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सोमवार, 3 अप्रैल 2017

वर्षा निर्भर क्षेत्रों में कुटकी लगायें फसल सघनता बढायें

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

धान्य कुल अर्थात पोएसी कुल में जन्मी  कुटकी (पेनीकम सुमाट्रेन्स) एक ऐसी अनोखी  फसल है जिसे सूखा और जल भराव जैसी विषम परिस्थितियों और कम उपजाऊ भुमिओं  में न्यूनतम खर्चे में आसानी से उगाया जा सकता है . संभवतः यही वजह है जिसके  कारण इसे गरीबों की फसल कहा जाता है । वास्तव में कम समय में तैयार होने वाली यह एक पौष्टिक लघु धान्य फसल हैं जिसकी खेती के बाद शीघ्र तैयार होने वाली रबी फसले भी उगाई जा सकती है।  पौष्टिकता के मान से कुटकी के 100 ग्राम दानों  में 8.7 ग्राम प्रोटीन, 75.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 5.3 ग्राम वसा, 8.6 ग्राम रेशा के अलावा खनिज तत्व, कैल्शियम एंव फॉस्फोरस  प्रचुर मात्रा में पाए जाते  है। भारत में तमिलनाडू, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, मध्यप्रदेश एंव छत्तीसगढ़ राज्यों के असिंचित क्षेत्रों में कुटकी की खेती प्रचलित है। छत्तीसगढ़ के बस्तर व बिलासपुर संभाग में कुटकी को कोसरा या चिकमा के नाम से जाना जाता है।
कुटकी एक शीघ्र पकने वाली फसल है। अतः असिंचित अवस्था में भी द्वि-फसली खेती के लिए यह एक आदर्श फसल है।  इसकी खेती उच्चहन भूमि में एकफसली के रूप में की जाती है। अतः इसके साथ दलहनी एंव तिलहनी फसलों (अरहरउड़दसोयाबीनतिल) की अन्तर्वर्तीय या मिश्रित खेती अपनाकर अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है। जून में बोई गई फसल अगस्त में तैयार हो जाती है। इसके बाद कुल्थीरामतिलतोरियाअरण्डीआदि की खेती सुगमता से की  जा सकती है।

मृदा एंव भूमि तैयारी

          कुटकी की खेती उचित जल निकास वाली भारी दोमट एंव रेतीली भूमियों में की जा सकती है। फसल के लिए भूमि का पीएच मान 5.5 से 7.5 के बीच उपयुक्त रहता है। हल्की क्षारीय तथा लवणीय भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर की मरहान (पथरीली व कंकड युक्त, कम उपजाऊ) तथा टिरा(ढालू व रेतीली ) भूमियों में कुटकी उगाई जाती है। बगैर बंधान या हल्के बंधान वाले  खेत कुटकी के लिए अधिक उपयुक्त रहते है। मानसून की पहली वर्षा के साथ खेत की तैयारी करना चाहिए। इसके लिए देशी हल या ट्रेक्टर से खेत की दो बार आड़ी-खड़ी जुताई करके पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

          कुटकी की स्थानीय किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करने से अधिक उपज ली जा सकती  है।
जवाहर कुटकी-1: इस किस्म का  बीज हल्का काला होता है। यह किस्म 75 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत 8 से 10 क्विंटल/ हेक्टेयर उपज क्षमता है।
टी.एन.ए.यू.-63: यह 90-95 दिन में तैयार होने वाली किस्म है जो कि औसतन 10-12 क्विंटल/ हेक्टेयर पैदावार देती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त रहती है।
जवाहर कुटकी-2: इसके दाने गोल, पीले रंग के होते हैं। पौधा 90 से 95 से. मी. ऊँचा व सीधा होता है। यह जाति 75 से 80 दिन में पककर तैयार होती है। औसत पैदावार 10 क्विंटल/ हेक्टेयर हैं।
जवाहर कुटकी-8: इसका दाना हल्का भुरे रंग का होता है। पौधे की ऊँचाई 80 से. मी. तथा 8 से 9 कल्ले निकलते हैं। यह 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10 से 12 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
तारिनी (ओएलएम-203): यह अधिक उपज देने वाली (12-15 क्विंटल/ हेक्टेयर.) किस्म है जो कि 85-95 दिन में तैयार हो जाती है। झुलसा रोग प्रतिरोधी किस्म है।
उपरोक्त किस्में मध्य प्रदेश में खेती हेतु  उपयुक्त पाई गई है .
पीआरसी-3: यह किस्म 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 6-7 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
आईजीएल-4: यह किस्म 70-75 दिन में पक कर तैयार होती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 7-8 क्विंटल/ हेक्टेयर हैं।
आईजीएल -10: यह किस्म 75-80 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 7-8 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
          कुटकी की उपरोक्त तीनों  किस्में छत्तीसगढ़  की मरहान एंव टिकरा भूमियों के लिए उपयुक्त पाई गई हैं।

बोआई का समय

          कुटकी शीघ्र पकने वाली फसल है। मानसून के आगमन के साथ इसकी बोआई जून के प्रथम पखवाड़े से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए। देर से बोआई करने पर इसके उत्पादन में कमी आती है।

बीज व बोआई

          अच्छे अंकुरण प्रतिशत वाले स्वस्थ बीज कतार बोनी हेतु 6-8 किग्रा. तथा छिड़कवाँ विधि से बोनी करने के लिए 8-10 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। मिश्रित फसल की बीज दर कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है जो कि शुद्ध फसल से कम रहती है। कोदो की फसल में बीज जनित व मृदा जनित रोगों का प्रकोप होता है। फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज से उपचारित कर बोना चाहिए।
          आमतौर पर किसान  कुटकी की बोआई छिटककर या बिखेरकर करते  है। इस विधि से बीजान्कुरण एकसार नहीं होता है जिसके फलस्वरूप पर्याप्त पौध संख्या ना होने के कारण उन्हें उपज कम मिलती है। अतः कुटकी की बेहतर उपज के लिए बोनी कतार विधि से  ही करनी चाहिए। इसका बीज छोटा, गोल एंव चिकना होता है अतः एक सार बोआई के लिए एक भाग बीज को 20 भाग रेत या भुरभुरी गोबर की खाद के साथ  मिलाकर बुआई करना अच्छा रहता है । कतार बोआई हेतु दो कतारों के बीच 22-25 सेमी. की दूरी रखना चाहिए। कतार में पौध -से -पौध के बीच 8-10 सेमी. का फसला रखना उचित रहता है। बोआई के बाद हल्का पाटा चलाकर बीज को ढँक देना चाहिए। बोआई के 15-20 दिनों बाद पौध विरलीकरण कर पौधों के मध्य वांछित दूरी स्थापित की जा सकती है।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर कुटकी में खाद व उर्वरकों का प्रयोग किसान नहीं करते हैं। परंतु अन्य फसलों की तरह इसे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हेतु खाद एंव उर्वरक देना आवाश्यक होता है और तभी अच्छा उत्पादन प्राप्त हो सकता है प्रति हेक्टेयर 10 किग्रा. नत्रजन, 10 किग्रा, स्फुर एंव 10 किग्रा. पोटाश  बोआई के समय देना लाभकारी पाया गया है। इसके अलावा बोआई के एक माह बाद (फसल में कल्ले बनते समय) 10 किग्रा./हे. नत्रजन निंदाई के पश्चात् देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          वर्षा ऋतु की फसल होने के कारण कुटकी की फसल को भी खरपतवारों द्वारा क्षति होती है । इन पर नियंत्रण पाने के लिए बोआई के 20-25 दिनों बाद एक निंदाई करनी चाहिए। फसल अंकुरण पूर्व 2 किग्रा.एट्राजीन (50 प्रतिशत घुलनशील पावडर) को 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

कटाई एंव गहाई


          कुटकी की फसल 75-110 दिनों में पक जाती है। जब नीचे की पत्तियाँ सूखने लगे तथा निचली पत्तियाँ पीली पड़ने लगे तब कटाई करनी चाहिए। जून में बोई गई फसल अगस्त में पक जाएगी, अतः मौसम खुला होने पर शीघ्र ही काट लेना चाहिए। अधिक पकने पर कुटकी के दाने झड़ते हैं एंव चिडियाँ क्षति पहुँचाती हैं। अतः कटाई का कार्य समय पर करना आवश्यक है। कटाई के बाद फसल को अच्छे से सुखाकर गहाई करना चाहिए। दानों को धूप में सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। कुटकी की अच्छी फसल से 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर दाना  उपज प्राप्त की जा सकती है।
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