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बुधवार, 9 जनवरी 2013

कृषि विज्ञानं में रोजगार और व्यवसाय की व्यापक सम्भानाये


कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की केंद्रबिंदु व भारतीय जीवन की धुरी है । आर्थिक जीवन का आधार, रोजगार  का प्रमुख साधन  तथा विदेशी मुद्रा अर्जन का माध्यम होने  के कारण कृषि को  देश की आधारशिला कहा जाए तो  कोई  अतिशयोक्ति  नहीं ह¨गी । देश की कुल श्रमशक्ति का लगभग 52 प्रतिशत भाग कृषि एवं कृषि संबंधित व्यवस्था  पर  निर्भर  है । अतः यह कहना समीचीन होगा  कि कृषि के विकास, समृद्धि व उत्पादकता पर ही देश का विकास व संपन्नता निर्भर है । स्वन्त्रता  के पश्चात कृषि को  देश की आत्मा के रूप में स्वीकारते हुए एवं खेती को सर्वोच्च  प्राथमिकता प्रदान करते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री  पंडित  जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट किया था कि-सब कुछ इंतजार कर सकता है मगर खेती  नहीं । स्वतन्त्रता  के बाद भारतीय कृषि ने विकास के  नित  नए  कीर्तिमान स्थापित किये है और  हम खाद्यान्न उत्पादन के मामले  में आत्म  निर्भर  हुए । विश्वव्यपारीकरण, जलवायु परिवर्तन और  जनसंख्या के बढ़ते दबाव के कारण भारतीय कृषि और  किसानो  के सामने अनेक समस्याएं उत्पन्न  हो  रही  है। देश की लगभग 78 प्रतिशत कृषि जोतें 2 हैक्टयर से कम है। अभी भी कृषिगत भूमि का दो तिहाई भाग ‘मानसून का जुआ’ है, केवल एक तिहाई भाग ही सिंचित है। ऐसी स्थिति में सूखा, बाढ़ व ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का कहर किसानों पर होता है । भंडारण एवं विपणन की अपर्याप्त एवं दोषपूर्ण व्यवस्था के कारण भी अधिकांश लघु किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, जिसके कारण किसान के लिए परिवार का पेट पालना दुष्कर होता जा रहा है। इसी  प्रकार कृषिगत आगतों की बढ़ती कीमतें, गिरते भू-जल स्तर एवं भूमि की घटती उर्वरता के कारण कृषि ‘घाटे का सौदा’ बन गई है। इसी कारण से खेती से किसानों का मोह भंग हो रहा है, खेती के प्रति ग्रामीण युवाओ  की उदासीनता बढ़ती जा रही है, जो कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत है।  अनेक सर्वेक्षण बताते है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़कर अन्य वैकल्पिक रोजगार पाना चाहते हैं। हमारे देश में कृषि की उत्पादकता अन्य देशों की अपेक्षा काफी कम है। उदाहरण के तौर पर देश में चावल की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता जापान की अपेक्षा एक तिहाई है, जबकि गेहूँ की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता फ्रांस की तुलना में एक तिहाई है। इसी प्रकार हमारे देश में कृषि क्षेत्र में प्रति श्रमिक उत्पादकता अमेरिका की तुलना में 23 प्रतिशत तथा पश्चिमी जर्मनी की तुलना में मात्र 33 प्रतिशत ही है। यही कारण है कि सकल आय में कृषि का अंश उत्तरोत्तर कम होता जा रहा है। 1950-51 में कृषि का अंश 55.4 प्रतिशत था, जो कि 2009-10 में घटकर लगभग 14.6 प्रतिशत रह गया है।
