्ट करते हुए मिट्टी भुरभुरी एवं समतल कर लेनी चाहिए। अंतिम जुताई करने से पूर्व 25 किलो क्लोरपायरीफास प्रति हेक्टेयर बुरक देना चाहिए। रबी की फसल के लिए भूमि की तैयारी अन्य रबी फसलों के समान ही करना चाहिए। वर्षा निर्भर क्षेत्रों मे नमी संरक्षण हेतु उपाय करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ की फसल काटने के तुरंत बाद, जमीन की परिस्थिति के अनुसार जुताई करनी चाहिए। दो या तीन बार कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा द्वारा भूमि को समतल  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीज का छिलका मोटा होने के कारण नमी को  धीमी गति से सोखते है । इसलिए बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का रहना आवश्यक पाया गया है । जलभराव की स्थिति क¨ यह फसल सहन नही कर सकती है । अतः खेत मे जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था करना भी आवश्यक है।

उन्नत किस्में

    सूर्यमुखी की संकुल किस्मों (माडर्न तथा रशियन किस्में) से कम तथा संकर किस्मो से अधिक उपज प्राप्त होती है।रशियन किस्में  में विन्मिक, पेरिडविक, अर्माविसर्कज ,अर्माविरेक आदि है ।
सूरजमुखी की संकर व उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
किस्म का नाम                     अवधि (दिन)        उपज (क्विंटल /हे.)        तेल (%)
मार्डन                                     80 - 85                           7 - 8            38 - 39
विनियमन                             115 - 120                    15 - 25            41 - 43
ज्वालामुखी (संकर)                 95 - 115                     25 - 28            39 - 40
दिव्यमुखी (संकर)                    85 - 90                      25 - 28            41 - 42
एमएसएफएच.-8(संकर)          90 - 95                      25 - 28            42 - 44
एमएसएफएच-17(संकर)       100 - 105                   10 - 15            42 - 44
केबीएसएच-1(संकर)                 90 - 95                    18 - 20            41 - 42
केबीएसएच-44(संकर)            105 - 110                   20 - 25            42 - 44

सूर्यमुखी की अन्य संकर व उन्नत किस्मो  के गुणधर्म

1. जेएसएल-1 (जवाहर सूर्यमुखी): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस व काले रंग का चमटा होता है। यह किस्म जल्दी अर्थात् 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत पैदावार 15 से 20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों मे खरीफ एवं रबी मौसमों के लिये उपयुक्त है।
2. अर्माविस्किज (ई. सी. 68415): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस, हल्के काले रंग का तथा कुछ छोटा रहता है। यह किस्म 125से 130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। उपज क्षमता 9-10 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। यह खरी मौसम के लिए मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह रसियन किस्म है।
3. पैरिडोविक (ई. सी. 68414): इस किस्म का दाना ई. सी. 64415 के समान ही होता है, लेकिन रंग का गहरा काल होता है। यह देरी से (130 से 135 दिनों में) पकती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत होती है। औसत पैदावार 10 से 12 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। खरीफ एवं रबी दोनों मौसमों मे मालवा एवं निमाड़ क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह भी रसियन किस्म है।
4. डीआरएसएफ-108: यह 90 - 95 दिन मे तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 40 प्रतिशत तेल होता है। असिंचित क्षेत्रों में खरीफ ऋतु के लिए उपयुक्त किस्म है।
5. एमएलएसएफएच-82: यह 85-100 दिन में तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 35 प्रतिशत तेल ह¨ता है। मध्य प्रदेश एवं छत्तिससगढ़ के लिए उपयुक्त संकर किस्म है।

बीज दर एवं बीज उपचार

    सूरजमुखी का  प्रमाणित बीज ही उपयोग में लाना चाहिए। सूरजमुखी के बीज भार में हलके (5.6 से 7.5 ग्राम प्रति 100 बीज) ह¨ते है । सूरजमुखी की संकुल किस्मों के लिए 8-10 किग्रा. तथा संकर किस्मो के लिए 6-7 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है।बुआई के पूर्व बीज को 24 घंटे पानी में भिगोकर बोने से अंकुरण प्रतिशत बढ़ता है। बोनी के पूर्व बीज को कैप्टान या थाइरम नामक फफूँदनाशक दवा (3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज) से उपचारित करना आवश्यक है। इससे फफूँदी रोग नहीं हो पाता ।
बोआई का समय
    बहुत सी फसलो की तरह सूर्यमुखी दिन की अवधि तथा ऋतु विशेष से प्रभावित नहीं होती है और इसलिए इसकी ब¨आई किसी भी समय की जा सकती है । अत्यधिक ठण्डे मौसम को छोड़कर वर्ष के प्रायः सभी महीनो में सूर्यमुखी की बुआई की जा सकती है। खरीफ की फसल विशेषकर बारानी क्षेत्रों में अगस्त के दूसरे या तीसरे सप्ताह मे इसकी बोनी करनी चाहिये। जून व जुलाई माह में बोनी करने से उपज प्रायः कम होती है। क्योंकि परागण क्रिया करने वाले कीड़े बहुत कम आते है जिससे बीज का निर्माण ही नहीं होता या सभी बीज पोचे रह जाते है। अतः विभिन्न क्षेत्रों में बोनी का समय इस तरह निर्धारित करना चाहिए जिससे फसल मे फूल बनते समय अधिक व लगातार वर्षा न हो। सूखग्रस्त क्षेत्रों में अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक ब¨नी की जा सकती है। वसन्तकालिक फसल की बोआई 15 जनवरी से 2 0 फरवरी तक करना उचित रहता है ।

