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बुधवार, 5 जून 2019

धरती पर जीवन बचाना है तो वायु प्रदूषण को हराना है


        धरती पर जीवन बचाना है, तो वायू प्रदूषण को हराना है 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)


विकास की अंधी दौड़ में हम प्रकृति से कितने दूर होते गए इसका हमें होश ही नहीं रहा। पहले हमने जीवन के लिए आवश्यक जल पीने लायक नहीं छोड़ा जिसके विकल्प के रूप में हमने घर में  प्यूरीफायर लगाये  और बाहर बोतलबंद पानी पीने लगे।  आज देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है।  अब बारी है प्राण वायु की और अब हवा भी अशुद्ध हो चली है जिसके चलते कहीं-कहीं शुद्ध हवा के सिलेंडर मिलने लगे है।  जल और वायु के अभाव में आखिर हम कब तक जिन्दा रहेंगे, यह विचारणीय और चिंतनीय विषय है।  

विश्व पर्यावरण दिवस 2019 फोटो साभार गूगल
आज विश्व पर्यावरण दिवस है, जो दुनिया वालों को याद दिलाता है की उन्हें धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखना है।  संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के नेतृत्व में आयोजित होने वाला यह वैश्विक स्तर का अभियान है चीन की मेजबानी में आयोजित होने वाले इस वर्ष (5 जून 2019) के पर्यावरण दिवस की विषय वस्तु "वायु प्रदूषण" अर्थात वायू प्रदूषण को हराना  है । प्रदूषण  एक विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्या है । आज कल पर्यावरण दिवस का आयोजन महज एक रस्म अदायगी प्रतीत होता है।  बेशक इस अवसर पर सरकारी और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों में बड़ी-बड़ी संगोष्ठियाँ, व्यख्यान आयोजित किये जाये, पेड़ लगाओं-पेड़ बचाओं के मनमोहक नारे दिए जाये, पर्यावरण सरक्षण के लोक-लुभावने बादे किये जाये, पर इस एक दिन को छोड़ शेष 364 दिन प्रकृति के प्रति हमारा अमानवीय व्यवहार इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने उदासीन और संवेदन शून्य हैं ? आज हमारे पास शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है। बेरहमी से जंगल उजाड़े जा रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट किये जा रहे हैं पर्यावरण जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके बिना जीवन की कल्पना करना बहुत नामुमकिन है, फिर भी आज हम बेपरवाह अपने पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं। 
                             

                           मिट्टी पानी और बयार, जिंदा रहने के ये आधार

पृथ्वी पर उपलब्ध जल एवं शुद्ध वायु हमारे जीवन के आधार हैं।  मानव जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्वपूर्ण है।  हमारे  वेद में कहा गया है कि वायु अमृत है, वायु प्राणरूप में स्थित है। भोजन के बिना आदमी कुछ दिन तक जिंदा रह सकता है। पानी के बिना कुछ घंटे जिंदा रह सकता है।  परंतु, हवा के बिना वह एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता है।  वायु प्रदूषण अर्थात हवा में ऐसे अवांछित गैसों, धूल के कणों आदि की उपस्थिति, जो लोगों तथा प्रकृति दोनों के लिए खतरे का कारण बन जाए। मानव प्रकृति का अभिन्न अंग है, परन्तु अपनी अविवेकी बुद्धि के कारण वह अपने आपको प्रकृति का अधिष्ठाता मानने की भूल करने लगा है जिसके परिणाम हमारे सामने है। वायु प्रदूषण के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 70 लाख लोनों की समय से पहले मृत्यु हो जाती है, जिसमें से 4 मिलियन लोगों की मृत्यु केवल एशिया प्रशांत क्षेत्र में होती है। दुनिया भर में दस में से नौ लोग विश्व स्वास्थ्य संघठन द्वारा सुरक्षित घोषित किये गए स्तरों से ख़राब और प्रदूषित हवा में सांस लेने के लिए अभिशप्त है।  भारत में भी वायु प्रदूषण मौत की बड़ी वजह बनता जा रहा है. वर्ष 2017 में ही भारत में तकरीबन 12 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई है. अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट की वायु प्रदूषण पर एक वैश्विक रिपोर्ट स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019’ में भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण के बारे में चेताया गया है।   इस रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण की वजह से 2017 में स्ट्रोक, मधुमेह, दिल का दौरा, फेफड़े के कैंसर या फेफड़े की पुरानी बीमारियों से पूरी दुनिया में करीब 50 लाख लोगों की मौत हुई।  इसमें सीधे तौर पर पीएम 2.5 के कारण 30 लाख लोगों की मौत हुई।  इसमें से करीब आधे लोगों की मौत भारत व चीन में हुई है. डब्लूएचओ की रिपोर्ट के कुछ अंश जान लेने आवश्यक हैं। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि वायु प्रदूषण की वजह से सम्पूर्ण विश्व में हर साल लगभग 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है। विश्व की आबादी का 91% हिस्सा आज उस वायुमंडल में रहने के लिए विवश है, जहाँ की वायु की गुणवत्ता डब्लूएचओ के मानकों के अनुसार बेहद निम्न स्तर की है। वायु मानकों के अनुसार हवा में प्रदूषण कण 80 पीएम के भीतर होने चाहिए, परन्तु भारत में शायद ही कोई शहर हो जहां सामान्य रूप से 150-200 पीएम् तक प्रदूषण न हो।  विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों की  सूची में भारत के कानपुर फरीदाबाद,नोएडा, गाजियाबाद, लखनऊ, वाराणसी,गया,पटना दिल्ली,लखनऊ आदि शहर आते है ।  वायु प्रदुषण एक ऐसा प्रदुषण है जिसके कारण दिन प्रतिदिन मानव का स्वास्थ्य खराब होता चला जा रहा है।  आज घर से बाहर निकलते ही प्रदूषित वायु का एहसास किया जा सकता है। 