कृषि में उत्पादकता वृद्धि बहुत हद तक पूंजी निवेश पर निर्भर करती है, सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों से। कुल पूंजी निवेश के अनुपात के रूप में कृषि में सकल पूंजी निवेश में निरंतर गिरावट आई है। अभी हाल ही में इस प्रदेश के लोक प्रिय मुख्यमंत्री  मुझ से कह रहे थ्¨ कि सफल उद्यमी अपने उद्यम में भारी  निवेश करता है जिसका उसे भरपूर फायदा मिलता है परन्तु किसान तो  अपने एक मात्र् व्यवस्याय खेती  किसानी में उचित निवेश करने में आज भी संकोच  करता है, इसलिए उसे खेती  से यथो चित लाभ नहीं होता है । किसान कहता है कि जब पूंजी निवेश ही करना है तो  हम शहर में जाकर कुछ धन्धा नहीं कर लेंगे  । वास्तव में कृषि क्ष्¨त्र् में यथा सही किस्म के बीज, खाद-उर्वरक, यंत्र्, सिंचाई, पौध  संरक्षण में पर्याप्त पूंजी निवेश करने पर कृषि घाटे का सौदा  हो  ही नहीं सकती है । जब तक कृषि को  हम एक व्यवसाय के रूप में नहीं अपनाएंगे तब तक  यह मात्र् जीवन निर्वाह का साधन बन कर रह जाएगी । मेरा स्पष्ट मानना है कि कृषि क्ष्¨त्र् में आवश्यकतानुसार पूंजी निवेश करते हुए वैज्ञानिक ढंग से ख्¨ती किसानी की जाए त¨ अल्प अवधि में ही 1 रूपया खरचने के एवज में चार रूपये की आमदनी आसानी से प्राप्त की जा सकती है । किसी भी  उद्यम में आय अर्जन के इतने सुनहरे अवसर नही है । ग्रामीण क्ष्¨त्र्¨ में खेती  किसानी के अलावा कृषि आधारित तमाम उद्यम प्रारंभ किये जा सकते है । इसके लिए भारत सरकार तथा छत्तीसगढ़ शासन द्वारा बहुत सी महत्वाकांश्री य¨जनाए संचालित है । ग्रामीण युवाओ  को रोजगार प्रदान करने के लिए उद्यमिता प्रशिक्षण भी दिये जा रहे है तथा उद्यम स्थापित करने के लिए बैंको  से आसानी में कम ब्याज दर पर ऋण सुविधा भी उपलब्ध है । कृषि विज्ञानं  में रोजगार एवं उद्यमिता की व्यापक संभावनाएं है जैसे-
1. बागवानी और संबद्ध क्षेत्र
बागवानी में रोजगार के अपार अवसर विशेषकर बेरोजगार युवाओं और महिलाओं के लिए सृजन की क्षमता है। बहुत सी वस्तुओं के उत्पादन में भारत नेतृत्व करते आ रहा है जैसे आम, केला,  नींबू, नारियल, काजू, अदरक, हल्दी और काली मिर्च। वर्तमान में यह विश्व में फल और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।भारत का सब्जी उत्पादन चीन के बाद दूसरे स्थान पर है और फूलगोभी, के उत्पादन में पहला स्थान है प्याज में दूसरा और बंदगोभी में तीसरा स्थान है।  इसके अतिरिक्त यह मसालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता, उत्पादक और निर्यातक है।  छत्तीसगढ़ में सब्जियो  व मसाले  दार फसलो  जैसे आलू, कांदा, भिण्डी, टमाटर, बैगन, मिर्ची, हल्दी, धनियां अदरक, लहसुन, मैथी आदि की ख्¨ती की अपार संभावनाए है। इनकी ख्¨ती आर्थिक रूप से लाभदायक भी है । टमाटर, आलू तथा मसाल्¨दार फसलो  के प्रसंस्करण एवं विपणन के क्ष्¨त्र्ा में उद्यम स्थापित किये जा सकते है ।  