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मंगलवार, 4 अगस्त 2020

लाभप्रद खेती के लिए समझदारी से खरपतवार प्रबंधन

                                                        डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

पौधे मानव जाति के लिए बहुमूल्य निधि है इनके बिना हम पृथ्वी पर जीवित नहीं रह सकते है, परन्तु सभी पौधों को अबाध गति से उगने एवं बढ़ने नहीं दिया जा सकता विश्व में तीन लाख से अधिक पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती है, जिसमें से केवल तीन हजार जातियाँ आर्थिक महत्त्व की है। जो पौधे मानव की आवश्यकताओं की पूर्ती करते है, उन्हें फसल कहते है और जो पौधे फसलों से प्रतियोगिता करते है, उन्हें खरपतवार कहा जाता है । जब आर्थिक महत्त्व की जाती (फसल) उगाई जाती है, तो उसके साथ बहुत से अन्य पौधे उग जाते है जो फसल के साथ प्रतिस्पर्धा करते है तथा अवांछनीय होते हैइन्ही अवांछनीय पौधों को खरपतवार कहते है। ऐसा पौधा या वनस्पति जो अतिशय हानिप्रद, अनुपयोगी, अवांछनीय या विषैला हो, खरपतवार की श्रेणी में आता है।फसलों में खरपतवारों का प्रकोप होने से उपज में 20 से 65 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है। खरपतवारों के प्रकोप के कारण होने वाले नुकसान की सीमा कई बातों पर निर्भर करती है। फसलों में किसी भी अवस्था पर खरपतवार नियंत्रण करना समान रूप से आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक फसल के लिए खरपतवारों की उपस्थिति के कारण सर्वाधिक हानि होने की अवस्था या अवधि होती है। इस अवधि या अवस्था को क्रांतिक अवस्था कहते है। अधिकांश खाद्यान्न फसलों में यह अवस्था 30-45 दिन की होती है अर्थात बुवाई से लेकर 45 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त होना जरुरी है उचित समय पर सही ढंग से समझदारी से खरपतवारों का नियंत्रण करके फसल की उपज और गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है।
खरपतवार नियंत्रण की यांत्रिक विधि फोटो साभार गूगल 

खरपतवारों से होने वाली हानियाँ
1.खरपतवारों से फसलों की उपज में कमीं:खरपतवारों की उपस्थिति से फसलों की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यदि इनका सही समय पर समझदारी से नियंत्रण न किया जाए तो ये फसलों की उपज में 20 से 65 प्रतिशत तक कमीं कर सकते है
2.फसल क्रियाओं व भण्डारण में बाधा: खरपतवार, खेतों में की जाने वाली विभिन्न कृषि क्रियाओं जैसे जुताई, सिंचाई, उर्वरकों के प्रयोग, कटाई व मड़ाई में बाधा डालते है बहुत से खरपतवारों के बीज फसलों के बीजों के साथ मिल जाते है, जिनको साफ़ करने में खाद्यान्न बीज की काफी मात्रा भी साथ में व्यर्थ हो जाती है
3.फसल की गुणवत्ता में कमीं: खरपतवार,फसलों के उत्पाद की गुणवत्ता को कम कर देते है जिससे उत्पादकों को बाजार में कम मूल्य मिलता है बहुत से खरपतवार जैसे जंगली प्याज के कन्द फसलों में दुर्गन्ध तथा सत्यानाशी के बीज सरसों के बीज में मिल जाने से ड्राप्सी नामक घातक बिमारी फैलाते है
4.जानवरों के उत्पाद की गुणवत्ता में ह्रास: बहुत से खरपतवारों जैसे जंगली प्याज के बीज चारे की फसलों में दुर्गन्ध पैदा करते है तथा पार्थेनियम पशुओं के दूध व मांस की गुणवत्ता को प्रभावित करती है
5.जानवरों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव: चारागाहों व चारे की फसलों के साथ मिलकर कुछ खरपतवार जैसे पार्थेनियम (कांग्रेस घास) तथा बर्रू घास, कल्ले निकलने की अवस्था में जानवरों द्वारा अधिक खा लेने पर जहरीले साबित होते है
6.मनुष्य के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव: बहुत से खरपतवार मनुष्यों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालते है कुछ खरपतवारों से मनुष्य को एलर्जी व अन्य बीमारियाँ हो जाती है विश्व में लाखों व्यक्तियों को श्वांस व त्वचा रोग पार्थेनियम पौधों के परागकणों व पौधों के सम्पर्क में आने के कारण हो रहे है काँटेदार खरपतवारों से खेत में काम करने वाले व्यक्तियों की त्वचा कट-फट जाती है
7.नदी,तालाबों में प्रदूषण: खरपतवार, नदी,नाला, बाँध,झीलों,तालाबों में प्रदूषण फैलाते है जिससे पानी का रंग,स्वाद व गंध बदल जाता है तथा नदी में तैरने व नाव खेने में दिक्कत आती है. खरपतवार,नहरों में जल बहाव की गति को 20-30 प्रतिशत तक कम कर देते है तथा सिंचाई व जल निकास के लिए बनाई गई नालियों को अवरुद्ध कर देते है.इससे नालियों के आस-पास जल भराव की समस्या उत्पन्न हो जाती है पानी में पाए जाने वाले खर्प्तार मछली पालन के लिए भी अभिशाप है
8.प्राकृतिक सौन्दर्य का ह्रास:हमारे रहने व कार्य करने के स्थान पर खरपतवार आस-पास के वातावरण के सौन्दर्य पर दुष्प्रभाव डालते है
खरपतवारों द्वारा फसलों की उपज में कमीं के कारण
1.आवश्यक पोषक तत्वों के लिए स्पर्धा: खरपतवार, फसलों में दिये गये आवश्यक पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करते है तथा कुछ खरपतवारों की वृद्धि दर अधिक होने के कारण फसलों की तुलना में अधिक पोषक तत्व ग्रहण कर लेते है, जिससे फसलों के लिए पोषक तत्वों की कमीं हो जाती है
2.सौर ऊर्जा के लिए प्रतिस्पर्धा:सामान्यतः खरपतवारों की वृद्धि फसलों की तुलना में अधिक होती है तथा ये फसलों पर छाया करते है, जिससे फसलों के पौधों को समुचित मात्रा में सूरज का प्रकाश नहीं मिल पाता जिसके फलस्वरूप प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है
3.जल के लिए प्रतिस्पर्धा: खरपतवार, फसलों के साथ भूमि में उपलब्ध नमीं के लिए प्रतिस्पर्धा करते है तथा फसलों की अपेक्षा ये अधिक जल का वाष्पोत्सर्जन करते है, जिससे फसलों के लिए भू-जल की उपलब्धतता कम हो जाती है
4.स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा: खरपतवार, फसलों के साथ भूमि के अन्दर व बाहर स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते है, जिससे पौधों की जड़ों व शाखाओं को बढ़ने के लिए कम स्थान मिल पाती है
5.एलिलोपैथिक प्रभाव: पर्याप्त पोषक तत्व, प्रकाश व पानी होने के बावजूद भी फसलों के पौधों की बढ़वार खरपतवारों की मौजूदगी में कम हो जाती है. पौधों के बढ़वार में कमीं, साथ में उग रहे खरपतवारों की जड़ों द्वारा उत्सर्जित होने वाले घातक रसायनों या पत्तियों द्वारा वाष्पीय तत्व या अवशेष के सड़ने गलने के कारण उत्पन्न होते है उदाहरण के लिए ज्वार की पौधों की जड़ों द्वारा प्रूसिक अम्ल उत्सर्जित होता है जो ज्वार की फसल के बाद उगाई जाने वाली गेंहूँ की फसल की वृद्धि पर कुप्रभाव डालता है
6.हानिकारक कीट व रोगों का अधिक प्रकोप: फसलों की पैदावार कम करने के साथ-साथ खरपतवार, बहुत से कीड़े व रोगाणुओं के लिए विपरीत मौसम में मेजवान का कार्य करते है, जो फसल उगने पर आक्रमण करते है
 खरपतवारों को वर्गीकरण
विश्व में खरपतवारों की 30000  से अधिक प्रजातियॉ पाई जाती है जिनमें  लगभग 18000  किस्म के पौधों से अधिक नुकसान होता हैं । सभी प्रकार के खरपतवारों के लिए अलग प्रकार से नियंत्रण की आवश्यकता होती है तथा इनके बढ़ने के तरीके और इसे होने वाली हानिया भी अलग प्रकार की होती है । खरपतवारों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है ।
जीवन चक्र के आधार पर वर्गीकरण: जीवन चक्र के आधार पर खरपतवारों को तीन वर्गा में विभक्त किया जाता है ।
1.एकवर्षीय खरपतवार :ये खरपतवार अपना जीवन चक्र एक वर्ष या एक ऋतु में पूर्ण कर लेते है। वार्षिक खरपतवार के पौधो को उगने के समय के अनुसार चार  वर्गो में विभक्त करते            है।
वर्षा ऋतु के खरपतवार: ये खरपतवार जून-जुलाई में उगते है तथा सितम्बर अक्टूबर तक अपना जीवन चक्र पूर्ण कर लेते हैं जैसे मकोय, जंगली चौलाई, लहसुआ.हजारदाना आदि ।
शरद ऋतु के खरपतवार: ये पौधे रबी की फसलो के साथ सितम्बर से नवम्बर तक उगकर फरवरी-मार्च तक जीवन चक्र पूर्ण कर लेते है । इसमे जंगली जई, बथुआ, कृष्ण नील, वनप्याजी, गेहू का मामा आदि ।
ग्रीष्म ऋतु के खरपतवार-इस वर्ग में ऐसे खरपतवार आते है जो गर्म और शुष्क मौसम में फरवरी से जून तक अपना जीवन-चक्र पूर्ण कर लेते है । इसमें नुनियॉं, पत्थर चट्टा आदि प्रजातियॉ आती है।
बहु-मौसमी खरपतावर: इस वर्ग में वे खरपतवार आते है । जो वर्ष भर में किसी समय उगकर अपना जीवन चक्र पूर्ण कर सकते है । इनमें किसी खास मौसम के लिए अनुकूलन नहीं होता है।       ये पौधे वर्ष में एक से अधिक बार अपना जीवन चक्र पूर्ण कर सकते है जैसे संवई घास,हजारादाना आदि ।
2.द्विवर्षीय खरपतवार: इस वर्ग के खरपतवार दो वर्षो में अपना जीवन चक्र पूर्ण करते है । इन खरपतवारों में प्रथम वर्ष में वानस्पतिक वृद्धि होती है तथा दूसरे वर्ष में फूल फल आते          है  जैसे जंगली गाजर ।
3.बहु वर्षीय खरपतवार :इस वर्ग के खरपतवार एक बार उगने के बाद कई वर्षो तक जीवित रहते है । इनकी वृद्धि तथा प्रवर्धन इसके वानस्पतिक भागों जैसे जड़ों प्रकन्द, कंद,   शल्ककंद से होता है । इस वर्ग के कुछ पौधे बीजों द्वारा भी बढ़ते है. बहु वर्षीय खरपतवारों में दूब घास, मौथा,कांस आदि आते है.
पौधा की बनावट के आधार पर वर्गीकरण    
1.चौड़ी पत्ती वाले या द्विबीज पत्री खरपतवार: इसमें बथुआ, हिरनखुरी, मटरी आदि    सम्मिलित है ।
2.घासे या एकबीज पत्री खरपतवार: इसमें दूबघास, जंगली जई आदि आते है ।
3.सेजिस: इस वर्ग में मोथ, नागरमोथा इत्यादि पौधे सम्मिलित हैं ।
खरपतवार प्रबन्ध की विधियॉं
खरपतवार प्रबन्ध के अंतर्गत खरपतवारों का निरोधन,उन्मूलन  तथा नियंत्रण सम्मिलित है । खरपतवार नियंत्रण से तात्पर्य खरपतवार खरपतवारों को इस प्रकार नियंत्रण करने से है जिससे कृषि क्रियाओं सुगमता पूर्वक सम्पादित की जा सकें तथा लाभदायक फसलोंत्पादन किया जा सके । इस प्रकार मात्र खरपतवारों नियंत्रित करना पर्याप्त नहीं हैं । कुछ हानिकारक, कष्टप्रद, विषैले, ऐसे खरपतवार होते है, जिनका उन्मूलन करना आवश्यक होता है ताकि वे पुनः न उग पाए। खरपतवारों की रोकथाम अथवा निरोध से अभिप्राय है खरपतवारों को खेत में उगने ही न देना । इसके अर्न्तगत वे समस्त विधियॉं आती है जिनके माध्यम से खरपतवारों का नए स्थानों पर प्रवेश रोका जाता है । ऐसे खरपतवार जो फसलों के बीज व रोपण सामग्री अथवा फार्म यंत्रों के माध्यम से फैलते है उनकी रोकथाम के लिए निम्न विधियॉं प्रयोग में लाई जाती है ।
  खरपतवार रहित  साफ़ बीजों का प्रयोग करना चाहिए ।पशुओं को ऐसे खरपतवार चारे के रूप में नहीं खिलाने चाहिए जिनके बीज परिपक्व हो चुके हो तथा जिनमें अंकुरण क्षमता हो । यदि इस प्रकार के पदार्थ को खिलाना अपरिहयि हो तो खिलाने   के पहले उन्हेंउबालना चाहिए या उनकी पिसाई कर देनी चाहिए । ताजी गोबर की खाद अथवा अधूरी सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।  जीवांश पदार्थ युक्त ऐसे पलवार (मल्च) का प्रयोग नहीं करना जिसमें खरपतवार के बीजों के होने की सम्भावना हो ।  पके हुए बीज युक्त खरपतवारों से आच्छादित खेतों में पशुओं की चराई के पश्चात उन्हें खरपतवार रहित खेतों में नहीं जाने देना चाहिए । पशुओं  के गोबर के साथ अथवा शरीर से चिपक कर खेत में बीजें के प्रसारणकी सम्भावना रहती है । एक खेत से होकर दूसरे खेत में ले जाने से पूर्व कृषि यंत्रों की अच्छी प्रकार साफ़-सफाई कर लेनी चाहिए ताकि खरपतवारों को फैलने से रोका जा सकें ।  फार्म की सड़को के किनारों खलिहान, फार्म के भवनों के आसपास के खरपतवारों बीज बनने से को पूर्व ही समाप्त कर देना चाहिए । सिंचाई और जल निकास की नालियों के किनारों तथा इनके बीच उगे खरपतवारों को नष्ट करते रहना चाहिए । रोपाई की जाने वाली फसलों में नर्सरी से पौध उखाड़तें समय ध्यान देना चाहिए कि पौधों के साथ खरपतवार के पौधे न मिले हों ।

खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ


खरपतवार नियंत्रण  के लिए यांत्रिक, कृषिगत और  रासायनिक विधियों का इस्तेमाल किया जाता है ।
1.यांत्रिक विधिया: इस विधि में खरपतवारों को उखाड़ने, कटाई करने, दबाने जलाने, आदि कार्यों हेतु मशीनों व यंत्रों  का प्रयोग किया जाता हे । इस विधि में खरपतवारों को हाथ से खींच कर या खुरपी, फावड़ा या कुदाल के द्वारा अथवा ट्रैक्टर के पीछे कई टाइनों वाला यंत्र लगाकर उखाड़ दिया जाता है । घास या फसलों की पत्तियों को एक परत के रूप में भूमि पर फसलों के बीच में बिछाना या उनको जला देना भी इसी विधि में सम्मलित है। प्रतेक फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए कम से कम 25 दिन के अंतराल पर दो बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है । इस विधि में लागत व समय अधिक लगता है ।
2.जैविक विधियां: जैव नियंत्रण में  विशिष्ट प्रकार के खरपतवारों को विशिष्ट परजीवियों, परभक्षियों तथा रोगाणुओं के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है । इस विधि का इस्तेमाल अभी प्रचलन में नहीं है।
3.रासायनिक नियंत्रण: खरपतवार की रासायनिक विधियों का प्रयोग विवेक तथा सावधानी पूर्वक करने पर अच्छी सफलता प्राप्त होती है । खरपतवार के नियंत्रण हेतु प्रयुक्त कुछ रसायन एक वर्ग के पौधो के समाप्त कर देते है जबकि दूसरे वर्ग के पौधे इनके प्रयोग से अप्रभावित रहते है । खरपतवार नाशकों का चयन व प्रति इकाई क्षेत्रफल में उनकी मात्रा, प्रयोग करने की विधि व समय की खरपतवार नियंत्रण की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रसायनों की सहायता से खरपतवार नियंत्रण जल्दी, कम लागत में प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। यह विधि आर्थिक दृष्टि से लाभकारी भी सिद्ध हुई है ।
4.समन्वित खरपतवार नियंत्रण:  जब दो या दो से अधिक खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ खरपतवारों के प्रभावशाली नियंत्रण के लिए अपनाई जाती है तो इसमें विभिन्न विधियों का समुचित चयन, समन्वय तथा क्रियान्वयन, पर्यावरण एवं आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक होता है

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सोमवार, 3 अगस्त 2020

स्वाद, सेहत और मुनाफे के लिए सब्जियों की जैविक खेती

                                                       डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत ने हरित क्रांति के तहत सिंचाई के संसाधनों के विकास, उन्नत किस्मों के प्रसार, रासायनिक उर्वरकों एवं पौध संरक्षण दवाओं के इस्तेमाल से फसलों के उत्पादन में उतरोत्तर बढ़ोत्तरी तो हुई परन्तु पर्यावरण ह्रास की कीमत पर। समय बीतने के साथ भूमि की उर्वराशक्ति में गिरावट के कारण फसलों की उत्पादकता में स्थिरता अथवा गिरावट के साथ-साथ खेती की बढ़ती लागत चिंता और चिंतन का विषय है। विज्ञान का उपयोग प्रकृति के साथ उचित तालमेल की बजाय उससे मुकाबला कर व्यवसायिक दृष्टिकोण से खेती की गई।  आधुनिक कृषि के तहत   रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं जैविक खादों के नगण्य उपयोग की वजह से भूमि में मुख्य एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमीं होने से न केवल फसलों की पैदावार में गिरावट आ रही है बल्कि विभिन्न कृषि उत्पादों की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।सब्जी उत्पादन में यह समस्या गंभीर रूप धारण करती जा रही है क्योंकि इनमें फसलों की अपेक्षा रासायनिक उर्वरक तथा पौध संरक्षण और वृद्धि नियंत्रक रसायनों का बेसुमार इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप जल-वायु प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। जहरीले रसायन आधारित खेती से उत्पादित विभिन्न सब्जियों के सेवन से मनुष्यों एवं पशुओं में जानलेवा बीमारियाँ पनपने लगी है। इन विकट परिस्थितियों में जहरयुक्त रसायन आधारित खेती को त्याग कर जहरमुक्त जैविक खेती अपनाकर न केवल मृदा-स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या को कम किया जा सकता है बल्कि मनुष्य को स्वादिष्ट और जहर मुक्त सब्जी मुहैया कराकर देश की पोषण सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सकती है। विश्व व्यापार संधि के चलते अन्तराष्ट्रीय खुली प्रतिस्पर्धा में वही खेती टिक पायेगी जो कम लागत व सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली होगी । स्वाद और सेहत के लिए सर्वोत्तम जैविक सब्जियों के प्रति उपभोक्ताओं में बढ़ते रुझान के कारण बाजार में इन सब्जियों के बेहतर दाम मिलने की वजह से किसानों के लिए सब्जियों की खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है।

जैविक पद्धति से सब्जी-फल उत्पादन फोटो साभार गूगल 

क्या है जैविक खेती

वास्तव में जैविक खेती वही है जो कि हमारी मिट्विटी और जलवायु के अनुसार हो और हमारे पास उपलब्कध संसाधनों द्वारा संपन्न हो तथा जिसमें सभी प्राकृतिक आदानों का संतुलित सदुपयोग हो ताकि वे लम्बे समय तक उपलब्ध हो सकें खेती फसल उत्पादन की वह पद्धति है जिसमें खेती रासायनिक उत्पादों जैसे रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, फफूंदनाशी,शाकनाशी, वृद्धि नियामक आदि का प्रयोग न करके जैविक पदार्थो जैसे जैविक खाद, जैव उर्वरक, हरी खाद, जैविक कीट नाशक एवं फसल-चक्र परिवर्तन आदि के प्रयोग पर निर्भर करती है। प्रकृति आधारित इस पद्धति का मुख्य उद्देश्य मृदा, पौधों, पशुओं एवं मनुष्य के स्वास्थ्य के अनुकूल फसल उत्पादन करना है। इस प्रकार से जैविक खेती की मूल भावना विज्ञान द्वारा खोजे गए प्रकृति के रहस्यों व वरदानों का कृषि क्षेत्र में उचित उपयोग कर उत्पादन के उचित स्तर को प्राप्त करना है 

जैविक खेती के प्रमुख चरण

जैविक खेती अपनाने के लिए किसान को तीन चरणों यथा जैविक परिवर्तन, जैविक कृषि प्रबंधन एवं प्रमाणीकरण प्रक्रिया का अनुपालन करना होता है।

A.जैविक परिवर्तन

जैविक खेती प्रारम्भ करने के समय से लेकर वास्तविक जैविक फसल उत्पादन के बीच के समय को परिवर्तन अवधि कहते है। यह अवधि एक वर्ष से लेकर तीन वर्ष तक की हो सकती है वार्षिक फसलों के लिए परिवर्तन अवधि एक वर्ष एवं लंबी अवधि वाली फसलों तथा बागवानी पौधों के लिए दो से तीन वर्ष की होती है। सफल जैविक परिवर्तन हेतु अधोलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।

1.जैविक खेती एवं जैविक मानकों से सम्बंधित समस्त जानकारी

2.जैविक खेती में प्रयुक्त होने वाले संसाधनों का ज्ञान एवं उनकी उपलब्धता

3.जैविक परिवर्तन की सावधानी पूर्वक तैयारी करना

4.खेत की उर्वराशक्ति के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

5.स्थानीय वातावरण के अनुसार फसलों एवं पशुओं का चयन

6.उपयुक्त फसल चक्रो का चुनाव एवं अनुपालन

7.कीट-व्याधियों के जीवन चक्र एवं नियंत्रण का ज्ञान

8.खेती-किसानी से सम्बंधित सभी अभिलेखों का सुचारू रूप से रखरखाव.

B.जैविक कृषि प्रबंधन

प्रमाणीकृत जैविक खेती करने के लिए जैविक खेती के विभिन्न घटकों में प्रयुक्त होने वाले सभी उपादानों का उपयोग जैविक नियमों के अनुसार ही होना चाहिए.

जैविक खेती के प्रमुख घटक

जैविक खेती के घटकों में मृदा उर्वरता प्रबंधन

1.मृदा उर्वरता प्रबंधन: जैविक खेती में पोषक तत्वों की आपूर्ति एवं भूमि की उर्वराशक्ति को बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर विभिन्न प्रकार की जैविक खादों यथा गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, वर्मीकम्पोस्ट के अलावा हरी खाद तथा जैव उर्वरकों जैसे राइजोबियम, एज़ोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलिम, फॉस्फोरस घोलक जीवाणु आदि का प्रयोग किया जाता है। उपयुक्त फसल चक्र एवं बहुफसली प्रणाली भी मृदा को स्वस्थ एवं उर्वर बनाये रखने के सहायक होती है। फसलों के अवशेष, पशु-अवशेष जैसे गौमूत्र, बिछावन, हड्डी का चूरा, मछली खाद, विभिन्न प्रकार की खलियों आदि का प्रयोग किया जाता है। जैविक खाद, हरी खाद एवं जैविक उर्वरकों के अलावा जैविक खेती में किसान स्वयं निम्न विशेष जैविक तरल खाद तैयार कर खेती को लाभकारी बना सकते है ।

(अ)संजीवक: इसे बनाने के लिए 100 किग्रा गाय के गोबर + 100 लीटर गो-मूत्र + 500 ग्राम गुड़ को 300 लीटर पानी में 10 दिन तक सड़ाया जाता है। इसके बाद इसमें 20 गुना पानी मिलाकर एक एकड़ भूमि में छिडक देते है अथवा सिंचाई जल के साथ प्रयोग करते है।

(ब)जीवामृत: इसे बनाने के लिए 10 किग्रा गाय का गोबर + 10 लीटर गो-मूत्र + 2 किग्रा गुड़ + 2 किग्रा किसी डाल का आटा + 1 किग्रा जिवंत मिट्टी को 200 लीटर पानी में मिलाकर 7-8 दिन तक सड़ने दिया जाता है। इस मिश्रण को नियमित रूप से दिन में 3-4 बार हिलाते रहते है। एक एकड़ खेत में सिंचाई जल के साथ जीवामृत का प्रयोग किया जा सकता है।

(स)पंचगव्य: पंचगव्य बनाने के लिए गाय के गोबर का घोल 4 किग्रा + गाय का गोबर 1 किग्रा + गो-मूत्र 3 लीटर + गाय का दूध 3 लीटर + छाछ 2 लीटर + गाय का घी 1 किग्रा को मिलाकर 7 दिन तक सड़ने दिया जाता है। प्रतिदिन इस मिश्रण को 2 बार हिलाते है। तीन लीटर पंचगव्य को 100 लीटर पानी में मिलाकर मृदा पर छिड़काव करते है अथवा 20 लीटर पंचगव्य को सिंचाई जल के साथ एक एकड़ खेत में प्रयोग किया जा सकता है।

2.फसल का चुनाव: जैविक खेती के लिए चयनित फसलें एवं प्रजातियाँ स्थानीय पर्यावरणीय दशाओं के अनुकूल और कीट-रोग अवरोधी होनी चाहिए। सभी चयनित फसलों के बीज प्रमाणित जैविक कृषि उत्पाद होने चाहिए। यदि प्रमाणित जैविक बीज उपलब्ध न हो तो बिना रासायनिक उपचार के उत्पादित अन्य बीज भी  प्रयोग किये जा सकते है। जैविक खेती में परिवर्तित आनुवांशिकी वाले बीजों तथा ट्रान्सजेनिक पौधों का प्रयोग नहीं करना है।

3.खरपतवार नियंत्रण: सब्जियों की जैविक खेती में खरपतवारों का समुचित प्रबंधन बेहद जरुरी है। इसके लिए रासायनिक खरपतवार नाशियों के स्थान पर यांत्रिक एवं सस्य क्रियाओं जैसे ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई, भूमि का सौर्यीकरण, निराई-गुड़ाई, उचित फसल चक्र, प्लास्टिक एवं जैविक पलवार (मल्च) का प्रयोग,उचित सिंचाई प्रबंधन आदि विधियों का परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करके सब्जियों को खरपतवारों से मुक्त रखा जा सकता है।

4.उचित फसल चक्र: जैविक खेती के तहत फसलों को अदल-बदल कर बोना चाहिए जैसे खाद्यान्न फसलों के बाद दलहनी फसलें, अधिक खाद पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम कम खाद-पानी चाहने वाली फसलें आदि । इससे खेत की उर्वराशक्ति कायम रहती है तथा फसलों में कीट-रोगों का प्रकोप कम होता है।

5.कीट-रोग नियंत्रण: जैविक सब्जी उत्पादन में रासायनिक कीटनाशकों,फफूंदनाशकों एवं वृद्धि नियामकों का प्रयोग नहीं करना है। इसके स्थान पर सस्य-विधि,यांत्रिक विधि, जैविक विधि तथा अनुमत जैव रसायनों अथवा वानस्पतिक उत्पादों का प्रयोग करना है। जैविक कीट-रोग प्रबंधन हेतु निम्न उपाय कारगर होते है:

(a) प्रतिरोधी फसल प्रजातियों का चयन एवं कीट-रोग रहित बीजों का प्रयोग सबसे अच्छे बचाव का उपाय है। प्रभावी फसल चक्र, बहु-फसली प्रणाली, ट्रैप फसल के प्रयोग तथा कीटों के प्राकृतिक वास में बदलाव से नाशी जीवों को नियंत्रित किया जा सकता है।

(b) यांत्रिक विकल्प के अन्तर्गत रोगी एवं रोग ग्रस्त भाग को अलग करना, कीटों के अण्डों एवं लार्वों को एकत्र करके नष्ट करना, खेतों में चिड़ियों के बैठने के स्थान की उचित व्यवस्था करना, प्रकाश प्रपंच लगाना, फेरोमों ट्रैप अथवा रंगीन चिपचिपी पट्टी आदि का उपयोग कीट-रोग नियंत्रण के प्रभावी उपाय है।

(c) जैविक विकल्प में नाशी जीवों का भक्षण करने वाले मित्र जीव-जंतुओं जैसे ट्राईकोग्रामा (40-50 हजार अंडे प्रति हेक्ट्रे) चेलोनस बरनी (15 से 20 हजार अंडे प्रति हेक्टेयर) अथवा क्राईसोपरला के 5 हजार अंडे प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करके नाशी जीवों का नियंत्रण किया जा सकता है।

(d) ट्राईकोडर्मा विरिडी या ट्राईकोडर्मा हार्जिएनम या स्यूडोमोनास फ्लूरिसेंस का 4-6  ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से अकेले अथवा संयुक्त रूप से उपचार अधिकांश बीज व मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है। ट्राईकोडर्मा  से कपास, दलहनी व तिलहनी फसलों तथा सब्जी व बागवानी फसलों में उपचार किया जा सकता है. इसी प्रकार बवेरिया बासियाना, मेटाराइजियम एनिसोप्लियाई आदि से  विशेष नाशीजीव समुदाय का प्रबंधन किया जा सकता है।बैसिलस थुर्रीजिएन्सिस (बी.टी.) नामक बैक्टेरिया का प्रयोग पत्तागोभी में लगने वाले हीरक पृष्ठ कीट के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है.

(e) बहुत से वृक्ष एवं पौधों की पत्तियों जैसे नीम,धतूरा, बेशरम आदि अथवा बीजों के अर्क का उपयोग नाशिजिवों के नियंत्रण में किया जा सकता है। नीम अर्क एवं तेल विभिन्न प्रकार के कीटों जैसे ग्रासहॉपर, लीफ हॉपर, एफिड, जैसिड, इल्ली आदि के नियंत्रण में प्रभावी रहता है। एक लीटर गो-मूत्र को 20 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडकाव करने से अनेक कीट-रोगों के नियंत्रण के साथ-साथ पौध वृद्धि पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

C.जैविक प्रमाणीकरण

जैविक खेती के प्रमाणीकरण हेतु विश्व स्तर पर एक प्रक्रिया बनाई गई है जिसे प्रमाणीकरण (सर्टिफिकेशन) कहते है। इसके कई नियम-विधान बनाये गए है जिनके आधार पर प्रमाणीकरण संस्था यह प्रमाण पत्र देती है कि अमुक किसान का खेत या किसान समूह के खेतों में उसके द्वारा उगाई गई फसल या उत्पाद 100 प्रतिशत जैविक विधि से तैयार किया गया है। प्रमाणीकरण में जैविक कृषि उत्पादन का नहीं बल्कि कृषि उत्पादन पद्धति का प्रमाणीकरण करवाना होता है। प्रमाणीकरण संस्था द्वारा खेत का इतिहास यानि उसमें पूर्व में क्या फसल ली गयी है, कितना उर्वरक व कीटनाशक उपयोग किया गया है, तथा अन्य सभी जानकारी जो उत्पादन को प्रभावित करती है, को इकट्ठा किया जाता है। इसके बाद मिट्टी व पानी की गहन जांच करने के पश्चात किसान को क्या-क्या कार्य करने है और क्या नहीं करना है के बारे में निर्देश दिए जाते है। मोटे तौर पर जैविक प्रमाणीकरण के लिए निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है।

