Powered By Blogger

सोमवार, 31 दिसंबर 2018

ग्रीष्मकाल में पशुधन के लिए पौष्टिक हरा चारा उत्पादन


          ग्रीष्मकाल में पशुधन के लिए पौष्टिक हरा चारा उत्पादन

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर

               पशुपालन व्यवसाय की सफलता मुख्यतः हरे चारे पर निर्भर करती है।  पशुधन के लिए उपयोगी एवं आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए हरा चारा एक मात्र सस्ता स्त्रोत है।  भारत में पशुधन के लिए 61 करोड़ हरे चारे एवं 86 करोड़ टन सूखे चारे की आवश्यकता है।  जबकि इनकी उपलब्धतता  क्रमशः महज 21 एवं 48 करोड़ टन है।  सर्वविदित है कि पौष्टिक हरा चारा उत्पादन से ही दुग्धोत्पादन पर व्यय को कम किया जा सकता है।  ग्रीष्मकाल में पशुधन के लिए हरे चारे की सर्वाधिक कमी रहती है जिसका दुधारू पशुओं के स्वास्थ्य एवं दूध उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस समस्या के समाधान हेतु पशुपालकों को उपलब्ध सिंचित कृषि भूमि पर हरा चारा उत्पादन करना चाहिए जिससे पशुपालन में दाना-खली के खर्चो में कटौती की जा सके और पशुधन के लिए पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध कराकर दुग्ध उत्पादन को बढाया जा सकें।  ग्रीष्मकाल में ज्वार, बाजरा एवं मक्का को चारा फसल के रूप में उगाकर हरा रसीला पौष्टिक हरा चारा आसानी से पैदा किया जा सकता है।  इन फसलों को वैज्ञानिक तरीके से उगाकर भरपूर पैदावार ली जा सकती है. ग्रीष्मकाल में ज्वार, बाजरा एवं मक्का फसल से अधिकतम हरा चारा उत्पादन हेतु सस्य तकनीक अग्र प्रस्तुत है।
ज्वार चारा फसल फोटो साभार गूगल

ज्वार की खेती ऐसे करें  

ज्वार की खेती खाद्यान्न फसल के रूप में खरीफ में की जाती है।  खरीफ फसलों द्वारा प्राप्त कुल हरे चारे का 70-80 % चारा ज्वार से प्राप्त होता है।  ज्वार के हरे चारे में 6-7 % प्रोटीन,, 30-32 % रेशा,49.5 % नत्रजन रहित निष्कर्ष, 1.8-2.3 % ईथर निष्कर्ष, 0.32-0.50 % कैल्शियम तथा 0.22-0.24 % फॉस्फोरस पाया जाता है।  ज्वार का हरा चारा, कड़वी एवं साइलेज तीनों ही पशुधन के लिए उपयोगी तथा शक्तिवर्धक होता है।  वर्षाकाल की अपेक्षा ग्रीष्मकाल में ज्वार से अधिक मात्रा में गुणवत्ता युक्त हरा चारा पैदा किया जा सकता है। ज्वार चारे की अधिकतम पैदावार के लिए सस्य तकनीक प्रस्तुत है।
उन्नत किस्मों का चयन : खाद्यान्न उत्पादन के लिए उपयोगी सभी किस्मों को चारे के लिए उगाया जा सकता है परन्तु उत्तम क़िस्म की पौष्टिक हरा चारा अधिक मात्रा में पैदा करने के लिए कुछ ख़ास किस्मों की खेती करना लाभदायक होता है।  पौष्टिक हरे चारे के लिए ज्वार की प्रमुख किस्मों की विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत है।
प्रमुख किस्में
हरा चारा उपज (क्विंटल/हे.)
प्रमुख विशेषताएं
विदिशा 60-1
400-450
बीज से बीज की अवधि 140-160 दिन. चारा 95-105 दिन.ऊंचे पौधे, तने मोटे. बीज एवं चारे के लिए उपयुक्त।
पूसा चरी
450-500
पतले एवं रसीले तने, बीज से बीज अवधि 130-145 दिन।
एस-136
450-500
औसत समय में तैयार होने एवं मीठे तने वाली।
एम पी चरी
400-450
शीघ्र तैयार होने (70 दिन) एवं बहु कटाई के लिए उपयुक्त . बीज से बीज अवधि 110 दिन।
मीठी सूडान
600-650
बहु कटाई, तने पतले, रसीले, पत्तीदार, ग्रीष्मकाल के लिए उपयुक्त, चारा 65 दिन में.विषाक्त पदार्थ कम. बीज से बीज अवधि 90-95 दिन। 
जे-69
450-500
बहु कटाई वाली एवं चारा शीघ्र तैयार।
उपयुक्त जलवायु : ज्वार के अंकुरण एवं समुचित वानस्पतिक वृद्धि के लिए 32-35 डिग्री सेल्सियस त्तापमान आवश्यक होता है।  बुवाई के समय वातावरण का तापमान 20-30 डिग्री सेल्सियस के मध्य होना चाहिए।
भूमि का चुनाव: ज्वार की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में संभव है परन्तु अच्छे जल निकास वाली दोमट, बलुई दोमट भूमि तथा हल्की काली मिटटी इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम रहती  है। सफल खेती के लिए भूमि का पी एच मान 6.5-7.5 उपयुक्त होता है।

