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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन की योजना एवं उन्नत तकनीक

डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक-सह-प्रमुख वैज्ञानिक
सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

            विश्व में सर्वाधिक पशुधन संख्या में सुमार होने के कारण  भारत  सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है।  देश की कुल सकल आय का लगभग 15-16 प्रतिशत आय पशुधन से प्राप्त  होती है। परन्तु हमारे देश में  प्रति पशु उत्पादकता बहुत कम है जिसका मुख्य कारण पशुधन को संतुलित आहार का उपलब्ध न होना है। भारतीय दुग्ध उत्पादन में 70 % दूध की आपूर्ति भूमिहीन किसानो से होती है।   दूध का उत्पादन तेजी से बढ़ाने के लिए पशुओं को अच्छी गुणवत्ता वाला चारा  आवश्यक है। यह सर्व विदित है की दुधारू पशुओं पर करीब 60 से 70 फीसदी खर्च सिर्फ उनकी खुराक पर होता है। आवश्यक है कि  पशुओं की खुराक उनके उत्पादन के अनुरूप उचित एंव संतुलित हो जिसमे सभी आवश्यक तत्व यथा प्रोटीन, खनिज लवण,विटामिन, वसा,कार्बोहाइड्रेट एवं जल संतुलित मात्रा में विद्यमान हो।   प्राय: पशुपालक  सूखा चारा  तथा थोड़ा बहुत दाना ही अपने दुधारू पशुओं को खिलाते हैं, जिससे पशु पालक को जितना उत्पादन मिलना चाहिए उतना नहीं मिलता।  परिणामस्वरूप अधिकांश किसानों का पशुपालन व्यवसाय से मोह भंग होता जा रहा है।
पशुधन आबादी एवं चारा फसलों का क्षेत्रफल   
                पशुओं के संतुलित आहार में हरे चारे का विशेष महत्व होता है क्योंकि हरा चारा पशुओं के लिए पोषक तत्वों का एक किफायती स्त्रोत है। भारत  का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल विश्व के संपूर्ण भू-भाग का मात्र 2 प्रतिशत है जबकि यहॉं पशुओं की संख्या विश्व की संख्या का 15 प्रतिशत है।   देश में पशुओं की संख्या अमूमन 450 मिलियन  है जिसमें प्रतिवर्ष 10 लाख पशु के हिसाब से बढ़ोत्तरी हो रही है। हमारे देश  में पशुओं के लिए आवश्यक  पौष्टिक आहार की हमेशा  से ही कमी रही है  क्योकिं  हमारे देश में लगभग 4  % भूमि में  ही चारा उत्पादन का कार्य किया जाता है। जबकि पशुधन की आबादी के हिसाब से 12 से 16 % क्षेत्रफल में चारा उगाने की आवश्यकता  है।
पशुधन के लिए चारा उत्पादन के लिए संभावित  विकल्प 
         देश में कृषि योग्य भूमि की  उपलब्धता  दिन प्रति दिन कम होती जा रही है।  सीमित भूमि एवं अन्य संसाधनो में ही  हमें खाद्यान्न, दलहन, तिलहन, गन्ना, कपास, सब्जिओं आदि फसलों की खेती करना है।  अतः  चारा फसलों के अंतर्गत उपलब्ध क्षेत्र एवं  बेकार परती पड़ी जमीनों एवं  चरागाह भूमि से चारे की उत्पादकता में सुधार पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पशुधन की बाहुल्यता है यहां बंजर एवं लवणीय भूमि में चारा उगा कर 90 मिलियन टन हरे चारे  की पैदावार की जा सकती है। इसके साथ ही बहुवर्षीय घास लगाकर तथा फसलों के अवशेष के प्रसंस्करण से तैयार चारा   भारत के पशुधन को उपलब्ध कराया जा सकता  है ।अतिरिक्त उत्पादित हरे चारे के संरक्षण के तरीकों को भी अमल में लाना होगा जिससे कि हरे चारे की कमी के समय पर इसकी उपलब्धता बढ़ाई जा सके। पशु पालन एवं दुग्धोत्पादन  की सफलता मुख्य रूप से उत्तम नश्ल के दुधारू पशुओं  एवं पौष्टिक चारे की उपलब्धता पर निर्भर करती है । 
प्रति इकाई चारा उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक सुझाव
1. अधिक उत्पादन क्षमता के आधार पर चारा फसलों  की उन्नत प्रजातियों  का चयन करना चाहिए  ।
2. चारा फसलों  को  उगाने के लिए उन्नत कृषि तकनीक का उपयोग करें  ।
3. चारा फसलों की उचित बढ़वार के लिए  खेत में  संतुलित पोषक तत्वों  का उपयोग आवश्यक है  ।
4. इन फसलों में भी उचित जल प्रबन्ध व पौध  संरक्षण के  उपाय  अपनाना चाहिए ।
5. सूखा सहन करने वाली चारा फसलों  एवं किस्मों  की खेती  करना चाहिए ।
6. सघन  फसल चक्रों में कम अवधी वाली चारा फसलों का समावेश करना चाहिए।
7. खाली परती अथवा बंजर भूमियों में चारा फसलों की खेती को बढ़ावा मिलें साथ ही ग्राम पंचायतों के सरंक्षण में गावों  में उपलब्ध घांस जमीनो में  आवश्यक रूप से चारागाह विकसित होना चाहिए।   

वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन कैसे करें

        सफल पशुधन व्यवसाय के लिए वर्ष भर हरा चारा उत्पादन अत्यंत आवश्यक है।  सीमित प्राकृतिक  संसाधनों का  सक्षम उपयोग  करते हुए वर्ष पर्यन्त पौष्टिक हरा चारा उत्पादन की प्रमुख विधिया है: 
1. निरन्तर हरा चारा उत्पादन की  फसल पद्धति 
            सघन डेयरी उद्योग  के लिए चारा उत्पादन की आदर्श सस्य विधि वह है जिससे कि प्रति इकाई क्षेत्र  एवं समय में अधिकतम पौष्टिक हरा चारा उत्पादन किया जा सके । इस उद्देश्य को  ध्यान में रखते हुए वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन की विधि विकसित की गई है जिसे परस्पर व्यापी (ओवर लेपिंग  क्रापिंग) फसल पद्दति कहते है । इस विधि की प्रमुख बिशेषताएं  हैः
1. अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े  में खेत को  तैयार कर बरसीम (वरदान या जवाहर बरसीम-2 किस्म ) की बुवाई करनी चाहिए । खेत  की तैयारी या बुवाई के समय ही बरसीम के लिए 20 किग्रा. नत्रजन और  80 किग्रा. फॉस्फोरस  प्रति हेक्टर की दर से देनी चाहिए।
2. प्रथम कटाई में अच्छी उपज के लिए बरसीम के बीज में द¨ किल¨ प्रति हेक्टर की दर से जापानी सरस¨ का बीज मिला कर ब¨ना चाहिए ।
3. समतल क्यारिओं  में पानी भर कर मचाकर (गंदला कर) बरसीम की बुवाई करना उत्तम पाया गया है ।
4. जब तक पौध  भूमि में अच्छी प्रकार से स्थापित न हो  जाए तब तक 2-3 बार हल्की सिंचाई 4-5 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। इसके बाद शरद में 15 दिन तथा बसंत में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना चाहिए ।
5. बरसीम की पहली कटाई 45-50 दिन  पर एवं बाद की कटाईयां 25-30 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। फरवरी के प्रथम पखवारे तक बरसीम की तीन कटाईयां ल्¨ने के बाद संकर नैपियर घास के जड़दार कल्लों  को  1-1 मीटर के अन्तर पर कतारों  में लगाना चाहिए । कतारों  में पौध  से पौध  की दूरी 30-35 सेमी. रखनी चाहिए।
6. मार्च के अन्त में बरसीम की अंतिम कटाई  के बाद नैपियर घास की कतारों  के मध्य की भूमि तैयार करके उसमें लोबिया की दो  कतारे बोना चाहिए।
7. गर्मी में 10-12 दिन के अन्तर से सिंचाई करते रहना चाहिेए।
8. जून मध्य तक लोबिया की कटाई करने के बाद नैपियर की कतारों  के बीच की भूमि तैयार करके उसमें 50 किग्रा नत्रजन, 100 किग्रा  फॉस्फोरस  एवं 40 किग्रा  पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए।
9. नैपियर की कटाई 45-50 दिन पर करनी चाहिए एवं प्रत्येक कटाई के बाद भूमि की उर्वरा शक्ति के अनुसार 40 किग्रा नत्रजन  प्रति हेक्टर की दर से देना चाहिए।
10. नवम्बर के प्रथम सप्ताह में पुनः पूर्व  की भांति बरसीम की बुवाई करनी चाहिए एवं गर्मी में लोबिया अथवा ग्वारफली की बुवाई करना चाहिए।
11. दूसरे वर्ष के आरम्भ में खाद देते समय फॉस्फोरस  की मात्रा  आधी कर देना चाहिए ।
12. तीसरे वर्ष नवम्बर में बरसीम की बुवाई से पहले  नैपियर की जड़ों  की छटाई कर देनी चाहिए जिससे बरसीम बढ़वार के लिए पर्याप्त जगह मिल सकें।
