Powered By Blogger

रविवार, 9 सितंबर 2018

अल्प अवधि में अधिकतम मुनाफे वाली फसल तोरिया की वैज्ञानिक खेती

 
डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

कृषि प्रधान भारत में तिलहनी फसलों की कम उत्पादकता तथा खाद्य तेलों की बढ़ती खपत के कारण हमें प्रति वर्ष बड़ी तायदाद  में विदेशों से खाद्य तेल आयात करना पड़ता है जिसमें करोड़ों रूपये की विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है । खाद्य तेलों की घरेलू  आपूर्ति के लिए तोरिया जैसी अल्प  समय में तैयार होने वाली तिलहनी फसलों को प्रोत्साहित करना जरूरी है। तोरिया रबी मौसम में उगाई जाने वाली एवं शीघ्र तैयार (80-90 दिन) होने वाली महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। तोरिया के दानों  में 44 प्रतिशत तेल अंश होता है, जबकि राई-सरसों में केवल 40 प्रतिशत ही तेल अंश होता है। अल्प अवधि में उच्च उपज क्षमता की सामर्थ्य होने के कारण तोरिया न केवल भारत के  मैदानी क्षेत्रों में वल्कि देश के अनेक राज्यों के  पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में खरीफ एवं रबी मौसम के मध्य  कैच क्रॉप के रूप में उगाई जाने वाली यह फसल किसानों के बीच अत्यंत  लोकप्रिय होती जा रही है। अगस्त माह  के आखिर में चारे वाली ज्वार, बाजरा तथा  कोदों, मूंग, उर्द  फसलों एवं वर्षाकालीन सब्जियों के बाद खाली होने वाले खेतों में उपलब्ध नमीं का सदुपयोग करने हेतु किसान भाई तोरिया फसल उगाकर अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं। पहले तोरिया को प्रमुखतया  वर्षा निर्भर असिंचित क्षेत्रों में उगाया जाता था लेकिन अब इसे सीमित सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में भी लाभकारी फसल के रूप में उगाया जाने लगा है। किसान कम समय में पकने वाली तोरिया की उन्नत किस्मों को उगाने के बाद सिंचित क्षेत्रों में  गेहूं, चना आदि  फसल भी ले सकते हैं। वर्तमान में तोरिया फसल से भारत के किसान औसतन 10-11 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज ही ले पा रहे है जो की विश्व औसत उपज 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की आधी है। उपयुक्त किस्मों का इस्तेमाल न करना, अपर्याप्त पौध संख्या, कम तथा असंतुलित उर्वरक प्रयोग, कीट,रोग एवं खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान न देने के कारण भारत में तोरिया की औसत उपज अत्यंत कम  है । अग्र प्रस्तुत उन्नत सस्य तकनीक एवं पौध सरंक्षण का समन्वित प्रबंधन करके किसान भाई तोरिया फसल की उपज और आमदनी में 2-3 गुना बढ़ोत्तरी कर सकते है ।
तोरिया की लहलहाती फसल-फोटो साभार-गूगल
  

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

तोरिया के लिए समतल और उत्तम  जल निकास वाली बलुई दोमट से  दोमट मिट्टी अति उत्तम रहती है। अच्छी उपज के लिए खेत की मिटटी का पी एच मान 6.5-7.0 होना चाहिए। अंतिम वर्षा के बाद खरपतवार नष्ट करने एवं नमीं सरंक्षण के वास्ते मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करने के तुरंत बाद पाटा लगायें। इसके बाद  कल्टीवेटर से दो बार आड़ी जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा एवं खेत को समतल कर लेना चाहिए। ढलानू खेतों में जुताई ढलान के विपरीत दिशा में करना चाहिए। बुवाई के लिए खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।

