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शनिवार, 26 मई 2018

वर्षा निर्भर क्षेत्रों में टिकाऊ उत्पादन और अधिक आमदनी के कारगर उपाय


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर, 
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान) 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, 
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

                  विश्व की बढती आबादी के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए हमे कम से कम भूमि से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना होगा।  हमारे पास उपलब्ध कृषि क्षेत्र में, अधिक से अधिक भूमि का उपयोग कर लिया गया है तथा कृषि क्षेत्र के विस्तार की अब सम्भावना नहीं है।  अब प्रश्न यह उठता है की मिट्टी, पानी एवं हवा को प्रदूषित किये बिना, पर्यावरण की दृष्टी से सुरक्षित, सामाजिक रूप से मान्य तथा आर्थिक दृष्टिकोण से व्यवहारिक तरीकों से क्या हम फसलोत्पादन के लक्ष्यों को वाकई हासिल  कर सकते है।  विश्व का ७५-९० % भूभाग कम वर्षा वाले क्षेत्र के अंतर्गत आता है।  संसार में पैदा होने वाली अरहर का ९५%, जुआर का ९०%, बाजरे का ८०% और मूंगफली का ५०%  वर्षा आश्रित क्षेत्रों  के किसान पैदा कर रहे  है और   आने वाले समय में विश्व की बढती जनसँख्या की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक फसलोत्पादन इसी क्षेत्र से आने की सम्भावना है।   भारत में ६०-६५% खेती पुर्णतः वर्षा पर निर्भर है।  वर्षा आश्रित  खेती को ही बारानी खेती कहा जाता है।  देश में कुल खाद्द्यान्न उत्पादन का अमूमन ४४% भाग इन्ही क्षेत्रों से आता है और देश की कुल आबादी के ४०% लोगों की आवश्यकता इससे पूरी होती है। वर्षा जल तथा अन्य  संसाधनों की उपलब्धतता की दृष्टि से इन क्षेत्रों में व्यापक क्षेत्रीय असमानताएं विद्यमान है।  हमारे देश का लगभग ३०% क्षेत्र (१०.९ करोड़ हेक्टेयर) सूखे की आशंका वाला है, जहाँ ०-७५० मिमी तक वार्षिक वर्षा होती है। वहीँ  ४२% क्षेत्र पर ७५०-११५० मि.मी., २०% क्षेत्र पर ११५०-२००० मि.मी. और शेष ८% क्षेत्र में  २००० मि.मी. से अधिक वर्षा का लाभ मिलता है।  देश के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में खेती के लिए सिचाई तो दूर पीने के पानी की भी किल्लत होती है. सामान्यतौर पर देश में औसतन १२०० मिमी वार्षिक वर्षा होती है जिसका ७५-९० % हिस्सा जून से सितम्बर के समय दक्षिण-पश्चिमी मानसून के सक्रीय होने से होती है. वर्षा में अनिश्चितता और विभिन्नता के कारण एक तरफ शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में सूखे से फसलोत्पादन प्रभावित होता है तो दूसरी ओर अधिक वर्षा से मृदा कटाव और बाढ़ से फसलोत्पादन प्रभावित होता है।

 टिकाऊ  कृषि  प्रबंधन के कारगर  उपाय

            स्थाई कृषि प्रबंधन के तहत ऐसी दीर्धकालीन कृषि प्रक्रियाओं का विकास करना है जो उत्पादक और लाभप्रद हो, जिनसे प्राकृतिक संसाधनों का सरंक्षण हो सके, पर्यावरण सुरक्षित रहे, उत्पाद में गुणवत्ता कायम रहे तथा स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की दृष्टि से लाभप्रद भी हो.इस उद्देश्य की पूर्ती हेतु हमे कम लागत वाली ऐसी कृषि तकनीकों की व्यवस्था करनी होगी जिनसे प्रबंधन में दक्षता आये और फसल उत्पादन में काम आने वाले कृषि संसाधनों का कुशल उपयोग हो सकें तभी हम बारानी क्षेत्रो में फसल उत्पादन को स्थायित्व प्रदान कर सकते है। फसलो की अदला बदली करके (फसल परिवर्तन) बुआई जैसे दलहनी फसलों के बाद धान्य फसलों की बुआई करना चाहिए। रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, जैव उर्वरक आदि के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना चाहिए अथवा रासायनिक और जैविक खाद को 2/3 और 1/3 के अनुपात को अपनाना मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन की दृष्टि उपयुक्त माना गया है.इससे फसल उत्पादकता में स्थायित्व लाया जा सकता है। रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग न करें वरन इनका संतुलित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए जैसे अनाज वाली फसलो के लिए 4:3:1 के अनुपात में नत्रजन:स्फुर:पोटाश की मात्रा देना चाहिए एवं दलहनी फसलो में 1:2:1 के अनुपात में उक्त तत्व देना लाभकारी पाया गया है।
                   अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में प्राप्त वर्षा जल का सरंक्षण करना, जैव कीटनाशी,फफूंदनाशी और खरपतवारनाशी के आवश्यकतानुसार प्रयोग को बढावा देना चाहिए. तालाबो में वर्षा जल को एकत्रित करना तथा खेत में मेंढ़ बंदी कर वर्षा जल को सरंक्षित करना चाहिए. तालाबों में एकत्रित जल से हम सूखे की स्थिति में जीवनदायी सिचाई दे सकते है. खेत में सरंक्षित नमीं का उचित उपयोग कर हम फसल उत्पादन में वृद्धि कर सकते है। बारानी फसलो की बुआई के समय ही ही खाद-उर्वरक देना चाहिए या फिर जीवन दाई सिचाई के समय इनका प्रयोग करना लाभदायक रहता है. इसके साथ साथ खरपतवारों का समन्वित नियंत्रण करने से फसलोत्पादन  में इजाफा होता है। बारानी खेती में उचित फसल पद्धति अपनाने से उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी होती है। इन क्षेत्रों में एक फसली खेती या फिर अंतरवर्ती फसल प्रणाली अपनाने से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लिया जा सकता है। फसलोत्पादन के साथ साथ पशुपालन (गाय, भैस, बकरी भेड़ पालन), मुर्गी पालन आदि सहायक कृषि व्यवसाय लाभदायक रहते है। इन क्षेत्रों की समस्याग्रस्त भुमिओं में फलदार वृक्ष लगाना अथवा वन-वृक्ष लगाने से ईधन, चारा, इमारती लकड़ी के साथ साथ अनेक प्रकार के खाद्ध्य पदार्थ प्राप्त किये जा सकते है।  इन जमीनों के उचित प्रबंधन से फसल उत्पादन भी किया जा सकता है।

