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शनिवार, 1 अप्रैल 2017

अरण्डी की हरियाली शुष्क और गर्म क्षेत्रों में लाएँ खुशहाली

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                       भारत की प्राचीनतम फसलो में एरण्ड यानि अरण्डी (रिसिनस कोम्यूनिस) का नाम दर्ज है जिसके पौधो को  यूफोरबियेसी कुल में सम्मलितकिया गया  है।  औद्योगिक दृष्टि से उगाई जाने वाली तिलहनी फसलों में अरण्डी  एक महत्वपूर्ण फसल है। इसके  बीज में तेल की मात्रा 45 से 60 प्रतिशत तक होती है। इसका  तेल निम्न ताप पर जमता नहीं है तथा अधिक समय तक रचाने पर सूखता भी नहीं। मशीनों में प्रयोग होने वाले स्नेहक तेलों का निर्माण इसके बिना पूर्ण नहीं हो पाता। अरण्डी/अण्डी तेल का उपयोग दवाई, साबुन निर्माण, पेन्ट, वार्निश आदि बनाने में किया जाता है इसके अतिरिक्त प्लास्टिक या नायलोन के कारखानों में इसके तेल की माँग अधिक है। कपड़ा रंगाई के उद्योग में कामआने वाला यौगिक जिसे टर्की लाल तेल कहते हैं, इससे बनाया जाता है। पेट साफ करने हेतु जुलाब के रूप में अण्डी के तेल का प्रयोग किया जाता है। भारत से प्रतिवर्ष अण्डी के तेल तथा बीजों का निर्यात किया जाता  है। इसके बीज में  सबसे अधिक (लगभग 80 प्रतिशत) मात्रा में  रेसीनोलिक एसिड नामक हाइड्रोक्सी  वसीय अम्ल पाया जाता है। अन्तर्राष्टीय बाजार में माँग होने के कारण इसका तेल निर्यात करके विदेशी मुद्रा भी प्राप्त की जा रही है। अंडी की खली में रिसिन नामक विष होने के कारण यह पशुओं को खिलाने के लिए अनुपयुक्त है। परन्तु खाद के रूप में इसका प्रयोग लाभकारी पाया गया है क्योंकि इसकी खल्ली में 5-6 प्रतिशत नत्रजन, 1.5 प्रतिशत स्फुर एंव 1.3 प्रतिशत पोटाश  पाया जाता है । 
अण्डी के सूखे पौधों का उपयोग ईधन तथा छप्पर आदि के निर्माण में होता है। इसकी लुगदी का प्रयोग सेल्यूलोज व कार्ड बोर्ड तैयार करने के लिए भी किया जाता है। अण्डी के  पौधों की  हरी पत्तियों का प्रयोग रेशम कीट पालन के लिए भी किया जाता है। विश्व में क्षेत्र एंव उत्पादन की दृष्टि से भारत का प्रथम स्थान है। भारत में अण्डी की खेती  प्रमुख रूप से गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडू आदि राज्यो में की जाती है।  गत वर्ष  भारत में, 732.2 हजार हेक्टेयर में अण्डी की खेती की गई जिससे 1094 किग्रा. के मान से  801 हजार टन उत्पादन प्राप्त हुआ।  छत्तीसगढ़  में इसकी खेती घर की बाड़ी, नदी, नालों के कछार में सीमित क्षेत्र में की जाती है। आज कल अरण्डी फसल की शीघ्र तैयार होकर अधिक उपज देने वाली  उन्नत और संकर किस्में उपलब्ध है जिनके प्रमाणित किस्म के बीजों की खेती आधुनिक तरीके से की जाय तो इस फसल से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन और आमदनी प्राप्त की जा सकती है।  अरण्डी फसल की नवीन उत्पादन तकनीक इस ब्लॉग में प्रस्तुत है।
   

उपयुक्त जलवायु में करें खेती 

            अण्डी सूखा सहन करने वाली फसल है। इसकी खेती अपेक्षाकृत शुष्क तथा गर्म भागों में की जा सकती है, जहाँ 50 से 75 से.मी तक वार्षिक वर्षा समुचित वितरण के साथ होती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है और इसका स्वभाव बहुवर्षीय हो जाता है। अण्डी की विभिन्न अवस्थाओं में 18-380 से.तापमान उपयुक्त रहता है। कम तापमान(150 से. नीचे) पर बीज  अंकुरण कम होता है। पौध वृद्धि के समय तथा बीज पकने के समय उच्च तापक्रम तथा पौधों पर फूल आते समय अपेक्षाकृत कम तापक्रम की आवश्यकता होती है। यह लम्बे दिन वाला पौधा है। इसकी खेती खरीफ में की जाती है परन्तु शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत व संकर किस्मों के आगमन से इसे रबी एंव ग्रीष्मकाल में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

            अण्डी को सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है परन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम  रहती है। उत्तरी भारत की हल्की जलोढ़ तथा दक्षिणी भारत की लाल मिट्टियों  में अण्डी की खेती  सुगमता से की जा सकती है। उत्तम फसल के लिए खेती की मिटटी  का पी.एच.मान-5-6.5 उपयुक्त रहता है। इस फसल के लिए अचछे जल निकास वाली छत्तीसगढ़ की डोरसा एंव कन्हार भरी भूमि उपयुक्त रहती है।
            अण्डी की जड़े भूमि में गहराई तक जाती हैं। अतः ग्रीष्मकाल में 25 से.मी. की गहराई तक खेत की जुताई करना लाभदायक रहता है। खेत को नींदा रहित एंव भुरभुरा होना आवश्यक है। मानसून प्रारंभ होते ही दो तीन बार खेत को समतल बना लेना चाहिए। मटियार दोमट भूमि में ब्लैड हैरो से 2-3 बार जुताई कर देने से मिट्टि की भौतिक दशा अच्छी हो जाती है।

बोआई का सही समय

            अण्डी की बोआई प्रायः जून-जुलाई में बोई जाती है। कुछ स्थानों पर अगस्त-सितम्बर में भी बोनी की जाती है। मानसून प्रारंभ होते ही इसकी बुवाई (20 जून से 5 जुलाई) करें अथवा शीघ्र पकने वाली खरीफ फसल कटने के बाद सितंबर-अक्टूबर माह (रबी) में बुवाई की जा सकती है। ग्रीष्मकाल में इसकी बोनी जनवरी-फरवरी में की जाती है।

उन्नत किस्में

            अण्डी की देशी किसमे देर से तैयार होती है और उत्पादन भी कम देती है।  अतः इस  फसल से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत तथा संकर किस्मों के बीज का प्रयोग करना चाहिए। छोटे बीज वाली किस्मों में तेल की मात्रा अधिक पाई जाती है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के लिए अण्डी की उन्नत किस्में निम्नानुसार हैं -
उत्तरप्रदेश: टा-3, तराई-4, कालपी-6, पंजाब अण्डी-1
आन्ध्रप्रदेश: अरूणा भाग्य, सौभाग्य
हरियाणा: सीएच-1, पंजाब अण्डी-1, जीसीएच-3, एचसी-6
मध्यप्रदेश एंव छत्तीसगढ़: क्रांति, ज्वाला, ज्योति, डीसीएच-177 (दीपक), जीएयूसीएच-1150, जीसीएच-4, डीसीएच-32

अरण्डी की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ

किस्में                            अवधि              उपज                 तेल       विशेष गुण
                                    (दिन में)            (कु./हे.)              (%) 
उन्नत किस्में      
क्रांति                             130-150         16-18              50.0    उकठा सहनशील
ज्वाला (48-1)                   140-160          16-18              40.8     बिना काँटे वाली किस्म
ज्योति                           140-160         14-16              49.0    उकठा रोग के लिये प्रतिरोधक
संकर अरण्डी 
डी.सी.एच.-177              150-180         15-18              49.0      उकठा निरोधी 
जी.सी.एच.-4                   140-160          16-18              48.5    उकठा सहनशील
जी.सी.एच.-5                 150-160         18-28              50.0    उकठा सहनशील                 
डी.सी.एच.-32                 140- 160          18-20              49.0    उकठा सहनशील
जी.ए.यू.सी.एच.-150        150-160          14-16              47.0    काँटेदार संकर किस्म

बांक्षित पौध संख्या के लिए सही बीज दर

            बुआई के लिए स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिए एंव बुआई से पहले बीज को फफूँदनाशक दवा थायरम या डायथेन एम-45 से 3 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपचारित करना चाहिए। शुद्ध फसल के लिए 10-12 किग्रा. व मिश्रित फसल के लिए 3-5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज उपयुक्त  रहता है। वर्षा आधारित खेती हेतु 55 हजार पौध संख्या रखना जरूरी होता है। परन्तु देर से पकने वाली किस्मों की मिश्रित अवस्था में खेती हेतु वांछित पौध संख्या 18500 प्रति हे. (5-6 कि.ग्रा./हे. बीज दर) रखना चाहिए। बीज को 12-18 घन्टे तक पानी में भिगोकर बोने से अंकुरण एक सार होता है परन्तु ऐसी दशा में भूमि में उचित नमी का होना आावश्यक है।