बोआई की विधियाँ

    सूर्यमुखी की बुआई कतार या डिबलिंग विधि से करनी चाहिए। संकुल किस्मों में पंक्तियों का फासला 45 सेमी. कतार  से कतार तथा 15 से 20 सेमी. पौध  से पौध अंतर रखना चाहिए। संकर किस्मों की बोनी 60 - 75 सेमी. दूर कतारों में तथा पौध  से  पौध के बीच की दूरी 20 से 25 सेमी. रखना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 60 - 70 हजार पौधे प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहते है। बीज क¨ 2-4 सेमी. की गहराई पर ब¨ना उचित पाया गया है । गर्मी के समय उच्च तापमान ह¨ने के कारण मृदा की ऊपरी परत से नमी शीघ्र सूख जाती है, अतः ब¨आई 4 सेमी. की गहराई पर करना लाभकारी पाया गया है । सूरजमूखी के दानों का अंकुरण धान्यों की अपेक्षा अधिक देर से होता है, क्योकि इसके बीज का छिलका मोटा ह¨ने के कारण उनमें जल अवश¨षण  धीमी गति से ह¨ता है साथ ही इसका अंकुरण भी उपरिभूमिक  होता है। इसके अलावा मृदा की पपड़ी (क्रस्ट) अंकुरण की गति को और  अधिक मंद कर सकती है । उचित नमी एवं तापमान पर सूर्यमुखी के बीज का जमाव  प्रायः 8-10 दिन में हो जाता है।

खाद एवं उर्वरक

    पौधों की बढ़वार के लिए नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश आवश्यक तत्व है। नत्रजन तत्व की कमी से पौधो  की बढ़वार मंद पड़ जाती है । जड़ो  का विकास, बीज का आकार, उचित दाना भराव  व तेल में  बढ़ोत्र री के लिए फास्फोरस आवश्यक पोषक तत्व माना गया है। दाना भराव व रोग रोधित के लिए पोटाश एक उपयोगी तत्व है। पोटेशियम की अत्याधिक कमी ह¨ने से बीज खाली रह जाते है । दो या तीन वर्ष में एक बार 25 से 30 गाड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में 30 किग्रा. नत्र्ाजन, 30 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोनी के साथ देना चाहिए। सिंचितक्षेत्र   मे 60-8 0  किग्रा. नत्रजन , 60 किग्रा. स्फुर तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर देना चाहिए । सिंचित क्षेत्रों में बोनी के समय स्फुर पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा देनी चाहिये। शेष आधी नत्रजन की मात्रा फसल बोने के लगभग एक महीने के बाद सिंचाई के पहले देना चाहिये। लगातार सघन कृषि पद्धतियों से जस्ते व गंधक की भूमि में कमी देखी जा रही है। तिलहनी फसल होने के कारण सूर्यमुखी को सल्फर तत्व की आवश्यकता पड़ती है। बुआई के समय 20-25 किग्रा. जिंक सल्फेट देना लाभप्रद रहता है। यदि फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाता है, तो अलग से सल्फर देने की आवश्यकता नहीं होती है। बुआई के समय सुपर फॉस्फेट या जिंक सल्फेट नहीं दिया गया है तो फसल में फूल आने की अवस्था में जिंक सल्फेट  2.5 किग्रा. और चूना 1.25 किग्रा. को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना भी लाभकारी पाया गया है।

सिंचाई

    खरीफ ऋतु में लगाई गई सूर्यमुखी की फसल क¨ सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । अवर्षा अथवा सूख्¨ की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । भारी वर्षा होने पर खेत से जल निकासी आवश्यक है । रबी एवं जायद की सूर्यमुखी मे तीन सिंचाईयाँ प्रथम बोआई के 40 दिन बाद, द्वितिय बोआई के 75 दिन बाद (पुष्पन अवस्था) तथा तृतीय बोआई के 100 दिन बाद (दाना भरते समय) देना लाभ कारी रहता है । पुष्पन एवं दानो  के विकास की अवस्था पर नमी की कमी का फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । शीतकालीन या बसन्तकालीन सूर्यमुखी की बोआई एक हलकी सिंचाई करने के बाद करना लाभप्रद होता है ।