स्थायी संसाधन प्रबधन


भूमि, जल, जलवायु, पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ कृषि विकास के स्तम्भ है जिनके उचित सरंक्षण और प्रबंधन से ही स्थायी कृषि विकास और मानव कल्याण संभव है.हमें ऐसी कृषि तकनीकियों को अमल में लाना होगा जिनसे कृषि उत्पदान और अनाज की गुणवत्ता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े और साथ ही साथ भूमि, जल,पर्यावरण और जैव विविधितता भी असंतुलित न हो।  कृषि में सौर्य उर्जा के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और खाद्धय पदार्थों की गुणवत्ता और शुद्धता बनाये रखने के लिए हमें रासायनिको का प्रयोग कम करना होगा अपितु रासायनिक खेती की वजाय जैविक खादों का इस्तेमाल कर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना होगा।

भूमि का सही प्रबंधन


बारानी अथवा शुष्क कृषि के स्थायित्व के लिए भूमि की उत्पादकता बढ़ाना निहायत जरुरी है.वर्तमान में बारानी कृषि की फसल उत्पादकता ८-१० क्विंटल प्रति हेक्टेयर है जो कि नाकाफी है. उत्पादकता का मापन हम फसल उत्पादन से करते है जबकि भूमि उत्पादकता को प्रभावित करने वाले तमाम कारको यथा मृदा कटाव,पोषक तत्वों का वर्षा जल के साथ बह जाना, अम्लीयता, क्षारीयता, जल भराव, मरुस्थलीकरण आदि की अवहेलना कर देते है. जबकि फसल अवशेष प्रबंधन,जल सरंक्षण, जल निकास,कंटूर का निर्माण, संतुलित उर्वरक प्रबन्धन, उचित फसल चक्र, मृदा प्रबन्धन आदि का मिट्टी, जलवायु और फसल प्रणाली के साथ तालमेल करके भूमि की उत्पादकता में वृद्धि कर सकते है।

वर्षा जल का उचित प्रबंधन


बारानी क्षेत्रों की उत्पादकता बढाने के लिए प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल का सरंक्षण और उसका सही उपयोग सफल फसल उत्पादन का महत्वपूर्ण कारक है। इन क्षेत्रों में प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्रों के समुचित प्रबंधन एवं पानी के समन्वित रूप से उपयोग को बढ़ावा दिया जाना अत्यावश्यक है.खेत का पानी खेत में और गाँव का पानी गाँव में सरंक्षित करने की अवधारणा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इन क्षेत्रों में दबाव पर आधारित सिंचाई प्रणालियों जैसे स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई अपनाने से पानी की बचत भी होती है और कम पानी में हम अधिक क्षेत्र में सिंचाई दे सकते है.जिन बारानी क्षेत्रों में बलुई दोमट मिट्टी पायी जाती है वहां वर्षा से पहले जुताई कर लेनी चाहिए तथा ढलान के विपरीत दिशा में चारों  तरफ ऊंची (लगभग ५० सेमी ) मेड बना लेना चाहिए, इससे वर्षा जल सरंक्षण में मदद मिलती है.कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मानसून से पहले खेत की गहरी जुताई (२५ सेमी) से भूमि में वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते है की बारानी क्षेत्रों में वर्षा जल के उचित प्रबंधन से वहां की उत्पादकता को दुगना किया जा सकता है।

              बारानी क्षेत्रों में सिंचाई का एकमात्र साधन वर्षा जल ही होता है।  किसी भी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता की अवधि के निर्धारण के लिए कुल वर्षा, उसका वितरण और वाष्पन से होने वाली हाँनि का आकलन करना आवश्यक है. इन क्षेत्रों में फसलों के लिए पानी की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है जब वर्षा की मात्रा और वाष्पन से होने वाली क्षति का अनुपात कम से कम ०.३३ होता है. इसे आद्रता की उपलब्धतता का सूचकांक भी कहा जाता है.इसके आधार पर जमीन में नमीं की उपलब्धता सुनिश्चित करते हुए फसल बुआई के समय का निर्धारण किया जा सकता है.मान लीजिये की कही औसत वर्षा ७५० मिमी हो रही है तो बुआई का समय जमीन में ७५% आद्रता स्तर के आधार पर १५-२० सप्ताह हो सकता है।

समेकित फसल प्रबंधन


आमतौर पर बारानी क्षेत्रों में दलहनी फसलें जैसे अरहर, मोठ, चना. मसूर, गुआर आदि धान्य फासले जैसे जुआर, बाजरा, रागी,कोदो, जौ आदि तथा तिलहनी फसलें जैसे मूंगफली,सरसों, अलसी आदि की खेती प्रचलित है. इन फसलों के लिए उपयुक्त क्षेत्र अनुसार कम अवधि वाली एवं कम पानी  चाहने वाली फसल और उनकी उन्नत किस्मो का चयन कर उचित समय पर सही विधि से बुआई  करने से प्रति इकाई बेहतर उपज प्राप्त की जा सकती है। फसलों को फसल चक्र के सिद्धांत के अनुसार अदल-बदल कर बोना, खेत में  उपलब्ध नमीं  के अनुसार एक फसल लेना या अंतरवर्ती फसल प्रणाली को अपनाना चाहिए जिससे प्रति इकाई  क्षेत्रफल से अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकें।

संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन


कहते है बारानी क्षेत्रों की जमीने न केवल प्यासी है बरन वे भूखी भी है। अतः वर्षा जल प्रबंधन के साथ साथ इन जमीनों में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की सही खुराक देना भी उत्तम फसल उत्पादन के लिए आवश्यक पाया गया है.इन क्षेत्रों के किसान बहुदा खाद एवं उर्वरक का उपयोग कम और असंतुलित मात्रा में करते है जिससे उन्हें बांक्षित उत्पादन नही मिलता है। इन क्षेत्रों में पोषक तत्वों का संतुलित प्रयोग साधारणतया खेत में नमी की उपलब्धता या जीवनदायी सिंचाई पर निर्भर करता है. सभी आवश्यक पोषक तत्वों (नत्रजन, फॉस्फोरस व् पोटाश) को बुआई के समय ही कूंड में हल के पीछे देना या फिर सीड-कम-फर्टी ड्रिल मशीन द्वारा बीज के साथ उचित गहराई पर देना लाभदायक रहता है. इससे पोषक तत्व आसानी से पौधो को उपलब्ध होकर उनके वृद्धि एवं विकास में मदद करते है. यदि जीवन रक्षक सिंचाई की उपलब्धता है अथवा संयोग से फसल वृद्धिकाल में वर्षा हो जाती है तो नत्रजन की एक चौथाई मात्रा को कड़ी फसल की कतारों (टॉप ड्रेसिंग) में देना बहुत लाभदायक रहता है।

इष्टतम पौध संख्या एवं खरपतवार प्रबंधन


बारानी क्षेत्रों में अधिकतम उत्पादन लेने के लिए प्रति इकाई क्षेत्र में पौधों की उचित संख्या को व्यवस्थित करना  बेहद जरुरी होता है। आवश्यकता से अधिक पौध संख्या प्रति वर्ग मीटर वाष्पोत्सर्जन को बढ़ावा देती है जिससे खेत में  नमी समाप्त हो जाने से पौधों की वृद्धि एवं विकास अवरुद्ध हो जाता है। दूसरी तरफ कम पौध संख्या होने से भी उपज कम हो जाती है।  अतः बुआई के १५ दिन बाद पौधो का विरलन कर खेत में पौधों की इष्टतम संख्या व्यवस्थित कर लेना चाहिए।  फसल की प्रारम्भिक वृद्धिकाल के समय ही खरपतवारों का उन्मूलन/नियंत्रण कर लेने से उत्पादन अच्छा होता है।  क्योंकि खरपतवार पानी, पोषक तत्व और प्रकाश के लिए फसल के साथ प्रतियोगिता करके फसल को बुरी तरह नुकसान पहुंचाते है. अतः समय पर समेकित खरपतवार नियंत्रण   करना जरुरी है. दलहनी फसलो में पेंडीमेथालिन १-१.२५ किग्रा एवं तिलहनी फसलों में फ्लुक्लोरालिन १.१.५ किग्रा दवा को ५००-६०० लिटर पानी में घोलकर बुआई के पूर्व और बुआई के तुरंत बाद खेत में छिडकाव करने से खरपतवारों को नियंत्रित रखा जा सकता है। इसके बाद बुआई के ३०-३५ दिन बाद पुनः जमे हुए खरपतवारों को निंदाई गुड़ाई करके समाप्त किया जा सकता है. इस प्रकार फसल की इष्टतम पौध संख्या स्थापित करने के साथ समय पर खरपतवार नियंत्रण से भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है।

अपनाने होंगे कृषि आधारित उद्यम  


शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में अनिश्चित और अनियमित वर्षा के कारण  सिर्फ फसलोत्पादन से आर्थिक सम्पन्नता नहीं आ सकती है. इन क्षेत्रों में हमे कृषि भूमि के वैकल्पिक उपयोग पर भी ध्यान देना होगा. अतः  अनाज, दलहन और तिलहनी फसलो के साथ साथ खेतों में  फलदार वृक्ष लगाकर कृषि को लाभदायक बनाया जा सकता है.अदाहरण के लिए बेर, खेजड़ी, आंवला,आम, बेल आदि फलदार वृक्षों को उगाना लाभदायक पाया गया है.खेती के साथ साथ इन क्षेत्रो में गाय-भेष पालन,भेड़-बकरी पालन जिसे कृषि आधारित व्यवसाय भी आर्थिक दृष्टि से  फायदेमंद पाए गए है.इन क्षेत्रों में फसलोत्पादन को अधिक लाभकारी बनाने के लिए क्यारियाँ बनाकर खेती करना, चारागाह प्रबंधन और सस्य वानिकी जैसी कृषि विधाएं भी उपयोगी साबित हो रही है.

उपसंहार


वर्षा आधारित खेती वाले क्षेत्रों के उत्पादन में स्थायित्व लाने के लिए उन क्षेत्रों में उपलब्ध वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण और उसका सदुपयोग करना नितांत आवश्यक है।  इसके लिए हमे जल सरंक्षण के उपयुक्त तरीके (तालाब, पोखरों, कुओं आदि  में वर्षा जल को एकत्रित करना, नालों में बंधान बनाकर वर्षा जल को बहने से रोकना आदि) अपनाते हुए क्षेत्र/जलवायु के अनुसार उपयुक्त फसलें/किस्मो की खेती करना आवश्यक है. एकल फसल के साथ साथ मिश्रित और अंतरवर्ती फसल प्रणाली अपनाने से कृषि में जोखिम को कम किया जा सकता है.इन क्षेत्रों की कृषि भुमिओं में पोषक तत्वों की भरी कमी देखी गयी है।  अतः   टिकाऊ उपज के लिए बारानी क्षेत्रों में जैविक खेती/ समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.इस प्रकार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि बारानी क्षेत्रों में वर्षा जल प्रबंधन, मृदा एवं फसल प्रबंधन के साथ कृषि के सहयोगी उद्यम अपनाने से इन क्षेत्रों की उत्पादकता और आमदनी में स्थायित्व लाया जा सकता है।

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शुक्रवार, 25 मई 2018

प्लास्टिक-पॉलिथीन का प्रयोग बंद करो, प्रथ्वी को प्रदुषण मुक्त करों


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

प्रकृति एवं मानव ईश्वर की अनमोल एवं अनुपम कृति हैं। प्रकृति अनादि काल से मानव की सहचरी रही है। बगैर पर्यावण के मानव जीवन की हम कल्पना भी नहीं कर सकते है लेकिन आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार के चलते मानव ने सबसे अधिक पर्यावरण को ही चोट पहुंचायी है। स्वार्थी एवं उपभोक्तावादी मानव ने पॉलीथीन के अंधाधुंध प्रयोग से जिस तरह पर्यावरण को प्रदूषित किया और करता जा रहा है उससे सम्पूर्ण वातावरण पूरी तरह आहत हो चुका है। आज के भौतिक युग में पॉलीथीन के दूरगामी दुष्परिणाम एवं विषैलेपन से बेखबर हमारा समाज इसके उपयोग में इस कदर आगे बढ़ गया है मानो इसके बिना उनकी जिंदगी अधूरी है। मानव की सुविधा के लिए ईजाद किया गया पॉलिथीन आज मानव जाति के लिए सबसे बड़ा नासूर बनता जा रहा  है। वर्तमान में प्लास्टिक प्रदूषण एक विश्वव्यापी त्रासदी बन गया है।