बोआई की विधि

            बुआई की छिटकवाँ पद्धति की वजाय अरण्डी की बुआई कतारों में नारी हल द्वारा अथवा हल के पीछे कूँड़ में बीज डालकर करना चाहिए। असिंचित अवस्था में शीघ्र एंव मध्यम अवधि में पकने वाली उन्नत/संकर किस्मों के लिए 9020 से.मी. पौध अंतरण तथा देर से पकने वाली उन्नत/संकर किस्मों के लिए कतारों के मध्य 90 से.मी. और पौधों के मध्य 60 से.मी. की दूरी उपयुक्त रहती है। सिंचित क्षेत्रों में संकर किस्मों के लिए कतारों के मध्य 90 से.मी. तथा पौधों के बीच 60 से.मी. की दूरी रखी जाती है।

उत्तम उपज के लिए  संतुलित मात्रा में  खाद एंव उर्वरक

            गोबर की खाद 10-12 टन प्रति हेक्टेयर जुताई के समय अच्छी तरह मिट्टी में मिला देने से अण्डी के बीज में तेल की मात्रा व गुणवत्ता में सुधार होता है। अण्डी की अच्छी उपज के लिए असिंचित अवस्था में 40 कि.ग्रा. नत्रजन एंव 20 कि.ग्रा. स्फुर और 20 कि.ग्रा. पोटाश  तथा सिंचित अवस्था में 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. स्फुर और 20 कि.ग्रा. पोटाश  का उपयोग प्रति हे. करना चाहिए। असिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा (20 किलो) तथा स्फुर एंव पोटाॅश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कुँड़ में डालना चाहिए। शेष नत्रजन की मात्रा नमी उपलब्ध होने पर 35 से 40 दिन में डालें। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा (30 कि. ग्रा.) एंव स्फुर व पोटाश  की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष नत्रजन की मात्रा का एक तिहाई भाग प्रत्येक तुड़ाई (पिकिंग) के बाद डालें।नत्रजन धारी उर्वरक को कतार में 5-7 से.मी. गहराई पर बीज से दूर देना लाभकारी रहता है। फॉस्फोरस को सिंगल सुपर फॉस्फेट  के रूप में देने से फसल को फॉस्फोरस  के अलावा सल्फर व कैल्सियम तत्व  भी फसल को  प्राप्त हो जाता है।

जरूरी है खरपतवार नियंत्रण 

            अण्डी की फसल को प्रारंभिक अवस्था (बोआई के 44-60 दिन) में खरपतवार मुक्त रखना आवश्यक है। खरपतवारों प्रकोप से फसल को बचाने हेतु बोआई के 15-20 दिन पश्चात् एक निकाई-गुड़ाई अवश्यक करना चाहिए। इसके बाद 1-2 निकाई-गुडाई की आवश्यकता पड़ती है जब तक कि अण्डी के पौधे लगभग 1 मीटर ऊँचे होकर पंक्तियों के मध्य रिक्त स्थान केा आच्छादित नहीं कर लेते है। निकाई-गुड़ाई का कार्य पंक्तियों के मध्य देशी हल या ब्लेड  हैरो से करना सर्वोत्तम रहता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरालिन 1 कि.ग्रा. या ऐलाक्लोर 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हे. की दर से बुवाई के पूर्व नमीयुक्त भूमि में अच्छी तरह छिड़क देने से खरपतवार नियंत्रण में रहते है। मुख्य तने पर उपस्थित सभी ओक्सिलरी  कलिकाओं की खुटाई करने से फसल की अवधि कम होने के साथ-साथ उपज में भी वृद्धि  होती है।

समय पर करे सिंचाई

            आमतौर पर अरण्डी की खेती असिंचित परिस्थितियों में की जाती है।  परंतु अण्डी की बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है। वर्षा के आभाव में  फसल में तीन से चार सिंचाई करें। पहली सिंचाई 55 दिन के आसपास या फूल आने के समय तत्पश्चात अन्य सिंचाई 20 दिन के अंतराल में देते  रहें। इसकी जडे़ भूमि की अधिक गहराई से भी नमी का शोषण करती है अतः अण्डी की खेती असिंचित क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। अण्डी की रबी व ग्रीष्मकालीन फसल में मिट्टि के प्रकार व मौसम के अनुसार 3-4 सिंचाई देना चाहिए। अधिक वर्षा के समय खेत से जल निकास की पर्याप्त सुविधा होना आवश्यक है।

फसल पद्धति

            अण्डी की फसल को आमतौर पर मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। खरीफ की फसल को सोयाबीन, उड़द, मूँग, लोबिया, गुआरफली  एंव अरहर के साथ तथा रबी में चना, मटर, आलू, सूर्यमुखी के साथ बोया जाता है। उक्त फसलों के साथ अण्डी की अन्तर्वर्तीय खेती करना लाभदायक पाया गया है। अण्डी की शुद्ध फसल के बाद  सिंचित क्षेत्रों में गेंहू, चना, अलसी आदि की फसलें ली जा सकती हैं।

उचित समय पर हो कटाई-गहाई

            अण्डी की फसल में बोने के लगभग 60-70 दिन में फूल आ जाते हैं जो कि 2-3 माह तक लगातार आते रहते हैं। इसकी फसल एक साथ नही पकती है। प्रायः प्रधान फलों के गुच्छे बोने के लगभग 90-110 दिन पश्चात्  पक जाते हैं। जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक बोई गई फसल की प्रथम तुड़ाई दिसम्बर या जनवरी के प्रथम सप्ताह तक होती है। इसके पश्चात् 20 दिन के अन्तराल पर अन्य 2-3 तुड़ाइयाँ की जाती है। अधिक पकने पर संपुट फटने लगते है जिससे बीज खेत में बिखेर जाते हैं। पूर्णतया पकने के पहले शाखाओं को तोड़ लेने से बहुत से संपुट कच्चे रह जाते हैं जिससे उपज घट जाती है। गैर चिटकने वाली किस्मों की तुड़ाई पूर्ण रूप से पकने के पश्चात् करनी  चाहिए। अण्डी की फसल 5-6  माह में तैयार हो जाती है।
            फलों के गुच्छे काटने के पश्चात् धूप में अच्छी तरह (बीज का छिलका काला पड़ने तक) सुखाया जाता है। इसके पश्चात् डंडों से पीटकर बीज अलग कर लिया जाता है। बीज निकालने के लिए शैलर यन्त्र का भी प्रयोग किया जाता है। मड़ाई के बाद दानों और छलकों को साफ करके अलग कर लिया जाता है। अण्डी के बीज और छिलके का अनुपात लगभग 50-59 प्रतिशत तक होता है।

उपज एंव भंडारण


            अण्डी की उपज उसकी किस्म तथा बोने की परिस्थिति पर निर्भर करती है। अच्छी प्रकार उगाई गई फसल से 8-10 कुंटल/हेक्टेयर तक बीज प्राप्त हो जाते हैं। इसकी उन्नत या संकर किस्मों से 15-20 कुंटल/हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है। असिंचित अवस्था 4 से 6 कुंटल/हेक्टेयर तथा मिश्रित फसल से 2-3 कुंटल/हेक्टेयर  तक उपज प्राप्त होती है। अच्छी प्रकार से सुखाये हुए बीजों को बोरों या बाँस की टोंकरियों में भरकर भंडार गृह में रखते हैं। बीच का आवरण कड़ा होने के कारण इसको बिना किसी क्षति के 3 वर्ष तक भंडारित किया जा सकता है। इसके तेल को वर्षभर तक भंडारित किया जा सकता है। भंडारित करते समय बीज में नमी की मात्रा अधिक होने से तेल की मात्रा में काफी ह्यस होता है।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

शुक्रवार, 31 मार्च 2017

भूमि सुधार और आमदनी के लिए करें सनई की खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                 सनई अर्थात सनहेम्प सबसे पुराणी ज्ञात रेशेवाली फसल है जिसके तने से उत्तम गुणवत्ता वाला शक्तिशाली रेशा प्राप्त होता है जो की जूट रेशे से अधिक टिकाऊ होता है. सनई  (क्रोटेलेरिया जंशिया) के पौधे  लेग्यूमिनोसी परिवार में आते है .भारत में सनई अर्थात् पटुआ की खेती रेशे, हरी खाद और दाने के लिए की जाती है। रेशे वाली फसलों में जूट के बाद सनई का स्थान आता है। परम्परागत रूप से इसके रेशे द्वारा रस्सियाँ, त्रिपाल, मछली पकड़ने के जाल, सुतली डोरी, झोले आदि बनाए जाते है। अब उच्च कोटि के टिस्यू पेपर, सिगरेट पेपर, नोट बनाने के पेपर तैयार करने के लिए सबसे उपयुक्त कच्ची सामग्री के रूप में सनई को पहचाना गया है .  रेशा निकालने के पश्चात् इसकी लकड़ी को जलाने, छप्पर तथा टट्टर और कागज बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। सनई की खेती  हरी खाद और चारे के लिए भी की जाती है । इससे प्रति हेक्टेयर भूमि को लगभग 200-300 क्विंटल हरा जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है जिसके सड़ने के पश्चात् लगभग  80-95 किग्रा./हे. नत्रजन  उपलब्ध  होती है।  इस प्रकार से  अगली फसल में उर्वरक की मात्रा कम देनी पड़ती है। इसके अलावा जड़ों के माध्यम से सनई 60-100 किग्रा./हे. नत्रजन वायुमण्डल से संस्थापित कर लेती है। इसके पौधे शीघ्र बढ़कर भूमि को आच्छादन प्रदान करते है जिससे खरपतवार नियंत्रित रहने के साथ साथ भूमि कटाव नहीं होता है। 
               
 भारत वर्ष में सनई  खेती का रकबा कम होता जा रहा है और वर्तमान में  इसकी खेती  उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र,बिहार, राजस्थान,पं.बंगाल, हरियाणा राज्यों में प्रचलित है। विश्व में प्राकृतिक रेशे की बढती मांग और  लगातार धान-गेंहू  फसल पद्धति से ख़राब होती जमीनों की सेहत को ध्यान में रखते हुए  अब सनई फसल की खेती का महत्त्व बढ़ रहा है।  उत्तर भारत में गेंहू फसल कटाई के पश्चात ग्रीष्मकाल में  ज्यादातर कृषि योग्य जमीने  परती छोड़ दी जाती है जिनमे सनई की खेती में प्रयुक्त करने से ना केवल धान-गेंहू फसल पद्धति की उत्पादकता में इजाफा होगा वरन इन भूमियों  की उर्वरा शक्ति में भी उल्लेखनीय सुधार हो सकता है। 

जलवायु एवं भूमि की तैयारी 

सनई खरीफ ऋतु  की फसल है जिसकी खेती 50-75 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले स्थानों पर की जाती है। पौधों की वृद्धि के लिए उच्च तापमान एवं आर्द्रता आवश्यक है। पौध वृद्धि और अच्छी उपज के लिए औसतन 380 से 470 तापक्रम लाभप्रद पाया गया है। सनई की खेती उचित जलनिकास वाली सभीप्रकार की भूमियों में की जा सकती है।अच्छी फसल के लिए जलोढ़, दोमट, लाल दोमट तथा हल्की से मध्यम श्रेणी की काली मिट्टी उत्म रहती है।परंतु जल भराव  वाली भूमि मे सनई फसल नहीं होती है। साधारण ऊसर भूमि में भी सनई अच्छी प्रकार से उगाई जा सकती है।बीज तथा रेशे के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के पश्चात् कल्टीवेटर या हैरो चलाकर अथवा देशी हल से 2-3 जुताईयाँ आर-पार करनी चाहिए। खेत तैयार कर लिया जाता है। अन्तिम जुताई के बाद खेत को समतल एवं भुरभुरा बनाने के लिए पाटा चलाया जाता है। हरी खाद के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके, एक बार हैरो चलाकर बोआई कर देना चाहिए ।

बोआई का समय

            हरी खाद के लिए बोआई सिंचाई सुविधाओं के अनुसार अप्रैल से जुलाई तक की जा सकती है। रेशे व दाने के लिए बोने का सर्वाेत्तम समय 15 जून से 15 जुलाई तक है। वर्षा प्रारम्भ होने पर बोआई आरम्भ कर  जुलाई के अन्तिम सप्ताह तक समाप्त कर लेना चाहिए ।

उन्नत किस्में

सनई से अच्छी उपज और आय प्राप्त करने के लिए  अग्र प्रस्तुत  उन्नत किस्म के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए। 
1.एम. 35: इसका रेशा अच्छी किस्म का होता है। इस किस्म से प्रति  हेक्टेयर 10-12 क्विंटल रेशा प्राप्त होता है।
2.के. 12: इस  किस्म से पीले रंग का रेशा और काले रंग के बीज प्राप्त होता है। औसतन  8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  रेशा प्राप्त होता है।
3.एम. 19: कम समय में तैयार होने वाली यह किस्म हल्की भूमि में उगाने के लिए उपयुक्त है। रेशा अच्छे गुणों वाला होता है।

बीज एवं बोआई

            बीज की मात्रा फसल उगाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है। हरी खाद के लिए प्रति इकाई क्षेत्र पौधों की संख्या अधिक रखते हैं जिससे कि भूमि में जीवांश पदार्थ अधिक मात्रा मे पहुँच  सके। अतः हरी खाद के लिए 75-100 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर बोया जाता है। रेशे के लिए 60-80 तथा बीज उत्पादन  के लिये 25-35 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। हरी खाद के लिए बोआई  छिटकवाँ विधि से करना चाहिए परन्तु   दाने और रेशे के लिए फसल की बोआई पंक्तियों में की जानी चाहिए । कतार बोनी के लिए दो पंक्तियों के बीच 30 सेमी. तथा पौधों की आपसी दूरी 5-7 सेमी. रखी जाती है। रेशे के लिए पंक्तियों के बीच की दूरी थोड़ी कम रखना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

            आमतौर पर सनई को कोई खाद नहीं दी जाती है। दलहनी फसल होने के कारण अधक नत्रजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है। फॉस्फोरस देना आवश्यक है इससे जड़ों की वृद्धि एवं जड़ों में पाये जाने वाले जीवाणुओं की वृद्धि अच्छी होती है। अच्छी फसल के लिए 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर सिंगल सुपर फॉस्फेट  के माध्यम से बोआई के समय देना चाहिए जिससे फसल को फॉस्फोरस के अतरिक्त सल्फर और कैल्सियम तत्व भी उपलध हो जाते है। 

ग्रीष्कालीन फसल में सिंचाई आवश्यक 

            ग्रीष्मकाल (अप्रेल-मई) में बोई गई फसल में 1-2 सिंचाई देना होता है, इसके बाद वर्षा  प्रारम्भ होने पर फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वर्षा शीघ्र समाप्त हो जाने पर दाने व रेशे वाली फसल में 1-2 सिंचाई देना लाभप्रद रहता है। खेत में जल निकास का प्रावधान आवश्यक है।
निकाई-गुड़ाई
            प्रायः तेजी से बढ़ती हुई फसल भूमि को ढंक लेती है जिससे खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। अतः निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है। रेशे व बीज के लिए बोई गई फसल के लिए आरम्भ में एक निकाई-गुड़ाई करने से वायु संचार में वृद्धि होती है और नत्रजन संस्थापन की क्रिया को प्रोत्साहन मिलता है।

फसल पद्धति 

            सनई की फसल को विभिन्न फसल पद्धति में उगाया जाता है। इसके प्रमुख चक्रों में  सनई-गेहूँ-कपास-गन्ना, सनई-गेहूँ-मक्का-अरहर,सनई(ग्रीष्म)-धान-चना, सनई-धान-गेहूँ, सनई-गन्ना-मूँग-गेहूँ आदि हैं।

फसल की कटाई


सनई की फसल की कटाई इसकी खेती के प्रयोजन के अनुसार की जाती है। रेशे के उद्देश्य से बोई गई फसल 80-100 दिन में तैयार हो जाती है। जब फसल में छोटी-छोटी फलियाँ बनना प्रारम्भ हो जाये, तब रेशे के लिए कटाई करने पर रेशा अच्छे गुणों वाला प्राप्त नहीं होता । साधारण तौर पर सितम्बर में फसल काटने योग्य हो जाती है। बीज के लिए फसल उस समय काटते हैं जब फलियाँ पक जाती है और बीज कड़े तथा काले हो जाते हैं। कटाई हँसिये द्वारा जमीन की सतह से की जाती है इसके बाद फसल को सुखाकर डंडे की सहायता से बीज अलग कर लेते हैं।
            हरी खाद के लिए बोई गई फसल बुआई के  50-60 दिन पश्चात् खेत में पलट दी जाती है। फसल की पलटाई फूल आने की अवस्था में करने से भूमि को अधिक मात्रा में जीवांश पदार्थ व नत्रजन प्राप्त होती है। पहले फसल को पाटा चलाकर खेत में गिरा दिया जाता है। इसके बाद डिस्क हैरो को चलाकर फसल को मिट्टी में मिला दिया जाता है। सूखा मौसम होने पर खेत में हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे मिट्टी में दबा हुआ हरा पदार्थ शीघ्रता से सड़ जाता है।           

पौधों से  रेशे निकालना

            सनई के पौधों से रेशा प्राप्त करने के लिए इसे जूट के समान सड़ाते  है। सनई के पौधे कम समय (एक सप्ताह) में ही सड़ जाते हैं। सड़े पौधो को पानी में पीटकर साफ कर लेते हैं और फिर रेशे अलग किए जाते हैं। रेशों को अच्छी तरह से सुखाकर और ऐंठ कर लपेट कर बंडल बना लेना चाहिए  ।

फसल से उपज 


          सनई की अच्छी  फसल से 8-12 क्विंटल/हेक्टेयर  रेशा प्राप्त होता है। दानेवाली फसल से 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर बीज प्राप्त होता है। हरी खाद के प्रयोजन से इसकी खेती  करने पर भूमि को  250-300 क्विं./हे. जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है जिससे फॉस्फोरस  तथा पोटाश के अलावा 60-100 कि.ग्रा. नत्रजन भी भूमि को मिलता है। रेशा और डंठल का अनुपात 1:8 का होता है।
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बुधवार, 29 मार्च 2017

ग्रीष्म कालीन धान फसल से अधिकतम उपज एवं आर्थिक लाभ कैसे

डाँ. गजेन्द्र सिंह तोमर  
प्राध्यापक, सस्य विज्ञान विभाग
कृषि महाविद्यालय, इं.गां.कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

संसार में अमूमन 160 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र  में धान की खेती प्रचलित  है जिससे 685 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता  है । भारत वर्ष की खाद्यान्न फसलों में धान एक प्रमुख फसल है जिसका देश की खाद्यान्न सुरक्षा में महत्वपूर्ण य¨गदान है । विश्व में सर्वाधिक क्षेत्रफल  (44 मिलियन हैक्टर) में धान की खेती  भारत में होती  है परन्तु उत्पादन (96 मिलियन टन-वर्ष 2010) में हम विश्व में दूसरे पायदान पर बने हुए है । हमारे देश में चावल की औसत उपज 2.1 टन प्रति हैक्टर के करीब है जो  कि विश्व औसत उपज  (2.9 टन प्रति है.) से भी कम है । भारत में धान की खेती  मुख्यतः मानसून पर निर्भर करती है तथा किसान खेती  किसानी परंपरागत तरीके से करते है । इसके अलावा उन्नत किस्मों  व संकर धान का फैलाव हमारे देश में काफी कम  क्षेत्र में है । वर्तमान उन्नत किस्मों तथा  संकर धान में विद्यमान क्षमता का 75 % भी दोहन कर लेने से हम अपनी उपज को  काफी हद तक बढ़ा सकते है । छत्तीसगढ़ राज्य के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक ताने बाने में धान की प्रमुख भूमिका है । अतः धान-चावल को  राज्य की जनता की जीवन रेखा कहा जा सकता है । धान उत्पादन के मामले  में राज्य के किसानों  ने उल्लेखनीय  सफलता अर्जित की है जिसके लिए राज्य को दो बार राष्ट्रिय  कृषि कर्मण्य  पुरूष्कार  नवाजा जा चूका है । परन्तु राज्य में धान की औसत  उपज भारत के प्रमुख धान उत्पादक   राज्यों   से काफी कम है । भारत विश्¨षकर छत्तीसगढ़ में धान की कम उत्पादकता के प्रमुख कारण निम्न है-
क्षेत्र विशेष  की परिस्थितियों  के अनुसार संसतुतित किस्मों  का इस्तेमाल नहीं किया जाता है  ।
उच्च गुणवत्ता वाले , खाद एवं कृषि रसायनों  की सही समय पर पूर्ति नहीं ।
धान की बुआई का समय पूर्णतः मानसून पर निर्भर करता है, वर्षा की अनियमतता के कारण  समय पर बुआई, बियासी तथा  अन्य कृषि कार्य संपन्न नहीं हो  पाते है ।
धान की नर्सरी की बुवाई एवं  रोपाई विलम्ब से की जाती है तथा धान की प्रति इकाई  उचित पौध  संख्या में कमी होना ।
अपर्याप्त एवं असंतुलित उर्वरकों  का प्रयोग  तथा खरपतवार प्रबंधन पर अपर्याप्त ध्यान।
समय पर पानी की अनिश्चितता तथा समय पर कीट-रोग सरंक्षण के उपाय नहीं अपनाना  ।
उन्नत कृषि तकनीक के ज्ञान का अभाव तथा कृषकों को आवश्यक प्रशिक्षण की सुविधा का अभाव ।
खंडित एवं छोटी कृषि जोत  के कारण आधुनिक कृषि यंत्रों के उपयोग में बाधाएं ।
  छत्तीसगढ़ राज्य में धान की अधिकांश खेती आमतौर पर  खरीफ यानि वर्षा ऋतु  में ही की जाती है परन्तु नहरी सिंचाई की उपलब्धता होने  पर किसान धान की रबी अर्थात ग्रीष्मकालीन फसल भी परंपागत रूप से लगाते आ रहे है । वर्ष 2001-02 में  जहां महज 44.4 हजार हैक्टर में ग्रीष्मकालीन धान लगाया  जाता था जो कि अब बढ़कर 179.39 हजार हैक्टर क्षेत्र में  विस्तारित हो चुका है । औसत उपज (2614 किग्रा. प्रति हैक्टर) में भी खासा इजाफा (3725 किग्रा. प्रति हैक्टर) हुआ है । खरीफ मौसम  में 3653.73 हजार हैक्टर के आस पास धान बोया  जाता है जिससे 1800 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत  उपज प्राप्त होती है । जाहिर है ग्रीष्मकालीन धान की औसत  उपज खरीफ में बोये  जाने वाले  धान से दुगने  से भी अधिक है और  संभवतः यही वह बजह जिसके कारण नहरी क्षेत्रों या फिर साधन संपन्न किसान साल में धान की दो फसलें  (धान-धान)  लेना चाहते  है । छत्तीसगढ़ के धमतरी, रायपुर, महासमुंद, दुर्ग रायगढ़ बिलासपुर और  जांजगीर जिलों में ग्रीष्मकालीन (रबी) धान की खेती व्यापक रूप से की जाती है । स्वच्छ मौसम, पर्याप्त धूप और  सुनिश्चित सिंचाई के कारण रबी-ग्रीष्मकालीन धान से अधिकतम उपज प्राप्त होती है परन्तु घटते जल संसाधन, गिरता भू-जल और पानी की बढ़ती मांग को  देखते हुए ग्रीष्मकालीन अर्थात रबी धान की खेती  करना यथोचित नहीं है ।राज्योदय  के बाद से 1-2 वर्षों को   छोड़कर  ग्रीष्मकालीन धान की सिचाई के लिए  फसल की आवश्यकतानुसार पानी की व्यवस्था राज्य सरकार कर रही  है । यद्यपि उतने ही पानी में मक्का, सोयाबीन, तिल आदि फसलों  की खेती अधिक क्षेत्रफल में  की जा सकती है जिससे राज्य में फसल सघनता आसानी से बढ़ाई जा सकती है । ग्रीष्मकालीन-रबी धान  से अधिकतम उत्पादन के लिए आधुनिक सस्य विधियाँ प्रस्तुत है ।  
भूमि का चुनाव 
समान्यतौर  पर धान की खेती  सभी प्रकार की भूमियों  में की जा रही है । परन्तु  उचित जल धारण क्षमता वाली भारी दोमट  भूमि  इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम पाई गई है। इसकी खेती हल्की अम्लीय मृदा से लेकर क्षारीय (पी.एच. 5.5 से 8.0 तक) मृदा में की जा सकती है। छत्तीसगढ़ में धान की सफल खेती  मटासी, डोरसा, एंव कन्हार भूमियों  में की जा रही है। डोरसा भूमि की जलधारणा क्षमता  मटासी भूमि की तुलना में काफी अधिक होती है। यह धान की खेती  के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है। कन्हार भूमि भारी, गहरी व काली होती है। इसकी जल धारण क्षमता अन्य भूमियों  की अपेक्षा ज्यादा होती है । अतः यह रबी व ग्रीश्मकालीन फसल के लिए अधिक उपयुक्त पायी गई है। 
खेत की तैयारी  
अच्छी प्रकार से  तैयार किये गये खेत में बीज बोने से खेत  में फसल अच्छी प्रकार से स्थापित होती है जिससे भरपूर उत्पादन प्राप्त होता  है । फसल उगाने से पहले विभिन्न यंत्रों की सहायता से खेत की अच्छी तरह से तैयारी की जाती है जिससे खेत  समतल और  खरपतवार रहित हो जाएँ। धान के खेत की तैयारी प्रमुखतया बोने की विधि पर निर्भर करती है। संभव  होने पर गोबर की खाद, कम्पोस्ट या हरी खाद बोआई से पहले प्रारम्भिक जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।

उन्नत किस्मों  के बीज का प्रयोग 

अपने क्षेत्र के लिए अनुशंसित किस्मों के प्रमाणित बीज  बुआई हेतु इस्तेमाल करें  । यदि किसान पिछली फसल  का बीज का  उपयोग  करना चाहते है तब  बीज का चुनाव ऐसे खेत  से करें जिसमे फसल कीट-रोग से प्रभावित न रहे  और उसमे  किसी दूसरी किस्म का मिश्रण न हो  । इसके अलावा 2-3 वर्ष बाद नये बीज का प्रयोग  करना चाहिए । संकर प्रजातियों  का बीज अधिकृत संस्थान या विक्रेता से ही खरीदे तथा हमेशा नया बीज ही इस्तेमाल करें । छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में ग्रीष्मकालीन धान के लिए प्रमुख उन्नत किस्मों  की  विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत  है: 
ग्रीष्मकालीन धान की खेती  हेतु उपयुक्त प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं 
किस्म का नाम अवधि (दिन) उपज  (क्विं/हे.) अन्य विशेषताएं
आई.आर.-36        115-120 45-50  लंबा पतला दाना, गंगई, ब्लास्ट, ब्लाईट सहनशील ।
आई.आर.-64 115-120 45-50 बोनी , लंबा पतला दाना, झुलसा र¨ग सहनशील 
एम.टी.यू.-1010 112-115 45-50 बोनी , भूरा माहू सहनशील ।
चन्द्रहासिनी 120-125 40-45 अर्द्ध बोनी , लंबा पतला दाना, गंगई निरोधक,  निर्यात हेतु ।
महामाया 125-128 45-55 बोनी, दाना मोटा, पोहा  व मुरमुरा हेतु, सूखा व गंगई रोधी 
कर्मा मासुरी 125-130 45-50 अर्द्ध बोनी , मध्यम पतला दाना, खाने योग्य  गंगई निरोधक ।
एम.टी.यू.-1001 130-135 40-45 बोनी, भूरा माहू सहनशील ।
उ.पूसा बासमती 130-135 40-45 सुगंधित, पतला दाना ।
स्वर्णा 140-150 45-55 बोनी, मध्यम पतला दाना ।
स्वर्णा सब-1 140-145 45-55 स्वर्णा जैसी, जल मग्न सहनशील ।
बम्लेश्वरी  130-135 50-60 अर्द्ध बोनी, लंबा  मोटा  दाना, जीवाणुजनित झुलसा निरोधक 
सम्पदा 135-140 45-50 अर्द्ध बोनी, मध्यम पतला दाना, झुलसा रोग निरोधक  ।
उन्नत सांबा मासुरी 135-140 45-50 अर्द्ध बोनी, मध्यम पतला दाना, झुलसन रोग निरोधक  ।
जलदुबी 135-140 40-45 ऊँची,गंगई कीट व झुलसा रोग निरोधक, लंबा पतला दाना ।
राजेश्वरी                  120-125 50-55 बोनी , लंबा म¨टा दाना, प¨हा व मुरमुरा हेतु ।
दुर्गेश्वरी                   130-135 50-55 बोनी, चावल लंबा पतला, पर्ण झुलसा  रोग निरोधक  ।
महेश्वरी                   130-135 50-55 लंबा पतला दाना, शीथ ब्लाईट व गंगई रोधक, खाने योग्य 
इं.सुगंधित धान-1 125-130 40-45 मध्यम पतला सुगन्धित,  गंगई निरोधक , सूखा सहनशील ।

अधिकतम उत्पादन के लिए संकर किस्म के धान की खेती करना चाहिए। संकर धान की विनर-एनपीएच-567, चैंपियन-एनपीएच-207 मयूर-एनपीेच-4113, सबीज सुगंधा-एसबीएच-999, राजा एनपीएच-369, बायप-6129, बायर-158, प्रोएग्रो-6201, पीएचबी-71, लोकनाथ, इंडोअमेरिकन-100011, पीआरएच-10, केआरएच-2 आदि किस्में भी मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयोगी  है ।

बोआई का समय

हमारे देश में चावल की खेती तीनों  मौसम अर्थात बसंत तथा खरीफ में शीतकाल और ग्रीश्मकाल या रबी में होती है। अधिकतर चावल का उत्पादन (लगभग 56 प्रतिशत) बसंत के मौसम में होता है। इसके लिये बिजाई मार्च तथा अगस्त के बीच और कटाई जून एवं दिसंबर के बीच होती है। शीतकालीन फसल की बिजाई जून से अक्टूबर के बीच तथा कटाई नवम्बर तथा अप्रैल के बीच होती है। इससे चावल की कुल फसल में लगभग 33 प्रतिषत हिस्सा प्राप्त होता है। शेष  11 % की बिजाई गर्मी के मौसम में होती है। ग्रीश्मकालीन धान की बोआई-रोपाई  जनवरी-फरवरी में संपन्न कर लेना  चाहिए । देर से ब¨आई करने से खरीफ फसलों  के कार्य पिछड़ जाते है साथ ही मानसून के समय धान  फसल को  क्षति भी हो  सकती है । अतः बोआई-रोपाई  का समय इस प्रकार सुनिश्चित करें जिससे फसल की कटाई-गहाई मानसून पूर्व संपन्न की जा सकें ।

सही मात्रा में बीज प्रयोग और बीजोपचार   

अच्छी उपज के लिए चयनित किस्मों का प्रमाणित बीज  किसी विश्वसनीय संस्था से प्राप्त करें। बीज की मात्रा बीज आकार और बोने  की विधि पर निर्भर करती है । बीज का अंकुरण 80-90 प्रतिशत होना चाहिये और वह रोग रहित हो। इस तरह से छाँटा हुआ बीज रोपा पद्धति में 30-40 तथा कतार बोनी में 80-90 तथा लेही पद्धति में 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती  है। चावल सघनीकरण विधि (श्री पद्वति) से धान की खेती में  6-8 किग्रा. तथा संकर धान का 15 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर ब¨आई हेतु पर्याप्त होता  है । खेत में बोआई पूर्व बीज शोधन  अति आवश्यक है। सबसे पहले बीज को नमक के घोल (17 प्रतिशत) में डुबोएं  . पानी के ऊपर तैरते हुए  हल्के बीज निकालकर अलग कर देें तथा नीचे बैठे भारी बीजों को निकालकर साफ पानी से दो-तीन बार धोएँ व छाया में सुखाने के उपरान्त  कवकनाशी दवाओं  से उपचारित कर बोना चाहिए। बीजों को 2.5  ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोआई करें। 

ग्रीष्म में धान लगाने की पद्धतियां 

जलवायु, क्षेत्र विशेष की  परिस्थितियाँ, उपलब्ध संसाधन आदि के अनुसार देश के विभिन्न भागों  में धान की बुवाई विभिन्न प्रकार से की जाती है । ग्रीष्म  ऋतु में धान की  बोआई  कतार पद्वति से अथवा रूप  विधि से करना चाहिए ।
1.कतार बोनी : धान की रोपण खेती  में बढ़ते खर्चे, पानी एवं मजदूरों  की समय पर अनुपलब्धता एवं मृदा स्वास्थ्य में ह्रास की समस्या के समाधान हेतु धान की सीधी बुवाई ही रोपण विधि का एक अच्छा विकल्प है । सीधी बुवाई में खेत में लेह  (पडलिंग) नहीं की जाती और  लगातार खेत में  खड़ा पानी रखने की आवश्यकता नहीं होती है । सीधी बुवाई में  पानी, श्रम व ऊर्जा कम लगती है अतः यह आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी है । इसके अलावा मृदा  की भौतिक  दशा अच्छी बनी रहती है तथा फसल जल्दी तैयार होने से अगली फसल   बुआई समय पर की जा सकती  है । धान की बुवाई से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई करें जिससे खरपतवार निकल आये । अब जुताई कर खेत  तैयार करने के उपरान्त  देशी हल के पीछे बनी कतारों में  अथवा सीड-ड्रिल  के माध्यम से बुआई की जाती है ।  बुआई 20-22 सेमी. की दूरी पर कतारों में करें  तथा बीज बोने की गहराई 4-5 सेमी. रखना चाहिए । 
2. लेवकर्षित खेत (पडल्ड)  खेत  में सीधी बुआई  (लेही विधि): धान की बुवाई में विलम्ब होने से बतर बोनी एंव रोपणी(नर्सरी) की तैयारी करने का समय न मिल सके तो लेही विधि अपनाई जा सकती है।इसमें रोपा विधि की तरह ही खेत की मचाई की जाती है तथा अंकुरित बीज खेत में छिड़क देते है। लेही बोनी के लिए प्रस्तावित समय से 3-4 दिन पूर्व से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर दें। निर्धारित बीज मात्रा को रात्रि में 8-10 घन्टे भिगोना चाहिए। फिर इन भीगे हुये बीजों का पानी निथार का इन बीजों को पक्के फर्श पर रखकर बोरे से ठीक से ढँक देना चाहिये।लगभग 24-30 घंटे में बीज अंकुरित हो जायेगें। अब बोरों को हटाकर बीज को छाया में फैलाकर सुखाएँ। इन अंकुरित बीजों की बुआई  4-5 दिन तक  सम्पन्न कर सकते हैं।
3.  रोपण पद्धति : अधिक उपज तथा जल के अधिकतम उपय¨ग के लिए आवश्यक है कि धान की प©ध समय पर तैयार कर ल्¨ना चाहिए ।  इस विधि में धान की रोपाई वाले कुल क्षेत्र के लगभग 1/10 भाग में नर्सरी तैयार की जाती है। 
रोपाई हेतु पौध तैयार करना :- धान की पौधशाला  उपजाऊ तथा जलनिकास युक्त ऐसे खेत में तैयार करना चाहिए जो कि सिंचाई स्त्रोतों  के पास  हो  । एक हैक्टेयर एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई  करने के लिए धान की बारीक चावल वाली किस्मों  का 30 किग्रा., मध्यम दाने वाली किस्मों का  40 किग्रा. और मोटे  दाने वाली किस्मों का 50 किग्रा. बीज की पौध  तैयार करने की आवश्यकता होती  है । प्रति हैक्टेयर में रोपाई  करने के लिए लगभग 500 से 600 वर्ग मीटर में  पौधशाला  डालनी चाहिए । पौधशाला  में 100 किग्रा. नत्रजन, 50 किग्रा. फॉस्फोरस  व 25 किग्रा. पोटाश  प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग  करना चाहिए । पौध की खैरा रोग से सुरक्षा  के लिए 5 किग्रा. जिंक सल्फेट को  20 किग्रा. यूरिया या 2.5 किग्रा. बुझे हुए चूने के साथ 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के 10-15 दिन बादनर्सरी में छिड़काव करना चाहिए । 
मुख्य खेत में पौध रोपण :  इस पद्धति में  भूमि की अच्छी तरह से जुताई उसमें 3-5 सेमी. पानी भर के लेह (पडलिंग) की जाती है । पडलिंग का कार्य हल या ट्रेक्टर में केज व्हील के माध्यम से किया जाता है । धान की पौध रोपने के पूर्व  खेत  को अच्छी प्रकार से  मचाने  से  उससे  पानी का रिसाव कम हो जाता है जिससे पानी की बचत होती है साथ ही खेत  में खरपतवार व कीड़े-मकोड़े भी  नष्ट हो जाते है । इस क्रिया से पौधों  में कल्ले   अधिक संख्या में बनते है । 
सामान्य तौर पर 25-30 दिन उम्र की पौध रोपण  के लिए उपयुक्त रहती है । रबी-ग्रीष्म में पौध  तैयार होने  में 30-40 दिनों  का समय लग सकता है । खेत मचाई के दूसरे दिन रोपाई करना ठीक रहता है। रोपा लगाते समय एक स्थान (हिल)पर 1-2 पौधों की रोपाई करें। पौधे सदैव सीधे एंव 3-4 सेमी. गहराई पर ही लगाए। अधिक गहराई पर पौध  लगाने से कंशे   कम संख्या में  बनते है । कतारों व पौधों के बीच की दूरी 20 x 15 सेमी. (देर से तैयार होने  वाली किस्मों ) और 20 x 10 सेमी. (शीघ्र व मध्यम समय में तैयार होने  वाली किस्मों) रखना चाहिए।  यदि रोपाई कतारों  में करना सम्भव नहीं होने पर   प्रति वर्ग मीटर  क्षेत्र में कम से कम 50  स्थानों पर पौध की रोपाई  की जानी चाहिए अन्यथा पौधों  की संख्या कम रह जायेगी । पौध रोपण  के बाद किसी कारणवश  कुछ पौधे मर जाएँ तो उनके स्थान पर  नए पौधे शीघ्र रोपना चाहिए जिससे खेत में  प्रति  इकाई क्षेत्रफल में  बांक्षित  संख्या में पौधे स्थापित हो  सकें । अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र  में धान के 500 बालीयुक्त पौधे  स्थापित होना आवश्यक पाया गया है ।  

संतुलित पोषण प्रबंधन  

धान फसल में खाद एंव उर्वरकों की सही मात्रा का निर्धारण करने के लिए खेत  की मिट्टी का परीक्षण  कराना आवश्यक है। पोषक तत्वों का प्रबंधन इस प्रकार से करना चाहिए जिससे फसल  की प्रमुख अवस्थाओं  पर भूमि में पोषक तत्वों की  कमी न हो। अतः बोआई व रोपाई के अतिरिक्त दौजी निकलने तथा पुष्प गुच्छ प्रर्वतन की अवस्थाओं में भी आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति करना चाहिए। धान की एक अच्छी फसल एक हेक्टेयर भूमि से 150-175 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-30 किलोग्राम फाॅस्फोरस, 200-250 किलोग्राम पोटाश तथा अन्य पोषक तत्वों को ग्रहण करती है। मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरको, हरी खाद एवं जैविक खाद का समय से एवं संस्तुत मात्रा में इस्तेमाल  करना चाहिए।  
धान की फसल में अंतिम जुताई के समय 5-10 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी प्रकार से सड़ी गोबर खाद या कम्पोस्ट का उपयोग करने से महँगे रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में 50-60 किलो प्रति हेक्टेयर तक की कटौती की जा सकती है।यदि मृदा परीक्षण नहीं किया गया है तो बोनी किस्मों  (110 से 125 दिन अवधि वाली) में  80-100 किग्रा. नाइट्रोजन,  40-50 किग्रा. स्फुर तथा 30-40 किग्रा. पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए । देरी से पकने वाली किस्मों में 100-120 किग्रा. नाइट्रोजन  50-60 किग्रा. स्फुर और  40-50 किग्रा. पोटाश  प्रति हेक्टर की दर से उपयोग करना लाभकारी रहता है । ऊँची किस्मों के  लिए नाइट्रोजन  40-60 किग्रा., स्फुर-20-30 किग्रा. और पोटाश 10-15  किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से देना उचित पाया गया है । नाइट्रोजन धारी  उर्वरकों  को  तीन विभिन्न अवस्थाओं  अर्थात 30 प्रतिशत रोपण के समय, 40-50 प्रतिशत कंसे बनते समय तथा शेष मात्रा  प्रारंभिक गभोट  अवस्था के समय देना चाहिए । देश के  अधिकांश धान क्षेत्रों  की मिट्टियों  में आज कल जस्ते की कमी के लक्षण दिखते हैं। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में  25 किलोग्राम/हेक्टेयर के हिसाब से जिंक सल्फेट खेत की अंतिम जुताई के समय देना लाभकारी पाया गया है। 

 धान की विभिन्न पद्धतियों में खरपतवार नियंत्रण

धान फसल में  खरपतवार प्रकोप से उत्पादन में  काफी गिरावट  आ सकती है। खरपतवार मुक्त   वातावरण उत्पन्न करने धान की विभिन्न अवस्थाओं या बोने की विधि के अनुसार खरपतवार नियंत्रण किया जाना चाहिए।
कतार बोनी: खेत में सबसे पहले  अकरस जुताई करें। सिंचाई के 5-6 दिन बाद फिर जुताई करें तथा बतर (ओल) आने पर कतार में धान की बुवाई करें। बुवाई के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर  1-1.5 किग्रा./हे. सक्रिय तत्व अथवा आक्साडायर्जिल 70-80 ग्राम का  छिड़काव करें। बुआई के 30-35 दिन बाद कतारों के बीच पतले हल द्वारा जुताई करें या हाथ से निदांई करें। धान का अंकुरण होने के 14-20 दिन में यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप अधिक हो तो फिनाक्सीप्राप 60 ग्राम या साहलोफाप 70-90 ग्राम/हे.  तथा चौड़ी  पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये इथाॅक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. का प्रयोग  करें अथवा सभी प्रकार के खरपतवारों  के लिए बिसपायरिबैक सोडियम 20-25 ग्राम  प्रति हैक्टर की दर से धान की ब¨आई के 20 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए ।
रोपण विधि: अच्छी मचाई तथा खेत में पानी रखना खरपतवार प्रकोप कम करने मेें सहायक होता है। रोपा लगाने के 6-7 दिन के अंदर एनीलोफाॅस 400-600 मि.ली. प्रति हेक्टेयर या ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प या पेण्डीमेथालीन 1-1.5 कि./हे. सक्रिय तत्व का प्रयोग करे या फिर प्रेटीलाक्लोर  और  मेट सल्फ्यूरान को  बराबार मात्रा  में 600 ग्राम अथवा बिसपायरीबैक के 20-25 ग्राम  का छिड़काव करें । धान अंकुरण होने के 20-25 दिन में यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप  अधिक होने पर  फिनाक्सीप्राप 60 ग्राम प्रति हैक्टर या चौड़ी  पत्ती वाले खरपतवारों  के नियंत्रण  हेतु इथाक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. का छिड़काव करें।  पौध रोपण  के 25-30 दिन बाद पैडी वीडर धान की दो पंक्तियों  के मध्य चलाने से न केवल खरपतवार नियंत्रण में रहते है अपितु  भूमि में इस समय डाले गये उर्वरक मुख्यतः नत्रजन की उपलब्धता धान के पौधे को ज्यादा मात्रा में होती है। पैडी वीडर या तावची गुरमा उपलब्ध न होने पर हाथ से भी निंदाई की जा सकती है।

उपलब्ध जल का कुशल प्रबंधन आवश्यक 

ग्रीष्मकाल में पानी की सर्वथा कमी रहती है । अतः आवश्यक है कि उपलब्ध जल का किफायती उपयोग  किया जाना चाहिए । फसल की आवश्यकता के अनुरूप ही सिंचाई करें । धान फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अच्छे जल प्रबन्धन के लिये खेत  का समतलीकरण लेजर लेंड लेवलर  से कराना आवश्यक है जिससे 25-30 प्रतिशत पानी की बचत सम्भव है । धान की फसल जब मृदा में नमी संतृप्त  अवस्था से कम होने लगे (मिट्टी में हल्की दरार पड़ने लगे) तो सिंचाई करना आवश्यक रहता है। फसल की जल माँग  भूमि के प्रकार, मौसम, भू-जल स्तर तथा किस्मों की अवधि पर निर्भर करती है। भारी से हल्की मिट्टी में लगभग 1000 मिमि. से 1500 मिमि. तक पानी लगता है।  धान की कुल जल आवश्यकता का लगभग 40 प्रतिशत भाग बीज अंकुरण से कंसा बनने की अवस्था तक, 50 प्रतिशत गर्भावस्था से दूध भरने तक तथा 10 प्रतिशत फसल के पक कर तैयार होने तक लगता है। 
रोपा लगाने के समय मचाये या लेव  किये गये खेत  में 1-2 सेमी.से अधिक पानी न रखें । रोपाई के बाद एक सप्ताह तक खेत में पानी का स्तर 1-2 सेमी. रखने से रोपित पौधे जल्दी स्थापित हो जाते है। पौधे स्थापित होने के बाद कंसे फूटने की अवस्था पूर्ण होने तक उथला जल स्तर 5-7 सेमी. तक बनाये रखें। बालियाँ निकलने के बाद खेत में उथला जल स्तर या खेत को पूर्ण रूप से गीली  या संतृप्त अवस्था में रखा जा सकता है। गभोट की अवस्था से दाना भरने की अवस्था तक भूमि में पानी की कमी नहीं होनी चाहिये। कमी होने पर सिंचाई करें।

कटाई एवं मड़ाई 

धान की विभिन्न किस्में लगभग 100-150 दिन में पक कर तैयार हो  जाती हैं।सामान्यतौर  पर बालियाँ  निकलने के एक माह पश्चात् धान पक जाता है। धान की कटाई का सही समय तब समझना चाहिए जब धान की बालिया पक जाये एवं दाना सख्त़े (दानों  में 20-24 प्रतिशत नमीं )  हो जायें एवं पौधों का कुछ भाग पीला पड़ जाये। दाने अधिक पक जाने पर झड़ने लगते है और उनकी गुणवत्ता में दोष आ जाता है। फसल काटने के 1-2 सप्ताह पूर्व खेत को सुखा लेना चाहिए जिससे पूर्ण फसल एक समान पक जाय। कटाई हँसिये या शक्तिचालित यंत्रों  द्वारा की जाती है। धान के बंडलों को खलियान में सूखने के लिए फैला देते हैं और बैलों द्वारा मडाई करते हैं। तत्पश्चात् पंखे की सहायता से ओसाई  की जाती है। पैर से चलाया जाने वाला जापानी पैडी थ्रेसर का प्रयोग भी किया जाता है। आज कल कंबाइन हारवेस्टर के माध्यम से कटाई व गहाई की जा रही है ।

उपज एंव भंडारण 

अनुकूल मौसम होने  पर एवं सही सस्य विधियों के अनुशरण से  धान की देशी किस्मों से 25-30 क्विण्टल /हे. तथा धान की बौनी उन्नत एवं संकर किस्मों से 50-80 क्विंटल/हे. उपज प्राप्त की जा सकती है। धान को अच्छी तरह धूप में सूखा लेते हैं तथा दानों में 12-13 प्रतिशत नमी स्तर पर बंद स्थानों   (पक्के बीन या बोर  में भरकर) पर भंडारण किया जाना चाहिए।
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बे-मौसमी शाक-सब्जियाँ : स्वास्थ्य के लिए हांनिकारक

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

     फल और तरकारी खाना स्वस्थ्यवर्द्धक माना जाता है, लेकिन वर्तमान खेती पूरी तरह से पौध संरक्षक दवाओं पर निर्भर हो चुकी है । विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत जैसे विकासशील देशों में बाजार से लिए गये नमूनों में से 40-50 प्रतिशत नमूनों में कीटनाशकों के अवशेष पाए गए, जबकि विकसित देशों में यह प्रतिशत 15-20 ही है । सबसे ज्यादा जहर पालक, मैथी जैसी हरी पत्तियों वाली सब्जियों में और उससे कम टमाटर, आलू आदि में पाये गये । हम जानते है कि गोभी, पत्ता गोभी, टमाटर, पालक, मटर, गाजर, मूली आदि सब्जियां मुख्यतः शीत ऋतु की फसलें है और इनका सेवन भी इसी ऋतु में फायदेमंद रहता है । भिंडी, ककड़ी, खीरा,कददू, टिंडा, तरबूज, खरबूजा आदि  कद्दू वर्गीय फसलें ग्रीष्म ऋतु में उगाई जाती है और इनका उपयोग भी इसी ऋतु में सवास्थ्य के लिए लाभकारी माना गया है। वर्षा ऋतु में  बेमौसमी सब्जियां जैसे फूल गोभी, हरी मटर, गाजर, मूली, पालक, मेंथी, धनियां आदि का सेवन हानिकारक हो सकता है।  परन्तु शहरी उपभोक्ता (अधिकांशतः धनाड्य वर्ग) ऐसी बेमौसमी सब्जियों की अक्सर मांग करते है, जो बाजार में प्रायः कम दिखती है और वे महंगी भी होती है । उसकों पाने के लिए वे ज्यादा पैसे भी देते है । कहते है आवश्यकता अविष्कार की जननी है। बे-मौसमी सब्जियों की बढ़ती मांग और इनके विक्रय में अधिक मुनाफे के फेर में अब इन फसलों को पोली-हाउस और ग्रीन हाउस में उगाया जाने लगा है। इनकी उत्पादन लागत (उगाने और पौध सरंक्षण दवाओं के इस्तेमाल से) अधिक आती है परंतु बाजार में ऊंचे दाम मिलने के कारण बहुतेरे किसान इस तकनीक से इनकी खेती करने लगे है। 
               कीट-रोग से अधिक प्रभावित होने वाली इन सब्जियों पर अंधाधुंध कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है । यही नहीं इनकी शीघ्र बढ़वार और जल्दी तैयार करने के लिए भी विविध प्रकार के वृद्धि नियामकों और रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है जो की स्वास्थ्य के लिए बेहद हांनिकारक माने जाते है।  कुछ ऐसे कीटनाशक भी है जैसे मिथाइल पैराथियान और मोनोक्रोटोफॉस  जिनके छिड़काव से सब्जियां चमकीली  और आकर्षक लगती है । भिण्डी, करेला, टिंडा, तोरई आदि  को कॉपर सल्फेट के घोल में डुबाया जाता है, ताकि वह हरी दिखें । तालाबों और जलाशयों से मछली पकड़ना एक श्रमसाध्य कार्य होने के कारण अब  जहरीले रासायनिकों  के छिड़काव से तालाबों  और नदियों से  मछली मारकर पकड़ना आम बात हो गई है । इन मछलियों का सेवन स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है।
               हमारे यहां बैंगन, मूली, मेथी तथा कन्दवर्गीय फसले जैसे प्याज, आलू को बारिश में न खाने की पुरानी मान्यता है । खासकर वैष्णवी व जैन समाज में चातुर्मास के समय  इनका उपभोग । इन सब्जियों में पौध रक्षक रसायनों के अवशेष रहने के  कारण इंसान को  बदहजमी करती है । अंगूर एक नगदी फसल है । इसकी फसल पर बहूत ज्यादा पौध रक्षक तथा पौध सम्वर्द्धकों का छिड़काव किया जाता है । अंगूर को बीज रहित बनाने तथा आवागमन में अधिक दिनों तक ताजा बनाये रखने के लिए पौध रक्षक रसायनों का छिड़काव किया जाता है । सेब में एमीनों एसिड का छिड़काव किया जाता है जो कैंसर जैसे खतरनाक रोग को  आमंत्रित करता है ।इसके अलावा आम,पपीता आदि फलों को पीला करने और उन्हें असमय पकाने के लिए खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल किया जाए रहा है। 
उपरोक्त विषम  परिस्थितियों में हमें अपने खान-पान पर अधिक जागरूक रहने की जरूरत है, अन्यथा चमकदार और आकर्षक फल, सब्जियां और मांस-मछली हमारे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाल सकती है । अतः आइये हम इन खतरनाक हालातों से बचने के उपायों पर विमर्श करें ।
  1. मौसमी सब्जियां ही खाएं : गोभी जैसी रसदार सब्जियों को गर्मी में  कदापि नहीं खाना चाहिए, क्योंकि मौसमी सब्जियों में  प्राकृतिक बढ़वार होती है और वे अधिक पौष्टिक भी होती है तथा बाजार में सस्ती दर पर उपलब्ध होती है ।
  2. सब्जियां ताजी और स्वस्थ हो : शीतगृह में भण्डारित सब्जियों से परहेज करना चाहिए, क्योंकि न तो वे ताजी होती है और न ही वे पौष्टिक रहती है ।
  3. स्थानीय छोटे किसानों द्वारा उगाई गई सब्जियां तरोताजा, पौष्टिक और किफायती होती है अतः इनका ही सेवन करें ।
  4. सब्जियां पानी में धोकर ही खाइए :  पकाने के लिए काटने के पूर्व सब्जियों को 1-2 बार स्वच्छ  पानी में घो लेना चाहिए, ताकि विषैले अवांछित तत्व अलग हो जाएं । पानी में विनेगार डालकर धोना फायदेमंद रहता है। खाने का सोडा डालने से अंगूर भी साफ हो जाते है ।
  5. जैविक पद्धति उगाई  सब्जियां  इस्तेमाल करें: कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से सब्जियों में उपस्थित जहरीले अवशेष मानव शरीर में पहुंच कर नुकसान पहुंचा रहे है । यहीं कारण है कि अब जैविक तरीके से उगाई गई सब्जियों की मांग अधिक हो रही है । इस विधि से उगाई गई सब्जियां एक ओर पौष्टिक तो होती ही है साथ ही स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक पाई गई है । शहरी उपभोक्तओं को चाहिए कि वे अपना स्वयं सेवी संगठन बनाएं । जैविक कृषि उत्पाद क्लब की स्थापना करें और सीधे किसानों से सम्पर्क कर उनसे सब्जियां-फल खरीद कर सदस्य  उपभेक्ताओं तक पहुंचाए । यदि किसानों को अग्रिम आदेश तथा सही मूल्य का भरोसा होगा तो वे जैविक पद्धति से खेती करने अवश्य उत्साहित होंगे। 
  6. अपनी गृह वाटिका में सब्जियां उगाइये : आपके घर में उपलब्ध जमीन में बागवानी करके ताजी-पौष्टिक सब्जियां प्राप्त की जा सकती है । यह कार्य गमलों अथवा मकान की छत पर भी आसानी से किया जा सकता है । घर की बगिया से प्राप्त सब्जियों व फलों का आनंद ही निराला रहता है साथ ही इसमें कार्य करने से व्यायाम भी होगा जो कि शहरी जीवन के लिए आवश्यक है । फल एवं सब्जियों का सेवन स्वास्थ्य व स्वाद की दृष्टि से आवश्यक है बशर्ते इनका सेवन सोच समझ कर किया जाए ।


उद्यानिकी समसामयिकी :चैत्र-वैशाख में उद्यानिकी के प्रमुख शस्य कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़ )

 स्वास्थ्य मनुष्य की अनुपम और अमूल्य निधि है, जिसकी रक्षा करना उसका परम कर्तव्य है। स्वास्थ्य रक्षा में मानव का आहार और स्वास्थ्य वर्धक पर्यावरण होना नितांत आवश्यक है। ये दोनों ही बातें उद्यानिकी प्रबंधन के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। खेती किसानी के साथ-साथ किसान भाई यदि अपना समय, श्रम और थोड़ी से पूँजी  उद्यानिकी में निवेश करें तो निश्चित ही उनकी आमदनी में दो गुना से अधिक की बढ़ोत्तरी हो सकती है।  उद्यानिकी में सब्जियों की खेती से लेकर फल और फूलों की खेती के अलावा  फल एवं सब्जी परिरक्षण कला भी समाहित है।उद्यानिकी में  सामान्य  खेती किसानी से कुछ हटकर अलग शस्य कार्य करना होते है जो कभी कभार हम भूल जाते है। इन कार्यो को यथा समय न कर पाने के कारण उद्यानिकी से यथोचित लाभ नहीं मिल पाता है।  इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उद्यानिकी-बागवानी के प्रतिमाह के कार्यों की संक्षिप्त रूप रेखा अपने कृषिका ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहे है।  आशा के साथ हमें पूर्ण विश्वाश है कि किसान भाई परम्परागत फसलोत्पादन के अलावा थोड़े-बहुत क्षेत्र में उद्यानिकी को अपनाते हुए उसमे वैज्ञानिक तरीके से समसामयिक कार्य संपन्न करते रहेंगे जिससे उन्हें अतिरिक्त आमदनी के साथ-साथ उनके परिवार के लिए वर्ष भर तरो ताजा  हरी-भरी सब्जियां और फल तथा भगवान् की पूजा अर्चना के लिए सुन्दर पुष्प भी प्राप्त हो सकेंगे । इस प्रकार आप सब का तन स्वास्थ्य, मन प्रशन्न और धन-धान्य की अनवरत वर्षा होती रहेगी। उद्यानिकी अपनाने से हमारे आस-पास का पर्यावरण परिष्कृत होगा। आईये हम नव वर्ष के चैत्र-वैसाख में संपन्न किये जाने वाले प्रमुख कार्यो की विवेचना करते है.

                                                       सब्जियों में इस मांह के प्रमुख कार्य  

टमाटरः फसल में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई व सिंचाई करें। फल छेदक नामक कीट के बचाव के लिये क्विनालफाॅस 25 ईसी का 800 मिली. प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें । दवा छिड़काव से पूर्व तैयार फलों को तोड़कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें।
बैंगनः फसल में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई करें। 50 किलोग्राम यूरिया खड़ी फसल में डालें। यूरिया डालते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि यूरिया पत्तियों पर न पड़ने पाये तथा जमीन में इस समय पर्याप्त नमी होनी चाहिये।
प्याजः फसल में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई व सिंचाई करें। इस समय कुछ कीट तथा बीमारियों का भी आक्रमण हो सकता है। अतः 0.2 प्रतिशत मेंकोजेब  तथा 0.15 प्रतिशत मेटासिस्टाक्स का घोल बनाकर एक छिड़काव अवश्य करें।
लहसुनः यदि अभी तक कंदों  की खुदाई नहीं की गई है तो खुदाई करें। तीन दिन तक खेत में ही रहने दें। बाद में छाया में सुखाने की व्यवस्था करें तथा भंडारण करें।
भिन्डी, लोबिया, राजमाः तैयार फलियों को तोड़कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें। बाजार भेजने से पूर्व छटाई अवश्य करें। 
मिर्च, शिमला मिर्चः फसल में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई व सिंचाई करें। तैयार फलों को तोड़कर बाजार भेजें। 50 किलोग्राम यूरिया खड़ी फसल में डालंे। यूरिया पत्तियों पर नहीं पड़ना चाहिये और जमीन में उस समय पर्याप्त नमी होनी चाहिये।
खीरावर्गीय फसलेंः तैयार फलों को तोड़कर बाजार भेजें। फसलों में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई व सिंचाई करें। चूर्णी फफूंदी नामक बीमारी से बचाव के लिये 0.06 प्रतिशत डिन¨क¢प (कैराथेन) नामक दवा का घोल बनाकर एक छिड़काव करें।
अदरक: पूर्व में  रोपी  गई फसल में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई व सिंचाई करें । इस माह भी अदरक की सुप्रभा, सूरूचि और  सुरभी किस्मों  की बुवाई 12-15 क्विंटल  प्रकंद प्रति हैक्टेयर की दर से की जा सकती है। बुवाई कतारों  में 60 सेमी. की दूरी पर करें तथा पौध  से पौध के  बीच 20 सेमी. का अन्तर रखें। प्रति हैक्टेयर 150 किग्रा. नत्रजन, 100 किग्रा. स्फुर एवं 120 किग्रा. पोटाश  उर्वरक  कतारों में प्रयोग करें । बुआई पश्चात हलकी सिंचाई करें। 

                                                             फलोत्पादन में इस माह के प्रमुख कार्य 

  • आमः आम के फलों को  गिरने से बचाने के  लिए यूरिया 2 प्रतिशत घोल  का छिड़काव करें। आम के  फल,फूल व नई कोपलें  चूसने वाले कीट मिली बग/भुनगा कीट  के  नियंत्रण हेतु 500 मिली. मिथाइल पैराथियान 50 ईसी को  500 लीटर पानी में घोलकर वृक्षों  पर छिड़काव करें। आम के फलों  की ब्लेक टिप रोग  से रक्षा हेतु बोरेक्स  0.6 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। एन्थ्रेक्नोज रोग के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम 0.1 % (1 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का 25 दिनों के अंतराल से दो बार छिड़काव करें। फल बनने की अवस्था में  आम के  बाग में  सिंचाई करें।
  • अमरूदः  वर्षात  की फसल नहीं लेना हो तो वृक्षों  में सिंचाई नहीं करें तथा पुष्पों को तोड़  दें। पेड़ों की कटाई-छंटाई का कार्य करें।
  • नींबूः नींबू के   एक वर्ष के पौधों में 2 किग्रा. कम्पोस्ट या केंचुआ  खाद के  साथ 50 ग्राम यूरिया प्रति  पौधा के  हिसाब से देकर सिंचाई करें। अन्य पौधों  की आयु के  हिसाब से खाद की मात्रा का गुणा कर दिया जा सकता है।नींबू में सफ़ेद  मक्खी और  लीफ माइनर कीट का प्रकोप होने  पर 300 मिली. मैलाथियान 50 ईसी दवा क¨ 500 लीटर पानी में मिलकर पौधों  पर छिड़काव करे। फल गलन रोग  से सुरक्षा हेतु बोर्डो मिक्सचर  (4:4:50) का छिड़काव करें। जिंक की कमीं होने  पर 3 किग्रा. जिंक सल्फेट के साथ  1.5 किग्रा. बुझा चूना मिलाकर 500 लीटर पानी में घोलकर  छिड़काव कर सकते है।
  • अंगूर: थ्रिप्स कीट की रोकथाम के लिए मैलाथियान  (0.2 प्रतिशत) और चूर्णिल आसिता रोग हेतु कैराथेन (0.06 प्रतिशत) का छिड़काव करें। बाग में 15 दिन के अंतर पर दो सिंचाई करें।
  • पपीताः  पके फलों को तोड़कर बाजार भेजें। पौधशाला में पपीते के उन्नत किस्मों के  बीजों की बोआई करें।
  • बेरः चोटी कलम के लिए पेड़ों को 1 मीटर ऊंचाई से काट दें। फलदार वृक्षों की फसल तोड़ने के बाद कटाई-छंटाई करें।
  • लीची: बाग की 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें। छोटी पत्ती रोग की रोकथाम हेतु जिंक सल्फेट (0.5 प्रतिशत) का छिड़काव करें। इसी माह फल बनने के बाद प्लेनोफिक्स (एन.ए.ए.) 50 पी.पी.एम. (5 ग्राम) व् बोरेक्स 0.4 % (400 ग्राम) प्रति 100 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करने से लीची में फलों का झड़ना व फटना रुक जाता है।  इससे उत्तम गुणवत्ता के फल प्राप्त होते है। 
  • आंवला: बाग में 15 दिन के अंतर पर दो सिंचाई करें। पके फलों की तुड़ाई करें। पौधशाला में बीजों की बुआई करें।
  • कटहलः  कटहल के  वृक्षों  पर बोरेक्स (0.8 प्रतिशत) का छिड़काव करें। कटहल के बाग में 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहें ।
  • फालसाः बाग की सफाई करके एक सिंचाई करें। पके फलों को तोड़कर बाजार भेजें।
  • फल सब्जी  परिरक्षणः बाजार में उपलब्ध मोसम्मी, आम, अंगूर,संतरा, बेल  तथा नींबू के रस से विभिन्न पेय पदार्थ बनाये जा सकते है। टमाटर से चटनी, अचार, सॉस, स्ट्राबेरी से जैम तथा कार्डियल बनाया जा सकता है।  शहतूत का स्क्वैश बनाया जा सकता है तथा  पपीते के उत्पाद बना सकते है।

                                                      पुष्पोत्पादन  में इस माह

  • गुलाब में आवश्यकतानुसार क्यारियों की गुड़ाई, सिंचाई तथा बेकार फुनगियों की तुड़ाई। दशिमिक रोज में फूलों की तुड़ाई एवं प्रोसेसिंग हेतु शीघ्र निपटान की व्यवस्था करें ।
  • ग्लैडियोलस के स्पाइक काटने के 40 दिन बाद घनकन्दों की खुदाई छाये में सुखाना, सफाई, ग्रेडिंग के बाद 5 प्रतिशत एलसान धूल तथा 0.2 प्रतिशत मैकोजेब पाउडर से शुष्क उपचारित कर उसी दिन शीतगृह में भण्डारित करें । इसमें देर न करें अन्यथा कन्द सड़ जायेंगे। 
  • रजनीगन्धा में एक सप्ताह के अन्दर पर सिंचाई तथा निराई-गुड़ाई संपन्न करें। 

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।