खेत की तैयारी : खेत में हल्की सिंचाई  करके एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 1-2 जुताइयां देशी हल/कल्टीवेटर  से करना चाहिए।  जुताई के बाद  खेत में पाटा लगा कर मिटटी मुलायम व भुरभुरी कर लेना चाहिए।
बुवाई का समय :  सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ज्वार की वुवाई फरवरी से लेकर जून तक कभी भी की जा सकती है. ग्रीष्मकाल में हरे चारे हेतु इसकी बुवाई फरवरी  के दि्वतीय सप्ताह से मार्च तक करना चाहिए। गर्मी में ज्वार की फसल को बोने के 50 दिन के बाद ही पशुधन को खिलाना चाहिए।
बीज दर : चारे के लिए शुद्ध और प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए।   छोटे दाने वाली किस्मों (एम पी चरी, मीठी सूडान आदि) के लिए बीज दर  30 कि.ग्रा. तथा बड़े दाने वाली किस्मों (पूसा चरी-1, एस-136, जे-9 आदि) के लिए बीज दर 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए. बीज अंकुरण क्षमता 85 % से कम होने पर बीज दर बढ़ा देना चाहिए।  
बुवाई की विधि : अनाज और अन्य फसलों की भांति चारा वाली फसलों को भी कतार में बोना उत्तम रहता है । ज्वार की बुवाई हल के पीछे 25-30 से.मी. की दूरी पर लाइनों में करना अच्छा होता है। पौध से पौध के बीच 10-12 से.मी. का अंतर रखें तथा बीजों को 1.5-2.0 से.मी. गहराई पर बोना चाहिए। 
उत्तम उपज के लिए पोषक तत्व प्रबंधन : खेत की मिटटी की किस्म एवं उसकी उर्वरता के अनुसार मृदा परीक्षण के आधार पर खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग लाभप्रद होता है । सामान्यतौर पर एकल कटाई वाली किस्मों के लिए 60 किलो नत्रजन, 30 किलो फॉस्फोरस एवं 20 किलो पोटाश देना चाहिए।  बहु कटाई वाली किस्मों के लिए 60 किलो  नत्रजन, 50 किलो फॉस्फोरस  तथा 30 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय तथा 25 किलो नत्रजन प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई के उपरान्त प्रयोग करना चाहिए ।
खरपतवार नियंत्रण : बोने के तुरन्त बाद 1 किग्रा. एट्राजीन 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। वरू घास की समस्या का निदान पाने हेतु फसल चक्र अपनाया जायें।
आवश्यक है समय पर सिंचाई : ज्वार फसल को 280-400 मि.मी. जल की आवश्यकता होती है।  ग्रीष्मकाल में हल्की सिंचाई उपरान्त बुवाई करना चाहिए।  इसके बाद 10-12 दिन के अन्तराल से सिंचाई करने से फसल वृद्धि और चारा उत्पादन अच्छा होता है।
समय पर करें चारा कटाई: ज्वार की फसल में प्रारंभिक अवस्था में एक प्रकार का विषाक्त पदार्थ (हाईड्रोसायनिक अम्ल) बनता है।  अतः ज्वार का हरा चारा  अंकुरण से लेकर 50 दिन तक पशुधन को नहीं खिलाना चाहिए।  खेत में सूखे की स्थिति निर्मित होने से जहरीले पदार्थ की मात्रा अधिक हो जाती है।  ज्वार की फसल 50 % फूल आने की अवस्था पर चारा कटाई हेतु सर्वोत्तम होती है।   बहु कटाई वाली किस्मों में बुवाई  के 50-60 दिन बाद हरे चारे की पहली कटाई करना चाहिए। इसके बाद की कटाइयां  25-30 दिन के अंतराल से की जा सकती है। फरवरी-मार्च में बोई गयी ज्वार से अगस्त  के अन्त तक 4 कटाइयां ली जा सकती हैं। देर से कटाई करने से फसल में प्रोटीन की मात्रा एवं रसीलापन कम हो जाती है तथा रेशे की मात्रा बढ़ जाती है।
चारा उपज:  वैज्ञानिक तरीके से खेती करने पर  ज्वार की एकल कटाई वाली किस्मों से  हरे चारे की उपज 400 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो सकती है तथा बहु कटाई वाली किस्मों से 3-4 कटाइयों में 500-600 क्विंटल हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।