उन्नत किस्मों के बीज का इस्तेमाल 

तोरिया की उन्नत किस्मों को अपनाते हुए उचित सस्य प्रबंधन से  उपज में 15-20% इजाफा हो सकता है । क्षेत्र विशेष की जलवायु, भूमि का प्रकार, सिंचाई आदि की उपलब्धता आदि कारको के आधार पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए। किस्मों की उत्पादन क्षमता, बीज में तेल की मात्रा, कीट-रोग के प्रति सहनशीलता, परिपक्वता अवधि आदि गुण विभिन्न सस्य जलावायुविक परिस्थितियों एवं सस्य प्रबंधन के अनुरूप भिन्न हो सकते है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए तोरिया की उपयुक्त उन्नत किस्मों की विशेषताएं अग्र प्रस्तुत है:
सारणी-तोरिया की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं
उन्नत किस्में
पकने की अवधि (दिन)
उपज (किग्रा/हे.)
दानों में तेल (%)
भवानी
75-80
1000-1200
43
टाइप-9
90-95
1200-1500
40
जवाहर तोरिया-1
85-90
1500-1800
43
पन्त तोरिया-303
90-95
1500-1800
44
राज विजय तोरिया-3
90-100
1350-1432
42
बस्तर तोरिया-1
90-95
800-1000
42

उचित समय पर करे बुवाई

विभिन्न क्षेत्रों में मानसून समाप्ति की तिथि, फसल चक्र एवं वातावरण के तापमान के अनुसार बुआई का समय भिन्न हो साकता है। अच्छे अंकुरण के लिए बुआई के समय दिन का अधिकतम तापमान औसतन 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होना चाहिए। उचित समय पर बुआई करने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होने के साथ साथ कीट-रोग से भी फसल की सुरक्षा होती है। सामान्य तौर पर तोरिया की बुवाई का उपयुक्त समय 15 से 30 सितंबर तक रहता है। मानसून और मौसम परिवर्तन के कारण तोरिया की बुवाई 10 अक्टूबर तक की जा सकती है। विलंब से बुआई करने पर उपज और दानों में तेल की मात्रा में भारी कमीं हो सकती है।

सही बीज दर एवं  बुआई पूर्व करें बीज शोधन

अच्छी उपज के लिए साफ़, स्वस्थ एवं रोगमुक्त बीज का इस्तेमाल करें। बीज दर बुआई के समय, किस्म एवं भूमि में नमीं की मात्रा पर निर्भर करते है।  सामान्य तौर  पर 4 किग्रा बीज प्रति  हेक्टर पर्याप्त होता है। बुआई के पहले  बीज को कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम और  मैंकोजेब1.5 ग्राम मिलाकर  प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर लेवें. सफेद गेरूई एवं तुलासिता रोग की सम्भावना वाले क्षेत्रों में बीज को 4  ग्राम मैटालिक्स (एप्रन एस डी-35) प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर लेना अच्छा रहता है । प्रारंभिक अवस्था में चितकबरा कीट और पेंटेड बग की रोकथाम हेतु इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू पी 7 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करने के उपरांत ही बुआई करना चाहिए। असिंचित एवं सिंचित दोनों ही क्षेत्रों में स्फुर घोलक जीवाणु (पी एस बी) खाद एज़ोटोबेक्टर (10-15 ग्राम प्रत्येक जीवाणु खाद प्रति किलो बीज की दर) से बीजोपचार करना फायदेमंद रहता है इससे नत्रजन एवं फॉस्फोरस तत्वों की उपलब्धतता बढती है तथा उपज में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है ।