इस प्रकार इस तकनीक से प्रथम वर्ष में 2800, द्वितिय वर्ष में 2300 एवं तृतीय वर्ष में 1700 क्विंटल प्रति हेक्टर  हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार प्रतिदिन ।7.6, 6.3 4.65 क्विंटल  प्रति हेक्टर ओसत  पैदावार प्राप्त होती है जिससे 8-10 लीटर दूध देने वाले  5-6 दुधारू पशु पाले  जा सकते है ।  आवश्यकता से अधिक हरा चारा उत्पादन होने पर बचत  चारे को  साइलेज  या हे के रूप में संरक्षित कर उसका उपयोग चारा कमी के समय में किया जा सकता है।
उपरोक्त फसल चक्र में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है जैसे संकर हाथी घास(नैपियर) के स्थान पर गिनी घास लगाई जा सकती है। बरसीम की जगह रिजका (लूर्सन) लगाया जा सकता है। लोबिया के स्थान पर ग्वार या सोयाबीन  लगा सकते है। फसलों  का चयन स्थान विशेष  की जलवायु व भूमि की किस्म के हिसाब से करना अच्छा रहता है। इसके अलावा नैपियर घास के मध्य कतारों  की दूरी भी बढ़ाई जा सकती है जिससे आधुनिक कृषि यंत्रों  का प्रयोग  आसानी से किया जा सकें । इस पद्धत्ति के प्रमुख लाभ है :
1. इस पद्धति से वर्ष पर्यन्त हरा चारा प्राप्त होता रहता है ।
2. दलहनी फसलों  के समावेश से खेत  की उर्वरा शक्ति बढ़ती  है ।
3. नैपियर (हाथी घास) आसानी से  सभी ऋतुओं में  स्थापित हो  जाती है ।
वर्ष भर हरा चारा प्राप्त करने का चारा कैलेंडर 
माह उपलब्ध हरे चारे
जनवरी बरसीम, रिजका, जई, मटर, तिवउ़ा,सरसों 
फरवरी बरसीम, रिजका, जई, मटर, नैपियर, पैरा घास
मार्च गिनीघास, रिजका, बरसीम, नैपियर,सेंजी
अप्रैल नैपियर, ज्वार, दीनानाथ घास, बाजरा, मक्का,ल¨बिया, ग्वार
मई मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, लोबिया
ज्ून मक्का, ज्वार, बाजरा, नैपियर, गिनी घास, ग्वार
जुलाई ज्वार, मक्का, बाजरा, लोबिया, ग्वार, नैपियर, गिनी घास
अगस्त मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, लोबिया
सितम्बर सुडान घास, मक्का, ज्वार, बाजरा,  नैपियर, गिनी घास, लोबिया
अक्टूबर सुडान घास, नैपियर, गिनी घास, पैरा घास, मक्का, ज्वार, लोबिया
नवम्बर नैपियर, सुडान घास, मक्का, ज्वार, सोयाबीन
दिसम्बर ब्रसीम, रिजका, जई, नैपियर, सरसों, शलजम
वर्ष भर हरा चारा  उत्पादन एवं उपलब्धता की समय सारिणी
चारा फसल बोने का समय चारे की उपलब्धता कटाई संख्या चारा उपज (क्विंटल/हे)
ल¨बिया मार्च से जुलाई मई से सितम्बर 1 175-200
ज्वार(बहु-कटाई) अप्रैल से जुलाई जून से अक्टूबर 2-3 500-600
म्क्का मार्च से जुलाई मई से सितम्बर 1 200-250
बजरा मई से अगस्त जून से अक्टूबर 1 200-250
मकचरी मार्च से जुलाई मई से अक्टूबर 2-3 500-600
ब्रसीम अक्टूबर से नवम्बर दिसम्बर से अप्रैल    4-5 700-1000
जई अक्टूबर से दिसम्बर जनवरी से मार्च 1-2 200-250
रिजका अक्टूबर से नवम्बर         दिसम्बर से अप्रैल 5-6 500-600
नैपियर (हाथी घास) फरवरी से सितम्बर  पूरे वर्ष 7-8 1500-2000
गिनी घास मार्च से सितम्बर पूरे वर्ष 6-7 1200-1500

2. रिले  क्रापिंग पद्धति     
इस विधि के अन्तर्गत एक वर्ष में 3-4 फसलें  अर्थात एक के बाद दूसरी चारा फसलें  उगाई जाती है । इस विधि में सिंचाई, खाद-उर्वरको  की अधिक आवश्यकता एवं कृषि कार्य  की अधिकता होती है ।
रिले  क्रापिंग के प्रमुख फसल चक्र
1 . मक्का+लोबिया-मक्का+लोबिया-बरसीम+सरसों 
2 . सुडान घास+लोबिया-बरसीम+जई
3 . संकर नैपियर- रिजका
4 . मक्का+लोबिया-ज्वार+ लोबिया-बरसीम-सूडान चरी 
5 . ज्वार + लोबिया-बरसीम+जई

3. पौष्टिक चारे की अधिक उपज के लिए मिश्रित खेती 
                 आमतौर  पर किसान भाई ज्वार, मीठी सुडान, मक्का, बाजरा आदि एक दलीय चारा फसलें  उगाते है जिनसे हरा एवं सूखा चारा तो पर्याप्त मात्रा  में मिलता है । परन्तु इन चारों  में प्रोटीन  की प्रचुर मात्रा  नहीं होती है। एक दलीय चारा फसलों  की तुलना में द्वि दलीय चारा फसलें  यथा लोबिया,  ग्वार, आदि में प्रोटीन  प्रचुर मात्रा में  पाई जाती है परन्तु इनसे चारा उत्पादन कम होता है। शोध परिणामों से ज्ञात होता  है कि एक दलीय एवं द्वि  दलीय चारा फसलों को  पृथक-पृथक कतारों  में (2:2) बोने से अधिक एवं पौष्टिक चारा उपलब्ध  होता है । कतार विधि की तुलना में छिंटकवां विधि (मिश्रित खेती ) से पैदावार काफी  कम प्राप्त  होती है ।
 4. खाद्यान फसलों  के बीच रिक्त स्थानों  में चारा उत्पादन

            शोध परीक्षणों  से ज्ञात हुआ है कि अनाज  के लिए उगाई जाने वाली ज्वार मक्का या बाजरा की दो  कतारों  के मध्य रिक्त स्थान में लोबिया की एक कतार लगायी जाए और  40-45 दिन पर उसकी कटाई कर ली जाए तो ज्वार की पैदावार पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है साथ ही लगभग 100 क्विंटल  प्रति हेक्टर  लोबिया से हरा चारा प्राप्त हो जाता है ।
5. हरे चारे की सर्वाधिक कमीं के समय चारे की आपूर्ति 

              प्रायः उत्तर भारत में बरसात के पूर्व मई-जून में तथा बरसात के बाद अक्टूबर-नवम्बर में चारे की उपलब्धता में बहुत कमी ह¨ती है । चारे की इस कमी के समय क¨ लीयन पीरियड कहते है । ऐसे समय चारे की कमी को  पूरा करने के लिए आवश्यक उपाय अग्र प्रस्तुत है :
1. रबी की फसल की कटाई के बाद (मई-जून) एवं खरीफ की फसल बोने के पहलें  शीघ्र तैयार होने वाली चारे  की फसल उगाई जानी चाहिए ।
2. इस अवधि  में चारे के लिए मक्क+लोबिया, चरी+लोबिया, बाजरा व  लोबिया की मिलवां खेती  से 250-300 हरा चारा  हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
3. इसी प्रकार शीघ्र तैयार होने वाली ज्वार, बाजरा या भुट्टे के लिए उगायी गयी मक्का के काटने के बाद एवं गेहूं की बुवाई के बीच भी काफी समय बचता है । इस समय शीघ्र तैयार होने वाली फसले  जैसे जापानी सरसो, शलजम आदि लगाकर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
 6. अब होगी हवा में चारे की खेती  
               हाईड्रोपोनिक्स एक ऐसी तकनीक है, जिसमें फसलों को बिना खेत में लगाए केवल पानी और पोषक तत्वों से उगाया जाता है।  इस विधि से चारा  मक्के से उगाया जाता है। इसके लिए 1.25 किलोग्राम मक्के के बीज को चार घंटे पानी में भिगोया जाता है फिर उसे 90 x 32 सेमी की ट्रे में रख दिया जाता है। एक हफ्ते में यह हरा चारा तैयार हो जाता है। ट्रे से निकालने पर यह चारा जड़, तना और पौधे वाले मैट की तरह दिखता है। एक किलोग्राम पीला मक्का  से 3.5 किलोग्राम और एक किलोग्राम सफेद मक्का  से 5.5 किलोग्राम हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा तैयार होता है। आईसीएआर अनुसंधान परिसर हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा के उत्पादन और इसके मानकीकरण के साथ ही किसानों को इस संबंध में तकनीकी परामर्श भी उपलब्ध करा रहा है। 
7. खरीफ एवं रबी ऋतु में के मध्य समय में हरे चारे की उपलब्धता आवश्यकता से अधिक रहती है।  ऐसे में अतरिक्त हरे चारे को साइलेज अथवा हे के रूप में सरंक्षित कर लेना चाहिए तथा चारे की कमी वाले समय इसका सदुपयोग करना चाहिए।  

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