मक्का से बेहतर हरा चारा उत्पादन  

मक्का का चारा अन्य एक दलीय चारों से अधिक  मुलायम, पौष्टिक एवं स्वादिष्ट  होता है, जिसे पशु चाव से खाते हैं। मक्का की खेती अधिक ठंडी को छोड़कर वर्ष भर की जा सकती है।  मक्का का हरा चारा पशुओं को फसल की किसी भी अवस्था में खिलाया जा सकता है। ज्वार की भांति मक्का चारे  में विषाक्त पदार्थ नहीं होता है।  मक्का से हरा चारा अधिक मात्रा में पैदा करने के लिए अग्र प्रस्तुत तकनीक से खेती करना चाहिए। 
उन्नत किस्में : हरे चारे हेतु मक्के की मंजरी कोम्पोसिट (400-450 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर), अफ्रीकन टाल (500-600 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर) एवं मकचरी इम्प्रूव्ड (550-600 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर) उन्नत किस्मे है जिन्हें ग्रीष्मकाल में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
उपयुक्त जलवायु : मक्का की सफल खेती के लिए गर्म एवं आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है। मक्का की खेती के लिए न्यूनतम 10 एवं अधिकतम 45 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए। पौधों की सामान्य बढ़वार के लिए 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं वायुमंडल का आद्र होना लाभप्रद होता है।  
भूमि का चुनाव : मक्का की खेती के लिए उचित जल निकास वाली  जीवांश युक्त दोमट, बलुई दोमट भूमि होती है।अम्लीय और क्षारीय भूमियों में मक्का की खेती अच्छी नहीं होती है।
खेत की तैयारी : खेत में हल्की सिंचाई करने के उपरांत  1-2 जुताइयां देशी हल अथवा कल्टीवेटर  से करना चाहिए।  जुताई के बाद पाटा लगा कर खेत को समतल कर लेना चाहिए  
उन्नत किस्में : चारे के लिए मक्का की अफ्रीकन टाल, जे-1006 एवं प्रताप चारा-6 प्रजाति सबसे अच्छी है। यदि इन किस्मों का बीज न मिले तो संकर, गंगा-11 या कम्पोजिट मक्का, किसान, विजय भी बो सकते हैं। संकर मक्का के दि्वतीय पीढ़ी के बीज को भी चारे के लिए बोया जा सकता है।
बीज दर :  मक्का की उन्नत किस्मों का प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए। मक्का की बुवाई कतारों में करने हेतु 50-60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। मक्का के साथ लोबिया की सहफसली खेती करने पर मक्का 30 कि.ग्रा. तथा लोबिया का 20 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है। इससे चारे की पौष्टिकता बढ़ जाती है।

बुवाई की विधि: जायद में मक्का की बुवाई फरवरी के दूसरे पखवारे से प्रारम्भ की जाती है। बुवाई लाइनों में करते हैं जिससे लाइन की दूरी 20-30 से.मी. होनी चाहिए। सहफसली की दशा में मक्का की प्रत्येक तीन पंक्ति के बाद एक पंक्ति लोबिया की उगाना उचित होगा
उर्वरक : मक्का फसल से अधिक मात्रा में चारा पैदा करने के लिए संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों की पूर्ति करना आवश्यक है।  अच्छी उपज के लिए  80  कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस  एवं 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना  चाहिए । नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश  की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष आधी नत्रजन बुवाई के 30 दिन बाद खेत में डालना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण : बुवाई के तुरन्त बाद 1 कि.ग्रा. एट्राजीन 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है ।
सिचाई: आवश्यकतानुसार 10  से 12  दिन के अन्तर पर सिंचाई की जानी चाहिए। फसल को कुल 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है।
चारा कटाई एवं उपज : हरे चारे के लिए उगाई गई मक्के की कटाई फसल में  50% जीरा (छोटे भुट्टे)  आने से पहले अर्थात बुवाई के लगभग 50-55 दिन पर करना चाहिए। मक्का से  चारे के साथ-साथ शिशु मक्का (बेबी कॉर्न) भी प्राप्त किया जा सकता है। देर से कटाई करने पर चारे में प्रोटीन की मात्रा में कमीं एवं रेशे की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो जाने से चारे की पौष्टिकता एवं पाचनशीलता कम हो जाती है। हरे चारे की कुट्टी काटकर पशुओं को खिलाना अधिक लाभदायक होता है। उत्तम सस्य प्रबन्धन  से 400-450 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।

सर्वश्रेष्ठ हरे चारे के लिए बाजरा की खेती

बाजरा शीघ्रता से बढने तथा कम अवधि में चारा पैदा करने वाली एक आदर्श फसल है।  अधिक कल्ले फूटने, सूखा एवं गर्मी बर्दाश्त करने की क्षमता, विविध मृदा-जलवायुविक परिस्थितियों में उत्तम बढ़वार, चारे में प्रोटीन एवं रेशे की बहुलता जैसे गुणों के कारण पशुधन के लिए श्रेष्ठ चारा फसल है।  फसल में पुष्पन की अवस्था में बाजरा के हरे चारे में 10-15 % प्रोटीन, 50-60 % चारे की पाचनशीलता, 96.6 % राख,2.24 % ईथर निष्कर्ष के अलावा 0.39 % फॉस्फोरस पाया जाता है।  बीज की अवस्था में कटाई करने पर चारे में पोषक तत्वों की मात्रा में गिरावट आ जाती है।  बाजरा के चारे में हाईड्रोसायनिक अम्ल (विषाक्त पदार्थ) की मात्रा बिल्कुल नहीं होती है । बाजरे को अकेले अथवा लोबिया के साथ सहफसल के रूप में बोया जा सकता है ।
उपयुक्त जलवायु : बाजरा मुख्यतः खरीफ में खाद्यान्न फसल के रूप में उगाई जाती है. ग्रीष्मकाल में चारे के लिए यह उत्तम फसल है. बाजरे की उचित बढ़वार के लिए 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान अच्छा रहता है।  
भूमि का चुनाव  : बाजरे की उत्तम फसल बढ़वार के लिए  उचित जलनिकास वाली बलुई दोमट अथवा हल्की भूमि उपयुक्त रहती है।
खेत की तैयारी :खेत में हल्की सिंचाई  करके 2-3 जुताईया देशी हल से करके मिट्टी को भुरभूरी बना लेनी चाहिये। इसके बाद पाटा लगाकर खेतों को सममतल कर लेना चाहियें।
उन्नत किस्में : हरे चारे के लिए बाजरे की द्वितीय पीढ़ी की एच बी-3 एवं एच बी-5 उपयुक्त है जिनसे 500-550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा पैदा हो सकता है । बहु कटाई चारे हेतु एस-530 किस्म उपयुक्त है जिससे 550-600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा प्राप्त हो सकता है। 
बुवाई का समय:  खरीफ में वर्षा प्रारंभ होने के पश्चात बाजरे की बुवाई की जाती है. ग्रीष्मकाल  में चारे हेतु  फरवरी के दितीय सप्ताह  से अप्रैल के प्रथम पक्ष तक की जा सकती है।
बीज दर: बाजरे की कतार बोनी हेतु 10-12  किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। छिटका पद्धति से बुवाई करने के लिए 15-20 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है. अंतरवर्ती खेती में बाजरा तथा लोबिया 2:1 अनुपात (2 लाइन बाजरा तथा एक लाइन लोबिया) में बोना चाहिए इसके लिए 6-7 कि.ग्रा. बाजरा तथा 12-15 कि.ग्रा. लोबिया बीज की आवश्यकता होती है।
बुवाई की विधि : प्रायः इसकी बुवाई छिटकवां पद्धति से की जाती है परन्तु बेहतर उत्पादन के लिए  इसकी बुवाई कतारों में 25-30 सेमी की दूरी पर करना श्रेयस्कर  रहता है।
खाद एवं उर्वरक : भरपूर चारा पैदावार के लिए खाद एवं उर्वरकों की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना आवश्यक होता है. पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परिक्षण के आधार पर हो सकता है. खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर खाद खेत में मिला देना चाहिए.  पौधों की उचित बढ़वार के लिए 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 25 कि.ग्रा. पोटाश  प्रति हेक्टेयर की दर से  देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर बुवाई के 30-35  दिन बाद एवं प्रथम कटाई के तुरंत बाद देना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण : बाजरा बोने के तुरन्त बाद अंकुरण से पहले एट्राजीन  1 कि.ग्रा.प्रति हेक्टेयर  600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है । खड़ी फसल में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु 2,4-डी 1 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 35 दिन बाद छिडकाव करना चाहिए। 
सिंचाई : ग्रीष्मकाल में  फसल को 10-12 दिन के अन्तराल पर पानी देना चाहिए। फसल को कुल 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।
चारा कटाई : चारे के लिए बाजरे की फसल बुवाई के लगभग 50-60 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है।  फसल में 50% बाली आने के बाद प्रोटीन की मात्रा में गिरावट होने लगती है और रेशे की मात्रा बढ़ने लगती है।  अतः उत्तम हरे चारे के लिए फसल में 50 % बाली निकलने की अवस्था पर काट लेना चाहिए। दूसरी कटाई प्रथम कटाई के 40-45 दिन बाद की जा सकती है। 
चारा उपज : बाजरे की उन्नत किस्मों के बेहतर सस्य प्रबंधन से  औसतन 400-500 कुन्तल तथा बहु कटाई वाली किस्मों से 600-650 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर  हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। 

कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर  की आज्ञा के बिना  इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

रोजगार और आमदनी का शानदार जरिया:हरा चारा उत्पादन


रोजगार और आमदनी का शानदार  जरिया: हरा चारा उत्पादन
डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर

भारत वैश्विक दुग्ध उत्पादन परिदृश्य में पहले स्थान पर है, परन्तु प्रति पशु दुग्ध उत्पादकता में वह विकसित डेयरी देशों के औसत से बहुत पीछे है। हमारे देश में पशुधन उत्कृष्टता की अपेक्षा संख्या में दूसरे  देशों की तुलना में बहुत अधिक है।  भारत में  पशुधन सर्वेक्षण 2012 के अनुसार गाय और भैसों की संख्या क्रमशः 76685 एवं 133271 हजार है एवं छत्तीसगढ़ में इनकी संख्या 3327 एवं 3736 हजार है।  देश की कुल सकल आय का लगभग 15 प्रतिशत आय पशुधन से प्राप्त होती है।   इन मूक प्राणियों के भरण पोषण की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण इनकी उत्पादन क्षमता में निरंतर कमीं होती जा रही है।   देश में श्वेत क्रांति की सफलता में हरे चारे का महत्त्वपूर्ण भूमिका है लेकिन  हरे चारे एवं दाने की कमीं के कारण देश में  औसत दुग्ध उत्पादन 1-2 लीटर प्रति दिन प्रति पशु है।  छत्तीसगढ़ में तो औसतन एक पशु से बमुश्किल 500 ग्राम दूध प्राप्त हो पा रहा है. सम्पूर्ण देश में हरे  चारे की कमीं एक विकट समस्या है।  दरअसल देश की कुल कृषि योग्य भूमि के  मात्र 4.4  प्रतिशत क्षेत्रफल में ही चारा फसलें उगाई जाती है जो देश की विशाल पशु संख्या के लिए अपर्याप्त है।  हरे चारे की खेती एवं चरागाहों से आच्छादित कुल क्षेत्र से वर्तमान में हमारे पशुधन को 45-60 प्रतिशत हरे चारे की आवश्यकता की पूर्ति हो पा रही है।  वर्षा ऋतु को छोड़कर अन्य ऋतुओं में चारे की हमेशा कमीं बनी रहती है।  प्रत्येक वर्ष के मई-जून और अक्टूबर-नवम्बर दो ऐसे समय होते है जब हरे चारे का सबसे अधिक संकट रहता है।  चारे के आभाव के समय में पशुओं को धान का पुआल तथा भूसा जैसे अल्प पोषकता वाले सूखे चारे खिलाये जाते है।  सूखे चारे से पशु जीवित तो रहते है परन्तु उनका दुग्ध उत्पादन बहुत कम हो जाता है। 
अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए दुधारु पशुओं के लिए पौष्टिक दाने और चारे के साथ हरा चारा खिलाना बहुत जरुरी है। हरा चारा पशुओं के अंदर पोषक तत्वों की कमीं को पूरा करता है। एक दुधारू पशु जिसका औसत वजन 550 किलोग्राम हो, उसे प्रति दिन कम से कम 10  किलोग्राम की मात्रा में हरा चारा खिलाया जाना चाहिए । पशुपालन में 60-70 प्रतिशत खर्चा चारा-दाना पर आता है।  एक तरफ तो हरे चारे की भारी कमी है, वहीँ दूसरी तरफ पशुओं को दिए जाने वाले दानें और खली की कीमतें निरंतर बढ़ रही है। पौष्टिक दाना चारा के अभाव में  धान की पैरा कुट्टी अथवा भूसा ही पशुओं को खिलाना पड़ता है जिससे उनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता निरंतर घटती जा रही है। ऐसे में पुशु पालन (डेयरी उद्योग) घाटे का सौदा बनता जा रहा है। इसलिए शहरी क्षेत्र में स्थापित अधिकांश पशुपालन इकाई (डेयरी) अलाभकारी होती जा रही  है बहुतेरे पशुपालक इस पवित्र धंधे को छोड़ने विवश है।  दुग्ध उत्पादकता में वृद्धि लाने हेतु दुधारू पशुओं को उत्तम किस्म का हर चारा उपलब्ध कराना आवश्यक है।  वर्ष पर्यंत चारे वाली फसलों की उन्नत खेती कर पशु पालकों को उत्तम किस्म का गुणवत्ता युक्त हरा चारा उपलब्ध कराने से देश में बीमार डेयरी उद्योग को उत्पादक और  आर्थिक रूप से लाभकारी बनाया जा सकता है। शहरी क्षेत्रों के आस-पास के ग्रामीण युवा/बेरोजगार अपने खेतों में हरा  चारा उत्पादन कर देश में श्वेत क्रांति को एक नया आयाम देने में योगदान कर सकते है. यदि आपके पास कृषि भूमि है तो न्यूनतम लागत और थोड़े से परिश्रम से चारा उत्पादन  को शानदार रोजगार और आमदनी का साधन बना सकते है।
ज्वार चरी फसल फोटो साभार गूगल

पशुओं को हरा चारा खिलाने के लाभ

          पशुधन को निरंतर हरा चारा खिलाने से उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है और उनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है. हरा चारा खिलाने से अनेक फायदे होते है जैसे: 
1.हरे चारे पाचक, स्वादिष्ट तथा पोषक तत्वों से भरपूर होते है। पशु इन्हें चाव से खाते है। 
2. हरे चारे के उपयोग से दुग्ध उत्पादन लागत को कम किया जा सकता है, क्योंकि हरे चारे के पोषक तत्व सस्ते होते है।हरा चारा खिलने से दुग्ध उत्पादन में 20-25 % की वृद्धि होती है।
3.वर्ष भर कोई न कोई हरा चारा उगाया जा सकता है।  अतः हर मौसम में हरा चारा खिलाने से पशुओं को ज्यादा दाना, चोकर एवं खली खिलाने की आवश्यकता नहीं होती है। 
4.दलहनी हरा चारा पोषक तत्वों से भरपूर होता है अतः एकदलीय चारे के साथ मिलाकर इसे खिलाने से पशुओं के लिए सम्पूर्ण आहार के समान गुणकारी होता है। 
5.पशुपालक हरे चारे को स्वयं उगा सकते है अथवा खरीद कर खिला सकते है।
6. हरा चारा रसीला होता है।  अतः इन्हें खिलाने से पशुओं को पानी की आवश्यकता कम होती है। 
7. हरा चारा खेत से काटकर अथवा उसकी घर पर कुट्टी काटकर ताजा खिलाया जाता है।  अतः इसके भण्डारण की आवश्यकता नहीं होती है। 
8. हरे चारे में प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, विटामिन्स, कार्बोहाईड्रेट, रेशा एवं खनिज लवण पाए जाते है। अतः इसे खिलाने से पशुओं में रोगप्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है और वे स्वस्थ रहते है।

कहाँ और कैसे करें चारा फसलों की खेती

शहर/कस्बों के आस-पास उचित जल निकास एवं पर्याप्त सिंचाई सुविधा वाली अमूमन सभी प्रकार की  भूमियों  में चारा फसलों की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है. जानवरों की चराई से फसल की सुरक्षा  के लिए खेतों में बाड़ (तार घेरा) लगाना आवश्यक है. स्वयं की भूमि उपलब्ध न होने पर आप कृषि भूमि किराये पर लेकर भी लाभकारी खेती कर सकते है. सबसे पहले खेतों की मिटटी पलटने वाले हल से गहरी जुताई कर घास-पात (खरपतवार) मिटटी में मिला कर खेत में सिंचाई कर 4-5 दिन के लिए छोड़ देवें. इसके पश्चात 5-8 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद/कम्पोस्ट अथवा 2-4 टन मुर्गी की खाद खेत में फैलाकर 2-3 बार कल्टीवेटर से आदि-खड़ी जुताई कर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।  अब आप अग्र सारणी में दर्शित चारा फसलों की उन्नत किस्मों का आवश्यकतानुसार बीज की व्यवस्था कर बुवाई कर सकते है. चारा फसलों को 20-25 दिन के अन्तराल से अलग अलग समय पर बोने से आपको सतत हरा चारा प्राप्त होता है. उत्तम एवं पौष्टिक हरे चारे के लिए एक बीज पत्रिय अर्थात घास कुल की फसलों (ज्वार चरी, बाजरा, नेपिएर, जई आदि) के साथ दलहनी अर्थात लेग्युमिनेसी कुल की फसलें (लोबिया, गुवार, बरसीम आदि) की खेती से अधिक मात्रा में गुणवत्ता युक्त चारा प्राप्त किया जा सकता है. इस मिश्रित चारे को बाजार में ऊंचे दामों में बेचा जा सकता है. इसके अलावा सहफसली (मिश्रित) खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार भी होता है.  हरे चारे की बुवाई के 60-65 दिन बाद कटाई प्रारंभ कर आवश्यकतानुसार पशुपालकों को उपलब्ध कराया जा सकता है.
                                प्रमुख चारा फसलों की  उत्पादन समय सारणी
चारा फसलें
बुवाई का समय
बीज दर (किग्रा./ हे.)
चारा  उपलब्धता
कटाई संख्या
  उत्पादन  (क्विंटल/हे.)
एमपी चरी
फरवरी-जुलाई
25-30  
अप्रैल-नवम्बर
2-3
500-600
मक्का
फरवरी-जुलाई
50-60
अप्रैल-नवम्बर
01
250-300
मकचरी
फरवरी-जुलाई
25-30
अप्रैल-नवम्बर
2-3
500-600
बाजरा
फरवरी-अगस्त
12-15
मार्च-अक्टूबर
2-3
250-300
लोबिया
मार्च-जुलाई
40-50
मई-सितम्बर
01
200-250
नैपिएर घास
मार्च-सितम्बर
15-20 क्विंटल
सम्पूर्ण वर्ष
7-8
1500-2000
गिनी घास
मार्च-सितम्बर
12-15 क्विंटल
सम्पूर्ण वर्ष
7-8
1500-2000
पैरा घास
मार्च-सितम्बर
10-12  क्विंटल
सम्पूर्ण वर्ष
7-8
1000-1200
बरसीम
अक्टूबर-नवम्बर
25-30
दिसंबर-मई
5-6
400-500
लुसर्न
अक्टूबर-नवम्बर
20-25
दिसंबर-मई
6-7
500-600
जई
अक्टूबर-दिसंबर
75-90
जनवरी-अप्रैल
1-2
250-300