बुवाई करें कतार विधि से  

आमतौर पर किसान तोरिया की बुआई परंपरागत छिटकवां विधि से करते है जिससे उन्हें बहुत कम उपज मिलती है। कतार विधि से बुआई करने से प्रति इकाई इष्टतम पौध संख्या स्थापित होने के साथ साथ खेत में निराई-गुड़ाई में आसानी तथा उपज में दो गुना इजाफा होता है।  तोरिया की बुवाई देशी हल के पीछे नाई/पोरा लगाकर अथवा यांत्रिक सीड ड्रिल से  कतारों में करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में पंक्ति से पंक्ति के बीच 30 सेमी एवं असिंचित क्षेत्रों में 45 सेमी  की दूरी  रखना चाहिए । केरा विधि के अंतर्गत हल के पीछे  बुवाई  करने पर बीज ढंकने के लिए हल्का पाटा लगा देना चाहिए । पोरा विधि से बुआई करने के बाद खेत में पाटा न चलायें अन्यथा बीज अधिक गहराई में पहुँचने से अंकुरण कम हो सकता है। ध्यान रखें कि  बीज भूमि  में 3-4 सेमी से अधिक गहराई में नहीं जाना चाहिए। सीड ड्रिल का उपयोग करते समय ध्यान रखे की बीज उर्वरकों के संपर्क में न आये, अन्यथा  बीज अंकुरण प्रभावित हो सकता है। अतः उर्वरकों को  बीज से 4-5 सेमी नीचे डालना चाहिए।

फसल को दें संतुलित पोषण

उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण की संस्तुति के आधार पर किया जाना सर्वोत्तम है। सामान्य उर्वरा भूमियों एवं असिंचित अवस्था में 1-1.5 टन गोबर की खाद के साथ-साथ  50 किग्रा नत्रजन, 30 किग्रा  फास्फोरस तथा 20 किग्रा पोटाश  प्रति  हेक्टेयर  की दर से अन्तिम जुताई के समय प्रयोग करना चाहिए।  सिंचित क्षेत्रों में 1.5-2 टन गोबर की खाद के अलावा  60-80  किग्रा० नत्रजन, 40  किग्रा० फास्फोरस एवं 30 किग्रा पोटाश  प्रति हेक्टर की दर से  देना चाहिए।  भारत के अनेकों सरसों उत्पादक क्षेत्रों की मृदाओं में गंधक (सल्फर) तत्व की कमी देखी गई है, जिसके कारण फसलोत्पादन में दिनों दिन कमी होती जा रही है तथा बीज में तेल की मात्रा में भी कमीं हो रही है। इसके लिए असिंचित क्षेत्रों में 20 किग्रा एवं सिंचित क्षेत्रों में 340 किग्रा गंधक तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक है। गंधक की  पूर्ति अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट आदि उर्वरकों के माध्यम से की जा सकती है गंधक तोरिया में तेल की मात्रा व गुणवत्ता को बढ़ाने के साथ साथ पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होती है।  फॉस्फोरस तत्व की पूर्ति यदि  सिंगिल सुपर फास्फेट  के माध्यम से की जाए तो फसल को  12 प्रतिशत गन्धक भी उपलब्धत हो जाती है। सिंगिल सुपर फास्फेट के न मिलने पर गंधक की पूर्ति हेतु बुआई के समय  200 किग्रा जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय  प्रयोग करें। फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा अन्तिम जुताई के समय नाई या पोर  द्वारा बीज से 4-5 सेमी नीचे प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई (बुवाई के 25 से 30 दिन बाद) टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।

खेत में  हो पौधों की इष्टतम संख्या

तोरिया की अधिकतम उपज के लिए खेत में पौधों की इष्टतम संख्या स्थापित होना आवश्यक होता है । इससे पौधों को संतुलित पोषण, पर्याप्त हवा, पानी एवं प्रकाश सुगमता से उपलब्ध होते रहते है जिसके परिणामस्वरूप  पौधों की वृद्धि एवं विकास समान गति से होता है। अतः खेत में पौधों की उचित संख्या स्थापित करने के लिए बुवाई के 15-20  दिन पश्चात घने पौधों की छंटाई (पौध विरलीकरण) अवश्य करें। अधिकतम  उत्पादन के लिए  सिंचित अवस्था में प्रति वर्ग मीटर 33 पौधे एवं बारानी (असिंचित) अवस्था में 15 पौधे स्थापित होना आवश्यक पाया गया है। अतः सिंचित अवस्था में पौधों के बीच  आपसी दूरी 10-15 सेमी एवं असिंचित अवस्था में 15-20 सेमी कायम करना चाहिए। अतिरिक्त घने पौधों को उखाड़कर भाजी के रूप में बाजार में विक्रय करें अथवा पशुओं को खिलाया जा सकता है।

निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण

तोरिया की फसल को अनियंत्रित खरपतवारों से भारी क्षति होती है । खरपतवार पोषक तत्व, नमी, प्रकाश आदि के लिए फसल के साथ प्रतिस्पर्धा कर उपज में 30-60% तक कमी तो करते ही है साथ ही उपज की गुणवत्ता भी खराब कर देते है। अतः  खेत में नमीं सरंक्षण एवं  खरपतवार नियंत्रण हेतु  बुआई के 20-25 दिन बाद  एक निराई-गुड़ाई  करना चाहिए।  खुरपी से निराई-गुड़ाई का कार्य श्रमसाध्य एवं खर्चीला होता है। अतः  पहली सिंचाई के बाद हस्त चालित दो चक्के वाली हेंड हो से  निराई-गुड़ाई का कार्य आसानी से कम खर्चे में  किया जा सकता है। खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण पाने के लिए रासायनिकों का इस्तेमाल किफायती साबित हो रहा है। इसके लिए  फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 लीटर प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त पहले मिट्टी में मिलाना चाहिए अथवा  पैन्डीमेथालीन 30 ई. सी. का 3.3 लीटर प्रति हे की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोल कर बुआई के  तुरंत बाद तथा जमाव से पहले छिड़काव करना चाहिए।
                तोरिया के खेत में एक प्रकार के जड़ परिजीवी खरपतवार ओरोबैंकी का प्रकोप कहीं कहीं  देखने को मिल रहा है।  सफ़ेद,पीले रंग के झाड़ू के गुच्छे के समान दिखाई देने वाला यह परपोषी खरपतवार फसल की 40-50 दिन की अवस्था पर उगता  है. इसके नियंत्रण के लिए फसल चक्र में परिवर्तन करें. गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें. तोरिया की बुआई के 30  दिन बाद ग्लाइफोसेट 65 मिली मात्रा एवं बुआई के 50-55 दिन बाद 125 मिली प्रति हेक्टेयर मात्रा को 400 लीटर पानी में घोलकर सीधे कतारों में  छिड़काव करने से ओरोबैंकी खरपतवार का नियंत्रण हो जाता है। ध्यान रखे कि ग्लाइफोसेट दवा छिडकाव से पहले एवं बाद में भूमि में नमीं होना जरुरी है ।

अधिक उपज के लिए करें सिचाई प्रबंधन

आमतौर पर तोरिया की खेती वर्षा आश्रित क्षेत्रों में असिंचित परिस्थितयों में की जाती है। सिंचाई की सुविधा होने पर फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई देने से उपज में 20-50% तक वृद्धि संभावित है।तोरिया फूल निकलने  तथा दाना भरने की अवस्थाओं पर जल की कमी के प्रति विशेष संवेदनशील है। अतः अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए  बुआई के 20-25 दिन (फूल प्रारंभ होने पर) तथा दूसरी सिंचाई बुआई के 50-55 दिन ( फलियों में दाना भरने की अवस्था) में करना आवश्यक है। पानी की सुविधा होने पर फसल में फूल निकलते समय (बुवाई के 25-30 दिन बाद)  सिंचाई  करना चाहिए । तोरिया की फसल जल भराव को सहन नहीं कर सकती है, अतः  खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था अवश्य करें ।