वायु प्रदूषण के कारण

                   आज दुनिया जिस विकास की दौड़ लगा रही है, उसी में मानव विकास भी छिपा है। विलाशिता के जाल में फंसते हुए हमने ऐसे हालात पैदा कर दिए है कि न तो ज्यादा गर्मी बर्दाश्त कर पा रहे है और न ही ज्यादा ठण्ड।  इनसे राहत पाने के लिए हमने जो साधन जुटाए रखे है, वे स्वास्थ्य के लिए और भी घातक साबित हो रहे है। मसलन एयर कंडीशनर के अधिक उपयोग ने गर्मी-शर्दी को एक नया आयाम  दे दिया। अधिक गर्मी के पीछे वायु प्रदुषण है। गर्मी से निजात पाने के लिए इतेमाल किये जा रहे ए.सी. और फ्रिज वातावरण में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की मात्रा बढ़ाते है जिसका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।  एक सामान्य गाड़ी साल में लगभग 4.7 मीट्रिक टन कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जित करती है। एक लीटर डीजल की खपत से 2.68 किलो कार्बन डाइ ऑक्साइड निकलती है। पेट्रोल से यह मात्रा 2.31 किलो है। बस, ट्रक, कार, बाइक, कारखानों की चिमनियों से जान लेवा धुआं निकलता हुआ देखा जा सकता है. थर्मल पॉवर प्लांट से निकलने वाली फ्लाई एश (हवा में बिखरे राख के कण) हवा को दूषित कर रहे है. मोटर वाहनों की गति रोड पर प्रदूषण को बढ़ा रही है, वहीँ बीड़ी-सिगरेट का धुआं भी हवा को प्रदूषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. लकड़ी और गोबर के उपले  जलाने से भी वातावरण प्रदूषित हो रहा है।  धान के खेत से निकलने वाली मीथेन गैस भी वातावरण को प्रदूषित कर रही है तथा ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा दे रही है।  इसके अलावा भवन निर्माण कार्य, फसल अवशेष  (पराली) व प्लास्टिक को जलाने से भी वायु प्रदूषण बढ़ा है।  हमारे देश में सालाना 630-635 मिलियन टन फसल अवशेष पैदा होता है।  कुल फसल अवशेष उत्पादन का 58%धान्य फसलों से, 17% गन्ना, 20% रेशा वाली फसलों से तथा 5 % तिलहनी फसलों से प्राप्त होता है. वैसे तो पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक मात्रा में  फसल अवशेष जला दिए जाते है परन्तु आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार,छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भी फसल अवशेष जलाने की कुप्रथा चल पड़ी है जिससे वहां के पर्यावरण, मनुष्य एवं पशु स्वास्थ्य को भारी हानि हो रही है।  फसल अवशेष (पराली) जलाने से वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) बढती है तथा स्माग जैसी स्थिति पैदा हो जाती है जिससे सड़क दुर्घटनाएं बढती है. फसल अवशेष जलाने से वायु प्रदूषण बढ़ता है जिससे अस्थमा और दमा जैसी सांस से सम्बंधित रोगों के मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है।  यही नहीं हवा में सल्फर डाईऑक्साइड व नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से आँखों में जलन होने लगती है।

प्राणी मात्र की यही पुकार हरा भरा रहे यह संसार

इस वर्ष का विश्व पर्यावरण दिवस हर किसी को दुनिया भर में व्याप्त वायु प्रदूषण से निपटने का अवसर प्रदान कर रहा है।  मानव ने विकास की राह में विज्ञान के सहारे जो तरक्की हासिल की है और प्रकृति की अनदेखी की है, उसकी कीमत वो अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य से चुका रहा है। इसलिए अब अगर वो अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक खूबसूरत दुनिया और बेहतर जीवन देना चाहता है तो अब उसे उस प्रकृति की ओर ध्यान देना होगा। अब तक तो हमने प्रकृति का केवल दोहन किया है। अब समर्पण करना होगा। जितने जंगल कटे हैं उससे अधिक बनाने होंगे, जितने पेड़ काटे उससे अधिक लगाने होंगे, जितना प्रकृति से लिया, उससे अधिक लौटना होगा। इस धरती को हम जरा सा हरा भरा करेंगे, तो वो इस वातावरण को एक बार फिर से ताजगी के एहसास के साथ सांस लेने लायक बना देगी। हम सांस लेना तो नहीं छोड़ सकते, परन्तु सभी साथ मिलकर हवा को सांस लेने योग्य बना सकते हैं।  जब तक लोग वृक्ष को धरती का श्रृंगार नहीं समझेंगे और हरियाली से प्यार नहीं करेंगे, तब तक पर्यावरण दिवस मनाना केवल औपचारिकता भर रहेगा।

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मंगलवार, 4 जून 2019

धान की सीधी विधि से करें बुवाई, रोपाई से भी अधिक कमाई


       धान की सीधी विधि से करें बुवाई, रोपाई से भी अधिक कमाई
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