Ø सभी संश्लेषित रासायनिक आदानों तथा परिवर्तित आनुवंशिकी के जीवों का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है।

Ø केवल वही भूमि जिसमें कई वर्षो से प्रतिबंधित आदानों का प्रयोग नहीं किया गया हो, प्रमाणीकरण प्रक्रिया के तहत लाइ जा सकती है।

Ø अपनाई जा रही सभी प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों का उचित प्रलेखन आवश्यक है।

Ø जैविक एवं अजैविक उत्पादन इकाइयों को एक दूसरे से बिल्कुल अलग रखना ।

Ø समय-समय पर खेत का निरिक्षण कर जैविक मानकों का पालन सुनिश्चित करना ।

जैविक खेती के लाभ

Ø जैविक खेती में सामान्यतः किसान के पास उपलब्ध संसाधनों का उपयोग होता है, जिससे किसान कृषि स्तर पर आत्म निर्भर बन सकते है.

Ø जैविक खेती से भूमि की गुणवत्ता में सुधार एवं भूमि-जल-वायु प्रदूषण पर अंकुश लगता है जिससे पर्यावरण संरक्षण में मदद मिल सकती है ।

Ø जैविक विधि से उगायी गई फसलों-सब्जियों का स्वाद एवं पौष्टिकता उत्तम होती है।

Ø जैविक विधि के तहत उगाई गए सभी कृषि उत्पादों यथा अन्न,सब्जी,फल आदि हानिकारक रसायनों से मुक्त होते है अर्थात स्वास्थ्य वर्धक होते है।

Ø जैविक उत्पादों का बाजार मूल्य अधिक होने से जैविक खेती लाभप्रद होती है।

इस प्रकार से हम कह सकते है कि जैविक पद्धति से उगाये गये भोज्य पदार्थों मसलन खाद्यान्न तेल,फल-फूल-सब्जी, दूध आदि की आवश्यकता आज किसान से लेकर आम उपभोक्ता महसूस कर रहे है। जैविक खेती और जैविक उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा  अनेक कृषि और किसान हितैषी योजनायें संचालित की जा रही है जिनमें आकर्षक अनुदान का भी प्रावधान है ताकि किसानों को प्रोत्साहन मिल सकें। अतः प्रकृति आधारित पर्यावरण हितेषी जैविक खेती कर किसान आत्म निर्भरता की ओर अग्रसर होकर देशवाशियों को जहर मुक्त खाद्यान्न, फल-फूल और सब्जियां उपलब्ध कर स्वस्थ और संपन्न राष्ट्र बनने की राह आसान कर सकते है।

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रासायनिक उर्वरकों के साथ जैव उर्वरक का प्रयोग लाभप्रद

                                                 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

  

भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। हरित क्रांति के समय से बढती हुई जनसँख्या को देखते हुए एवं आमदनी की दृष्टि से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है। हर्ष की बात है की 2.1 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष बढ़ने वाली आबादी के साथ कृषि उत्पादन का संतुलन बना हुआ है। कृषि उत्पादन वृद्धि में उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों, सिंचाई जल एवं पौध संरक्षण का उल्लेखनीय योगदान रहा है। रासायनिक उर्वरकों की बढती कीमतों  के कारण  खेती की लागत बढती जा रही है। फसलों के लिए जरुरी पोषक तत्वों में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश में से नत्रजन का सर्वाधिक उपयोग होता है। भूमि में डाले गये नत्रजन का  अधिकतम 30-40 प्रतिशत ही फसल उपयोग कर पाती हैं और शेष 60-70  प्रतिशत भाग या तो नष्ट हो जाता है या जमीन में ही अस्थायी बन्धक हो जाता हैं। अन्य पोषक तत्वों में फॉस्फोरस धारी उर्वरक तो पौधों को 15-20 प्रतिशत ही उपलब्ध हो पाते है, शेष भूमि में स्थिर हो जाता है । भारत जैसे विकासशील देश में नत्रजन एवं फॉस्फोरस की आपूर्ति केवल रासायनिक उर्वरकों से कर पाना छोटे और मध्यम श्रेणी के किसानों की क्षमता से परे है । वर्तमान परिस्थितियों में नत्रजन एवं फॉस्फोरस धारी उर्वरकों के साथ-साथ इनके वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने तथा मृदा की उर्वरा शक्ति को टिकाऊ  बनाये रखने के लिए भी आवश्यक है। ऐसी स्थिति में जैव उर्वरकों एवं रासायनिक उर्वरकों के एकीकृत उपयोग की करने की  आवश्यकता है।

विभिन्न जैव उर्वरक फोटो साभार गूगल

जैव उर्वरक जीवाणु खाद क्या है?

पौधों या फसलों की अच्छी वृद्धि के लिए मुख्यतः 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जिनमें नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश अति आवश्यक पोषक तत्व है। यह पौधों को तीन प्रकार यथा रासायनिक खाद, गोबर की खाद/ कम्पोस्ट तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण एवं फास्फोरस घुलनशील जीवाणुओं द्वारा उपलब्ध होते  है। प्राकृतिक रूप से भूमि में कुछ ऐसे जीवाणु विद्यमान होते है, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अमोनियम नाइट्रेट में एवं स्थिर फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देते है। जैव उर्वरक इन्हीं सूक्ष्म जीवों का उत्पाद है जो पौधों को नत्रजन एवं फास्फोरस आदि की उपलब्धता बढ़ाता है। जैव उर्वरक पौधों के लिए वृद्धि कारक पदार्थ भी देते हैं तथा पर्यावरण को स्वच्छ रखने में सहायक हैं। भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित किये बिना कृषि उत्पादन स्तर में स्थायित्व लाते हैं। इन्हें जैव कल्चर या जीवाणु खाद कहते हैं।

नाना प्रकार के जैव उर्वरक

जैव उर्वरक अनेक प्रकार के होते है. नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले दलहनी फसलों के लिए  राइजोबियम कल्चर, गैर-दलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जैव उर्वरकों में एजोटोबेक्टर, एजोस्पाइरिलम कल्चर,नील हरति शैवाल, (वीजीए) व अजोला  तथा फॉस्फेट घुलनशील जैव उर्वरकों में फास्फेटिका कल्चर,माइकोराइजा,ट्राइकोडर्मा आदि आते है जिनका विवरण अग्र प्रस्तुत है

1.राइजोबियम कल्चर

यह एक नमीं युक्त पदार्थ जैसे  चारकोल एवं जीवाणु का मिश्रण है, जिसके प्रत्येक एक ग्राम भाग में 10 करोड़ से अधिक राइजोबियम जीवाणु होते हैं। इस जैव उर्वरक का उपयोग केवल दलहनी फसलों में ही किया जाता है तथा यह फसल विशिष्ट होती है, अर्थात अलग-अलग फसल के लिए अलग-अलग प्रकार का राइजोबियम जैव उर्वरक यानि कल्चर का प्रयोग होता है। राइजोबियम जीवाणु कल्चर  से बीज उपचार करने पर ये जीवाणु बीज पर चिपक जाते हैं। राइजोबियम जीवाणु छोटी-छोटी हलकी गुलाबी रंग की जड़ ग्रंथियों में सहजीवी रूप में वास करते है और वायुमंडल की  नाइट्रोजन को आपसी जैविक क्रियाओं द्वारा अमोनिया में बदल देते है। इन जड़ ग्रंथियों में लैग हीमोग्लोबिन पदार्थ पाया जाता है। अधिक ग्रंथियां होने से फसल की पैदावार अधिक आती है ।

अलग-अलग फसलों के लिए राइजोबियम जीवाणु खाद के अलग-अलग पैकेट उपलब्ध होते हैं राइजोबियम कल्चर 200 ग्राम के पॉकेट में उपलब्ध होता है एक पॉकेट   राइजोबियम कल्चर से से 10 किग्रा बीज उपचारित कर सकते हैं। सबसे पहले एक बर्तन में  400-500  मि.ली. पानी में 50 ग्राम गुड़ मिलाकर तथा उसे उबाल लें। इस घोल के ठंडा होने पर राइजोबियम कल्चर का एक पॉकेट (200 ग्राम) मिलाकर अच्छी प्रकार से घोल बना लेवें  बीजों को साफ सतह पर एकत्रित कर उक्त जीवाणु कल्चर के घोल को बीजों पर धीरे-धीरे डालें, और  हल्के हाथ से तब तक लटते पलटते रहे  जब तक कि सभी बीजों पर जीवाणु कल्चर की समान परत न बन जाये। अब उपचारित बीजों को बिछाकर फैलाकर 10-15 मिनट तक  सुखाने के पश्चात तुरन्त बुवाई करें । राइजोबियम कल्चर के  प्रयोग से उपज में 15 से 40 प्रतिशत तक उपज में इजाफा होता है। इसके बीजोपचार से 10-35  किग्रा रासायनिक नत्रजन की बचत होती है। इसके प्रयोग से वृद्धि वर्धक(साइटोंकानिन) हार्मोन्स भी पोधो को उपलब्ध होते है। इसके प्रयोग से  भूमि की उर्वरा शक्ति बढती है।

2.एजोटोबैक्टर जैव उर्वरक

यह जैविक उर्वरक एज़ोटोबैक्टर कोकोकम से बनी है। यह जीवाणु मिट्टी में पाया जाता है जो नत्रजन परिवर्तन करता है तथा वृद्धि हार्मोन बनाता है । इससे  पौधों की जड़ों का समुचित  विकास होता है। यह कुछ कीटनाशक पदार्थ छोड़ता है जिससे जड़ों की रोगों से सुरक्षा होती है। यह पौधों की बढ़वार एवं उत्पादकता में 15-25 % तक वृद्धि करता है। इसके प्रयोग करने से 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन की बचत की जा सकती है। इसके प्रयोग करने से अंकुरण शीघ्र और स्वस्थ होता है तथा जड़ एवं तनों का विकास अधिक एवं शीघ्र होता है। यह जैव उर्वरक गेंहू,धान, कपास,सब्जियों और फलों के लिए उपयोगी रहता है।

3.एजोस्पाइरिलम जैव उर्वरक

यह जीवाणु खाद एजोस्पाइरिलम ब्रैजिलैंस या लिपोफेरम से बनी है. यह जीवाणु जड़ों के समीप पाया जाता है। इसके प्रयोग से 30-35 प्रतिशत  नत्रजन उर्वरक  की बचत की जा सकती है। यह पौधों के जमाव एवं बढ़वार में मदद कर उत्पादकता में 25 % तक की वृद्धि कर सकता है । यह जैव उर्वरक (कल्चर) धान और गन्ना फसल के लिए उपयोगी होता है।

4.एसीटोबैक्टर जैव उर्वरक 

यह खाद एसीटोबैक्टर डाइएजोट्राफिकस नामक जीवाणु से बनी है यह जीवाणु गन्ने के सभी भागों (जड़,तना व पत्ती) में पाया जाता है। इसका प्रयोग गन्ना फसल में किया जाता है यह गन्ने की लम्बाई एवं मोटाई को बढ़ाता है । सामान्यतौर पर इसके उपचार से गन्ना उपज में 5-20 टन प्रति हेक्टेयर और चीनी की मात्रा में 5-15 % की वृद्धि करता है।

4. फॉस्फोरस घुलनशील जैव खाद

यह जैव खाद बैसिलस, स्युडोमोनास एवं या एस्पर्जिलस आवामोरी नामक जीवाणु से बनी है । फास्फेटिक उर्वरकों का लगभग एक तिहाई भाग ही पौधे अपने उपयोग में ला पाते है। शेष अघुलनशील अवस्था में ही पड़ा रह जाता है जिसे पौधे स्वयं घुलनशील नहीं बना पातें। यह जीवाणु पौधों की जड़ों के पास रह कर अघुनशील फास्फोरस को घुलनशील कर पौधों को उपलब्ध करवाते है। इसका प्रयोग सभी फसलों में किया जा सकता है। यह पौधों की वृद्धि को बढ़ाते है तथा उत्पादकता को 15-20 % तक बढ़ा सकते हैं। इसके प्रयोग करने से 25-30 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपलब्ध फास्फेट की बचत की जा सकती है। जड़ों का विकास अधिक होता है, जिससे पौधा स्वस्थ बना रहता है।

