धान संग मछली पालन: रोजगार और आमदनी का उत्तम
साधन
डॉ.गजेन्द्र
सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर
(सस्य विज्ञान), इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज
मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
धान
छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल है जिसकी खेती 68 प्रतिशत कृषि भूमि पर की जाती है और यहाँ
की बहुसंख्यक आबादी का चावल ही मुख्य भोजन है। इसलिए प्रदेश को धान के कटोरा के नाम से संबोधित किया जाता है। प्रदेश
में धान की खेती खरीफ में 3745 हजार
हेक्टेयर तथा तथा रबी में 196 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 22 से 29
क्विंटल प्रति हेक्टेयर के औसत मान से उत्पादन लिया जा रहा है, जो की धान की
राष्ट्रिय औसत उपज से भी कम है. प्रदेश के 32.55 लाख कृषक परिवारों में से 76
प्रतिशत लघु एवं सीमांत श्रेणी में आते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है।
धान फसल की कटाई के बाद अधिकांश किसान या तो बेरोजगार रहते है अथवा रोजी रोटी की
तलाश में अन्यंत्र पलायन कर जाते है। प्रदेश में औसतन 1200 से 1400 मि.मी.वार्षिक
वर्षा होती है। प्रदेश के किसानों को धान की खेती के साथ मछली पालन के लिए प्रेरित
किया जाए तो निश्चित ही सीमान्त और लघु किसानों की रोजी रोटी का पुख्ता इंतजाम हो
सकता है। धान संग मछली की एकीकृत खेती किसानों को धान की मुख्य फसल के साथ मछली उत्पादन अतिरिक्त कमाई का मौका
देती है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा की बहरा जमीनों तथा नहरी क्षेत्रों के आस-पास धान संग
मछली उत्पादन की समन्वित प्रणाली के तहत धान की दो फसलें (खरीफ एवं रबी में) एवं
साल में मछली की एक फसल आसानी से ली जा सकती हैं। धान सह मछली पालन का चुनाव करते
समय इसका ध्यान रखना चाहिए कि भूमि में अधिक से अधिक पानी रोकने की क्षमता होनी
चाहिए जो इस क्षेत्र में कन्हार मढ़ासी एवं डोरसा मिट्टी में पाई जाती है। खेत में
पानी के आवागमन की उचित व्यवस्था मछली पालन हेतु अति आवश्यक है। सिंचाई के साधन
मौजूद होने चाहिए व औसत वर्षा 800 किलोमीटर से
अधिक होनी चाहिए। इस प्रकार की खेती सीमान्त एवं लघु किसानों की आर्थिक उन्नति और
प्रगति में विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध हो
सकती है ।
- तालाब या झीलों में मछली पालन की अपेक्षा धान के खेत में मछली उत्पादन अधिक होता है, धान के खेतों में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े-मकोड़ों को खाती है जिससे धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
- धान सह मछली की समन्वित खेती में जल और जमीन का किफायती उपयोग हो जाता है। इसमें किसान मुख्य फसल की उपज को प्रभावित किये बिना मछली उत्पादन से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकते है ।
- किसानों को लम्बे समय तक रोजगार एवं अधिक आमदनी प्राप्त होती है।
- मछलियां कीटों, खरपतवारों और बीमारियों को कम करके धान की फसल को फायदा पहुंचाती हैं। धान फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े को मछलियाँ खा लेती है ।
- मछलियों के उत्सर्जी पदार्थ धान के लिए खाद व उर्वरक का काम करते हैं।
- धान सह मछली प्रणाली में धान फसल की कम पैदावार की मछलियों से पूर्ति हो जाती है ।
- धान सह मछली की खेती धान की उपज को बढ़ाती है क्योंकि धान के खेतों में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े-मकोड़ों को खाती है जिससे धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
धान संग मछली पालन में सबसे बड़ी समस्या मछलियों की चोरी तथा कीट भच्छी/शिकारी पछियों यथा बगुला, कौआ आदि से मछलियों का भच्छण, अतः मछलियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक इंतजाम कर लेना आवश्यक है।
धान के खेतों में जलीय
खरपतवारों के नियंत्रण में शाकाहारी मछलियाँ जैसे तिलापिया प्रजातियाँ, पुन्टियस
जावानिकस,ट्राईकोगैस्टर पैक्टोरैलिस आदि कारगर साबित हुई है। धान की फसल को स्नैल
तथा केकड़े भी काफी नुकसान पहुंचाते है । इनके नियंत्रण के लिए मोलासका भक्षी
मछलियाँ जैसे पंगेसियस, हैप्लोक्रोमिस मिलैंडी का संचय करना चाहिए। धान के खेत में
मछली पालन मुख्यतः तीन प्रकार से किया जा सकता है।
1.
धान की फसल काटने
के बाद खेत में पुनः पानी भरकर मछली पालन किया जा सकता है। यह पद्धति सिंचित
क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है ।
2.
दूसरी विधि में
मछली और धान को साथ-साथ बढ़ाते है तथा धान की कटाई के समय मछली को भी निकाल लेते है।
यह पद्धति जल भराऊ वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
3.
तीसरी विधि में
लम्बे समय तक जल की उपलब्धतता वाले क्षेत्रों में दीर्धकालीन मछली पालन (खरीफ एवं
रबी में) किया जा सकता है । इसमें धान काटने के बाद मछली खेत में पहले से ही बने
हुए गहरे भाग (खाई) में चली जाती है, जहाँ
पानी हमेशा बना रहता है । इस भाग में फिर से मत्स्य बीज संचय कर देते है। इस विधि
में धान एवं मछली उत्पादन अधिक होता है ।
धान खेती सह मत्स्य पालन में धान मुख्य
फसल होती है, इसलिए मत्स्य पालन तकनीकी में बदलाव किया जा सकता है । इसमें मछलियों
को रोकने के लिए खेत की मेंड़ों को ऊंचा भी करना पड़ सकता है । धान की फसल में
कीट-रोग-खरपतवार नाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना है अन्यथा मछलियाँ मर सकती है । धान उत्पादन सह मत्स्य पालन तकनीकी क्षेत्र,
मौसम, मत्स्य प्रजातियाँ, धान की किस्में, धान उत्पादन की विधियाँ आदि पर निर्भर
करती है । कुछ स्थानों पर धान के खेत में मछलियों का संचय नहीं किया जाता है बल्कि
जंगली/देशी मछलियों का ही पालन किया जाता है । मछली पालन किये जाने वाले धान के
खेतों का प्रबंधन तालाब की तरह करना चाहिए तथा पानी का स्तर थोडा कम ही रखना चाहिए
नहीं तो धान की फसल को क्षति हो सकती है । यदि इस क्षेत्र में लगातार पानी आता रहे
और निकलता रहे तो सर्वोत्तम है ।
मछली एवं धान की प्रजातियाँ
धान की खेती संग मछली पालन हेतु
धान की लम्बी किस्मों या गहरे जल वाली किस्मों को लगाना चाहिए। छत्तीसगढ़ के लिए
धान की जलदुबी नमक किस्म उपयुक्त रहती है. इस पद्धति में वहीं मछलियाँ अच्छी होती
है जो कम घुलित ऑक्सीजन में भी जीवित रह सकें, उनकी वृद्धि तेज हो तथा मैले जल में रह सकें आदि । मछली की ऐसी प्रजाति
जो कम जल स्तर (16 सेमी से भी कम
पानी) में रह सके और अधिक तापमान (38 डिग्री सेंटीग्रेड तक)
को बर्दाश्त कर सके, उत्तम रहती है। इन मछलियों में तिलापिया, मांगुर आदि प्रमुख
है । इनके अलावा सामान्य कार्प या मृगल, कतला और रोहू प्रजातियों तथा झींगा को भी पाला जा सकता है । छत्तीसगढ़ की
जलवायु में धान के खेतों में मोंगरी मछली स्वतः पैदा हो जाती है परन्तु धीरे-धीरे
यह मछली विलुप्त होती जा रही है।
धान
संग मछली उत्पादन ऐसे करें
धान की बुआई/रोपाई हेतु जून-जुलाई में खेत तैयार किया जाता है तथा
मछलियों के लिए खेत के निचले हिस्से में 0.5 मीटर गहरी और कम से कम एक मीटर चौड़ी
खाई बनाई जाना चाहिए, जिससे इनमे पर्याप्त पानी भरा रहे । धान की अच्छी पैदावार के लिए इस बात को सुनिश्चित
करें कि गहरी खाइयां धान के क्षेत्र से 10 फीसदी से ज्यादा
ना हो। मछली के संचयन के बाद खेत में 10
से 15 सेमी पानी की गहराई सुनिश्चित की जानी चाहिए
ताकि मछली के जीवन को पक्का किया जा सके। वर्षा के दौरान खेत की ऊपरी सतह एवं खाई
में पानी भर जाने पर धान की रोपाई कर देना चाहिए। रोपाई के पूर्व गोबर की खाद या कम्पोस्ट को प्रति हेक्टेयर 8-10
टन की दर से मिटटी में मिला देना चाहिए ।
ऊर्वरक के तौर पर प्रति हेक्टेयर 80 किलो नाइट्रोजन, 40
कि.ग्रा. फॉस्फोरस और 30 किलो पोटैशियम देना
चाहिए । इन ऊर्वरकों (नाइट्रोजन और पोटैशियम) को अलग-अलग चरणों जैसे कि पौधारोपन,
जुताई और फूल आने के वक्त इस्तेमाल करना चाहिए।रोपाई के 8-10 दिन
बाद एक से.मी. आकार की फ्राय या फिंगरलिंग्स (मछली का बच्चा) 2500-3000 प्रति हेक्टेयर
की दर से संचित कर लेते है ।मछलियों की उचित वृद्धि के लिए उन्हें कृत्रिम आहार भी
उपलब्ध करना आवश्यक है । मछली पालन के दौरान खेत में 7 से 18 से.मी. जल स्तर बनाए रखना चाहिए। प्रतिदिन
फिश बायोमास की 5 फीसदी मात्रा मछलियों को अनुपूरक भोजन के तौर पर दिया जा सकता
है। इस भोजन में सोयाबीन आटा (10 फीसदी), गेंहू आटा (20 फीसदी) और चावल की भूसी (70 फीसदी) से मिलाकर बनाया जा सकता है। मछलियों को यह अतिरिक्त भोजन देने से
उनकी बढ़वार और पैदावार अच्छी होती है ।
फसल की कटाई एवं मछलियों की निकासी
सामान्यतौर पर नवम्बर-दिसंबर
तक धान की फसल तैयार हो जाती है । धान की परिपक्व फसल की कटाई थोडा ऊपर से की जाती
है, जिससे निचला भाग जल में सड़कर मृदा एवं जल की उर्वरता को बढ़ाता रहें तथा मछलियों
के लिए जल में प्राकृतिक भोजन बनता रहे। आमतौर पर मछली के विकास करने या बढ़ने की
अवधि 70
से 100 दिन के बीच होती है। धान की कटाई से एक सप्ताह पहले मछली को जाल
चलाकर निकाल लेना चाहिए। बांकी मछलियाँ खेत में पर्याप्त जल वाली गहरी खाई में चली
जाती है। इसके बाद खेत में धान की दूसरी फसल बोई जा सकती है जो कि मार्च-अप्रैल तक
तैयार हो जाती है। धान की फसल कटाई पश्चात खाइयों की मछलियों को निकाल कर बेच दिया
जाता है तथा खेत को सुखा दिया जाता है। धान संग मछली पालन की समन्वित खेती को अगले
वर्ष भी जारी रखा जा सकता है।
उपज एवं आमदनी
उपयुक्त मौसम तथा सही प्रबंधन से धान संग मछली पालन से वर्ष में
धान की दो फसलों से 60-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर धान की उपज के साथ-साथ मछली की एक फसल (1000-1500 किग्रा./हेक्टेयर)
प्राप्त की जा सकती है । इस पद्धति में यदि धान की उपज 60 क्विंटल तथा मछली की उपज
1000 किलो मान ली जाये तो इन्हें बेचने पर धान से 150000 रूपये तथा मछली बेच कर (100
रूपये प्रति किलो भाव) 100,000 रूपये यानि
कुल 2,50,000 रूपये प्राप्त होते है जिसमे धान संग मछली उत्पादन लागत 50000 को
घटाकर किसान को आसानी से दो लाख का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है। धान संग मछली पालन पद्धति में मछलियों की चोरी तथा परभच्छी पक्षियों से सुरक्षा के उपाय अवश्य करें।
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लॉग की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
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