            धान विश्व की महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है तथा संसार की आधी आबादी की उदर पूर्ति चावल से होती है ।  भारत  में लगभग 44  मिलियन  हेक्टेयर  क्षेत्र में धान की खेती की जा रही है तथा इसका उत्पादन 106  मिलियन टन उत्पादन और उत्पादकता 24 टन प्रति हेक्टेयर निहित है।  हमारे देश में धान की खेती विभिन्न जलवायुविक परिस्थितियों अर्थात सूखी उपरांऊ भूमि से लेकर एक से डेढ़ मीटर गहरे पानी में विभिन्न ऋतुओं में की जाती है। धान की खेती पुर्णतः वर्षा और भूजल सिंचाई पर निर्भर करती है । देश में  लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र में धान की खेती रोपण विधि से की जाती है, जिसमें पौधशाला तैयार कर पौध को मचायें (लेव लगे खेत) गए खेत में श्रमिकों द्वारा रोपा जाता है। इस पद्धति में एक चौथाई मजदूर केवल नर्सरी की पौध उखाड़ने और रोपाई करने में लग जाते है । इसमें पानी और ऊर्जा की खपत बहुत अधिक होती है।  इसके अलावा धान-गेंहू फसल पद्धति वाले क्षेत्रों में अवर्षा के कारण  भूमिगत जलस्तर नीचे जाने, नहरों में पानी की अनिश्चितता तथा नहर के अंतिम मुहाने पानी पहुँचने में कठिनाई, श्रमिकों की कमीं और मानसून के विलम्ब से आने की वजह से रोपाई का कार्य समय से न हो पाने से धान की उत्पादकता प्रभावित हो रही है। प्रतिरोपण पद्धति से धान की खेती में ज्यादा संसाधनों (पानी, श्रम तथा ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। धान उत्पादक क्षेत्रों  में इन सभी संसाधनों की लगातार हो रही कमीं  के कारण धान की खेती पहले की तुलना में कम लाभप्रद होती जा रही है। रोपण पद्धति से धान लगाने के लिए खेतों में पानी भरकर उसे ट्रेक्टर से मचाया जाता है जिससे मृदा के  भौतिक गुण जैसे मृदा सरंचना, मिट्टी संघनता तथा अंदरूनी सतह में जल की पारगम्यता आदि खराब हो जाती है जिससे आगामी फसलों की उत्पादकता में कमीं आने लगती है   यही नहीं  धान उत्पादन का यह तरीका मीथेन गैस  उत्सर्जन को बढ़ाता है जो कि वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) और जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण है।
सीधी विधि से बोई गई धान फसल फोटो साभार गूगल
          जलवायु परिवर्तन, मानसून की अनिश्चितता, भू-जल संकट, श्रमिकों की कमीं और धान उत्पादन की बढती लागत को देखते हुए धान रोपने के तरीकों में बदलाव आज के समय की मांग  है । किसान भाइयों को धान उपजाने की परंपरागत पद्धति (रोपण विधि) की बजाय सीधी बुआई विधि (डायरेक्ट सीडेड राइस-डी एस आर) से धान की बिजाई करनी चाहिए  तभी हम आगामी समय में पर्याप्त  धान पैदा कर देश की खाध्य सुरक्षा को बरक़रार रखने  में सक्षम हो सकते है ।
क्यों हांनिकारक है धान की रोपाई विधि  ?
          रोपण विधि से धान की खेती करने में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है।  अनुमान है की 1 किलो धान उत्पादन हेतु 4000-4500 लीटर पानी की आवश्यकता  होती है।  विश्व में उपलब्ध ताजे जल की सर्वाधिक खपत  धान की खेती में होती है।    रोपण विधि से धान की खेती करने के लिए समय पर नर्सरी तैयार करना, खेत में पानी की उचित व्यवस्था करके मचाई करना एवं अंत में मजदूरों से रोपाई करने की आवश्यकता होती है। इससे धान की खेती की कुल लागत में बढ़ोतरी हो जाती है।  खरीफ के मौसम में वर्षा जल की उपलब्धतता में निरंतर कमीं आती जा रही है। समय पर वर्षा का पानी अथवा नहर का पानी  न मिलने से खेतों की मचाई एवं पौध रोपण करने में विलम्ब हो जाता  है।  पौध रोपण हेतु लगातार खेत मचाने से मिटटी की निचली सतह कठोर हो जाती है, परिणामस्वरूप मिट्टी में अन्तःश्रवण, वायु संचार एवं  पोषक तत्वों का संतुलन प्रभावित होने से फसल उत्पादन पर कुप्रभाव पड़ रहा है । लगातार धान-गेंहू फसल चक्र अपनाने से भूमि की भौतिक दशा ख़राब होने के साथ साथ भूमि की उर्वरता शक्ति में भी गिरावट होती जा रही है। इन क्षेत्रों में पानी के अत्यधिक प्रयोग से भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज होती जा रही है।  ऐसे में धान की रोपण विधि से खेती को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है।  धान की  सीधी बुवाई तकनीक अपनाकर उपरोक्त समस्याओं को कम किया जा सकता है एवं उच्च उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
क्या है धान की सीधी बुवाई तकनीक 
धान की सीधी बुवाई एक प्राकृतिक संसाधन सरंक्षण तकनीक है, जिसमें सीड ड्रिल (जीरो टिलेज) मशीन द्वारा धान के उपचारित बीजों एवं दानेदार उर्वरकों को पंक्ति में उचित दूरी एवं गहराई पर बुवाई करते है। धान की रोपाई विधि से खेती करने मे किसानों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है,उनके समाधान के लिए धान की सीधी बुवाई तकनीक को अपनाना आवश्यक है । यह वास्तव में पर्यावरण हितैषी तकनीक है जिसमें कम पानी, थोड़ी सी मेहनत और  कम पूँजी में ही धान फसल से अच्छी उपज और आमदनी अर्जित की जा सकती है।

                               ऐसे लें धान की सीधी बुवाई से अधिकतम उत्पादन

1.खेत की यूं करें तैयारी
खरीफ की सामान्य फसलों की भांति धान की सीधी बुवाई हेतु खेत तैयार किया जाता है ।वर्षा जल सरंक्षण हेतु ग्रीष्मकाल में मिटटी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करना चाहिए. बीज के बेहतर जमाव, पौधों के समुचित विकास, सिंचाई जल की बचत एवं खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत का समतल होना आवश्यक है । यदि संभव हो तो लेजर लैंड लेवलर मशीन से भूमि समतल कर लेवें  अन्यथा जुताई के बाद परंपरागत विधि से पाटा लगाकर खेत को समतल कर लें।
2.बुवाई  हेतु उपयुक्त मशीन
            साफ़ एवं फसल अवशेष रहित खेतों में   धान की सीधी बुवाई जीरो टिल ड्रिल अथवा मल्टीक्राप प्लान्टर से की जा सकती है । सीधी बुआई हेतु बैल चलित सीड ड्रिल का भी उपयोग किया जा सकता है।  जिन खेतों में फसलों के अवशेष हो, वहां हैपी सीडर या रोटरी डिस्क ड्रिल जैसी मशीनों से धान की बुवाई करनी चाहिए। नौ कतार वाली जीरो टिल ड्रिल (मशीन) से करीब प्रति घण्टा एक एकड़ में धान की सीधी बुवाई हो जाती है। ध्यान देने योग्य बात है कि बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमीं होनी चाहिए।
3.बुवाई का समय
सीधी बुआई तकनीक में प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु उचित समय पर बुआई करना है। उत्तरी और मध्य भारत में  मानसून आने के 10-12  दिन पूर्व अर्थात मध्य जून तक बुआई संपन्न कर लेना चाहिए।  सिद्धांततः मानसून के क्रियाशील होने से पहले धान की जड़ें भूमि में स्थिर हो जाये और पौधों में कम से कम 2-3 पत्ती निकल आये, जिससे खरपतवार धान के पौधों से पर्तिस्पर्धा करने में सफल न हो सकें। छत्तीसगढ़ में मानसून आगमन के पहले ही धान की बुआई सूखे खेतों में की जाती है, जिसे खुर्रा विधि के नाम से जाना जाता है ।  देर से तैयार होने वाली किस्में (130-150 दिन) की बुआई  25 मई से 15 जून, मध्यम अवधि (110-125 दिन) की बुआई  15  जून से 25 जून तथा शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों   (100-110 दिन) की बुआई 25 जून से 15 जुलाई तक संपन्न कर लेना चाहिए.  ऊपरी जमीन, जहाँ जल जमाव नहीं होता हो, वहां अल्प अवधि वाली किस्मों की सीढ़ी बुवाई 15-20 जुलाई तक की जा सकती है।  मानसून प्रारंभ होने के पश्चात बुवाई करने पर खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। 
4.सीधी बुवाई हेतु उपुयक्त किस्में
                किसान भाई प्रमाणित किस्मों के बीज समयानुसार और क्षेत्रानुसार चयन करके अधिक  उत्पादन ले सकते हैं। सिंचाई की उपलब्धता और क्षेत्र में वर्षा की स्थिति को देखते हुए उन्नत किस्मों/संकर प्रजातिओं का चयन करना चाहिए।   ऐसी किस्मों का चयन करना चाहिए जिनकी प्रारंभिक बढ़वार तीव्र गति से हो, जड़े गहरी हों तथा पानी की आवश्यकता कम हो।  छत्तीसगढ़ की असिंचित उच्चहन भुमिओं में अल्प अवधि वाली किस्मों जैसे आदित्य,अन्नदा, दंतेस्वरी,पूर्णिमा, सम्लेस्वरी, सहभागी धान, इंदिरा बारानी-1 का प्रयोग करना चाहिए।  असिंचित अवस्था वाली मध्यम भुमिओं के लिए आई.आर.-64, इंदिरा एरोबिक-1, कर्मा मासुरी-1, दुर्गेस्वरी किस्मे उपयुक्त है. असिंचित निचली भुमिओं के लिए चंद्रहासिनी, कर्मा मासुरी, इंदिरा राजेश्वरी, दुर्गेस्वरी,महेश्वरी, महामाया, स्वर्णा,एमटीयू-1001, जलदुबी आदि किस्मों की खेती करना चाहिए।  सिंचित अवस्था के लिए सम्लेस्वरी, चंद्रहासिनी, कर्मा मासुरी,राजेश्वरी,दुर्गेस्वरी,महेश्वरी, महामाया, स्वर्णा सब-1,एमटीयू-1001,आई.आर.-64, एमटीयू-1010, इंदिरा सुगन्धित धान-1 आदि किस्मे उपयुक्त पाई गई है। 
5. बीज दर एवं बीजोपचार  
         परम्परागत विधि से धान की रोपाई करने पर औसतन 50-60 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है।  सीधी बुवाई में सामान्यतया किसान भाई 75-80 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करते है जो अलाभकारी है।  शोध परिणामों से ज्ञात होता है कि धान की सीधी बुवाई हेतु 45-50 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। परन्तु यह भी आवश्यक है कि बीज प्रमाणित हो तथा उनकी जमाव क्षमता 85-90 % होना चाहिए।  अंकुरण क्षमता कम होने पर बीज दर बढ़ा लेना आवश्यक है। प्रमाणित किस्म के बाजार से क्रय किये गए बीज या संकर प्रभेदों के बीज उपचारित करने की आवश्यकता नहीं है परन्तु यदि किसान भाई स्वयं का बीज इस्तेमाल करते है तो  बुवाई से पूर्व धान के बीजों का उपचार अति आवश्यक है। सबसे पहले बीज को 8-10 घंटे पानी में भींगोकर उसमें से खराब बीज को निकाल देते हैं। इसके बाद एक किलोग्राम बीज की मात्रा के लिए 0.2 ग्राम सटेप्टोसाईकलीन के साथ 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम मिलाकर बीज को दो घंटे छाया में सुखाकर सीड ड्रिल मशीन  द्वारा बुआई की जाती है। 