निहायत जरुरी है फसल सरंक्षण

तोरिया में प्रमुख रूप से माहूँ, आरा मक्खी, चित्रित बग, बालदार सूंडी, पत्ती सुरंगक  आदि कीट तथा पत्ती धब्बा  सफ़ेद गेरुई एवं तुलासिता आदि रोगों का प्रकोप होता है।  तोरिया में समन्वित कीट-रोग प्रबंधन के निम्न उपाय करना चाहिए.
  1. कीट-रोग प्रतिरोगी किस्मों के बीज का प्रयोग करें तथा बुआई पूर्व बीज उपचार अवश्य करें।
  2. खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी गुताई करें तथा उचित फसल चक्र अपनाये।
  3. अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा, सफेद गेरूई एवं तुलासिता रोगों की रोकथाम हेतु मैकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा या जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा अथवा कापर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू.पी. की 3.0 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से  600-700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
  4. आरा मक्खी एवं बालदार सूँड़ी के नियंत्रण के लिए डाई क्लोरोवास 76 प्रतिशत ई.सी. की 500 मिली मात्रा अथवा क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.25 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
  5. माहूँ, चित्रित बग, एवं पत्ती सुरंगक कीट के नियंत्रण हेतु डाईमेथेएट 30 प्रतिशत ई.सी. या मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

फसल की समय से कटाई-मड़ाई

                 तोरिया की फसल  सामान्यतौर पर 80-100 दिन में पक कर  तैयार हो जाती है। कटाई का समय  फसल की बुआई का समय, किस्म, मौसम एवं फसल प्रबंधन पर निर्भर करता है उपयुक्त समय पर कटाई करने पर फलियों से बीजों के बिखरने, हरे एवं सिकुड़े बीजों की समस्या कम हो जाती है ।तोरिया फसल की कटाई उस समय करना चाहिए जब 75 प्रतिशत फलियां पीले-सुनहरे रंग की हो जाती है  तथा बीज में नमीं की मात्रा 30-35% रह जाता है। फसल की कटाई सुबह करने से बीज का बिखराव कम होता है। काटी गई फसल को 5-6 दिन धूप  में  अच्छी प्रकार सुखाकर (बीज में 12-20 % नमीं का स्तर)  गहाई  (मड़ाई) करना चाहिए।  फसल की गहाई थ्रेशर अथवा मल्टी क्रॉप थ्रेशर से की जा सकती है ।

उपज एवं आमदनी 

किसी भी फसल से उपज और आमदनी मृदा एवं जलवायु एवं फसल प्रबंधन पर निर्भर करती है। उन्नत किस्म के बीज का प्रयोग,समय से बुआई, संतुलित उर्वरकों के प्रयोग और पौध सरंक्षण के उपाय अपनाये जाए तो सिंचित परिस्थिति में 1200-1500  किग्रा तथा असिंचित परिस्थिति में 700-800 किग्रा प्रति हेक्टेयर  तक उपज प्राप्त की जा सकती है। उपज को न्यूनतम समर्थन पर बेचने पर असिंचित अवस्था में 48000-60000 रूपये प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित अवस्था में 28000-32000 रुपये की कुल आमदनी हो सकती है तोरिया की खेती में लगभग 7000-8000 रुपये प्रति हेक्टेयर का अधिकतम खर्चा आ सकता है इस प्रकार तोरिआ की वैज्ञानिक खेती से मात्र तीन माह में 40-52 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध मुनाफा यानि लागत से 5-6 गुना लाभ अर्जित किया जा सकता है   यदि तोरिया उपज को भंडारित करना है, तो उसे एक सप्ताह तक धूप  में अच्छी प्रकार से सुखाएं तथा जब दानों में नमीं का स्तर 8% रह जाएँ तब उपज को जूट के बोरो आदि में भर कर नमीं रहित स्थान पर भंडारित करना चाहिए

नोट: कृपया  लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख की कॉपी कर  अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है, तो  ब्लॉगर/लेखक  से अनुमति लेकर /सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य देंवे  एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें

कोई टिप्पणी नहीं: