डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान),
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं
अनुसंधान केंद्र,
कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
मधुमेह रोग के
उपचार में केयोकंद के पौधे का इस्तेमाल कारगर सिद्ध होने के कारण लोग इसे इंसुलिन के पौधे के नाम से जानते हैं। केयोकंद
को जारूल, केऊ, संस्कृत में सुबन्धु, पदमपत्रमूलम व केमुआ तथा अंग्रेजी में स्पाइरल फ्लैग के नाम
से जाना जाता है। वनस्पति शास्त्र में इसे कॉस्टस स्पेसियोसस व कॉसटस इग्नेउस के नाम से जाना जाता है।
यह पौधा भारत के असम, मेघालय, बिहार, उत्तरांचल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के
जंगलों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। इसकी दो उप प्रजातियाँ -कास्ट्स
स्पेसिओसस नेपालेसिस व कास्ट्स स्पेसिओसस आरजीरोफाइलस जो सम्पूर्ण भारत में पायी
जाती है।
इन्सुलिन प्लांट अर्थात कियोकंद, कॉस्टेसी या जिन्जिबरेसी (अदरक) कुल का एक बहुवर्षीय पौधा है। यह सीधा बढ़ने वाला 1.2 से 2.7 मीटर ऊंचा पौधा होता है। इसके मूलकांड कंदीय, पनीला (फीका) होता है। कियोकंद की पत्तियां 15-35 से.मी. लम्बी तथा 5-7 से.मी. चौड़ी आयताकार व नुकीली होती है जो तने में पेचदार या सर्पिल रूप से व्यवस्थित होती है। पत्तियों की ऊपरी सतह चिकनी तथा निचली सतह रोमिल होती है। इसमें जुलाई-अगस्त में सुन्दर और आकर्षक सफेद रंग के फूल आते है, जो एक घनी स्पाइक में लगते है। फूल के सहपत्र 2-3 से.मी. लम्बे हल्के नोकदार चमकीले लाल रंग के होते है। इसके फल (केप्सूल) गोल लाल रंग तथा बीज काले सफेद बीज चोल बाले होते है। इसे शोभाकारी पौधे के रूप में गार्डन या गमलों में भी उगाया जाता है। शर्दियों के दौरान इसके पेड़ मुरझा जाते है। इसकी पत्तियां स्वाद में हल्की खट्टी, खारी एवं लसलसी होती है।
औषधीय तत्व, गुण एवं विशेषताएं
कियोकंद के राइजोम में स्टार्च अधिक मात्रा में पाया जाता है। इनका उपयोग खाध्य पदार्थ बनाने एवं औषधीय तैयार करने में किया जाता है। कंद का स्वाद कषाय या हल्का कडुवा होता है। आदिवासी और वनवासी इसके प्रकंदों को कच्चा या पकाकर सब्जी के रूप में खाते है। इनमें 44.51 % कार्बोहाइड्रेट, 31.65 % स्टार्च, 14.44 % एमाइलोस, 19.2 % प्रोटीन, 3.25 % वसा के साथ-साथ विटामिन-ए, बीटा केरोटीन, विटामिन-सी, विटामिन-ई आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इनके से सेवन कुपोषण एवं आखों की समस्या से निजात मिलती है। कियोकंद की पत्तियां, तना और प्रकंद का उपयोग मधुमेह, सर्दी-खाशी, नजला-जुकाम से उत्पन्न बुखार के उपचार हेतु किया जाता है। यह ह्रदय के लिए लाभकारी तथा शीतल प्रभाव वाला माना जाता है। केवकंद को ताकत और ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके कंद का चूर्ण को शक्कर के साथ सेवन करने से लू और गर्मी से राहत मिलती है।
कियोकंद के राइजोम एवं तने में डायोस्जेनिन और टिशोजेनिन नामक रसायन पाए जाते है। इसके कंद, तना और पत्तियों में क्रमशः 396, 83 व 70 % डायोस्जेनिन पाया जाता है। डायोस्जेनिन द्रव्य का उपयोग स्टीयराइड हार्मोन तैयार करने में किया जाता है। जलवायु, क्षेत्र, कंद लगाने के समय एवं विधि के अनुसार डायोस्जेनिन की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है। उदहारण के लिए मध्यभारत में डायोस्जेनिन की मात्रा 2.5 %, गंगा के कछार में 1.7 %, दक्षिणी भागों में 0.8 %, पश्चिमी भारत में 1-1.5 % पायी जाती है, जबकि उत्तरी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में यह 3.1 % तक पायी जाती है।
