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शनिवार, 1 अप्रैल 2017

अरण्डी की हरियाली शुष्क और गर्म क्षेत्रों में लाएँ खुशहाली

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                       भारत की प्राचीनतम फसलो में एरण्ड यानि अरण्डी (रिसिनस कोम्यूनिस) का नाम दर्ज है जिसके पौधो को  यूफोरबियेसी कुल में सम्मलितकिया गया  है।  औद्योगिक दृष्टि से उगाई जाने वाली तिलहनी फसलों में अरण्डी  एक महत्वपूर्ण फसल है। इसके  बीज में तेल की मात्रा 45 से 60 प्रतिशत तक होती है। इसका  तेल निम्न ताप पर जमता नहीं है तथा अधिक समय तक रचाने पर सूखता भी नहीं। मशीनों में प्रयोग होने वाले स्नेहक तेलों का निर्माण इसके बिना पूर्ण नहीं हो पाता। अरण्डी/अण्डी तेल का उपयोग दवाई, साबुन निर्माण, पेन्ट, वार्निश आदि बनाने में किया जाता है इसके अतिरिक्त प्लास्टिक या नायलोन के कारखानों में इसके तेल की माँग अधिक है। कपड़ा रंगाई के उद्योग में कामआने वाला यौगिक जिसे टर्की लाल तेल कहते हैं, इससे बनाया जाता है। पेट साफ करने हेतु जुलाब के रूप में अण्डी के तेल का प्रयोग किया जाता है। भारत से प्रतिवर्ष अण्डी के तेल तथा बीजों का निर्यात किया जाता  है। इसके बीज में  सबसे अधिक (लगभग 80 प्रतिशत) मात्रा में  रेसीनोलिक एसिड नामक हाइड्रोक्सी  वसीय अम्ल पाया जाता है। अन्तर्राष्टीय बाजार में माँग होने के कारण इसका तेल निर्यात करके विदेशी मुद्रा भी प्राप्त की जा रही है। अंडी की खली में रिसिन नामक विष होने के कारण यह पशुओं को खिलाने के लिए अनुपयुक्त है। परन्तु खाद के रूप में इसका प्रयोग लाभकारी पाया गया है क्योंकि इसकी खल्ली में 5-6 प्रतिशत नत्रजन, 1.5 प्रतिशत स्फुर एंव 1.3 प्रतिशत पोटाश  पाया जाता है । 
अण्डी के सूखे पौधों का उपयोग ईधन तथा छप्पर आदि के निर्माण में होता है। इसकी लुगदी का प्रयोग सेल्यूलोज व कार्ड बोर्ड तैयार करने के लिए भी किया जाता है। अण्डी के  पौधों की  हरी पत्तियों का प्रयोग रेशम कीट पालन के लिए भी किया जाता है। विश्व में क्षेत्र एंव उत्पादन की दृष्टि से भारत का प्रथम स्थान है। भारत में अण्डी की खेती  प्रमुख रूप से गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडू आदि राज्यो में की जाती है।  गत वर्ष  भारत में, 732.2 हजार हेक्टेयर में अण्डी की खेती की गई जिससे 1094 किग्रा. के मान से  801 हजार टन उत्पादन प्राप्त हुआ।  छत्तीसगढ़  में इसकी खेती घर की बाड़ी, नदी, नालों के कछार में सीमित क्षेत्र में की जाती है। आज कल अरण्डी फसल की शीघ्र तैयार होकर अधिक उपज देने वाली  उन्नत और संकर किस्में उपलब्ध है जिनके प्रमाणित किस्म के बीजों की खेती आधुनिक तरीके से की जाय तो इस फसल से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन और आमदनी प्राप्त की जा सकती है।  अरण्डी फसल की नवीन उत्पादन तकनीक इस ब्लॉग में प्रस्तुत है।
   

उपयुक्त जलवायु में करें खेती 

            अण्डी सूखा सहन करने वाली फसल है। इसकी खेती अपेक्षाकृत शुष्क तथा गर्म भागों में की जा सकती है, जहाँ 50 से 75 से.मी तक वार्षिक वर्षा समुचित वितरण के साथ होती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है और इसका स्वभाव बहुवर्षीय हो जाता है। अण्डी की विभिन्न अवस्थाओं में 18-380 से.तापमान उपयुक्त रहता है। कम तापमान(150 से. नीचे) पर बीज  अंकुरण कम होता है। पौध वृद्धि के समय तथा बीज पकने के समय उच्च तापक्रम तथा पौधों पर फूल आते समय अपेक्षाकृत कम तापक्रम की आवश्यकता होती है। यह लम्बे दिन वाला पौधा है। इसकी खेती खरीफ में की जाती है परन्तु शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत व संकर किस्मों के आगमन से इसे रबी एंव ग्रीष्मकाल में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

            अण्डी को सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है परन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम  रहती है। उत्तरी भारत की हल्की जलोढ़ तथा दक्षिणी भारत की लाल मिट्टियों  में अण्डी की खेती  सुगमता से की जा सकती है। उत्तम फसल के लिए खेती की मिटटी  का पी.एच.मान-5-6.5 उपयुक्त रहता है। इस फसल के लिए अचछे जल निकास वाली छत्तीसगढ़ की डोरसा एंव कन्हार भरी भूमि उपयुक्त रहती है।
            अण्डी की जड़े भूमि में गहराई तक जाती हैं। अतः ग्रीष्मकाल में 25 से.मी. की गहराई तक खेत की जुताई करना लाभदायक रहता है। खेत को नींदा रहित एंव भुरभुरा होना आवश्यक है। मानसून प्रारंभ होते ही दो तीन बार खेत को समतल बना लेना चाहिए। मटियार दोमट भूमि में ब्लैड हैरो से 2-3 बार जुताई कर देने से मिट्टि की भौतिक दशा अच्छी हो जाती है।

बोआई का सही समय

            अण्डी की बोआई प्रायः जून-जुलाई में बोई जाती है। कुछ स्थानों पर अगस्त-सितम्बर में भी बोनी की जाती है। मानसून प्रारंभ होते ही इसकी बुवाई (20 जून से 5 जुलाई) करें अथवा शीघ्र पकने वाली खरीफ फसल कटने के बाद सितंबर-अक्टूबर माह (रबी) में बुवाई की जा सकती है। ग्रीष्मकाल में इसकी बोनी जनवरी-फरवरी में की जाती है।

उन्नत किस्में

            अण्डी की देशी किसमे देर से तैयार होती है और उत्पादन भी कम देती है।  अतः इस  फसल से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत तथा संकर किस्मों के बीज का प्रयोग करना चाहिए। छोटे बीज वाली किस्मों में तेल की मात्रा अधिक पाई जाती है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के लिए अण्डी की उन्नत किस्में निम्नानुसार हैं -
उत्तरप्रदेश: टा-3, तराई-4, कालपी-6, पंजाब अण्डी-1
आन्ध्रप्रदेश: अरूणा भाग्य, सौभाग्य
हरियाणा: सीएच-1, पंजाब अण्डी-1, जीसीएच-3, एचसी-6
मध्यप्रदेश एंव छत्तीसगढ़: क्रांति, ज्वाला, ज्योति, डीसीएच-177 (दीपक), जीएयूसीएच-1150, जीसीएच-4, डीसीएच-32

अरण्डी की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ

किस्में                            अवधि              उपज                 तेल       विशेष गुण
                                    (दिन में)            (कु./हे.)              (%) 
उन्नत किस्में      
क्रांति                             130-150         16-18              50.0    उकठा सहनशील
ज्वाला (48-1)                   140-160          16-18              40.8     बिना काँटे वाली किस्म
ज्योति                           140-160         14-16              49.0    उकठा रोग के लिये प्रतिरोधक
संकर अरण्डी 
डी.सी.एच.-177              150-180         15-18              49.0      उकठा निरोधी 
जी.सी.एच.-4                   140-160          16-18              48.5    उकठा सहनशील
जी.सी.एच.-5                 150-160         18-28              50.0    उकठा सहनशील                 
डी.सी.एच.-32                 140- 160          18-20              49.0    उकठा सहनशील
जी.ए.यू.सी.एच.-150        150-160          14-16              47.0    काँटेदार संकर किस्म

बांक्षित पौध संख्या के लिए सही बीज दर

            बुआई के लिए स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिए एंव बुआई से पहले बीज को फफूँदनाशक दवा थायरम या डायथेन एम-45 से 3 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपचारित करना चाहिए। शुद्ध फसल के लिए 10-12 किग्रा. व मिश्रित फसल के लिए 3-5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज उपयुक्त  रहता है। वर्षा आधारित खेती हेतु 55 हजार पौध संख्या रखना जरूरी होता है। परन्तु देर से पकने वाली किस्मों की मिश्रित अवस्था में खेती हेतु वांछित पौध संख्या 18500 प्रति हे. (5-6 कि.ग्रा./हे. बीज दर) रखना चाहिए। बीज को 12-18 घन्टे तक पानी में भिगोकर बोने से अंकुरण एक सार होता है परन्तु ऐसी दशा में भूमि में उचित नमी का होना आावश्यक है।

बोआई की विधि

            बुआई की छिटकवाँ पद्धति की वजाय अरण्डी की बुआई कतारों में नारी हल द्वारा अथवा हल के पीछे कूँड़ में बीज डालकर करना चाहिए। असिंचित अवस्था में शीघ्र एंव मध्यम अवधि में पकने वाली उन्नत/संकर किस्मों के लिए 9020 से.मी. पौध अंतरण तथा देर से पकने वाली उन्नत/संकर किस्मों के लिए कतारों के मध्य 90 से.मी. और पौधों के मध्य 60 से.मी. की दूरी उपयुक्त रहती है। सिंचित क्षेत्रों में संकर किस्मों के लिए कतारों के मध्य 90 से.मी. तथा पौधों के बीच 60 से.मी. की दूरी रखी जाती है।

उत्तम उपज के लिए  संतुलित मात्रा में  खाद एंव उर्वरक

            गोबर की खाद 10-12 टन प्रति हेक्टेयर जुताई के समय अच्छी तरह मिट्टी में मिला देने से अण्डी के बीज में तेल की मात्रा व गुणवत्ता में सुधार होता है। अण्डी की अच्छी उपज के लिए असिंचित अवस्था में 40 कि.ग्रा. नत्रजन एंव 20 कि.ग्रा. स्फुर और 20 कि.ग्रा. पोटाश  तथा सिंचित अवस्था में 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. स्फुर और 20 कि.ग्रा. पोटाश  का उपयोग प्रति हे. करना चाहिए। असिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा (20 किलो) तथा स्फुर एंव पोटाॅश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कुँड़ में डालना चाहिए। शेष नत्रजन की मात्रा नमी उपलब्ध होने पर 35 से 40 दिन में डालें। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा (30 कि. ग्रा.) एंव स्फुर व पोटाश  की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष नत्रजन की मात्रा का एक तिहाई भाग प्रत्येक तुड़ाई (पिकिंग) के बाद डालें।नत्रजन धारी उर्वरक को कतार में 5-7 से.मी. गहराई पर बीज से दूर देना लाभकारी रहता है। फॉस्फोरस को सिंगल सुपर फॉस्फेट  के रूप में देने से फसल को फॉस्फोरस  के अलावा सल्फर व कैल्सियम तत्व  भी फसल को  प्राप्त हो जाता है।

जरूरी है खरपतवार नियंत्रण 

            अण्डी की फसल को प्रारंभिक अवस्था (बोआई के 44-60 दिन) में खरपतवार मुक्त रखना आवश्यक है। खरपतवारों प्रकोप से फसल को बचाने हेतु बोआई के 15-20 दिन पश्चात् एक निकाई-गुड़ाई अवश्यक करना चाहिए। इसके बाद 1-2 निकाई-गुडाई की आवश्यकता पड़ती है जब तक कि अण्डी के पौधे लगभग 1 मीटर ऊँचे होकर पंक्तियों के मध्य रिक्त स्थान केा आच्छादित नहीं कर लेते है। निकाई-गुड़ाई का कार्य पंक्तियों के मध्य देशी हल या ब्लेड  हैरो से करना सर्वोत्तम रहता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरालिन 1 कि.ग्रा. या ऐलाक्लोर 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हे. की दर से बुवाई के पूर्व नमीयुक्त भूमि में अच्छी तरह छिड़क देने से खरपतवार नियंत्रण में रहते है। मुख्य तने पर उपस्थित सभी ओक्सिलरी  कलिकाओं की खुटाई करने से फसल की अवधि कम होने के साथ-साथ उपज में भी वृद्धि  होती है।

समय पर करे सिंचाई

            आमतौर पर अरण्डी की खेती असिंचित परिस्थितियों में की जाती है।  परंतु अण्डी की बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है। वर्षा के आभाव में  फसल में तीन से चार सिंचाई करें। पहली सिंचाई 55 दिन के आसपास या फूल आने के समय तत्पश्चात अन्य सिंचाई 20 दिन के अंतराल में देते  रहें। इसकी जडे़ भूमि की अधिक गहराई से भी नमी का शोषण करती है अतः अण्डी की खेती असिंचित क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। अण्डी की रबी व ग्रीष्मकालीन फसल में मिट्टि के प्रकार व मौसम के अनुसार 3-4 सिंचाई देना चाहिए। अधिक वर्षा के समय खेत से जल निकास की पर्याप्त सुविधा होना आवश्यक है।

फसल पद्धति

            अण्डी की फसल को आमतौर पर मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। खरीफ की फसल को सोयाबीन, उड़द, मूँग, लोबिया, गुआरफली  एंव अरहर के साथ तथा रबी में चना, मटर, आलू, सूर्यमुखी के साथ बोया जाता है। उक्त फसलों के साथ अण्डी की अन्तर्वर्तीय खेती करना लाभदायक पाया गया है। अण्डी की शुद्ध फसल के बाद  सिंचित क्षेत्रों में गेंहू, चना, अलसी आदि की फसलें ली जा सकती हैं।

उचित समय पर हो कटाई-गहाई

            अण्डी की फसल में बोने के लगभग 60-70 दिन में फूल आ जाते हैं जो कि 2-3 माह तक लगातार आते रहते हैं। इसकी फसल एक साथ नही पकती है। प्रायः प्रधान फलों के गुच्छे बोने के लगभग 90-110 दिन पश्चात्  पक जाते हैं। जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक बोई गई फसल की प्रथम तुड़ाई दिसम्बर या जनवरी के प्रथम सप्ताह तक होती है। इसके पश्चात् 20 दिन के अन्तराल पर अन्य 2-3 तुड़ाइयाँ की जाती है। अधिक पकने पर संपुट फटने लगते है जिससे बीज खेत में बिखेर जाते हैं। पूर्णतया पकने के पहले शाखाओं को तोड़ लेने से बहुत से संपुट कच्चे रह जाते हैं जिससे उपज घट जाती है। गैर चिटकने वाली किस्मों की तुड़ाई पूर्ण रूप से पकने के पश्चात् करनी  चाहिए। अण्डी की फसल 5-6  माह में तैयार हो जाती है।
            फलों के गुच्छे काटने के पश्चात् धूप में अच्छी तरह (बीज का छिलका काला पड़ने तक) सुखाया जाता है। इसके पश्चात् डंडों से पीटकर बीज अलग कर लिया जाता है। बीज निकालने के लिए शैलर यन्त्र का भी प्रयोग किया जाता है। मड़ाई के बाद दानों और छलकों को साफ करके अलग कर लिया जाता है। अण्डी के बीज और छिलके का अनुपात लगभग 50-59 प्रतिशत तक होता है।

उपज एंव भंडारण


            अण्डी की उपज उसकी किस्म तथा बोने की परिस्थिति पर निर्भर करती है। अच्छी प्रकार उगाई गई फसल से 8-10 कुंटल/हेक्टेयर तक बीज प्राप्त हो जाते हैं। इसकी उन्नत या संकर किस्मों से 15-20 कुंटल/हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है। असिंचित अवस्था 4 से 6 कुंटल/हेक्टेयर तथा मिश्रित फसल से 2-3 कुंटल/हेक्टेयर  तक उपज प्राप्त होती है। अच्छी प्रकार से सुखाये हुए बीजों को बोरों या बाँस की टोंकरियों में भरकर भंडार गृह में रखते हैं। बीच का आवरण कड़ा होने के कारण इसको बिना किसी क्षति के 3 वर्ष तक भंडारित किया जा सकता है। इसके तेल को वर्षभर तक भंडारित किया जा सकता है। भंडारित करते समय बीज में नमी की मात्रा अधिक होने से तेल की मात्रा में काफी ह्यस होता है।
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