6. ऐसे करें धान की सीधी बुआई विधि
           धान की सीधी बुआई दो  विधिओं यथा नम विधि एवं सूखी विधि से की जाती है। नम विधि में बुवाई से पहले एक गहरी सिंचाई की जाती है।  जुताई योग्य होने पर खेत तैयार कर सीड ड्रिल से बुवाई की जाती है।  बुवाई के बाद हल्का पाटा लगाकर बीज को ढँक दिया जाता है, जिससे नमीं सरंक्षित रहती है।  सूखी विधि में खेत को तैयार कर मशीन से बुवाई कर देते है और बीज अंकुरण के लिए वर्षा का इन्तजार करते है अथवा सिंचाई लगाते है. मौसम एवं संसाधनों की उपलब्धतता के आधार पर बुवाई की विधि अपनाना चाहिए।  सिंचाई की सुविधा होने पर नम विधि द्वारा बुवाई करना उत्तम रहता है। इसमें खेत को मचाकर अंकुरित बीजों की बुवाई की जाती है।   इस विधि के प्रयोग से फसल में 2-3 सप्ताह तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, साथ ही खरपतवार प्रकोप कम होता है।  धान की सीधी बुवाई करते समय बीज को 2-3  से.मी. गहराई पर ही बोना चाहिए ताकि जमाव एक अच्छा हो सके।  नमीं अधिक होने पर उथली व कम होने पर हल्की गहरी बुवाई करना चाहिए।  मशीन द्वारा सीधी बुवाई में कतार से कतार की दूरी 18-22  से.मी. तथा पौधे की दूरी 5-10 से.मी. होती है। छत्तीसगढ़ के किसानों में सीधी बुआई की धुरिया/खुर्रा बोनी प्रसिद्ध है। इस विधि में वर्षा आगमन से पूर्व खेत तैयार कर सूखे खेत में धान की बिजाई की जाती है।  अधिक उत्पादन के लिए इस विधि से बुआई खेत की अकरस जुताई करने के उपरान्त जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित बुआई यंत्र(नारी हल में पोरा लगाकर) अथवा ट्रेक्टर चलित सीड ड्रिल द्वारा कतारों में 20 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। 
छत्तीसगढ़ की परम्परागत विधि-ब्यासी
          छत्तीसगढ़ राज्य में धान की अधिकांश खेती (70-80% क्षेत्र) ब्यासी विधि से की जाती है। इसमें वर्षा आरम्भ होने पर खेत की जुताई कर छिटकवां विधि से बीज बोने के पश्चात् देशी हल या पाटा चलाकर बीज ढँक दिया जाता है। बुआई के 30-35 दिन बाद जब खेत में 15-20 सेमी.पानी भर जाता है तब खड़ी फसल में बैल चलित हल से बियासी कार्य किया जाता है। इस विधि में प्रति इकाई पौध संख्या कम होने से उपज कम प्राप्त होती है।  अधिक उपज प्राप्त करने के लिए उन्नत ब्यासी के तहत कतार विधि से धान की सीधी बुआई करने के पश्चात बुवाई के 30-35 दिन बाद खड़ी फसल में ब्यासी की जाती है जिससे खरपतवार नियंत्रण के साथ साथ भूमि की उर्वरा शक्ति और वायु आगमन में सुधार होने से अधिक उपज प्राप्त होती ।   
7. संतुलित उर्वरक प्रबंधन
          मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद एवं  उर्वरको का सनुलित मात्रा में  प्रयोग करना चाहिए। सामान्यतः सीधी बुवाई वाली धान में प्रति हेक्टेयर 120  कि.ग्रा. नत्रजन, 50-60 किलो फास्फोरस  और 40 किलो पोटाश  की जरूरत होती है। नत्रजन की आधी मात्रा के साथ फास्फोरस एवं  पोटाश की पूरी मात्रा  अर्थात 130 किग्रा डी ए पी, 80 किग्रा यूरिया एवं 67 किग्रा म्यूरेट ऑफ़ पोटाश का उपयोग बुवाई के समय करना चाहिए।  शेष  60 किग्रा नत्रजन अर्थात 130 किग्रा. यूरिया को दो बराबर भागों में बांटकर बुवाई के 25-30 दिन बाद तथा बाली निकलने के समय कतारों में देवें । इसके अलावा धान-गेंहू फसल चक्र में 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट का प्रयोग बुवाई के समय करना चाहिए।
नोट: ड्रिल मशीन में डी.ए.पी. एवं एन पी के उर्वरक का ही इस्तेमाल करना चाहिए. अन्य उर्वरक जैसे यूरिया एवं म्यूरेट ऑफ़ पोटाश के पिघलने से मशीन चोख हो साक्ति है।  अतः इनका उपयोग छिटकवां विधि से करना चाहिए। 
8. कुशल सिंचाई प्रबंधन
पहले यह धारणा थी कि धान के खेत में पानी भरा रहना चाहिए तभी अधिक पैदावार प्राप्त हो सकती है, लेकिन शोध परिणामों से ज्ञात होता है कि धान में आवश्यकता से अधिक पानी देने से कोई लाभी नहीं होता है । धान की सीधी बुवाई के समय खेत में उचित नमी होना जरूरी है.  सूखे खेत में बुवाई की स्थिति में बुवाई के बाद दुसरे दिन हल्की सिंचाई करना चाहिए। बुआई से प्रथम एक माह तक हल्की सिंचाई के द्वारा खेत में नमी बनाए रखना चाहिए। फसल में पुष्पन अवस्थ प्रारंभ होने से  25-30 दिन तक खेत में पर्याप्त नमी बनाए रखे। दाना बनने की अवस्था (लगभग एक सप्ताह में पानी की कमीं  खेत में नहीं होनी चाहिए। मुख्यतः कल्ला फूटने के समय, गभोट अवस्था और दाना बनने वाली अवस्थाओं में धान के खेत में पर्याप्त नमीं बनाए रखना आवश्यक है । कटाई से 15-20 दिन पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए जिससे फसल की कटाई सुगमता से हो सके। धान की सीढ़ी बुवाई करने पर लगभग 40-45 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है।
9. आवश्यक है खरपतवार नियंत्रण 
धान की सीधी बुवाई में खरपतवार  प्रकोप एक प्रमुख समस्या है। खरपतवार-फसल प्रतिस्पर्धा  के कारण धान उत्पादन में  30-80 प्रतिशत तक  गिरावट आ सकती है। समुचित खरपतवार प्रबंधन से हम धान की सीधी भवाई की उत्पादन लागत कम करते हुए अच्छी पैदावार ले सकते है। सीधी बुआई में प्रथम 2-4 सप्ताह तक खेत में खरपतवार रहित अवस्था प्रदान करना उचित पैदावार के लिए आवश्यक है।  धान की बुआई करने के बाद नम खेत में  पेंडीमेथिलिन 30 ई सी  (स्टॉम्प) की 3.25 लीटर मात्रा अथवा प्रेटीलाक्लोर 30.7 ई सी  (इरेज, सेफनर) 1.65 लीटर या ऑक्साडायरजिल 80 डब्ल्यू पी 112 ग्राम   प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के 2-3 दिन बाद (अंकुरण पूर्व) छिडकाव करना चाहिए।  इससे  प्रायः सभी प्रकार के खरपतवारों का अंकुरण रुक जाता है।  बुआई के 20-25 दिन बाद उगे हुए खरपतवारों के नियंत्रण हेतु  विसपायरीबैक सोडियम 10 एस एल (नामिनी गोल्ड) 250 मि.ली. या आलमिक्स २० प्रतिशत की २० ग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा 500-600 लीटर पानी में घोलकर  छिडकाव करने से चौड़ी पत्ती के साथ-साथ मोथा कुल के खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।  इसके बाद खरपतवार प्रकोप होने पर 1-2 निराई की जा सकती है। खेत मचाकर अंकुरित धान की बुवाई करने की स्थिति में एनीलोफास 30 प्रतिशत की 1.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के पांचवे-छठवें दिन छिड़काव करने से खरपतवारों का अंकुरण नहीं होता है।
धान की सीधी बुवाई तकनीक कैसे लाभकारी है ?
         भारत के सभी राज्यों में विशेषकर धान-गेंहूं फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में गिरते भूजल स्तर, मजदूरों की कमीं, जलवायु परिवर्तन और धान की खेती में बढ़ती लागत के कारण धान की सीधी बुवाई कारगर साबित हो रही है। सीधी बुवाई विधि से धान की खेती करने के प्रमुख लाभ निम्नानुसार है : 
(i) पानी की वचत:  धान की कुल सिंचाई की आवश्यकता का लगभग 20% पानी रोपाई हेतु खेत मचाने (लेव) में प्रयुक्त होता है। सीधी बुआई में   20 से 25 प्रतिशत पानी की बचत होती है क्योंकि इस इस विधि से धान की बुवाई करने पर खेत में लगातार पानी भरा रखने की आवश्यकता नही पड़ती है।
(ii) समय और श्रमिकों की वचत: सीधी बुआई करने से रोपाई की तुलना में  35-40  श्रमिक प्रति हेक्टेयर की वचत होती है। इस विधि में   समय की बचत भी  हो जाती है क्योंकि इस विधि में धान की पौध तैयार और रोपाई करने की जरूरत नहीं पड़ती है।
(iii) लागत कम  उपज बराबर : पौध शाला के लिए खेत तैयार कर क्यारी बनाना, उर्वरक और सिंचाई की व्यस्था करना, पौध उखाड़कर मुख्य खेत में रोपने हेतु मजदूरों पर होने वाला व्यय, खेत में मचाई करना आदि कार्यो में अधिक खर्च आता है । इस प्रकार सीधी बुआई में अनावश्यक खर्चो से बचा जा सकता है।  इस विधि से किसानों को प्रति हेक्टेयर  करीब दस  हजार रुपये की बचत हो सकती है । धान की उपज रोपण विधि के बराबर अथवा अधिक आती है।
(iv) पर्यावरण सुरक्षा: धान की रोपाई वाली खेती पर्यावरण के लिए भी संकट खड़ा करती जा रही है। रोपण विधि में धान के खेत में लगातार पानी भरा रहने से मिथेन गैस का उत्सर्जन होता है, जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है। ऐसे में पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से भी किसानों को धान की रोपाई छोड़कर सीधी बुआई विधि  को अपनाने की जरूरत है।  
(v) भूमि की भौतिक दशा : धान की खेती रोपाई विधि से करने पर खेत की मचाई (लेव)  करने की जरूरत पड़ती है जिससे भूमि के भौतिक गुणों जैसे मिट्टी की संरचना, मिट्टी सघनता तथा अंदरूनी सतह में जल की पारगम्यता आदि को खराब कर देती है जिससे भविष्य में मिट्टी की उपजाऊ क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
(vi) शीघ्र फसल परिपक्वता: रोपित धान की अपेक्षा सीधी बुआई वाली फसल  7-10 दिन पहले पक जाती है, जिससे रबी फसलों की समय पर बुआई की जा सकती है।
                    अतः हम कह सकते है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की अनिश्चितता, मानसून में देरी और रोपण विधि से धान की खेती में बढ़ती लागत को ध्यान में रखते हुए अब किसान भाइयों को धान की खेती सीधी बिजाई विधि से करना चाहिए। इससे अगली फसल की बुवाई के लिए पर्याप्त समय मिलने के साथ-साथ मजदूरों के खर्च में कमीं, जल उपयोग में मितव्यतता, जमीन की उर्वरा शक्ति के सरंक्षण, पर्यावरण सरंक्षण में मदद मिलने के साथ-साथ भरपूर उत्पादन भी प्राप्त होगा।
  
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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

धान संग मछली पालन: रोजगार और आमदनी का उत्तम साधन


  धान संग मछली पालन: रोजगार और आमदनी का उत्तम साधन
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
धान छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल है जिसकी खेती 68 प्रतिशत कृषि भूमि पर की जाती है और यहाँ की बहुसंख्यक आबादी का चावल ही मुख्य भोजन है। इसलिए प्रदेश को  धान के कटोरा के नाम से संबोधित किया जाता है। प्रदेश में धान की खेती  खरीफ में 3745 हजार हेक्टेयर तथा तथा रबी में 196 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 22 से 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के औसत मान से उत्पादन लिया जा रहा है, जो की धान की राष्ट्रिय औसत उपज से भी कम है. प्रदेश के 32.55 लाख कृषक परिवारों में से 76 प्रतिशत लघु एवं सीमांत श्रेणी में आते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। धान फसल की कटाई के बाद अधिकांश किसान या तो बेरोजगार रहते है अथवा रोजी रोटी की तलाश में अन्यंत्र पलायन कर जाते है।  प्रदेश में औसतन 1200 से 1400 मि.मी.वार्षिक वर्षा होती है। प्रदेश के किसानों को धान की खेती के साथ मछली पालन के लिए प्रेरित किया जाए तो निश्चित ही सीमान्त और लघु किसानों की रोजी रोटी का पुख्ता इंतजाम हो सकता है।  धान संग मछली की  एकीकृत खेती  किसानों को धान की मुख्य फसल  के साथ मछली उत्पादन अतिरिक्त कमाई का मौका देती है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा की बहरा जमीनों तथा नहरी क्षेत्रों के आस-पास धान संग मछली उत्पादन की समन्वित प्रणाली के तहत धान की दो फसलें (खरीफ एवं रबी में) एवं साल में मछली की एक फसल आसानी से ली जा सकती हैं। धान सह मछली पालन का चुनाव करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए कि भूमि में अधिक से अधिक पानी रोकने की क्षमता होनी चाहिए जो इस क्षेत्र में कन्हार मढ़ासी एवं डोरसा मिट्टी में पाई जाती है। खेत में पानी के आवागमन की उचित व्यवस्था मछली पालन हेतु अति आवश्यक है। सिंचाई के साधन मौजूद होने चाहिए व औसत वर्षा 800 किलोमीटर से अधिक होनी चाहिए। इस प्रकार की खेती सीमान्त एवं लघु किसानों की आर्थिक उन्नति और प्रगति  में विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध हो सकती है ।
धान संग मछली पालन की समन्वित खेती फोटो साभार गूगल
धान संग मछली पालन के फायदे
  • तालाब या झीलों में मछली पालन की अपेक्षा धान के खेत में मछली उत्पादन अधिक होता है, धान के खेतों में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े-मकोड़ों को खाती है जिससे धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
  • धान सह मछली की समन्वित खेती में जल और जमीन का किफायती उपयोग हो जाता है।  इसमें  किसान मुख्य फसल की उपज को प्रभावित किये बिना मछली उत्पादन से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकते  है ।
  • किसानों को लम्बे समय तक रोजगार एवं अधिक आमदनी प्राप्त होती है।
  • मछलियां कीटों, खरपतवारों और बीमारियों को कम करके धान की फसल को फायदा पहुंचाती हैं। धान फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े को  मछलियाँ खा लेती है ।
  • मछलियों के उत्सर्जी पदार्थ धान के लिए खाद व उर्वरक का काम करते हैं।
  • धान सह मछली  प्रणाली में  धान फसल  की कम पैदावार की मछलियों से पूर्ति हो जाती है ।
  • धान सह मछली की खेती  धान  की उपज को बढ़ाती है क्योंकि धान के खेतों में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े-मकोड़ों को खाती है जिससे धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
            धान संग मछली पालन में सबसे बड़ी समस्या मछलियों की चोरी तथा कीट भच्छी/शिकारी पछियों यथा बगुला, कौआ आदि से मछलियों का भच्छण, अतः मछलियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक इंतजाम कर लेना आवश्यक है।
धान के खेतों में जलीय खरपतवारों के नियंत्रण में शाकाहारी मछलियाँ जैसे तिलापिया प्रजातियाँ, पुन्टियस जावानिकस,ट्राईकोगैस्टर पैक्टोरैलिस आदि कारगर साबित हुई है।  धान की फसल को स्नैल तथा केकड़े भी काफी नुकसान पहुंचाते है । इनके नियंत्रण के लिए मोलासका भक्षी मछलियाँ जैसे पंगेसियस, हैप्लोक्रोमिस मिलैंडी का संचय करना चाहिए। धान के खेत में मछली पालन मुख्यतः तीन प्रकार से किया जा सकता है।
1.   धान की फसल काटने के बाद खेत में पुनः पानी भरकर मछली पालन किया जा सकता है। यह पद्धति सिंचित क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है ।
2.   दूसरी विधि में मछली और धान को साथ-साथ बढ़ाते है तथा धान की कटाई के समय मछली को भी निकाल लेते है। यह पद्धति जल भराऊ वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
3.   तीसरी विधि में लम्बे समय तक जल की उपलब्धतता वाले क्षेत्रों में दीर्धकालीन मछली पालन (खरीफ एवं रबी में) किया जा सकता है । इसमें धान काटने के बाद मछली खेत में पहले से ही बने हुए गहरे भाग (खाई)  में चली जाती है, जहाँ पानी हमेशा बना रहता है । इस भाग में फिर से मत्स्य बीज संचय कर देते है। इस विधि में  धान एवं मछली उत्पादन अधिक होता है ।
  धान खेती सह मत्स्य पालन में धान मुख्य फसल होती है, इसलिए मत्स्य पालन तकनीकी में बदलाव किया जा सकता है । इसमें मछलियों को रोकने के लिए खेत की मेंड़ों को ऊंचा भी करना पड़ सकता है । धान की फसल में कीट-रोग-खरपतवार नाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना है अन्यथा मछलियाँ मर सकती है ।  धान उत्पादन सह मत्स्य पालन तकनीकी क्षेत्र, मौसम, मत्स्य प्रजातियाँ, धान की किस्में, धान उत्पादन की विधियाँ आदि पर निर्भर करती है । कुछ स्थानों पर धान के खेत में मछलियों का संचय नहीं किया जाता है बल्कि जंगली/देशी मछलियों का ही पालन किया जाता है । मछली पालन किये जाने वाले धान के खेतों का प्रबंधन तालाब की तरह करना चाहिए तथा पानी का स्तर थोडा कम ही रखना चाहिए नहीं तो धान की फसल को क्षति हो सकती है । यदि इस क्षेत्र में लगातार पानी आता रहे और निकलता रहे तो सर्वोत्तम है ।
मछली एवं धान की प्रजातियाँ   
धान की खेती संग मछली पालन हेतु धान की लम्बी किस्मों या गहरे जल वाली किस्मों को लगाना चाहिए। छत्तीसगढ़ के लिए धान की जलदुबी नमक किस्म उपयुक्त रहती है. इस पद्धति में वहीं मछलियाँ अच्छी होती है जो कम घुलित ऑक्सीजन में भी जीवित रह सकें, उनकी वृद्धि तेज हो तथा  मैले जल में रह सकें आदि । मछली की ऐसी प्रजाति जो कम जल स्तर (16 सेमी से भी कम पानी) में रह सके और अधिक तापमान (38 डिग्री सेंटीग्रेड तक) को बर्दाश्त कर सके, उत्तम रहती है। इन मछलियों में तिलापिया, मांगुर आदि प्रमुख है । इनके अलावा सामान्य कार्प या मृगल, कतला और रोहू प्रजातियों  तथा झींगा को भी पाला जा सकता है । छत्तीसगढ़ की जलवायु में धान के खेतों में मोंगरी मछली स्वतः पैदा हो जाती है परन्तु धीरे-धीरे यह मछली विलुप्त होती जा रही है।
धान संग मछली उत्पादन ऐसे करें
धान की बुआई/रोपाई हेतु  जून-जुलाई में खेत तैयार किया जाता है तथा मछलियों के लिए खेत के निचले हिस्से में 0.5 मीटर गहरी  और कम से कम एक मीटर चौड़ी खाई बनाई जाना चाहिए, जिससे इनमे पर्याप्त पानी भरा रहे । धान  की अच्छी पैदावार के लिए इस बात को सुनिश्चित करें कि गहरी खाइयां धान के क्षेत्र से 10 फीसदी से ज्यादा ना हो। मछली के संचयन के बाद खेत में  10 से 15 सेमी पानी की गहराई सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि मछली के जीवन को पक्का किया जा सके। वर्षा के दौरान खेत की ऊपरी सतह एवं खाई में पानी भर जाने पर धान की रोपाई कर देना चाहिए। रोपाई के पूर्व  गोबर की खाद या कम्पोस्ट को प्रति हेक्टेयर 8-10  टन की दर से मिटटी में मिला देना चाहिए । ऊर्वरक के तौर पर प्रति हेक्टेयर 80 किलो नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस  और 30 किलो पोटैशियम देना चाहिए । इन ऊर्वरकों (नाइट्रोजन और पोटैशियम) को अलग-अलग चरणों जैसे कि पौधारोपन, जुताई और फूल आने के वक्त इस्तेमाल करना चाहिए।रोपाई के 8-10 दिन बाद एक से.मी. आकार की फ्राय या फिंगरलिंग्स (मछली का बच्चा) 2500-3000 प्रति हेक्टेयर की दर से संचित कर लेते है ।मछलियों की उचित वृद्धि के लिए उन्हें कृत्रिम आहार भी उपलब्ध करना आवश्यक है । मछली पालन के दौरान खेत में  7 से 18 से.मी.  जल स्तर बनाए रखना चाहिए। प्रतिदिन फिश बायोमास की 5 फीसदी मात्रा  मछलियों को अनुपूरक भोजन के तौर पर दिया जा सकता है। इस भोजन में सोयाबीन आटा (10 फीसदी), गेंहू आटा (20 फीसदी) और चावल की भूसी (70 फीसदी) से मिलाकर बनाया जा सकता है। मछलियों को यह अतिरिक्त भोजन देने से उनकी बढ़वार और पैदावार अच्छी होती है ।  
फसल की कटाई एवं मछलियों की निकासी
सामान्यतौर पर नवम्बर-दिसंबर तक धान की फसल तैयार हो जाती है । धान की परिपक्व फसल की कटाई थोडा ऊपर से की जाती है, जिससे निचला भाग जल में सड़कर मृदा एवं जल की उर्वरता को बढ़ाता रहें तथा मछलियों के लिए जल में प्राकृतिक भोजन बनता रहे।  आमतौर पर मछली के विकास करने या बढ़ने की अवधि 70 से 100 दिन के बीच होती है।  धान की कटाई से एक सप्ताह पहले मछली को जाल चलाकर निकाल लेना चाहिए। बांकी मछलियाँ खेत में पर्याप्त जल वाली गहरी खाई में चली जाती है। इसके बाद खेत में धान की दूसरी फसल बोई जा सकती है जो कि मार्च-अप्रैल तक तैयार हो जाती है। धान की फसल कटाई पश्चात खाइयों की मछलियों को निकाल कर बेच दिया जाता है तथा खेत को सुखा दिया जाता है।  धान संग मछली पालन की समन्वित खेती को अगले वर्ष भी जारी रखा जा सकता है।
उपज एवं आमदनी
उपयुक्त मौसम तथा सही प्रबंधन से धान संग मछली पालन से वर्ष में धान की दो फसलों से 60-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  धान की उपज  के साथ-साथ मछली की एक फसल (1000-1500 किग्रा./हेक्टेयर) प्राप्त की जा सकती है । इस पद्धति में यदि धान की उपज 60 क्विंटल तथा मछली की उपज 1000 किलो मान ली जाये तो इन्हें बेचने पर धान से 150000 रूपये तथा मछली बेच कर (100 रूपये प्रति किलो भाव)  100,000 रूपये यानि कुल 2,50,000 रूपये प्राप्त होते है जिसमे धान संग मछली उत्पादन लागत 50000 को घटाकर किसान को आसानी से दो लाख का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है। धान संग मछली पालन पद्धति में मछलियों की चोरी तथा परभच्छी पक्षियों से सुरक्षा के उपाय अवश्य करें।

कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लॉग की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।