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गुरुवार, 24 मई 2018

अंतरवर्ती फसलोत्पादन का वायदा, उत्पादन और आमदनी ज्यादा


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

हमारे देश की तमाम समस्याओं में से  द्रुत गति से बढती जन संख्या और सिकुड़ती कृषि भूमि सबसे बड़ी समस्या है।  इसके अलावा खेती योग्य जमीनों का जिस प्रकार से लगातार दोहन हो रहा है उससे खेतों की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है जिसके फलस्वरूप प्रति इकाई फसल उत्पादन घटता जा रहा है।  दूसरी तरफ  खेती में दिन प्रति दिन बढती लागत और घटती आमदनी से किसान परेशान है। यदि किसानों के पास उपलब्ध ससाधनों में अन्तर्वर्ती फसल उत्पादन पद्धति अपनाई जाये तो एकल फसल पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है।         
किसी फसल के बीच में दूसरी फसल को उगाने की विधि को सहफसली शस्यन अथवा अंतर्वर्ती फसल पद्धति कहते हैं। जब दो या दो  से अधिक फसलों को समान अनुपात में उगाया जाता है, तो इसे अंत:फसल कहते हैं या अलग अलग फसलों को एक ही खेत में, एक ही साथ कतारों में उगाना ही अंत:फसल कहलाता है. इस विधि से प्रथम फसल के बीच खाली स्थान का उपयोग दूसरी फसल उगाकर किया जाता है। इस प्रकार पहले उगाई जाने वाली फसल को मुख्य फसल तथा बाद में उगाई गई फसल को गौड़ फसल कहते हैं।

अंतर्वर्ती फसल पद्धति  यानि सह फसली खेती में मुख्य रूप से दूर-दूर कतारों में बोई गई फसलों के मध्य स्थित रिक्त स्थान, प्रकाश के स्थानीय वितरण, पोषक तत्व, मृदा जल  आदि संसाधनों के कुशल उपयोग की अवधारणा निहित होती है। एक शस्य प्रणाली  मूलतः फसल, समय तथा स्थान के उपयोग का मिश्रित स्वरूप होती है जिसका मूल उद्देश्य कृषक को उसके कार्यों का स्थाई प्रतिफल प्रदान कराना होता है। वास्तव में यह कृषि पद्धति पौधों की वृद्धि हेतु वांछनीय सीमा कारको के कुशल उपयोग का अवसर प्रदान करती है। 

सहफसली खेती के प्रकार  

1. समानान्तर शस्यन:- इस विधि में ऐसी दो फसलों को एक खेत में साथ-साथ उगाया जाता है जिसकी वृद्धि अलग‘-अलग प्रकार से होती है। इनमें एक फसल सीधे ऊपर बढ़ने वाली तथा दूसरी फैलकर बढ़ने वाली होती है। इन फसलोें के बीच में वृद्धि के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं होती हैं। इन्हें अलग-अलग कतारों में इस प्रकार उगाया जाता है कि एक फसल से दूसरे की वृद्धि प्रभावित न होने पाए। उदाहण स्वरूप मक्का+अरहर, मक्का+उर्द या मूंग, कपास+मूंग या सोयाबीन।
2. सहचर शस्यन:- इन फसलों को एक साथ इस प्रकार उगाया जाता है कि दोनों फसलों से शुद्ध फसल के समान उत्पादन मिल जाता है। अर्थात् इस प्रकार के फसलोत्पादन में प्रयोग की जाने वाली दोनों ही फसलें शुद्ध फसल के समान उपज देती हैं। दोनों पौधों की खेत में पौधों की संख्या शुद्ध फसल के समान रखी जाती है। उदाहरण स्वरूप गन्न +सरसो, गन्ना+चना, गन्ना+मटर, अरहरमूंगफली आदि।
3. बहुखण्डी शस्यन:- अलग अलग उंचाईयों पर बढ़ने वाली विभिन्न फसलों को एक साथ एक खेत में उगाने को बहुखण्डी शस्यन कहते हैं। विभिन्न ऊँचाईयों पर बढ़ने वाली फसलों के एक साथ उगाने पर फसलों में स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है। बहुखण्डी फसलों के चचुनाव करते समय भूमि की किस्म और फसलों के प्रसार दोनों बातों पर ध्यान रखा जाता है। उदाहरण – पपीता+बरसीम, सूबबूल+ लुसर्न आदि। 
4. सिनरजेटिक शस्यन:- सिनरजेटिक शस्यन बहुफसली शस्यन का एक रूप है जिस में दो फसलों को साथ-साथ इस प्रकार उगाया जाता है जिससे मुख्य और गौड़ फसलों का उत्पादन शुद्ध फसल की अपेक्षा बढ़ जाता है। जैसे आलू+गन्ना

अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन के लाभ

  • एकल फसल की अपेक्षा अन्तर्वर्ती  खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। इसे अपनाने से एक साथ एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है। 
  • दो फसलों को साथ-साथ उगाने से शुद्ध फसल के रूप में उगाने की अपेक्षा उत्पादन लागत   कम आती है अर्थात कम लागत में प्रति इकाई अधिक उत्पादन से आमदनी को बढाया जा सकता है।   
  • सहफसली खेती से विभिन्न प्रकार के मौसम में उपज की निश्चितता अधिक रहती है। प्रायः एक फसल के कमजोर होने की स्थिति में उत्पादन की क्षतिपूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है।
  • धान्य फसलो के साथ दलहनी फसलों के उगाये जाने से  भूमि उर्वरता  और मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सकता है।
  • कई प्रकार की जड़ वृद्धि स्वभाव फसलें भूमि के विभिन्न स्तरों से पोषक तत्व ग्रहण करती है।   इससे मृदा में निहित पोषक तत्वों  का कुशल  उपयोग होता है।
  • सहफसली शस्यन से मृदातल के उपरी वातावरण में प्रकाश, कार्बन डाई आक्साइड   तथा वर्षा जल का अवशोषण अधिक होता है।
  • किसान को कृषि आय एक बार न मिलकर कई बार में मिलती है।
  • अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन अपनाने से  श्रमिकों तथा फसलोत्पादन में प्रयुक्त उत्पादन के विभिन्न साधनों जैसे पूँजी, पानी, उर्वरक आदि  का समुचित  उपयोग    होता है।
  • इनको  अपरदन संरक्षीफसल, पट्टिका फसल तथा अपरदनकारी फसल के रूप में उगाकर मृदा क्षरण  होने से बचाया जा सकता है।
  • .विषमतल  भूमियों, तथा ढालू क्षेत्रों के चारागाहों में सहफसल के रूप में उपयुक्त दलहनी     फसलें उगाई जाती हैं। इससे चारे की गुणवत्ता बढ़ने के साथ साथ सीमान्त उर्वर भूमियों  की उर्वरता में वृद्धि हो जाती है।
  • इससे फसलों को कीट और रोगों से भी बचाया जा सकता है . अदाहरण के लिए चने की फसल में धनियाँ को अन्तर्वर्ती फसल के रूप में उगने से चने में कीटों का प्रकोप कम होता है.
  • इसमें एक सीधी  तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने के कारण खरपतवारों का नियंत्रण स्वतः हो जाता है। 
  • इनसे पशुओं के लिए सन्तुलित पोषक चारा उत्पादित करने में सहायता मिलती है।
  • तेज हवा, तेज वर्षा, एनी प्राकृतिक प्रकोप एवं जंगली जानवरों से फसल की सुरक्षा करना आसन होता है, क्योंकि कुछ फसलों को सुरक्षा फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। 