चारे को कहाँ और कैसे बेचें 

नेपिएर घास फोटो साभार गूगल 
यदि आप स्वयं एक पशु पालक/डेयरी संचालक है और आपके पास कुछ कृषि योग्य भूमि है तो अपने पशुओं के लिए स्वयं हरा चारा पैदा कर अपनी डेयरी को आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी बना सकते है।  यदि आप रोजगार और आय के साधन के रूप में चारा उत्पादन करना चाहते है तो  इसकी कार्य योजना बनाने से पूर्व अपने आस-पास के पशुपालकों/ डेयरी संचालकों से संपर्क कर उन्हें पशुओं को हरा चारा चारा खिलाने से होने वाले फायदों से अवगत कराएँ।  उन्हें बताएं कि पशुओं को हरे चारे की कुट्टी खिलाने से दुग्ध उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है और दाने पर होने वाले व्यय को कम किया जा सकता है।  हरा चारा क्रय करने हेतु पशु पालकों से आपसी लेन-देन अर्थात चारे की मात्रा,मूल्य एवं चारा पहुचाने का समय आदि विषयों पर पूर्ण सहमति (आवश्यक समझे तो एक इकरारनामें पर हस्ताक्षर करवा लें) सुनिश्चित करने के पश्चात चारा फसलों की खेती प्रारंभ करें।  हरे चारे को सीधे खड़ी फसल अथवा कुट्टी काटकर बेचा जा सकता है।  पशुपालक अपनी आवश्यकतानुसार चारा फसल स्वयं कटवा सकते है अथवा उनके यहाँ आप पहुंचा सकते है।

चारा उत्पादन: कम खर्चे में अधिक आमदनी 

डेयरी संचालक यदि अपने पशुओं को हरा चारा खिलाना प्रारंभ कर देवें तो निश्चित रूप से पशुपालन सतत लाभ का व्यवसाय हो सकता है।  खद्यान्न या अन्य  फसलों की खेती की तुलना में चारा उत्पादन कृषि का सबसे लाभकारी व्यवसाय है।  चारा फसलों की खेती में लागत बहुत कम आती है और लाभ  बेसुमार हो सकता है।  उदहारण के लिए नेपिएर घास की खेती करने में 25-30 हजार रुपये  प्रति हेक्टेयर की लागत आती है। नेपिएर, गिनी एवं पैरा बहुवर्षीय घास है जिन्हें एक बार लगाने से 4-5 वर्ष तक हरा चारा प्राप्त होता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में भी इनसे पर्याप्त चारा मिलता रहता है। नेपिएर घास  से  7-8 बार हरे चारे की कटाई करते हुए 1000 क्विंटल से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  पशुपालक हरी नेपिएर घास को 300 रूपये प्रति क्विंटल के भाव से भी खरीदते है तो आपको 300,000 (तीन लाख) रुपये प्राप्त होंगे जिसमे से खेती की उत्पादन लागत (30 हजार रुपये) एवं अन्य खर्चे (जमीन का किराया,चारा कटाई,कुट्टी बनाने एवं परिवहन में अधिकतम  40,000 रुपये) प्रति हेक्टेयर घटाकर 2,30000/- (दो लाख तीस हजार) का शुद्ध मुनाफा हो सकता है जो अन्य फसलों की खेती अथवा कृषि व्यवसाय से आकर्षक एवं लाभकारी माना जा सकता है। यदि किसी कारण आवश्यकता से अधिक चारा उत्पादन होने लगा है अथवा हरा चारा बच जाता है तो इसके गट्ठर बना कर अथवा कुट्टी काटकर अच्छी प्रकार से सुखा कर छायादार और सूखे स्थान पर सरंक्षित किया जा सकता है। इनका सूखा चारा पौष्टिकता में धान के पुआल से बेहतर होता है अतः सूखे चारे की कुट्टी को भी पशुपालकों को अच्छे भाव में  बेचा जा सकता है।
हरा चारा उत्पादन से संबंधित अधिक जानकारी अथवा व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए तकनीकी मार्गदर्शन हेतु लेखक से उनके ई मेल से संपर्क किया जा सकता है।

नोट: कृपया लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख की कॉपी कर अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा कदाचित न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है, तो ब्लॉगर/लेखक से अनुमति लेकर /सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य देंवे एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।