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रविवार, 23 अप्रैल 2017

भारत में भू-सम्पदा का क्षरण: समझें कारण और करें निवारण

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहनी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, 
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)  

भारत की अधिकांश भू-सम्पदा में भू-क्षरण के निरंतर स्पष्ट लक्षण परिलक्षित हो रहे है जिसके कारण देश में खाद्यान्न उत्पादन और गरीबी उन्मूलन  क्षमताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है। यह हम सब के लिए सबसे बुरी और भयावह खबर है। देश में स्थित बारानी भूमि (65%) के उत्पादन लगातार गिरावट आ रही है। सिंचित क्षेत्रों में  खाद्यान्न उत्पादन टिकाऊ बनाये रखने में  भी भू-क्षरण बहुत बड़ी बाधा है। भू-रक्षण  से प्रतिवर्ष हमारे देश की हजारों हेक्टर भूमि नष्ट होती जा रही है । अनुमान है की भारत में लगभग 146.8 मिलियन भूमि विभिन कारणों (मृदा अपरदन, क्षारीयता, लवणीयता, जल भराव आदि) से प्रभावित है।  इस ब्लॉग में हम जल और वायु से होने वाले मृदा क्षरण पर चर्चा कर रहे है। भारत की भू-सम्पदा सबसे अधिक  मृदा कटाव से प्रभावित है जो हमारी उर्वरा और उपजाऊ मिट्टीओं के लिए सबसे भयानक खतरा है ।जब प्राकृतिक वनस्पति अधिक होती है तो वे हवा एवं जल के वेग को कम कर देती है जिससे मिट्टी कटाव की क्रिया धीमी पड़ जाती है और  मिट्टी के नव-निर्माण तथा क्षति में सामंजस्य स्थापित हो जाता है।  इस अवस्था में होने वाली भू-क्षरण को सामान्य या प्राकृतिक अपरदन कहते हैं । जब  भूमि की सतह पर प्राकृतिक वनस्पति नहीं रहती है या मनुष्य प्राकृतिक वनस्पति को काटकर  कृषि कार्य करने लगता है तब मिट्टी के कटाव की गति बहुत अधिक बढ़ जाती है । गतिशील जल या वायु अबाद रूप से मिट्टी को पृथक करके स्थानान्तरित करते हैं । इस क्रिया को त्वरित अपरदन  या अपरदन कहते हैं । मिट्टी के ऊपर सतह का कटाव मुख्यतः दो प्रकार से होता है :
1. वायु अपरदन:  वायु अपरदन में खेतों के बारीक मृदा कण हवा के साथ उड़ जाते है और पीछे घटिया मिट्टी ही बचती है। उडी हुई मिट्टी जिन स्थानों पर जाकर बैठती है वहां की उपजाऊ मिट्टी रेतीले कणों से पट जाती है जिससे  भूमि कम उपजाऊ हो जाती है ।  भारत के  शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों  में  मृदा क्षरण का  मुख्य कारण वायु अपरदन ही है। वायु अपरदन से पेड़ पौधे ढँक जाते है और उनका उत्पादन घट जाता है, साथ ही अनेकों नागरिक सुविधाएं भी बाधित होती है। वायु अपरदन से देश की लगभग 9.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है। 
2. जल अपरदन: मिट्टी पर जोर से पड़ने वाली वर्षा की बूँदें तथा तेज बहने वाला पानी भूमि की ऊपरी उपजाऊ परत को अपने साथ बहाकर ले जाते हैं । इसे जल अपरदन कहते है।  भू-क्षरण प्रक्रियाओं में जल अपरदन प्रमुख है। ऊपरी मृदा के ह्रास अथवा भू-विरूपण के कारण भूमि की उत्पादन क्षमता घटती है। अनुमान है की जल अपरदन से सर्वाधिक 93.7 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है। 

मृदा अपरदन के प्रकार

(अ)जल द्वारा भूमि कटाव

        जल के द्वारा सबसे अधिक भू-क्षरण होता है । जल द्वारा निम्नलिखित सात प्रकार का भू-कटाव होता है -
(i)छींट कटाव: जब वर्षा की बूँदें भूमि की सतह पर गिरती हैं तो मिट्टी के कण मिट्टी समूह  से अलग होकर दूर चले जाते हैं।
(ii)परत दार भू-क्षरण: किसी भूमि से मिट्टी की पतली परतों के समान रूप से हटने को ‘‘परतदार भू-कटाव’’ कहते हैं । परतदार अपरदन के कारण भूमि की ऊपरी सतह से उपजाऊ मिट्टी बहकर निकल जाती है तथा कम उर्वर मिट्टी आ जाती है ।
(iii)नालीदार भू-कटाव: भू-पृष्ठ पर प्रभावित होने वाले जल की कटाव शक्ति बढ़ जाने से भूमि की सतह पर पतली नलिकाएँ बनने लगती हैं जिसे ‘‘नालीदार कटाव’’ कहते हैं । परतदार कटाव के बाद अधिक वर्षा होने से नालीदार कटाव शुरू होती है । यह भू-कटाव ढालदार भूमि तथा परती भूमि में अधिक होता है ।
(iv)नालेदार कटाव: जब एक ही स्थान पर नलिकाओं में अपवाह जल  तेजी से बहने लगते हैं तो गहरे नाले बन जाते हैं इस प्रकार के कटाव को ‘‘नालेदार कटाव’’ कहते हैं । इस कटाव में भूमि इतनी गहराई एवं चैड़ाई में जाती है कि उसको सुधारकर कृषियोग्य भूमि में परवर्तित  करने के लिए अधिक श्रम, समय तथा धन व्यय करना पड़ता है ।मध्यप्रदेशराजस्थान तथा उत्तरप्रदेश के राज्यों में यमुना तथा चम्बल नदियों के किनारे 3 फीट से 50 फीट गहराई की खाईया/गड्ढे   देखने को मिलते है जो की नालेदार कटाव के उदाहरण हैं ।
(v)सरकन कटाव: पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन के द्वारा मिट्टी के बढ़े ढेले अथवा चट्टानें खिसककर नीचे गिर जाती हैं । इस प्रकार के कटाव को ‘‘सरकन कटाव’’ कहते हैं । भू-कटाव भूकम्प  के कारण भी होता है ।
(vi)नदी-नालों के किनारे होनेवाला भू-क्षरण: नदियों तथा नालों में पानी की मात्रा अधिक बढ़ जाने पर पानी अपना रास्ता बदल लेता है । बाढ़ के समय इस प्रकार की क्षति और अधिक हो जाती है । पानी तेज धारा के साथ मिट्टी चट्टानों के टुकड़े, कंकड़ इत्यादि बहकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुॅच जाते है । बिहार राज्य में कोशी नदी ने 100 वर्ष में पश्चिम दिशा में 65 मील का रास्ता बदल लिया है ।
(vii)समुद्रतटीय भू-क्षरण: समुद्री जल की जहरें किनारे की मिट्टी को काटते रहते हैं । इस प्रकार भू-क्षरण हवा तथा जल के संयुक्त क्रिया द्वारा होता है । तामिलनाडू तथा केरल राज्यों में इस प्रकार का अपरदन मिलता है ।

