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सोमवार, 15 मई 2017

रोपण पद्धति से अधिक फायदेमंद है धान की सीधी बुआई तकनीक

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
खाद्यान्न फसलों में गेंहू के  बाद धान सबसे महत्वपूर्ण फसल है।  हमारे देश में लगभग 43.5 मिलियन  हेक्टेयर  क्षेत्र में धान की खेती की जाती है जिससे 2.4 टन प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 105.5 मिलियन टन उत्पादन हो रहा है।  धान की खेती के अन्तर्गत लगभग  21 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र वर्षा पर आधारित है। सिंचाई के सीमित साधन होने की वजह से साठ के दशक में धान की खेती प्रायः सूखी अवस्था में अथवा खेतों की मचाई कर अंकुरित बीजों को बिखेरकर की जाती थी। सत्तर के दशक में हरित क्रांति के फलस्वरूप बोनी किस्मों के प्रचलन एवं जापानी ढंग  से धान की खेती का  प्रचार प्रसार किया गया जिसके अन्तर्गत धान की पौध तैयार कर रोपण विधि से धान की खेती व्यापक रूप से की जाने लगी थी।  रोपित धान में निश्चित रूप से पौधों की उचित संख्या स्थापित होने, खरपतवार प्रकोप में कमीं होने तथा जल रिसाव से होने वाली हाँनि को कम करके उत्पादन और उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई जिसके कारण इस पद्धति को  किसानों ने व्यापक रूप से अपनाकर भरपूर लाभ भी लिया।  दूसरी तरफ  धान-गेंहू फसल पद्धति वाले क्षेत्रों में भूमिगत जलस्तर नीचे जाने, नहरों में पानी की अनिश्चितता तथा अंतिम मुहाने  नहरी पानी पहुँचने में कठिनाई, श्रमिकों की कमीं और मानसून के विलम्ब से आने की वजह से रोपाई का कार्य समय से न हो पाने से धान की उत्पादकता प्रभावित हुई है। शोध परिणामों से ज्ञात हुआ है की 15 जुलाई के बाद धान की रोपाई करने से मध्यम अवधि वाली किस्मों की उपज में लगभग 35 किग्रा./हेक्टेयर की दर से कमीं होती है।  विलंबित रोपाई से पैदावर में कमी के साथ-साथ रबी फसलों की बुवाई में देरी होने से उनकी उपज भी घट जाती है। प्रतिरोपण पद्धति से  धान की खेती में ज्यादा संसाधनों (पानी, श्रम तथा ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। धान उत्पादक क्षेत्रों  में इन सभी संसाधनों की लगातार हो रही कमी के कारण धान का उत्पादन पहले की तुलना में कम लाभप्रद होता जा  रहा है। धान उत्पादन का यह तरीका मीथेन गैस  उत्सर्जन को बढ़ाता है जो कि वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) और जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण है। यही नहीं रोपण पद्धति के लिए खेतों में पानी भरकर उसे ट्रेक्टर से मचाया जाता है जिससे मृदा के  भौतिक गुण जैसे मृदा सरंचना, मिट्टी संघनता तथा अंदरूनी सतह में जल की पारगम्यता आदि खराब हो जाती है जिससे आगामी फसलों की उत्पादकता में कमीं आने लगती है . जलवायु परिवर्तन, मानसून की अनिश्चितता, भू-जल संकट, श्रमिकों की कमीं और धान उत्पादन की बढती लागत को देखते हुए हमें धान उपजाने की परंपरागत पद्धति-सीधी बुआई विधि को पुनः अपनाना होगा तभी हम आगामी समय में पर्याप्त  धान पैदा करने में सक्षम हो सकते है . सीधे बुआई  का मतलब फसल को बिना तैयार की हुई जमीन में लगाना है। इसको  बिना जुताई-बुआई  या सीधी बुआई का नाम दिया गया है। लेकिन आधुनिक समय में जीरो टिलेज का मतलब पूर्व फसल के अवशेष युक्त भूमि को बिना जोते यात्रिंक बुआई को जीरो टिलेज कहते हैं।
धान में सीधी बुवाई क्यों आवश्यक है ?
               रोपण विधि से धान की खेती करने में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है।  अनुमान है की 1 किलो धान पैदा करने के लिए लगभग 5000 लीटर पानी की खपत होती है।  विश्व में उपलब्ध ताजे जल की सर्वाधिक खपत  धान की खेती में होती है।  एशिया महाद्वीप में उपलब्ध कुल सिंचाई जल की 50% मात्रा धान फसल सिंचन में प्रयुक्त होती है।  पानी की अन्य क्षेत्रों में मांग बढ़ने के कारण आने वाले समय में खेती के लिए पानी की उपलब्धता कम होना सुनिश्चित है।  रोपण विधि से धान की खेती करने के लिए समय पर नर्सरी तैयार करना, खेत में पानी की उचित व्यवस्था करके मचाई करना एवं अंत में मजदूरों से रोपाई करने की आवश्यकता होती है। इससे धान की खेती की कुल लागत में बढ़ोतरी हो जाती है। समय पर वर्षा का पानी अथवा नहर का पानी  न मिलने से खेतों की मचाई एवं पौध रोपण करने में विलम्ब हो जाता  है।  पौध रोपण हेतु लगातार खेत मचाने से मिट्टी की भौतिक दशा बिगड़ जाती है जो कि रबी फसलों की खेती  के लिए उपयुक्त  नहीं रहती है जिससे इन फसलों की  उत्पादकता में कमीं हो जाती है। लगातार  धान-गेंहू फसल चक्र अपनाने से भूमि की भौतिक दशा ख़राब होने के साथ साथ उनकी उर्वरता भी कम हो गई है। इन क्षेत्रों में पानी के अत्यधिक प्रयोग से भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज होती जा रही है।  ऐसे में धान की रोपण विधि से खेती को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है।  धान की  सीधी बुवाई तकनीक अपनाकर उपरोक्त समस्याओं को कम किया जा सकता है एवं उच्च उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
धान की सीधी बुवाई तकनीक से लाभ
धान की रोपाई विधि से खेती करने मे किसानों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है,उनके समाधान के लिए धान की सीधी बुवाई तकनीक को अपनाना आवश्यक है । यह वास्तव में पर्यावरण हितैषी तकनीक है जिसमें कम पानी, थोड़ी सी मेहनत और  कम पूँजी में ही धान फसल से अच्छी उपज और आमदनी अर्जित की जा सकती है।   धान की सीधी बुवाई तकनीक के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैः
  • पानी की वचत:  धान की कुल सिंचाई की आवश्यकता का लगभग 20% पानी रोपाई हेतु खेत मचाने (लेव) में प्रयुक्त होता है। सीधी बुआई तकनीक अपनाने से  20 से 25 प्रतिशत पानी की बचत होती है क्योंकि इस इस विधि से धान की बुवाई करने पर खेत में लगातार पानी बनाए रखने की आवश्यकता नही पड़ती है।
  • समय और श्रमिकों की वचत: सीधी बुआई करने से रोपाई की तुलना में  25-30  श्रमिक प्रति हेक्टेयर की वचत होती है। इस विधि में   समय की बचत भी  हो जाती है क्योंकि इस विधि में धान की पौध तैयार और रोपाई करने की जरूरत नहीं पड़ती है।
  • धान की नर्सरी उगाने, खेत मचाने तथा खेत में पौध रोपण का खर्च बच जाता है।  इस प्रकार सीधी बुआई में उत्पादन व्यय कम आता है।  
  • रोपाई वाली विधि की तुलना में इस तकनीक में उर्जा व इंधन की बचत होती है. प्रति हेक्टेयर 35-40 लीटर डीजल की वचत होती है। 
  • समय से धान की बुआई संपन्न हो जाती है इससे इसकी उपज अधिक मिलने की संभावना होती है। 
  • धान की खेती रोपाई विधि से करने पर खेत की मचाई (लेव)  करने की जरूरत पड़ती है जिससे भूमि की भौतिक दशा पर विपरीत प्रभाव  पड़ता है जबकि  सीधी बुवाई तकनीक से  मिट्टी की भौतिक दशा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • इस विधि से किसान भाई जीरो टिलेज मशीन में खाद व बीज डालकर आसानी से बुवाई कर सकते  है । इससे बीज की वचत होती है और उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ती है। 
  • सीधी बुआई का धान रोपित धान की अपेक्षा 7-10 दिन पहले पक जाता है जिससे रबी फसलों की समय पर बुआई की जा सकती है। 
सीधी बुवाई के लिए उपयुक्त मशीने
              धान की सीधी बुवाई के लिए जीरो टिल ड्रिल अथवा मल्टीक्राप प्रयोग में लाया जाता है। सीधी बुआई हेतु बैल चलित सीड ड्रिल का भी उपयोग किया जा सकता है।  जिन खेतों में फसलों के अवशेष हो और जमीन आच्छादित हो वहा हैपी सीडर या रोटरी डिस्क ड्रिल जैसी मशीनों से धान की बुवाई करनी चाहिए। नौ कतार वाली जीरो टिल ड्रिल से करीब प्रति घण्टा एक एकड़ में धान की सीधी बुवाई हो जाती है। ध्यान देने योग्य बात है कि बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
सीधी बुवाई हेतु उपुयक्त किस्में
                किसान भाई प्रमाणित किस्मों  का समयानुसार और क्षेत्रानुसार चयन करके अधिक  उत्पादन ले सकते हैं। सिंचाई की उपलब्धता और क्षेत्र में वर्षा की स्थिति को देखते हुए उन्नत किस्मों/संकर प्रजातिओं का चयन करना चाहिए. छत्तीसगढ़ की असिंचित उच्चहन भुमिओं में अल्प अवधि वाली किस्मों जैसे आदित्य,अन्नदा, दंतेस्वरी,पूर्णिमा, सम्लेस्वरी, सहभागी धान, इंदिरा बारानी-1 का प्रयोग करना चाहिए. असिंचित अवस्था वाली मध्यम भुमिओं के लिए आई.आर.-64, इंदिरा एरोबिक-1, कर्मा मासुरी-1, दुर्गेस्वरी किस्मे उपयुक्त है. असिंचित निचली भुमिओं के लिए चंद्रहासिनी, कर्मा मासुरी, इंदिरा राजेश्वरी, दुर्गेस्वरी,महेश्वरी, महामाया, स्वर्णा,एमटीयू-1001, जलदुबी आदि किस्मों की खेती करना चाहिए. सिंचित अवस्था के लिए सम्लेस्वरी, चंद्रहासिनी, कर्मा मासुरी,राजेश्वरी,दुर्गेस्वरी,महेश्वरी, महामाया, स्वर्णा सब-1,एमटीयू-1001,आई.आर.-64, एमटीयू-1010, इंदिरा सुगन्धित धान-1 आदि किस्मे उपयुक्त पाई गई है। 
 सीधी बुवाई का उचित समय
सीधी बुआई तकनीक में उचित समय पर बुआई करना आवश्यक पहलू है।  मानसून आने के 15-20 दिन पूर्व खेत में पलेवा करके बुआई संपन्न कर लेना चाहिए।   छत्तीसगढ़ में मानसून आगमन के पहले ही धान की बुआई सूखे खेतों में (खुर्रा विधि) की जाती है।  देर से तैयार होने वाली किस्में (130-150 दिन) की बुआई  25 मई से 10 जून, मध्यम अवधि (110-125 दिन) की बुआई  10 जून से 25 जून तथा शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों   (80-110 दिन) की बुआई 25 जून से 15 जुलाई तक संपन्न कर लेना चाहिए. मानसून प्रारंभ होने के पश्चात बाई करने पर खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। 
बीज दर एवं बुआई
          सामान्यतौर पर किसान भाई धान की सीधी बुआई में 75-100 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर प्रयोग करते है, जो की अलाभकारी है।   बीज दर को कम करके उत्पादन लागत को कम किया जा सकता है।  सीधी बुवाई विधि  हेतु 45  से 50  किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता  है। परन्तु बीज प्रमाणित हो तथा उनकी जमाव क्षमता 85-90 % होना चाहिए।  अंकुरण क्षमता कम होने पर बीज दर बढ़ा लेना आवश्यक है।  बुवाई से पूर्व धान के बीजों का उपचार अति आवश्यक है। सबसे पहले बीज को 8-10 घंटे पानी में भींगोकर उसमें से खराब बीज को निकाल देते हैं। इसके बाद एक किलोग्राम बीज की मात्रा के लिए 0.2 ग्राम सटेप्टोसाईकलीन के साथ 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम मिलाकर बीज को दो घंटे छाया में सुखाकर सीड ड्रिल मशीन  द्वारा बुआई की जाती है। 
सीधी बुआई विधि
           धान की सीधी बुआई दो  विधिओं से की जाती है।  एक विधि में खेत तैयार कर ड्रिल द्वारा बीज बोया जाता है . बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमीं होना आवश्यक है. दूसरी विधि में खेत में लेव लगाकर अंकुरित बीजों को ड्रम सीडर द्वारा बोया जाता है।  बुवाई से पूर्व धान के खेत को यथासंभव समतल कर लेना चाहिए। धान की सीधी बुवाई करते समय बीज को 2-3  से.मी. गहराई पर ही बोना चाहिए। मशीन द्वारा सीधी बुवाई में कतार से कतार की दूरी 18-22  से.मी. तथा पौधे की दूरी 5-10 से.मी. होती है। छत्तीसगढ़ के किसानों में सीधी बुआई की धुरिया/खुर्रा बोनी प्रसिद्ध है। इस विधि में वर्षा आगमन से पूर्व खेत तैयार कर सूखे खेत में धान की बिजाई की जाती है. अधिक उत्पादन के लिए इस विधि से बुआई खेत की अकरस जुताई करने के उपरान्त जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित बुआई यंत्र(नारी हल में पोरा लगाकर) अथवा ट्रेक्टर चलित सीड ड्रिल द्वारा कतारों में 20 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। 
सीधी बुआई की बियासी विधि
          छत्तीसगढ़ राज्य में धान की अधिकांश खेती (70-80% क्षेत्र) इस विधि से की जाती है। इसमें वर्षा आरम्भ होने पर खेत की जुताई कर छिटकवां विधि से बीज बोने के पश्चात् देशी हल या पाटा चलाकर बीज ढँक दिया जाता है। बुआई के 30-35 दिन बाद जब खेत में 15-20 सेमी.पानी भर जाता है तब कड़ी फसल में बैल चलित हल से बियासी कार्य किया जाता है। इस विधि में प्रति इकाई पौध संख्या कम होने से उपज कम प्राप्त होती है।  अधिक उपज प्राप्त करने के लिए इस विधि में बुआई कतारों में करने की सलाह दी जाती है।   
उर्वरक प्रबंधन
          मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद एवं  उर्वरको का सनुलित मात्रा में  प्रयोग करना चाहिए। सामान्यतः सीधी बुवाई वाली धान में प्रति हेक्टेयर 120-140  कि.ग्रा. नत्रजन, 50-60 किलो फास्फोरस  और 30 किलो पोटाश  की जरूरत होती है। नत्रजन की एक तिहाई और फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करना चाहिए।  शेष नत्रजन की मात्रा को दो बराबर हिस्सों में बांटकर कल्ले फूटते समय तथा बाली निकलने के समय कतारों में देवें । इसके अलावा धान-गेंहू फसल चक्र में 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट का प्रयोग बुवाई के समय करना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
         धान फसल पर किये गए अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि धान के खेत में लगातार जल भराब की जरूरत नहीं होती है । धान की सीधी बुवाई के समय खेत में उचित नमी होना जरूरी है.  सूखे खेत में बुवाई की स्थिति में बुवाई के बाद दुसरे दिन हल्की सिंचाई करना चाहिए। बुआई से प्रथम एक माह तक हल्की सिंचाई के द्वारा खेत में नमी बनाए रखना चाहिए। फसल में पुष्पन अवस्थ प्रारंभ होने से  25-30 दिन तक खेत में पर्याप्त नमी बनाए रखे। दाना बनने की अवस्था (लगभग एक सप्ताह में पानी की कमी खेत में नहीं होनी चाहिए। मुख्यतः कल्ला फूटने के समय, गभोट अवस्था और दाना बनने वाली अवस्थाओं में धान के खेत में पर्याप्त नमीं बनाए रखना आवश्यक है । कटाई से 15-20 दिन पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए जिससे फसल की कटाई सुगमता से हो सके।
खरपतवार नियंत्रण 

सीधी बिजाई वाले धान में खरपतवार  प्रकोप अधिक होता है। खरपतवार-फसल प्रतिस्पर्धा  के कारण धान उत्पादन में  20-80 प्रतिशत तक  गिरावट आ सकती है। अतः सीधी बिजाई वाले धान में खरपतवार नियंत्रण अत्यावश्यक है। धान की सीधी बुआई में प्रथम 2-3 सप्ताह तक खेत में खरपतवार रहित अवस्था प्रदान करना उचित पैदावार के लिए आवश्यक है . सूखी अवस्था में धान की बुआई करने के बाद पेंडीमेथिलिन 30% की 3.3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के दुसरे-तीसरे दिन बाद परन्तु अंकुरण के पूर्व छिडकाव करना चाहिए।  इससे चौड़ी पत्ती तथा घासकुल के खरपतवारों का जमाव रुक जाता है।  बुआई के 20-25 दिन बाद आलमिक्स 20% की 20 ग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के साथ साथ मोथा  कुल के खरपतवार भी नियंत्रित रहते है।  इसके बाद खरपतवार प्रकोप होने पर 1-2 निराई की जा सकती है। 

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