विश्व पर्यावरण दिवस 2018 का विषय, “प्लास्टिक प्रदूषण की समाप्ति (बीट प्लॉस्टिक पॉल्युशन)’’ वर्तमान समय की एक बड़ी पर्यावरणीय चुनौती का मुकाबला करने का विश्व आह्वान है। सौभाग्य से  विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून,2018 की वैश्विक मेजबानी भारत को मिली है।  प्लास्टिक को एक गंभीर खतरा मानते हुए केन्द्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने जोर देकर कहा कि विश्व पर्यावरण दिवस 2018 मात्र एक प्रतीकात्मक समारोह नहीं बल्कि एक मिशन है। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आंदोलन है। समूचे विश्व में प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या की गंभीरता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है, कि  इस वर्ष के अंतरराष्ट्रीय प्रथ्वी दिवस (22 अप्रैल,2018) का विषय भी  पृथ्वी पर प्लास्टिक प्रदूषण का खात्मा’ रखा गया यानि विश्व स्तर पर यह माना गया है कि प्लास्टिक पृथ्वी के लिए घातक है।  इस दिवस का भी मकसद आम इंसान को यह समझाना है कि वो पॉलिथीन और कागज का इस्तेमाल ना करे, पौधे लगाये क्योंकि धरा है तो जीवन है। विश्व प्रथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस-2018 का विषय हम सभी को इस बात पर  गहन विमर्श करने के लिए मजबूर  करता है कि हम अपने दैनिक जीवन में किस तरह बदलाव करें जिससे  हमारे प्राकृतिक स्थानों, वन्य जीवन और हमारे निजी स्वास्थ्य पर प्लास्टिक प्रदूषण का मंडराता खतरा कम हो सकें।
          जमीन या पानी में प्लास्टिक उत्पादों के ढेर को 'प्लास्टिक प्रदूषण' कहा जाता है जिससे मनुष्य, पक्षी और जानवरों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह निर्विवाद सत्य है कि प्लास्टिक प्रदूषण का वन्यजीव और मनुष्य पर खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण भूमि, वायु, जलमार्ग और महासागरों को भी प्रभावित करता है। वास्तव में जब हम सड़क, नदी, समुन्द्र किनारे प्लास्टिक के कचरे के ढेर देखते है तो लगता है की हम प्लास्टिक की एक कृत्रिम दुनिया में रह रहे हैं।  अपनी विविध विशेषताओं के कारण प्लास्टिक आधुनिक युग का अत्यंत महत्वपूर्ण पदार्थ बन गया है, जिसे पुर्णतः छोड़ पाना एक मुश्किल कार्य प्रतीत होता है । सस्ता, टिकाऊ, मनभावन रंगों में उपलब्धता और विविध आकार-प्रकारों में मिलने के कारण प्लास्टिक का प्रयोग आज जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। गृहोपयोगी वस्तुओं से लेकर कृषि, चिकित्सा, भवन-निर्माण, सुरक्षा, शिक्षा, मनोरंजन, अंतरिक्ष, अंतरिक्ष कार्यक्रमों और सूचना प्रौद्योगिकी आदि में प्लास्टिक बस्तुओं का उपयोग हो रहा है। बाजार में खरीदारी के लिए रंग-बिरंगें कैरी बैग से लेकर, पेकिंग सामग्री, रसोईघर के बर्तन, कृषि उपकरण, यातायात के साधन, खिलौने आदि प्लास्टिक से ही बनाये जा रहे है।

प्लास्टिक प्रदुषण के कारण  
        प्लास्टिक सस्ता और सर्व सुलभ होने के कारण  प्लास्टिक निर्मित सामग्री का  दैनिक जीवन में  अधिक उपयोग किया जा रहा है। आज प्लास्टिक ने हमारी भूमि और पर्यावरण पर बेजा  कब्ज़ा कर लिया है, जब इसको समाप्त किया जाता है, तो यह आसानी से विघटित नहीं होता है, और इसलिए वह उस क्षेत्र की  भूमि और वातावरण को प्रदूषित करता है। पोलीथिन बैग, प्लास्टिक की बोतलें, बेकार या त्याग दिए गए  इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, खिलौने आदि, विशेषकर शहरी और ग्रामीण इलाकों में नालिओं, नहरों, नदियों और झीलों के जल निकास को अवरुद्ध कर रहे है। विडंबना यह है कि प्लास्टिक के दुष्परिणामों से परिचित होने के बाद भी हम इससे बच नहीं पा रहे हैं। इस समय  हम पिछले 50 साल की तुलना में 20 गुणा अधिक प्लास्टिक का उत्पादन कर रहे हैं और आगामी  20 साल में इसके दोगुना होने की संभावना है। वर्तमान समय में सम्पूर्ण पृथ्वी पर लगभग 1500 लाख टन प्लास्टिक एकत्रित हो चुका है जो पर्यावरण को लगातार क्षति पहुंचा रहा है .आज वैश्विक स्तर पर प्रतिव्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग जहां 18 किलोग्राम है वहीं इसका रिसायक्लिंग मात्र 15.2 प्रतिशत ही है. इसके अलावा प्लास्टिक रीसाइक्लिंग इतना सुरक्षित नहीं माना जाता है क्योंकि प्लास्टिक के रीसाइक्लिंग के माध्यम से अधिक प्रदूषण फैलता है। दुनिया भर में 10 लाख प्लास्टिक की बोतलें प्रति मिनट खरीदी जाती हैं। प्रत्येक वर्ष पूरी दुनिया में 500 अरब प्लास्टिक बैगों का उपयोग किया जाता है।
दुनिया भर में लगभग 70,000 टन प्लास्टिक समुन्द्र में फैंक दिए जाते हैं। मछली पकड़ने के जाल और अन्य प्लास्टिक सामग्री को स्थलीय और जलीय जानवरों द्वारा भोजन समझकर खा लिया जाता है, जिससे उनके शरीर के अंदर प्लास्टिक के जैव- कण संचय हो जाने से उनके श्वसन मार्ग में अवरोध होता है जिससे प्रति वर्ष बड़ी तायदाद में नदी और समुन्द्र की मछलियों और कछुओं की असमय मौत हो जाती हैं। वर्ष 2013 में एक अमेरिकन औसतन 109 किलोग्राम प्लास्टिक का उपभोग कर रहा था, चीन में उपभोग की दर 45 किलोग्राम थी। भारत इस मामले में थोड़ा बेहतर था। यहां प्रति व्यक्ति 9.7 किलोग्राम प्लास्टिक का उपभोग किया जा रहा था। लेकिन इसमें सालाना 10 प्रतिशत का इजाफा भी हो रहा है।