(ब)वायु द्वारा भू-क्षरण

               तेज वायु द्वारा मिट्टी के महीन कण, बालू इत्यादि उड़कर दूर चले जाते हैं । जहा धरती वनस्पति रहित होती है तथा जलवायु शुष्क होता है । वहा पवनीय अपरदन अधिक होता है । जब घासों को हटाकर भूमि की जुताई-गुड़ाई करके खेती योग्य बनाते हैं तब कार्बनिक पदार्थ की मात्रा काफी कम हो जाती है । जड़ों की बन्धन-सामथ्र्य कम हो जाती है तथा मृदा कणों को बाधकर रखने वाली शक्ति भी घट जाती है । शुष्क मौसम रहने पर मृदा एक सूखे पाउडर के चूर्ण समान हो जाती हैं जिसे तेज बहने वाली हवा उड़ाकर दूर ले जाती है । वायु द्वारा मृदा कटाव में निम्नलिखित क्रियायें शामिल हैं:
(i)सतह विसर्पण: इस क्रिया में कण जिनका आकार 0.5 से 1.5 मि.मि. तक होता है हवा के झोकों से भूमि की सतह पर रेंग कर एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित हो जाते है ।
(ii)उत्परिवर्तन: इस क्रिया में मुख्यतः 0.05 से 0.5 मि.मि. आकार वाले कण प्रभावित होते हैं । जब हवा का सीधा दबाव मृदा कणों पर पड़ता है तो मृदा कण अपने से ऊपर की ओर छिटकने लगते हैं तथा दूसरे जगह गिर जाते हैं । जिस स्थान पर मृदा कण गिरते हैं वहाँ के कणों को छिटका देते हैं ।
(iii)निलम्बन: इस क्रिया में मृदा कण जो आकार में बहुत छोटे होते हैं, वायु के द्वारा वातावरण में लटकते रहते हैं और सैकड़ों किलोमीटर तक स्थानान्तरित हो सकते हैं ।
भूमि-क्षरण के कारण
1.प्राकृतिक वनस्पति का सफाया: मनुष्य अपनी आवश्यकता के लिए वनों को काटता है तथा चारागाहों में उसकी क्षमता से अधिक पशुओं को चराने से वनस्पति नष्ट हो जाती है । इस प्रकार, वर्षा-जल भूमि के सीधे सम्पर्क में आता है और उसकी जल अवशोषण क्षमता कम हो जाती है । पानी तेजी के साथ खाली भूमि पर बहने लगता है जिस कारण भू-क्षरण तेजी से होता है ।
2.दोषयुक्त कृषि क्रियायें: अवैज्ञानिक ढंग से खेती जैसे, ढाल की दिशा में जुताई-गुड़ाई करना, अपरदन को बढ़ावा देनेवाली फसलों (धान,ज्वार, बाजरा, गेंहू, गन्ना, कपास आदि) की लगातार खेती, गलत ढंग से सिंचाई  (बाढ़ विधि)  आदि  कृषि कार्यों से  भू-क्षरण को बढ़ावा मिलता है ।
3.चलती - फिरती खेती: इस प्रकार की खेती में वनों को काटकर खाली की गयी भूमि पर खेती की जाती है । यह उपजाऊ भूमि दो-चार साल में अनुपजाऊ हो जाती है । ऐसी दशा में बाध्य होकर उस भूमि को छोड़कर दूसरे वनों को काटकर साफ किया गया जाता है और उस पर खेती की जाती है । इस प्रकार की खेती के कारण भू-क्षरण अधिक होता है ।

भू-क्षरण से हानियाँ

1. मिट्टी की हानि: भू-क्षरण के द्वारा मिट्टी की हानि सबसे अधिक होती है। ज्ञात हो कि एक से.मी. मृदा-परत के निर्माण में प्रकृति को सैकड़ों वर्ष का समय लग जाता है ।  मृदा-प्रबन्ध में असावधानी/लापरवाही बरतने से 15 से.मी. मृदा की ऊपरी परत  कुछ ही वर्षो में नष्ट हो सकती  है  परिणामस्वरूप फसलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।  
2.अपवाह के रूप में जल की हांनि:भू-क्षरण वाले क्षेत्रों में पानी की गति तीव्र हो जाती है और भूमि उसे अवशोषित नहीं कर पाती है। इस प्रकार, जल की बर्बादी होती है । एक अनुमान के अनुसार भू-क्षरण वाले क्षेत्र में वर्षा जल का 45 से 80 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाता है ।
3.पोषक तत्वों की क्षति: मृदा सतह  जिसमें पोषक तत्व और कार्बनिक पदार्थ तथा  ह्यूमस होता हैं, भू-क्षरण के कारण नष्ट हो जाते हैं । परीक्षणों से पता चलता है कि प्रति हेक्टर 125  किलो नाइट्रोजन, 130 किलो फॉस्फोरस तथा 120  किलो पोटाश प्रति वर्ष की क्षति भू-क्षरण के कारण होती है ।
4.फसल की उपज पर प्रभाव: भू-क्षरण के कारण भूमि की उपजाऊ मिट्टी नष्ट हो  जाने के कारण फसल की पैदावार कम हो जाती है ।
5.कृषि योग्य भूमि पर बालू, बजरी आदि का संचित होना: भू-क्षरण के द्वारा दूसरे स्थान की बालू, बजरी आदि आकर  कृषि योग्य उपजाऊ भूमि के ऊपर जमा हो जाती है जिससे कृषि  भूमि खेती के योग्य नहीं रह जाती है ।
6.कृषि क्रियाओं में बाधा: भू-अपरदन के कारण भूमि की सतह पर नालियाँ बन जाती हैं । जिससे जुताई, निराई, गुड़ाई और फसलों की कटाई आदि कार्यों में मशीनों तथा कृषि उपकरणों  का इस्तेमाल  करना कठिन हो जाता है ।
7.जलाश, जल-मार्ग, झील तथा बन्दरगाहों में सिल्ट का जमा होना: पानी द्वारा बहाकर लायी गयी मिट्टी के कण प्राकृतिक जल निकासों में भर जाते हैं जिससे पानी का निकास ठीक प्रकार से नहीं होने से जल भराव की स्थिति पैदा हो जाती है । इसके अलावा नदियों, नालों, जलाशयों इत्यादि में मिट्टी के कण जमा हो जाते हैं । जिससे नदियां  उथली हो जाती हैं तथा वे अपना रास्ता बदल देती हैं । वर्षा ऋतु में बाढ़ और बाकी दिनों में सूखे के आसार बढ़ जाते है। 
8.याताया पर प्रभाव: जल अपने मार्ग में आनेवाली रेल की पटरियों तथा सड़कों को भी नष्ट कर देता  है । भू-कटाव द्वारा नदी-नालों में बालू, सिल्ट इत्यादि धीरे-धीरे संचित होने से बाढ़ आ जाती है जिससे नाव चलाना तथा बन्दरगाह में जहाज का आना-जाना असम्भव हो जाता है ।
9.आर्थिक स्थिति पर प्रभाव: भू-क्षरण के द्वारा कृषि योग्य भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो जाती है और शेष प्रभाति भूमिओं में फसलों की पैदावार घट जाती है । भू-क्षरण से प्रभावित भूमि का मूल्य भी गिर जाता है । अतः कृषकों की आर्थिक  दशा बिगड़ जाती है जिसका सीधा  प्रभाव समाज के अन्य वर्गों और राष्ट्रिय अर्थव्यवस्था पर पड़ता है ।

भू-संरक्षण के आधुनिक उपाय

भारत की तेजी से बढ़ती जनसँख्या के भरण पोषण के लिए भू-सम्पदा को बचाने और उसे सरंक्षित करने के लिए विशेष उपाय किये जाने की महती आवश्यकता है। भू-सम्पदा बचाने के लिए एक तरफ तो मृदा क्षरण रोकने के उपाय करने होंगे तो दूसरी तरफ मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को बरक़रार रखने की भी अहम् आवश्यकता है। स्वस्थ और उर्वर भूमि से ही मानव मात्र का कल्याण हो सकता है। आंकड़ों पर गौर करें तो विश्व की कुल भूमि का अमूमन 2.5 फीसदी हिस्सा भारत के पास है जिस पर दुनियाँ की 17 फीसदी आबादी के भरण पोषण के जिम्मेदारी है।  देश की जनसँख्या वर्ष 2050 तक तकरीबन 61 करोड़ 38 लाख से अधिक होने का अनुमान है जिसके भरण पोषण के लिए अतिरिक्त कृषि भूमि लाये जाने की कोई सम्भावना नहीं है।  अतः मौजदा कृषि भूमि की उत्पादकता बढाए जाने तथा उर्वर कृषि भूमि के क्षरण को रोकने के आवश्यक कदम उठाये जाने की जरूरत है। भू-क्षरण अथवा मृदा क्षरण  को रोकने को ही मृदा यानि भूमि संरक्षण कहते हैं । भू-क्षरण की रोकथाम के उपायों को प्रमुख दो भागों अर्थात  जैविक एवं यांत्रिक विधियों  में विभाजित किया गया  है, जिनका विवरण अग्र प्रस्तुत है। 
(अ)जैविक विधियाँ :  इस विधि को दो उपवर्गो  यथा सस्य संबंधी विधियाँ  और वनरोपण तथा घास रोपण विधियाँ में विभाजित किया गया है  जिनका विवरण यहाँ प्रस्तुत है। 
(क)सस्य संबंधी विधियाँ
 1.समोच्च कृषि :  कृषि की सभी क्रियाएं  जैसे जुताई, निराई-गुड़ाई, सिंचाई के लिए नालियाँ बनाना, बोआई आदि ढाल के आड़े, तिरछे कण्टूर रेखाओं (अपवाह जल के साथ समकोण बनाने वाली रेखाओं) पर किया जाना ही समोच्च कृषि कहलाता है । इस प्रकार की खेती से लम्बी ढाल बहुत-सी समतल पट्टियों में विभाजित हो जाती  है । जुताई से ढाल के विपरीत में अनेक कूंड तथा मेंड़  बन जातें, जो छोटे-छोटे बंधान का कार्य करते हैं, जो की पानी की गति को कम करते हैं जिससे भूमि में जल अधिक मात्रा में अवशोषित होता है तथा अपवाह जल  की हांनि  कम होती है ।
 2.आवरण फसलें: मृदा आवरण को ढंकने  वाली फसलें जैसे-मॅूग, उड़द, लोविया, मूँगफली, गुआर फली सोयाबीन आदि भूमि कटाव को रोकती है और भूमि की उर्वरा शक्ति को बढाती है । इस प्रकार की फसलें वर्षा की बूँन्दों को मृदा पर सीधे नहीं पड़ने देती हैं जिससे मिट्टी के कण भूमि से टूटकर अलग नहीं होते हैं । ये फसले अपवाह जल (वर्षा जल) के बहाव को कम करती है तथा पोषक तत्वों को निक्षालित  होने से रोकती हैं । ढकाव वाली फसलें भूमि में कार्बनिक पदार्थो तथा जैविक पदार्थो को बढ़ाती है तथा मृदा-संरचना को सुधारती है जिससे भूमि की रक्षा होती है ।
3. पट्टीदार खेती: इस प्रकार की खेती में फसलें कन्टूर लाईन पर ढाल के विपरीत दिशा में उगायी जाती हैं । भूमि का ढकाव करने वाली फसलें और कटाव में सहायता करने वाली फसलें  एक के बाद दूसरी पट्टियों  में लगाई जाती हैं । कटाव रोकने वाली आवरण-फसलों को अंतिम पट्टी में अवश्य रखा जाता है । आवरण फसलें ऊपर की पट्टी से आयी मिट्टी को रोकती हैं तथा जल के वेग को भी कम करती है ।
 4. भू-परिष्करण क्रियायें:शुष्क क्षेत्रों तथा ढालू भूमियों में उथली जुताई करने से मृदा क्षरण को काफी हद तक कम किया जा सकता है । भू-परिष्करण की क्रियाएँ कम से कम होनी चाहिये । जुताई ,निराई-गुड़ाई आदि कार्य  समोच्चय रेखाओं पर ही करनी चाहिये । ढाल की दिशा में जुताई करने से भू-कटाव की गति बहुत अधिक बढ़ जाती है, पोषक तत्वों का ह्रास अधिक होता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन कम होता है। 
5. कार्बनिक पदार्थ: भूमि में  जैविक खाद के प्रयोग से फसल के लिए आवश्यक कार्बनिक पदार्थ  मात्रा में बढ़ोत्तरी के साथ साथ  भू-क्षरण कम होता है । हल्की मिट्टी में पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ होने  से मिट्टी के कण आपस में बँधे रहते हैं तथा भारी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ अधिक होने  से भूमि की जल-अवशोषण क्षमता बढ़ता है । अतः जैविक खाद के इस्तेमाल से भूमि में कार्बनिक पदार्थ बढ़ाना नितांत आवश्यक है। 
6. पलवार कृषि:  फसल और पेड़ पौधों के अवशेष जैसे पत्तियां, पुआल, भूसा आदि का प्रयोग भूमि ढकने के लिए किया जाता है जिसे मल्चींग  कहते हैं । इससे भूमि की वर्षा की सीधी चोट, तेज वायु तथा धूप से सुरक्षा होती है साथ ही भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम हो जाता है । पलवार कृषि से सिंचाई की जरुरत कम होती है, खरपतवार प्रकोप तथा मृदा अपरदन रूकता है ।
7. फसल चक्र: उचित फसल चक्र के उपयोग से भूमि के कटाव में कमी आती है तथा मृदा की भी सुरक्षा हो जाती है । फसल-चक्र में मूँग, उड़द, मूँगफली, अरहर इत्यादि फसलों को लेना आवश्यक होता है ।
8. शुष्क कृषि अथवा असिंचित खेती: भू-कटाव से ग्रसित क्षेत्रों में भूमि समतल नहीं रहने के कारण सिंचाई की समस्या होती है । सूखे क्षेत्रों में उचित ढंग से खेती करने से भूमि की उर्वरता शक्ति बनी रहती है और भूमि में नमी संचित रहती है तथा भू-क्षरण कम होता है ।
(ख)वनरोपण तथा घासरोपण विधियाँ
          पेड़-पौधे वर्षा के बूँदों को भूमि पर सीधे नहीं पड़ने देते हैं तथा पेड़ों की जड़ें मिट्टी के कणों को जकड़े रहती हैं, जिससे भूमि का कटाव कम होता है । पत्तियों तथ जड़ों का गलन सड़न से भूमि में कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि होती है । जिससे भूमि में जल अवशोषण की क्षमता बढ़ती है । पेड़-पौधे हवा की गति में भी रूकावट डालते हैं जिससे हवा द्वारा भू-क्षरण कम होता है । नदी के तट पर, पशुओं के बाड़े में चारगाहों के किराने, सड़क युक्त बंजर भूमि आदि में बहुतायत से वृक्ष लगाना चाहिये । भूमि-कटाव रोकने में घास का निम्नलिखित फायदे होते है:
-घासें अपवाह जल की गति को कम करती  है तथा जलीय अपरदन को रोकती  है जैसे, दूब घास, रोसा घास आदि  बहुत अच्छा आवरण बनाती है ।
-कुछ घासें जैसे खस, कांस,दूब घासकुडजू लत्ती  आदि  गली-कटाव  का नियंत्रण करती है  ।
-कुछ घासें जैसे, कांस  नदी-नालों के किनारे होनेवाले भू-क्षरण को रोकता है ।
- नेपियर घास, नीबू घास, कांस दूब आदि  घासें मेंड़ों तथा अपवाह जल के निकास-मार्ग की रक्षा करती है 
भूमि कटाव रोकने में वायु रोधक एवं वायुरोधी पट्टियों का व्यवहार:  वायुरोधक का व्यवहार फार्म प्रतिष्ठानों की रक्षा के लिए किया जाता है, जबकि वायु अपरदन से खेतों के बचाव के लिए वायुरोधी पट्टियों का व्यवहार किया जाता है । ये वायुरोधी वृक्ष एवं झाड़ियाँ वायुवेग को सीमित करती हैं, उनके मार्ग को बदल देती हैं, गर्म हवाओं के तापमान को घटाती हैं एवं हवाओं के बुरे प्रभावों को कम करती हैं । इस उपाय के द्वारा मिट्टी अपरदन कम होता है । वायुरोधी पट्टियों को खेत के उस किनारे पर रखते हैं, जिस तरफ से हवा सामान्यतः बहती है। वृक्षों में  बबूल, शीशम, सिरिस , नीम आदि तथा झाड़ियों में कैशिया, ग्लाइरिसिड़ा, कांस आदि  वायु की गति कम करने के लिए उपयुक्त पाई गई हैं। 

(ब)यांत्रिका विधियाँ

1. मेंड़ बन्दी: ढाल के विपरीत दिशा में समोच्च रेखाओं पर मेंड़ बनायी जाती है । जहाँ ढाल 2 प्रतिशत से कम होती है वहाँ इस प्रकार की मेंड़ बन्दी लाभदायक होती हैं । मेड़ेंज ल को रोकर अन्तः स्यंदन होने में मदद करती हैं, जिससे भूमि-क्षरण रूकता है ।
2. भूमि को समतल करना: भूमि को समतल कर देने स ेजल पूरे खेत में पूर्णरूप से वितरित हो जाता है और उसका अवशोषण भूमि में अधिक होता है जिससे अपरदन कम होता है ।
3. कठोर संस्तरों को तोड़ना: अनियोजित और ख़राब भूमि भूमि प्रबंधन से जमीं के भीतर एक कठोर परत बन जाती है जिससे भूमि के अंदर पानी प्रवेश कम होता और पेड़-पौधों की जड़ो का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। जमीं के अंदर कठोर संस्तर बनने  कारण मृदा का उपजाऊ परत का क्षरण भी होने लगता है।  पैन ब्रेकर यंत्र से जमीन के भीतर स्थित कठोर संस्तर को तोड़कर उसकी अन्तःस्यंदनता तथा पारगम्यता बढ़ायी जा सकती है, जिससे जमींन के अंदर अधिक से अधिक जल भरण हो सकें। 
4. अवभूमि की गहरी जुताई: सब-स्वायलर  यंत्र से अवभूमि की जुताई की जाती है जिससे भूमि की पारगम्यता बढ़ जाती है । भूमि में पृष्ठीय तथा नालीदार क्षरण के बाद अवमृदा कड़ी हो जाती है जिस कारण अन्तःस्यंदन रूक जाता है ।
 5. नालेदार कटाव : गली की वृद्धि एवं विकास भी रोकने के लिए गली क्षेत्र का घेरा बन्दी आवश्यक है, जिससे क्षेत्र का पशुओं का आना जाना रूक सके और प्राकृतिक वनस्पति पनप और बढ़ सके । इनके बाद गली क्षेत्र में बहने वाली वर्षा जल को क्षेत्र के बाहर से बाहर निकास के लिए चारो तरफ बाँध  का निर्माण करना होता है । इसके बाद विभिन्न प्रकार की सामग्री जैसे मिट्टी, बोरा में भरा बालू, पत्थर आदि  से गली  द्वार को बन्द दिया जाता है । छोटी गली को खेती योग्य  बनाने के लिए जेसीबी  से गली सतह को समतल कर लिया जाता है । इस क्षेत्र में कुछ-कुछ दूरी पर जलरोधी बाँध बनाते हैं ताकि पानी के बहाव को रोका जा सके । बड़ी गली के सुधार हेतु उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त घास एवं वृक्ष का चुनाव कर लगाया जाता है ।
6. चबूतरा बनाना: जब ढालू पर खेती की जाती है तो ढाल के विपरीत दिशा (समोच्चय रेखाओं) पर बाँध या मेंड़बन्दी करके भूमि को चबूतरे (टैरेस) की भाँति बनाया जाता है । टैंरेस भूमि की जल अवशोषण क्षमता में वृद्धि करता है तथा भू-कटाव को रोकता है । टैंरेस के द्वारा अतिरिक्त जल(अपवाह जल) का निकास नियंत्रित ढंग से होता है ।
7. थाला बनाना: इस विधि में कन्टूर रेखओं पर छोटे-छोटे थालों  का निर्माण बेसिन लिस्टर यंत्र के द्वारा किया जाता है । बेसनि लिस्टिंग  जल को रोक कर उसके बहाव की गति कम कर देता है ।
8. जल संग्रह:  हमें "खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में" की तर्ज पर जल सरंक्षण के आवश्यक उपाय अपनाने होंगे जिससे तात्कालिक जलापूर्ति और भविष्य के लिए भू-जल भरण हो सकें। वर्षा के जल को एकत्रित करने के लिए उचित स्थानों पर छोटे-छोटे तालाबों का निर्माण किया जा सकता है  । यह सरंक्षित जल फसल सरंक्षक  सिंचाई तथा पशुओं के उपयोग में आता है । 
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