खरपतवार नियंत्रण

    अंकुरण के 10 - 12 दिन बाद पौधों - से - पौधों का अंतर 20 सेमी. रखने के लिये अनावश्यक पौधों को उखाड़ देना चाहिये तथा एक स्थान पर केवल एक ही पौधा रखना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच में एक-दो बार गुड़ाई (बुआई के 25-30 से दिन व 40-50 दिन) करना चाहिये। सूरजमुखी का फूल भारी और बड़ा होता है जिसके कारण आँधी-पानी से पौधे गिर सकते हैं। अतः दूसरी गुड़ाई के समय पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। खरपतार नियंत्रण हेतु 1 किग्रा. फ्लूक्लोरैलिन (बासालिन 45 ईसी) या पेन्डीमिथिलीन (स्टाम्प 30 ईसी) 3 लीटर प्रति हेक्टेयर का 600 - 800 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करना चाहिये।

परसेचन क्रिया

    सूरजमुखी सामान्यतः परपागित फसल है। अतः अच्छे बीज पड़ने एवं उनके भराव  हेतु परसेचन क्रिया नितान्त आवश्यक है मधुमक्खियों की उपुक्त संख्या होने पर ही परागण अच्छा होता है सूरजमुखी में फूल आते समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मधुमक्खियों के 2-3 छत्तों को एक माह तक रख कर मुण्डकों  में पर परागण की क्रिया को बढ़ाया जा सकता है। मधुमक्खियों की सुरक्षा हेतु कीटनाशकों का प्रयोग कम-से -कम करना चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में मक्खियों की संख्या में कमी आ जाती है। अतः कृत्रिम परसेचन करना आवश्यक हो जाता है। इसके लिए पौधों में अच्छी तरह फल के मुंडक पर चारों ओर धीरे-धीरे घुमा देना चाहिये, जिससे परागकण आसानी से पूरे मुंडक में पहुँचकर परसेचन क्रिया में सहायक हो जाये। यह क्रिया प्रातः काल 7 बजे से 10 बजे के मध्य, एक दिन के अन्तराल से 3-4 बार करनी चाहिए। 
पक्षियों से फसल की रखवाली
    सूरजमुखी में दाना बनते समय फसल की पक्षियों से रक्षा करना चाहिए। फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने   वाला पक्षी तोता होता है। इससे बचाव के लिए पक्षियो को उड़ाने वाले कुछ साधनों जैसे बिजूखा लगाना, पटाखा चलाना या ढोल बजाने की संस्तुति की गयी है।

फसल पद्धति

    सूरजमुखी दिन की लम्बाई के प्रति अपनी अभिक्रिया में प्रकाश उदासीन   होने के कारण इसे प्रायः सभी प्रकार के फसल चक्रों में सम्मिलित किया जा सकता है। उत्तरी भारत में यह मक्का-तोरिया/राई-सूरजमुखी, धान-सूरजमुखी, मक्का-मटर-सूरजमुखी, मक्का-आलू-सूरजमुखी आदि फसल चक्रों  में उगाई जा सकती है। अन्तः फसली खेती  के अन्तर्गत सूरजमुखी + मूँगफली (2.4), अरहर + सूरजमुखी (1.2), सूरजमुखी + सोयाबीन (3.3), सूरजमुखी + उड़द (1.1), मूँगफली +सूरजमुखी (6.2 कतार अनुपात) में उगाना चाहिए।

कटाई एवं गहाई

    सूरजमुखी की फसल खरीफ में 80-90 दिन, रबी में 105-130 दिन तथा जायद में 100-110 दिन में तैयार हो जाती है। शीत ऋतु मे कम तापमान के कारण फसल अधिक समय में परिपक्व होती है। जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें, पुष्प आधार की पिछली सतह पीली पड़ जाए और ब्रेक्ट भूरे पड़ने लगे तो उस समय फसल को काटना उपयुक्त रहता है। यह अवस्था  सामान्यतया परागण  के लगभग 45 दिन बाद आती है। इस समय मुंडक सूखे नहीं दिखते है,परन्तु बीज पक जाते हैं। बीजों में इस समय लगभग 18 प्रतिशत नमी होती है। कटाई हँसिया से या हाथ से उखाड़  कर करते हैं तथा मुंडक को अलग कर लेते हैं। कटाई पश्चात सूरजमुखी के मुंडकों  को 5-6 दिन तक सुखाने के बाद डंडों से पीटकर बीज को अलग कर लिया जाता है। अधिक क्षेत्रफल में उगाई गई फसल की गहाई थ्रेसर से भी की जा सकती है। बीजों को साफ करने के बाद धूप में सुखा लेना चाहिए।

उपज एवं भंडारण

    सूरजमुखी की संकुल किस्मों से 15 - 20  एवं संकर क्विंटल किस्मों  से 20 - 30  क्विंटल  प्रति हे. उपज प्राप्त होती है। खरीफं ऋतु की अपेक्षा रबी एवं बसंत में सूर्यमुखी की उपज अधिक प्राप्त होती है। बीज को भंडारित करने के पूर्व 2-3 दिन तक अच्छी प्रकार से सुखाना आवश्यक है। जब बीजों में नमी की मात्रा 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाय तब उनको उचित स्थान पर संग्रहित  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीजों में सुसुप्तावस्था   लगभग 45 - 50 दिन की होती है।

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