प्लास्टिक प्रदूषण एक गंभीर समस्या 

अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि प्लास्टिक की बोतलों और कंटेनरों का उपयोग मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। एक प्लास्टिक के पाउच  में गर्म भोजन या पानी ग्रहण करने  से कैंसर हो सकता है। जब अत्यधिक सूरज की रोशनी या तापमान के कारण प्लास्टिक गर्म हो जाता है तो उसमें हानिकारक रासायनिक डाईऑक्सीजन का रिसाव शरीर को भारी नुकसान पहुंचाता है . प्लास्टिक मुख्यतः पैट्रोलियम पदार्थों से निकलने वाले कृत्रिम रेजिन से बनाया जाता है। रेजिन में अमोनिया एवं बेंजीन को मिलाकर प्लास्टिक के मोनोमर बनाए जाते हैं। इसमें क्लोरीन, फ्लुओरिन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन एवं सल्फर के अणु होते हैं। लंबे समय तक अपघटित न होने के अलावा भी प्लास्टिक अनेक अन्य प्रभाव छोड़ता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। उदाहरणस्वरूप पाइपों, खिड़कियों और दरवाजों के निर्माण में प्रयुक्त पी.वी.सी. प्लास्टिक विनाइल क्लोराइड के बहुलकीकरण सें बनाया जाता है। रसायन मस्तिष्क एवं यकृत में कैंसर पैदा कर सकता है। मशीनों की पैकिंग बनाने के लिए अत्यंत कठोर पॉलीकार्बोंनेट प्लास्टिक फॉस्जीन बिसफीनॉल यौगिकों के बहुलीकरण से प्राप्त किए जाते हैं। इनमें एक अवयव फॉस्जीन अत्यंत विषैली व दमघोटू गैस है। फार्मेल्डीहाइड अनेक प्रकार के प्लास्टिक के निर्माण में प्रयुक्त होता है। यह रसायन त्वचा पर दाने उत्पन्न कर सकता है। कई दिनों तक इसके संपर्क में बने रहने से दमा तथा सांस संबंधी बीमारियां हो सकती हैं।

  • प्लास्टिक का कचरा जिसे कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है. वह पर्यावरण के लिए कई जहरीले प्रभाव छोड़ सकता है। प्लास्टिक कैरी बैग ने आधुनिक सभ्यता में एक बड़ी समस्या पैदा की है। एक छोटे से शहर में पांच से सात क्विंटल बैग बेचे जाते हैं। प्रदूषण की प्रक्रिया तब शुरू होती है जब उपयोग के बाद कचरे में ले जाने वाले सामान को कूड़े के रूप में फेंक दिया जाता है। बायोडिग्रेडेबल न होने के कारण प्लास्टिक के बैग कभी भी सड़ते नहीं हैं और पर्यावरण के लिए खतरा बन जाते हैं। कैरी बैग कृषि क्षेत्रों में फसलों के प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में बाधा डालते हैं।
  • प्लास्टिक की पैकिंग में लिपटे हुए खाद्य और ड्रग्स रासायनिक प्रक्रिया को शुरू कर इसे दूषित और ख़राब करते हैं। ऐसे भोजन की खपत मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है क्योंकि इससे भयानक रोग होते हैं।
  • हमारे द्वारा फेंके गये गंदे कचरे में प्लास्टिक की थैली और बोतलों को कई पालतू और आवारा जानवरों द्वारा खा लिया जाता है जिससे प्रति वर्ष लाखो पशु पक्षीओ की अकाल म्रत्यु हो जाती है।
  • बरसात के मौसम में, सड़क पर पड़ा हुआ प्लास्टिक का कचरा जो कि पास के जलाशय और नहरों और नालियों में वह जाता है,इस कचरे को मछलियों खाकर मर जाती है । इसके अलावा, प्लास्टिक सामग्री से पानी की गुणवत्ता में भी कमी आ जाती है।
  • समुद्री जल निकायों में प्लास्टिक प्रदूषण के कारण जलीय जानवरों की असंख्य मृत्यु हो रही है, और इससे यह जलीय पौधे भी काफी हद तक प्रभावित हो रहे है।
  • प्लास्टिक संचय के कारण गंदगी बढ़ती है जो मच्छरों और अन्य हानिकारक कीड़े-मकोड़ों के लिए प्रजनन का  आधार बन जाता है, जो कि मनुष्यों में कई बीमारियों का कारण हो सकता है।
  • प्लास्टिक सामग्री से भूमि  की उपजाऊ शक्ति कम हो जाती है और बीज अंकुरण प्रभावित होने से फसल उत्पादन कम होता है । दुनिया भर में अरबों प्लास्टिक के बैग हर साल फेंके जाते हैं। ये प्लास्टिक बैग नालियों के जल प्रवाह को रोकते हैं और आगे बढ़ते हुए नदियों और महासागरों तक पहुंचते हैं। चूंकि प्लास्टिक स्वाभाविक रूप से विघटित नहीं होता है इसलिए यह प्रतिकूल तरीके से नदियों, महासागरों आदि के जीवन और पर्यावरण को प्रभावित करता है। प्लास्टिक प्रदूषण के कारण लाखों पशु और पक्षी वैश्विक स्तर पर मारे जाते हैं जो पर्यावरण संतुलन के मामले में एक अत्यंत चिंताजनक पहलू है। हम बचे खाद्य पदार्थों को पॉलीथीन में लपेट कर फेंकते हैं तो पशु उन्हें ऐसे ही खा लेते हैं जिससे जानवरों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यहां तक की पॉलिथीन खाकर हजारों की संख्या में पालतू और आवारा पशुओं की मौत हो जाती है ।