छत्तीसगढ़ में उगाए जाने वाले प्रमुख फल आम, केला,  अमरुद, बेर, पपीता, शरीफा आदि हैं।  हमारे किसान घर की बाड़ी में इन्हे परंपरागत रूप से लगाते भी है । योजनाबद्ध तरीके से इनकी ख्¨ती से अतिर्क्ति आय अर्जित की जा सकती है ।  सहजन की ख्¨ती भी लाभदायक है । फल, फूल एवं सब्जी की ख्¨ती क¨ बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार देश में हार्टीकल्चर मिशन चला रही है । इसके तहत किसानो को ¨ आर्थिक मदद दी जा रही है ।
2. पुष्प कृषि
वाणिज्यिक पुष्प कृषि हाल में ही शुरू हुई है, यद्यपि पुष्पों की पारंपरिक खेती सदियों से हो रही है। अब पारंपरिक फूलों की अपेक्षा, निर्यात की उद्देश्य से, कटे फूलों पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है।  भारत में सदियों से फूल कृषि की जा रही है किन्तु  वर्तमान में फूल कृषि एक व्यवसाय  के रूप में की जाने लगी है । समकालिक कटे फूलों जैसे गुलाब, ग्लेडियोलस, टयूबरोस, कार्नेशन इत्यादि का वर्धित उत्पादन पुष्प गुच्छ तथा साथ ही घर तथा कार्यस्थल के अलंकरण हेतु इनकी मांग में निरंतर वृद्धि ह¨ रही है। चीन के पश्चात भारत फूलों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। गांव¨ं में र¨जगार सृजन के लिए पुषपीय प©ध¨ं की ख्¨ती  एर महत्वपूर्ण उद्यम बन सकता है ।
3. औषधीय एवं सुगंधित पादप ख्¨ती एवं प्रसंस्करण
भारत को मूल्यवान औषधीय और सुरभित पादप जातियों का भंडार माना जाता हैं। भारत में 15 कृषि-जलवायवी क्षेत्र हैं, 47000 भिन्न-भिन्न पादप जातियां हैं और 15000 औषधीय पौधे हैं। लगभग 2000 देशज पादप जातियों में रोगनाशक गुण हैं और 1300 जातियों अपनी सुगंध तथा सुवास के लिए प्रसिद्ध हैं। चिकित्सा की भारतीय प्रणालियों, अर्थात. आयुर्वेद, यूनानी तथा सिद्ध औषधियों की देश में बहुत मांग हैं। बहुमूल्य दवाइयां बनाने में प्रयुक्त 80 प्रतिशत कच्ची सामग्री  अ©षधीय प©ध¨ं से प्राप्त ह¨ती  हैं। हमारे प्रदेश में उगाये जाने वाल्¨ अ©षधिय प©ध¨ं में आमला, चिराता, कालमेघ, सफेद मूसली, दारूहल्दी, सर्पगंधा, अश्वगंधा, गिलोय, सेन्ना, अतीस, गुडमार कुटकी, शतावरी, बेल गुग्गल, तुलसी, ईसबगोल, मुलेठी, वैविडंग, ब्राह्मी, जटामांसी, पथरचूर कोलियस, कलीहारी, आदि है जिनके कृषिकरण, प्रसंसकरण एवं विपणन में ग्रामीण युवाअ¨ं के लिए र¨जगार के पर्याप्त अवसर विद्यमान है । सगंध फसल¨ं में पामार¨शा, नींबू घास, सिट्र¨नेला, मेंथा आदि का उद्य¨ग जगत में भारी मांग है ।
4. पशु पालन और डेयरी
पशु पालन और डेयरी विकास क्षेत्र भारत के सामाजिक आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। पशुपालन सदैव से ही मानव संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है । सुरक्षा के लिए, श©क के लिए, परिवहन के लिए, आजीविका के लिए तथा अपनी पोषण जरूरतो की पूर्ति सहित अनेक अन्य कार्यो  के लिए हम अपने इन वफादार सहचरो  पर आज भी आश्रित है । विश्व के अनेक देशो  की भांति हमारे यहां भी गोवंशीय पशु पालन, बकरी पालन, भेड़ पालन, कुक्कुट पालन, अश्व पालन, ऊंट पालन, बतख पालन, खरग¨श पालन आदि छ¨टी-बड़ी आय अर्जक गतिविधियो  के रूप में प्रचलित है । आपक¨ यह जानकर प्रशन्नता ह¨गी कि विश्व में उपलब्ध कुल पशु संख्या का 1 बटे 6 एवं एवं कुल भैसो  की संख्या का आधा भाग भारत में ही है । दुग्ध उत्पादन के क्ष्¨त्र्ा में भारत का य¨गदान निर्विवादित रूप से सर्वश्रेष्ठ है । हमारे देश में सालाना 820 लाख टन से भी अधिक दुग्ध उत्पादित हो ता है जो  विश्व स्तर पर मात्रा  की दृष्टि से सर्वाधिक है । इसके अलावा सहकारी, निजी एवं सार्वजनिक निगमों  में 275 से अधिक संयन्त्रो , लगभग 83 दुग्ध उत्पाद कारखानो  एवं असंख्य लघु स्तर के दुग्ध उत्पादको  के योग गदान से हमारे देश का दुग्ध उद्योग  विश्व पटल पर तेजी से उदीयमान हो  रहा है । हमारे प्रदेश में पशुपालन की असीम संभावनाएं है ।यद्यप  किसानो  द्वारा पाली जा रही गाय व भैस की नश्लो  की उत्पादन क्षमता बहुत कम है । नस्ल सुधार तथा उत्तम नस्ल की गाय-भैस पालने से ग्रामीण अंचल की अर्थव्यवस्था को  काफी हद तक सुधारने की संभावना है । दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसके लिए विक्रय एवं बाजार की स्थितियां काफी अनुकूल है । इस  उद्योग  को  बढ़ावा देने से ग्रामीण नोजवानो  एवं महिलाओ  को  वर्ष भर रो जगार प्राप्त हो गा साथ ही पशुओ  से प्राप्त गोबर बहुमूल्य जैविक खाद के रूप में प्रयोग करने से हमारे खेतो  की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी जिससे  फसल उत्पादन में भी सतत बढोत्तरी होगी ।  पशुपालन में दाना-खली का महत्वपूर्ण योगदान रहता  है । इनके निर्माण की इकाइयाँ स्थापित की जा सकती है । लाखों लोगों के लिए सस्ता पोषक आहार उपलब्ध कराने के अतिरिक्त, यह ग्रामीण क्षेत्र में लाभकारी रोजगार पैदा करने में मदद करता है, विशेष रूप से भूमिहीन मजदूरों, छोटे तथा सीमांत किसानों तथा महिलाओं के लिए और इस प्रकार उनके परिवार की आय बढ़ाता है। सूखा, अकाल तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं जैसी प्रकृतिकी विभीषिकाओं के प्रति पशुधन सर्वोत्तम बीमा हैं। भारत के पास पशुधन तथा कुक्कुट के विशाल संसाधन हैं जो ग्रामीण लोगों की सामाजिक आर्थिक दशाएं सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संसार में भैंसों के संदर्भ में भारत का पहला स्थान है, पशुओं तथा बकरियों में दूसरा, भेड़ों में तीसरा, बत्तखों में चैथा, मुर्गियों में पांचवां और ऊंटों की संख्या में छटा। पशुपालन क्षेत्र स्व-रोजगार के भरपूर अवसर उपलब्ध कराता हैं।
पशुधन क्षेत्र न केवल दूध, अंडों, मांस आदि के रूप में आवश्यक प्रोटीन तथा पोषक मानव आहार उपलब्ध कराता है बल्कि अखाद्य कृषि उपोत्पादों के उपयोग में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। पशुधन कच्ची सामग्री के उपोत्पाद उपलब्ध कराता है यथा खाल तथा चमड़ा, रक्त, अस्थि, वसा आदि।
5. मत्स्य पालन
भारत संसार में मत्स्य का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और स्वच्छ जल के मत्स्य का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक।  अपनी लंबी तट रेखा, विशाल जलाशयों आदि के कारण भारत के पास अंतर्देशीय तथा समुद्री दोनों संसाधनों से मत्स्य के लिए व्यापक संभावनाएं हैं। यह संसार में मत्स्य का चैथा सबसे बड़ा उत्पादक है। यह अंतर्देशीय मत्स्य का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भी है।  छत्तीसगढ़ राज्य के पास मत्स्य कृषि के लिए नदी, जलाशयों, पोखरों तथा तालाबों के रूप में व्यापक और विविध प्राकृतिक जल क्षेत्र उपलब्ध है। मत्स्य कृषि के लिए लगभग 1.58 लाख हेक्टर औसत जल क्षेत्र उपलब्ध है। राज्य में दो प्रमुख नदी तंत्र हैं, अर्थात् महानदी तथा गोदावरी और उनकी सहायक नदियां जो 3573 कि.मी. का नेटवर्क बनाती हैं। लगभग 90 प्रतिशत जल क्षेत्र मत्स्य कृषि के अंतर्गत लाया जा चुका है। मत्स्य क्षेत्र को एक शाक्तिशाली आय एवं रोजगार जनक माना जाता है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और सस्ते तथा पोषक आहार का स्रोत हैं। राज्य में 1.50 लाख से अधिक मछुआरे अपनी आजीविका के लिए मात्स्यिकी और जलकृषि पर निर्भर करते हैं। राज्य के सामाजिक-आर्थिक विकास में मत्स्य क्षेत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। यह मूलतः मछुआरों के सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से कमजोर और पिछड़े समुदायों की जरूरत पूरी करता हैं।
6. खाद्य प्रसंस्करण उद्ययोग 
खाद्य प्रसंस्करण का  एक विशाल छेत्र  है जिसमें कृषि उत्पादो , बागवानी उत्पादो , वानिकी उत्पादो , डेयरी, पो ल्ट्री, मछली आदि जैसे अनेक प्रकार के कच्चे माल का उपयोग  किया जा सकता है । इसे विडंम्बना ही कहा जा सकता है कि वर्तमान में हमारे देश में उत्पादित ह¨ने वाल्¨ फसल¨ं एवं सब्जिय¨ं का मात्र्ा 2 प्रतिशत ही प्रक्रियाकृत ह¨ता है जबकि थाइल्©ंड में यह 30 प्रतिशत, ब्राजील में 70 प्रतिशत, फिलीपीन्स में 78 प्रतिशत तथा मल्¨शिया में 80 प्रतिशत है । इसी प्रकार खाद्य प्रसंस्करण के क्ष्¨त्र्ा में हमारे यहां मूल्य संवर्धन की मात्र्ाा मात्र्ा 7 प्रतिशत है । इस समस्या से निबटने के लिए भारत सरकार द्वारा उल्ल्¨खनीय प्रयास किये है । भारत में 4.5 कर¨ड़ टन फल अ©र 6.8 कर¨ड़ टन सब्जियां पैदा ह¨ती है । पर्याप्त मूल्य संवर्धन न ह¨ने अ©र परिरक्षण सुविधाअ¨ं के अभाव में 32-40 प्रतिशत फल अ©र सब्जियां बाजार में पहुंचाने से पहल्¨ ही सड़-गल कर खराब ह¨ जाती है । ग्रामीण महिलाअ¨ं क¨ प्रशिक्षित कर अचार, मुरब्बा, चटनी, जैम, जैली, शरबत आदि विभिन्न उत्पाद¨ं के निर्माण एवं विपड़न से ज¨ड़कर उन्हे स्वर¨जगार प्रदान किया जा सकता है । यदि हम इस क्ष्¨त्र्ा क¨ विकसित कर ल्¨ं त¨ निश्चित ही 47 लाख ल¨ग¨ं क¨ प्रत्यक्ष तथा 3 कर¨ड़ ल¨ग¨ं क¨ अप्रत्यक्ष र¨जगार प्राप्त ह¨ सकता है । खाद्य प्रसंस्करण के क्ष्¨त्र्ा में मूल्य संवर्धन की भी व्यापक संभावनाएं है तथा अपनी पृष्ठभूमि, क्षमता तथा अन्य साधन¨ं क¨ देखते हुए ग्रामीण युवा इस क्ष्¨त्र्ा में किसी भी स्तर से अपनी जीविका प्रारंभ कर सकते है । यह एक ऐसा क्ष्¨त्र्ा है जिसमें असंख्य कार्य किये जा सकते है ज¨ बिना किसी विश्¨ष निवेश के घर में ही आरंभ किए जा सकते है । व्यक्तिगत या स्वंय सहायता समूह बनाकर विभिन्न उत्पाद यथा, मसाला-धनिया, हल्दी, मिर्च, पापड़., बड़ी, अचार, मुरब्बा आदि बनाकर इनकी म¨र्केटिंग कर अच्छा खाशा मुनाफा अर्जित कर सकते है ।
7. रेशम एवं मधुमक्खी पालन
रेशम, जो अद्वितीय शान वाला एक प्राकृतिक रूप से उत्पादित रेशा है । छत्तीसगढ़ में टस्सर रेशम व सहतूत रेशम का उत्पादन करने की अच्छी संभावनाएं है। टस्सर रेशम का प्रयोग मुख्यतः फर्निशिंग्स तथा इंटीरियर के लिए किया जाता है। यह लगभग 6 मिलियन लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है जिनमें से अधिकांश लघु तथा सीमांत  किसान अथवा अति लघु तथा घरेलू उद्योग हैं जो मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। रेशम उद्योग  में निम्न  निवेश से अधिक आमदनी प्राप्त ह¨ती है । पूरे वर्ष परिवार के सभी सदस्यो  को  रो जगार प्राप्त होता है। वस्तुतः यह महिलाओं का व्यवसाय है तथा महिलाओं के लिए है क्योंकि महिलाएं कार्यबल के 60 प्रतिशत से अधिक का निर्माण करती है। तथा 80 प्रतिशत रेशम की खपत महिलाएं करती हैं। रेशम-उद्योग में शामिल कार्य जैसे पत्तों की कटाई, सिल्कवॉर्म का पालन, रेशम के धागे की स्पिनिंग अथवा रीलिंग तथा बुनाई का कार्य महिलाएं करती है। यह एक उच्च आय सृजन उद्योग है जिसे देश के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता है ।
हमारे प्रदेश में मधुमक्खी पालन की भी अपार संभावनाएं है । प्राकृतिक रूप से भी हमारे वन¨ं में भी मधुमक्खियो  द्वारा उत्पादित शहद का संकलन एवं प्रसंस्करण किया जाता है ।

8. कृषि चिकित्सालय एवं कृषि व्यवसाय केन्द्र योजना 
बेर¨जगार कृषि स्नातक¨ं क¨ कृषि क्ष्¨त्र्ा में उद्यम प्रारंभ करने के लिए भारत सरकार की यह महत्वाकांक्षी य¨जना है । कृषि क्लीनिक - कृषि क्लीनिक की परिकल्पना किसानों को खेती, फसलों के प्रकार, तकनीकी प्रसार, कीड़ों और बीमारियों से फसलों की सुरक्षा, बाजार की स्थिति, बाजार में फसलों की कीमत और पशुओं के स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर विशेषज्ञ सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गयी है, जिससे फसलों या पशुओं की उत्पादकता बढ़ सके। कृषि व्यापार केंद्र- कृषि व्यापार केंद्र की परिकल्पना आवश्यक सामग्री की आपूर्ति, किराये पर कृषिउपकरणों और अन्य सेवाओं की आपूर्ति के लिए की गयी है।
इनके अलावा प्रदेश के ग्रामीण क्ष्¨त्र्ा¨ं में मशरूम की ख्¨ती, खरग¨श पालन,बटेर पालन, बत्तख पालन के अलावा कृषि उपकरण निर्माण एवं मरम्मत के क्ष्¨त्र्ा में भी उद्यम स्थापित करने की भी अपार संभावनाएं है ।