मधुमेह रोग के लिए रामबाण औषधि है
इन्सुलिन प्लांट फोटो साभार गूगल |
अनेक आयुर्वेदिक कम्पनी इसकी पत्ती,तना और प्रकन्द का जूस और पाउडर बनाकर मधुमेह की कारगर औषधि के रूप में बाजार में बेच रही है।
प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाए जाने वाले बहुपयोगी कियो के पौधों के अति दोहन से इनके पौधों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। इसलिए वन विभाग एवं अन्य संएवं गठनों ने इस पौधे को संकटाग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखते हुए इसके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु परामर्श दिए है। औषधिय क्षेत्र में उपयोग के कारण बाजार में इसकी मांग अधिक होने के चलते कियोकंद की खेती आर्थिक रूप से लाभकारी सिद्ध हो रही है। शहरी क्षेत्रों में इसे शोभाकारी और औषधीय पौधे के रूप में गमलों में भी लगाकर इस्तेमाल में लिया जा सकता है। किसान अपने खेत में इसका उत्पादन कर उपज के रूप में इसकी पत्तियां एवं प्रकंदों को बेचकर अच्चा खाशा मुनाफा अर्जित कर सकते है।
इन्सुलिन प्लांट (कियोकंद) की खेती ऐसे करें
उपयुक्त जलवायु एवं भूमि
इन्सुलिन या कियोकंद के पौधों की वानस्पतिक बढ़वार एवं कंद विकास के लिए उष्ण से समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है। इसकी पौधे नमीं युक्त आर्द्र जलवायु में अच्छे पनपते है। पौध वृद्धि एवं विकास के लिए औसत तापक्रम 200 से 400 सेग्रे.उचित पाया गया है। शर्दियों में 40 सेग्रे से कम तापक्रम हानिकारक होता है। इसकी खेती 1200 से 1400 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। कियोकंद को धूपदार जमीनों के अलावा पेड़ों की छाया में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
सफल खेती के लिए बलुई दोमट से चिकनी दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 6 से 7.5 तक हो, उपयुक्त रहती है। गहरी और उपजाऊ भूमियों में केयोकंद का उत्पादन अधिक होता है। वर्षा प्रारंभ होने से पहले खेत की गहरी जुताई करके 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा से खेत समतल कर लेना चाहिए । खेत में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था करना आवश्यक है।
रोपाई का समय
कियोंकंद की बुवाई मानसून आगमन के पश्चात जून-जुलाई में
की जाती है। सिंचाई की सुविधा होने पर अप्रैल-मई में कंदों
को लगाने से लगभग 80 प्रतिशत कंद अंकुरित हो जाते है और उपज भी अधिक प्राप्त होती
है। जून-जुलाई में रोपाई करने से
उपज कम आती है। इसकी रोपण हेतु लगभग 18-20
क्विंटल स्वस्थ कंदों की आवश्यकता होती है।
बुवाई की विधियां
कियोकंद के प्रकन्द (राइजोम) फोटो साभार गूगल |
कंद से बुवाई हेतु इसके कंदों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है
जिनमें कम से कम दो कलियां हो और प्रत्येक का वजन 30-40 ग्राम हो। इन टुकड़ों को खेत में लगभग 10 सेमी. की गहराई पर रोपा जाना
चाहिए। ध्यान रखें कंद लगाते समय
इनकी कलियाँ भूमि में ऊपर की तरफ रहें।
तना कलम से लगाने के लिए तने को टुकड़ों में जिनमें 2 गांठे (कली) हो, काट
लिए जाता है। इन टुकड़ों को दिसंबर से
अप्रैल तक नम रेत (बालू) में रखा जाता है। अंकुरण होने पर इन्हें
नर्सरी या पोलीथिन बैग में लगाया जाता है। इससे प्राप्त कंदों का वजन कम होता है।