प्लास्टिक को जलाना ज्यादा घातक 
         प्लास्टिक को फेंकने और जलाने दोनों से ही पर्यावरण को समान रूप से हानि पहुँचती है। चाहे प्लास्टिक को जमीन में डाल दें या पानी में फेंक दें इसके हानिकारक प्रभाव कम नहीं होते हैं। प्लास्टिक सामग्री/अपशिष्ट जलाने से आमतौर पर कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड गैसों का उत्सर्जन होता है जो श्वसन नालिका या त्वचा की बीमारियों का कारण बन सकता है। इसके अलावा पॉलीस्टाइन प्लास्टिक के जलने से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन होता है जो वायुमंडल के ओजोन परत के लिए हानिकारक होता है। इसी तरह पोलिविनाइल क्लोराइड के जलने से क्लोरीन और नायलॉन का उत्पादन होता है और पॉलीयोरेथन नाइट्रिक ऑक्साइड जैसे विषाक्त गैसें निकलती हैं।
प्लास्टिक कचरे का निस्तारण
प्लास्टिक कचरे को ठिकाने लगाने के लिए अब तक तीन उपाय अपनाए जाते रहे हैं। आमतौर पर प्लास्टिक के न सड़ने की प्रवृति को देखते हुए इसे गड्ढों में भर दिया जाता है। दूसरे उपाय के रूप में इसे जलाया जाता है, लेकिन यह तरीका बहुत प्रदूषणकारी है। प्लास्टिक जलाने से आमतौर पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस नकलती है। उदाहरणस्वरूप, पॉलिस्टीरीन प्लास्टिक को जलाने पर कलोरो-फ्लोरो कार्बन निकलते हैं, जो वायमुंडल की ओजोन परत के लिए नुकसानदायक हैं। इसी प्रकार पॉलिविनायल क्लोराइड को जलाने पर क्लोरीन, नायलान और पॉलियूरेथीन को जलाने पर नाइट्रिक ऑक्साइड जैसी विषाक्त गैसें निकलती हैं। प्लास्टिक के निपटान का तीसरा और सर्वाधिक चर्चित तरीका प्लास्टिक का पुनःचक्रण है। पुनःचक्रण का मतलब प्लास्टिक अपशिष्ट से पुनः प्लास्टिक प्राप्त करके प्लास्टिक की नई चीजें बनाना।

स्वच्छ धरा तो सबका भला

       इस वर्ष का  अन्तराष्ट्रीय प्रथ्वी दिवस और विश्व पर्यावरण दिवस हम सभी के लिए स्पष्ट सन्देश दे रहा है कि हम उन विभिन्न तरीकों को अपनाएं जिससे पूरी दुनिया से  प्लास्टिक प्रदूषण का  खात्मा किया जा सके । जरूरी नहीं है कि इसके लिए आप हर बार  प्रथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस का इंतजार करें। देश के नागरिकों को एकजुट होकर भारत सरकार के स्वच्छता मिशन कार्यक्रम   में बढ़ चढ़ कर भागीदारी निभानी चाहिए और अपने आस-पास के गली मुहल्लों, सड़क, नदी नालों, तालाबों, सार्वजानिक स्थलों को साफ़ सुथरा रखने अपना योगदान देना चाहिए . पोलिथीन का प्रयोग बंद करो, प्रथ्वी को प्रदुषण मुक्त करों की मुहीम में हम सभी को जुटना होगा और हर एक व्यक्ति प्लास्टिक से होने वाले नुकसान और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति अपने आस पास के १० लोगों को भी जागरूक करे तो रोजमर्रा में इस्तेमाल हो रहे प्लास्टिक से  बढ़ते  प्रदुषण के खतरे से जन जीवन को बचाया जा सकता है। 
प्लास्टिक के उत्पादन और वितरण पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार को सख्त  कदम उठाना चाहिए। प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट और कपड़े से बनी थैलियों और कागज की थैलियों को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए।  सिंगल-यूज प्लास्टिक बैग की जगह प्लास्टिक के ऐसे प्रकार के बैग बनाए जाएं, जो दोबारा उपयोग करने लायक हों। उन्हें रिसाइकल किया जा सके।अपने क्षेत्रीय प्राधिकरण जैसे नगर निगम, नगर समिति, ग्राम पंचयत पर शहर और गावों  के कूड़े के प्रबंधन में सुधार लाने का दबाव बनाएं। इसके अलावा जन सामान्य को भी अन्य विशेष उपाय अपनाना चाहिए :
  • शॉपिंग के लिए बाज़ार में खुद का बैग लेकर जाएं. दुकानदार/ सब्जी विक्रेताओं को भी  पॉलिथीन बैग प्रयोग न करने की सलाह देना चाहिए। 
  • खाने-पीने की वस्तुएं आपूर्ति करने वालों पर प्लास्टिक रहित पैकेजिंग का उपयोग करने का दबाव बनाएं
  • प्लास्टिक से बनी प्लेटों, ग्लास, चम्मचों आदि का इस्तेमाल करने से मना करें. इनके स्थान पर दोना-पत्तल और मिटटी के वर्तनो के प्रयोग करें। 
  • बाग़-बगीचों, मंदिरों, सार्वजानिक स्थलों,नदी किनारे, समुद्र तट पर टहलते हुए अगर आपको प्लास्टिक सामग्री  दिखे तो उसे उठा कर डस्ट बिन में डालना चाहिए। 
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गुरुवार, 24 मई 2018

अंतरवर्ती फसलोत्पादन का वायदा, उत्पादन और आमदनी ज्यादा


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

हमारे देश की तमाम समस्याओं में से  द्रुत गति से बढती जन संख्या और सिकुड़ती कृषि भूमि सबसे बड़ी समस्या है।  इसके अलावा खेती योग्य जमीनों का जिस प्रकार से लगातार दोहन हो रहा है उससे खेतों की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है जिसके फलस्वरूप प्रति इकाई फसल उत्पादन घटता जा रहा है।  दूसरी तरफ  खेती में दिन प्रति दिन बढती लागत और घटती आमदनी से किसान परेशान है। यदि किसानों के पास उपलब्ध ससाधनों में अन्तर्वर्ती फसल उत्पादन पद्धति अपनाई जाये तो एकल फसल पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है।         
किसी फसल के बीच में दूसरी फसल को उगाने की विधि को सहफसली शस्यन अथवा अंतर्वर्ती फसल पद्धति कहते हैं। जब दो या दो  से अधिक फसलों को समान अनुपात में उगाया जाता है, तो इसे अंत:फसल कहते हैं या अलग अलग फसलों को एक ही खेत में, एक ही साथ कतारों में उगाना ही अंत:फसल कहलाता है. इस विधि से प्रथम फसल के बीच खाली स्थान का उपयोग दूसरी फसल उगाकर किया जाता है। इस प्रकार पहले उगाई जाने वाली फसल को मुख्य फसल तथा बाद में उगाई गई फसल को गौड़ फसल कहते हैं।

अंतर्वर्ती फसल पद्धति  यानि सह फसली खेती में मुख्य रूप से दूर-दूर कतारों में बोई गई फसलों के मध्य स्थित रिक्त स्थान, प्रकाश के स्थानीय वितरण, पोषक तत्व, मृदा जल  आदि संसाधनों के कुशल उपयोग की अवधारणा निहित होती है। एक शस्य प्रणाली  मूलतः फसल, समय तथा स्थान के उपयोग का मिश्रित स्वरूप होती है जिसका मूल उद्देश्य कृषक को उसके कार्यों का स्थाई प्रतिफल प्रदान कराना होता है। वास्तव में यह कृषि पद्धति पौधों की वृद्धि हेतु वांछनीय सीमा कारको के कुशल उपयोग का अवसर प्रदान करती है। 

सहफसली खेती के प्रकार  

1. समानान्तर शस्यन:- इस विधि में ऐसी दो फसलों को एक खेत में साथ-साथ उगाया जाता है जिसकी वृद्धि अलग‘-अलग प्रकार से होती है। इनमें एक फसल सीधे ऊपर बढ़ने वाली तथा दूसरी फैलकर बढ़ने वाली होती है। इन फसलोें के बीच में वृद्धि के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं होती हैं। इन्हें अलग-अलग कतारों में इस प्रकार उगाया जाता है कि एक फसल से दूसरे की वृद्धि प्रभावित न होने पाए। उदाहण स्वरूप मक्का+अरहर, मक्का+उर्द या मूंग, कपास+मूंग या सोयाबीन।
2. सहचर शस्यन:- इन फसलों को एक साथ इस प्रकार उगाया जाता है कि दोनों फसलों से शुद्ध फसल के समान उत्पादन मिल जाता है। अर्थात् इस प्रकार के फसलोत्पादन में प्रयोग की जाने वाली दोनों ही फसलें शुद्ध फसल के समान उपज देती हैं। दोनों पौधों की खेत में पौधों की संख्या शुद्ध फसल के समान रखी जाती है। उदाहरण स्वरूप गन्न +सरसो, गन्ना+चना, गन्ना+मटर, अरहरमूंगफली आदि।
3. बहुखण्डी शस्यन:- अलग अलग उंचाईयों पर बढ़ने वाली विभिन्न फसलों को एक साथ एक खेत में उगाने को बहुखण्डी शस्यन कहते हैं। विभिन्न ऊँचाईयों पर बढ़ने वाली फसलों के एक साथ उगाने पर फसलों में स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है। बहुखण्डी फसलों के चचुनाव करते समय भूमि की किस्म और फसलों के प्रसार दोनों बातों पर ध्यान रखा जाता है। उदाहरण – पपीता+बरसीम, सूबबूल+ लुसर्न आदि। 
4. सिनरजेटिक शस्यन:- सिनरजेटिक शस्यन बहुफसली शस्यन का एक रूप है जिस में दो फसलों को साथ-साथ इस प्रकार उगाया जाता है जिससे मुख्य और गौड़ फसलों का उत्पादन शुद्ध फसल की अपेक्षा बढ़ जाता है। जैसे आलू+गन्ना

अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन के लाभ

  • एकल फसल की अपेक्षा अन्तर्वर्ती  खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। इसे अपनाने से एक साथ एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है। 
  • दो फसलों को साथ-साथ उगाने से शुद्ध फसल के रूप में उगाने की अपेक्षा उत्पादन लागत   कम आती है अर्थात कम लागत में प्रति इकाई अधिक उत्पादन से आमदनी को बढाया जा सकता है।   
  • सहफसली खेती से विभिन्न प्रकार के मौसम में उपज की निश्चितता अधिक रहती है। प्रायः एक फसल के कमजोर होने की स्थिति में उत्पादन की क्षतिपूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है।
  • धान्य फसलो के साथ दलहनी फसलों के उगाये जाने से  भूमि उर्वरता  और मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सकता है।
  • कई प्रकार की जड़ वृद्धि स्वभाव फसलें भूमि के विभिन्न स्तरों से पोषक तत्व ग्रहण करती है।   इससे मृदा में निहित पोषक तत्वों  का कुशल  उपयोग होता है।
  • सहफसली शस्यन से मृदातल के उपरी वातावरण में प्रकाश, कार्बन डाई आक्साइड   तथा वर्षा जल का अवशोषण अधिक होता है।
  • किसान को कृषि आय एक बार न मिलकर कई बार में मिलती है।
  • अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन अपनाने से  श्रमिकों तथा फसलोत्पादन में प्रयुक्त उत्पादन के विभिन्न साधनों जैसे पूँजी, पानी, उर्वरक आदि  का समुचित  उपयोग    होता है।
  • इनको  अपरदन संरक्षीफसल, पट्टिका फसल तथा अपरदनकारी फसल के रूप में उगाकर मृदा क्षरण  होने से बचाया जा सकता है।
  • .विषमतल  भूमियों, तथा ढालू क्षेत्रों के चारागाहों में सहफसल के रूप में उपयुक्त दलहनी     फसलें उगाई जाती हैं। इससे चारे की गुणवत्ता बढ़ने के साथ साथ सीमान्त उर्वर भूमियों  की उर्वरता में वृद्धि हो जाती है।
  • इससे फसलों को कीट और रोगों से भी बचाया जा सकता है . अदाहरण के लिए चने की फसल में धनियाँ को अन्तर्वर्ती फसल के रूप में उगने से चने में कीटों का प्रकोप कम होता है.
  • इसमें एक सीधी  तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने के कारण खरपतवारों का नियंत्रण स्वतः हो जाता है। 
  • इनसे पशुओं के लिए सन्तुलित पोषक चारा उत्पादित करने में सहायता मिलती है।
  • तेज हवा, तेज वर्षा, एनी प्राकृतिक प्रकोप एवं जंगली जानवरों से फसल की सुरक्षा करना आसन होता है, क्योंकि कुछ फसलों को सुरक्षा फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। 

अन्तवर्ती फसलोत्पादन के सिद्धांत
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल के पौधों की संख्या इष्टतम होनी चाहिए, जबकि सहायक फसल के पौधों की संख्या आवश्यकतानुसार होनी चाहिए.
Ø  इस पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों का एक दुसरे की पूरक हो तथा आपस में कोई प्रतियोगिता नही होना चाहिए.
Ø  मुख्य फसल के वृद्धिकाल तक सहायक फसल पककर तैयार हो जनि चाहिए.
Ø  मुख्य फसल की अपेक्षा सहायक फसल कम अवधी में  तेजी से वृद्धि करने वाली होनी चाहिए जिससे मुख्य फसल की प्रारंभिक धीमी वृद्धि कल का उपयोग किया जा सके.
Ø  इस प्रणाली में एक फसल सीधी बढ़ने वाली, जबकि दूसरी फसल फैलकर वृद्धि करने वाली होनी चाहिए. जैसे मक्का के साथ उरीद, मुंग, सौबेँ, लोबिया, मूंगफली आदि फसलो को लगाया जा सकता है जिससे मृदा क्षरण रोकने के साथ साथ मृदा की सतह से नमीं का वाष्पीकरण भी रोका जा सके .
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल और सहायक फसलो में पोषक तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता अलग अलग होना चाहिए.
Ø  इस फसल पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों में से एक फसल की जड़ें कम गहराई तथा दूसरी फसल की जड़ें अधिक गहराई तक जाने वाली हो जिससे  दोनों फसलें अलग अलग गहराई से पोषक तत्व और नमीं ग्रहण कर सकें.
Ø  सहायक फसल की कृषि क्रियाएं मुख्य फसल के समान होनी चाहिए.
खरीफ ऋतु में अन्तर्वर्ती फसलें
खरीफ यानि वर्षा ऋतु मुख्यतः मक्का, जुआर, बाजरा,सोयाबीन, अरहर, उर्द, मुंग, तिल, रामतिल, रागी, कोदों आदि फसलो को उगाया जाता है परन्तु अधिकांशतः किसान इन फसलो को एकल फसल पद्धति में लगाते है जिससे उन्हें शुद्ध लाभ कम प्राप्त होता है और लागत अधिक लगानी पड़ती है. अतः अधिk लाभ अर्जित करने के लिए किसानो को इन फसलों को निम्नानुसार लगाना चाहिए :
अरहर + मक्का   (1:2 ): इस पद्धति में एक कतार अरहर फिर दो  कतार मक्का   की , फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो  कतार मक्का की लगनी चाहिए.
अरहर+ सोयाबीन (1:1): इस पद्धति में एक कतार अरहर की लगाने के बाद दूसरी कतार सोयाबीन की लगाये .उसके बाद एक कतार अरहर फिर दूसरी कतार सोयाबीन की लगाने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.
अरहर + मूंगफली (1:6): इस पद्धति में पहले एक कतार अरहर की लगाने के बाद छः कतार मूंगफली की फिर एक कतार अरहर उसके बाद छः कतार मूंगफली की लगनी चाहिए.
अरहर + तिल (1:2):  इसमें एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल की लगाना चाहिए.
इसी प्रकार मूंगफली + बाजरा (4:1), मूंगफली + तिल (4:1), मूंग + तिल (1:1) लगाना चाहिए
रबी में अन्तर्वर्ती फसलें
रबी अर्थात शरद ऋतु में सरसों, चना, गेंहू,अलसी, कुसुम,आलू, गन्ना आदि फसलो को प्रमुखता से उगाया जाता है . इन फसलो में  सरसों + गेंहू (1:9), सरसों + चना (1:3 /1:4), सरसों +आलू (1:3), अलसी + चना (1:3 /1:4) की अन्तर्वर्ती खेती की जाती है.
    
अन्तर्वर्ती  खेती की सीमायें
                सहफसली शस्य-प्रबन्ध में कभी-कभी व्यावहारिक समस्याएं भी  उत्पन्न होती है जिससे किसान के समक्ष अनेक उलझने खड़ी हो जाती हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:-
v  कृषि कार्यों के यंत्रीकरण में कठिनाई होती है। यह कठिनाई बीजों की बुआई, निराई, गुड़ाई, कटाई तथा संसाधन इत्यादि सभी क्रियाओं में उपस्थित होती है।
v  उर्वरकों की मात्रा तथा प्रयोग में कठिनाई होती है।
v  शाकनाशी, कीटनाशी तथा कवकनाशी दवाओं के प्रयोग में असुविधा होती है।
v  फसलों की गुणवत्ता घट जाती है।
अन्तर्वर्ती खेती की उपरोक्त समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए कृषि वैज्ञानिको ने उन्नत तकनीके विकसित कर ली है।  अब अधिकांश फसलो की ऐसी किस्मे विकसित कर ली गई है जिनमे कीट रोग का प्रकोप नहीं होता है।  बुआई, निंदाई-गुड़ाई और कटाई हेतु नाना प्रकार के छोटे बढे यंत्र/मशीने विकसित कर ली गई है जिनकी सहायता से अन्तर्वर्ती फसलों की खेती आसानी से की जा सकती है।  कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण अब सुगमता से किया जा सकता है. उर्वरक और सिंचाई में फसलों की आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है. इस प्रकार से हम कह सकते है की खेती में बढती लागत और मृदा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन किसानो की आमदनी दौगुना करने में मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है।