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सोमवार, 15 मई 2017

रोपण पद्धति से अधिक फायदेमंद है धान की सीधी बुआई तकनीक

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
खाद्यान्न फसलों में गेंहू के  बाद धान सबसे महत्वपूर्ण फसल है।  हमारे देश में लगभग 43.5 मिलियन  हेक्टेयर  क्षेत्र में धान की खेती की जाती है जिससे 2.4 टन प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 105.5 मिलियन टन उत्पादन हो रहा है।  धान की खेती के अन्तर्गत लगभग  21 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र वर्षा पर आधारित है। सिंचाई के सीमित साधन होने की वजह से साठ के दशक में धान की खेती प्रायः सूखी अवस्था में अथवा खेतों की मचाई कर अंकुरित बीजों को बिखेरकर की जाती थी। सत्तर के दशक में हरित क्रांति के फलस्वरूप बोनी किस्मों के प्रचलन एवं जापानी ढंग  से धान की खेती का  प्रचार प्रसार किया गया जिसके अन्तर्गत धान की पौध तैयार कर रोपण विधि से धान की खेती व्यापक रूप से की जाने लगी थी।  रोपित धान में निश्चित रूप से पौधों की उचित संख्या स्थापित होने, खरपतवार प्रकोप में कमीं होने तथा जल रिसाव से होने वाली हाँनि को कम करके उत्पादन और उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई जिसके कारण इस पद्धति को  किसानों ने व्यापक रूप से अपनाकर भरपूर लाभ भी लिया।  दूसरी तरफ  धान-गेंहू फसल पद्धति वाले क्षेत्रों में भूमिगत जलस्तर नीचे जाने, नहरों में पानी की अनिश्चितता तथा अंतिम मुहाने  नहरी पानी पहुँचने में कठिनाई, श्रमिकों की कमीं और मानसून के विलम्ब से आने की वजह से रोपाई का कार्य समय से न हो पाने से धान की उत्पादकता प्रभावित हुई है। शोध परिणामों से ज्ञात हुआ है की 15 जुलाई के बाद धान की रोपाई करने से मध्यम अवधि वाली किस्मों की उपज में लगभग 35 किग्रा./हेक्टेयर की दर से कमीं होती है।  विलंबित रोपाई से पैदावर में कमी के साथ-साथ रबी फसलों की बुवाई में देरी होने से उनकी उपज भी घट जाती है। प्रतिरोपण पद्धति से  धान की खेती में ज्यादा संसाधनों (पानी, श्रम तथा ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। धान उत्पादक क्षेत्रों  में इन सभी संसाधनों की लगातार हो रही कमी के कारण धान का उत्पादन पहले की तुलना में कम लाभप्रद होता जा  रहा है। धान उत्पादन का यह तरीका मीथेन गैस  उत्सर्जन को बढ़ाता है जो कि वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) और जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण है। यही नहीं रोपण पद्धति के लिए खेतों में पानी भरकर उसे ट्रेक्टर से मचाया जाता है जिससे मृदा के  भौतिक गुण जैसे मृदा सरंचना, मिट्टी संघनता तथा अंदरूनी सतह में जल की पारगम्यता आदि खराब हो जाती है जिससे आगामी फसलों की उत्पादकता में कमीं आने लगती है . जलवायु परिवर्तन, मानसून की अनिश्चितता, भू-जल संकट, श्रमिकों की कमीं और धान उत्पादन की बढती लागत को देखते हुए हमें धान उपजाने की परंपरागत पद्धति-सीधी बुआई विधि को पुनः अपनाना होगा तभी हम आगामी समय में पर्याप्त  धान पैदा करने में सक्षम हो सकते है . सीधे बुआई  का मतलब फसल को बिना तैयार की हुई जमीन में लगाना है। इसको  बिना जुताई-बुआई  या सीधी बुआई का नाम दिया गया है। लेकिन आधुनिक समय में जीरो टिलेज का मतलब पूर्व फसल के अवशेष युक्त भूमि को बिना जोते यात्रिंक बुआई को जीरो टिलेज कहते हैं।
धान में सीधी बुवाई क्यों आवश्यक है ?
               रोपण विधि से धान की खेती करने में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है।  अनुमान है की 1 किलो धान पैदा करने के लिए लगभग 5000 लीटर पानी की खपत होती है।  विश्व में उपलब्ध ताजे जल की सर्वाधिक खपत  धान की खेती में होती है।  एशिया महाद्वीप में उपलब्ध कुल सिंचाई जल की 50% मात्रा धान फसल सिंचन में प्रयुक्त होती है।  पानी की अन्य क्षेत्रों में मांग बढ़ने के कारण आने वाले समय में खेती के लिए पानी की उपलब्धता कम होना सुनिश्चित है।  रोपण विधि से धान की खेती करने के लिए समय पर नर्सरी तैयार करना, खेत में पानी की उचित व्यवस्था करके मचाई करना एवं अंत में मजदूरों से रोपाई करने की आवश्यकता होती है। इससे धान की खेती की कुल लागत में बढ़ोतरी हो जाती है। समय पर वर्षा का पानी अथवा नहर का पानी  न मिलने से खेतों की मचाई एवं पौध रोपण करने में विलम्ब हो जाता  है।  पौध रोपण हेतु लगातार खेत मचाने से मिट्टी की भौतिक दशा बिगड़ जाती है जो कि रबी फसलों की खेती  के लिए उपयुक्त  नहीं रहती है जिससे इन फसलों की  उत्पादकता में कमीं हो जाती है। लगातार  धान-गेंहू फसल चक्र अपनाने से भूमि की भौतिक दशा ख़राब होने के साथ साथ उनकी उर्वरता भी कम हो गई है। इन क्षेत्रों में पानी के अत्यधिक प्रयोग से भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज होती जा रही है।  ऐसे में धान की रोपण विधि से खेती को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है।  धान की  सीधी बुवाई तकनीक अपनाकर उपरोक्त समस्याओं को कम किया जा सकता है एवं उच्च उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
धान की सीधी बुवाई तकनीक से लाभ
धान की रोपाई विधि से खेती करने मे किसानों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है,उनके समाधान के लिए धान की सीधी बुवाई तकनीक को अपनाना आवश्यक है । यह वास्तव में पर्यावरण हितैषी तकनीक है जिसमें कम पानी, थोड़ी सी मेहनत और  कम पूँजी में ही धान फसल से अच्छी उपज और आमदनी अर्जित की जा सकती है।   धान की सीधी बुवाई तकनीक के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैः
  • पानी की वचत:  धान की कुल सिंचाई की आवश्यकता का लगभग 20% पानी रोपाई हेतु खेत मचाने (लेव) में प्रयुक्त होता है। सीधी बुआई तकनीक अपनाने से  20 से 25 प्रतिशत पानी की बचत होती है क्योंकि इस इस विधि से धान की बुवाई करने पर खेत में लगातार पानी बनाए रखने की आवश्यकता नही पड़ती है।
  • समय और श्रमिकों की वचत: सीधी बुआई करने से रोपाई की तुलना में  25-30  श्रमिक प्रति हेक्टेयर की वचत होती है। इस विधि में   समय की बचत भी  हो जाती है क्योंकि इस विधि में धान की पौध तैयार और रोपाई करने की जरूरत नहीं पड़ती है।
  • धान की नर्सरी उगाने, खेत मचाने तथा खेत में पौध रोपण का खर्च बच जाता है।  इस प्रकार सीधी बुआई में उत्पादन व्यय कम आता है।  
  • रोपाई वाली विधि की तुलना में इस तकनीक में उर्जा व इंधन की बचत होती है. प्रति हेक्टेयर 35-40 लीटर डीजल की वचत होती है। 
  • समय से धान की बुआई संपन्न हो जाती है इससे इसकी उपज अधिक मिलने की संभावना होती है। 
  • धान की खेती रोपाई विधि से करने पर खेत की मचाई (लेव)  करने की जरूरत पड़ती है जिससे भूमि की भौतिक दशा पर विपरीत प्रभाव  पड़ता है जबकि  सीधी बुवाई तकनीक से  मिट्टी की भौतिक दशा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • इस विधि से किसान भाई जीरो टिलेज मशीन में खाद व बीज डालकर आसानी से बुवाई कर सकते  है । इससे बीज की वचत होती है और उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ती है। 
  • सीधी बुआई का धान रोपित धान की अपेक्षा 7-10 दिन पहले पक जाता है जिससे रबी फसलों की समय पर बुआई की जा सकती है। 
सीधी बुवाई के लिए उपयुक्त मशीने
              धान की सीधी बुवाई के लिए जीरो टिल ड्रिल अथवा मल्टीक्राप प्रयोग में लाया जाता है। सीधी बुआई हेतु बैल चलित सीड ड्रिल का भी उपयोग किया जा सकता है।  जिन खेतों में फसलों के अवशेष हो और जमीन आच्छादित हो वहा हैपी सीडर या रोटरी डिस्क ड्रिल जैसी मशीनों से धान की बुवाई करनी चाहिए। नौ कतार वाली जीरो टिल ड्रिल से करीब प्रति घण्टा एक एकड़ में धान की सीधी बुवाई हो जाती है। ध्यान देने योग्य बात है कि बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
सीधी बुवाई हेतु उपुयक्त किस्में
                किसान भाई प्रमाणित किस्मों  का समयानुसार और क्षेत्रानुसार चयन करके अधिक  उत्पादन ले सकते हैं। सिंचाई की उपलब्धता और क्षेत्र में वर्षा की स्थिति को देखते हुए उन्नत किस्मों/संकर प्रजातिओं का चयन करना चाहिए. छत्तीसगढ़ की असिंचित उच्चहन भुमिओं में अल्प अवधि वाली किस्मों जैसे आदित्य,अन्नदा, दंतेस्वरी,पूर्णिमा, सम्लेस्वरी, सहभागी धान, इंदिरा बारानी-1 का प्रयोग करना चाहिए. असिंचित अवस्था वाली मध्यम भुमिओं के लिए आई.आर.-64, इंदिरा एरोबिक-1, कर्मा मासुरी-1, दुर्गेस्वरी किस्मे उपयुक्त है. असिंचित निचली भुमिओं के लिए चंद्रहासिनी, कर्मा मासुरी, इंदिरा राजेश्वरी, दुर्गेस्वरी,महेश्वरी, महामाया, स्वर्णा,एमटीयू-1001, जलदुबी आदि किस्मों की खेती करना चाहिए. सिंचित अवस्था के लिए सम्लेस्वरी, चंद्रहासिनी, कर्मा मासुरी,राजेश्वरी,दुर्गेस्वरी,महेश्वरी, महामाया, स्वर्णा सब-1,एमटीयू-1001,आई.आर.-64, एमटीयू-1010, इंदिरा सुगन्धित धान-1 आदि किस्मे उपयुक्त पाई गई है। 
 सीधी बुवाई का उचित समय
सीधी बुआई तकनीक में उचित समय पर बुआई करना आवश्यक पहलू है।  मानसून आने के 15-20 दिन पूर्व खेत में पलेवा करके बुआई संपन्न कर लेना चाहिए।   छत्तीसगढ़ में मानसून आगमन के पहले ही धान की बुआई सूखे खेतों में (खुर्रा विधि) की जाती है।  देर से तैयार होने वाली किस्में (130-150 दिन) की बुआई  25 मई से 10 जून, मध्यम अवधि (110-125 दिन) की बुआई  10 जून से 25 जून तथा शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों   (80-110 दिन) की बुआई 25 जून से 15 जुलाई तक संपन्न कर लेना चाहिए. मानसून प्रारंभ होने के पश्चात बाई करने पर खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। 
बीज दर एवं बुआई
          सामान्यतौर पर किसान भाई धान की सीधी बुआई में 75-100 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर प्रयोग करते है, जो की अलाभकारी है।   बीज दर को कम करके उत्पादन लागत को कम किया जा सकता है।  सीधी बुवाई विधि  हेतु 45  से 50  किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता  है। परन्तु बीज प्रमाणित हो तथा उनकी जमाव क्षमता 85-90 % होना चाहिए।  अंकुरण क्षमता कम होने पर बीज दर बढ़ा लेना आवश्यक है।  बुवाई से पूर्व धान के बीजों का उपचार अति आवश्यक है। सबसे पहले बीज को 8-10 घंटे पानी में भींगोकर उसमें से खराब बीज को निकाल देते हैं। इसके बाद एक किलोग्राम बीज की मात्रा के लिए 0.2 ग्राम सटेप्टोसाईकलीन के साथ 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम मिलाकर बीज को दो घंटे छाया में सुखाकर सीड ड्रिल मशीन  द्वारा बुआई की जाती है। 
सीधी बुआई विधि
           धान की सीधी बुआई दो  विधिओं से की जाती है।  एक विधि में खेत तैयार कर ड्रिल द्वारा बीज बोया जाता है . बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमीं होना आवश्यक है. दूसरी विधि में खेत में लेव लगाकर अंकुरित बीजों को ड्रम सीडर द्वारा बोया जाता है।  बुवाई से पूर्व धान के खेत को यथासंभव समतल कर लेना चाहिए। धान की सीधी बुवाई करते समय बीज को 2-3  से.मी. गहराई पर ही बोना चाहिए। मशीन द्वारा सीधी बुवाई में कतार से कतार की दूरी 18-22  से.मी. तथा पौधे की दूरी 5-10 से.मी. होती है। छत्तीसगढ़ के किसानों में सीधी बुआई की धुरिया/खुर्रा बोनी प्रसिद्ध है। इस विधि में वर्षा आगमन से पूर्व खेत तैयार कर सूखे खेत में धान की बिजाई की जाती है. अधिक उत्पादन के लिए इस विधि से बुआई खेत की अकरस जुताई करने के उपरान्त जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित बुआई यंत्र(नारी हल में पोरा लगाकर) अथवा ट्रेक्टर चलित सीड ड्रिल द्वारा कतारों में 20 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। 
सीधी बुआई की बियासी विधि
          छत्तीसगढ़ राज्य में धान की अधिकांश खेती (70-80% क्षेत्र) इस विधि से की जाती है। इसमें वर्षा आरम्भ होने पर खेत की जुताई कर छिटकवां विधि से बीज बोने के पश्चात् देशी हल या पाटा चलाकर बीज ढँक दिया जाता है। बुआई के 30-35 दिन बाद जब खेत में 15-20 सेमी.पानी भर जाता है तब कड़ी फसल में बैल चलित हल से बियासी कार्य किया जाता है। इस विधि में प्रति इकाई पौध संख्या कम होने से उपज कम प्राप्त होती है।  अधिक उपज प्राप्त करने के लिए इस विधि में बुआई कतारों में करने की सलाह दी जाती है।   
उर्वरक प्रबंधन
          मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद एवं  उर्वरको का सनुलित मात्रा में  प्रयोग करना चाहिए। सामान्यतः सीधी बुवाई वाली धान में प्रति हेक्टेयर 120-140  कि.ग्रा. नत्रजन, 50-60 किलो फास्फोरस  और 30 किलो पोटाश  की जरूरत होती है। नत्रजन की एक तिहाई और फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करना चाहिए।  शेष नत्रजन की मात्रा को दो बराबर हिस्सों में बांटकर कल्ले फूटते समय तथा बाली निकलने के समय कतारों में देवें । इसके अलावा धान-गेंहू फसल चक्र में 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट का प्रयोग बुवाई के समय करना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
         धान फसल पर किये गए अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि धान के खेत में लगातार जल भराब की जरूरत नहीं होती है । धान की सीधी बुवाई के समय खेत में उचित नमी होना जरूरी है.  सूखे खेत में बुवाई की स्थिति में बुवाई के बाद दुसरे दिन हल्की सिंचाई करना चाहिए। बुआई से प्रथम एक माह तक हल्की सिंचाई के द्वारा खेत में नमी बनाए रखना चाहिए। फसल में पुष्पन अवस्थ प्रारंभ होने से  25-30 दिन तक खेत में पर्याप्त नमी बनाए रखे। दाना बनने की अवस्था (लगभग एक सप्ताह में पानी की कमी खेत में नहीं होनी चाहिए। मुख्यतः कल्ला फूटने के समय, गभोट अवस्था और दाना बनने वाली अवस्थाओं में धान के खेत में पर्याप्त नमीं बनाए रखना आवश्यक है । कटाई से 15-20 दिन पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए जिससे फसल की कटाई सुगमता से हो सके।
खरपतवार नियंत्रण 

सीधी बिजाई वाले धान में खरपतवार  प्रकोप अधिक होता है। खरपतवार-फसल प्रतिस्पर्धा  के कारण धान उत्पादन में  20-80 प्रतिशत तक  गिरावट आ सकती है। अतः सीधी बिजाई वाले धान में खरपतवार नियंत्रण अत्यावश्यक है। धान की सीधी बुआई में प्रथम 2-3 सप्ताह तक खेत में खरपतवार रहित अवस्था प्रदान करना उचित पैदावार के लिए आवश्यक है . सूखी अवस्था में धान की बुआई करने के बाद पेंडीमेथिलिन 30% की 3.3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के दुसरे-तीसरे दिन बाद परन्तु अंकुरण के पूर्व छिडकाव करना चाहिए।  इससे चौड़ी पत्ती तथा घासकुल के खरपतवारों का जमाव रुक जाता है।  बुआई के 20-25 दिन बाद आलमिक्स 20% की 20 ग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के साथ साथ मोथा  कुल के खरपतवार भी नियंत्रित रहते है।  इसके बाद खरपतवार प्रकोप होने पर 1-2 निराई की जा सकती है। 

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

रविवार, 14 मई 2017

घातक हो सकते है भारत में गाजर घास के पसरते पाँव

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, 
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

गाजर के पौधे के सामान दिखने वाली वनस्पति गाजर घास एक  उष्णकटिबंधीय अमेरीकी मूल का शाकीय पौधा है जो आज देश के समस्त  क्षेत्रों में मानव, पशु, पर्यावरण और जैव विविधितता हेतु एक गंभीर समस्या बनता जा रहा  है। चूंकि पौधे की पत्तियाँ गाजर की पत्तियों के समान होती हैं इसलिए इसे गाजर घास के नाम से जाना जाता है। भारत में इस पौधे का आगमन अमेरिका तथा मेक्सिको से आयातित गेहुँ की विभिन्न प्रजातियों के साथ हुआ था। सर्वप्रथम इस पौधे को 1956 में पुणे, महाराष्ट्र के सूखे खेतों  में देखा गया था। आज इस विदेशी मूल के पौधे ने देश के सभी राज्यों  में  अपना अधिकार जमा लिया है। गाजर घास को देश के विभिन्न कभागों  के छायादार सिंचित क्षेत्रों, शहरी क्षेत्रों, जल स्त्रोतों, रेल की पटरिओं और सडकों के किनारे, आवासीय परिसरों और नए निर्माण स्थलों में सहजता से देखा जा सकता है।  वस्तुतः जैविक महामारी के रूप में भारत ही नहीं वरन विश्व भर में तांडव मचाने  वाली विदेशी मूल की यह वनस्पति देश में कांग्रेस घास, चांदनी घास,पंधारी फुले,चटक चांदनी आदि  नामों से कुख्यात है। गाजर घास का वैज्ञानिक नाम पार्थिनियम हिस्टेरिफोरस  है और यह पौधा पुष्पीय पौधों के एस्टेरेसी  कुल का सदस्य है। पौधे की औसत ऊँचाई  0.5-1 मीटर तक होती है। गाजर घास एक वर्षीय  पौधा है  जो वर्ष में कभी भी और कही भी उग जाता है  तथा एक माह की आयु में ही पुष्पन की क्रिया प्रारंभ कर 6-8 माह तक फलता फूलता रहता  है। इसके पौधे  एक बार में  15000 से 25,000 सूक्ष्म बीज  पैदा करते  है जिनका प्रशारण  वायु द्वारा दूर-दूर तक होता है। खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय जबलपुर द्वारा किये गए आंकलन के अनुसार भारत में गाजर घास लगभग 350  लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फ़ैल चुकी है जिसका समय रहते उन्मूलन नहीं किया गया तो गाजर घास देश के लिए नाशूर बन सकती है। 
गाजर घास के दुष्प्रभाव
यह  खरपतवार न केवल फसलों के उत्पादन को प्रभावित करता है वल्कि  मनुष्य एवं पालतू पशुओं के स्वास्थ्य लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर रहा  है। खेतों में फैलकर गाजर घास शीघ्र बढ़कर फसलों और फलोद्यान के पौधों के साथ स्थान, प्रकाश, नमीं और पोषक तत्वों के साथ प्रतिस्पर्धा कर उनकी उपज और उत्पाद की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। इसकी वजह से फसल उपज में 30-50 % से अधिक हाँनि हो सकती है।    रासायनिक दृष्टि से गाजर घास की पत्तियों और फूलों में सबसे अधिक मात्रा में ‘पार्थेनिन’ (सर्वाधिक 0.33 %) तथा ‘कोरोनोपिलिन’ नामक रसायन पाये जाते है।  इन योगिकों में एलर्जी पैदा करने वाले गुणों की पुष्टि हो चुकी है।  इस घास में विद्यमान रसायन आसपास की फसलों एवं वनस्पतियो की वृद्धि को रोक देते है।  इसके अलावा मानव स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल एवं हानिकारक प्रभाव पड़ता है. शारीर से  छू जाने पर त्वचा पर खुजली और तीव्र जलन के पश्चात एलर्जी हो जाती है।  इसके फूलों के  पराग से मनुष्यों में श्वास सम्बन्धी बिमारियाँ जैसे दमा, ब्रान्काइटिस आदि पैदा होती हैं। खेत में गाजर घास की निंदाई-गुड़ाई करने में किसानों को स्वास्थ्यजन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है।   पशुओं में भी इस पौधे से त्वचा संबंधित बिमारियाँ होती हैं। गाजर घास मृदा में उपस्थित नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओं के विकास एवं विस्तार पर विपरीत प्रभाव डालता है। इसके कारण दलहनी फसलों में जड़ ग्रन्थियों की संख्या घट जाती है। यह पौधा जहाँ उगता है वहां यह पौधों की अन्य प्रजातियों को विस्थापित कर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेता है जिससे जैव-विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। जाने अनजाने में गाजर घास के संपर्क में आजाने पर शीघ्र ही स्वच्छ जल से हाथ-मुंह धोना चाहिए। इससे एलर्जी की शिकायत होने पर चिकित्सक से संपर्क कर उपचार करना आवश्यक है। 
गाजर घास का उन्मूलन और प्रबंधन
             भारत में तेजी से पाँव पसारती गाजर घास के दुष्प्रभाव से बचने और इसके उन्मूलन के लिए जन जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है।  हाल ही के  कुछ वर्षो से राष्ट्रिय खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर द्वारा प्रति वर्ष जुलाई में गाजर घास उन्मूलन जन जागरूकता सप्ताह मनाया जाने लगा है।    गाजर घास के घातक प्रभाव से बचने के लिए इसके पौधों में फूल आने के पहले जड़ समेत उखाड़कर जला देना ही सर्वोत्तम उपाय है.इसके रासायनिक नियंत्रण हेतु तीन लीटर ग्लाइफोसेट प्रति हेक्टयर की दर से 800 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए. परन्तु फसलों के साथ उगी गाजर घास के नियंत्रण हेतु इस रासायनिक का उपयोग नहीं करना है वर्ना फसल भी चौपट हो सकती है।  फसल अंकुरण से पूर्व क्लोरिमुरान तथा मेटसल्फुरान नामक खरपतवारनाशिओं के प्रयोग से इस गाजर घास पर नियंत्रण पाया जा सकता है। फसल को बचाते हुए केवल गाजर घास को नष्ट करने के लिए मेट्रीब्यूजिन का प्रयोग भी कारगर साबित हुआ है।  इसके अलावा गेंदा और चरोटा जैसी प्रतिस्पर्धी वनस्पतियां  उगाने से गाजर घास का प्रकोप कम हो जाता है। गाजर घास के प्राकृतिक शत्रुओं में मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा) नामक कीट के लार्वा और वयस्क इसकी पत्तियों को खाते है जिससे इसके पौधे सूख जाते है। 
गाजर घास से बनायें उपयोगी खाद: घातक खरपतवार गाजर घास  को हाथ में  दस्ताने पहनकर उखाड़कर  हरी खाद के रूप में उपयोग कर इसको नियन्त्रित किया जा सकता है। पौधे में 1.5 से 2 प्रतिशत तक नाइट्रोजन की मात्रा होती है। गाजर घास को पुष्पित होने से पूर्व ही काटकर कृषि भूमि पर फैलाकर जुताई कर देने से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। खेत में जीवांश पदार्थों की वृद्धि के साथ-साथ नाइट्रोजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। जीवांश पदार्थों की वृद्धि के कारण मिट्टी की जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है जिसके  परिणामस्वरूप कम वर्षा में भी फसल की पैदावार अच्छी होती है। जीवांश पदार्थ मृदा की संरचना में भी सुधार करते हैं जिससे जल तथा वायु द्वारा मृदा अपरदन की संभावनायें क्षीण हो जाती है। वर्मी कम्पोस्ट बनाने के लिए भी गाजर घास का उपयोग किया जा सकता है। गाजर घास से तैयार खाद रासायनिक उर्वरकों से बेहतर है।  इसके लिए केंचुए की प्रजाति “एमाइन्थस एलेक्जैन्ड्राई” सबसे अधिक उपयुक्त एवं सक्रिय पाई गई है। गाजर घास से कम्पोस्ट खाद भी आसानी से तैयार किया जा सकता है। खेत के समीप गड्डा कर फूलविहीन गाजर घास जड़ सहित उखाड़कर  कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है। गाजर घास से जैविक खाद बना कर उपयोग करने से फसलों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होगी साथ ही गाजर घास उन्मूलन में भी सहायता मिलेगी । 
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सम-सामयिक कृषिः आषाढ़-श्रावण (जुलाई) माह की कृषि कार्य योजना


डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

            किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है की कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो एवं समसामयिक कृषि सूचनाओं को खेत-खलिहान तक उनकी अपनी भाषा में पहुँचाया जाना जरुरी है । समय अविराम रूप से गतिमान है। प्रकृति के समस्त कार्यो का नियमन समय से होता रहता है। अतः कृषि के समस्त कार्य यानि बीज अंकुरण, पौधों की वृद्धि, पुष्पन और परिपक्वता समय पर ही संपन्न होती है। कृषि के कार्य समयवद्ध होते है अतः समय पर कृषि कार्य संपन्न करने पर ही आशातीत सफलता की कामना की जा सकती है।  का वर्षा जब कृषि सुखाने जैसी कहावते भी समय के महत्त्व को इंगित करती है।  जब हम खेत खलिहान की बात करते है तो हमें खेत की तैयारी से लेकर फसल की कटाई-गहाई और उपज भण्डारण तक की तमाम सस्य क्रियाओं  से किसानों को रूबरू कराना चाहिए।  कृषि को लाभकारी बनाने के लिए आवश्यक है की समयबद्ध कार्यक्रम तथा नियोजित योजना के तहत खेती किसानी के कार्य संपन्न किए जाए। उपलब्ध  भूमि एवं जलवायु तथा संसाधनों के  अनुसार फसलों एवं उनकी प्रमाणित किस्मों का चयनसही  समय पर उपयुक्त बिधि से बुवाईमृदा परीक्षण के आधार पर उचित समय पर पोषक तत्वों का इस्तेमालफसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाईपौध  संरक्षण के आवश्यक उपाय के अलावा समय पर कटाईगहाई और उपज का सुरक्षित भण्डारण तथा विपणन बेहद जरूरी है।
         ग्रीष्म-वर्षा ऋतु का जुलाई यानी आषाढ़-श्रावण वर्षा प्रधान माह है। मानसून की सक्रियता के कारण वातावरण का तापक्रम कम हो जाता है और  सापेक्ष आद्रता बढ़ जाती है। बादलों  की घनघोर घटाएं, मिट्टी की सौंधी खुशबू तथा हरियाली की चादर ओढ़ती धरती इस समय  निहारते ही बनती हैं । इस माह वर्षा के  साथ तेज आँधियाँ चलने की भी संभावना रहती है। जुलाई महीने का औसतन अधिकतम एवं न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 30.3 एवं 23.7 डिग्री सेन्टीग्रेड संभावित होता है और  वायु गति अमूमन 11 किमी. प्रति घंटा हो सकती  है। खेतों  में बिजाई करने, पौध रोपण के साथ कृषि को एक नया रूप देने का यह उचित समय होता है।
माह के  प्रमुख मंत्र
समय पर बुवाई व संतुलित पोषक  तत्व प्रबंधनः फसलों  की समय पर बुवाई और  रोपाई करना सबसे महत्वपूर्ण कृषि मंत्र  है। देर से बुआई करने से उपज में भारी क्षति होने का अंदेशा रहता है। मृदा परीक्षण के आधार पर खरीफ फसलों की आवश्यकता के अनुरूप प्रमुख पोषक तत्वों  (नत्रजन, स्फुर और पोटाश) तथा कैल्सियम, सल्फर और सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग संतुलित मात्रा में, उचित  समय और सही विधि से इस्तेमाल  करना निहायत जरूरी है। 
खेत में उचित जल निकासः खरीफ में अचानक भारी वर्षा होने  की संभावना रहती है। अधिक वर्षा से फसलों को होने  वाले नुकसान से बचाने के  लिए खेत में उचित जल निकासी की व्यवस्था रखें। आवश्यकता से अधिक जल को  खेत के  निचलें भाग में डबरी या तालाब में संरक्षित करें जिससे आवश्यकता पड़ने पर इस पानी से फसल की सिंचाई की जा सकें ।
खेत में नमीं संरक्षण: ग्रीष्मऋतु में उपलब्ध पानी से अधिकतम लाभ लेने के  लिए भूमि से जल वाष्पीकरण को  कम करना आवश्यक है क्योंकि खेतों  का एक तिहाई जल वाष्पीकरण के  माध्यम से उड़ कर व्यर्थ चला जाता हैं। खेतों  में पलवार (मल्च) विछा देने से मृदा से जल की हांनि को  कम किया जा सकता है जिससे फसल पैदावार में भी इजाफा होता है। खेत में आने वाले वर्षा जल को खेत में रोकने की व्यवस्था करना चाहिए। इसके  लिए खेत के चारों तरफ मेंड़ बंदी करें जिससे वर्षा जल खेत में ही संरक्षित होगा जिससे  मृदा में नमीं स्तर बढ़ जायेगा।

आषाढ़-श्रावण (जुलाई) माह के प्रमुख कृषि कार्य 

खरीफ फसलों की बुआई और अन्य कृषि कार्यों के लिए आषाढ़-श्रावण सबसे महत्वपूर्ण महिना है। फसलोत्पादन से अधिकतम उत्पादन और आर्थिक लाभ लेने हेतु इस माह संपन्न किये जाने वाले प्रमुख कृषि कार्यो की चर्चा यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। 
  • खरीफ की महत्वपूर्ण धान्य फसल-धानः धान फसल की रोपाई इस माह समाप्त कर लेवें । खेत मचाई के  दूसरे दिन रोपाई करना उचित रहता है। रोपाई के लिये 20-30 दिन पुरानी पौध प्रयोग करें। रोपाई रस्सी की सहायता से 20-25 सेमी की दूरी पर कतारों में करें  तथा एक स्थान पर दो से तीन पौध सीधे तथा 3 सेमी. गहराई पर लगावें । अच्छा होगा यदि पौध (थरहा) को  क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. 1 मिली. दवा प्रति लीटर पानी तथा 2 किग्रा. यूरिया के घोल  में 3-4 घंटा डुबाने के पश्चात रोपाई करें ।
  • धान सघनीकरण पद्वति (श्री विधि) से धान की रोपाई कतार से कतार की दूरी 25 सेमी. एवं पौध से पौध  की दूरी 25 सेमी. (वर्गाकार) रखी जाती है। इस विधि में 8-12 दिन की पौध (दो  पत्ती अवस्था) की रोपाई  करना चाहिए । इसमें एक हेक्टेयर के  लिए 100 वर्गमीटर नर्सरी क्षेत्र और मात्र 8-10 किग्रा. स्वस्थ बीज की आवश्यकता होती  है। खेत में 20 टन गोबर की खाद मिलाएं। जैविक खाद उपलब्ध न होने  पर मध्यम अवधि वाली किस्मों  में 80 किग्रा. नत्रजन, 50 किग्रा. स्फुर एवं 30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोंग करें। स्फुर व पोटाश आधार खाद के रूप में तथा नत्रजन का उपयोंग तीन किश्तों-रोपाई के  एक सप्ताह बाद,कंशे फूटते  समय एवं गभोट अवस्था के  प्रारंभ काल में करें। रोपाई के  10, 2030 दिन बाद हस्तचलित कृषि यंत्र ताउचीगुरमा (कोनोवीडर) से निंदाई करने से खरपतवार नियंत्रण  के साथ-साथ पौधों की जड़ों को आवश्यक हवा भी उपलब्ध हो जाती है। वानस्पतिक बढ़वार के  समय खेत में समुचित नमीं विद्यमान रहना चाहिए। खेत में पानी का जमाव न रखें। फसल में कंशे निकलने की अवस्था के  समय 2-4 दिन खेत को  सूखने दें जिससे भरपूर कंशे निकलेंगे। फूल बनने एवं दाना भरने की अवस्था पर खेत में पानी का हल्का स्तर रखना चाहिए।
  • धान की किस्म व मृदा उर्वरता जांच के आधार पर उर्वरकों का इस्तेमाल  करना चाहिए। यदि किसी कारणवश भूमि परीक्षण न हुआ हो तो उन्नत किस्मों  में 80-100 किग्रा. नत्रजन, 50-60 किग्रा. फॉस्फोरस, एवं 30-40 किग्रा. पोटाश तथा  संकर धान में 120-130 किग्रा. नत्रजन, 60-80 किग्रा. फॉस्फोरस, एवं 50-60 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से से प्रयोग करे। नत्रजन की 20-30 प्रतिशत मात्रा तथा फॉस्फोरस  एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई या रोपाई के पूर्व प्रयोग करें। नत्रजन की  शेष 30 प्रतिशत मात्रा कंशे आते समय तथा 40 प्रतिशत मात्रा फसल में गभोट  अवस्था आने से 20 दिन पूर्व डालना चाहिए ।
  • रोपाई वाले धान में खरपतवार नियंत्रण के लिये ब्यूटाक्लोर 50 ई.सी. 3.0 लीटर या एनीलोफ़ॉस 30 ई.सी. 1.65 लीटर मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से रोपाई के 3-4 दिन के अन्दर प्रयोग करना चाहिए।
  • सीधे बोये  गये धान में बियासी व सघन चलाई करें व नत्रजन की शेष मात्रा देवें। बियासी करते समय खेत में 5-10 सेमी. जल स्तर होना चाहिए।  धान में यदि कटुआ इल्ली या फौजी कीट का प्रकोप हो तो  क्विनाल्फ़ॉस  1 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करे। खरपतवार नियंत्रण हेतु अंकुरण पूर्व आॅक्जाडायर्जिल या एनीलोफाॅस या ब्यूटाक्लोर  अथवा पेन्डीमेथेलिन का छिड़काव करें। अंकुरण बाद चैड़ी पत्ती  वाले खरपतवारो की रोकथाम हेतु इथाक्सी सल्फुरोन (सनराइज) या क्लोरिम्यूराँन और  मेटसल्फुरोन (आलमिक्स) या 2,4-डी (ग्रीन वीड, वीडमार) का छिडकाव करें।
  • लाभकारी फसल मक्काः यदि मक्का की बुवाई  पूर्व में नहीं हो पाई है तो उन्नत किस्मों  की बुवाई शीघ्र कर लें। बुवाई के 20-30 दिन के  अन्तर पर  निराई-गुड़ाई संपन्न करें। जून में लगाई गई मक्का में तना छेदक से 10 प्रतिशत मृत गोभ होने पर कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत ग्रेन्यूल 20 किग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए या फेनिट्रोथियान 50 ई.सी. 1.0 लीटर या क्यूनालफ़ॉस  25 ई.सी. 2 लीटर मात्रा प्रति हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए। पत्ती लपेटक कीट के रोकथाम हेतु क्लोरपायरीफ़ॉस  20 ई.सी. 1.0 ली. प्रति हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए।
  • ज्वारः ज्वार की बुवाई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय अधिक उपयुक्त है। एक हैक्टेयर क्षेत्र की बुवाई के लिये 12-15 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। खरपतवार नियंत्रण हेतु 500 ग्रा. एट्राजीन सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर को  600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त बाद छिड़काव करें।
  • बाजराः वर्षा ऋतु प्रारम्भ होते ही बाजरे की बुवाई करें । बुआई के लिये जुलाई का दूसरा व तीसरा सप्ताह उत्तम है। बारानी क्षेत्रों में प्रति हैक्टेयर 4-5 किलो बीज की आवश्यकता पड़ती है। बुआई कतारों में करें। 
  • अरहरः अरहर की कम समय में पकने वाली किस्मों की बुआई जुलाई के प्रथम सप्ताह में करें । एक हैक्टेयर के लिये 18-20 किग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है। सभी दलहनी फसलों के  बीज बुवाई पूर्व उचित राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना न भूलें।
  • मूंग व उड़दः  मूंग एवं उर्द की शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की बुआई संपन्न करें।प्रति हैक्टेयर इनका 15-20 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है। बुवाई कतारों  में ही करें।
  • सोयाबीनः सोयाबीन की बुआई अभी  नहीं की है तो  जुलाई के प्रथम सप्ताह तक उचित जल निकास युक्त खेतों में इसकी  बुवाई अवश्य संपन्न करें। सोयाबीन का प्रमाणित बीज 80-100 किग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से 30 सेमी. दूर कतारों में तथा 4-5 सेमी. गहराई पर  बोना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु अंकुरण पूर्व एलाक्लोर (लासो) या पेंडीमेथालिन (स्टॉम्प) या मेट्रीबुजीन (सेंकर) का छिडकाव अनुसंशित दर पर करें।
  • मूंगफलीः खरीफ की महत्वपूर्ण तिलहनी फसल मूंगफली की बुवाई माह के मध्य तक पूरी कर लेवें । बुआई हेतु  प्रति हैक्टेयर गुच्छेदार किस्मों  के लिये 80-100 किलो व फैलने वाली किस्मों  के लिये 60-80 किलो बीज की आवश्यकता पड़ती है। फैलने वाली प्रजातियों में 45 सेमी. तथा गुच्छेदार प्रजातियों में 30 सेमी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी तथा 15-20 सेमी. पौधे से पौधे की दूरी रखने से उचित  पौधों की संख्या प्राप्त होती है। गत माह लगाई गई मूंगफली फसल में आवश्यकतानुसार निंदाई-गुड़ाई कार्य संपन्न कर लेवें ।
  • तिलः मध्य जुलाई तक तिल की बुवाई करें । जीटीएस-8,कृष्णा, जीटीएस-21,तथा टीकेजी-21 तिल की उन्नत किस्मों  के प्रमाणित बीज बुआई हेतु प्रयोग  करें। प्रति हैक्टेयर 5-7  किलो बीज दर पर्याप्त होती है।बुवाई कतारों  में 30-40 सेमी. का फासला रखकर 2-3 सेमी. की गहराई पर कूड़ों में करें। पौध  से पौध के  बीच 10-15 सेमी. की दूरी स्थापित कर लेवें ।  बुवाई के  समय 25-30 किग्रा नत्रजन व स्फुर तथा 15-20 किग्रा. पोटाश उर्वरक खेत में मिलाएं।
  • गन्ना: गन्ने के  खेत में जल निकासी की व्यवस्था कर लेवें । यदि पौधों  पर मिट्टी नहीं चढ़ाई हैं तो तुरन्त यह कार्य संपन्न करें।  विभिन्न बेधक कीटों के  जैविक नियंत्रण हेतु ट्राइकोकार्डस (ट्राइकोग्रामा स्पेसीज के  अण्ड परिजीवी) को  गन्ना फसल में 50,000 प्रौढ़  प्रति हेक्टर 15 दिन के  अन्तराल से बांधे। गन्ना फसल  गिरने से बचाने के  लिए जुलाई के  मध्य पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ाना चाहिए। गन्ने की बढ़वार को  ध्यान में रखते हुए जुलाई के अन्तिम सप्ताह में भूमि सतह से 1.5 मीटर की ऊंचाई पर पहली बंधाई (नीचे और मध्य के सूखे पत्तों को  आपस में लपेटकर बांधने का कार्य) करें । बधाई करते समय फसल वृद्धि क्षेत्र खुला रखना चाहिये। 
  • कपास: फसल  में निंदाई-गुड़ाई कार्य संपन्न करें।
  • लोबिया एवं ग्वार: गत माह ग्वार व लोबिया फसलें यदि नहीं बोई गई  है तो  इस माह इनकी बुवाई संपन्न करे। बुआई के लिये लोबिया  का 30-40 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है।
  • चारे के लिये ज्वार, सूडान घास, मक्का और  नेपियर घास लगायी जा सकती है। ज्वार में प्रूसिक अम्ल नामक एक विषैला पदार्थ पाया जाता है अतः छोटी अवस्था में इसे जानवरों को न खिलायें। संकर ज्वार एवं एम पी चरी आदि में विष की मात्रा कुछ कम होती है।
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सम-सामयिक उद्यानिकी: ज्येष्ठ-आषाढ़ (जून) माह के प्रमुख कृषि कार्य

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र (छत्तीसगढ़) 

कृषि प्रधान देश होते हुए भी भारत में फल एवं सब्जिओं की खपत प्रति व्यक्ति प्रति दिन मात्र 80 ग्राम है,जबकि अन्य विकासशील देशों में 191 ग्राम, विकसित देशों में 362 ग्राम और  संसार में औसतन 227  ग्राम है।  संतुलित आहार में फल एवं सब्जिओं की मात्रा 268 ग्राम होना चाहिए। भारत में फल एवं सब्जिओं की खेती सीमित क्षेत्र में की जाती है जिससे उत्पादन में कम प्राप्त होता है। स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण फल और सब्जिओं के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार के साथ-साथ प्रति इकाई उत्पादन बढाने की आवश्यकता है ।  इन फसलों से अधिकतम उत्पादन और लाभ अर्जित करने के लिए किसान भाइयों को सम सामयिक कृषि कार्यो पर विशेष ध्यान देना होगा तभी इनकी खेती लाभ का सौदा साबित हो सकती है।  समय की गति के साथ कृषि की सभी क्रियाए चलती रहती है  अतः समय पर कृषि कार्य संपन्न करने से ही आशातीत सफलता प्राप्त होती है। प्रकृति के समस्त कार्यो का नियमन समय द्वारा होता है।  उद्यान के कार्य भी समयबद्ध होते हैं। अतः उद्यान के कार्य भी समयानुसार संपन्न होना चाहिए।   इसी तारतम्य में हम उद्यान फसलों (सब्जी, फल और पुष्प) के समसामयिक  कृषि कार्यो पर विमर्श प्रस्तुत कर रहे है। 
ग्रीष्म और वर्षा ऋतु के संधिकाल ज्येष्ठ-आषाढ़ यानि जून माह में वर्षा प्रारंभ हो जाने से वातावरण में कुछ शीतलता महसूस होने लगती है।  कृषि कार्य सुभारम्भ का यह महत्वपूर्ण समय होता है। खेतों की जुताई, जल निकास नालियों का सुधार और निर्माण, बीज और खाद की व्यवस्था इसी माह करना होती है।   ज्येष्ठ-आषाढ़ (जून) माह में  बागवानी फसलों में संपन्न किये जाने वाले प्रमुख कार्यों का संक्षिप्त  विवरण अग्र प्रस्तुत है। 

सब्जी फसलों के प्रमुख कृषि कार्य

बैंगनः फसल से तैयार फलों को तोड़कर बाजार भेजें। आवश्यकतानुसार सिंचाई तथा निराई-गुड़ाई करें। जुलाई-अगस्त में रोपाई हेतु  पौधशाला तैयार करें । उचित जल निकास वाले खेत में  क्यारियां 15 सेमी. ऊंची, 5 x 1 मीटर आकार वाली बनायें। प्रति हैक्टेयर की दर से 500 ग्राम बीज (संकर किस्म के  लिए 150 ग्राम) पौधशाला में बोंये। आवश्यकतानुसार सिंचाई और गुड़ाई करें। 
फूलगोभी: फूलगोभी की अगेती किस्में (पूसा रूबी,एस-101,पूसा अर्ली ) की रोपाई के लिए बीज की बुवाई पौधशाला में माह के  अंत में करें। क्यारियां 5 मीटर लंबी एवं 1 मीटर चौड़ी तथा 15 सेमी. ऊंची बनायें। एक हैक्टेयर के लिए पौधशाला में 400-500 ग्राम बीज बोयें।
भिण्डी:भिण्डी के तैयार फलों को नरम अवस्था में तोड़कर विक्रय हेतु बाजार भेजें। फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई निकाई-गुड़ाई करें। चूर्णिल आसिता रोग के प्रकोप होने पर 3 ग्राम घुलनशील गंधक या डिनोकेप  0.1 प्रतिशत का घोल  बनाकर छिड़काव करें। पीतशिरा रोग नियंत्रण हेतु मेटासिस्टाक्स (0.04 प्रतिशत) का छिड़काव करें। फल तथा तनाछेदक किट  नियंत्रण के लिए 500 पी.पी.एम. बी.टी.  कीटनाशक 1-1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। किट प्रभावित तने व फल तोड़ कर नष्ट करें। बर्षाती फसल की बुवाई करें। इसके लिए प्रति हैक्टेयर 8-10 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है। बुवाई कतारों  में 30 सेमी. की दूरी पर करें तथा पौध से पौध के बीच 10-15 सेमी. की दूरी बनाएं। फसल में 60 किग्रा.नत्रजन, 35 किग्रा. स्फुर एवं 30 किग्रा. पोटाश उर्वरक कतार में देवें ।
मिर्चः तैयार फलों की तुड़ाई कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें। फसल में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करें। पकी हुई मिर्च की तोड़कर सुखायें तथा बीज निकालें। वर्षाकालीन फसल के लिए पौधशाला में बीज बोयें। एक हैक्टेयर रोपाई के लिये 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। क्यारियां 15 सेमी.,ऊंची तथा 5 मी. चौड़ी एवं 1 मी. लंबी बनाएं ।
खीरावर्गीय सब्जियां: इस वर्ग की ग्रीष्मकालीन फसलों के फलों को  तोड़कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें। खरीफ की फसलों जैसे तोरई, लौकी, करेला व खीरा की उन्नत किस्मों  की बुवाई थालों  में करें। थाले 1.5 मीटर कतार एवं 1.0 मीटर थाले से थाले की दूरी पर बनार्यें। प्रत्येक थाले में 4-5 बीज बोयें। खेत ऊंचा हो जिसमें वर्षा ऋतु का पानी न भरे।
अदरक, हल्दी, अरबी,सूरन: इन फसलों  की बुवाई का कार्य पूरा करें । पूर्व में लगाई गई फसलों  में आवश्यकतानुसार सिंचाई व निराई करें। सभी कंद वाली फसलों  में 50 किलोग्राम यूरिया खड़ी फसल में डालकर सिंचाई करें। अरबी एवं सूरन में 0.2 प्रतिशत मैंकोजेब दवा का घोल बनाकर एक छिड़काव करें।
चौलाईः  पूर्व में बोई गई चौलाई में आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई व सिंचाई करें। तैयार पौधों को उखाड़कर छोटी-छोटी गड्ड़ियाँ बनाकर विक्रय हेतु बाजार भेजें।
फलोत्पादन में इस माह
आमः बाग की साफ़-सफाई करें। नए बाग लगाने के लिए पूर्व  में खोदे गये  गड्ढ़ों में  गोबर की खाद तथा मिट्टी को  बराबर मात्रा में मिलाकर भराई का कार्य पूर्ण करें। दीमक नियंत्रण हेतु मिट्टी में क्लोरपायरीफास दवा मिलाएं। मध्यम समय में तैयार  होने वाली आम की किस्मो को तोड़कर बाजार भेजें। नर्सरी में कलम बांधने का कार्य करें।    
केलाः पिछले माह खोदे गए गड़ढ़ों को भर दें। बाग की सिंचाई करें। पर्णचित्ती रोग की रोकथाम हेतु 0.25 प्रतिशत कॉपर ऑक्सी क्लोराइड  के घोल का छिड़काव करें।
नीबूवर्गीय फलः नए बाग लगाने के लिए गड्ढ़ों की भराई करें। जल निकास की नालियों की सफाई करें। फलदार पेड़ों में नाइट्रोजन व पोटाश की दूसरी मात्रा का प्रयोग करें।
अमरूदः फल वृक्षों के थालों  की सफाई  कर अनुशंसा अनुसार  खाद-उर्वरक दें एवं सिंचाई करें। नए बाग लगाने के लिए गड़ढ़े भर दें।
पपीताः  अगेती किस्म के फलों को तोड़कर विक्रय हेतु बाजार भेजें। पपीते की उन्नत किस्म की पौध जिसकी ऊंचाई 15-20 सेमी. हो, की रोपाई 2 x  2 मीटर की दूरी पर करें। प्रति गड्ढा 10 किलो गोबर की खाद, 300 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट, 50 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश, 50 ग्राम क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत डालने के  बाद गड्ढा भरकर पौधे लगायें।
आंवला व बेरः इनके पुराने वृक्ष जिनकी कटाई मार्च-अप्रैल में की गई थी उनकी नई शाखाओं  में कलिकायन (बडिंग)  का कार्य इस माह के अंत से प्रारम्भ कर दें। नए बाग लगाने के लिए गड़ढ़ों की भराई करें।
कटहलः बाग में एक बार सिंचाई करें। फल विगलन रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब का छिड़काव करें। नए बाग लगाने के लिए गड़ढ़ों की भराई करें। परिपक्व फलों को तोड़कर विक्रय हेतु बाजार भेजें।
लीची: बाग़ में नियमित सिंचाई करते रहे। पके तैयार फलों को तोड़कर विक्रय हेतु बाजार भेजें। 
फल-सब्जी संरक्षणः आम के विभिन्न तरह के शरबत, अचार तथा चटनी बनाई जा सकती है। इससे जैम अमावट आदि भी बनाए जा सकते है।
पुष्पोत्पादन में इस माह
शोभाकारी पौधे तैयार करने के  लिए गमले  एवं पोलीथिन  की थैलियों  में मिट्टी, बालू और  खाद का मिश्रण 3:1:2 के  अनुपात में भरें।
रजनीगन्धा में पोषक तत्वों के मिक्सचर का 15 दिन के अन्तर पर पर्णीय छिड़काव करें तथा एक सप्ताह के अन्तर पर क्यारियों की सिंचाई करें । माह के अन्त में गेंदा के फूलों  की दूसरी कटाई-तुड़ाई करें।
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