अन्तवर्ती फसलोत्पादन के सिद्धांत
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल के पौधों की संख्या इष्टतम होनी चाहिए, जबकि सहायक फसल के पौधों की संख्या आवश्यकतानुसार होनी चाहिए.
Ø  इस पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों का एक दुसरे की पूरक हो तथा आपस में कोई प्रतियोगिता नही होना चाहिए.
Ø  मुख्य फसल के वृद्धिकाल तक सहायक फसल पककर तैयार हो जनि चाहिए.
Ø  मुख्य फसल की अपेक्षा सहायक फसल कम अवधी में  तेजी से वृद्धि करने वाली होनी चाहिए जिससे मुख्य फसल की प्रारंभिक धीमी वृद्धि कल का उपयोग किया जा सके.
Ø  इस प्रणाली में एक फसल सीधी बढ़ने वाली, जबकि दूसरी फसल फैलकर वृद्धि करने वाली होनी चाहिए. जैसे मक्का के साथ उरीद, मुंग, सौबेँ, लोबिया, मूंगफली आदि फसलो को लगाया जा सकता है जिससे मृदा क्षरण रोकने के साथ साथ मृदा की सतह से नमीं का वाष्पीकरण भी रोका जा सके .
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल और सहायक फसलो में पोषक तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता अलग अलग होना चाहिए.
Ø  इस फसल पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों में से एक फसल की जड़ें कम गहराई तथा दूसरी फसल की जड़ें अधिक गहराई तक जाने वाली हो जिससे  दोनों फसलें अलग अलग गहराई से पोषक तत्व और नमीं ग्रहण कर सकें.
Ø  सहायक फसल की कृषि क्रियाएं मुख्य फसल के समान होनी चाहिए.
खरीफ ऋतु में अन्तर्वर्ती फसलें
खरीफ यानि वर्षा ऋतु मुख्यतः मक्का, जुआर, बाजरा,सोयाबीन, अरहर, उर्द, मुंग, तिल, रामतिल, रागी, कोदों आदि फसलो को उगाया जाता है परन्तु अधिकांशतः किसान इन फसलो को एकल फसल पद्धति में लगाते है जिससे उन्हें शुद्ध लाभ कम प्राप्त होता है और लागत अधिक लगानी पड़ती है. अतः अधिk लाभ अर्जित करने के लिए किसानो को इन फसलों को निम्नानुसार लगाना चाहिए :
अरहर + मक्का   (1:2 ): इस पद्धति में एक कतार अरहर फिर दो  कतार मक्का   की , फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो  कतार मक्का की लगनी चाहिए.
अरहर+ सोयाबीन (1:1): इस पद्धति में एक कतार अरहर की लगाने के बाद दूसरी कतार सोयाबीन की लगाये .उसके बाद एक कतार अरहर फिर दूसरी कतार सोयाबीन की लगाने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.
अरहर + मूंगफली (1:6): इस पद्धति में पहले एक कतार अरहर की लगाने के बाद छः कतार मूंगफली की फिर एक कतार अरहर उसके बाद छः कतार मूंगफली की लगनी चाहिए.
अरहर + तिल (1:2):  इसमें एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल की लगाना चाहिए.
इसी प्रकार मूंगफली + बाजरा (4:1), मूंगफली + तिल (4:1), मूंग + तिल (1:1) लगाना चाहिए
रबी में अन्तर्वर्ती फसलें
रबी अर्थात शरद ऋतु में सरसों, चना, गेंहू,अलसी, कुसुम,आलू, गन्ना आदि फसलो को प्रमुखता से उगाया जाता है . इन फसलो में  सरसों + गेंहू (1:9), सरसों + चना (1:3 /1:4), सरसों +आलू (1:3), अलसी + चना (1:3 /1:4) की अन्तर्वर्ती खेती की जाती है.
    
अन्तर्वर्ती  खेती की सीमायें
                सहफसली शस्य-प्रबन्ध में कभी-कभी व्यावहारिक समस्याएं भी  उत्पन्न होती है जिससे किसान के समक्ष अनेक उलझने खड़ी हो जाती हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:-
v  कृषि कार्यों के यंत्रीकरण में कठिनाई होती है। यह कठिनाई बीजों की बुआई, निराई, गुड़ाई, कटाई तथा संसाधन इत्यादि सभी क्रियाओं में उपस्थित होती है।
v  उर्वरकों की मात्रा तथा प्रयोग में कठिनाई होती है।
v  शाकनाशी, कीटनाशी तथा कवकनाशी दवाओं के प्रयोग में असुविधा होती है।
v  फसलों की गुणवत्ता घट जाती है।
अन्तर्वर्ती खेती की उपरोक्त समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए कृषि वैज्ञानिको ने उन्नत तकनीके विकसित कर ली है।  अब अधिकांश फसलो की ऐसी किस्मे विकसित कर ली गई है जिनमे कीट रोग का प्रकोप नहीं होता है।  बुआई, निंदाई-गुड़ाई और कटाई हेतु नाना प्रकार के छोटे बढे यंत्र/मशीने विकसित कर ली गई है जिनकी सहायता से अन्तर्वर्ती फसलों की खेती आसानी से की जा सकती है।  कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण अब सुगमता से किया जा सकता है. उर्वरक और सिंचाई में फसलों की आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है. इस प्रकार से हम कह सकते है की खेती में बढती लागत और मृदा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन किसानो की आमदनी दौगुना करने में मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है। 

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