5. नील हरित शैवाल

एक कोशिकीय सूक्ष्म नील हरित शैवाल (बी जी ए) नम मिट्टी तथा स्थिर पानी में स्वतन्त्र रूप से पाए जाते हैं। धान के खेत का वातावरण नील-हरित शैवाल के लिए के लिए सर्वथा उपयुक्त होता है। इसकी वृद्धि के लिए आवश्यक ताप, प्रकाश नमी और पोषक तत्वों की मात्रा धान के खेत में विद्यमान रहती है। धान की रोपाई के 3-4 दिन बाद स्थिर पानी में 12.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सूखे जैव उर्वरक का प्रयोग करें। इसके पश्चात् 4-5 दिन तक लगातार खेत में पानी भरा रहने दें। खेत में लगातार तीन वर्ष तक इसका प्रयोग करने के बाद इसे पुनः डालने की आवश्यकता नहीं होती है। यदि धान में किसी खरपतवारनाशी का प्रयोग कियाजाना है तो इसका प्रयोग खरपतवार नाशी के प्रयोग के 3-4 दिन बाद करें। नील हरित जैव उर्वरक के प्रयोग से 30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन प्राप्त होती है। इसके प्रयोग से धान के उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। इसके यह  वृद्धि नियंत्रक एवं विटामिन  भी श्रावित करता हैं जिससे पौधों में अच्छी वृद्धि के साथ-साथ दानों की गुणवत्ता भी बढ़ती है।

6. अजोला

यह  ठण्डे मौसम में स्थिर पानी के ऊपर तैरते हुए पाया जाता है जो दूर से देखने में हरे या लाल रंग की चटाईनुमा लगता है। इसकी पत्तियां बहुत छोटी तथा मोटी होती हैं। इन पत्तियों के नीचे छिद्रों में सहजीवी साइनो-वैक्टीरिया (एनावीना एजोली) पाया जाता है, जो नत्रजन स्थिरीकरण में सहायक है। यह जलमग्न धान के खेतों में बुवाई के एक सप्ताह बाद 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  की दर से उगाया जा सकता है जो दो किलोग्राम नत्रजन प्रति दिन की दर से स्थिर कर सकता है। इसका प्रयोग कम्पोस्ट बनाने में अथवा 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद के रूप में भूमि में मिलाकर किया जा सकता है। इसके प्रयोग से धान में खरपतवार कम पनपते हैं तथा नत्रजन के प्रयोग में 40-80 किलोग्राम तक बचत की जा सकती है।

7. माइकोराइजा

इसमें फफूंदी का पौधें की जड़ों से सहजीवन होता है, जिसमें फफूंदी अपनी जड़ों से पोषक तत्वों को अवशोषित करती है और पौधों को इन तत्वों को तुरन्त उपलब्ध कराती है इसके प्रयोग से फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम एवं सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है। इसके प्रयोग से वृद्धि वर्धक साइटोकाइनिन हार्मोन्स भी पौधों को उपलब्ध होता है।इसके प्रयोग से पौधों हेतु जल की उपलब्धता बढ़ता है।

जैव उर्वरकों की प्रयोग विधि

1. बीज उपचार विधि : जैव उर्वरकों के प्रयोग की यह सर्वोत्तम विधि है। बीज उपचार हेतु 500 मि.ली.  पानी में लगभग 50 ग्राम गुड़ या गोंद उबालकर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना लेते है। इस घोल को 10 किग्रा बीज पर छिड़क कर मिला देते हैं जिससे प्रत्येक बीज पर इसकी परत चढ़ जाये। तब जैव उर्वरक को छिड़क कर मिला दिया जाता है। इसके उपरान्त बीजों को छायादार जगह में सुखा लेते हैं। उपचारित बीजों की बुवाई सूखने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिए।

2. पौध जड़ उपचार विधि : धान तथा सब्जी वाली फसलें जिनके पौधों की रोपाई की जाती है जैसे टमाटरफूलगोभी, पत्तागोभीप्याज आदि फसलों में पौधों की जड़ों को जैव उर्वरकों द्वारा उपचारित किया जाता है। इसके लिए किसी चौड़े व छिछले पात्र में 5-7 लीटर पानी में एक किलोग्राम जैव उर्वरक मिला लेते है। इसके उपरान्त नर्सरी से पौधों को उखाड़कर तथा जड़ों से मिट्टी साफ करने के पश्चात् 50-100 पौधों को बण्डल में बांधकर जीवाणु खाद के घोल में 10 मिनट तक डुबो देते हैं। इसके बाद तुरन्त रोपार्इ कर देते है।

3. कन्द उपचार विधि : गन्नाआलूअदरकअरबी,हल्दी,जिमीकंद  आदि फसलों में जैव उर्वरकों के प्रयोग हेतु कन्दों/बीज टुकड़ों को उपचारित किया जाता है। एक किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25  लीटर पानी में घोलकर  बना लेते हैं। इसके उपरान्त कन्दों/बीज टुकड़ों  को 10 मिनट तक घोल में डुबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देते है।

4.मृदा उपचार विधि : जैव उर्वरक  8-10 किलोग्राम  को 80-100 किग्रा मिट्टी या कम्पोस्ट में मिलाका र मिश्रण तैयार करके अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देते है।

जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियॉ

Ø जीवाणु खाद को धूप व गर्मी से दूर सूखे एवं ठण्डे स्थान पर रखें।

Ø जीवाणु खाद या इससे उपचारित बीजों को किसी भी रसायन या रासायनिक उर्वरकों  के साथ न मिलायें।

Ø राइजोबियम जीवाणु कल्फचर सल विशिष्ट होता है। अतः पैकेट पर अंकित फसल में ही इसका प्रयोग करें।

Ø यदि बीजों पर फफूंदनाशी बेविस्टीन का प्रयोग करना हो तो बीजों को पहले फफूंद नाशी से उपचारित करें तथा फिर जीवाणु खाद की दुगुनी मात्रा से उपचारित करें।

Ø जैव उर्वरकों को पैकेट पर लिखी अन्तिम तिथि से पहले ही इस्तेमाल कर लेना चाहिए

Ø जैव उर्वरक और रासायनिक खादों को उचित मात्रा एवं तरीके से उपयोग करना चाहिए।

संक्षेप में हम कह सकते है कि जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों का विकल्प तो नहीं बन सकते है परन्तु जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों के साथ यदि इनका इस्तेमाल समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन के तहत एक पूरक के रूप में किया जाता है तो मृदा की उर्वरता बढ़ने के साथ-साथ खेती में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को कम कर खेती के लाभ को बढाया जा सकता है 

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे।