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मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

शुष्क क्षेत्रों की लोकप्रिय फसल बाजरा की उन्नत खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

          मोटे अनाज वाली फसलों में बाजरा (पेन्नीसेटम टाइफोइड्स) का महत्वपूर्ण स्थान है। बाजरा कम लागत तथा शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली ज्वार से भी लोकप्रिय फसल है जिसे दाने व चारे के लिए उगाया जाता है। बाजरे के दाने में 12.4 प्रतिशत नमी, 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.05 प्रतिशत कैल्शियम, 0.35 प्रतिशत फास्फोरस तथा 8.8 प्रतिशत लोहा पाया जाता हैै। इस प्रकार बाजरे का दाना ज्वार की अपेक्षा अधिक पौष्टिक होता है।बाजरे को खाने के काम में  लाने से पूर्व इसके दाने को कूटकर भूसी अलग कर लिया जाता है। दानों को पीसकर आटा तैयार करते हैं और माल्टेड आटा के रूप में प्रयोग करते हैं। उत्तरी भारत में जाड़े के दिनों में बाजरा रोटी (चपाती) चाव से खाई जाती है। कुछ स्थानों पर बाजरे के दानों को चावल की तरह पकाया और खाया जाता है। बाजरे की हरी बालियाँ भूनकर खाई जाती हैं। दाने को भूनकर लाई बनाते हैं। बाजरा दुधारू पशुओं को दलिया एंव मुर्गियों को दाने के रूप में खिलाया जाता है। बाजरे का हरा चारा पशुओं के लिए उत्तम रहता है। क्योंकि इसमें एल्यूमिनायड्स अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं। बाजरा के पौधे ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता रखते है। देश  के अधिक वर्षा वाले राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में बजारे की खेती की जाती है। भारत में बजारे की खेती गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडू , आन्ध्र प्रदेश, पंजाब और मध्यप्रदेश राज्यों  में प्रमुखता से की जाती है। भारत में 9.57 मिलियन हेक्टेयर में बाजरे की खेती की गई जिससे 10.42 क्विंटल /हे. औसत मान से 9.97 मिलियन टन उत्पादन लिया गया। बाजरे की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए अग्र प्रस्तुत शस्य तकनीक व्यवहार में लाना चाहिए। 

उपयुक्त जलवायु

          बाजरा उष्ण जलवायु की फसल है। यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। इसमें ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता होती है। उत्तर भारत में खरीफ के मौसम में ही बाजरे की खेती होती है। दक्षिणी राज्यों तथा पंजाब में सिंचित फसल को गर्मी के मौसम में भी उगाया जाता है। बाजरे की फसल की वृद्धि के लिए उपयुक्त तापक्रम 20-30 डिग्री सेग्रे  के मध्य होना चाहिए। बोआई से लेकर कटाई तक फसल को उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 40 सेमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में की सकती है। फसल में फूल आते समय स्वच्छ आकाश और तेज धूप उत्तम रहती है। फूल आते समय वर्षा होने पर बाली में दाने अच्छी प्रकार नहीं भरते हैं तथा समय वर्षा होने पर बालियों में कंडुआ रोग लगने की संभावना रहती है। बाजरे की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं जबकि दिन की लम्बाई अपेक्षाकृत कम होती है परंतु कुछ किस्मों में दिन के छोटे या बड़े होने का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।

भूमि का चयन एवं  खेत की तैयारी

          उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में बाजरे की खेती की जा सकती है परंतु बलुई दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है। रेतीली दोमट मिट्टी में बाजरा की खेती गुजरात, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में सफलतापूर्वक की जा रही है। हल्की लाल और कपास अच्छा हो, जिसका पी-एच. मान 7 हो जीवांश की मात्रा अच्छी हो उपयुक्त पाई गई है।
          बाजरा वर्षा आधारित फसल है। ऐसी फसल के लिये ग्रीष्मकालीन जुताई अच्छी पाई गयी है। इससे खरपतवारों पर नियंत्रण करने में मदद मिलती है। वर्षा के शुरू होने पर हल या बखर चलाकर खेत को भुराभुरा बनाकर खरपतवार रहित कर लेना चाहिए। साथ ही साथ अंतिम जुताई के समय 5 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर या कम्पोस्ट की खाद खेत में डालें। खेत को पाटा चलाकर यथासंभव समतल जल निकास की उचित व्यवस्था कर लें।

उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज 

उन्नत एंव उत्तम किस्म का बीज उपयोग करने से उत्पादन दो गुना किया जा सकता है।प्रमाणित बीज को विश्वसनीय स्त्रोत से ही क्रय करें। जहाँ तक संभव हो संकर एंव मुक्त परागण वाली अनुशंसित किस्म ही प्रयोग में लावें । बीज सदैव उपचारित किया हुआ ही प्रयोग करें।
बाजरे की प्रमुख संकर किस्में: इनका बीज प्रतिवर्ष बदलना पड़ता है।
एम. एच. 143: यह संकर किस्म 83 दिन में पकने वाली है। इसकी अधिकतम पैदावार 52 कि./हेक्टेयर तथा चारे की पैदावार 54 क्विंटल /हे. पाई गई है।
एम. एच. 179: यह संकर किस्म 86 दिन में पकने वाली है। इसकी अधिकतम पैदावार 54 किंव/हेक्टेयर तथा चारे की पैदावार 54 क्विंटल /हेक्टेयर पाई गई है।
एम. बी. एच. 151: यह 90 दिन में  तैयार होने वाली किस्म है जिससे अधिकतम 50 क्विंटल /हे. दाना और 83 क्विंटल /हे. सूखा चारा प्राप्त होता है।
जे. बी. एच. 1: यह किस्म 80 से 85 दिनों में पककर तैयार हो जाता है। दाना मध्यम बड़ा तथा बाली शूकी रहित होती है। इस किस्म की  पैदावार 20-26 क्विंटल प्रतिहे. पाई गई है।
पी. एच. बी. 10: फसल अवधि 88-90 दिन, सिंचित व असिंचित दशा के लिए उपयुक्त, उपज क्षमता 30-35 क्विंटल / हे. होती है। इसमें अरगट रोग का प्रकोप कम होता है।
बाजरे की मुक्त परागित एंव संकुल किस्में: इनका बीज प्रतिवर्ष बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
आई सी. एम. व्ही. 221: यह किस्म 75 से 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत पैदावार 15 क्विंटल /हे. तथा चारे की पैदावार 35 क्विंटल./हे. पाई गई है। यह किस्म हरितबाली रोग प्रतिरोधक है।
राज: 171: यह मुक्त परागित किस्म 80 से 85 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। दाने की उपज 20 क्विंटल /हे. तथा चारे की पैदावार 48 क्ंिव./हे. पाई गई है। यह किस्म हरितबाली रोग प्रतिरोधक है।
जे. बी. व्ही. 2: यह किस्म 75 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं इसका दाना मध्यम धूसर रंग का होता है। इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल./हे. पाई गई है। यह किस्म हरित बाल रोग के प्रति निरोधक है।
आई. सी. एम. बी. 84400: फसल अवधि 80-100, दिन औसत उपज 21-22 क्विंटल तथा सूखे चारे की उपज 68 क्विंटल.प्रति हेक्टेयर हैं।
डब्लू. सी. सी. 75: यह संकुल किस्म देशी किस्मों से अच्छी है। यह किस्म 70-80 दिन में तैयार होकर  प्रति हेक्टेयर 18-20 क्विंटल दाना तथा 85-90 क्विंटल कड़वी की उपज देती है।

बोआई का समय

          बाजरा मुख्यतः खरीफ की फसल है। बालरे की बोआई जुलाई के प्रथम पखवाड़े तक करना चाहिए। इससे पहले इसकी बोआई करने से फूल आते समय अधिक वर्षा होने के कारण पराग कण बहने से बालियों में पूरी तरह से दाने न पड़ने की संभावना रहती है। वर्षा वाले क्षेत्रों में बोआई में  अधिक देर करना उचित नहीं रहता है क्योकि वर्षा समाप्त हो जाने पर नमी की कमी से उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। ग्रीष्मकालीन (जायद) बाजरे की बोनी, सिंचित दशा में मार्च-अप्रैल में की जाती है।

बीज दर एंव बीजोपचार

          बजारे की मिश्रित फसल के लिए 2-3 किग्रा. प्रति हे. तथा शु़द्ध फसल के लिये 5 से 6 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। अच्छी उपज के लिए प्रति हेक्टेयर 1.8 लाख से 2 लाख तक पौध संख्या वांछित रहती है। फसल में बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु बोआई से पूर्व बीजों को कवकनाशी रसायनों जैसे थायरस (3 ग्रा प्रतिकिलो बीज ) आदि से उपचारित कर चहिए। प्रमाणित अथवा संकर बाजरा का बीज पहले से ही उपचारित रहता है। अतः अलग से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं होती है।

कतारों में करे बुआई 

आम तौर पर मूँग, उडद, तिल, अरहर आदि के साथ बाजरे की बुआई मिश्रण के रूप में छिटकवाँ विधि से की जाती है। परन्तु यह विधि लाभकारी नहीं है। अच्छी उपज की खेती के लिए बाजरे को पंक्तियों में हल के पीछे कूड़ों में बोते हैं या बोने के यन्त्र द्वारा बोआई की जाती है। कतारों के मध्य 40 से 45 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 12-15 सेमी. रखना उचित रहता है। बीज को 2-3 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए अन्यथा वर्षा होने पर पपड़ी बन जाती है और अधिकतम गहराई पर बोये गये बीजों के अंकुरण में बाधा पहुँचती है। जब दाने के लिए बाजरा मिश्रण के रूप में बोते हैं तो पंक्तियों के मध्य 90-120 सेमी. की दूरी रखते हैं और बाजरे की दो पंक्तियों के बीच के स्थान में मिश्रण वाजी फसल (उड़द, मूँग) की 3-4 पंक्तियाँ बोई जाती है।
          अंकुरण के पश्चात् रिक्त स्थानों पर शीघ्र ही नये बीज डाल देना चाहिए या पौधों  की रोपाई की जा सकती है। बोआई से 3-4 सप्ताह बाद अतिरिक्त पौधे निकालकर पंक्ति में पौधे से पौधे की दूरी 12-15 सेमी. स्थापित कर लेनी चाहिए ।
खाद एंव उर्वरक
          बाजरे में खाद एंव उर्वरक की मात्रा मृदा के प्रकार तथा उगाई जाने वाली किस्म पर निर्भर करती है। बाजरे की देशी  किस्मों में 40-50 किग्रा. नत्रजन, 30-40 कि.ग्रा. स्फुर तथा 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 40-60 कि.ग्रा. स्फुर तथा 30-40 किग्रा. पोटाॅश/हेक्टेयर की आश्यकता पड़ती है। असिंचित खेती के लिए उपरोक्त उर्वरकों की आधी मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर एंव पोटाॅश की पूरी मात्रा बोवाई के समय कूड़ में देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा को खड़ी फसल में टाॅप ड्रेसिंग के रूप में दो बार प्रयोग करना चाहिए। पहली टाॅपड्रसिंग थिनिंग (20-25 दिन) के समय तथा दूसरी बालियाँ निकलते समय देना लाभदायक रहता है। असिंचित अवस्था में यूरिया 2-3 प्रतिशत घोल 1000 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से (खड़ी फसल में -5 सप्ताह की फसल) छिड़काव करना लाभदायक रहता है। पौध से उगाई गई बाजरे की फसल में स्फुर और पोटाॅश की पूरी मात्रा और नत्रजन की तीन-चैथाई मात्रा मिलाकर रोपाई के समय कूड़ में डालनी चाहिए शेष नत्रजन रोपाई के 3-4 सप्ताह बाद फसल देनी चाहिए।