कियोकंद की पौध या कंदों को हमेशा कतारों में लगाना चाहिए। कतार से कतार और पौध से पौध 40-50 से.मी. की दूरी रखना चाहिए। इस प्रकार एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 40-45 हजार पौधे स्थापित होने से भरपूर उत्पादन प्राप्त होता है। वर्षा न होने पर कंद या पौध लगाने के उपरान्त खेत में हल्की सिंचाई अवश्य करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
कियोकंद के बेहतर उत्पादन के लिए खेत में खाद एवं उर्वरक
देना आवश्यक है। इसके लिए खेत की अंतिम जुताई
के समय 10-12 टन गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट को मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसके अलावा 60 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस तथा 40
किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण
मात्रा बुवाई/रोपाई के समय देना चाहिए। नत्रजन की शेष आधी मात्रा
बुवाई/रोपाई के 40-50 दिन बाद (पौधों पर मिट्टी चढाते समय) कतारों में देना चाहिए। कियोक्न्द की जैविक खेती करने के लिए रासायनिक उर्वरकों का
इस्तेमाल नहीं करना है। गोबर की खाद की मात्रा बढाकर अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती
है।
सिंचाई एवं जल निकास
कियोकंद की बुवाई या रोपाई के बाद खेत में नमीं बनाये
रखने के लिए हल्की सिंचाई करना आवश्यक है। वर्षा ऋतु में सिंचाई की
आवश्यकता नहीं होती है परन्तु सूखे या अवर्षा की स्थिति में सिंचाई करें। वर्षा ऋतु समाप्त होने पर 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते
रहे। अधिक वर्षा होने पर खेत से
जलनिकास की व्यवस्था करना चाहिए।
निंदाई गुड़ाई
वर्षा ऋतु में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। अतः आवश्यकतानुसार एक-दो निंदाई गुड़ाई कर पौधों पर पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना
चाहिए।
खुदाई एवं प्रसंस्करण
सामान्यतौर पर कियोकंद की फसल 170 से 180 दिनों में तैयार हो जाती है। जून में लगाई गई फसल नवम्बर के अंतिम सप्ताह में खोदने के लिए तैयार हो जाती है। फसल पकने के पूर्व इसके पत्तों को तने सहित काट लेना चाहिए। पत्तों को साफकर हवा में सुखाकर जूट को बोरों में भरकर नमीं रहित स्थान पर भंडारित करें अथवा इनका पाउडर बनाकर बेचा जा सकता है। सामान्यतौर पर इसके कंद फरवरी-मार्च में खुदाई के लिए तैयार हो जाते है। कंदों की खुदाई करने के पूर्व खेत में हल्की सिंचाई करने से कंदों की खुदाई आसानी से हो जाती है। खुदाई के उपरान्त प्राप्त कंदों को पानी में अच्छी प्रकार धोकर सुखाया जाता है। सूखे हुए कंदों को बोरियों में नमीं रहित स्थान पर भंडारित करना चाहिए। बीज के लिए ताजा कंदों (गीली अवस्था में) को छायादार स्थान में रेत बिछाकर रखा जाता है।
उपज एवं आमदनी
नोट: 1. कृपया ध्यान रखिये लेखक द्वारा इन्सुलिन पौधे के उपयोग एवं खेती की तकनीकी जानकारी दी गई है. किसी भी रोग की दवा के रूप में हम इस पौधे के सेवन की सलाह नहीं दे रहे है। किसी योग्य चिकित्सक या आयुर्वेदाचार्य के पारमर्ष के उपरान्त ही इस पौधे या उत्पादों के सेवन की सलाह दी जाती है।
2. इन्सुलिन पौधे की खेती की लागत एवं लाभ के आंकड़े जलवायु, सस्य प्रबंधन तथा बाजार की स्थिति के अनुसार परिवर्तनीय रहते है। लेखक ने इसकी खेती एक मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत की है।
कृपया ध्यान देवें: इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के आलेख को अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर प्रकाशित न करें। यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें।
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