जरुरत के हिसाब से सिंचाई

          बाजरा खरीफ की फसल है और सूखा सहन करने  की क्षमता रखती है। अवर्षा की स्थिति में बाजरे की उन्नत संकर किस्मों से अच्छी उपज के लिए सिंचाई की उपयुक्त सुविधा होना आवश्यक है। अंकुरण के समय खेत में पर्याप्त नमी रहना आवश्यक है। वर्षा न होने की स्थिति में पलेवा (सिंचाई) देकर बोआई करनी चाहिए। पौधों की बढ़वार फूल आते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक रहता है। सिंचाई की संख्या, मिट्टि का प्रकार, वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है मृदा नमी 50 प्रतिशत उपलब्ध  रहने पर फसल की सिंचाई कर देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल बोने से पूर्व पलेवा करते हैं ताकि अंकुरण के लिए नमी का अभाव न हो। इसके बाद 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाइयाँ फसल तैयार होने तक की जाती हैं।बाजरे की फसल जलभराव की स्थिति को सहन नहीं कर पाती है। फसल के गिरने की आंशका रहती है। अतः बोआई से पूर्व खेत को समतल कर लेना चाहिए और प्रत्येक 40-50 मीटर की दूरी पर जल निकास के लिए गहरी नालियाँ बना लेनी चाहिए।

निंदाई-गुडा़ई एंव खरपतवार नियंत्रण

          प्रारंभिक अवस्था में (बोआई से 3-6 सप्ताह) नींदा नियंत्रण अति आवश्यक है। बाजरे की पंक्तियों के बीच हल्का कल्टीवेटर चलाकर या खुरपी द्वारा 1-2 बार निंदाई करके खरपतवारों को नष्ट करना आवश्यक रहता है। म. प्र. के ग्वालियर व चंबल संभाग में बोआई के 20-30 दिन में बाजरे की खड़ी फसल में अन्र्तकर्षण क्रिया (गुर्र) की जाती है। बाजरे के साथ उगने वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिएि एट्राजीन या प्रोपाक्लोर 0.5 किग्रा./हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर बीज जमाव के पूर्व छिड़काव करना चाहिए। बाजरे की फसल को चिड़ियाँ व तोते बहुत पहुँचाते हैं।अतः इनसे फसल की सुरक्षा करनी चाहिए।

फसल की कटाई एंव गहराई

          सामान्य तौर पर यह फसल अक्टूबर में तैयार हो जाती है। जब बालियाँ अच्छी तरह पक जाती है, दाने कड़े हो जाते हैं और उनमें नमी की मात्रा घटकर 20 प्रतिशत रह जाए तब बालियों को दराँती द्वारा काट लिया जाता है। बालियाँ काट लेने के बाद बाजरे के पौधों को काटकर हरे चारे या सुखाकर कड़वी के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। बालियों को लगभग एक सप्ताह तक खलिहान में  सुखाया जाता है। तत्पश्चात् बैलों की दाॅय चलाकर गहाई की जाती है। दाना-भूसा को अलग करने हेतु ओसाई करते हैं अथवा मड़ाई-यन्त्र द्वारा दाने अलग कर लिये जाते हैं।

उपज एंव भंडारण


          उन्नत विधियों द्वारा संकर बाजरे की खेती करने पर औसतन 30-35 क्विंटल  प्रति हे. तक दाने की उपज मिल सकती  है। वर्षा आश्रित फसल की उपज वर्षा की मात्रा व उसके वितरण पर निर्भर करती है। बाजरे की कड़वी की उपज 80-100 क्विंटल  प्रति हे. तक मिलती है। दानों को अच्छी तरह 3-4 दिनों तक धूम में सुखाया जाता है जब दोनों  में नमी का अंश 13-14 प्रतिशत से कम हो जाये तब उन्हें बोरों में भरकर भंडार गृह में रखना चाहिए।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए करे एलोवेरा की वैज्ञानिक खेती


डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

एलोवेरा को धृतकुमारी और गवारपाठा के नाम से भी जाना जाता है।  एलोवेरा (एलोवेरा बार्बाड़ेंसिस)  एक बहुवर्षीय और विशिष्ट औसधीय महत्त्व का लिलियेसी कुल का पौधा है जिसका उपयोग एलोपेथी, होम्योपेथी, यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतिओं में बखूबी  से किया जाता है।  इसकी पत्तीओं पर क्यूटिकल की मोटी परत होती है तथा किनारों पर कांटे पाये जाते है।  ये मांसल पत्तियां अपने अन्दर पारदर्शक गाढ़ा तरल पदार्थ संचित किये रहती है जिसको एलो जैल कहा जाता है।  इसकी पत्तियों में 94 % पानी तथा अन्य 6 % में 20 प्रकार के अमीनो एसिड, कार्बोहायड्रेट एवं अन्य रासायनिक घटक होते है. एलोवेरा में मुख्य क्रियाशील तत्व  “एलोइन” नामक ग्लूकोसाइड समूह होता है , इसका मुख्य घटक बारबेलोइन है।  एलोइन त्वचा पर एक सुरक्षा परत का निर्माण करता है जो त्वचा को हानिकारक पराबैगनी विकिरण से बचाती है।  इसी गुण के कारण इसका उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री निर्माण में किया जाता है।  इसके अलावा यह त्वचा पर पर्याप्त नमीं बनाए रखता है .इसकी पत्तीओं को काटने पर एक पीले रंग का तरल पदार्थ निकलता है जिसका इस्तेमाल आँख सम्बन्धी बीमारिओ में किया जाता है।  एलो को कच्चा खाने पर कब्ज में राहत मिलती है तथा अम्लता नियंत्रित होती है . बाजार में जीते भी अच्छे किस्म के हैण्डलोशन, बॉडी लोशन, हेयर शैम्पू, सेविंग लोशन, जनरल मोस्चुराइजर, काफ सीरप आदि उपलब्ध है, उन सभी में इसका उपयोग बहुतायत में किया जाता है .एलोवेरा को आजकल स्वास्थ्यवर्द्धक भोज्य पदार्थ के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। एलोवेरा फसल से अधिकतम पैदावार लेने के लिए उन्नत कृषि तकनीक प्रस्तुत है। 

उपयुक्त जलवायु एलोवेरा उष्ण और उपोष्ण जलवायु का पौधा है . आमतौर पर इसे भारत के  सभी शुष्क क्षेत्रों में सुगमता से उगाया जा सकता है। इसकी सफल खेती के लिए 25-35 डिग्री सेंटीग्रेड औसत तापमान होना चाहिए।  शीत ऋतु में कम तापमान हो जाने से इसकी वानस्पतिक वृद्धि रुक जाती है।  इसको पानी की आवश्यकता बहुत कम है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

एलोवेरा को प्रायः सभी प्रकार की भुमिओं में उगाया जा सकता है , परन्तु बलुई व वलुई दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। जल निकासी की उचित सुविधा होने पर चिकनी दोमट मृदा में भी इसे लगाया जा सकता है।  भूमि का पी.एच.मान 6.5-8.5 के मध्य होना चाहिए . वर्षा ऋतु में जलभराव वाली मृदाए इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है।  खेत की तैयारी भूमि के प्रकार पर निर्भर करती है . हल्की मृदाओं में 1-2 जुताईयाँ काफी है जबकि चिकनी दोमट तथा पथरीली जमीनों में 3-4 जुताईयों की आवश्यकता होती है . भुरभुरी मिट्टी में इस फसल की वृद्धि अच्छी होती है। 

रोपाई  का समय

इसकी रोपाई  सिंचित क्षेत्रों मे सर्दी के महीनों को छोडकर वर्ष भर की जा सकती है परंतु अच्छी पैदावार के लिए इसकी रोपाई  जुलाई  अगस्त के महीनों मे करनी चाहिए।

रोपण समंग्री एवं रोपाई

एलोवेरा के पौधों से जड़ो के स्थान के समीप छोटे-छोटे पौधे निकल आते है।  ये पौधे बहुधा अगस्त से नवम्बर तथा फरवरी से अप्रेल के मध्य निकलते है।  एक मातृ पौधा लगभग 8-14 तक छोटे पौधे उत्पन्न कर सकता है . इन पौधों को निकालकर फरवरी-मार्च अथवा अगस्त-सितम्बर मुख्य खेत में लगा देना चाहिए। पौधों को 50 x 40  सेमी. की दूरी पर रोपने के लिए 60 से 65 हज़ार कल्लों (छोटे पौधों) की आवश्यकता होती है।  पौधे मेंड़ अथवा कूंड में लगाना अच्छा रहता है।   पौध लगाने के एक-दो दिन पश्चात खेत में सिचाई करना चाहिए।   

खाद एवं उर्वरक

एलोवेरा की पत्तीओं की अधिकतम उपज लेने की लिए खाद और उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग आवश्यक होता है . पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परिक्षण के आधार पर करना चाहिए।  एलोवेरा को मुख्य पोषक तत्वों के अलावा कुछ सूक्ष्म तत्वों की भी आवश्यकता होती है , क्योंकि सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता से इसमें पाए जाने वाले जैल की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार होता है।  आज कल इसके हर्बल उत्पादों की अधिक मांग है।  इसे देखते हुए इसमें जैविक  खाद का इस्तेमाल करना उचित रहता है . भूमि की तैयारी के समय अंतिम जुताई से 15-20 दिन पूर्व 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद  या फिर 8-10 टन कम्पोस्ट मृदा में मिला देना चाहिए . इसके अलावा 30 किग्रा. फॉस्फोरस और 30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के समय कुडों में देना चाहिए . रोपाई के एक माह के अंतराल पर 20 किग्रा. नत्रज़न्न प्रति हेक्टेयर की दर से दो बार देना चाहिए . सूक्ष्म पोषक तत्वों में मैग्नीशियम सल्फेट 10 किग्रा., जिंक 5 किग्रा और नीला थोथा 2 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के समय अन्य उर्वरको के साथ दिया जा सकता है। 

सिचाई प्रबंधन

एलोवेरा शुष्क जलवायु वाली फसल होने के कारण इसे अधिक जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है।  ग्रीष्मकाल में आवश्यकतानुसार 2-3 सिचाई करने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।  वर्षा ऋतु में खेत में जल निकास का उचित प्रबंध जरुरी होता है। 
घरेलु इस्तेमाल के लिए गमले में लगाये एलोवेरा
जमीन की उपलब्धता ना होने पर आप  ग्वारपाठा को गमलों में भी लगा सकते है।  इससे आपके परिवार को ताज़ी एवं पौष्टिक पातियाँ घर में ही उपलब्ध हो सकती है।  पौध वृद्धि और पत्तीओं के समुचित विकास के लिए धूप आवश्यक होती है।  गमलों में आवश्यकतानुसार झारे से पानी भी देते रहना चाहिए। 
निराई  गुड़ाई 
एलोवेरा के पौधे धीमी गति से बढ़ते है अतः प्रथम वर्ष फसल की खरपतवारों से रक्षा करना आवश्यक है।  रोपाई के एक माह पूर्व एट्राजीन 0.5 किग्रा.सक्रिय तत्व प्रति झेक्टेयर की दर से छिड़कने से खरपतवार प्रकोप कम होता है।  रोपाई के एक मास बाद पहली निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। इसके बाद 1-2 निराई- गुड़ाई प्रति डॉ माह बाद करना चाहिए।  निराई गुड़ाई प्रति वर्ष करनी चाहिए।  रोग ग्रस्त  तथा सूखे पोधों को निकाल देना चाहिए।
फसल की कटाई
एलोवेरा लगाने के समय के अनुसार इसकी पत्तियाँ लगभग 10-15 माह में काटने हेतु तैयार हो जाती है।  कटाई करने के लिए पूर्ण विकसित पत्तियों का ही चुनाव करना चाहिए जिनका रंग हल्का हरा अथवा हल्का पीलापन लिए हुए होता है।   दिसम्बर का महिना कटाई के लिए अच्छा माना जाता है।  एलोवेरा पौधों से हर तीन माह में नीचे से 3-5 पत्तियाँ धारदार हंसिये से मांग के अनुसार काटना  चाहिए तथा बीच की अविकसित पत्तियों को छोड़ देना चाहिए।  एलोवेरा की फसल एक बार  लगाने से 3-4 वर्ष तक इससे उपज  प्राप्त कर सकते हैं। एलोवेरा की फसल तीन साल तक अच्छी उपज देती है। 
फसल की पैदावार 
एलोवेरा की समय से रोपाई और उचित शस्य प्रबन्धन अपनाने पर लगभग  75-80  टन प्रति हेक्टेयर  पत्तियाँ  तथा 15,000  से 20,000 पौधे (कल्ले और सकर्स के रूप में)  प्रथम वर्ष में प्राप्त  हो सकते हैं। यह उपज अगले दुसरे और तीसरे वर्ष में और अधिक मात्रा में प्राप्त हो सकती है।  इसकी उपज मुख्यतः जलवायु, भूमि के प्रकार, उन्नत किस्में और शस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है। इसकी पत्तियों को सीधे बाजार में अथवा इससे जैल निकालकर बेच दिया जाता है। 

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

वर्षा निर्भर क्षेत्रों में कुटकी लगायें फसल सघनता बढायें

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

धान्य कुल अर्थात पोएसी कुल में जन्मी  कुटकी (पेनीकम सुमाट्रेन्स) एक ऐसी अनोखी  फसल है जिसे सूखा और जल भराव जैसी विषम परिस्थितियों और कम उपजाऊ भुमिओं  में न्यूनतम खर्चे में आसानी से उगाया जा सकता है . संभवतः यही वजह है जिसके  कारण इसे गरीबों की फसल कहा जाता है । वास्तव में कम समय में तैयार होने वाली यह एक पौष्टिक लघु धान्य फसल हैं जिसकी खेती के बाद शीघ्र तैयार होने वाली रबी फसले भी उगाई जा सकती है।  पौष्टिकता के मान से कुटकी के 100 ग्राम दानों  में 8.7 ग्राम प्रोटीन, 75.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 5.3 ग्राम वसा, 8.6 ग्राम रेशा के अलावा खनिज तत्व, कैल्शियम एंव फॉस्फोरस  प्रचुर मात्रा में पाए जाते  है। भारत में तमिलनाडू, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, मध्यप्रदेश एंव छत्तीसगढ़ राज्यों के असिंचित क्षेत्रों में कुटकी की खेती प्रचलित है। छत्तीसगढ़ के बस्तर व बिलासपुर संभाग में कुटकी को कोसरा या चिकमा के नाम से जाना जाता है।
कुटकी एक शीघ्र पकने वाली फसल है। अतः असिंचित अवस्था में भी द्वि-फसली खेती के लिए यह एक आदर्श फसल है।  इसकी खेती उच्चहन भूमि में एकफसली के रूप में की जाती है। अतः इसके साथ दलहनी एंव तिलहनी फसलों (अरहरउड़दसोयाबीनतिल) की अन्तर्वर्तीय या मिश्रित खेती अपनाकर अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है। जून में बोई गई फसल अगस्त में तैयार हो जाती है। इसके बाद कुल्थीरामतिलतोरियाअरण्डीआदि की खेती सुगमता से की  जा सकती है।

मृदा एंव भूमि तैयारी

          कुटकी की खेती उचित जल निकास वाली भारी दोमट एंव रेतीली भूमियों में की जा सकती है। फसल के लिए भूमि का पीएच मान 5.5 से 7.5 के बीच उपयुक्त रहता है। हल्की क्षारीय तथा लवणीय भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर की मरहान (पथरीली व कंकड युक्त, कम उपजाऊ) तथा टिरा(ढालू व रेतीली ) भूमियों में कुटकी उगाई जाती है। बगैर बंधान या हल्के बंधान वाले  खेत कुटकी के लिए अधिक उपयुक्त रहते है। मानसून की पहली वर्षा के साथ खेत की तैयारी करना चाहिए। इसके लिए देशी हल या ट्रेक्टर से खेत की दो बार आड़ी-खड़ी जुताई करके पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

          कुटकी की स्थानीय किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करने से अधिक उपज ली जा सकती  है।
जवाहर कुटकी-1: इस किस्म का  बीज हल्का काला होता है। यह किस्म 75 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत 8 से 10 क्विंटल/ हेक्टेयर उपज क्षमता है।
टी.एन.ए.यू.-63: यह 90-95 दिन में तैयार होने वाली किस्म है जो कि औसतन 10-12 क्विंटल/ हेक्टेयर पैदावार देती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त रहती है।
जवाहर कुटकी-2: इसके दाने गोल, पीले रंग के होते हैं। पौधा 90 से 95 से. मी. ऊँचा व सीधा होता है। यह जाति 75 से 80 दिन में पककर तैयार होती है। औसत पैदावार 10 क्विंटल/ हेक्टेयर हैं।
जवाहर कुटकी-8: इसका दाना हल्का भुरे रंग का होता है। पौधे की ऊँचाई 80 से. मी. तथा 8 से 9 कल्ले निकलते हैं। यह 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10 से 12 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
तारिनी (ओएलएम-203): यह अधिक उपज देने वाली (12-15 क्विंटल/ हेक्टेयर.) किस्म है जो कि 85-95 दिन में तैयार हो जाती है। झुलसा रोग प्रतिरोधी किस्म है।
उपरोक्त किस्में मध्य प्रदेश में खेती हेतु  उपयुक्त पाई गई है .
पीआरसी-3: यह किस्म 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 6-7 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
आईजीएल-4: यह किस्म 70-75 दिन में पक कर तैयार होती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 7-8 क्विंटल/ हेक्टेयर हैं।
आईजीएल -10: यह किस्म 75-80 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 7-8 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
          कुटकी की उपरोक्त तीनों  किस्में छत्तीसगढ़  की मरहान एंव टिकरा भूमियों के लिए उपयुक्त पाई गई हैं।

बोआई का समय

          कुटकी शीघ्र पकने वाली फसल है। मानसून के आगमन के साथ इसकी बोआई जून के प्रथम पखवाड़े से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए। देर से बोआई करने पर इसके उत्पादन में कमी आती है।

बीज व बोआई

          अच्छे अंकुरण प्रतिशत वाले स्वस्थ बीज कतार बोनी हेतु 6-8 किग्रा. तथा छिड़कवाँ विधि से बोनी करने के लिए 8-10 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। मिश्रित फसल की बीज दर कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है जो कि शुद्ध फसल से कम रहती है। कोदो की फसल में बीज जनित व मृदा जनित रोगों का प्रकोप होता है। फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज से उपचारित कर बोना चाहिए।
          आमतौर पर किसान  कुटकी की बोआई छिटककर या बिखेरकर करते  है। इस विधि से बीजान्कुरण एकसार नहीं होता है जिसके फलस्वरूप पर्याप्त पौध संख्या ना होने के कारण उन्हें उपज कम मिलती है। अतः कुटकी की बेहतर उपज के लिए बोनी कतार विधि से  ही करनी चाहिए। इसका बीज छोटा, गोल एंव चिकना होता है अतः एक सार बोआई के लिए एक भाग बीज को 20 भाग रेत या भुरभुरी गोबर की खाद के साथ  मिलाकर बुआई करना अच्छा रहता है । कतार बोआई हेतु दो कतारों के बीच 22-25 सेमी. की दूरी रखना चाहिए। कतार में पौध -से -पौध के बीच 8-10 सेमी. का फसला रखना उचित रहता है। बोआई के बाद हल्का पाटा चलाकर बीज को ढँक देना चाहिए। बोआई के 15-20 दिनों बाद पौध विरलीकरण कर पौधों के मध्य वांछित दूरी स्थापित की जा सकती है।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर कुटकी में खाद व उर्वरकों का प्रयोग किसान नहीं करते हैं। परंतु अन्य फसलों की तरह इसे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हेतु खाद एंव उर्वरक देना आवाश्यक होता है और तभी अच्छा उत्पादन प्राप्त हो सकता है प्रति हेक्टेयर 10 किग्रा. नत्रजन, 10 किग्रा, स्फुर एंव 10 किग्रा. पोटाश  बोआई के समय देना लाभकारी पाया गया है। इसके अलावा बोआई के एक माह बाद (फसल में कल्ले बनते समय) 10 किग्रा./हे. नत्रजन निंदाई के पश्चात् देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          वर्षा ऋतु की फसल होने के कारण कुटकी की फसल को भी खरपतवारों द्वारा क्षति होती है । इन पर नियंत्रण पाने के लिए बोआई के 20-25 दिनों बाद एक निंदाई करनी चाहिए। फसल अंकुरण पूर्व 2 किग्रा.एट्राजीन (50 प्रतिशत घुलनशील पावडर) को 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

कटाई एंव गहाई


          कुटकी की फसल 75-110 दिनों में पक जाती है। जब नीचे की पत्तियाँ सूखने लगे तथा निचली पत्तियाँ पीली पड़ने लगे तब कटाई करनी चाहिए। जून में बोई गई फसल अगस्त में पक जाएगी, अतः मौसम खुला होने पर शीघ्र ही काट लेना चाहिए। अधिक पकने पर कुटकी के दाने झड़ते हैं एंव चिडियाँ क्षति पहुँचाती हैं। अतः कटाई का कार्य समय पर करना आवश्यक है। कटाई के बाद फसल को अच्छे से सुखाकर गहाई करना चाहिए। दानों को धूप में सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। कुटकी की अच्छी फसल से 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर दाना  उपज प्राप्त की जा सकती है।
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सृष्टि की प्रथम खाद्यान्न फसल कोदों से ऐसे लें भरपूर उत्पादन


डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

          खाद्यान्न फसलों में कोदों (पेस्पैलम स्कोर्बिकुलेटम) भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न का दर्जा प्राप्त है । ऐसा माना जाता है की जब महर्षि विश्वामित्र जब  स्रष्टि की रचना कर रहे थे तो सबसे पहले उन्होंने कोदों अन्न की उत्पत्ति की थी. यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी आदिवासी प्रिय फसल है. यह गरीबों की फसल मानी जाती है क्योकि इसकी खेती अनउपजाऊ भूमियों में बगैर खाद-पानी के की जाती है। इसके दानो का इस्तेमाल चावल की तरह उबालकर  खाने में किया जाता है। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा, 65.9 कार्बोहाइड्रेट तथा 2.9 प्रतिशत राख पाई जाती है। मधुमेह के रोगियों के लिए चावल  व गेहूँ के स्थान पर कोदों अन्न  विशेष लाभकारी पाया गया है।
भारत में कोदो पैदा करने वाले राज्य महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक, तमिलनाडु के कुछ भाग, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल के कुछ भाग, बिहार, गुजरात एंव उत्तर प्रदेश है।  कोदो की खेती अधिकतर असिंचित क्षेत्रों में, खरीफ के मौसम में की जाती है। इसके बाद रबी के मौसम में कम पानी चाहने वाली फसलें जैसे, जौ मसूर, सरसों चना, अलसी आदि ली जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर गेहूँ की फसल भी ली जा सकती है। कोदों को धान, ज्वार, मक्का, अरहर ऊपरी खेतों में सावाँ, रागी के साथ मिलाकर भी बोया जा सकता है। हल्की भूमियों में तिल के साथ और भारी भूमियों में अरहर, ज्वार आदि के साथ कोदो को उगाया जा सकता है।

उपयुक्त जलवायु

          उष्ण एंव समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में कोदों की खेती होती है। भारत में इसकी खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। इस फसल के लिए 40-50 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। इसमें सूखा सहने की अच्छी क्षमता होती हैं।

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी

          कोदों की खेती के लिए दोमट तथा हल्की दोमट भूमियाँ उपयक्त रहती हैं।कंकरीली -पथरीली भूमियों में भी कोदो की खेती की जाती है। अच्छी उपज के लिए उचित जल निकास वाली ऊँची भूमि सर्वोत्तम रहती है। खेत को एक बार मिट्टि पलटने वाले हल से तथा 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जोत कर तैयार कर लेना चाहिए। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्मों का चयन 

          कोदों की उन्नत किस्मों की औसत उत्पादन क्षमता 17-22 क्विंटल/हेक्टेयर के मध्य है। जबकि स्थानीय किस्मों की उत्पादकता 10 क्विंटल/हेक्टेयर से भी कम होती है। अतः उपज के लिए अग्र लिखित उन्नत किस्मों के बीज का उपयोग करना आवश्यक होता है।
जवाहर कोदों: बीज भूरे रंग का तथा पकने की अवधि ल्रभग 110-120 दिन है। इस जाति की पैदावार लगभग 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
जवाहर कोदो-2: इसके बीच का रंग भूरा होता है। यह किस्म 110-115 दिनों में पककर तैयार होती है। इसकी औसत उपज 13 क्विंटल प्रति हे. है।
जवाहर कोदो-41: इसके दाने का रंग हल्का भूरा होता है। यह 105 से 108 दिन में पककर तैयार होती है तथा औसत पैदावार 20 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जवाहर कोदों-62: यह किस्म 95 से 100 दिन में पककर तैयार होकर  औसतन उपज 22 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है। यह किस्म सामान्य वर्षा वाले क्षेत्र तथा कम उपज वाली भूमि  के लिए उपयुक्त है।
जवाहर कोदों-101: इसके पौधों की ऊँचाई 60 सेमी. होती है। यह जाति 100 दिन में पककर तैयार होती हैै। दाना भूरा और बड़ा होता हैै। इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
जवाहर कोदों-46: दानों का रंग हल्का कत्थई होता है। पकने की अवधि 100-105 दिन है। इसकी औसत पैदावार 15-17 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जवाहर कोदों-364: इसके बीज गाढे भूरे या चाकलेट रंग के होते हैं। इसकी पैदावार 15-17 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जे. के.-76:  यह मात्र 85 दिन में पकने वाली किस्म है। इसकी उपज 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर होती है। 
उपरोक्त किस्मे मध्य प्रदेश में खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है। 
जीपीयूके-3: कोदो की यह किस्म 100 दिन में तैयार होती है जो कि 20-22 क्विंटल/हेक्टेयर उत्पादन देने में सक्षम है।
आईसीसीके-737: यह किस्म 95-10 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 20-25 क्विंटल/हेक्टेयर उपज क्षमता है।
          कोदों की उपरोक्त दोनों किस्में छत्तीसगढ़  की हल्की पथरीली भूमियों के लिए उपर्युक्त है।

बोआई का समय

          कोदों प्रमुख रूप से खरीफ ऋतु की फसल है। जून के अंतिम सप्ताह से लेकर मध्य जुलाई तक, जब खेत में पर्याप्त नमी होकोदों की बोआई कर देनी चाहिए। अगेती बोनी करने से रबी की फसल के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।

बीज एंव बोआई

          कोदों की फसल में बीज जनित एंव मृदा जनित रोगों का प्रकोप होता है। फसल की रोगों से सुरक्षा क लिए मोनोसान 5 ग्राम या सेरेसान 2 ग्राम, प्रति किग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित कर बीज बोना चाहिए। कोदो की बोआई छिटककर या बिखेरकर की जाती है। विधि से अंकुरण एक-सा नहीं होता हैं तथा उपज कम मिलती है। अधिकतम उपज के लिए बोनी कतार में ही करना चाहिए। कतार बोनी में 8-10 किग्रा. और छिडकवाँ विधि में 10-12 किग्रा. प्रति हे. बीज लगता है। बीज को 40-45 सेमी. की दूरी पर बनी पंक्तियों मंे हल के पीछे कूड़ में या फिर सीड ड्रिल द्वारा बोना चाहिए। बीज से बीज की दूरी 8-10 सेमी. रखी जाती है जो कि बोआई के 15-20 दिन बाद पौध विरलीकरण करके प्राप्त की जा सकती है। बीज बोने की गहराई लगभग 3 सेमी. रखना चाहिए। कोदो का बीज छोटा, गोल एंव चिकना होता है, अतः बीज को 20 भाग रेत या गोबर की सूखी एंव भुरभुरी खाद के साथ मिलाकर बोआई करना चाहिए। अन्तर्वर्तीय या मिश्रित फसल लेने पर कोदो की बीज दर, कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है जो कि शुद्ध फसल से कम होती है।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर किसानकोदों में खाद एंव उर्वरकों का प्रयोग कम करते हैं, जिससे उत्पादन भी कम प्राप्त होता है। कोदो की अच्छी फसल लेने के लिए 40 किग्रा. नत्रजन , 20 किग्रा. फाॅस्फोरस व 20 किग्रा. पोटाॅश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। इन उर्वरकों को बोआई से पहले खेत में छिड़ककर मिला देना चाहिए। यदि गोबर की खाद या कम्पोस्ट उपलब्ध हो, तो 5-7 टन प्रतिहे. अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए। जैविक खाद देने पर उर्वरकों की मात्रा आधी कर देनी चाहिए।

सिंचाई एंव जल निकास

          कोदों वर्षा ऋतु की फसल है, अतः इसे अलग से सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। अवर्षा की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। इस फसल की खेती के लिए खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          कोदों को भी अन्य फसलों की भाँति खरपतवारों से हानि होती है। बोआई के 20-25 दिन पश्चात् पहली और 45-50 दिन बाद दूसरी निंदाई करनी चाहिए। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु एट्राजीन (50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर) 2 किग्रा. /हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़कना चाहिए।

कटाई - मड़ाई

          कोदों की फसल 90-110 दिन (सितम्बर-नवम्बर) तक पककर तैयार हो जाती है। उचित समय पर कोदो की कटाई करना आवश्यक रहता है। अधपके अवस्था में इस फसल की कटाई करने पर कोदो के बीजों में विषैले पदार्थ की मात्रा अधिक रह जाती है। कटाई योग्य कोदो की फसल की पत्तियाँ सूखकर भूरी हो जाती हैं एंव दाना काला व कठोर हो जाता है। इस अवस्था में कोदो के दानों में 15-17 प्रतिशत नमी होती जो कि भण्डारण हेतु उपयुक्त नहीं मानी जाती है। अतः पूर्ण रूप से पकी हुई फसल की बालियाँ काट लेते हैं अथवा सम्पूर्ण पौधों की कटाई करके एक सप्ताह तक धूप में सुखाना चाहिए। इसके पश्चात् हाथ से पीटकर या बैलों की दांय  चलाकर मड़ाई की जाती है। तत्पश्चात् ओसाई कर दाना भूषा  अलग किया जाता है।

उपज एंव भण्डारण

          कोदों की अच्छी फसल से 10-20 क्विं. प्रति हे. पुआल या भूसा प्राप्त होता है। दानों को अच्छी तरह सुखाकर नमी का अंश 10-12 प्रतिशत होने पर नमी रहित स्थान पर अच्छी तरह भंडारित करना चाहिए। 

सावधानी से करें कोदों अन्न का इस्तेमाल: कोदों के दाने तथा पुआल कुछ विशेष दशाओं में विषैलापन उत्पन्न करते है। जिससे दाने भोजन के योग नही रहा जाते हैं। अतः ध्यान रखें कि दाने खूब पके हुए हों और कम से कम 6 माह पुराने गोदाम में रखे हुए हों, तभी खाने हेतु प्रयोग करना चाहिए। अधिक नमी की अवस्था में केादो भंडारण से विष उत्पन्न होता है। यदि वर्षा या बदली के समय इसकी कटाई की गई हो अथवा भण्डारण के समय दानों में  अधिक नमी होने पर इनमें विषैलापन उत्पन्न हो जाता है। यदि कोदो के भंडारण में किसी प्रकार नमी का प्रवेश हो जाता है तब इसमें सड़न की क्रियायें आरंभ हो जाती हैं। परिणामस्वरूप टोमेन नामक विष उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दशा में भंडार गृह में प्रवेश करने या ऐसे विषैले अन्न का भोजन करने से मानव स्वास्थ को भारी क्षति अथवा मृत्यु तक हो सकती है।
कोदों का चारा मवेशिओं  के लिए हानिकारक : इसका पुआल घटिया किस्म का होता है। अतः इसे पशु चाव से नहीं खाते हैं। घोड़ों के लिए इसका भूसा विषयुक्त होता है। इसलिए घोड़ो को इसका चारा-भूसा नहीं दिया जाना चाहिए ।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।